Thursday, December 31, 2009

लोकतंत्र की परिपक्वता की मिसाल रहेगा बीता साल

इंडिया गेट से
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लोकतंत्र की परिपक्वता की
मिसाल रहेगा बीता साल
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 संतोष कुमार
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     समय और लहरें किसी का इंतजार नहीं करतीं। सो 2009 आया और नौ-दो-ग्यारह हो गया। अब समय का चक्र 2010 में। सो नूतन वर्ष की आपको शुभकामना। पर बीता साल रोजमर्रा की जिंदगी में ग्रहण लगाता रहा। अबके नए साल की शुरुआत ही चंद्र ग्रहण से। चांद पर यों दाग बहुतेरे। सो विज्ञान के दौर में शुभ-अशुभ के फेर में पड़ हम-आप क्यों वक्त गंवाएं। अब चंद्र ग्रहण लगे या सूर्य ग्रहण, कोई फर्क नहीं पड़ता। बीते साल अपना चंद्रयान चांद पर पहुंच गया। तो ऐसा रहस्योद्घाटन। दुनिया ताकती रह गई। भले अपना चंद्रयान नाकाम हो गया। पर नाकामी से भी भारत ने नई इबारत लिख दी। चांद पर पानी की खोज करने वाला देश बन गया भारत। पर अमेरिका की नासा को लगा, बादशाहत टूट रही। तो चांद पर और धब्बा लगाने क्रेटर भेज दिया। क्रेटर ने चांद पर जोरदार टक्कर मारी। ताकि पानी की थाह विस्तार से लगा सके। वैसे भी अमेरिका अब जुगाड़ में माहिर हो चुका। तभी तो 2009 में ही बराक ओबामा पहले अश्वेत राष्टï्रपति बने। उसी साल शांति का नोबल भी मिल गया। शायद यही कमाल की बात रही। सो जहां 2008 में भारत औसतन हर महीने आतंकी हमले का शिकार रहा। वहां 2009 में कोई हमला नहीं। अपने होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने क्रेडिट किस्मत को दिया, खुफिया विभाग को नहीं। सो किस्मत की चाबी किसके हाथ, आप खुद समझ लो। पर आतंकी हमले न सही, नक्सलियों ने नाक में दम कर दिया। पुलिस बल की नाक में घुसकर बाल नोंच डाले। लालगढ़ से लेकर राजधानी एक्सप्रेस नक्सली कब्जे में गया। अब चिदंबरम नक्सलियों से निपटने में दो-तीन साल का वक्त लगने की बात कर रहे। सो सिर्फ साल बीता, संकट नहीं। चुनौतियां 2010 में भी मुंह बाए खड़ीं। बीते साल देश की गरीबी पर अंग्रेज डायरेक्टर ने 'स्लमडॉग मिलेनियर'  फिल्म बनाई। तो ऑस्कर मिल गया। ऑस्कर से सबसे ज्यादा खुशी कांग्रेस को हुई। फिल्म के गाने का पेटेंट करा लिया। पर गरीबी के प्रदर्शन पर काहे की खुशी। सो जब मनमोहन दुबारा सत्ता में लौटे। तो राष्टï्रपति अभिभाषण में वादा किया। पांच साल में देश स्लम मुक्त होगा। पर गाड़ी कितनी आगे बढ़ी, अपने को मालूम नहीं। अकेले मुंबई की 54 फीसदी आबादी झुग्गियों में रहती। गरीबी के मामले में भी देश पीछे नहीं। सो कहीं पांच साल बाद मनमोहन यही वादा न दोहरा दें। महंगाई और मंदी पर तो यही हुआ। महंगाई बढ़ती रही, मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेक और अब प्रणव दिलासा देते रहे। विदा लेते साल में खाद्य वस्तुओं की महंगाई दर 20 फीसदी तक पहुंच गई। भले जनता ने समस्या देने वाली कांग्रेस पर ही एतबार किया। पर शेक्सपीयर ने कहा था- 'जिसने एक बार धोखा दे दिया हो, उसका विश्वास नहीं करना चाहिए।'  फिर भी जनता ने मनमोहन पर भरोसा जताया। तो अबके हिसाब-किताब चाहिए। पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया अब महंगाई शब्द सुनकर ही कुर्सी से खड़े हो जाते। अब मोंटेक कुर्सी से खड़े हों या बैठे रहें। पर आम आदमी की तो खाट खड़ी हो चुकी। सो अब कांग्रेस और सरकार के पास कोई बहानेबाजी नहीं। जनता एक सीमा तक ही धैर्य रख सकती। जिसकी मिसाल 26/11 के हमले के बाद राजनेताओं को मिल चुकी। वाकई 2009 अपने लोकतंत्र की परिपक्वता का साल रहा। जनता ने तमाम रणनीतिकारों और क्षत्रपों को ऐसी धूल चटाई। लालू-पासवान-मुलायम-माया-चंद्रबाबू-जयललिता-कारत-वर्धन-देवगौड़ा जैसे क्षत्रप घर-घर जाकर पानी मांग रहे। मार्च 2009 तक जिन लेफ्टियों-लालुओं को महंगाई नहीं दिखती थी। अब महंगाई पर आंदोलन कर रहे। क्षेत्रीय ताकतें कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ से इस कदर सहमीं। सबको जमीन दिखने लगी। सो 2009 में जनता ने कमाल दिखाया। तो दिग्गज अब जमीन पर जड़ें जमाने में जुटे। इसी साल अक्टूबर में बिहार के चुनाव। फिर कई और चुनाव आएंगे। सो क्षेत्रीय दल फिर पैर जमाने में लग गए। यानी 2009 समूची राजनीति के लिए सबक। भले जनता बीती ताहि बिसार देगी। पर आगे की सुध नहीं ली। तो जनता की लाठी में आवाज नहीं, सिर्फ चोट होती। अगर चोट का असली दर्द पूछना हो। तो बीजेपी से पूछ लो। सो 2010 में बीजेपी नई शुरुआत की सोच रही। नितिन गडकरी ने फिल्मी गीत गुनगुना दिया- 'छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी।'  पर बीजेपी को सिर्फ संगठन की फिक्र। सरकार के सामने 2010 में कई बड़ी चुनौतियां। महंगाई पर नकेल हो। तेलंगाना की सुलगी आग पर पानी डालना। संसद पर हमले का दोषी अफजल तिहाड़ में। मुंबई हमले का एकमात्र जिंदा आतंकी कसाब पर फैसला आना बाकी। सो सरकार को आतंकवाद पर वोट की फिक्र किए बिना मजबूत जिगरा दिखाना होगा। बीते साल में महिला बिल पर स्टेंडिंग कमेटी की रपट आ चुकी। सो 2010 में बिल पारित कराने की चुनौती। पर सबसे अहम, देश की साख बचाना। जो नेतागिरी के जाल में उलझ चुकी। जी हां, बात कॉमन वैल्थ गेम्स की। जिसकी तैयारी पर 2009 में खूब सवाल उठे। नए साल के आखिरी महीनों में खेल होना। पर कहीं ऐसा न हो, अपने राजनेता देश की साख को भी 'खेल'  बना दें। जैसे 2009 के आखिर में क्रिकेट के कोटला मैदान ने कलंकित किया। पर नया साल है। तो सोच पुरानी क्यों रहे। सो 2010 में उम्मीद यही। व्यवस्था की जड़ों में पहुंचे खाद-पानी। तो कम हो आम आदमी की समस्या। पर कहीं ऐसा न हो, नए साल की उमंग मौसम के करबट लेते ही हवा हो जाए।
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31/12/2009

Wednesday, December 30, 2009

तो साल 2009: कांग्रेस ने सिर्फ दर्द दिया, दवा नहीं

इंडिया गेट से
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तो साल 2009: कांग्रेस ने
सिर्फ दर्द दिया, दवा नहीं
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 संतोष कुमार
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       तो सफरनामा- 2009 में आज बात कांग्रेस की। शुरुआती दिन 26/11 की कालिमा में ही गुजरे। पर अरसे बाद देश में जागरूकता दिखी। जब जनता ने आतंकवाद को राजनीतिक मुद्दा नहीं बनने दिया। अलबत्ता ऐसी लहर चली। कांग्रेस हो या बीजेपी, मुंह छुपाती दिखीं। पर सेमीफाइनल में बीजेपी का राजस्थान किला ढहना। कांग्रेस की उम्मीद बढ़ा गया। सो आतंकवाद के मसले पर स्ट्रेटजिक बैटिंग की। पाक से युद्ध जैसा माहौल बना वैश्विक कूटनीति पर फोकस किया। ताकि चुनावी जीत का आधार बुना जा सके। सो राजस्थान की जीत का क्रेडिट राहुल गांधी को गया। तो फोटोजनिक फेस वाले राहुल पर भी धुन सवार हुई। सो फौरन कांग्रेस का चापलूस तंत्र एक्टिव हो गया। मनमोहन 2009 की शुरुआत में ही अस्वस्थ हो गए। गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल न हो सके। सोनिया ने मनमोहन का आधा काम प्रणव दा को दिया। तो आधा ए.के. एंटनी को। गणतंत्र दिवस से दो दिन पहले एम्स में मनमोहन की हर्ट सर्जरी हुई। लगा, मनमोहन की पारी खत्म। सो राहुल बाबा को साउथ ब्लॉक भेजने की मांग शुरू हो गई। पर सोनिया गांधी ने चतुराई दिखाई। मैनीफेस्टो एलान के दिन 24 मार्च को मनमोहन को ही पीएम प्रोजैक्ट कर दिया। गांधी-नेहरू खानदान से इतर पहली बार कांग्रेस ने पीएम प्रोजैक्ट किया। सो मनमोहन के हौसले भी बुलंद। पर सोनिया ने राहुल को प्रोजैक्ट न कर 2014 की नींव रखी। सो 2009 का चुनाव लैब टेस्ट के आधार पर हुआ। राहुल ने शॉर्ट टर्म और लाँग टर्म स्ट्रेटजी बनाई। कांग्रेस ने यूपीए का नेशनल अलायंस नहीं बनाया। अलबत्ता राज्यों में तालमेल का फार्मूला रखा। तो लालू-पासवान तमतमा उठे। सो यूपीए बिखरने लगा। राहुल ने भी एकला मोर्चा संभाला। तो वोटरों में नई उम्मीद जगी। राहुल का दलितों के घर जाना तो विरोधियों को आज भी चुभ रहा। पर राहुल की मंजिल तय। सो राहुल तैयार स्क्रिप्ट से आगे बढ़ रहे। तभी तो कांग्रेस के युवा नेतृत्व में वंशवाद की झलक। पर राहुल का चेहरा सुर्खियां दिलाने लगा। तो कांग्रेस समस्याओं का चोला फेंक इतिहास से उपलब्धियों का झोला ले आई। आम चुनाव के लिए 'जय होÓ की धुन एक करोड़ में खरीद ली। भले खुद को गांधी की कांग्रेस बताने वाली मौजूदा कांग्रेस बापू के चश्मा, घड़ी, खड़ाऊं, चम्मच आदि नीलामी में खरीद नहीं पाई। वह तो शराब किंग विजय माल्या को थेंक्स। जिन ने भले शराब के पैसे से, पर बापू की अमानत तो बचा ली। पर कांग्रेस ने 'जय हो' गीत से फील गुड का अहसास कराया। यों कांग्रेसी रणनीतिकारों को बात जल्द समझ आ गई। महंगाई और मंदी बेलगाम घोड़े की तरह बढ़ती गई। तो कांग्रेस ने 'जय हो'  की पैरोडी वापस ले ली। फिर चुनावी समर के बीच जूता प्रकरण। सिख विरोधी दंगों के आरोपियों सज्जन, टाइटलर को टिकट मिला। तो सिख समुदाय का घाव हरा हो गया। ऊपर से मनमोहन की मातहत सीबीआई ने कोर्ट में केस बंद करने की रपट दे दी। सो सरकार की लीपापोती देख जरनैल सिंह का पत्रकार मन मजहबी हो गया। भले नैतिक रूप से जरनैल का पी. चिदंबरम पर जूता फेंकना गलत। पर एक समाज का दर्द था। सो सात अप्रैल को जूता उछला। दो दिन के भीतर सज्जन, टाइटलर का टिकट कट गया। पर सीबीआई के बेजा इस्तेमाल की कहानी सिर्फ यही नहीं। बोफोर्स दलाली का मामला भी सीबीआई ने बंद करने की ठानी। क्वात्रोची को क्लीन चिट देने की रपट कोर्ट में। भले बवाल मचा। पर कांग्रेस ने राजनीति की ठसक नहीं छोड़ी। चुनाव आयुक्त नवीन चावला को हटाने की सिफारिश गोपाल स्वामी ने की। पर कांग्रेस ने चावला को हटाना तो दूर, सीईसी बना दिया। फिर भी विपक्ष लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचा सका। अलबत्ता बीजेपी आपस में इस कदर लड़ी-मरी। जनता का भरोसा सत्ता से ज्यादा विपक्ष से उठ गया। सो महंगाई, महामंदी जैसी विकराल समस्या के बावजूद कांग्रेस जीती। तो सत्ता के नशे में मगरूर। जनता का दुख-दर्द भुला दिया। सो हर जीत के साथ जनता की जेब पर डाका। आम चुनाव के बाद मीरा कुमार को पहली महिला स्पीकर बनाना। फिर सौ दिनी योजना की होड़ में बंटाधार की नीति। सो मनमोहन के सौ दिन छोडि़ए, 222 दिन बीत गए। पर महंगाई न थमी, न थमने वाली। सो सत्ता के नशे में चूर कांग्रेस ने पहले सत्र में ही कई गलतियां कीं। शर्म-अल-शेख का साझा बयान। सी.पी. जोशी का सदन में फंसना। जजों की संपत्ति वाला बिल वापस लेने की नौबत। स्वाइन फ्लू की मार और सरकार की नाकामी। पर जब जनता की समस्या कांग्रेस के बूते से बाहर हो गई। तो ध्यान बंटाने को सादगी का खेल। कैसे मनमोहन के मंत्री कृष्णा, थरूर का फाइव स्टार में मौज उड़ाना। राहुल का ट्रेन से जाना। सोनिया का 'कैटल क्लास'  में सफर। चीन की धौंस-पट्टïी पर मनमोहन का गांधारी बनना। आतंकी डेविड हैडली के मामले में अमेरिका का दोगलापन। पर मनमोहन अभी भी अमेरिका के बेस्ट स्टूडेंट बनने में लगे। अब साल के अंत में एन.डी. तिवारी का सेक्स स्कैंडल वाला दाग। लिब्राहन और रंगनाथ मिश्र रपट की आंच तो बाद में। तेलंगाना की आग बुझ नहीं रही। आंध्र में वाई.एस.आर. की हादसे में मौत से कांग्रेस को भारी क्षति। सो अब आंध्र संभाले न संभल रहा। चिदंबरम ने अगले साल पांच जनवरी को फिर मीटिंग बुला ली। सो अब कोई पूछे, कहां है करिश्माई चेहरा? यानी कुल मिलाकर 2009 में कांग्रेस की नहीं, परिस्थितियों की जीत हुई। तीसरे मोर्चे ने आधार खोया। बीजेपी खुद में उलझी। सो मजबूर जनता ने कांग्रेस से ही अर्जी लगाई- 'तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना।'
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30/12/2009

Tuesday, December 29, 2009

तो साल 2009, बीजेपी में जो हारा, वही सिकंदर

इंडिया गेट से
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तो साल 2009, बीजेपी में
जो हारा, वही सिकंदर
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 संतोष कुमार
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        तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार। पर न कोई हजार साल जी सकता। न साल के दिन पचास हजार हो सकते। सो 365 दिन बाद 2009 भी विदा ले रहा। अब महज कुछ घंटों का इंतजार, फिर 2010 का स्वागत। सो आखिरी दिन में लेखाजोखा भी जरूरी। तो आज शुरुआत बीजेपी के सफरनामे से। साल 2008 का अंत न देश के लिए शुभ रहा, न बीजेपी के लिए। देश ने 26/11 का दंश झेला। तो बीजेपी सेमीफाइनल में कांग्रेस से पिछड़ गई। राजस्थान का मजबूत किला ढह गया। तो हंगामे का आगाज भी वहीं से हुआ। यों शेखावत को चुनाव लडऩा नहीं था। पर वसुंधरा से नाराज बाबोसा ने पासा फेंका। सो समूची बीजेपी हिल गई। राजनाथ सिंह को मैदान में उतरना पड़ा। तो उन ने लोक-लिहाज नहीं किया। अलबत्ता शेखावत को गंगा स्नान के बाद कुंए में न नहाने की सलाह दी। अब जब रात हो इतनी मतवाली। तो सुबह का आलम क्या होगा। यह तो बीजेपी से पूछिए। शुरुआत पुरोधा ने की। तो बाकी कहां पीछे रहते। बीस जनवरी को कल्याण सिंह ने बीजेपी छोड़ दी। लोकसभा का चुनावी समर शुरू हुआ। तो आडवाणी खुद को भावी पीएम कम, मौजूदा पीएम की तरह व्यवहार करने लगे। हर अहम मसले पर विशेषज्ञों की मीटिंग। फिर नई कार्ययोजना का एलान। सो इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का जमावड़ा हो गया। आडवाणी जमीनी हकीकत भांप नहीं पाए। समर में कांग्रेस से मुकाबला तो बाद में। पर पहले बीजेपी ने आपस में नेट प्रेक्टिस की। जेतली, वेंकैया में पोल मैनेजर बनने की होड़। बीजेपी में जूरासिक पार्क जैसा माहौल था। नागपुर में ही राजनाथ ने भी हिंदुत्व एक्सप्रेस दौड़ाई। पर दिल्ली आते ही जैसे बीजेपी का ब्रेक डाउन हो गया। राजनाथ की सत्ता को पोल मैनेजर अरुण जेतली की चुनौती मिल गई। एक-दो दिन नहीं, पूरे बारह दिन ड्रामा चला। जेतली ने राजनाथ की रहनुमाई वाली सीईसी का बॉयकॉट किया। मुद्दा सिर्फ इतना था, राजनाथ ने सुधांशु मित्तल को पूर्वोत्तर का इंचार्ज बनाया था। आडवाणी भी जेतली को मना नहीं पाए। पूरे चुनाव के टिकट बंट गए। पर जेतली-राजनाथ की रार ठनी रही। यों अरुण का संकट सुलझा भी नहीं था। तभी गांधी-नेहरू खानदान के भाजपाई वारिस वरुण गांधी का भड़काऊ भाषण आ गया। बीजेपी ने वरुण का जमकर बचाव किया। पर आखिर में फोरेंसिक लैब ने पुष्टिï कर दी। भड़काऊ बयान वरुण का ही। सो बीजेपी अपने किए पर औंधे मुंह गिरी। लगा, जैसे वक्त भी बीजेपी का साथ देने को तैयार नहीं। चुनावी समर में ही उड़ीसा में नवीन पटनायक से गठजोड़ टूटा। कंधार प्रकरण पर बीजेपी बचाव में ही उलझी रही। ऐसा लगा, मानो कंधार एपीसोड बीजेपी का। आडवाणी कहीं भी साझीदार नहीं। सो चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे। आडवाणी का सपना चूर हो गया। तो पद छोडऩे की पेशकश की। पर हाई वोल्टेज ड्रामे के बाद फिर खिवैया बन गए। फिर हार पर बीजेपी में जो आपसी मर्दन हुआ। किसी से छुपा नहीं। जसवंतनामा, यशवंतनामा, शौरीनामा सब में एक ही आवाज। हराने वाले को इनाम क्यों? निशाने पर जेतली ही, जिन्हें आडवाणी ने राज्यसभा में नेता बना दिया। पर आडवाणी के इर्द-गिर्द चौकड़ी में शामिल सुधींद्र कुलकर्णी, स्वप्रदास गुप्त जैसे लोग चुनाव से पहले सलाहकार थे। बीजेपी हार गई, तो पत्रकार बनकर खाल खींचने लगे। फिर शिमला चिंतन बैठक। जसवंत के जिन्ना प्रेम पर बर्खास्तगी। हार का मंथन हुआ। तो घाव केंद्र में था, ऑपरेशन राज्यों का कर दिया। यशवंत ने कामराज फार्मूले की मांग की। पर कुर्सी कौन छोड़ रहा। बीजेपी के कर्ता-धर्ता इसी में खुश। भले खुद न जीते, पर लेफ्ट तो हार गया। उत्तराखंड से बी.सी. खंडूरी की विदाई। राजस्थान में ओम प्रकाश माथुर का इस्तीफा। फिर कई राज्यों के क्षत्रप बदल दिए। पर वसुंधरा की बारी आई। तो अगस्त से अक्टूबर तक जो हुआ। बीजेपी नहीं भुला सकती। सो शिमला चिंतन में बीजेपी की चिंता कम, चिता ज्यादा दिखी। अरुण शौरी का राजनाथ को हंप्टी-डंप्टी कहना। बीजेपी में नेतृत्व परिवर्तन पर संघ के मुखिया मोहन भागवत का डी-4 फार्मूला। मनोहर पारिकर का आडवाणी को सड़ा अचार कहना। वसुंधरा प्रकरण पर पार्लियामेंट्री बोर्ड में आडवाणी-राजनाथ का टकराना। कर्नाटक में रेड्डïी बंधु के दबाव में बीजेपी का येदुरप्पा को झुकाना। महाराष्टï्र चुनाव में भी नितिन गडकरी की रहनुमाई वाली बीजेपी की लुटिया डूबना। सो कुल मिलाकर सुर्खियों में बीजेपी रही। पर सिर्फ नकारात्मक खबरों से। आखिर में हार का यही मंथन। जिन-जिन ने रणनीति बनाई। सबका प्रमोशन हो गया। या यों कहें, सबने राज्यों पर ठीकरा फोड़ कुर्सी बांट लीं। आडवाणी भीष्म हो गए। जेतली, सुषमा को भी बड़ा पद। गडकरी तो चुनाव जीते और जिताए बिना ही राष्टï्रीय अध्यक्ष हो गए। राजस्थान का संगठन चुनाव वाला विवाद तो याद होगा। अब वहां भी सबको कुर्सी मिल गई। तो फिलहाल ऊं शांति। यानी 2009 में बीजेपी, जो हारा, वही सिकंदर। और अब साल के आखिर में नैतिकता की आहुति दे शिबू से हाथ मिला लिया। सो 2010 कैसा होगा, राम ही राखा। विपक्ष के तौर पर बीजेपी भरोसा खो चुकी। यह खुलासा खुद बीजेपी के सर्वेक्षण में हो चुका। चुनाव के वक्त जीवीएल नरसिंह राव का सर्वे आया। बानवै फीसदी लोगों ने महंगाई को बड़ा मुद्दा माना। पर चौंकाने वाली बात, समाधान करने वालों में 90 फीसदी लोगों ने मनमोहन को वोट दिए। महज सात फीसदी ने आडवाणी को। सो विपक्ष का भरोसा कितना, खत्म हो चुका। आप देख लो।
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29/12/2009

Monday, December 28, 2009

कैसे हो 'रिफॉर्म', जब चालू आहे चापलूसी

इंडिया गेट से
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कैसे हो 'रिफॉर्म', जब
चालू आहे चापलूसी
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 संतोष कुमार
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          अब पुलिस थाने में शिकायत ही एफआईआर। रुचिका गिरहोत्रा प्रकरण तूल पकड़ चुका। इंसाफ की जंग कोर्ट से बाहर सड़कों पर शुरु हुई। तो संवेदनशीलता दिखाने की होड़ मच गई। सो सोमवार को होम मिनिस्ट्री ने सभी स्टेट को सर्कुलर जारी कर दिया। थाने में की गई शिकायत को ही एफआईआर माना जाए। पर शिकायत यानी तहरीर भी कोई पुलिस वाला न ले। तो कौन क्या कर लेगा। जब देश में पीएम की चि_ïी का सीएम पर कोई असर नहीं पड़ता। तो आम आदमी की राठौर जैसे पुलिसिए के सामने क्या बिसात। अब बीजेपी नेता शांताकुमार ने खुलासा किया। रुचिका केस को सुन तबके पीएम वाजपेयी रो पड़े थे। उनने हरियाणा के सीएम ओमप्रकाश चौटाला को कड़ी चि_ïी लिखी थी। तो खुद चौटाला-भजनलाल अपनी तरफ से कड़े कदम उठाने की दलील दे रहे। पर क्या देश की व्यवस्था इतनी नाकारी हो चुकी। जो पीएम-सीएम सबकी पहल के बाद भी रुचिका को इंसाफ मिलने में 19 साल लग गए? यों अभी भी रुचिका को अधूरा इंसाफ मिला। अधेड़ उम्र के राठौर ने 14 साल की लड़की से जबर्दस्ती करनी चाही। आखिर उस लड़की को सुसाइड करना पड़ा। फिर भी केस इतना कमजोर बनाया गया। राठौर को महज छह महीने की सजा मिली। सो तहरीर को एफआईआर बनाने से क्या होगा। जब तक पुलिस तंत्र न बदले। रुचिका केस में तो यही हुआ। रुचिका केस में दोषी हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर तब आईजी थे। सो महीने-साल नहीं, अलबत्ता पूरे नौ साल तक एफआईआर दर्ज नहीं हुई। उल्टा रुचिका के परिवार को प्रताडऩा सहनी पड़ी। पुलिस ने ही झूठे केस में फंसा परिवार को हरियाणा छोडऩे को मजबूर कर दिया। सो सिर्फ सर्कुलर जारी होने से समस्या खत्म नहीं होने वाली। जब तक पुलिस का अंदाज नहीं बदलेगा। तब तक लोग पुलिस से खौफ खाते रहेंगे। और पुलिसिए भी अंग्रेजों की मानसिकता से ऊपर नहीं उठेंगे। सो जब तक पुलिस रिफॉर्म पर अमल नहीं होता। तहरीर को एफआईआर मानने से कुछ नहीं होगा। जरुरत तो इस बात की है, पुलिस रिफॉर्म की बातें सिर्फ कागजों तक सिमट कर न रहे। हर बार पुलिस रिफॉर्म को शोर मचता। पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। बस इसी चक्कर में फिर फाइलों में गुम हो जाता। जबकि सुप्रीम कोर्ट तक पुलिस रिफॉर्म की बात कह चुका। पर राज्यों की फंडिंग के चक्कर में गाड़ी आगे नहीं खिसक रही। सो न पुलिस बदल रही, न पुलिसिया चेहरा और खौफ। आज भी, आम आदमी की आंखों के सामने पुलिस गुजर जाए। तो मन में सुरक्षा का भाव नहीं, अलबत्ता आंखों में खौफ का साया दिखता। आखिर हो क्यों ना। पुलिस वाले तो हुकूमत के इशारे पर चलते। सो जब जिसकी सरकार बनी। पसंद के ऑफीसर मलाईदार-रुतबेदार पदों पर काबिज हो जाते। सो राजनेता भी मौजूदा पुलिस तंत्र के ही आदी। अब वही होम मिनिस्ट्री राठौर का मैडल छीनने जा रही। पर 19 साल तक कहां सोई रही सरकार? यों मैडल कैसे लोगों को मिलता, अब किसी से यह बात छुपी नहीं। मैडल तो छोडि़ए, अब पद्मश्री हो या पद्मविभूषण। हर जगह घालमेल और सत्ता का साया साफ दिख जाता। सो मैडल के लिए फर्जी मुठभेड़ की खबरें आम हो चुकीं। लोकशाही में भी नेतागण राजशाही चाहते। सो प्रतिबद्ध नौकरशाही की दरकार सबको। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। दिसंबर 1969 में तबकी पीएम इंदिरा गांधी ने नौकरशाही से प्रतिबद्धता की मांग की थी। नौकरशाहों से अपनी राजनीतिक विचारधारा का समर्थन करने को कहा। सो बवाल मचा, तो उन ने नौ फरवरी 1970 को इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स में सफाई दी। चाटुकार सरकारी कर्मचारी तंत्र नहीं चाहिए। पर इंदिरा को जो कहना था, वह कह चुकी थीं। सो नेताओं में रूतबे का, तो नौकरशाही में चमचागिरी का रोग। यानी अब अगर पुलिस तंत्र का सुधार करना पड़ा। तो राजनीति में भी आमूल-चूल बदलाव लाने होंगे। पर न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। एफआईआर से पूर्व पीएम नरसिंह राव पर भी हुए। पर क्या कभी सजा मिली? शिबू सोरेन की झामुमो को खरीद कर राव ने अल्पमत सरकार बचाई। पर 17 साल हो गए। नरसिंह राव तो अब दुनिया में नहीं रहे। पर शिबू का भी कुछ नहीं बिगड़ा। अलबत्ता सत्ता के समीकरण जरुर बदल गए। शिबू कभी कांग्रेस खेमे में बैठते थे। अबके सत्ता की खातिर बीजेपी के साथ हो लिए। पर शिबू की पार्टी तो एक क्षेत्र विशेष की ठहरी। पर बीजेपी की नैतिकता कहां गई? जिस शिबू की खातिर मनमोहन को दागी केबिनेट का मुखिया कहा। शिबू के नाम पर संसद से सड़क तक खूब घोड़े दौड़ाए। अब उसी शिबू के साथ गलबहियां। पर जरा नितिन गडकरी की नई दलील सुनिए। सत्ता की राजनीति अलग और संगठन की अलग। कांग्रेस तो 125 वीं सालगिरह पर ही खूब इतरा रही। पीएम मनमोहन हों या सोनिया गांधी। गांधी-नेहरू खानदान को ही देश का पर्याय बता रहे। मनमोहन ने सोमवार को कहा- 'अगर कांग्रेस कमजोर हुआ, तो भारत कमजोर होगा। सो कांग्रेस को मजबूत करे।' उनने सोनिया के ऐसे कसीदे पढ़े। अपने राजनीतिक गुरु नरसिंह राव को भूला दिया। नई आर्थिक नीति का श्रेय भी राजीव गांधी को दे दिया। यानी सोनिया ने दो बार पीएम बनाया। तो मनमोहन ने भी अपनी उदारीकरण की नीति बतौर रिटर्न गिफ्ट गांधी-नेहरु खानदान को थमा कर्ज उतार लिया। अब पुलिस तंत्र हो या राजनीतिक तंत्र। जब तक चापलूसी बंद नहीं होगी। तब तक व्यवस्था का राम ही राखा।
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28/12/2009

Friday, December 25, 2009

वाजपेयी को तोहफे में बीजेपी ने दिया झारखंड

इंडिया गेट से
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वाजपेयी को तोहफे में
बीजेपी ने दिया झारखंड
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 संतोष कुमार
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           राजनीति के पुरोधा अटल बिहारी वाजपेयी का 86वां जन्मदिन धूमधाम से मना। हर बार की तरह पीएम मनमोहन चलकर अटल को बधाई देने पहुंचे। भले कांग्रेस-बीजेपी में बैर जगजाहिर। पर मनमोहन की वाजपेयी के प्रति अगाध श्रद्धा। तभी तो भरी संसद में मनमोहन ही वह शख्स थे। जिन ने वाजपेयी को बीजेपी नहीं, अलबत्ता राजनीति का भीष्म पितामह कहा था। सो अपने भीष्म पितामह को अबके नई बीजेपी ने बधाई दी। बीजेपी दफ्तर में रक्तदान शिविर लगे। तो शाम को फिक्की में अनूप जलोटा की भजन संध्या। भजन संध्या में बीजेपी के तमाम दिग्गजों के अलावा जेडीयू के शरद यादव, सपा के मुलायम-अमर भी पहुंचे। शिवसेना के मनोहर जोशी आए। तो एक नाम उड़ीसा में बीजेपी को धकिया चुकी बीजद का भी। बीजद के बी.जे. पंडा भी लिस्ट में शुमार। यानी वाजपेयी दलगत राजनीति से ऊपर उठ चुके। सो किसी भी दल के नेता को वाजपेयी की खातिर बीजेपी के मंच पर आने में हिचक नहीं। सचमुच बीजेपी में वाजपेयी की जगह कोई नहीं ले सकता। वाजपेयी में कभी बनावटीपन नहीं रहा। सो जनता के दिल में दशकों से राज कर रहे। पंडित नेहरू को भी वाजपेयी में भावी पीएम की छवि दिख गई थी। फिर इंदिरा राज हो या बाकी सरकारें। वाजपेयी की छवि जन-जन के दिल में बस गई। तभी तो पिछले साल दिसंबर में आडवाणी ने वाजपेयी के लिए भारत रत्न मांगा। तो ऐसी घुड़दौड़ मची। सरकार ने किसी को भी भारत रत्न नहीं दिया। तब यहीं पर लिखा था। वाजपेयी को भारत रत्न मिले या न मिले। लोगों के दिलों के रत्न हमेशा रहेंगे। पर बात वाजपेयी के 86वें जन्मदिन की। अबके आम आदमी वाजपेयी के पास नहीं पहुंच सका। वाजपेयी का स्वास्थ्य ठीक नहीं। सो जन्मदिन को वीवीआईपी तक ही सीमित रखा। पर बीजेपी में लंबे झंझावातों के बाद बड़े बदलाव हो चुके। सो तमाम दिग्गज बधाई देने पहुंचे। पर लगातार हार का मुंह देख रही बीजेपी ने अबके अटल को गिफ्ट देने की ठान ली। सो देर शाम झारखंड में सरकार गठन के लिए समझौते का एलान हो गया। झारखंड में खिचड़ी जनादेश आया। पर बीजेपी-जेडीयू ने झामुमो और आजसू से हाथ मिला लिया। सो 81 के सदन में नए गठबंधन का आंकड़ा बहुमत के जादुई आंकड़े से दो ज्यादा यानी 43 हो गया। कांग्रेस पॉवर-पैसा के बावजूद मुंह ताकती रह गई। जबसे कांग्रेस ने सहयोगी दलों को लंगड़ी मारने की रणनीति बनाई। एकला चलो की खातिर सहयोगियों को कमजोर किया। तबसे कांग्रेस को यही गुमान, जब जनता चुनाव जितवा रही। तो बाकी सत्ता भी अपनी कीमत पर हथिया लेंगे। सो शिबू सोरेन की शर्त मानने से इनकार कर दिया। अलबत्ता कांग्रेस ने शिबू की पार्टी में तोडफ़ोड़ की कवायद शुरू कर दी। ताकि शिबू के 18 में से 12 एमएलए टूट जाएं। उधर लालू के पांच में से तीन टूट जाएं। तो कांग्रेस और बाबूलाल मरांडी सत्ता का समीकरण बना लेंगे। बाकी कमी-बेशी रही, तो केंद्र में अपनी सरकार। सो गवर्नर कब काम आएंगे। पर बीजेपी ने पहले ही अपना कमाल दिखा दिया। राजनाथ अध्यक्षी की स्टेयरिंग छोड़ चुके। सो पूरा फोकस झारखंड पर लगा दिया। भले बीजेपी अबके तीस से खिसक कर 18 सीट पर आ गई। पर सरकार बनाने का मंसूबा नहीं छोड़ा। यों नितिन गडकरी ने सत्ता की नहीं, विकास और सेवा की राजनीति पर जोर दिया। पर शिबू के साथ नए गठजोड़ को आप क्या कहेंगे। शायद बीजेपी ने यही ठान रखा था। बहुत हार सह ली। अबके वाजपेयी को बर्थ-डे गिफ्ट में चुनाव जीते बिना सत्ता समर्पित करेंगे। सो झारखंड से लौटे राजनाथ की गडकरी से मीटिंग हुई। उधर रांची में यशवंत सिन्हा और अर्जुन मुंडा ने गुरु जी (शिबू) को पटाया। शनिवार को गवर्नर के सामने दावा पेश होगा। सो फार्मूला तय हुआ, शिबू सोरेन सीएम होंगे। साथ ही झामुमो के चार और मंत्री। बीजेपी का स्पीकर होगा। साथ में चार मंत्री भी। इसी कोटे में बीजेपी और झामुमो का एक-एक डिप्टी सीएम भी होगा। आजसू के दो मंत्री होंगे। तो एक जेडीयू का। यानी 81 के सदन में सिर्फ 12 मंत्री बनाए जा सकते। सो गठबंधन ने सत्ता की बंदरबांट शपथ से पहले ही कर ली। पर झारखंड में सत्ता इतनी आसान नहीं। शिबू के कई अल्पसंख्यक एमएलए बीजेपी के साथ जाने के खिलाफ। अब नाराज लोगों को ही शिबू मंत्री बना दें। तो फिर बात अलग। वैसे भी मंत्रियों की अपनी एक अलग जात होती। जिसमें लाल बत्ती और बाकी रुतबा। पर क्या अवसरवादी गठजोड़ को विकास करने वाला माना जा सकता? झारखंड का इतिहास तो ऐसा मानने को तैयार नहीं। सो नितिन गडकरी भले विकास की बात करें। पर राजनीति में एक ही फार्मूला चलता। न नीति, न नैतिकता, सबसे बड़ी सत्ता। याद करिए कर्नाटक का 20-20 महीने वाला जेडीएस-बीजेपी फार्मूला। कुमार स्वामी ने समझौता नहीं निभाया। तो सरकार गिर गई। फिर 20 दिन बाद दोनों एक हो गए। तो सरकार बन गई। भले सरकार हफ्ते भर ही चली। पर तब बीजेपी के एक बड़े नेता ने कहा था। जिसका जिक्र यहीं पर 28 अक्टूबर 2007 को हमने किया। उस नेता ने कहा था- 'हवन तीन बजे न सही, छह बजे हो। जेडीएस ने हमारी बात मान ली। सो हम भी तो कोई सन्यासी नहीं। आखिर राजनीति इसलिए तो कर रहे।'
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25/11/2009

Wednesday, December 23, 2009

जीता त्रिगुट, हार गया बीजेपी हाईकमान

इंडिया गेट से
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जीता त्रिगुट, हार गया
बीजेपी हाईकमान
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 संतोष कुमार
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         झारखंड में भी बीजेपी की बत्ती गुल हो गई। यों कामयाब कांग्रेस भी नहीं हुई। अलबत्ता विधानसभा फिर लंगड़ी हो गई। पर शिबू सोरेन की किस्मत जरूर खुल गई। सत्ता की चाबी लेकर बिकवाली को बाजार में खड़े हो गए। अब लुटी-पिटी बीजेपी के पास देने को तो कुछ नहीं। सो कांग्रेस फिर कोयला मंत्रालय देकर पटाने की कोशिश में। पर शिबू हैं कि मानते नहीं। शिबू को तो सीएम की कुर्सी चाहिए। पर कांग्रेस एकला नहीं, अलबत्ता बीजेपी से निकले बाबूलाल मरांडी के साथ गठबंधन। दोनों मिलकर बड़े गठबंधन के तौर पर उभरे। सो मरांडी अपना दावा यों ही नहीं छोड़ेंगे। अब सरकार किसी की भी बने, झारखंड फिर अस्थिरता के गर्त में। यों बुधवार को केंद्र सरकार ने आंध्र को अस्थिरता के दौर से बाहर निकालने की कोशिश की। तेलंगाना की तलवार आम सहमति की म्यान में डाल दी। पी. चिदंबरम ने तेलंगाना के गठन की कवायद का एलान किया था। सो आंध्र में भड़की आग को थामने के लिए सरकार ने चिदंबरम से ही ताजा बयान दिलवाया। चिदंबरम ने दस दिसंबर को तेलंगाना वाला बयान दिया था। आग भड़की, तो सरकार ने कदम खींच लिए। सो 15 दिसंबर को यहीं पर लिखा था- 'आम सहमति की म्यान में तेलंगाना की तलवार।'  पर कोई पूछे, सिर्फ दो लाइन के एलान में दस दिन क्यों लगाए? आंध्र में हिंसा से रोजाना सौ करोड़ का नुकसान हो रहा। खुद सीएम रोसैया ने इश्तिहार जारी कर लोगों से अपील की। पर शायद चिदंबरम काम के बोझ तले दबे होंगे। सो आंध्र को हिंसा की आग में जलने दिया। तभी तो बुधवार को चिदंबरम ने काम के बोझ का रोना रोया। अब ऐसा भी क्या, जो देश का होम मिनिस्टर सुरक्षा को भगवान भरोसे बताए। चिदंबरम ने 26/11 के बाद हमला न होने का क्रेडिट लक को दिया। अलग से आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय बनाने की पैरवी की। यों ऐसा ही मंत्रालय पाकिस्तान में भी। पर पाक के हालात बताने की जरूरत नहीं। सो अगर इच्छाशक्ति हो और कोई जिम्मेदारी को बोझ न समझे। तो मंत्रालय बंटे या न बंटे, देश की सुरक्षा की जा सकती। सो अब बात बीजेपी की। कांग्रेस बुधवार को आंध्र का बवाल थामने में जुटी रही। तो बीजेपी राजस्थान को सुलझाने में मशगूल। दोपहर ढाई बजे से मीटिंगों का दौर शुरू हुआ। तो रात के नौ बजे तक मीटिंग-मीटिंग का खेल होता रहा। वसु, माथुर, रामदास का त्रिगुट किस तरह रण के मूड में। यह तो आपको पिछले गुरुवार यहीं पर बता चुके। सो दिल्ली पहुंचते ही त्रिगुट का रामदास के घर जमावड़ा हुआ। ठीक ढाई बजे तिकड़ी ष्ठरु९ष्ट ङ्ख ३५९७ नंबर की कार में एकसाथ बीजेपी हैड क्वार्टर पहुंची। नितिन गडकरी पहले ही रामलाल के साथ बैठे थे। सो पहले राउंड की मीटिंग घंटे भर चली। बीच में वेंकैया और विनय कटियार आए-गए। फिर माथुर कटियार के पास चले गए। तो रामदास रामलाल के पास। वसुंधरा गडकरी से ही अकेले बतियाती रहीं। फिर तिकड़ी कटियार के कमरे में इक_ïी हुई। तो इधर दूसरा गुट चौकड़ी बनाकर गडकरी के कमरे में घुसा। अरुण चतुर्वेदी, गुलाब चंद कटारिया, वासुदेव देवनानी और फूलचंद भिंडा बैक डोर से मीटिंग के लिए पहुंचे। तो 20 मिनट में पहला राउंड निपटा। दूसरे राउंड से पहले गडकरी पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग में चले गए। फिर मीटिंगों का दौर चलता रहा। कभी चतुर्वेदी एंड कंपनी गडकरी के कमरे में। तो त्रिगुट वेंकैया के कमरे में। विनय कटियार पर्यवेक्षक के नाते कभी इधर तो कभी उधर होते रहे। बाल आप्टे भी गडकरी के साथ मीटिंग में शामिल हुए। तो आखिरी दौर की मीटिंग में अरुण जेतली भी आ गए। यानी राजस्थान संगठन चुनाव का पेच सुलझाने में दोपहर से रात हो गई। पर रार खत्म नहीं हुई। अब गडकरी को भी इल्म हो गया होगा, महाराष्टï्र और देश के किले में कितना फर्क। जब राजस्थान की चुनौती ने गडकरी के पसीने छुड़ा दिए। तो सोचो, खुदा न खास्ता कभी राजनाथ सिंह की तरह गडकरी को भी अरुण जेतली, सुषमा या नरेंद्र मोदी जैसे घाघ से चुनौती मिल गई। तब क्या होगा। यों अभी तक गडकरी को नरेंद्र मोदी की बधाई नहीं मिली। पर बात राजस्थान की। केंद्रीय चुनाव अधिकारी थावर चंद गहलोत से लेकर संगठन मंत्री रामलाल तक। चुनाव में धांधली की वसुंधरा खेमे की दलील से सहमत नहीं थे। सो गडकरी का सहमत न होना लाजिमी। पर स्थिति विस्फोटक होने लगी। वसुंधरा खेमे ने साफ कर दिया, संगठन चुनाव गुरुवार को हुए। तो नहीं माना जाएगा। जयपुर में 25 हजार वर्करों के जमावड़े की तैयारी थी। सो साख बचाने को गडकरी ने संगठन चुनाव टालना मुफीद समझा। अगर चुनाव न टलते, तो बीजेपी के अनुशासन के परखचे उड़ जाते। अब भले वसु, माथुर, रामदास के त्रिगुट को पूरी जीत नहीं मिली। पर दाव काम आ गया। त्रिगुट ने दलील दी, चतुर्वेदी से एतराज नहीं। प्रक्रिया से नाराजगी। आखिर पंचायत चुनाव के बहाने फरवरी के दूसरे हफ्ते तक चुनाव टलवा त्रिगुट ने आलाकमान को झुका दिया। किले के भीतर से हुए विद्रोह को गढ़ के रक्षक गडकरी संभाल नहीं पाए। पहली ही चुनौती में गडकरी के संगठन कौशल की पोल खुल गई। यों दोपहर से रात तक मीटिंग और सौदेबाजी का ऐसा दौर चला। देर रात खफा होकर कटियार मीटिंग से निकल गए। कह दिया- जो भी सूचना देनी है, फोन पर दे देना।
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23/11/2009

Tuesday, December 22, 2009

चारों तरफ पंगे ही पंगे, फिर भी हर-हर गंगे

इंडिया गेट से
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चारों तरफ पंगे ही पंगे,
फिर भी हर-हर गंगे
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 संतोष कुमार
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           संसद का शीत सत्र मंगल को विधिवत खत्म हो गया। पर लिब्राहन रपट हो या महंगाई की बहस। तेलंगाना हो या ग्लोबल वार्मिंग। बहस का कोई निचोड़ नहीं निकला। अलबत्ता सरकार ने जो चाहा, वही हुआ। पर विपक्ष इसी में खुश, संसद में जनहित के खूब मुद्दे उठाए। अब सत्र उठ गया, तो राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने संसदीय जिम्मेदारी का मुद्दा उठाया। करीब महीने भर के सत्र में अपने पीएम तीन विदेश दौरे कर आए। सो जेतली इसे गलत परंपरा बता रहे। बोले- 'सत्र के दौरान पीएम के विदेश दौरे से संसद के प्रति सरकार की जिम्मेदारी का स्तर घटता जा रहा है। सो भविष्य के लिए संज्ञान ले सरकार।'  यों पीएम का संसद सत्र के वक्त विदेश जाना कोई नई बात नहीं। अगर पीएम देश में भी हों। तो भी सदन में आने की परंपरा कम ही रही। इंदिरा गांधी जब पीएम थीं। तब भी ऐसा ही माहौल था। सो तब अटल बिहारी वाजपेयी ने जो कहा, आज भी सभी प्रधानमंत्रियों पर मौजूं। वाजपेयी ने कहा था- 'पंडित जवाहरलाल नेहरू संसद से सिर्फ तब बाहर रहते थे, जब उनके पास कोई चारा नहीं होता था। पर इंदिरा गांधी सिर्फ तब संसद आया करतीं, जब उसे टालना संभव नहीं होता था।'  यही सवाल पी.वी. नरसिंह राव के काल में भी उठा। तब तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कबूला, नेहरू के बाद परंपरा बदल गई। शुक्ल ने कहा था- 'जवाहर लाल नेहरू के बाद हर प्रधानमंत्री ने सिर्फ आवश्यक महसूस होने पर ही संसद में आना उचित समझा। सो आप नरसिंह राव पर संसद को अधिक समय न देने का आरोप नहीं लगा सकते।'  अब संसदीय कार्य मंत्री ऐसी दलीलें दें, तो काहे की संसद। और काहे की जिम्मेदारी। पर मनमोहन के हालिया विदेश दौरे को ही देखें। तो कुछ ऐसा हासिल नहीं हुआ। जिसकी खातिर संसद को नजरअंदाज किया। अलबत्ता जैसे न्यूक्लीयर डील और शर्म-अल-शेख के साझा बयान में चूक हुई। अब कोपेनहेगन में क्लाइमेट चेंज पर अमेरिका के जाल में फंस गए। भले क्योटो प्रोटोकॉल रद्द नहीं करा पाए विकसित देश। पर विकासशील देशों को फंसा लिया। विकसित देश अपने यहां कार्बन में कितनी कटौती करेंगे। इसका खुलासा जनवरी के आखिर तक होगा। बाकायदा विकासशील देश पीकिंग एयर को भी राजी हो गए। यानी जैसे न्यूक्लीयर डील पर भारत ने मॉनीटरिंग की छूट दे दी। अब कोपेनहेगन के बाद भारत को दो साल पर रपट देनी होगी। वह भी तय गाइड लाइंस के तहत। जिस पर विकसित देश सलाह-मशविरा और विश£ेषण करेंगे। यानी कार्बन कटौती में खर्च करेगा भारत। मॉनीटरिंग करेगा अमेरिका। सो अरुण जेतली ने मौजूं टिप्पणी की। मनमोहन का नाम नहीं लिया। पर बोले- 'सरकार का मौजूदा नेतृत्व अमेरिकी अध्यापक के सामने सबसे अच्छा स्टूडेंट बनने की कोशिश में। सो भारत दुनिया के जाल में फंस रहा।'  तभी तो बराक ओबामा के सरकारी अधिकारी एक्सल रॉड ने हकीकत बता दी। कह दिया, अब भारत हमारी पकड़ में आ गया। यानी खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। पर लगातार चुनावी जीत से गदगद कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ रहा। अब बुधवार को झारखंड के चुनाव नतीजों की बारी। सो ऊंट किस करबट बैठा, यह ईवीएम ही बताएगा। पर दावा दोनों कर रहे। कांग्रेस जीती, तो पांव जमीं पर नहीं टिकेंगे। अगर बीजेपी जीती, तो समझो संजीवनी मिल गई। विदा ले चुके राजनाथ को क्रेडिट मिलेगा। गडकरी के कदम शुभ कहलाएंगे। अगर नतीजा उलटा हुआ, तो श्रेय भी उलटा ही मिलेगा। पर नितिन गडकरी को झटके मिलने शुरू हो गए। बुधवार को राजस्थान से वसुंधरा ब्रिगेड दिल्ली धमकेगा। तो संगठन चुनाव पर रोक की मांग होगी। पर शनिवार को इस बाबत वेंकैया और गडकरी की बात हो चुकी। तो गडकरी चुनाव रोकने के पक्ष में नहीं बताए जा रहे। पर बवाल बढ़ चुका। सो बुधवार को राजस्थान बीजेपी का झगड़ा कहीं गडकरी के लिए वाटरलू साबित न हो जाए। वसुंधरा-माथुर-रामदास का त्रिगुट तो रण के मूड में। अगर बुधवार को राजस्थान का झगड़ा न सुलझा। तो राज्य में बीजेपी का कहीं उड़ीसा जैसा हाल न हो जाए। उड़ीसा में जबसे नवीन पटनायक से बीजेपी का रिश्ता टूटा। बीजेपी बिखरती जा रही। राज्य से बीजेपी के छह सांसद हुआ करते थे। पर अबके सौ बट्टïे सन्नाटा। एक भी सांसद जीतकर नहीं आ सका। विधायकों की गिनती भी तीस से छह पर सिमट गई। अब खरबला स्वेन ने भी बीजेपी छोड़ दी। तो उड़ीसा बीजेपी में भूचाल आ गया। हाईकमान ने फौरन मुख्तार अब्बास नकवी को उड़ीसा भेजा। ताकि कोई और पार्टी न छोड़े। पर खरबला का बीजेपी छोडऩा कोई आम बात नहीं। खरबला जब पिछली लोकसभा में सांसद थे। तो अपनी योग्यता और नॉलेज से स्पीकर सोमनाथ चटर्जी की नाक में दम कर रखा था। आज के जमाने में जब सांसद खुद को भगवान से कम नहीं समझते। खरबला हर विषय में पूरी तैयारी करते थे। कुल मिलाकर बीजेपी के बड़े इंटलेक्चुअल में शुमार होते थे खरबला। यानी भले बीजेपी में चेहरे बदल गए। पर चाल, चरित्र रंचमात्र नहीं बदला। वही अनुशासनहीनता। वही बगावत। वही बौद्धिक लोगों का बीजेपी से पलायन। वही श्रेष्ठïता की लड़ाई। वही बीजेपी का झंडा, जिसमें संघ का डंडा। और नेताओं का अपना-अपना एजंडा। अब चारों तरफ बीजेपी में पंगे ही पंगे दिख रहे। फिर भी गडकरी हर-हर गंगे कह रहे।
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22/10/2009

Friday, December 18, 2009

तो पद छोड़ भी आडवाणी बीजेपी के वटवृक्ष हो गए

इंडिया गेट से
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तो पद छोड़ भी आडवाणी

बीजेपी के वटवृक्ष हो गए
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 संतोष कुमार
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             तो एक बात साफ हो गई। बीजेपी की एक ही वाणी यानी आडवाणी। भले आडवाणी ने अपोजीशन लीडर की कुर्सी छोड़ दी। पर रिटायरमेंट लेने को राजी नहीं। अलबत्ता बीजेपी में महामहिम जैसी कुर्सी कब्जा ली। बीजेपी के संविधान में ऐसा बदलाव हुआ। आडवाणी अब दोनों सदनों में नेता मनोनीत कर सकते। जैसे कांग्रेस में सोनिया गांधी पॉवर सेंटर। वैसे ही अब आडवाणी। सो उन ने पार्लियामेंट्री पार्टी का चेयरमैन बनते ही सुषमा स्वराज को लोकसभा। तो अरुण जेतली को राज्यसभा में नेता मनोनीत कर दिया। बिसात तो पहले ही बिछ चुकी थी। सो शुक्रवार को देर शाम एनेक्सी में सांसद जमा हुए। तो मंच पर सिर्फ राजनाथ सिंह बैठे। आडवाणी की शान में राजनाथ ने खूब कसीदे पढ़े। फिर पार्टी संविधान में संशोधन का प्रस्ताव रखा। बीजेपी संविधान की धारा- 6 (ए) में दो बिंदु जोड़े गए। पहला- संसद में बीजेपी का एक चेयरमैन होगा। जिसका चुनाव दोनों सदनों के सांसद करेंगे। दूसरा- चेयरमैन दोनों सदनों में नेता, उपनेता और चीफ व्हिप्स को मनोनीत करेगा। सो राजनाथ ने प्रस्ताव रखा। तो वेंकैया, मुंडे ने अनुमोदन किया। फिर सभागार में बैठे सांसदों ने सहमति में हाथ खड़े किए। तो आडवाणी चुपचाप बैठे रहे। सो राजनाथ ने चुटकी ली। बोले- 'संशोधन प्रस्ताव पर आडवाणी जी ने हाथ नहीं उठाया। सो मैं यह मानता हूं आडवाणी को छोड़ यह प्रस्ताव सर्वसम्मत पारित हुआ।' फिर यशवंत सिन्हा ने नए पद के लिए आडवाणी का नाम प्रस्तावित किया। तो करतल ध्वनि के बीच आडवाणी निर्वाचित घोषित हुए। राजनाथ ने मंच पर लिवा मिठाई खिलाई। सो मंच पर आते ही आडवाणी ने भी राजनाथ की चुटकी का जवाब दिया। बोले- 'संशोधन से पहले राजनाथ सिंह ने जैसी भूमिका रखी। किसी और नाम का विकल्प ही नहीं छोड़ा। सो मेरे लिए इस प्रस्ताव का समर्थन करना कठिन हो गया।'  पर संशोधन हो या आडवाणी का प्रमोशन। सब प्रक्रिया का मामला। पर सबसे अहम बात, आडवाणी बीजेपी में और मजबूत होकर उभरे। भले संघ ने युवा हाथ में कमान सौंपने का फार्मूला दिया। पर आडवाणी ने बीरबल जैसी चतुराई दिखाई। लकीर में कोई छेड़छाड़ किए बिना एक बड़ी लकीर खींच दी। युवा हाथ में कमान भी सौंप दी। पर खुद मुखिया बन गए। दोनों सदनों में युवा नेताओं का मनोनयन आडवाणी ने किया। सो आडवाणी ने भी संघ को जतला दिया, बूढ़ी हड्डिïयों में अभी दम बाकी। आडवाणी की विदाई को लेकर अखबारों में खूब सुर्खियां छपीं। पर आडवाणी को एक सुर्खी नागवार गुजरी। लिखा था- 'रथयात्री आज रथ से उतरेंगे।'  सो आडवाणी संसदीय दल का मुखिया बनने के बाद बोले- 'यात्रा तो मेरे जीवन से जुड़ी हुई। सो अगर कोई पद छोडऩे का मतलब यह निकालता है कि आडवाणी सक्रियता छोड़ देंगे या संसद छोड़ देंगे, तो वह मुगालते में। मैं 14 साल की उम्र से रथयात्री बना। पर वक्त के साथ मकसद बदलता गया। सो मैं कभी रथयात्रा छोडऩे वाला नहीं। जीवन भर यात्रा चलेगी।'  यानी आडवाणी ने साफ कर दिया। पद छोड़ा है, सन्यास नहीं लिया। अब आडवाणी संसदीय दल के अध्यक्ष की जिम्मेदारी को राजनीतिक पारी का नया चैप्टर मान रहे। दिल में सुकूं संवैधानिक जिम्मेदारी से मुक्त होने का। पर संतोष, बीजेपी पर अपनी पकड़ कमजोर नहीं होने दी। अब जब डी-4 वाले धुरंधर नेता आडवाणी के मातहत। तो नितिन गडकरी कितनी चला पाएंगे। आडवाणी अब बीजेपी के वटवृक्ष हो गए। तभी तो राजनाथ सिंह रिटायर होकर कहीं जगह नहीं पा रहे। तो आडवाणी पद छोड़कर भी खुद को टायर्ड नहीं मान रहे। सो गडकरी हों या डी-4, आडवाणी की छत्रछाया में ही रहना होगा। शनिवार को गडकरी की ताजपोशी का भी एलान हो जाएगा। शुक्रवार को गडकरी अपनी शादी की 25 वीं सालगिरह को यादगार बना रहे थे। जब उन ने शनिवार को दिल्ली पहुंच चार्ज लेने का एलान कर दिया। यों राजनाथ शनिवार को एलान और संगठन चुनाव के बाद चार्ज सौंपने की सोच रहे थे। पर संघ ने साफ कर दिया। अब ना कोई मुहूर्त, ना नक्षत्र-ग्रह की टेढ़ी चाल। अलबत्ता जैसे वक्त का पहिया घूम रहा। बीजेपी में बदलाव होने दो। अब नितिन गडकरी की टीम का भी एलान जल्द होगा। पर एकतरफा संघ की नहीं, आडवाणी की खूब चलेगी। सो महासचिव के तौर पर वसुंधरा, धर्मेंद्र प्रधान, शाहनवाज के नाम शुक्रवार को ही उछलने लगे। यानी बदलाव की पूरी कवायद में जीत आडवाणी की ही दिख रही। तभी तो जेतली ने भी कहा- 'हमने अटल-आडवाणी से राजनीति सीखी। सो अभी भी मार्गदर्शन चाहिए।'  सुषमा स्वराज ने तो पूरा खुलासा कर दिया। बोलीं- 'जब मुझे नेता बनने का प्रस्ताव आया। तो मैंने आडवाणी की छत्रछाया की व्यवस्था की अपील की। अब संशोधन के बाद आडवाणी संसदीय दल के अध्यक्ष हो गए। सो सिर्फ पदों का परिवर्तन हुआ है, छाया वैसी ही चलेगी।'  अब आप इशारा खुद समझ लें। जीत किसकी हुई? संघ की या आडवाणी की? रही बात राजनाथ की। तो अब कोई पद नहीं बचा। सो संघ और बीजेपी के बीच पुल बनकर शायद अपनी अहमियत बनाए रखने की कोशिश करें।
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18/12/2009

वाजपेयी को हैप्पी बर्थ-डे कहेगी 'नई भाजपा'

इंडिया गेट से
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वाजपेयी को हैप्पी बर्थ-
डे कहेगी 'नई भाजपा'
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 संतोष कुमार
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              महीने भर में ही अपने सांसद उकता गए। सो सदन के कामकाज में दिल नहीं लग रहा। सरकार भी अपना कामकाज निबटा चुकी। सो सदन चले या न चले, कोई फर्क नहीं पड़ता। महंगाई पर बुधवार को लोकसभा ठप रही। लगे हाथ तेलंगाना का मुद्दा समूचे सदन पर भारी पड़ रहा। तेलुगुदेशम के चार एमपी हाथ में बैनर-पोस्टर लिए रोजाना वैल में घुस आते। तो उधर कुछेक कांग्रेसी भी उछलने लगते। यूनाइटेड आंध्र के लिए रोज यही ड्रामा चल रहा। बाकी कुछ ऐसे भी सांसद, जो बोडोलैंड की तख्ती उठाकर उछलने लगते। तो कोई मिथिलांचल, तो कोई विदर्भ, तो कोई पूर्वांचल का मुद्दा उठा शोर मचाते। यानी कुल चार-छह सांसद मिलकर सदन ठप करा रहे। गुरुवार को तो महिला आरक्षण बिल पर स्टेंडिंग कमेटी की रपट ने ही बखेड़ा खड़ा करा दिया। कमेटी ने गीता मुखर्जी कमेटी की रपट को ही जस का तस अमल में लाने की सिफारिश कर दी। यानी संसद और विधानसभा में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का रास्ता साफ हो गया। पर स्टेंडिंग कमेटी की रपट से ही हंगामा हो गया। लोकसभा में रपट पेश हुई। तो मुलायमवादी वैल में घुस आए। पीछे-पीछे लालू भी आ गए। तो स्टेंडिंग कमेटी की रपट वापस लो, के नारे लगे। यों नेताओं की चुस्ती-फुर्ती का नमूना देखिए। स्टेंडिंग कमेटी की रपट में सिर्फ मुलायमवादियों ने ही असहमति का नोट दिया। बाकी लालू हों या शरद यादव। असहमति नोट देने की जहमत नहीं उठाई। अब अगर शुक्रवार को भी हालात ऐसे ही रहे। तो सरकार लोकसभा को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करा लेगी। पर राज्यसभा शायद सोमवार को भी चले। यों बीजेपी की मुराद तो यही थी, संसद के दोनों सदन सोमवार तक चलें। ताकि सदन में क्लाइमेट चेंज पर बहस हो। सोमवार को ही पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग का भी 'क्लाइमेट' बदल जाए। अब राज्यसभा में तो सोमवार तक का कामकाज। पर लोकसभा में सरकार का रुख साफ नहीं। सो बीजेपी ऊहापोह में फंस गई थी। पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग कब करे। आडवाणी पर संघ का दबाव बढ़ चुका। सो आडवाणी अपनी विरासत सुषमा स्वराज को सौंपने को तैयार हो गए। बाकायदा तय हुआ, सोमवार को आडवाणी बतौर नेता विपक्ष आखिरी बार सांसदों को संबोधित करेंगे। पर सरकारी ऊहापोह था। सो सुषमा स्वराज ने कहा, अगर लोकसभा सोमवार तक नहीं चली। तो पार्लियामेंट्री पार्टी मीटिंग नहीं होगी। पर बीजेपी में कुछ अहम फैसले सुषमा के बयान के उलट होते। अब देखो, सुषमा ने एक-दो दफा नहीं, बार-बार कहा- 'आडवाणी पंद्रहवीं लोकसभा के लिए नेता विपक्ष चुने गए। सो पूरे पांच साल पद पर रहेंगे।' पर आडवाणी की विदाई की तारीख तय हो गई। सुषमा खुद आडवाणी की उत्तराधिकारी होने जा रहीं। सो आडवाणी की पैरवी में ऐसा कहा, तो कुछ गलत भी नहीं। थोड़ा और पीछे जाएं, तो जिन्ना एपीसोड याद करिए। आडवाणी ने पद से इस्तीफा दे दिया। तो बीजेपी ने तब मना लिया। पर संघ ने अध्यक्षी छोडऩे का अल्टीमेटम थमा दिया। फिर भी सुषमा स्वराज से बीजेपी हैड क्वार्टर में सवाल हुआ। तो सुषमा का जवाब क्या था, आप खुद देखिए। उन ने तमतमाते हुए कहा था- 'क्या आप लोगों को थाली पीट-पीटकर बताऊं कि आडवाणी पार्टी अध्यक्ष का अपना टर्म पूरा करेंगे।' पर हुआ क्या। सुषमा ने इधर बयान दिया, करीब दो-तीन महीने बाद ही चेन्नई वर्किंग कमेटी में आडवाणी ने अध्यक्षी छोडऩे की तारीख का एलान कर दिया। अब इन उदाहरणों का हवाला इसलिए दिया, ताकि कुछ बड़े मुद्दों पर सुषमा के बयान का मतलब आप खुद से भी निकाल सकें। अब यह तो तय हो गया, शुक्रवार को शाम साढ़े पांच बजे एनेक्सी में पार्लियामेंट्री पार्टी की अहम बैठक होगी। आडवाणी पद छोडऩे की पेशकश करेंगे। तो 'परंपरा' के मुताबिक आडवाणी की मनुहार होगी। फिर कुछ देर बाद पार्लियामेंट्री पार्टी से संविधान संशोधन की हामी भरवाई जाएगी। ताकि आडवाणी को संसदीय दल का अध्यक्ष बनाया जा सके। जैसे कांग्रेस में सोनिया गांधी। फिर अगले दिन शनिवार को बीजेपी दफ्तर में संसदीय बोर्ड की मीटिंग होगी। तो शायद प्रस्ताव पारित कर आडवाणी के कसीदे पढ़े जाएं। फिर वहीं सुषमा स्वराज के नाम को हरी झंडी दी जाएगी। यों संसदीय बोर्ड की मीटिंग का मकसद नितिन गडकरी के नाम पर मुहर लगाना। पर पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग सोमवार के बजाए शुक्रवार को ही हो रही। सो आडवाणी-राजनाथ की विदाई और नितिन गडकरी की ताजपोशी का औपचारिक एलान शनिवार को होगा। यानी 25 दिसंबर तक बीजेपी का चेहरा बदल जाएगा। क्रिसमस और वाजपेयी के जन्मदिन से पहले बीजेपी सजधज कर तैयार होगी। ताकि वाजपेयी को हैप्पी बर्थ-डे कहने जाएगी नई बीजेपी। बीजेपी के एक बड़े नेता ने आडवाणी के कमरे में अनौपचारिक मीटिंग के बाद दो-टूक कहा- '25 दिसंबर तक बीजेपी में सभी बड़े बदलाव हो जाएंगे। फिर 25 दिसंबर से दो जनवरी तक छुट्टïी होगी। ताकि सब हल्के-फुल्के माहौल में नया साल मना सकें।'
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17/12/2009

Wednesday, December 16, 2009

संगठन चुनाव पर याचना नहीं, रण के मूड में तिकड़ी

इंडिया गेट से
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संगठन चुनाव पर याचना
नहीं, रण के मूड में तिकड़ी
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 संतोष कुमार
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             संसद सत्र खत्म होने को आया। तो विपक्षियों को महंगाई याद आई। ताकि सत्र के बाद जनता के बीच पहुंचें। तो मुंह दिखा सकें। पर चालू सत्र में 26 नवंबर को जब महंगाई पर बहस हुई थी। तब लोकसभा में कोरम के भी लाले पड़ गए थे। सदन का अलार्म तीन बार घनघनाया। फिर भी कोरम पूरा नहीं हुआ। पर किसी ने एतराज नहीं किया। सो बहस चलती रही। देश 26/11 की बरसी में गमगीन था। तभी देर रात सरकार ने बहस का जवाब भी दे दिया। पर इधर संसद में बहस पूरी हुई। उधर महंगाई ने और तेजी दिखा दी। सरकार तो हाथ खड़े कर चुकी। पर विपक्ष के पास भी महंगाई रोकने का कोई फार्मूला नहीं। सो मजबूरी में विपक्ष का हंगामा देख सरकार भी सदन ठप कराना बेहतर समझती। ताकि विपक्ष भी जनता को मुंह दिखा सके। सदन में सरकार की भी फजीहत न हो। पर बात महंगाई रोकने के फार्मूले की। तो जब 26 नवंबर को बहस हुई। तब यहीं पर आपको बताया था। जब आम आदमी को राहत नहीं दे सकते। तो किस विकास का ढोल पीट रहे। अब तो बेहतर यही, अपने नेतागण महंगाई का नाम बदलकर सस्ताई रख दें। संविधान संशोधन कर महंगाई शब्द पर ही बैन लगवा दें। वैसे भी अपने सीपी जोशी ने कुछ ऐसी ही राह दिखा दी। नरेगा को कई राज्य सरकारें अपनी योजना प्रचारित कर रही थीं। तो उसे रोकने के बजाए अपने सीपी जोशी ने नाम ही बदल दिया। पहले राजीव गांधी नाम रखने की सोची। पर बवाल की आशंका से सोनिया ने हरी झंडी नहीं दी। आखिर जोशी ने नरेगा को महात्मा गांधी का मार्का दे दिया। बुधवार को हंगामे के बीच ही नरेगा को मगरेगा करने का संविधान संशोधन बिल पास करा लिया। अब राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम का नाम महात्मा गांधी रोजगार गारंटी अधिनियम होगा। है ना, नाकामी पर नकेल कसने का उम्दा फार्मूला। तभी तो कहा, महंगाई शब्द को ही बदल दो। संसद तो वैसे भी मंत्रिपरिषद की कठपुतली बन चुका। डा. लक्ष्मीमल सिंघवी ने भी यही बात कही थी। उन ने कहा था- 'भले सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है। पर वास्तविकता यही, विधि अधिनियमों का गर्भाधान और जन्म मंत्रालयों में होता है। संसद में सिर्फ मंत्रोच्चारण के साथ उपनयन संस्कार कर औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है।' अब भले विपक्ष के हंगामे से भी आम आदमी को कोई राहत न मिले। पर बुधवार को मुख्य विपक्षी बीजेपी को जसवंत सिंह ने बड़ी राहत दे दी। बीजेपी से बर्खास्त जसवंत ने संसद की पीएसी की कुर्सी छोडऩे से इनकार कर दिया था। सुषमा स्वराज ने स्पीकर तक गुहार लगाई। पर नियम का हवाला दे स्पीकर ने हाथ खड़े कर दिए। सो बीजेपी को कड़वा घूंट पीकर रहना पड़ गया। पर सोमवार को लोकसभा में गोरखालैंड पर जसवंत-आडवाणी के बीच संवाद से बर्फ पिघली। सो अब अचानक जसवंत ने पीएसी की अध्यक्षी से इस्तीफा दे दिया। तो इस्तीफे से पहले बाकायदा मिठाइयां बांटीं। मिठाई बीजेपी को अब तक पानी पिलाने के लिए बांटी या किसी गुप्त समझौते के तहत, यह तो मालूम नहीं। पर राजनीतिक पारी के आखिरी मुकाम से गुजर रहे जसवंत के लिए अपने बेटे मानवेंद्र का कैरियर संवारने की चुनौती। अब बीजेपी में काफी कुछ बदल रहा। सो जसवंत ने पीएसी पर रार ठान कटुता बढ़ाने के बजाए नरमी के संकेत दिए। बीजेपी ने किसी दबाव से इनकार किया। तो जसवंत ने भी स्वेच्छा से इस्तीफे की दलील दी। उधर स्पीकर मीरा कुमार ने जसवंत का इस्तीफा मंजूर कर लिया। सो बीजेपी के दिल को चैन आ गया। पर बीजेपी के नसीब में चैन कहां। अब नितिन गडकरी के नाम का एलान शायद 23 दिसंबर की पार्लियामेंट्री बोर्ड से हो जाए। पर राज्यों की मुसीबत कम नहीं हो रही। राजस्थान बीजेपी की खींचतान अब टूट के कगार पर पहुंच गई। त्रिगुट यानी वसुंधरा, माथुर, रामदास ने संगठन चुनाव पर रोक लगवाने को प्रतिष्ठïा का मुद्दा बना लिया। पर अरुण चतुर्वेदी दिल्ली आकर रामलाल और वेंकैया को सफाई दे गए। पचास फीसदी से ज्यादा चुनाव संपन्न हो चुके। सो अध्यक्ष चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो। केंद्रीय चुनाव अधिकारी थावर चंद गहलोत ने बाकायदा 24-25 दिसंबर तारीख भी तय कर दी। विनय कटियार को चुनाव आब्जर्वर तैनात कर दिया। यों पहले 19-20 दिसंबर की तारीख तय थी। पर अब दोनों गुटों को वक्त मिल गया। चतुर्वेदी शायद खामी दूर करेंगे। पर त्रिगुट ने आर-पार का मन बना लिया। बुधवार को रामदास अग्रवाल के घर तिकड़ी चार घंटे बैठी। तो राजनाथ सिंह को चि_ïी सौंपने की तैयारी हुई। तमाम विधायकों-सांसदों के एतराज को भी नत्थी कर लिया। अब भी अगर हाईकमान ने संगठन चुनाव पर रोक नहीं लगाई। तो त्रिगुट यानी वसु, माथुर, रामदास पूरे अमले के साथ चुनाव के दिन जयपुर बीजेपी दफ्तर में मौन प्रदर्शन करेंगे। फिर भी चुनाव हो गया। तो तिकड़ी अरुण चतुर्वेदी के चुनाव को मान्यता नहीं देगी। अलबत्ता अपनी ओर से अध्यक्ष घोषित करने की भी रणनीति बना रही। अगर ऐसा हुआ। तो राजस्थान में बीजेपी का दो-फाड़ तय। पर बीजेपी त्रिगुट की होगी, या अरुण चतुर्वेदी की। यह तभी मालूम पड़ेगा। हाईकमान तो खुद दुविधा में। वेंकैया ने चुनाव रोकने का संदेश दे अरुण चतुर्वेदी को दिल्ली बुलाया था। पर राजनाथ ने वीटो लगा दिया। सो अब तिकड़ी संगठन चुनाव पर याचना नहीं, रण के मूड में।
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16/12/2009

Tuesday, December 15, 2009

टुकड़ा-टुकड़ा राजनीति, चिथड़ा-चिथड़ा शांति-सौहाद्र्र

इंडिया गेट से
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टुकड़ा-टुकड़ा राजनीति, 
चिथड़ा-चिथड़ा शांति-सौहाद्र्र
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 संतोष कुमार
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             खरमास शुरू होते ही बीजेपी में बवंडर की तैयारी शुरू हो गई। नए अध्यक्ष की ताजपोशी अब शायद सूर्य के उत्तरायण होने के बाद हो। पर खरमास में अपने राजस्थान का बवेला जोर पकड़ेगा। संगठन चुनाव में गुट विशेष की मनमानी से त्रिगुट खफा। पर आलाकमान में मतभेद इस कदर। संगठन चुनाव रोकने का फैसला कर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। वसुंधरा, माथुर और रामदास की तिकड़ी आडवाणी, राजनाथ, जेतली, वेंकैया से मिल चुकी। पर राजनाथ मानने को तैयार नहीं। सो बुधवार को खरमास शुरू होगा। तो इधर रामदास के दिल्ली लौटते ही त्रिगुट का जमा-खर्च मंथन होगा। सो नए भूचाल की आशंका मानकर चलिए। भूचाल कैसा होगा, अपनी जानकारी में। पर आज खुलासा करना मुनासिब नहीं। सो बीजेपी और विवाद के नए चैप्टर का इंतजार करिए। वैसे भी संसद का सत्र उठान पर। सो सत्र के बाद करने को कुछ काम भी चाहिए। जैसे अंत्याक्षरी में कहते हैं ना- 'बैठे-बैठे क्या करोगे, करना है कुछ काम। शुरू करो...।' पर मंगलवार को आडवाणी ने अपने सांसदों की खूब पीठ ठोकी। सरकार को कुछ मुद्दों पर घेरने के लिए बधाई दी। बोले- 'हम विपक्ष का दायित्व निभाने में सफल रहे। सरकार ने विपक्ष की एकजुटता तोडऩे की कोशिश में लिब्राहन रपट लीक की। पर विपक्ष एकजुट रहा। लिब्राहन बहस में भी बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस निशाने पर रही।'  भले आडवाणी इसे एकजुटता कहें। पर यह सच्चाई नहीं। लिब्राहन बहस में मुलायम हों या माया के सिपहसालार। लेफ्ट हो या बीजेपी की सहयोगी जेडीयू। सबके अपने-अपने वोट बैंक। अब जब एनडीए ही एक सुर में न बोला। तो यह कैसी एकजुटता? पर शायद मौजूदा सत्र की आखिरी पार्लियामेंट्री पार्टी मीटिंग थी। सो हौसला अफजाई करना आडवाणी की मजबूरी। अब गुरुवार को कांग्रेस पार्लियामेंट्री पार्टी की मीटिंग होगी। तो सोनिया गांधी भी विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए अपनों की पीठ ठोकेंगी। सांप्रदायिकता और सेक्युलरिज्म की दुहाई तो राजनीतिक फैशन में। पर सबसे अहम होगा तेलंगाना का मुद्दा। तेलंगाना की हड्डïी कांग्रेस के गले में इस कदर फंस चुकी। मंगलवार को लोकसभा में भी फजीहत से दो-चार होना पड़ा। तेलुगुदेशम ने भी तेलंगाना पर यू-टर्न ले लिया। सो लोकसभा में यूनाइटेड आंध्र का नारा लगा खूब बवाल काटा। तो बवाल में कई कांग्रेसी सांसद भी साथ हो लिए। आंध्र में दिवंगत सीएम वाईएस राजशेखर रेड्डïी के बेटे जगन मोहन भी वैल में कूद पड़े। साथ में चार कांग्रेसी केएस राव, श्रीनिवासुलू, बप्पी राजू और कृपा रानी भी। जगन मोहन ने आगे बढ़ टीडीपी के नारायण राव से हाथ भी मिलाया। अखंड आंध्र के कागज भी लहराए। सो तेलंगाना रीजन के दर्जन भर कांग्रेसी सांसद मुश्किल में पड़ गए। अनुशासन और मर्यादा का लिहाज कर ये सब भी अपनी सीटों पर खड़े हो गए। बाद में तेलंगाना रीजन के इन सांसदों ने जगन मोहन पर कार्रवाई की मांग की। अनुशासन समिति के मुखिया ए.के. एंटनी से मिलकर दरख्वास्त भी लगा दी। अब कांग्रेस जैसी मुश्किल में फंसी, जगन पर कार्रवाई संभव नहीं दिखती। वैसे भी वाईएसआर के बाद से जगन सीएम बनने की जुगत में एड़ी-चोटी लगा चुके। पर वाईएसआर ने अपने जमाने में जितना सोनिया का भरोसा जीता, दिल्ली में उतने ही विरोधी पैदा कर लिए। सो वाईएसआर के बाद विरोधियों ने जगन की मुहिम सिरे न चढऩे दी। अब जगन भी मौका नहीं चूक रहे। भले कांग्रेसी की फजीहत हो, पर पिता की तरह आंध्र की जनता का दिल जीतने में जुट गए। सो गुरुवार को सोनिया गांधी भी शायद बर्र के छत्ते में हाथ डालने से परहेज करें। आम सहमति के नाम पर पल्ला झाडऩे की कोशिश होगी। आंध्र में तेलंगाना के विरोध में भड़की आग को शांत करने के लिए मंगलवार को सीसीपीए हुई। राजनीतिक मामलों की केबिनेट कमेटी भी क्या करे। सो दो लाइन का प्रस्ताव पारित कर आंध्र की जनता से शांति और सौहाद्र्र की अपील की। पर तेलंगाना विरोधी अब बाकायदा भरोसा मांग रहे। आंध्र का बंटवारा नहीं होगा, इसका सरकारी एलान चाह रहे। पर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। वैसे भी तेलंगाना की आग पर राजनीतिक दल अलग-अलग अंदाज में मजा ले रहे। टीडीपी जब एनडीए के साथ थी, तो तेलंगाना नहीं बनने दिया। अबके विधानसभा चुनाव हुए। तो तेलंगाना के समर्थन में खड़ी हो गई। पर अब मौका देख फिर पलटी मार ली। सिर्फ टीडीपी ही नहीं। लेफ्ट वाले तेलंगाना के पक्ष में खड़े। पर गोरखालैंड के लिए राजी नहीं। माया तो यूपी को तीन टुकड़ों में बांटना चाह रहीं। पर मुलायम अखंड यूपी का राग अलाप रहे। यों मुलायम भी तेलंगाना के पक्ष में। यानी सूबाई पार्टियां खुलकर राजनीतिक दोगलेपन का खेल खेल रहीं। सो राष्टï्रीय पार्टियां मुश्किल में। सीसीपीए की मीटिंग में पवार और ममता ने भी कांग्रेस को लपेटा। तेलंगाना पर हुए फैसले में सलाह-मशविरा नहीं करने से खफा। सो गरमा-गरमी के बीच ही प्रस्ताव तय हुआ। अब शांति कायम करने की कवायद होगी। पर तेलंगाना विवाद ने कांग्रेस के साथ-साथ बीजेपी को भी कनफ्यूज कर दिया। सो सूबाई पार्टियां अपने-अपने अंदाज में रोटियां सेक रहीं। भले टुकड़ों की राजनीति में देश के अमन-चैन के चिथड़े उड़ रहे हों।

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15/12/2009

Friday, December 4, 2009

तो अब सांसद भी मांगे आईआईएम सी पाठशाला

इंडिया गेट से
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तो अब सांसद भी मांगे
आईआईएम सी पाठशाला
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 संतोष कुमार
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             तो संसद का अगला हफ्ता लिब्राहन रपट के नाम होगा। मुलायम सिंह की हिंदी कापी भी आ गई। सो लोकसभा में सोम, मंगल। राज्यसभा में बुध, गुरु को बहस होगी। पर रपट में कमीशन के 17 साल के सिवा कुछ नया नहीं। अलबत्ता कुछ ऐसी खामियां, जिनकी बखियां तो उधड़ेंगी ही। पर राजनीति तो अजर-अमर। सो दोनों तरफ हल्ला ब्रिगेड और बखिया उधेड़ू दस्ता तैयार हो गए। महंगी चीनी के जमाने में भी बीजेपी को हिंदुत्व की चासनी खूब भाती। सो आरोपियों की लिस्ट में शामिल नेताओं को बहस से दूर रखा। यानी बाबरी ढांचा ढहाने की नैतिक जिम्मेदारी तो खुद ओढ़ ली। अब अगर आडवाणी खुद बचाव करते। तो बार-बार ढांचा गिराए जाने पर अफसोस जताते। ताकि सेक्युलर होने का तमगा मिल सके। सो बीजेपी ने एक तीर से दो निशाने साधे। पर अब बीजेपी की मापतोल का काम आरएसएस ने पूरा कर लिया। सो आरएसएस ने भी बैन हटा लिया। अब लिब्राहन रपट पर डी-4 भी बोलेगा। ताकि हिंदुत्व के चेहरे बीजेपी में बढ़ें। पर कांग्रेस को तो दूजे वोट बैंक की फिक्र। अब संसद में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार पर चौतरफा हमला होगा। तो चुपचाप सहना वोटरों को संदेश दे जाएगा। सो नैतिकता-वैतिकता को ताक पर रखने की ठान ली। कांग्रेस यूपी के नेताओं को बहस में उतारेगी। तो शुरुआत जगदंबिका पाल करेंगे। पर लिब्राहन रपट में जगदंबिका पाल भी साजिशकर्ताओं की लिस्ट में शामिल। सो कांग्रेस ने बीजेपी के उलट रणनीति अपनाई। यानी संसद में आडवाणी-जोशी मुंह नहीं खोलेंगे। तो वोटरों को मैसेज देंगे। पर कांग्रेस के नेता आरोपी की लिस्ट में शामिल हों। फिर भी मुंह न खोले। तो उनका वोट बैंक खिसकेगा। सो बीजेपी ने अपने वोट बैंक की खातिर आडवाणी-जोशी को बहस से दूर रखा। तो कांग्रेस अपने वोट बैंक की खातिर जगदंबिका पाल को उतारेगी। सिर्फ कानूनी पहलू को राजनीतिक अंदाज में परोसेंगे कपिल सिब्बल। अब अगर दोनों बड़ी पार्टियां वाकई वोटरों के प्रति ईमानदार होतीं। तो लोकसभा सचिवालय में पहला नोटिस इनका होता। पर बहस की शुरुआत सीपीआई के गुरुदास दासगुप्त करेंगे। दूसरे नंबर पर कांग्रेस, तो तीसरे नंबर पर हिंदुत्व की झंडाबरदार बीजेपी। अब भले नोटिस देकर पहला वक्ता बनने की बात छोटी सी। पर निष्ठïा की दुहाई देने वालों की तत्परता का अंदाजा तो लग ही रहा। अब कोई पहले बोले, या बाद में। पर रपट के बहाने चार दिन तक संसद की तारीख छह दिसंबर से आगे नहीं बढ़ेगी। मुलायम सिंह ने तो पहले ही कह दिया। नरसिंह राव को मनमोहन सरकार ने क्लीन चिट दिलवाई। बोले- 'गुरु राव को चेले मनमोहन की ओर से गुरु दक्षिणा में क्लीन चिट।' मुलायम-लेफ्ट-बीएसपी जैसों के निशाने पर कांग्रेस-बीजेपी दोनों होंगी। रपट संसद में पेश होने से पहले आडवाणी और मुलायम अपनी-अपनी निष्ठïा का प्रदर्शन कर चुके। आडवाणी को बाबरी मस्जिद गिरने का मलाल भी। पर किसी भी सूरत में वहां मंदिर ही बने, यही उनके जीवन की साध। अब यह कैसा मलाल, अपनी तो समझ से बाहर। पर आडवाणी की स्फूर्ति देख बीजेपी में ही लोग कहने लगे। क्या लिब्राहन रपट के सहारे पूरी पारी खेलने की तैयारी? पर आडवाणी की बात चली। तो बताते जाएं, लोकसभा चुनाव से पहले उन ने आमिर खान की 'तारे जमीं पर' देखी थी। अब भले नतीजे जो भी रहे। अब उन ने एक और मानवीय सरोकार वाली फिल्म 'जेल' देखी। सो कुछ भाजपाइयों को डर सता रहा। कहीं बीजेपी भी अब आरएसएस की 'जेल'  न हो जाए। संसदीय दल की मीटिंग में पूर्णिया से सांसद उदय सिंह यह मुद्दा उठा चुके। जेलर की भूमिका में आरएसएस की दखलंदाजी पर भरी मीटिंग में भड़क उठे। तो वेंकैया को बात संभालनी पड़ी थी। पर यह तो अंदरूनी मंच पर बीजेपी सांसद की पीड़ा। अब शुक्रवार को हिमाचल के कांगड़ा से सांसद राजन सुशांत ने मौजूं मुद्दा उठाया। पर ईमानदारी भी देखिए, उन ने सभी पार्टियों में योग्य नेता की कमी बताई। लोकसभा में शून्यकाल में अति लोक महत्वपूर्ण विषय के तहत बोल रहे थे। कहा- 'सभी पार्टियों में योग्य नेताओं की कमी। देश की जनता योग्य नेता चाहती। जो सदन में बात रख सकें। सो आईपीएस, आईएफएस और आईएएम जैसा एक नेतागिरी का भी संस्थान हो। जिसका पाठ्यक्रम भी बनाया जाए। ताकि उसमें नेतागिरी की ट्रेनिंग हो।' अब जरा राजन भाई का बैक ग्राउंड बता दें। हिमाचल में चार टर्म एमएलए, पांच साल मंत्री रहे। पेशे से डाक्टर, वकील, ट्रेड यूनियनिस्ट, हार्टीकल्चरिस्ट। अबके पहली बार लोकसभा में। शायद राजन भाई को लोकसभा में कमी दिख गई। सो दिल की बात जुबां पर ले आए। वरना कभी ऐसा सुना, कोई नेता खुद के लिए ट्रेनिंग की बात करे। नेता तो खुद को खुदा मानता। एक बार संसद पहुंच जाए। तो संसद को बपौती मान चाहे जो जी में आए, कर डालता। अपने लालू यादव को ही लो। बिहार में चारा मैनेज किया। दिल्ली में रेल महकमा मिला। तो अहमदाबाद से लेकर हावर्ड यूनिवर्सिटी तक मैनेजमेंट गुरु हो गए। अब ममता दीदी मैनेजमेंट की कहानी सुनाएंगी। तो पता चलेगा, कहां से डिग्री लाए थे लालू। अब राजन भाई की बात भले सोलह आने सही। पर माने कौन। सदन में बैठे आडवाणी, सुषमा आदि हंस रहे थे। संसद तो सिर्फ वोट बैंक का अखाड़ा। सो ट्रेनिंग की बात पर नेता हंसेंगे ही।
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04/12/2009

Monday, November 30, 2009

संसद के पास वक्त, पर 'सवाल' नहीं

इंडिया गेट से
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संसद के पास वक्त,
पर 'सवाल' नहीं
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 संतोष कुमार
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           लिब्राहन रपट के दोषी संसद में नहीं बोलेंगे। नैतिकता की दुहाई दे बीजेपी ने फैसला कर लिया। मंगलवार को लोकसभा में बहस होनी थी। पर बीजेपी की तैयारी धरी रह गई। अब शायद बुधवार नहीं तो अगले हफ्ते एकदिनी बहस में ही सब निपटेगा। तो न आडवाणी अपना बचाव करेंगे, न जोशी। अलबत्ता आडवाणी के उत्तराधिकारी की दौड़ में शामिल राजनाथ, सुषमा वकील होंगे। संघ के इशारे पर नाच रही बीजेपी फिर राममय होने को बेताब। अब बहस से आडवाणी, जोशी को दूर रखने का क्या मकसद? कहीं आडवाणी को रोकने की स्ट्रेटजी तो नहीं? आडवाणी छह दिसंबर को दुखद दिन करार दे चुके। मोहन भागवत से लेकर अशोक सिंघल इससे इत्तिफाक नहीं रखते। पर जो भी हो, बीजेपी ने नैतिक आधार पर आडवाणी-जोशी को तो दोषी मान ही लिया। अब राम के बहाने भले बीजेपी एकजुटता दिखाएगी। पर अंदरूनी 'लीला' का क्या? अनुशासन और गरिमा तो बीजेपी की सिर्फ किताबी बातें। लिब्राहन रपट की बहस का मुद्दा हो। तो राष्टï्रीय अध्यक्ष याचक की भूमिका में दिखाए जाते। कभी कोई महासचिव अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ मीटिंग बॉयकाट करता। तो कई क्षत्रप संसदीय बोर्ड के फैसले को जूते की नोंक रखते। अब एक पत्रकार ने मजाक में पूछा। बीजेपी हैड क्वार्टर में अभी से संतरे का जूस मिल रहा। तो नेता चुटकी लेने से पीछे न रहे। तपाक से पूछा, क्या अब छाछ मिलना बंद हो गया? यानी राजनाथ सिंह छाछ हो गए। नितिन गडकरी संतरे का जूस। अब जब बात इतनी दिलचस्प हो। तो पत्रकार कहां चूकने वाले। सो अपने एक मित्र ने बचपन की कहानी सुना दी। दादा जी नागपुर घूमने गए। तो किसी भाई ने संतरा मंगवाया। तो किसी ने कपड़े। पर अपने इस मित्र ने लट्टïू मंगवाया। एक बार लट्टïू चलाते-चलाते दादा जी के सिर पर लग गया। सो गूमरा निकल आया। खफा होकर अपने मित्र के पिताजी ने दादा जी से कहा- 'मैं तो पहले ही कह रहा था, नागपुर से लट्टïू मत लाना।'  यानी इशारा साफ, नागपुर से दिल्ली आ रहे नितिन गडकरी की ओर था। सो बीजेपी के एक बड़े नेता ने जवाब दिया- 'मेरे तो सिर पर बाल। जो गंजे हैं, उनके लिए मुश्किल।'  अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। दूसरी पीढ़ी में बीजेपी के कई दिग्गज, जिनके सिर पर बाल नहीं। पर दूसरा मतलब साफ, इस नेता ने इशारा कर दिया। अध्यक्ष कोई भी बने, उनके रुतबे पर असर नहीं पडऩे वाला। अब आप ही बताओ। यह बीजेपी का अंदरूनी झगड़ा नहीं, तो और क्या। फिर भी बीजेपी मीडिया पर ठीकरा फोड़ती। अब विपक्ष को आपसी लड़ाई से ही फुरसत न हो। तो वही होगा, जो सोमवार को हुआ। दोनों सदनों में हंगामे की वजह थी, बंगाल में केंद्रीय टीम भेजना। राज्यसभा में प्रश्रकाल नहीं चला। पर लोकसभा में थोड़े हंगामे के बीच ही स्पीकर मीरा कुमार ने कार्यवाही आगे बढ़ा दी। सिर्फ तीन सवालची सांसद मौजूद थे। बाकी 17 नदारद। सो आधे घंटे के भीतर ही प्रश्रों की सूची खत्म हो गई। लोकसभा के पास कोई काम नहीं बचा। सो लोकसभा भी ठप करनी पड़ी। अब समस्याओं से भरे देश में संसद के पास वक्त हो। और अपने सांसदों के पास नहीं। तो आप क्या कहेंगे? गैर हाजिर सवालचियों में कांग्रेस, बीजेपी, जदयू, शिवसेना, सीपीआई, सीपीएम समेत करीब-करीब सभी दलों के सांसद। यानी राजनीतिक हमाम में सभी नंगे निकले। बीजेपी के दो युवा वरुण और अनुराग ठाकुर तो कांग्रेस की श्रुति चौधरी भी सदन से नदारद रहीं। पर बाद में सबने बहाने गिना दिए। किसी की ट्रेन लेट। तो किसी का विमान। पर संसद की फिक्र किसी को नहीं। सवाल पूछकर गैर हाजिर रहने का मुद्दा कई दफा उठ चुका। पिछले सत्र में राज्यसभा में चेयरमैन ने चिंता जताई थी। अब मीरा कुमार सभी दलों को चि_ïी भेजेंगी। पर जब सबके अपने-अपने वोट बैंक हों। तो फिर संसद की गरिमा का ख्याल किसे हो? प्रश्रकाल संसद की आत्मा माना जाता। एक वर्कशाप में मारग्रेट अल्वा ने किस्सा सुनाया था। मेनका गांधी तब वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं। मंत्री के नाते सत्रहवें सवाल का जवाब देना था। पर मेनका को उम्मीद नहीं थी, नंबर आएगा। सो सदन में बैठे सुडोकू खेलती रहीं। पर नंबर आ गया, तो शर्मिंदगी उठानी पड़ी। क्योंकि मेनका जवाब के लिए तैयार नहीं थीं। अब सोमवार को सुषमा ने अपने युवा सांसदों का बचाव इसी तरह किया। बोलीं- 'आम तौर पर छह सवाल ही हो पाते। सो अनुराग ठाकुर को उम्मीद नहीं थी।'  पर अब विपक्ष संसद को अनुमान के तौर पर ले। तो फिर लोकतंत्र का राम ही राखा। अपने मधु लिमये ने एक बार कहा था- 'अनेक सांसद तो सदन में दिलचस्पी तक नहीं लेते। महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने की जगह कुछ पैसा बना लेने के चक्कर में रहते हैं।'  लिमये के कथन की पुष्टिï तो दिसंबर 2005 में हो गई थी। जब संसद से 11 घूसखोर सवालची सांसद निकाले गए। पर अब गैर हाजिर सांसदों के लिए क्या हो? यह तो सिर्फ सवाल बनकर ही रह जाएगा। आखिर सांसदों का अपना विशेषाधिकार जो ठहरा। सो धूमिल के कविता संग्रह 'संसद से सड़क तक'  की पंक्तियां याद आ गईं। उन ने लिखा- 'एक आदमी रोटी बेलता है। एक आदमी रोटी खाता है। एक तीसरा आदमी भी हो। जो न बेलता है, न खाता है। वह सिर्फ रोटी से खेलता है। मैं पूछता हूं, ये तीसरा आदमी कौन है। मेरे देश की संसद मौन है।'
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30/11/2009

Thursday, November 26, 2009

26/11 के गम में हो गई अथ श्री महंगाई कथा

इंडिया गेट से
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26/11 के गम में हो गई
अथ श्री महंगाई कथा
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 संतोष कुमार
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शहीदों को शत शत नमन। आतंक के खिलाफ लड़ाई में देश की जनता एकजुट हो चुकी। भले संसद में सियासत हावी रही। पर देश भर में सड़कों पर जनता ने श्रद्धा की लौ जलाई। संसद में चेयर से प्रस्ताव आया। समूचे सदन ने मौन श्रद्धांजलि दी। पर 26/11 की घटना से उमड़ी जनभावना नेताओं को हिला चुकी। याद है ना, मुंबई हमले के बाद देश भर में जनता सड़कों पर उतरी। तो नेता घरों में दुबक गए थे। दबी जुबान कह रहे थे, हमारा क्या कसूर। पर इतना बड़ा हमला देश को दहला चुका था। आखिर मु_ïीभर आतंकी कैसे तमाम सुरक्षा इंतजामात का बलात्कार कर साजिश को अंजाम दे गए। सो जनता ने समूची राजनीतिक व्यवस्था को आड़े हाथ लिया। अब बरसी के मौके पर मीडिया से लेकर जनता ने श्रद्धांजलि का बीड़ा उठाया। तो अपने नेताओं को शायद नहीं सुहा रहा। सो गुरुवार को बीजेपी के आहलूवालिया काफी भड़के दिखे। संसद पहुंचे, तो मीडिया ने श्रद्धांजलि के दो शब्द मांगे। पर आहलूवालिया ने ज्ञान उड़ेल दिया। आहलूवालिया का गुस्सा, 26/11 को देश में और भी घटनाएं हुईं। पर सिर्फ मुंबई हमले को ही क्यों याद कर रहे? भले आहलूवालिया की भावना सही। उन ने जो बात कही, वह भी सही। पहले बोले- 'देश में कई ऐसी घटनाएं होती रहतीं। पर आप सिर्फ ताज की घटना इसलिए हाईलाइट कर रहे, क्योंकि वहां बड़े लोग मारे गए।' सो दिन भर खूब सुर्खियां बनीं। पर बाद में उन ने नई दलील जोड़ दी। कहा- '26 नवंबर 1949 को देश ने संविधान को स्वीकार किया। सो आज साठवीं सालगिरह। पर मीडिया उसे क्यों भुला रहा?Ó वाकई आहलूवालिया ने अच्छी बात याद दिलाई। मीडिया और देशवासियों को आहलूवालिया का साधुवाद कहना ही चाहिए। पर माननीय आहलूवालिया जी, जनता किस संविधान को याद करे? उस संविधान को, जिसका आप नेताओं ने मिलकर बैंड बजा दिया। या उस संविधान को, जिससे बड़ा नेता खुद को माने बैठे। अब तो आम जनता राजनीतिक रसूख वालों को ही माई-बाप मानने लगी। अगर नेता चाह ले, तो संविधान में संशोधन कर बल्ब को लालटेन बता दे और लालटेन को बल्ब। सो आहलूवालिया तो सिर्फ प्रतीक। अपने नेताओं का यह दर्द समझना कोई बड़ी बात नहीं। नेताओं को डर सताने लगा, चिंगारी कहीं शोला न बन जाए। सो मुद्दा कोई भी हो, नेता सियासत की लौ बुझने नहीं देते। तभी तो बीजेपी ने लोकसभा में राई को पहाड़ बना दिया। जीरो ऑवर में आडवाणी ने 26/11 के पीडि़तों को मुआवजे में देरी का सवाल उठाया। बाकायदा आंकड़े बताए। तो आडवाणी सिर्फ सुझाव के अंदाज में बात रख रहे थे। पर नंबर बढ़ाने की होड़ में अनंत कुमार ने मोर्चा संभाल लिया। जिद ठान ली, सदन के नेता प्रणव मुखर्जी जवाब दें। पर प्रणव दा ने कह दिया- 'मैं खास तौर से नेता विपक्ष को सुनने चैंबर से सदन में आया। सो हर मुद्दे पर सरकार के फौरन जवाब की परंपरा न बनाएं।Ó यानी प्रणव दा ने आडवाणी को पूरा सम्मान दिया। पर अनंत अड़ गए। तो दादा का गुस्सा सातवें आसमान पर। बोले- 'बीजेपी ने 26/11 की घटना पर राजनीति की। तो चुनाव में कीमत चुकानी पड़ी। अब फिर सियासत कर रही। सो दुबारा कीमत चुकानी पड़ेगी।Ó पर प्रणव दा के व्यवहार से खफा अनंत ने संसद के बाहर भी मामला उछाला। पर अनंत ने सहानुभूति की बात की। तो पुराने दिन भी याद दिलाने होंगे। पीडि़त परिवारों को सालभर बाद भी मुआवजा न मिलना वाकई दुखद। आंकड़ों के मुताबिक मुआवजे के 403 हकदारों में सिर्फ 118 को ही चैक मिले। कुछ को नौकरी का इंतजार। तो कई अस्पताल में सर्जरी को तरस रहे। अब आडवाणी ने दुख जताया। होम मिनिस्ट्री में अलग सेल बनाने की मांग की। ताकि कभी ऐसी नौबत न आए, जब याद दिलाने के लिए पीडि़तों को दिल्ली आना पड़े। आडवाणी की मांग को राजनीति कहना उचित नहीं। पर राजनीति का चेहरा आप खुद पढि़ए। संसद पर हमला 13 दिसंबर 2001 को हुआ। पर 2004 तक आडवाणी खुद होम मिनिस्टर थे। तब क्यों नहीं सेल बने? संसद हमले के शहीदों के परिजन 2006 तक आवाज बुलंद करते रहे। शहीद मातवर नेगी, जे.पी. यादव, कमलेश कुमारी, नानक चंद, रामपाल सिंह, विक्रम सिंह बिष्टï के परिजनों की मांग 2006 में पूरी हुई। क्या सत्ता में रहने पर नेता फर्ज भूल जाते? सिर्फ विपक्ष में रहने पर ही जनता के दर्द याद आते? सो एक लौ राजनीति की आत्मा को जगाने के लिए क्यों न जलाएं। वरना सरकार हो या विपक्ष, इतनी चालाकी नहीं दिखाते। 26/11 की बरसी की लौ के तले महंगाई पर बहस पूरी करा ली। महंगाई सातवें आसमान को भी पार कर चुकी। पर गुरुवार को बहस हुई। तो लोकसभा में गिने-चुने सांसद बैठे दिखे। देर शाम शरद पवार का जवाब भी आ गया। जवाब तो क्या बताएं। पिछले सत्र में जो कहा, उससे नया कुछ भी नहीं। इतने टन उत्पादन, इतनी खपत। कहीं कोल्ड स्टोरेज की बात। पर हकीकत क्या। थोक मंडी में जिस सामान की कीमत दो से चार रुपए। खुदरा बाजार में वही सामान 25 से 40 रुपए। उत्पादक किसान बद से बदतर हालत में। बिचौलिए की बल्ले-बल्ले। सो महंगाई पर सरकार की वही कहानी। सदन में सवाल उठा, जब घर में नहीं दाने। तो अम्मा क्यों चली भुनाने। जब आम आदमी को राहत नहीं दे सकते। तो किस विकास का ढोल पीट रहे। पर अब तो बेहतर यही, अपने नेतागण महंगाई का नाम बदलकर सस्ताई रख दें। संविधान संशोधन कर महंगाई शब्द पर बैन लगवा दें। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
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26/11/2009

Wednesday, November 25, 2009

26/11 की बरसी, पर मनमोहन विदेश में!

इंडिया गेट से
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26/11 की बरसी,पर
मनमोहन विदेश में!
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 संतोष कुमार
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किसी ने खूब कहा है- 'जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा। कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है।' देखते-देखते 26/11 की बरसी आ गई। पर न बदली, तो सिर्फ अपनी सियासत। अब बरसी पर भी आपसी बदजुबानी न हो। सो गुरुवार को स्पीकर मीरा कुमार श्रद्धांजलि प्रस्ताव रखेंगी। सदन दो मिनट मौन की औपचारिकता भर निभाएगा। ताकि बहस का टंटा ही खत्म हो। यानी सौ दिन तो दूर, 365 दिन में अपनी सियासत अढ़ाई कोस भी नहीं चली। सो जुस्तजू तो यही, कभी तो जागेंगे अपने सियासतदां। पर 26/11 की बरसी आते-आते कई सवाल उठ खड़े हुए। आखिर अपनी तैयारी अब कितनी मुकम्मल? शहीद अशोक काम्टे की पत्नी विनीता काम्टे ने पूरी रिसर्च के बाद किताब लिखी। किताब 'टू द लास्ट बुलेट' में पुलिस की कलई खोल दी। कैसे घायल करकरे, काम्टे, सालस्कर को वक्त पर अपनी पुलिस ने मदद नहीं दी। वाकी-टॉकी के रिकार्ड खुद बता रहे, चालीस मिनट की देरी ने इन जांबाजों को कैसे शहीद कर दिया। महाराष्टï्र पुलिस हमले के बाद तो जैसे फ्रीज हो गई। पर साल भर में भी आतंकवाद से लडऩे को अपनी तैयारी दुरुस्त नहीं। मल्टी एजेंसी सेंटर, एनएसजी हब, एनआईए, समुद्री सुरक्षा के बंदोबस्त तो हुए। पर ये तो सिर्फ शाखाएं। अभी जड़ मजबूत होना बाकी। पुलिस और खुफिया तंत्र का आधुनिकीकरण सिर्फ दस्तावेजों में। भले 26/11 के बाद कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। पर आखिर यह कैसी कामयाबी। कसाब को जिंदा पकड़ पाक को हम डोजियर भेजते रहे। पर अब एफबीआई बता रही। डेविड हेडली 26/11 का मास्टर माइंड। फिर अपनी एजेंसियां क्या जांच कर रही थीं? साल भर में किसी हेडली-राना तक फटक भी न सकीं। ऊपर से अब डिप्टी सीएम छगन भुजबल ने एक और खुलासा किया। होम मिनिस्टर आर.आर.पाटिल हमले के दिन घर में दुबके हुए थे। बुधवार को पाटिल ने सफाई दी, पुलिस के कहने पर ऐसा किया। क्या 26/11 की बरसी पर यही श्रद्धांजलि? जिन पाटिल को जिम्मेदार ठहरा कर पद से हटाया गया। सालभर में ही उसी महकमे के मालिक बन गए। विलासराव देशमुख सीएम न सही, पर मनमोहन के काबिना मंत्री तो बने ही। रही बात भाई शिवराज पाटिल की। तो धीरज रखिए, अभी कई राज्यों की गवर्नरी खाली। शायद कांग्रेस 26/11 की बरसी बीतने का ही इंतजार कर रही। ताकि छीछालेदर से बच सके। पर शिवराज के उत्तराधिकारी चिदंबरम ने भी कोई बड़ा तीर नहीं मारा। साल भर से भारत-पाक जुबानी जंग चल रही। पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई। अब गुरुवार को 26/11 की पहली बरसी। तो भारतीयों के जख्म ताजा हो गए। सो बुधवार को रावलपिंडी के एंटी टेरर कोर्ट में जकी उर रहमान लखवी समेत सात पर चार्जशीट हो गई। लखवी को मास्टर माइंड माना गया। पर पाकिस्तान की ईमानदारी कौन नहीं जानता। वैसे ईमानदार तो हम भी नहीं। आतंकवाद से लडऩे की लफ्फाजी तो खूब करते। पर जज्बा कभी नहीं दिखता। तभी तो संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल को हम तिहाड़ में आराम से रोटी-पानी खिला रहे। वोट की खातिर अफजल की फाइल इधर से उधर होती रही। पर फैसला नहीं हुआ। अभी भी फाइल दिल्ली की कांग्रेसी शीला सरकार के पास। क्या अब आतंकी भी वोट बैंक होने लगे? जब भी अफजल को फांसी की मांग उठी। तो शिवराज पाटिल से लेकर समूची कांग्रेस ने यही दलील दी। नंबर आने पर फैसला होगा। संसद पर हमले में शहीद जवानों के परिजनों ने मैडल तक लौटा दिए। पर मनमोहनवादियों के कान पर जूं नहीं रेंगी। हाल ही में 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया। दया याचिकाओं को जल्द निपटाए। पर मंगलवार को ही अपनी सरकार की ओर से संसद में दिए जवाब की बानगी देखिए- 'सरकार के पास 29 दया याचिका लंबित। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत फाइल निपटाने की कोई समय सीमा नहीं।Ó इस लिस्ट में अफजल का नंबर इक्कीसवां। अब संसद के हमले को आठ साल पूरे होने को। सो जरा सोचो, कसाब को कब फांसी मिलेगी। अभी तो सजा भी तय नहीं हुई। हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, माफी याचिका, क्यूरेटिव याचिका का सफर बाकी। उससे भी बड़ी बात, बीच में कोई केस नहीं आया। तो कसाब का नंबर तीसवां होगा। सो सरकार से क्या उम्मीद करते हैं आप? शीला दीक्षित को रसूखदार हत्यारे मनु शर्मा को पैरोल दिलाने में तीन महीने की जगह महज 20 दिन लगे। पर तीन-चार साल बीत गए, अफजल की फाइल नहीं निपटी। सो 26/11 में 26 विदेशी समेत मारे गए 168 लोगों, 308 घायलों को कब न्याय मिलेगा? अपनी सरकार और राजनीतिक व्यवस्था में इच्छाशक्ति अब नहीं रही। वरना देश पर सबसे बड़े हमले की बरसी हो। और देश का मुख्य कर्ता-धर्ता व्हाइट हाउस की दावत में मशगूल हों। तो क्या कहेंगे आप? अब और नहीं 26/11, ऐसा संकल्प कौन लेगा? अगर पीएम बरसी के मौके पर देश में होते। जैसे 9/11 की हर बरसी पर अमेरिका का राष्टï्रपति देश की जनता के साथ आतंकवाद से लडऩे का संकल्प दोहराता। कुछ वैसा ही मैसेज अपने पीएम भी देते। तो आतंकवादियों के मन में खौफ पैदा होता। अपने देश की जनता में भी भरोसा पैदा होता। अमेरिकी यात्रा का प्रोग्राम दो-चार दिन आगे-पीछे होता। तो कोई महामंदी नहीं आ जाती। पर शायद पीएम को जनता को भरोसा देने से ज्यादा ओबामा से तारीफ करवाने में सुकून मिल रहा।
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25/11/2009

Tuesday, November 24, 2009

'राम कसम' अब नेताओं को 'शर्म' आती ही नहीं

इंडिया गेट से
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'राम कसम' अब नेताओं
को 'शर्म' आती ही नहीं
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 संतोष कुमार
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लीकेज से आग भड़की। तो मंगलवार को ही पी. चिदंबरम ने रपट पेश कर दी। सोनिया गांधी के घर मीटिंग में स्ट्रेटजी बनी। तो बिन मनमोहन ही केबिनेट मीटिंग हो गई। पौ फटते ही प्रणव दा ने केबिनेट में रपट और एटीआर को हरी झंडी दी। संसद के दोनों सदनों में रपट पेश भी हो गई। पर सुना था शोर पहलू में बहुत, चीरा तो कतरा-ए-खूं न निकला। रपट की स्याही तो पहले ही अखबारों में। सो रपट संग एटीआर पहली नजर में कोरी ही निकली। दोषियों की लिस्ट में अटल, आडवाणी, जोशी समेत 68 नाम। पर कार्रवाई रपट में सरकार ने चुप्पी साध ली। अलबत्ता 13 पन्नों की एटीआर में सरकार लिब्राहन रपट की तेरहवीं मनाती दिखी। सहमत हैं, नोट कर लिया, जांच करेंगे, ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए जैसे शब्दों से ही एटीआर भरी पड़ी। सांप्रदायिक हिंसा रोकने का बिल आएगा। मुकदमों की सुनवाई तेजी से होगी। पर ये सारी बातें तो पहले भी कही जा चुकीं। सो एटीआर में एकशन कम, टीयर ज्यादा। यही हाल लिब्राहन रपट का भी। अहम खुलासे तो पहले ही हो चुके। सो मंगलवार को नई बात सिर्फ यही, धर्म का राजनीति से घालमेल न हो। पर यह बात तो 1947 से ही कही जा रही। सो घालमेल न हो, फिर राजनीति काहे की होगी। तभी तो देश में महंगाई हो या गन्ना किसानों की समस्या। असम के धमाके हों या 26/11 की बरसी का मौका। पर अपनी संसद, सरकार और विपक्ष के लिए मुद्दा क्या है? बस लिब्राहन रपट, बाबरी ढांचा, अयोध्या में राम मंदिर, और कुछ नहीं। वोट बैंक की राजनीति के ठेकेदार अमर सिंहों को लग रहा। जैसे देश में समस्याओं का अंबार इसलिए, क्योंकि बाबरी मस्जिद ढह गई। तो दूसरे ठेकेदार आडवाणी-कल्याण को लग रहा, अयोध्या में राम मंदिर बन जाए। तो मानो देश में चहुं ओर खुशहाली आ जाएगी। संवैधानिक रास्ते से विवाद का हल निकले, इसमें कोई गुरेज नहीं। पर कोई व्यक्ति या राजनीतिक दल खुद को ही संविधान मान ले। तो फिर अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था का राम ही राखा। पर वोट की लड़ाई में दंगों की सिर्फ कब्रें खुदतीं। कभी जांच अंजाम तक नहीं पहुंचती। और अगर पहुंच भी जाए, तो देरी का न्याय बेमानी हो जाता। अब बाबरी विध्वंस की रपट आने में ही 17 साल लगे। तो न्याय मिलने तक कितने साल गुजरेंगे। बीजेपी ने तो अटल नाम जप रिपोर्ट को झुठलाना शुरू कर दिया। पर सरकार में भी इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। तभी तो तबके कर्ताधर्ता रपट के बाद भी दहाड़ रहे। आडवाणी ने सोमवार को संसद में तेवर दिखाए। तो मंगलवार को अपने सांसदों की खूब पीठ ठोकी। तीन दिन तक संसद ठप रखने से गदगद थे। तो दूसरी तरफ दर-ब-दर कल्याण सिंह भी उसी तेवर में लौट आए। मुलायम-अमर ने दुलत्ती मार दी। सो मंगलवार को राममयी हो गए। अब आप रपट की छोडि़ए। कल्याण का इकरारनामा सुनिए। बोले- 'मेरे सामने दो विकल्प थे। ढांचा बचाऊं या कारसेवकों की जान। सो मैंने कारसेवकों को नरसंहार से बचाया। मुझे ढांचा गिरने का कोई खेद, कष्टï, पीड़ा नहीं। अयोध्या में मंदिर बनना है। सो ढांचा को तो जाना ही था।'  इकरारनामे से इतर कल्याण ने खम भी ठोका। बोले- 'अब वहां मंदिर ही बनेगा, मस्जिद नहीं। भगवान राम मुसलमानों के भी पूर्वज। सो मुस्लिम समाज मंदिर निर्माण में खुद आगे आए।'  क्या कल्याण उवाच किसी खास संप्रदाय को धमकी नहीं? पर बीजेपी में वापसी को बेताब कल्याण के पास और कोई रास्ता भी नहीं। लिब्राहन रपट ने सिर्फ बीजेपी नहीं, तमाम भगवा धारियों को जिंदा कर दिया। कल्याण ने तो कह दिया, बीजेपी के लिए रपट यूपी में संजीवनी बनेगी। अब बीजेपी को तय करना, कल्याण की घर वापसी कैसे हो। पर कल्याण ने कांग्रेस को भी कटघरे में उतारा। जब पूछा, मंदिर में रामलला की मूर्ति स्थापना से लेकर ताला खुलवाने और शिलान्यास तक केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। तो क्या ये सारे काम कांग्रेस मस्जिद बनाने के लिए कर रही थी? यानी कल्याण की मानें, तो कांग्रेस ने रंगमंच तैयार किया। संघ परिवारियों ने तो सिर्फ मंचन किया। कल्याण ने तो यह भी कह दिया, कल से जनता की प्रतिक्रिया भी देख लेना। पर जनता का तो पता नहीं। राज्यसभा में हाथापाई जरूर हो गई। अखबारों में सपा-बीजेपी की नजदीकियां चर्चा बनी। तो मंगलवार को अमर सिंह ने कुछ नया कर दिखाया। चिदंबरम ने रपट पेश की। तो बीजेपी वालों ने 'जय श्री राम'  के नारे लगाए। सो अमर सिंह धड़धड़ाते वैल में घुस बीजेपी के उपनेता एस.एस. आहलूवालिया से भिड़ गए। सपाई सांसदों ने 'या अली' के नारे लगाए। अब वरिष्ठïों के सदन में ऐसी बात हो। तो क्या कहेंगे? यही ना, ऊंची दुकान, फीका पकवान। गुस्से में हाथापाई हुई। पर माफीनामा सिर्फ मजाक बनकर रह गया। दुबारा सदन बैठा। तो अमर-आहलूवालिया ने एक-दूसरे को अपना सहपाठी बताया। चेयरमैन ने भी सख्ती नहीं दिखाई। अमर सिंह को एतराज था, जय श्री राम के नारे क्यों लगाए। तो बीजेपी की दलील, सदन हमारा मंदिर। तो नारा कहां लगाएं। पर अमर वाणी देखिए- 'मैं सबसे बड़ा राम भक्त। मैं रोज हनुमान चालीसा पढ़ता हूं। पर सदन में धार्मिक नारेबाजी बर्दाश्त नहीं।' अब अगर देश में अमर-आहलूवालिया जैसा द्वेष बढ़ा। तो जिम्मेदार कौन होगा? क्या फिर कोई लिब्राहन आयोग बनाएंगे? अपने लोकतंत्र में अब नैतिकता-मर्यादा नहीं रही। वोट बैंक की जैसी मारामारी। अब तो यही लग रहा, राम कसम अपने नेताओं को शर्म आती ही नहीं।
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24/11/2009

Monday, November 23, 2009

इंडिया गेट से
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मूर्छित बीजेपी को संजीवनी
या अब काठ की हांडी नहीं?
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 संतोष कुमार
-----------तीसरे दिन भी संसद नहीं चली। लिब्राहन रपट की लीक चेन पुलिंग साबित हुई। सो अब आम आदमी के मुद्दे हाईजैक हो गए। मूर्छित बीजेपी को तो मानो संजीवनी मिल गई। रपट लीक में अटल का नाम ले सरकार ने फंदा गले में डाल लिया। सो सोमवार को संसद के दोनों सदन तो ठप हुए ही। राजनीति की आब-ओ-हवा बदल दी। लिब्राहन रपट 30 जून से ही सरकार के पास। पर अब संसद में पेश करने से पहले सिलेक्टिव लीक हो गई। लीक रपट में अटल, आडवाणी, जोशी दोषी बताए गए। सो संसद में हंगामा बरपना ही था। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम को फौरन भरोसा और सफाई देनी पड़ी। अब इसी सत्र में एटीआर के साथ रपट पेश करेंगे। बोले- 'लिब्राहन आयोग की रपट की सिर्फ एक प्रति। जो होम मिनिस्ट्री की सेफ कस्टडी में। हमारी तरफ से मीडिया में रिपोर्ट लीक नहीं हुई।Ó चिदंबरम ने रपट लीक को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। पर विश्वसनीयता को लेकर कन्नी काट गए। न हामी भरी, न इनकार किया। दूसरी तरफ जस्टिस लिब्राहन का भी लीकेज से इनकार। लिब्राहन तो पूछने पर इस कदर भड़के। पत्रकारों से कह दिया- 'दफा हो जाओ।Ó अब अगर चिदंबरम ने लीक नहीं की। न लिब्राहन ने। तो क्या ऊपर से हनुमान जी रिपोर्ट लेकर आए? ताकि मूर्छित पड़ी रामभक्त बीजेपी को संजीवनी मिल सके? पर अब संसद की अवमानना का सवाल उठा। तो जल्द रपट पेश करने का दबाव बढ़ गया। सोनिया गांधी ने भी सिपहसालारों से गुफ्तगू की। पर बीजेपी तो वाजपेयी के नाम से रिचार्ज हो गई। आडवाणी ने लोकसभा में मोर्चा संभाला। तो वाजपेयी के नाम पर बैटिंग की। बोले- 'रिपोर्ट से मैं स्तब्ध हूं। मेरा या मेरी पार्टी का इंडाइटमेंट होता, समझ में आता है। लेकिन जिन वाजपेयी जी के नेतृत्व में मैंने जीवन भर राजनीति में काम किया। उनके बारे में कोई ऐसा कहे, तो मैं नहीं रुक सकता। इसलिए मैंने पहली बार प्रश्रकाल स्थगित करने का नोटिस दिया।Ó यानी अटल की छवि को ढाल बना बीजेपी आक्रामक हो गई। यों वाजपेयी को लेकर बीजेपी ही नहीं, आयोग के वकील रहे अनुपम गुप्त ने भी सवाल उठाए। जब वाजपेयी को समन नहीं किया गया। तो दोषी कैसे ठहराया जा सकता? अनुपम गुप्त ने तो एक पते की बात कही। बोले- 'अगर सचमुच रपट में वाजपेयी का नाम। तो यह आडवाणी की भूमिका से फोकस शिफ्ट करने का प्रयास।Ó अब जो भी हो, पर सोमवार को रपट की आड़ में राजनीति की चमकार शुरू हो गई। लोकसभा में आडवाणी ने तीन अहम बातें कहीं। अयोध्या आंदोलन से जुडऩे को अपना सौभाग्य बताया। तो बाबरी ढांचा ढहने को जिंदगी का दुखद दिन। पर विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर बने। यही आडवाणी की जिंदगी की साध। सो आडवाणी बोले- 'अयोध्या में मंदिर तो है। पर भगवान राम के जन्मस्थान के अनुरूप नहीं। सो वहां भव्य मंदिर बने, यह मेरे जीवन की साध और जब तक यह साध पूरी नहीं होगी। इसके लिए काम करता रहूंगा।Ó आडवाणी के तेवर हू-ब-हू 1989 के दौर वाले। पर लोकसभा में आडवाणी ने मंदिर आंदोलन को सौभाग्य बताया। तो मुलायम सिंह ने मस्जिद की हिफाजत का खम ठोका। बोले- 'आडवाणी जी, मंदिर आपका सौभाग्य, तो मेरा भी सौभाग्य कि हम आपसे टकराए और मस्जिद की हिफाजत की।Ó अब आडवाणी-मुलायम के बयान के क्या निहितार्थ? मुलायमवादियों ने तो बीड़ा उठा लिया। यूपी में मुलायम अपनी बहू को चुनाव नहीं जितवा पाए। सो अब पार्टी जिंदा रखने को सियासी खेल खेलेंगे। मुस्लिम समाज से चंदा वसूलने की तैयारी। बदले में उसी जगह मस्जिद बनाने का भरोसा दिलाएगी। अगर सचमुच ऐसा हुआ। तो क्या देश में 17 साल पुराना इतिहास दोहराएगा? या काठ की हांडी फिर नहीं चढ़ेगी? भले सीधे सबूत हों या न हों। पर बाबरी विध्वंस घटना नहीं, साजिश थी। यों दंगों पर राजनीति ज्यादा होती, न्याय कम मिलता। सियासतदानों को अपनी राजनीति चमकाने के लिए मुद्दा जिंदा रखने की आदत हो चुकी। पर बात बाबरी ढांचा गिराने की साजिश की। तो खुद बीजेपी के लोग ही कबूल रहे। अयोध्या आंदोलन से पैदा हुए तनाव के बाद यूपी में कल्याण सरकार की बर्खास्तगी तय मानी जा रही थी। सो रणनीति थी, पहले कल्याण सिंह बर्खास्त हों। फिर उत्तेजना का माहौल पैदा कर ढांचा ढहाया जाए। पर पांच दिसंबर की रातोंरात रणनीति बदल गई। आडवाणी ने कल्याण के घर खाना खाया। तो भीड़ के भड़कने का अंदेशा चर्चा का विषय था। कल्याण चाहते थे, गुंबद को नुकसान न पहुंचे। पर बीजेपी नेताओं की जुबानी ही। रात में अशोक सिंघल और मोरोपंत पिंगले ने रणनीति बना ली। एतिहासिक मौका है, चूकना नहीं चाहिए। यूपी में अपनी सरकार, पता नहीं भविष्य में हो या न हो। सो पहले ढांचा गिराओ, बाद में बनाएंगे। रात में यह बात सिर्फ सिंघल-पिंगले तक सीमित रही। सुबह बजरंग दल के अध्यक्ष विनय कटियार को अलर्ट किया गया। ताकि बजरंगदली हुड़दंग मचा सकें। अगले दिन छह दिसंबर को वही हुआ। कल्याण सिंह तक जब खबर पहुंची। तो गुस्से में फोन पटक दिया। पर याद है ना, बाद में कल्याण क्या कहते थे। फिर भी जनता ने चुनाव में साथ नहीं दिया। यानी बीजेपी नेताओं की ही मानें। तो बाबरी ढांचा गिराना साजिश थी। भले छह दिसंबर नहीं, तारीख कोई और होती।

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23/11/2009

Friday, November 20, 2009

'सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया'

इंडिया गेट से
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'सब कुछ लुटा के होश
में आए, तो क्या किया'
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 संतोष कुमार
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              तो लौट के बुद्धू घर को आए। अब फिर गन्ना कीमतें पुराने ढर्रे पर तय होंगी। शुक्रवार को भी विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी। तो प्रणव मुखर्जी ने तुरत-फुरत संसद भवन में ही सर्वदलीय मीटिंग बुला ली। यों सोमवार को भी सर्वदलीय मीटिंग होगी। पर तब एनेक्सी में बैठ सभी नेता नाश्ता उड़ाएंगे। सो शुक्रवार को ही अध्यादेश का विवादित क्लॉज 3-बी हटाने पर सहमति बन गई। ताकि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। केंद्र ने एफआरपी तय कर मिल मालिकों को राहत दी थी। अब 3-बी हटेगा। तो केंद्र एक मूल्य तय करेगा। फिर राज्य की ओर से कीमत तय होंगी। और दोनों के बीच के अंतर की भरपाई मिल मालिकों को करनी होगी। यानी कुल मिलाकर अध्यादेश से पहले वाली नीति लौट आएगी। अब अपनी सरकार को क्या कहें। तलत महमूद का वह गीत सोलह आने फिट बैठ रहा- 'सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। दिन में अगर चिराग जलाए, तो क्या किया।Ó जब वापस ही लौटना था। तो दो दिन संसद क्यों ठप कराया। देश की राजधानी को जाम में क्यों फंसाया। संसद सत्र में एक दिन का खर्चा करीबन 45 लाख बैठता। यानी दो दिन में करोड़ों का नुकसान। भले गन्ना किसानों को राहत मिलेगी। पर सरकार की फांस कम नहीं हुई। सुगर लॉबी ने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ 14 हजार करोड़ सरकार से हासिल किए। सो सरकार ने अध्यादेश लाकर राज्यों पर बोझ डाल दिया। अब संशोधन होगा। तो वापस मिल मालिक बोझ उठाएंगे। तो क्या सुगर लॉबी चुपचाप बैठी रहेगी? मामला फिर सुप्रीम कोर्ट जाना तय मानिए। यानी अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई। अलबत्ता शीत सत्र की शुरुआत में ही लगे झटके से उबरने की राजनीतिक कोशिश हुई। गतिरोध तोडऩा जरूरी था। सो विपक्ष ने भी अध्यादेश वापसी की मांग छोड़ दी। विवादित क्लॉज हटाने पर सहमति दे दी। यानी चेहरा बचाने को सरकार ने भी मान लिया। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए। तो उसे भूला नहीं कहते। सो बाकी दलों ने भी चेहरा बचाने के लिए ऐसा ही मान लिया। तभी तो सुषमा स्वराज बोलीं- 'किसी राजनीतिक दल की नहीं, अलबत्ता किसानों की जीत।Ó वाकई अब राजनीतिक दलों के बूते में जन आंदोलन जैसी चीजें नहीं रहीं। तभी तो शिवसेनिक हार की खिसियाहट में मीडिया पर हमला बोल रहे। तो दूसरी तरफ बीजेपी में श्रेष्ठïता की जंग छिड़ी हुई। शुक्रवार को मुंबई-पुणे में बाल ठाकरे के गुंडों ने एक टीवी चैनल के दफ्तर पर धावा बोल दिया। कर्मचारियों से बदसलूकी की। कंप्यूटर से लेकर टीवी तक जो जी में आया, तोड़-फोड़ डाला। क्या महाराष्टï्र में लोकतंत्र की बागडोर चचा-भतीजे ने ही संभाल रखी? अगर किसी खबर पर एतराज हो। तो आप नोटिस भेज सकते या कोर्ट जा सकते। या प्रेस काउंसिल में भी जाने का विकल्प। पर इन चचा-भतीजे ने तो संविधान को मानो जेब में रख लिया। अब जनता चुनाव में न जिताए। तो क्या कोई ऐसे पागल सांड की तरह सींग मारेगा? पर लगातार तीसरी हार के बाद भी शिवसेना के होश ठिकाने नहीं। तो कोई क्या करे। पर बात बीजेपी की। मौका मिलता, तो विपक्ष की भूमिका का दिखावा कर जाती। जैसे अबके गन्ना अध्यादेश के क्लॉज 3-बी पर किया। वरना बीजेपी तो संघ के अध्यादेश में लगाए डी-4 क्लॉज से ही परेशान। डी-4, यानी दिल्ली से बाहर का नेता होगा अध्यक्ष। डी-4 में पहले जेतली, सुषमा, वेंकैया, अनंत का नाम आया। पर अब सही खुलासा सुषमा स्वराज ने किया। अनंत कहीं नहीं, चौथे नरेंद्र मोदी। नए अध्यक्ष को लेकर तीन महीने पहले ही प्रक्रिया शुरू हो गई। शुरुआत में सुषमा का नाम आया। तो उन ने अध्यक्षी के बजाए आडवाणी का उत्तराधिकारी बनने का फैसला किया। अरुण जेतली राज्यसभा में उम्दा काम करने की वजह से छंट गए। तो वेंकैया नायडू पहले भी अध्यक्ष रहने की वजह से बाहर हो गए। फिर नरेंद्र मोदी सीएम होने की वजह से। सो आखिर में नितिन गडकरी पर बात बनी। अब बीजेपी के नए खुलासे पर क्या कहें। सुषमा का त्याग या अंगूर खट्टïे हैं? या नितिन गडकरी को ताजपोशी से पहले हैसियत बता दी गई? वाकई गडकरी के लिए अनुशासन और हार से उबरने की चुनौती से ज्यादा डी-4 के नेता। पर संघ ने बीजेपी के लिए अध्यादेश जारी कर अपनी और पार्टी की भी किरकिरी करा ली। सो गुरुवार की रात संघ ने बयान जारी कर सफाई दी। डी-4 के नेता भी अध्यक्ष पद की दौड़ में। अब शुक्रवार को वेंकैया नायडू का बयान जारी हो गया। तो दो-तीन बातें कहीं। आडवाणी अपना पद पहले ही छोड़ेंगे। मैं अध्यक्ष पद की दौड़ में नहीं। और सबसे अहम बात, संघ और बीजेपी का सिर्फ वैचारिक रिश्ता। दोनों का एक-दूसरे के कामकाज में कोई दखल नहीं। रही बात अध्यक्ष की। तो न आरएसएस ने कोई नाम सुझाया, न खारिज किया। न ही बीजेपी ने अभी तक अपना कोई अध्यक्ष तय किया। सो आम सहमति की प्रक्रिया पूरी होने के बाद होगा नए अध्यक्ष का एलान। पर अब तक तो बीजेपी खम ठोककर कह रही थी। आडवाणी पूरे टर्म नेता विपक्ष रहेंगे। अब वेंकैया से रिटायरमेंट का एलान करवा दिया। पर सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। यानी कुल मिलाकर बीजेपी में नेतृत्व परिवर्तन की अंदरूनी कवायद तो खत्म हो चुकी। सुषमा लोकसभा में नेता, गडकरी अध्यक्ष, बाकी अपने पद पर रहेंगे। सो सिर्फ औपचारिकता ही बाकी।

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20/11/2009

Thursday, November 19, 2009

न भूलें, गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे

इंडिया गेट से

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न भूलें, गांधी के देश में
भगत सिंह भी हुए थे
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 संतोष कुमार
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            मूर्खों के बारे में कहा जाता है। मूर्ख पहले करते हैं, फिर सोचते हैं। पर कोई सोच-समझ कर मूर्खता करे। तो उसे महामूर्ख के सिवा क्या उपाधि दी जाए। अब शीत सत्र के पहले दिन दिल्ली ठहर गई। संसद ठप हो गया। तब कहीं जाकर सरकार झुकी। अब सोमवार को सर्वदलीय मीटिंग होगी। तो गन्ना अध्यादेश में संशोधन पर विचार होगा। ताकि किसानों का गुस्सा ठंडा हो। पर सरकार यह कवायद पहले भी तो कर सकती थी। तब तथाकथित रहनुमाओं का दिमाग कुंद क्यों पड़ गया? किसानों का गुस्सा संसद से सड़क तक फूटेगा। इसकी जानकारी सबको थी। तो फिर मनमोहन और उनके सिपहसालार क्या गुरुवार की बाट जोह रहे थे। ताकि भीड़ देखकर दिमाग के घोड़े दौड़ा सकें। क्या सरकार में विजन नाम की कोई चीज नहीं? या जब तक पानी सिर से ऊपर न निकल जाए। तब तक पानी का अहसास ही नहीं होता। सो गुरुवार को संसद भले विपक्ष के हंगामे से ठप हुआ। पर सही मायने में सरकार ने संसद ठप होने दिया। अगर सरकार चाहती, तो किसानों और राजनीतिक दलों से पहले भी अपील कर सकती थी। पर जब अपने हित की खातिर गन्ना किसान सरकार की छाती पर मूंग दडऩे आए। तब सरकार का दम घुटने लगा। सो मनमोहन ने फौरन प्रणव, पवार, चिदंबरम, मोइली की मीटिंग बुला ली। मीटिंग के बाद शरद पवार ने किसानों से धरना खत्म करने की अपील की। अध्यादेश पर फिर से विचार का भरोसा दिलाया। तब कुछ बात बनी। यों अब शरद पवार के भरोसे पर ऐतबार भले न हो। पर पीएम ने जिनको भरोसा दिया। उसके बाद अध्यादेश में संशोधन तय मानिए। यही फर्क होता है आम आदमी और खास आदमी में। पीएम ने राहुल गांधी को भरोसा दिलाया। यानी शाम होते-होते क्रेडिट की लड़ाई में ट्विस्ट आ गया। कांग्रेस ने बाकायदा बयान जारी कर कह दिया- 'राहुल गांधी ने आज सुबह पीएम से मिल गन्ना किसानों की भावना रखी। तो पीएम ने किसानों के हित में अध्यादेश को संशोधित करने का भरोसा दिया।' वाकई कांग्रेस की रणनीति अजब हित की गजब कहानी जैसी। नरेगा हो या आरटीआई। एसईजेड हो या सादगी। कांग्रेसियों की सोनिया गांधी को श्रेय दिलवाने की गजब रणनीति। जब भी मामले ने तूल पकड़ा। दस जनपथ से चि_ïी निकली। बगल के सात रेसकोर्स रोड पहुंच गई। अब अध्यादेश में संशोधन होगा, तो कांग्रेसी कुर्ता फाड़ चिल्लाएंगे। राहुल बाबा के प्रयास से गन्ना किसानों के हित में कदम उठा। पर कोई पूछे, राहुल ने गन्ना किसानों की बात पीएम तक गुरुवार से पहले क्यों नहीं पहुंचाई? क्यों आग लगने का इंतजार किया? पर सत्ता पक्ष के साथ-साथ एक सवाल विपक्ष से भी। गन्ना किसानों की खातिर संसद से सड़क तक मुहिम में कितनी ईमानदारी? अगर पश्चिमी यूपी में ये किसान वोट बैंक न होते। तो क्या ऐसी आर-पार की लड़ाई होती? कैसे एक झटके में सरकार की हेकड़ी निकल गई। पर क्या इन विपक्षियों ने कभी आम आदमी के बारे में सोचा? महंगाई जान लेने पर आमादा। पर महंगाई की खातिर ऐसी राजनीतिक लड़ाई नहीं हुई। जो एक झटके में सरकार को हिला दे। वोट की खातिर मुलायम-अमर भी अजित संग हो गए। लालू, वासुदेव, गुरुदास, शरद, अरुण जेतली सब एक मंच तक आ गए। अब राजनाथ, शरद घुड़की दे रहे। जब तक अध्यादेश वापस नहीं होगा, संसद नहीं चलने देंगे। पर महंगाई के मुद्दे का क्या हश्र? हर सत्र में आवाज उठती। सरकार भी खानापूर्ति को बहस करा लंबी तान लेती। अब तो खबरें आ रहीं, चावल आयात होगा। प्याज की पैदावार कम हुई। सो रुला रही प्याज और रुलाएगी। पर नेता तो फिलहाल गन्ना चूसने में मस्त। अब गन्ना किसानों की समस्या भले खत्म हो जाए। पर देश में तो समस्याओं का अंबार। कपास किसान हों या बाकी अनाज पैदा करने वाले किसान। सबकी समस्या एक जैसी। आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही। पर अपने नेतागण समस्या पर तभी ध्यान देते, जब जनता गिरेबां थाम ले। गुरुवार को किसानों ने ताकत दिखाई। एक ने कहा- 'दिल्ली में अनाज नहीं आने देंगे। दूध, सब्जी, अनाज की गाडिय़ां रोक देंगे।Ó इतना ही नहीं, खून बहाने तक की चेतावनी दे गए। पर किसानों के नाम पर सिर्फ राजनीति। संसद-सरकार में चरण सिंह-देवीलाल जैसे खाटी किसान अब प्रतिनिधि नहीं। सो सरकार भी एडहॉक काम कर रही। कृषि आधारित अपनी अर्थव्यवस्था। पर समूची कृषि के लिए कोई केंद्रीकृत योजना नहीं। अब यह भी देश का संयोग ही। गुरुवार को किसान सौ-डेढ़ सौ रुपए की लड़ाई लड़ रहे थे। तो दूसरी तरफ मुकेश अंबानी की आमदनी साल भर में 54 फीसदी बढऩे की खबर। फोब्र्स मैगजीन में मुकेश देश के सबसे अमीर। पिछले साल 21 अरब डालर संपत्ति थी। अब 32 अरब डालर हो गई। दूसरे नंबर पर लक्ष्मी मित्तल। तो तीसरे पर मुकेश के भाई अनिल। इतना ही नहीं, पिछले साल देश में सिर्फ 27 अरबपति थे। अबके मंदी के बाद भी दुगुने यानी 54 हो गए। आखिर यह कैसी समानता? सो किसान या आम आदमी के पेट से ज्वाला तो निकलेगी ही। सो गुरुवार को जो हुआ। उसे देख सरकार को भी अब यह नहीं भूलना चाहिए। भले अहिंसा अपनी नीति। पर गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे। सो बेहतर यही, अपने बहरेपन का इलाज करा ले। वरना वह दिन दूर नहीं, जब लोग महानगरों को लूटना शुरू कर दें।
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19/11/2009

Wednesday, November 18, 2009

तो क्या अब चीनी-अमेरिकी भाई-भाई?

इंडिया गेट से

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तो क्या अब चीनी-
अमेरिकी भाई-भाई?
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 संतोष कुमार
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         अब तय हो चुका, बीजेपी का किला नितिन गडकरी ही संभालेंगे। बुधवार को बीजेपी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर तो गडकरी शब्द के अर्थ भी पार्टी मंच से बता गए। गडकरी, यानी गढ़ की रक्षा करने वाला। किले को मजबूत करने वाला। यानी कमजोर हो रहे बीजेपी के किले को संघ ने नाम का गडकरी थमा दिया। सो बीजेपी में गडकरी का गुणगान भी शुरू हो गया। यों गडकरी शब्द शिवाजी महाराज के वक्त खूब इस्तेमाल होता था। शिवाजी किला फतह करते जाते। उसकी रक्षा के लिए सिपाही भी तैनात होते जाते। सो गढ़ की रक्षा करने वालों इन सिपाहियों को ही गडकरी कहा गया। अब शिवाजी के गडकरी तो इतिहास की बात। पर संघ के गडकरी बीजेपी के कितने काम आएंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। सो फिलहाल तो बीजेपी के धुरंधर सरकार को घेरने में जुट गए। आखिर जन, गण, मन की घड़ी आ ही गई। गुरुवार को शीत सत्र शुरू होगा। तो संसद के बाहर गन्ना किसान दर्द उड़ेलेंगे। सदन के भीतर विपक्ष की गर्जना। सो संसद सत्र के लिए मुद्दों की भरमार और विपक्ष के तेवरों ने सरकार की तबियत नासाज कर दी। सो अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने बुधवार को ही बचावी पेंतरा ढूंढ लिया। बोले- 'अंदरूनी कलह से बचने के लिए विपक्ष सत्र को बाधित करने की मंशा पाले हुए है।Ó यानी बीजेपी जब भी मुद्दा उठाकर हंगामा करेगी। तो कांग्रेस जवाब में यही दलील देगी। पर क्या गन्ना किसानों की आवाज या महंगाई, भ्रष्टïाचार, आतंकवाद जैसे मुद्दे उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं? अब अगर बीजेपी इन मुद्दों पर सरकार से जवाब तलब करे। तो सरकार को सीधे-सीधे जवाब देना चाहिए। ताकि संसद में बहस का स्तर उम्दा हो। आम जनता का संसद के प्रति भरोसा बढ़े। ब्रिटिश विद्वान सर आइवर जैनिंग्स ने लोकतंत्र के बारे में यही तो लिखा था। अगर किसी देश की जनता स्वतंत्र है या नहीं, यह पता करना हो। तो पहले यह पता करो कि उस देश में विपक्षी दल है या नहीं। और अगर है, तो उसकी स्थिति कैसी है। यानी लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती ही बेहतर शासन की नींव। सो जनता के मुद्दे से मुंह छिपाने को विपक्ष के अंदरूनी झगड़ों पर हमला कहां तक उचित? पर सरकार भी विपक्ष को जवाब देने की तैयारी का दावा कर रही। सो भले घरेलू मुद्दों पर राजनीतिक नफा-नुकसान बहस में दिखे। पर अंतर्राष्टï्रीय मामले में एकजुटता की जरूरत। अब अमेरिका की चीन से गलबहियां अपनी चिंता का विषय। अमेरिका ने यू-टर्न लेते हुए तिब्बत पर पहली बार चीन का साथ दिया। यही अमेरिका दलाईलामा को चीन के खिलाफ अंतर्राष्टï्रीय मंच मुहैया कराता रहा। हर तरीके से मदद के साथ-साथ मानवाधिकार की दुहाई देता रहा। ताकि चीन को काबू में रख सके। पर मंदी ने अमेरिका को हिला दिया। अब चीन आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर। सो ओबामा सीधे चीन को शरणागत हो गए। पर चीन कम चालाक नहीं। जब खुद महाशक्ति बनने की ओर। तो डूब रही महाशक्ति को सहारा क्यों दे। सो भारत के खिलाफ फिलहाल अमेरिका का साथ निभाएगा। ताकि अरुणाचल के तवांग पर अपना दावा मजबूत कर सके। सो अमेरिका-चीन की गलबहियां भारत के लिए दोहरी चिंता की वजह। साझा बयान तो अमेरिका-चीन का जारी हुआ। पर जिक्र भारत-पाक मुद्दे की हो गई। ओबामा-जिंताओ ने मिलकर भारत-पाक के मामलों में दखल देने की प्रतिबद्धता जता दी। चीन तो पहले ही पाक को शह देता रहा। अब अमेरिका ने उसे दक्षिण एशिया का दादा घोषित कर दिया। यानी अब दोनों मिलकर कश्मीर में अपनी नाक घुसेड़ेंगे। पर कहीं ऐसा न हो, अमेरिकी-चीनी भाई-भाई बन भारत को कश्मीर में उलझा दें। उधर तवांग को चीन हथिया ले। पर चीन से अमेरिका को भी सचेत रहने की जरूरत। चीन ने पहले हिंदी-चीनी भाई-भाई कहकर भारत की पीठ में छुरा घोंपा। सो जो चीन पड़ोसी का सगा न हुआ। वह सात समंदर पार अमेरिका का क्या होगा। अब कोई पूछे, अमेरिका-चीन साझा बयान में भारत-पाक कहां से आ गए। दक्षिण एशिया में शांति का दादा क्यों बन रहे, जब किसी ने मदद मांगी ही नहीं। सो बुधवार को अपने विदेश मंत्रालय ने दो-टूक जवाब दे दिया। अमेरिका और चीन भले स्वयंभू दादा बन रहे हों। पर भारत का राष्टï्रीय हित सर्वोपरि। सो अपने विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर दिया। पाक के साथ द्विपक्षीय वार्ता के जरिए विवाद को खुद सुलझाएंगे। शिमला समझौते के तहत न तो तीसरे पक्ष की भूमिका हो सकती। और न भारत को इसकी दरकार। पर पाक से सार्थक बातचीत तभी, जब आतंकवाद का खात्मा होगा।

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18/11/2009

Friday, November 13, 2009

हेडली पर यूएस के रुख से ठगी रह गई अपनी सरकार

इंडिया गेट से
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हेडली पर यूएस के रुख से
ठगी रह गई अपनी सरकार
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 संतोष कुमार
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डेविड हेडली के मंसूबों के खुलासे ने फिर सवाल उठा दिया। आतंकवाद के खिलाफ अपनी तैयारी कितनी मुकम्मल। हाल में जनरल दीपक कपूर ने ताल ठोककर कहा था- '26/11 को मुंबई पर हमला आखिरी आतंकी वारदात। जैसे 9/11 के बाद अमेरिका ने कोई हमला नहीं होने दिया। इंडोनेशिया ने बाली विस्फोट के बाद दूसरा वाकया न होने दिया। वैसी ही अब हमारी तैयारी।' गुरुवार को अपने पी. चिदंबरम ने भी करीब-करीब यही दोहराया। भले 26/11 के बाद अपना सुरक्षा तंत्र चुस्त-दुरुस्त हुआ। पर जब तक सरकार में बैठे राजनीतिक आकाओं में कूटनीतिक साहस न हो। तो सुरक्षा तंत्र क्या बिगाड़ लेगा? डेविड हेडली का ताजा किस्सा तो यही बयां कर रहा। अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने हेडली को गिरफ्तार किया। तो लश्कर-ए-तोइबा से सांठगांठ कर अमेरिका व भारत में हमलों की साजिश का खुलासा हुआ। हेडली के भारत आने-जाने की रपट एफबीआई ने दी। तो अपनी सुरक्षा एजेंसी हेडली के फुट प्रिंट्स के पीछे-पीछे भाग रही। ताकि कोई सुराग मिल सके। हेडली 2006 से 2008 के बीच भारत आता-जाता रहा। अहमदाबाद, लखनऊ, मुंबई, आगरा, दिल्ली के होटलों में रुका। पर न अपने सुरक्षा बलों को भनक लगी। न हमलों के बाद कोई सुराग ढूंढ पाई। अब किस-किस साजिश में हेडली का हाथ। इसके पुख्ता सबूत आने बाकी। पर दिल्ली धमाके से लेकर 26/11 तक में हेडली का नाम आ रहा। खुलासे में किसी राहुल का नाम आया। तो मनमोहन सरकार सकते में आ गई। अंदेशा हुआ, कहीं राहुल बाबा का नाम तो नहीं। कहीं राहुल के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं। सो जांच ने फौरन रफ्तार पकड़ ली। तब जाकर शुक्रवार को खुलासा हुआ। राहुल भट्टï से मिला था डेविड हेडली। जब मुंबई आया, तो वर्जिश को लेकर राहुल भट्टï से मुलाकात हुई। राहुल भट्टï नामचीन फिल्म डायरेक्टर महेश भट्टï के बेटे। जो पेशे से जिम इंस्ट्रक्टर। सो राहुल ने खुद पुलिस को सारी कहानी बताई। पर राहुल नाम की गफलत में सरकार ने फौरन आईबी-रॉ की एक टीम अमेरिका भेज दी। ताकि हेडली से पूछताछ कर जांच को अंजाम तक पहुंचाया जा सके। पर आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई की पोल एक बार फिर खुल गई। अमेरिका की जुबान और नीयत में सात समुंदर का फासला। सो भारत के खिलाफ साजिश रचने वाले डेविड हेडली के बारे में रपट तो दी। पर भारतीय जांच टीम को डेविड से पूछताछ की इजाजत नहीं दी। पूछताछ की बात तो छोडि़ए। एफबीआई ने अमेरिकी मूल के गिरफ्तार आतंकी डेविड हेडली उर्फ दाऊद गिलानी और तहव्वुर राना का चेहरा तक नहीं देखने दिया। अब जरा अमेरिकी नीयत का फर्क आप खुद देख लो। जब 26/11 को मुंबई में हमला हुआ। मरने वालों में कई अमेरिकी नागरिक भी। सो अपनी जांच एजेंसियों ने कोई हील-हुज्जत नहीं की। अलबत्ता अजमल आमिर कसाब को एफबीआई के हवाले कर अलग से पूछताछ करने दी। सो अमेरिका की दोहरी नीति कब तक छिपी रहेगी। अब अपनी जांच एजेंसी और सरकार सिर्फ एफबीआई से मिलने वाली रिपोर्ट पर ही निर्भर। पर डेविड हेडली तो अपने मंसूबों को अंजाम देकर भारत से निकल चुका। सो जब तक अपनी एजेंसी पूछताछ न कर ले। अंधेरे में हाथ-पांव मारने के सिवा कोई चारा नहीं। अपनी हालत तो ऐसी, जैसे सांप के निकल जाने के बाद लकीर पर लाठी पीट रहे। यानी भारत में तबाही मचाने वाले आतंकियों से पूछताछ की खातिर भी अब अमेरिका की मुंहतकी की नौबत। अमेरिका भी यही चाह रहा। ताकि दुनिया की आंखों में धूल झोंक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ढिंढोरा पीट सके। तो दूसरी तरफ पाक और चीन को शह देकर दक्षिण एशिया में दबदबा बनाए रखने की रणनीति। तभी तो 26/11 के हमले के बाद भले कूटनीतिक दबाव का असर दिखा। पर अब तो पाक ढीठ होकर पलटवार कर रहा। चीन से आधुनिक लड़ाकू विमान मिल रहे। अमेरिका से अरबों-खरबों की मदद। पाक में तालिबानी तांडव मचा हुआ। तो इसी नाम पर अमेरिकी सहायता मिल रही। दूसरी तरफ चीन भारत में नक्सली आतंकवाद फैलाने की तैयारी कर चुका। सो नक्सली सरकार से बातचीत की पेशकश को ठुकरा रहे। सरकार के खिलाफ जंग का एलान। सो चुनौती घरेलू हो या कूटनीतिक। सरकार में निपटने का कितना दमखम। अमेरिका ने भारत की जांच टीम को बैरंग लौटा दिया। पर मनमोहन सरकार चूं तक नहीं कर सकी। आखिर आतंकवाद के खिलाफ यह कैसी वैश्विक जंग? अगर अपनी सरकार सख्ती के साथ-साथ शक्ति की भाषा भी अपनाए। तो दोहरी नीति अपनाने वाले बेनकाब हो सकें। पर अपनी सरकार ने तो फिलहाल वैसा साहस नहीं दिखाया। अब हेडली के प्रत्यर्पण की कोशिश करेगी। सो अपनी नेशनल इनवेस्टीगेटिव एजेंसी ने हेडली-राना के खिलाफ केस दर्ज कर लिया। अब अंधेरे में हाथ-पांव मार सबूत जुटाएगी। फिर अमेरिका से प्रत्यर्पण की मांग होगी। पर तब तक एफबीआई हेडली-राना को निचोड़ चुकी होगी।
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13/11.2009

Thursday, November 12, 2009

इंडिया गेट से
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पश्चाताप के आंसू: कितने
घडिय़ाली, कितने सच?
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 संतोष कुमार
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फिजां बदली, तो बीजेपी को अपना घाव दर्द देने लगा। इतिहास का पन्ना कुरेद मरहम लगा रही। पर पहले बात अध्यक्षी घुड़दौड़ की। नितिन गडकरी गुरुवार को दिल्ली आए, और निकल लिए। झंडेवालान में हाजिरी लगाई। तो अशोका रोड पहुंच रामलाल से दो घंटे की गुफ्तगू। सो सवाल हुआ, तो गडकरी ने कह दिया- 'मैं किसी दौड़ में शामिल नहीं।Ó वाकई खुद से गडकरी या कोई और दौड़ में शामिल नहीं हो सकता। दौड़ाने का जिम्मा तो मोहन भागवत ने संभाल रखा। सो जिसे चाहें, डंडा थमा दें। पर रिटायरमेंट को मजबूर आडवाणी भी खूंटा गाड़े बैठे। अब अध्यक्ष गडकरी बनें, या मोदी, शिवराज, पारिकर या कोई डार्क हॉर्स। पर बीजेपी का झगड़ा ऐसी मजाक बन चुका। अशोका रोड में लोग कहने लगे। आडवाणी ने संघ को कुछ यों संदेशा भेज दिया। तुम मुझे न चाहो, तो कोई बात नहीं। किसी और को चाहोगी, तो मुश्किल होगी। यानी भागवत चाहे लाख घोड़े दौड़ा लें। आडवाणी की मर्जी के बिना किसी को अध्यक्ष नहीं थोप सकते। पर दिल्ली से बाहर के अध्यक्ष वाला भागवत का बयान हो या आडवाणी-राजनाथ की खेमेबाजी। बीजेपी खुद में मजाक बनकर रह गई। गुरुवार को नितिन गडकरी बीजेपी हैड क्वार्टर पहुंचे। तो खबरनवीसों तक सूचना पहले पहुंच गई। सो अपनी बिरादरी वालों ने भावी अध्यक्ष का तमगा थमा बधाइयां दे दीं। किसी ने कहा, चार्ज लेने आए हैं। तो किसी ने कहा, फाइल देखने। पर अब शायद मजाक की अति हो चुकी। सो बीजेपी मानो दर्द से कराह रही। बीजेपी के मुखपत्र 'कमल संदेशÓ के ताजा अंक में इसी बात का रोना-धोना। बीजेपी अब खुद से सवाल पूछ रही, जब संगठन सर्वोपरि है। तो फिर ऐसा क्यों...? अब शायद बीजेपी के नेता या वर्कर कम से कम मीडिया पर तो आरोप नहीं मढ़ेंगे। खुद बीजेपी कबूल रही। पराजय की मार झेलने के बाद जो हुआ, बीजेपी जनता को क्या मुंह दिखाए। वर्करों की भावना पहली बार 'कमल संदेशÓ में उभरी। तो हर वर्कर अपने आला नेताओं से यही पूछ रहा- 'हम जवाब क्या दें?Ó पर 'कमल संदेशÓ का संपादकीय भी फ्लैश बैक से शुरू हुआ। सो बानगी आप खुद देख लो। जैसी हार 2004 में हुई, वैसी ही 2009 में भी। फर्क इतना, तब एनडीए सरकार में था। अबके विपक्ष में। उस समय भी महाराष्टï्र, अरुणाचल, हरियाणा में बीजेपी हारी। इस बार भी यही हुआ। पर 2004 और 2009 के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क। अभी भी पांच-सात राज्यों में सरकार होने का गर्व। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत। बीजेपी के कोर मुद्दे- हिंदुत्व की विचारधारा, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता की भी याद ताजा की। निराशा और हताशा से उबरने को जनसंघ से बीजेपी के सफर का भी जिक्र। जब पुरोधाओं ने तिल-तिल जलकर जनसंघ का 'दीयाÓ जलाया। गांव-गांव तक 'कमलÓ पहुंचाया। मनमोहन सरकार की पहली पारी में विधानसभा चुनाव जीतने का खूब बखान। ताकि पार्टी हताशा से निकल सके। बिहार में लालू राज समाप्त किया। झारखंड में संविधान की आन बचाई। पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड कांग्रेस से छीन लिए। प्रतिष्ठïा का मुद्दा बना गुजरात चुनाव भी कांग्रेस के मुंह पर तमाचा रहा। बीजेपी को उत्तर भारतीयों की पार्टी कहा गया। पर दक्षिण के कर्नाटक में परचम लहरा येदुरप्पा सीएम बने। नगालैंड में गठबंधन की सरकार बनी। यानी 'कमल संदेशÓ के पहले पार्ट में इतिहास से सिर्फ सुनहरे पन्ने निकाले गए। पर जिन्ना एपीसोड, उमा भारती प्रकरण, खुराना का दिल्ली प्रेम, कल्याण सिंह का जाना, राजस्थान और गुजरात की उठापटक तो आम बात रही। फिर भी इतिहास के काले पन्ने नहीं कुरेदे गए। पर अब जरा कबूलनामे के दूसरे पार्ट पर नजर फिराएं। तो राजस्थान का वसुंधरा एपीसोड और कर्नाटक का येदुरप्पा एपीसोड बीजेपी को झकझोर गया। सो 'कमल संदेशÓ में साफ लिखा गया- 'राजस्थान में हालत पतली। फिर भी राजस्थान को लेकर हाल में जो दृश्य पैदा हुआ। उससे देश भर के कार्यकर्ताओं का मन दुखी हुआ। आखिर बिना अनुशासन और दल की एकता के हम कहां रहेंगे?Ó यानी वसुंधरा प्रकरण पर भले उनके समर्थक डींगें हांक बीजेपी को ठेंगा दिखा रहे। नेता के आगे संगठन को बौना बता रहे। उनके लिए साफ नसीहत, संगठन ही सर्वोपरि। राजस्थान और दिल्ली की हार गले नहीं उतर रही। सो 'कमल संदेशÓ के जरिए बीजेपी अब बीजेपी से ही सवाल पूछ रही। हम कमजोर कहां हैं? हमारी कमजोरी क्या है? वक्त रहते कमजोरी दूर करने की जरूरत। दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। यह बात नेतृत्व को समझनी ही होगी। आखिर ऐसे कौन से हालात, जो बीजेपी यहां तक पहुंच गई? अब बीजेपी के नेता 'कमल संदेशÓ में उठाए सवालों को कितनी गंभीरता से लेंगे, यह तो वही जानें। पर 2004 और 2009 के बाद के माहौल में बड़ा फर्क। तब बीजेपी सत्ता से बेदखल हुई थी। पर कुछ विधानसभा में जीती, तो जश्र मनाया। हारी, तो सबक नहीं लिया। अबके 2009 में सत्ता की उम्मीद थी, पर जैसे प्यासा कुएं के पास जाकर लौटने को मजबूर हो। वैसी ही झल्लाहट बीजेपी के चेहरे पर। सो बीजेपी के पश्चाताप के आंसू, कितने घडिय़ाली, कितने सच, यह तो समय ही तय करेगा।
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Monday, November 9, 2009

इंडिया गेट से --------- 'राज' द्रोह पर नपुंसक क्यों अपनी राजनीति? ---------------  संतोष कुमार ----------- 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा... हिंदी हैं हम, वतन है... हिंदोस्तां हमारा।' मोहम्मद इकबाल का लिखा तराना 1904 से अब तक अपने गौरव का गीत बना हुआ। पर कौन सोच सकता, ऐसा तराना लिखने वाला कभी बंटवारे की बात करेगा। फिर भी इतिहास का यही सच। इकबाल बाद में बंटवारे के कट्टïर पैरोकार बन गए थे। ऐसा ही तराना उन ने पाक की खातिर भी लिखा। अब इकबाल तो सारे जहां से अच्छा गीत आम भारतीय की जुबान से दूर नहीं कर सके। पर सोमवार को महाराष्टï्र की विधानसभा से वही बंटवारे की बू आई। एक तरफ मराठी प्रेम, तो दूसरी तरफ देश को बांटने का संदेश। राज ठाकरे के गुंडों ने फिर देश को शर्मसार करने वाला वाकया दिखाया। पहली बार एमएनएस के 13 एमएलए चुने गए। तो राज ठाकरे के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे। सो सड़कों की लड़ाई विधानसभा पहुंच गई। विवाद का मुद्दा बनी अपनी राष्टï्र भाषा। राज ठाकरे ने अपील कम, आदेश के अंदाज में सभी विधायकों को फरमान थमा दिया था। शपथ ग्रहण सिर्फ मराठी में ही करना होगा। पर समाजवादी पार्टी के अबू आजमी ने हिंदी में शपथ का खम ठोका। सोमवार को आजमी शपथ लेने को खड़े हुए। तो राज ठाकरे के पालतुओं ने माइक छीना। हाथापाई से लेकर लप्पड़-थप्पड़ और जूते-चप्पल भी चलाए। पर आजमी का कसूर क्या? सिर्फ यही ना, राष्टï्र भाषा में शपथ ली। इसमें मराठी का अपमान कहां से? क्या मराठी संस्कृति यह कहती, किसी से जबरन अपनी जुबान बुलवाओ। क्या इंसानियत कोई संस्कृति नहीं? अगर राज ठाकरे ने अपील की थी। अपील या अनुरोध तो किसी पर बंदिश नहीं। फिर राज के गुर्गों ने इतना हंगामा क्यों बरपाया? क्या मराठी प्रेम या महाराष्टï्र राज ठाकरे के बाप की जागीर हो गई? उत्तर भारतीयों की मुखालफत कर कभी सड़कों पर तांडव, तो कभी विधानसभा में। भले सोमवार को एमएनएस की गुंडागर्दी पर फौरी कार्रवाई हुई। मर्यादा तार-तार करने वाले एमएनएस के चार एमएलए चार साल के लिए सस्पेंड कर दिए। राम कदम, शिशिर शिंदे, वसंत गीते, रमेश वांजले अब विधानसभा परिसर में भी कदम नहीं रख पाएंगे। पर यह तो कार्रवाई का टोकन भर। राज के गुर्गे फिर सड़कों पर तांडव मचाएंगे। पर दूसरा पहलू, सस्पेंड हुए चार एमएलए के इलाके की जनता खामियाजा क्यों भुगते? बेहतर तो यही होता, एमएलए बर्खास्त कर दिए जाते। एमएनएस को बैन करने की सिफारिश चुनाव आयोग से होती। राज ठाकरे के चि_ïीनुमा फरमान और बयानों पर फौरी कार्रवाई होती। ताकि ऐसे राष्टï्र द्रोहियों को दुबारा सिर उठाने का मौका न मिले। पर अपनी राजनीति में ऐसा साहस कहां। सीएम अशोक चव्हाण ने सस्पेंशन का एलान किया। तो सजा की वजह सदन में हुआ व्यवहार बताया। हिंदी के अपमान पर सवाल टाल गए। यों राज ठाकरे के खिलाफ जांच का एलान जरूर किया। पर राज तो पहले भी गिरफ्तार और रिहा होते रहे। पुलिस हाथ जोड़े खड़ी रहती। राज हाथ में सिगरेट लिए बयान देते। अबके विधानसभा में एमएनएस के एमएलए ने हाथापाई की। तो बाहर उनके नेताओं की जुबान जहर उगल रही थी। वागीश सारस्वत से लेकर सरपोतदार तक अपनी हरकत को जायज ठहराते रहे। वागीश ने यहां तक कह दिया, आजमी जैसे लोग लातों के भूत हैं, बातों से नहीं मानते। लगे हाथ एमएनएस की धमकी भी, जिसको जिस भाषा में बात करनी हो, आकर कर ले। यानी न संविधान का लिहाज, न कानून का डर। अलबत्ता राज ठाकरे तो हर कदम संविधान को श्रद्धांजलि दे रहे। आजमी की हिंदी पर हंगामा बरपाया। पर कांग्रेसी बाबा सिद्दीकी ने अंग्रेजी में शपथ ली। तो कुछ नहीं बोले। यानी अंग्रेजी मंजूर, हिंदी नहीं। अब राष्ट्रभाषा के खिलाफ लोगों को भड़काना राजद्रोह नहीं, तो और क्या? पर राज के खिलाफ ठोस कार्रवाई में किस बात का इंतजार? हिंदी भाषियों के खिलाफ मुंबई की सड़कों पर जो दुनिया ने देखा। सोमवार को विधानसभा का वाकया देखा। फिर किस बात की देरी? आखिर 'राजÓ द्रोह पर अपनी राजनीति नपुंसक क्यों बनी बैठी? कांग्रेसी सत्यव्रत हों, या सिंघवी। लालू हों या शाहनवाज। सिर्फ कड़ी भत्र्सना तक ही सीमित रहे। लालू ने इतना जरूर चेताया, देश टूटेगा, तो महाराष्टï्र की वजह से। पर जब लालू कांग्रेस के साथ पावरफुल थे, तब कार्रवाई का दबाव क्यों नहीं बनाया। महाराष्टï्र और केंद्र में तब भी कांग्रेस, आज भी कांग्रेस सत्ता में। विपक्षी बीजेपी की हालत तो न तीन में, न तेरह में। आपसी लड़ाई में ही इस कदर उलझी। राज कौन, शायद मालूम नहीं होगा। सो उससे आग या खून खौलने की उम्मीद ही बेमानी। पर कांग्रेस तो आजादी की आन, बान, शान वाली पार्टी। फिर भी खून क्यों नहीं खौल रहा? क्या खून इतना ठंडा पड़ चुका। जो संविधान की श्रद्धांजलि देने वाले और मानवता को कुचलने वाले राज को रोक नहीं पा रही। राज के सिर्फ तेरह पालतुओं ने हंगामा मचाया। तो मुंबई में हाई अलर्ट करना पड़ा। अब भी अगर राजनीति ऐसी ही नपुंसक बनी रही। तो इकबाल की मानसिकता वाले राज जैसे लोग बढ़ते जाएंगे। बाकियों को इकबाल का लिखा गीत भुलाना होगा। --------- 09।11।2009