Monday, November 30, 2009

संसद के पास वक्त, पर 'सवाल' नहीं

इंडिया गेट से
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संसद के पास वक्त,
पर 'सवाल' नहीं
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 संतोष कुमार
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           लिब्राहन रपट के दोषी संसद में नहीं बोलेंगे। नैतिकता की दुहाई दे बीजेपी ने फैसला कर लिया। मंगलवार को लोकसभा में बहस होनी थी। पर बीजेपी की तैयारी धरी रह गई। अब शायद बुधवार नहीं तो अगले हफ्ते एकदिनी बहस में ही सब निपटेगा। तो न आडवाणी अपना बचाव करेंगे, न जोशी। अलबत्ता आडवाणी के उत्तराधिकारी की दौड़ में शामिल राजनाथ, सुषमा वकील होंगे। संघ के इशारे पर नाच रही बीजेपी फिर राममय होने को बेताब। अब बहस से आडवाणी, जोशी को दूर रखने का क्या मकसद? कहीं आडवाणी को रोकने की स्ट्रेटजी तो नहीं? आडवाणी छह दिसंबर को दुखद दिन करार दे चुके। मोहन भागवत से लेकर अशोक सिंघल इससे इत्तिफाक नहीं रखते। पर जो भी हो, बीजेपी ने नैतिक आधार पर आडवाणी-जोशी को तो दोषी मान ही लिया। अब राम के बहाने भले बीजेपी एकजुटता दिखाएगी। पर अंदरूनी 'लीला' का क्या? अनुशासन और गरिमा तो बीजेपी की सिर्फ किताबी बातें। लिब्राहन रपट की बहस का मुद्दा हो। तो राष्टï्रीय अध्यक्ष याचक की भूमिका में दिखाए जाते। कभी कोई महासचिव अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ मीटिंग बॉयकाट करता। तो कई क्षत्रप संसदीय बोर्ड के फैसले को जूते की नोंक रखते। अब एक पत्रकार ने मजाक में पूछा। बीजेपी हैड क्वार्टर में अभी से संतरे का जूस मिल रहा। तो नेता चुटकी लेने से पीछे न रहे। तपाक से पूछा, क्या अब छाछ मिलना बंद हो गया? यानी राजनाथ सिंह छाछ हो गए। नितिन गडकरी संतरे का जूस। अब जब बात इतनी दिलचस्प हो। तो पत्रकार कहां चूकने वाले। सो अपने एक मित्र ने बचपन की कहानी सुना दी। दादा जी नागपुर घूमने गए। तो किसी भाई ने संतरा मंगवाया। तो किसी ने कपड़े। पर अपने इस मित्र ने लट्टïू मंगवाया। एक बार लट्टïू चलाते-चलाते दादा जी के सिर पर लग गया। सो गूमरा निकल आया। खफा होकर अपने मित्र के पिताजी ने दादा जी से कहा- 'मैं तो पहले ही कह रहा था, नागपुर से लट्टïू मत लाना।'  यानी इशारा साफ, नागपुर से दिल्ली आ रहे नितिन गडकरी की ओर था। सो बीजेपी के एक बड़े नेता ने जवाब दिया- 'मेरे तो सिर पर बाल। जो गंजे हैं, उनके लिए मुश्किल।'  अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। दूसरी पीढ़ी में बीजेपी के कई दिग्गज, जिनके सिर पर बाल नहीं। पर दूसरा मतलब साफ, इस नेता ने इशारा कर दिया। अध्यक्ष कोई भी बने, उनके रुतबे पर असर नहीं पडऩे वाला। अब आप ही बताओ। यह बीजेपी का अंदरूनी झगड़ा नहीं, तो और क्या। फिर भी बीजेपी मीडिया पर ठीकरा फोड़ती। अब विपक्ष को आपसी लड़ाई से ही फुरसत न हो। तो वही होगा, जो सोमवार को हुआ। दोनों सदनों में हंगामे की वजह थी, बंगाल में केंद्रीय टीम भेजना। राज्यसभा में प्रश्रकाल नहीं चला। पर लोकसभा में थोड़े हंगामे के बीच ही स्पीकर मीरा कुमार ने कार्यवाही आगे बढ़ा दी। सिर्फ तीन सवालची सांसद मौजूद थे। बाकी 17 नदारद। सो आधे घंटे के भीतर ही प्रश्रों की सूची खत्म हो गई। लोकसभा के पास कोई काम नहीं बचा। सो लोकसभा भी ठप करनी पड़ी। अब समस्याओं से भरे देश में संसद के पास वक्त हो। और अपने सांसदों के पास नहीं। तो आप क्या कहेंगे? गैर हाजिर सवालचियों में कांग्रेस, बीजेपी, जदयू, शिवसेना, सीपीआई, सीपीएम समेत करीब-करीब सभी दलों के सांसद। यानी राजनीतिक हमाम में सभी नंगे निकले। बीजेपी के दो युवा वरुण और अनुराग ठाकुर तो कांग्रेस की श्रुति चौधरी भी सदन से नदारद रहीं। पर बाद में सबने बहाने गिना दिए। किसी की ट्रेन लेट। तो किसी का विमान। पर संसद की फिक्र किसी को नहीं। सवाल पूछकर गैर हाजिर रहने का मुद्दा कई दफा उठ चुका। पिछले सत्र में राज्यसभा में चेयरमैन ने चिंता जताई थी। अब मीरा कुमार सभी दलों को चि_ïी भेजेंगी। पर जब सबके अपने-अपने वोट बैंक हों। तो फिर संसद की गरिमा का ख्याल किसे हो? प्रश्रकाल संसद की आत्मा माना जाता। एक वर्कशाप में मारग्रेट अल्वा ने किस्सा सुनाया था। मेनका गांधी तब वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं। मंत्री के नाते सत्रहवें सवाल का जवाब देना था। पर मेनका को उम्मीद नहीं थी, नंबर आएगा। सो सदन में बैठे सुडोकू खेलती रहीं। पर नंबर आ गया, तो शर्मिंदगी उठानी पड़ी। क्योंकि मेनका जवाब के लिए तैयार नहीं थीं। अब सोमवार को सुषमा ने अपने युवा सांसदों का बचाव इसी तरह किया। बोलीं- 'आम तौर पर छह सवाल ही हो पाते। सो अनुराग ठाकुर को उम्मीद नहीं थी।'  पर अब विपक्ष संसद को अनुमान के तौर पर ले। तो फिर लोकतंत्र का राम ही राखा। अपने मधु लिमये ने एक बार कहा था- 'अनेक सांसद तो सदन में दिलचस्पी तक नहीं लेते। महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने की जगह कुछ पैसा बना लेने के चक्कर में रहते हैं।'  लिमये के कथन की पुष्टिï तो दिसंबर 2005 में हो गई थी। जब संसद से 11 घूसखोर सवालची सांसद निकाले गए। पर अब गैर हाजिर सांसदों के लिए क्या हो? यह तो सिर्फ सवाल बनकर ही रह जाएगा। आखिर सांसदों का अपना विशेषाधिकार जो ठहरा। सो धूमिल के कविता संग्रह 'संसद से सड़क तक'  की पंक्तियां याद आ गईं। उन ने लिखा- 'एक आदमी रोटी बेलता है। एक आदमी रोटी खाता है। एक तीसरा आदमी भी हो। जो न बेलता है, न खाता है। वह सिर्फ रोटी से खेलता है। मैं पूछता हूं, ये तीसरा आदमी कौन है। मेरे देश की संसद मौन है।'
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30/11/2009

Thursday, November 26, 2009

26/11 के गम में हो गई अथ श्री महंगाई कथा

इंडिया गेट से
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26/11 के गम में हो गई
अथ श्री महंगाई कथा
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 संतोष कुमार
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शहीदों को शत शत नमन। आतंक के खिलाफ लड़ाई में देश की जनता एकजुट हो चुकी। भले संसद में सियासत हावी रही। पर देश भर में सड़कों पर जनता ने श्रद्धा की लौ जलाई। संसद में चेयर से प्रस्ताव आया। समूचे सदन ने मौन श्रद्धांजलि दी। पर 26/11 की घटना से उमड़ी जनभावना नेताओं को हिला चुकी। याद है ना, मुंबई हमले के बाद देश भर में जनता सड़कों पर उतरी। तो नेता घरों में दुबक गए थे। दबी जुबान कह रहे थे, हमारा क्या कसूर। पर इतना बड़ा हमला देश को दहला चुका था। आखिर मु_ïीभर आतंकी कैसे तमाम सुरक्षा इंतजामात का बलात्कार कर साजिश को अंजाम दे गए। सो जनता ने समूची राजनीतिक व्यवस्था को आड़े हाथ लिया। अब बरसी के मौके पर मीडिया से लेकर जनता ने श्रद्धांजलि का बीड़ा उठाया। तो अपने नेताओं को शायद नहीं सुहा रहा। सो गुरुवार को बीजेपी के आहलूवालिया काफी भड़के दिखे। संसद पहुंचे, तो मीडिया ने श्रद्धांजलि के दो शब्द मांगे। पर आहलूवालिया ने ज्ञान उड़ेल दिया। आहलूवालिया का गुस्सा, 26/11 को देश में और भी घटनाएं हुईं। पर सिर्फ मुंबई हमले को ही क्यों याद कर रहे? भले आहलूवालिया की भावना सही। उन ने जो बात कही, वह भी सही। पहले बोले- 'देश में कई ऐसी घटनाएं होती रहतीं। पर आप सिर्फ ताज की घटना इसलिए हाईलाइट कर रहे, क्योंकि वहां बड़े लोग मारे गए।' सो दिन भर खूब सुर्खियां बनीं। पर बाद में उन ने नई दलील जोड़ दी। कहा- '26 नवंबर 1949 को देश ने संविधान को स्वीकार किया। सो आज साठवीं सालगिरह। पर मीडिया उसे क्यों भुला रहा?Ó वाकई आहलूवालिया ने अच्छी बात याद दिलाई। मीडिया और देशवासियों को आहलूवालिया का साधुवाद कहना ही चाहिए। पर माननीय आहलूवालिया जी, जनता किस संविधान को याद करे? उस संविधान को, जिसका आप नेताओं ने मिलकर बैंड बजा दिया। या उस संविधान को, जिससे बड़ा नेता खुद को माने बैठे। अब तो आम जनता राजनीतिक रसूख वालों को ही माई-बाप मानने लगी। अगर नेता चाह ले, तो संविधान में संशोधन कर बल्ब को लालटेन बता दे और लालटेन को बल्ब। सो आहलूवालिया तो सिर्फ प्रतीक। अपने नेताओं का यह दर्द समझना कोई बड़ी बात नहीं। नेताओं को डर सताने लगा, चिंगारी कहीं शोला न बन जाए। सो मुद्दा कोई भी हो, नेता सियासत की लौ बुझने नहीं देते। तभी तो बीजेपी ने लोकसभा में राई को पहाड़ बना दिया। जीरो ऑवर में आडवाणी ने 26/11 के पीडि़तों को मुआवजे में देरी का सवाल उठाया। बाकायदा आंकड़े बताए। तो आडवाणी सिर्फ सुझाव के अंदाज में बात रख रहे थे। पर नंबर बढ़ाने की होड़ में अनंत कुमार ने मोर्चा संभाल लिया। जिद ठान ली, सदन के नेता प्रणव मुखर्जी जवाब दें। पर प्रणव दा ने कह दिया- 'मैं खास तौर से नेता विपक्ष को सुनने चैंबर से सदन में आया। सो हर मुद्दे पर सरकार के फौरन जवाब की परंपरा न बनाएं।Ó यानी प्रणव दा ने आडवाणी को पूरा सम्मान दिया। पर अनंत अड़ गए। तो दादा का गुस्सा सातवें आसमान पर। बोले- 'बीजेपी ने 26/11 की घटना पर राजनीति की। तो चुनाव में कीमत चुकानी पड़ी। अब फिर सियासत कर रही। सो दुबारा कीमत चुकानी पड़ेगी।Ó पर प्रणव दा के व्यवहार से खफा अनंत ने संसद के बाहर भी मामला उछाला। पर अनंत ने सहानुभूति की बात की। तो पुराने दिन भी याद दिलाने होंगे। पीडि़त परिवारों को सालभर बाद भी मुआवजा न मिलना वाकई दुखद। आंकड़ों के मुताबिक मुआवजे के 403 हकदारों में सिर्फ 118 को ही चैक मिले। कुछ को नौकरी का इंतजार। तो कई अस्पताल में सर्जरी को तरस रहे। अब आडवाणी ने दुख जताया। होम मिनिस्ट्री में अलग सेल बनाने की मांग की। ताकि कभी ऐसी नौबत न आए, जब याद दिलाने के लिए पीडि़तों को दिल्ली आना पड़े। आडवाणी की मांग को राजनीति कहना उचित नहीं। पर राजनीति का चेहरा आप खुद पढि़ए। संसद पर हमला 13 दिसंबर 2001 को हुआ। पर 2004 तक आडवाणी खुद होम मिनिस्टर थे। तब क्यों नहीं सेल बने? संसद हमले के शहीदों के परिजन 2006 तक आवाज बुलंद करते रहे। शहीद मातवर नेगी, जे.पी. यादव, कमलेश कुमारी, नानक चंद, रामपाल सिंह, विक्रम सिंह बिष्टï के परिजनों की मांग 2006 में पूरी हुई। क्या सत्ता में रहने पर नेता फर्ज भूल जाते? सिर्फ विपक्ष में रहने पर ही जनता के दर्द याद आते? सो एक लौ राजनीति की आत्मा को जगाने के लिए क्यों न जलाएं। वरना सरकार हो या विपक्ष, इतनी चालाकी नहीं दिखाते। 26/11 की बरसी की लौ के तले महंगाई पर बहस पूरी करा ली। महंगाई सातवें आसमान को भी पार कर चुकी। पर गुरुवार को बहस हुई। तो लोकसभा में गिने-चुने सांसद बैठे दिखे। देर शाम शरद पवार का जवाब भी आ गया। जवाब तो क्या बताएं। पिछले सत्र में जो कहा, उससे नया कुछ भी नहीं। इतने टन उत्पादन, इतनी खपत। कहीं कोल्ड स्टोरेज की बात। पर हकीकत क्या। थोक मंडी में जिस सामान की कीमत दो से चार रुपए। खुदरा बाजार में वही सामान 25 से 40 रुपए। उत्पादक किसान बद से बदतर हालत में। बिचौलिए की बल्ले-बल्ले। सो महंगाई पर सरकार की वही कहानी। सदन में सवाल उठा, जब घर में नहीं दाने। तो अम्मा क्यों चली भुनाने। जब आम आदमी को राहत नहीं दे सकते। तो किस विकास का ढोल पीट रहे। पर अब तो बेहतर यही, अपने नेतागण महंगाई का नाम बदलकर सस्ताई रख दें। संविधान संशोधन कर महंगाई शब्द पर बैन लगवा दें। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।
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26/11/2009

Wednesday, November 25, 2009

26/11 की बरसी, पर मनमोहन विदेश में!

इंडिया गेट से
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26/11 की बरसी,पर
मनमोहन विदेश में!
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 संतोष कुमार
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किसी ने खूब कहा है- 'जला है जिस्म जहां, दिल भी जल गया होगा। कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है।' देखते-देखते 26/11 की बरसी आ गई। पर न बदली, तो सिर्फ अपनी सियासत। अब बरसी पर भी आपसी बदजुबानी न हो। सो गुरुवार को स्पीकर मीरा कुमार श्रद्धांजलि प्रस्ताव रखेंगी। सदन दो मिनट मौन की औपचारिकता भर निभाएगा। ताकि बहस का टंटा ही खत्म हो। यानी सौ दिन तो दूर, 365 दिन में अपनी सियासत अढ़ाई कोस भी नहीं चली। सो जुस्तजू तो यही, कभी तो जागेंगे अपने सियासतदां। पर 26/11 की बरसी आते-आते कई सवाल उठ खड़े हुए। आखिर अपनी तैयारी अब कितनी मुकम्मल? शहीद अशोक काम्टे की पत्नी विनीता काम्टे ने पूरी रिसर्च के बाद किताब लिखी। किताब 'टू द लास्ट बुलेट' में पुलिस की कलई खोल दी। कैसे घायल करकरे, काम्टे, सालस्कर को वक्त पर अपनी पुलिस ने मदद नहीं दी। वाकी-टॉकी के रिकार्ड खुद बता रहे, चालीस मिनट की देरी ने इन जांबाजों को कैसे शहीद कर दिया। महाराष्टï्र पुलिस हमले के बाद तो जैसे फ्रीज हो गई। पर साल भर में भी आतंकवाद से लडऩे को अपनी तैयारी दुरुस्त नहीं। मल्टी एजेंसी सेंटर, एनएसजी हब, एनआईए, समुद्री सुरक्षा के बंदोबस्त तो हुए। पर ये तो सिर्फ शाखाएं। अभी जड़ मजबूत होना बाकी। पुलिस और खुफिया तंत्र का आधुनिकीकरण सिर्फ दस्तावेजों में। भले 26/11 के बाद कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। पर आखिर यह कैसी कामयाबी। कसाब को जिंदा पकड़ पाक को हम डोजियर भेजते रहे। पर अब एफबीआई बता रही। डेविड हेडली 26/11 का मास्टर माइंड। फिर अपनी एजेंसियां क्या जांच कर रही थीं? साल भर में किसी हेडली-राना तक फटक भी न सकीं। ऊपर से अब डिप्टी सीएम छगन भुजबल ने एक और खुलासा किया। होम मिनिस्टर आर.आर.पाटिल हमले के दिन घर में दुबके हुए थे। बुधवार को पाटिल ने सफाई दी, पुलिस के कहने पर ऐसा किया। क्या 26/11 की बरसी पर यही श्रद्धांजलि? जिन पाटिल को जिम्मेदार ठहरा कर पद से हटाया गया। सालभर में ही उसी महकमे के मालिक बन गए। विलासराव देशमुख सीएम न सही, पर मनमोहन के काबिना मंत्री तो बने ही। रही बात भाई शिवराज पाटिल की। तो धीरज रखिए, अभी कई राज्यों की गवर्नरी खाली। शायद कांग्रेस 26/11 की बरसी बीतने का ही इंतजार कर रही। ताकि छीछालेदर से बच सके। पर शिवराज के उत्तराधिकारी चिदंबरम ने भी कोई बड़ा तीर नहीं मारा। साल भर से भारत-पाक जुबानी जंग चल रही। पर ठोस कार्रवाई नहीं हुई। अब गुरुवार को 26/11 की पहली बरसी। तो भारतीयों के जख्म ताजा हो गए। सो बुधवार को रावलपिंडी के एंटी टेरर कोर्ट में जकी उर रहमान लखवी समेत सात पर चार्जशीट हो गई। लखवी को मास्टर माइंड माना गया। पर पाकिस्तान की ईमानदारी कौन नहीं जानता। वैसे ईमानदार तो हम भी नहीं। आतंकवाद से लडऩे की लफ्फाजी तो खूब करते। पर जज्बा कभी नहीं दिखता। तभी तो संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल को हम तिहाड़ में आराम से रोटी-पानी खिला रहे। वोट की खातिर अफजल की फाइल इधर से उधर होती रही। पर फैसला नहीं हुआ। अभी भी फाइल दिल्ली की कांग्रेसी शीला सरकार के पास। क्या अब आतंकी भी वोट बैंक होने लगे? जब भी अफजल को फांसी की मांग उठी। तो शिवराज पाटिल से लेकर समूची कांग्रेस ने यही दलील दी। नंबर आने पर फैसला होगा। संसद पर हमले में शहीद जवानों के परिजनों ने मैडल तक लौटा दिए। पर मनमोहनवादियों के कान पर जूं नहीं रेंगी। हाल ही में 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया। दया याचिकाओं को जल्द निपटाए। पर मंगलवार को ही अपनी सरकार की ओर से संसद में दिए जवाब की बानगी देखिए- 'सरकार के पास 29 दया याचिका लंबित। संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत फाइल निपटाने की कोई समय सीमा नहीं।Ó इस लिस्ट में अफजल का नंबर इक्कीसवां। अब संसद के हमले को आठ साल पूरे होने को। सो जरा सोचो, कसाब को कब फांसी मिलेगी। अभी तो सजा भी तय नहीं हुई। हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, माफी याचिका, क्यूरेटिव याचिका का सफर बाकी। उससे भी बड़ी बात, बीच में कोई केस नहीं आया। तो कसाब का नंबर तीसवां होगा। सो सरकार से क्या उम्मीद करते हैं आप? शीला दीक्षित को रसूखदार हत्यारे मनु शर्मा को पैरोल दिलाने में तीन महीने की जगह महज 20 दिन लगे। पर तीन-चार साल बीत गए, अफजल की फाइल नहीं निपटी। सो 26/11 में 26 विदेशी समेत मारे गए 168 लोगों, 308 घायलों को कब न्याय मिलेगा? अपनी सरकार और राजनीतिक व्यवस्था में इच्छाशक्ति अब नहीं रही। वरना देश पर सबसे बड़े हमले की बरसी हो। और देश का मुख्य कर्ता-धर्ता व्हाइट हाउस की दावत में मशगूल हों। तो क्या कहेंगे आप? अब और नहीं 26/11, ऐसा संकल्प कौन लेगा? अगर पीएम बरसी के मौके पर देश में होते। जैसे 9/11 की हर बरसी पर अमेरिका का राष्टï्रपति देश की जनता के साथ आतंकवाद से लडऩे का संकल्प दोहराता। कुछ वैसा ही मैसेज अपने पीएम भी देते। तो आतंकवादियों के मन में खौफ पैदा होता। अपने देश की जनता में भी भरोसा पैदा होता। अमेरिकी यात्रा का प्रोग्राम दो-चार दिन आगे-पीछे होता। तो कोई महामंदी नहीं आ जाती। पर शायद पीएम को जनता को भरोसा देने से ज्यादा ओबामा से तारीफ करवाने में सुकून मिल रहा।
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25/11/2009

Tuesday, November 24, 2009

'राम कसम' अब नेताओं को 'शर्म' आती ही नहीं

इंडिया गेट से
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'राम कसम' अब नेताओं
को 'शर्म' आती ही नहीं
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 संतोष कुमार
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लीकेज से आग भड़की। तो मंगलवार को ही पी. चिदंबरम ने रपट पेश कर दी। सोनिया गांधी के घर मीटिंग में स्ट्रेटजी बनी। तो बिन मनमोहन ही केबिनेट मीटिंग हो गई। पौ फटते ही प्रणव दा ने केबिनेट में रपट और एटीआर को हरी झंडी दी। संसद के दोनों सदनों में रपट पेश भी हो गई। पर सुना था शोर पहलू में बहुत, चीरा तो कतरा-ए-खूं न निकला। रपट की स्याही तो पहले ही अखबारों में। सो रपट संग एटीआर पहली नजर में कोरी ही निकली। दोषियों की लिस्ट में अटल, आडवाणी, जोशी समेत 68 नाम। पर कार्रवाई रपट में सरकार ने चुप्पी साध ली। अलबत्ता 13 पन्नों की एटीआर में सरकार लिब्राहन रपट की तेरहवीं मनाती दिखी। सहमत हैं, नोट कर लिया, जांच करेंगे, ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए जैसे शब्दों से ही एटीआर भरी पड़ी। सांप्रदायिक हिंसा रोकने का बिल आएगा। मुकदमों की सुनवाई तेजी से होगी। पर ये सारी बातें तो पहले भी कही जा चुकीं। सो एटीआर में एकशन कम, टीयर ज्यादा। यही हाल लिब्राहन रपट का भी। अहम खुलासे तो पहले ही हो चुके। सो मंगलवार को नई बात सिर्फ यही, धर्म का राजनीति से घालमेल न हो। पर यह बात तो 1947 से ही कही जा रही। सो घालमेल न हो, फिर राजनीति काहे की होगी। तभी तो देश में महंगाई हो या गन्ना किसानों की समस्या। असम के धमाके हों या 26/11 की बरसी का मौका। पर अपनी संसद, सरकार और विपक्ष के लिए मुद्दा क्या है? बस लिब्राहन रपट, बाबरी ढांचा, अयोध्या में राम मंदिर, और कुछ नहीं। वोट बैंक की राजनीति के ठेकेदार अमर सिंहों को लग रहा। जैसे देश में समस्याओं का अंबार इसलिए, क्योंकि बाबरी मस्जिद ढह गई। तो दूसरे ठेकेदार आडवाणी-कल्याण को लग रहा, अयोध्या में राम मंदिर बन जाए। तो मानो देश में चहुं ओर खुशहाली आ जाएगी। संवैधानिक रास्ते से विवाद का हल निकले, इसमें कोई गुरेज नहीं। पर कोई व्यक्ति या राजनीतिक दल खुद को ही संविधान मान ले। तो फिर अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था का राम ही राखा। पर वोट की लड़ाई में दंगों की सिर्फ कब्रें खुदतीं। कभी जांच अंजाम तक नहीं पहुंचती। और अगर पहुंच भी जाए, तो देरी का न्याय बेमानी हो जाता। अब बाबरी विध्वंस की रपट आने में ही 17 साल लगे। तो न्याय मिलने तक कितने साल गुजरेंगे। बीजेपी ने तो अटल नाम जप रिपोर्ट को झुठलाना शुरू कर दिया। पर सरकार में भी इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। तभी तो तबके कर्ताधर्ता रपट के बाद भी दहाड़ रहे। आडवाणी ने सोमवार को संसद में तेवर दिखाए। तो मंगलवार को अपने सांसदों की खूब पीठ ठोकी। तीन दिन तक संसद ठप रखने से गदगद थे। तो दूसरी तरफ दर-ब-दर कल्याण सिंह भी उसी तेवर में लौट आए। मुलायम-अमर ने दुलत्ती मार दी। सो मंगलवार को राममयी हो गए। अब आप रपट की छोडि़ए। कल्याण का इकरारनामा सुनिए। बोले- 'मेरे सामने दो विकल्प थे। ढांचा बचाऊं या कारसेवकों की जान। सो मैंने कारसेवकों को नरसंहार से बचाया। मुझे ढांचा गिरने का कोई खेद, कष्टï, पीड़ा नहीं। अयोध्या में मंदिर बनना है। सो ढांचा को तो जाना ही था।'  इकरारनामे से इतर कल्याण ने खम भी ठोका। बोले- 'अब वहां मंदिर ही बनेगा, मस्जिद नहीं। भगवान राम मुसलमानों के भी पूर्वज। सो मुस्लिम समाज मंदिर निर्माण में खुद आगे आए।'  क्या कल्याण उवाच किसी खास संप्रदाय को धमकी नहीं? पर बीजेपी में वापसी को बेताब कल्याण के पास और कोई रास्ता भी नहीं। लिब्राहन रपट ने सिर्फ बीजेपी नहीं, तमाम भगवा धारियों को जिंदा कर दिया। कल्याण ने तो कह दिया, बीजेपी के लिए रपट यूपी में संजीवनी बनेगी। अब बीजेपी को तय करना, कल्याण की घर वापसी कैसे हो। पर कल्याण ने कांग्रेस को भी कटघरे में उतारा। जब पूछा, मंदिर में रामलला की मूर्ति स्थापना से लेकर ताला खुलवाने और शिलान्यास तक केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। तो क्या ये सारे काम कांग्रेस मस्जिद बनाने के लिए कर रही थी? यानी कल्याण की मानें, तो कांग्रेस ने रंगमंच तैयार किया। संघ परिवारियों ने तो सिर्फ मंचन किया। कल्याण ने तो यह भी कह दिया, कल से जनता की प्रतिक्रिया भी देख लेना। पर जनता का तो पता नहीं। राज्यसभा में हाथापाई जरूर हो गई। अखबारों में सपा-बीजेपी की नजदीकियां चर्चा बनी। तो मंगलवार को अमर सिंह ने कुछ नया कर दिखाया। चिदंबरम ने रपट पेश की। तो बीजेपी वालों ने 'जय श्री राम'  के नारे लगाए। सो अमर सिंह धड़धड़ाते वैल में घुस बीजेपी के उपनेता एस.एस. आहलूवालिया से भिड़ गए। सपाई सांसदों ने 'या अली' के नारे लगाए। अब वरिष्ठïों के सदन में ऐसी बात हो। तो क्या कहेंगे? यही ना, ऊंची दुकान, फीका पकवान। गुस्से में हाथापाई हुई। पर माफीनामा सिर्फ मजाक बनकर रह गया। दुबारा सदन बैठा। तो अमर-आहलूवालिया ने एक-दूसरे को अपना सहपाठी बताया। चेयरमैन ने भी सख्ती नहीं दिखाई। अमर सिंह को एतराज था, जय श्री राम के नारे क्यों लगाए। तो बीजेपी की दलील, सदन हमारा मंदिर। तो नारा कहां लगाएं। पर अमर वाणी देखिए- 'मैं सबसे बड़ा राम भक्त। मैं रोज हनुमान चालीसा पढ़ता हूं। पर सदन में धार्मिक नारेबाजी बर्दाश्त नहीं।' अब अगर देश में अमर-आहलूवालिया जैसा द्वेष बढ़ा। तो जिम्मेदार कौन होगा? क्या फिर कोई लिब्राहन आयोग बनाएंगे? अपने लोकतंत्र में अब नैतिकता-मर्यादा नहीं रही। वोट बैंक की जैसी मारामारी। अब तो यही लग रहा, राम कसम अपने नेताओं को शर्म आती ही नहीं।
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24/11/2009

Monday, November 23, 2009

इंडिया गेट से
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मूर्छित बीजेपी को संजीवनी
या अब काठ की हांडी नहीं?
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 संतोष कुमार
-----------तीसरे दिन भी संसद नहीं चली। लिब्राहन रपट की लीक चेन पुलिंग साबित हुई। सो अब आम आदमी के मुद्दे हाईजैक हो गए। मूर्छित बीजेपी को तो मानो संजीवनी मिल गई। रपट लीक में अटल का नाम ले सरकार ने फंदा गले में डाल लिया। सो सोमवार को संसद के दोनों सदन तो ठप हुए ही। राजनीति की आब-ओ-हवा बदल दी। लिब्राहन रपट 30 जून से ही सरकार के पास। पर अब संसद में पेश करने से पहले सिलेक्टिव लीक हो गई। लीक रपट में अटल, आडवाणी, जोशी दोषी बताए गए। सो संसद में हंगामा बरपना ही था। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम को फौरन भरोसा और सफाई देनी पड़ी। अब इसी सत्र में एटीआर के साथ रपट पेश करेंगे। बोले- 'लिब्राहन आयोग की रपट की सिर्फ एक प्रति। जो होम मिनिस्ट्री की सेफ कस्टडी में। हमारी तरफ से मीडिया में रिपोर्ट लीक नहीं हुई।Ó चिदंबरम ने रपट लीक को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। पर विश्वसनीयता को लेकर कन्नी काट गए। न हामी भरी, न इनकार किया। दूसरी तरफ जस्टिस लिब्राहन का भी लीकेज से इनकार। लिब्राहन तो पूछने पर इस कदर भड़के। पत्रकारों से कह दिया- 'दफा हो जाओ।Ó अब अगर चिदंबरम ने लीक नहीं की। न लिब्राहन ने। तो क्या ऊपर से हनुमान जी रिपोर्ट लेकर आए? ताकि मूर्छित पड़ी रामभक्त बीजेपी को संजीवनी मिल सके? पर अब संसद की अवमानना का सवाल उठा। तो जल्द रपट पेश करने का दबाव बढ़ गया। सोनिया गांधी ने भी सिपहसालारों से गुफ्तगू की। पर बीजेपी तो वाजपेयी के नाम से रिचार्ज हो गई। आडवाणी ने लोकसभा में मोर्चा संभाला। तो वाजपेयी के नाम पर बैटिंग की। बोले- 'रिपोर्ट से मैं स्तब्ध हूं। मेरा या मेरी पार्टी का इंडाइटमेंट होता, समझ में आता है। लेकिन जिन वाजपेयी जी के नेतृत्व में मैंने जीवन भर राजनीति में काम किया। उनके बारे में कोई ऐसा कहे, तो मैं नहीं रुक सकता। इसलिए मैंने पहली बार प्रश्रकाल स्थगित करने का नोटिस दिया।Ó यानी अटल की छवि को ढाल बना बीजेपी आक्रामक हो गई। यों वाजपेयी को लेकर बीजेपी ही नहीं, आयोग के वकील रहे अनुपम गुप्त ने भी सवाल उठाए। जब वाजपेयी को समन नहीं किया गया। तो दोषी कैसे ठहराया जा सकता? अनुपम गुप्त ने तो एक पते की बात कही। बोले- 'अगर सचमुच रपट में वाजपेयी का नाम। तो यह आडवाणी की भूमिका से फोकस शिफ्ट करने का प्रयास।Ó अब जो भी हो, पर सोमवार को रपट की आड़ में राजनीति की चमकार शुरू हो गई। लोकसभा में आडवाणी ने तीन अहम बातें कहीं। अयोध्या आंदोलन से जुडऩे को अपना सौभाग्य बताया। तो बाबरी ढांचा ढहने को जिंदगी का दुखद दिन। पर विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर बने। यही आडवाणी की जिंदगी की साध। सो आडवाणी बोले- 'अयोध्या में मंदिर तो है। पर भगवान राम के जन्मस्थान के अनुरूप नहीं। सो वहां भव्य मंदिर बने, यह मेरे जीवन की साध और जब तक यह साध पूरी नहीं होगी। इसके लिए काम करता रहूंगा।Ó आडवाणी के तेवर हू-ब-हू 1989 के दौर वाले। पर लोकसभा में आडवाणी ने मंदिर आंदोलन को सौभाग्य बताया। तो मुलायम सिंह ने मस्जिद की हिफाजत का खम ठोका। बोले- 'आडवाणी जी, मंदिर आपका सौभाग्य, तो मेरा भी सौभाग्य कि हम आपसे टकराए और मस्जिद की हिफाजत की।Ó अब आडवाणी-मुलायम के बयान के क्या निहितार्थ? मुलायमवादियों ने तो बीड़ा उठा लिया। यूपी में मुलायम अपनी बहू को चुनाव नहीं जितवा पाए। सो अब पार्टी जिंदा रखने को सियासी खेल खेलेंगे। मुस्लिम समाज से चंदा वसूलने की तैयारी। बदले में उसी जगह मस्जिद बनाने का भरोसा दिलाएगी। अगर सचमुच ऐसा हुआ। तो क्या देश में 17 साल पुराना इतिहास दोहराएगा? या काठ की हांडी फिर नहीं चढ़ेगी? भले सीधे सबूत हों या न हों। पर बाबरी विध्वंस घटना नहीं, साजिश थी। यों दंगों पर राजनीति ज्यादा होती, न्याय कम मिलता। सियासतदानों को अपनी राजनीति चमकाने के लिए मुद्दा जिंदा रखने की आदत हो चुकी। पर बात बाबरी ढांचा गिराने की साजिश की। तो खुद बीजेपी के लोग ही कबूल रहे। अयोध्या आंदोलन से पैदा हुए तनाव के बाद यूपी में कल्याण सरकार की बर्खास्तगी तय मानी जा रही थी। सो रणनीति थी, पहले कल्याण सिंह बर्खास्त हों। फिर उत्तेजना का माहौल पैदा कर ढांचा ढहाया जाए। पर पांच दिसंबर की रातोंरात रणनीति बदल गई। आडवाणी ने कल्याण के घर खाना खाया। तो भीड़ के भड़कने का अंदेशा चर्चा का विषय था। कल्याण चाहते थे, गुंबद को नुकसान न पहुंचे। पर बीजेपी नेताओं की जुबानी ही। रात में अशोक सिंघल और मोरोपंत पिंगले ने रणनीति बना ली। एतिहासिक मौका है, चूकना नहीं चाहिए। यूपी में अपनी सरकार, पता नहीं भविष्य में हो या न हो। सो पहले ढांचा गिराओ, बाद में बनाएंगे। रात में यह बात सिर्फ सिंघल-पिंगले तक सीमित रही। सुबह बजरंग दल के अध्यक्ष विनय कटियार को अलर्ट किया गया। ताकि बजरंगदली हुड़दंग मचा सकें। अगले दिन छह दिसंबर को वही हुआ। कल्याण सिंह तक जब खबर पहुंची। तो गुस्से में फोन पटक दिया। पर याद है ना, बाद में कल्याण क्या कहते थे। फिर भी जनता ने चुनाव में साथ नहीं दिया। यानी बीजेपी नेताओं की ही मानें। तो बाबरी ढांचा गिराना साजिश थी। भले छह दिसंबर नहीं, तारीख कोई और होती।

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23/11/2009

Friday, November 20, 2009

'सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया'

इंडिया गेट से
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'सब कुछ लुटा के होश
में आए, तो क्या किया'
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 संतोष कुमार
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              तो लौट के बुद्धू घर को आए। अब फिर गन्ना कीमतें पुराने ढर्रे पर तय होंगी। शुक्रवार को भी विपक्ष ने संसद नहीं चलने दी। तो प्रणव मुखर्जी ने तुरत-फुरत संसद भवन में ही सर्वदलीय मीटिंग बुला ली। यों सोमवार को भी सर्वदलीय मीटिंग होगी। पर तब एनेक्सी में बैठ सभी नेता नाश्ता उड़ाएंगे। सो शुक्रवार को ही अध्यादेश का विवादित क्लॉज 3-बी हटाने पर सहमति बन गई। ताकि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। केंद्र ने एफआरपी तय कर मिल मालिकों को राहत दी थी। अब 3-बी हटेगा। तो केंद्र एक मूल्य तय करेगा। फिर राज्य की ओर से कीमत तय होंगी। और दोनों के बीच के अंतर की भरपाई मिल मालिकों को करनी होगी। यानी कुल मिलाकर अध्यादेश से पहले वाली नीति लौट आएगी। अब अपनी सरकार को क्या कहें। तलत महमूद का वह गीत सोलह आने फिट बैठ रहा- 'सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। दिन में अगर चिराग जलाए, तो क्या किया।Ó जब वापस ही लौटना था। तो दो दिन संसद क्यों ठप कराया। देश की राजधानी को जाम में क्यों फंसाया। संसद सत्र में एक दिन का खर्चा करीबन 45 लाख बैठता। यानी दो दिन में करोड़ों का नुकसान। भले गन्ना किसानों को राहत मिलेगी। पर सरकार की फांस कम नहीं हुई। सुगर लॉबी ने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ 14 हजार करोड़ सरकार से हासिल किए। सो सरकार ने अध्यादेश लाकर राज्यों पर बोझ डाल दिया। अब संशोधन होगा। तो वापस मिल मालिक बोझ उठाएंगे। तो क्या सुगर लॉबी चुपचाप बैठी रहेगी? मामला फिर सुप्रीम कोर्ट जाना तय मानिए। यानी अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई। अलबत्ता शीत सत्र की शुरुआत में ही लगे झटके से उबरने की राजनीतिक कोशिश हुई। गतिरोध तोडऩा जरूरी था। सो विपक्ष ने भी अध्यादेश वापसी की मांग छोड़ दी। विवादित क्लॉज हटाने पर सहमति दे दी। यानी चेहरा बचाने को सरकार ने भी मान लिया। सुबह का भूला शाम को घर लौट आए। तो उसे भूला नहीं कहते। सो बाकी दलों ने भी चेहरा बचाने के लिए ऐसा ही मान लिया। तभी तो सुषमा स्वराज बोलीं- 'किसी राजनीतिक दल की नहीं, अलबत्ता किसानों की जीत।Ó वाकई अब राजनीतिक दलों के बूते में जन आंदोलन जैसी चीजें नहीं रहीं। तभी तो शिवसेनिक हार की खिसियाहट में मीडिया पर हमला बोल रहे। तो दूसरी तरफ बीजेपी में श्रेष्ठïता की जंग छिड़ी हुई। शुक्रवार को मुंबई-पुणे में बाल ठाकरे के गुंडों ने एक टीवी चैनल के दफ्तर पर धावा बोल दिया। कर्मचारियों से बदसलूकी की। कंप्यूटर से लेकर टीवी तक जो जी में आया, तोड़-फोड़ डाला। क्या महाराष्टï्र में लोकतंत्र की बागडोर चचा-भतीजे ने ही संभाल रखी? अगर किसी खबर पर एतराज हो। तो आप नोटिस भेज सकते या कोर्ट जा सकते। या प्रेस काउंसिल में भी जाने का विकल्प। पर इन चचा-भतीजे ने तो संविधान को मानो जेब में रख लिया। अब जनता चुनाव में न जिताए। तो क्या कोई ऐसे पागल सांड की तरह सींग मारेगा? पर लगातार तीसरी हार के बाद भी शिवसेना के होश ठिकाने नहीं। तो कोई क्या करे। पर बात बीजेपी की। मौका मिलता, तो विपक्ष की भूमिका का दिखावा कर जाती। जैसे अबके गन्ना अध्यादेश के क्लॉज 3-बी पर किया। वरना बीजेपी तो संघ के अध्यादेश में लगाए डी-4 क्लॉज से ही परेशान। डी-4, यानी दिल्ली से बाहर का नेता होगा अध्यक्ष। डी-4 में पहले जेतली, सुषमा, वेंकैया, अनंत का नाम आया। पर अब सही खुलासा सुषमा स्वराज ने किया। अनंत कहीं नहीं, चौथे नरेंद्र मोदी। नए अध्यक्ष को लेकर तीन महीने पहले ही प्रक्रिया शुरू हो गई। शुरुआत में सुषमा का नाम आया। तो उन ने अध्यक्षी के बजाए आडवाणी का उत्तराधिकारी बनने का फैसला किया। अरुण जेतली राज्यसभा में उम्दा काम करने की वजह से छंट गए। तो वेंकैया नायडू पहले भी अध्यक्ष रहने की वजह से बाहर हो गए। फिर नरेंद्र मोदी सीएम होने की वजह से। सो आखिर में नितिन गडकरी पर बात बनी। अब बीजेपी के नए खुलासे पर क्या कहें। सुषमा का त्याग या अंगूर खट्टïे हैं? या नितिन गडकरी को ताजपोशी से पहले हैसियत बता दी गई? वाकई गडकरी के लिए अनुशासन और हार से उबरने की चुनौती से ज्यादा डी-4 के नेता। पर संघ ने बीजेपी के लिए अध्यादेश जारी कर अपनी और पार्टी की भी किरकिरी करा ली। सो गुरुवार की रात संघ ने बयान जारी कर सफाई दी। डी-4 के नेता भी अध्यक्ष पद की दौड़ में। अब शुक्रवार को वेंकैया नायडू का बयान जारी हो गया। तो दो-तीन बातें कहीं। आडवाणी अपना पद पहले ही छोड़ेंगे। मैं अध्यक्ष पद की दौड़ में नहीं। और सबसे अहम बात, संघ और बीजेपी का सिर्फ वैचारिक रिश्ता। दोनों का एक-दूसरे के कामकाज में कोई दखल नहीं। रही बात अध्यक्ष की। तो न आरएसएस ने कोई नाम सुझाया, न खारिज किया। न ही बीजेपी ने अभी तक अपना कोई अध्यक्ष तय किया। सो आम सहमति की प्रक्रिया पूरी होने के बाद होगा नए अध्यक्ष का एलान। पर अब तक तो बीजेपी खम ठोककर कह रही थी। आडवाणी पूरे टर्म नेता विपक्ष रहेंगे। अब वेंकैया से रिटायरमेंट का एलान करवा दिया। पर सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। यानी कुल मिलाकर बीजेपी में नेतृत्व परिवर्तन की अंदरूनी कवायद तो खत्म हो चुकी। सुषमा लोकसभा में नेता, गडकरी अध्यक्ष, बाकी अपने पद पर रहेंगे। सो सिर्फ औपचारिकता ही बाकी।

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20/11/2009

Thursday, November 19, 2009

न भूलें, गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे

इंडिया गेट से

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न भूलें, गांधी के देश में
भगत सिंह भी हुए थे
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 संतोष कुमार
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            मूर्खों के बारे में कहा जाता है। मूर्ख पहले करते हैं, फिर सोचते हैं। पर कोई सोच-समझ कर मूर्खता करे। तो उसे महामूर्ख के सिवा क्या उपाधि दी जाए। अब शीत सत्र के पहले दिन दिल्ली ठहर गई। संसद ठप हो गया। तब कहीं जाकर सरकार झुकी। अब सोमवार को सर्वदलीय मीटिंग होगी। तो गन्ना अध्यादेश में संशोधन पर विचार होगा। ताकि किसानों का गुस्सा ठंडा हो। पर सरकार यह कवायद पहले भी तो कर सकती थी। तब तथाकथित रहनुमाओं का दिमाग कुंद क्यों पड़ गया? किसानों का गुस्सा संसद से सड़क तक फूटेगा। इसकी जानकारी सबको थी। तो फिर मनमोहन और उनके सिपहसालार क्या गुरुवार की बाट जोह रहे थे। ताकि भीड़ देखकर दिमाग के घोड़े दौड़ा सकें। क्या सरकार में विजन नाम की कोई चीज नहीं? या जब तक पानी सिर से ऊपर न निकल जाए। तब तक पानी का अहसास ही नहीं होता। सो गुरुवार को संसद भले विपक्ष के हंगामे से ठप हुआ। पर सही मायने में सरकार ने संसद ठप होने दिया। अगर सरकार चाहती, तो किसानों और राजनीतिक दलों से पहले भी अपील कर सकती थी। पर जब अपने हित की खातिर गन्ना किसान सरकार की छाती पर मूंग दडऩे आए। तब सरकार का दम घुटने लगा। सो मनमोहन ने फौरन प्रणव, पवार, चिदंबरम, मोइली की मीटिंग बुला ली। मीटिंग के बाद शरद पवार ने किसानों से धरना खत्म करने की अपील की। अध्यादेश पर फिर से विचार का भरोसा दिलाया। तब कुछ बात बनी। यों अब शरद पवार के भरोसे पर ऐतबार भले न हो। पर पीएम ने जिनको भरोसा दिया। उसके बाद अध्यादेश में संशोधन तय मानिए। यही फर्क होता है आम आदमी और खास आदमी में। पीएम ने राहुल गांधी को भरोसा दिलाया। यानी शाम होते-होते क्रेडिट की लड़ाई में ट्विस्ट आ गया। कांग्रेस ने बाकायदा बयान जारी कर कह दिया- 'राहुल गांधी ने आज सुबह पीएम से मिल गन्ना किसानों की भावना रखी। तो पीएम ने किसानों के हित में अध्यादेश को संशोधित करने का भरोसा दिया।' वाकई कांग्रेस की रणनीति अजब हित की गजब कहानी जैसी। नरेगा हो या आरटीआई। एसईजेड हो या सादगी। कांग्रेसियों की सोनिया गांधी को श्रेय दिलवाने की गजब रणनीति। जब भी मामले ने तूल पकड़ा। दस जनपथ से चि_ïी निकली। बगल के सात रेसकोर्स रोड पहुंच गई। अब अध्यादेश में संशोधन होगा, तो कांग्रेसी कुर्ता फाड़ चिल्लाएंगे। राहुल बाबा के प्रयास से गन्ना किसानों के हित में कदम उठा। पर कोई पूछे, राहुल ने गन्ना किसानों की बात पीएम तक गुरुवार से पहले क्यों नहीं पहुंचाई? क्यों आग लगने का इंतजार किया? पर सत्ता पक्ष के साथ-साथ एक सवाल विपक्ष से भी। गन्ना किसानों की खातिर संसद से सड़क तक मुहिम में कितनी ईमानदारी? अगर पश्चिमी यूपी में ये किसान वोट बैंक न होते। तो क्या ऐसी आर-पार की लड़ाई होती? कैसे एक झटके में सरकार की हेकड़ी निकल गई। पर क्या इन विपक्षियों ने कभी आम आदमी के बारे में सोचा? महंगाई जान लेने पर आमादा। पर महंगाई की खातिर ऐसी राजनीतिक लड़ाई नहीं हुई। जो एक झटके में सरकार को हिला दे। वोट की खातिर मुलायम-अमर भी अजित संग हो गए। लालू, वासुदेव, गुरुदास, शरद, अरुण जेतली सब एक मंच तक आ गए। अब राजनाथ, शरद घुड़की दे रहे। जब तक अध्यादेश वापस नहीं होगा, संसद नहीं चलने देंगे। पर महंगाई के मुद्दे का क्या हश्र? हर सत्र में आवाज उठती। सरकार भी खानापूर्ति को बहस करा लंबी तान लेती। अब तो खबरें आ रहीं, चावल आयात होगा। प्याज की पैदावार कम हुई। सो रुला रही प्याज और रुलाएगी। पर नेता तो फिलहाल गन्ना चूसने में मस्त। अब गन्ना किसानों की समस्या भले खत्म हो जाए। पर देश में तो समस्याओं का अंबार। कपास किसान हों या बाकी अनाज पैदा करने वाले किसान। सबकी समस्या एक जैसी। आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही। पर अपने नेतागण समस्या पर तभी ध्यान देते, जब जनता गिरेबां थाम ले। गुरुवार को किसानों ने ताकत दिखाई। एक ने कहा- 'दिल्ली में अनाज नहीं आने देंगे। दूध, सब्जी, अनाज की गाडिय़ां रोक देंगे।Ó इतना ही नहीं, खून बहाने तक की चेतावनी दे गए। पर किसानों के नाम पर सिर्फ राजनीति। संसद-सरकार में चरण सिंह-देवीलाल जैसे खाटी किसान अब प्रतिनिधि नहीं। सो सरकार भी एडहॉक काम कर रही। कृषि आधारित अपनी अर्थव्यवस्था। पर समूची कृषि के लिए कोई केंद्रीकृत योजना नहीं। अब यह भी देश का संयोग ही। गुरुवार को किसान सौ-डेढ़ सौ रुपए की लड़ाई लड़ रहे थे। तो दूसरी तरफ मुकेश अंबानी की आमदनी साल भर में 54 फीसदी बढऩे की खबर। फोब्र्स मैगजीन में मुकेश देश के सबसे अमीर। पिछले साल 21 अरब डालर संपत्ति थी। अब 32 अरब डालर हो गई। दूसरे नंबर पर लक्ष्मी मित्तल। तो तीसरे पर मुकेश के भाई अनिल। इतना ही नहीं, पिछले साल देश में सिर्फ 27 अरबपति थे। अबके मंदी के बाद भी दुगुने यानी 54 हो गए। आखिर यह कैसी समानता? सो किसान या आम आदमी के पेट से ज्वाला तो निकलेगी ही। सो गुरुवार को जो हुआ। उसे देख सरकार को भी अब यह नहीं भूलना चाहिए। भले अहिंसा अपनी नीति। पर गांधी के देश में भगत सिंह भी हुए थे। सो बेहतर यही, अपने बहरेपन का इलाज करा ले। वरना वह दिन दूर नहीं, जब लोग महानगरों को लूटना शुरू कर दें।
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19/11/2009

Wednesday, November 18, 2009

तो क्या अब चीनी-अमेरिकी भाई-भाई?

इंडिया गेट से

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तो क्या अब चीनी-
अमेरिकी भाई-भाई?
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 संतोष कुमार
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         अब तय हो चुका, बीजेपी का किला नितिन गडकरी ही संभालेंगे। बुधवार को बीजेपी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर तो गडकरी शब्द के अर्थ भी पार्टी मंच से बता गए। गडकरी, यानी गढ़ की रक्षा करने वाला। किले को मजबूत करने वाला। यानी कमजोर हो रहे बीजेपी के किले को संघ ने नाम का गडकरी थमा दिया। सो बीजेपी में गडकरी का गुणगान भी शुरू हो गया। यों गडकरी शब्द शिवाजी महाराज के वक्त खूब इस्तेमाल होता था। शिवाजी किला फतह करते जाते। उसकी रक्षा के लिए सिपाही भी तैनात होते जाते। सो गढ़ की रक्षा करने वालों इन सिपाहियों को ही गडकरी कहा गया। अब शिवाजी के गडकरी तो इतिहास की बात। पर संघ के गडकरी बीजेपी के कितने काम आएंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। सो फिलहाल तो बीजेपी के धुरंधर सरकार को घेरने में जुट गए। आखिर जन, गण, मन की घड़ी आ ही गई। गुरुवार को शीत सत्र शुरू होगा। तो संसद के बाहर गन्ना किसान दर्द उड़ेलेंगे। सदन के भीतर विपक्ष की गर्जना। सो संसद सत्र के लिए मुद्दों की भरमार और विपक्ष के तेवरों ने सरकार की तबियत नासाज कर दी। सो अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने बुधवार को ही बचावी पेंतरा ढूंढ लिया। बोले- 'अंदरूनी कलह से बचने के लिए विपक्ष सत्र को बाधित करने की मंशा पाले हुए है।Ó यानी बीजेपी जब भी मुद्दा उठाकर हंगामा करेगी। तो कांग्रेस जवाब में यही दलील देगी। पर क्या गन्ना किसानों की आवाज या महंगाई, भ्रष्टïाचार, आतंकवाद जैसे मुद्दे उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं? अब अगर बीजेपी इन मुद्दों पर सरकार से जवाब तलब करे। तो सरकार को सीधे-सीधे जवाब देना चाहिए। ताकि संसद में बहस का स्तर उम्दा हो। आम जनता का संसद के प्रति भरोसा बढ़े। ब्रिटिश विद्वान सर आइवर जैनिंग्स ने लोकतंत्र के बारे में यही तो लिखा था। अगर किसी देश की जनता स्वतंत्र है या नहीं, यह पता करना हो। तो पहले यह पता करो कि उस देश में विपक्षी दल है या नहीं। और अगर है, तो उसकी स्थिति कैसी है। यानी लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती ही बेहतर शासन की नींव। सो जनता के मुद्दे से मुंह छिपाने को विपक्ष के अंदरूनी झगड़ों पर हमला कहां तक उचित? पर सरकार भी विपक्ष को जवाब देने की तैयारी का दावा कर रही। सो भले घरेलू मुद्दों पर राजनीतिक नफा-नुकसान बहस में दिखे। पर अंतर्राष्टï्रीय मामले में एकजुटता की जरूरत। अब अमेरिका की चीन से गलबहियां अपनी चिंता का विषय। अमेरिका ने यू-टर्न लेते हुए तिब्बत पर पहली बार चीन का साथ दिया। यही अमेरिका दलाईलामा को चीन के खिलाफ अंतर्राष्टï्रीय मंच मुहैया कराता रहा। हर तरीके से मदद के साथ-साथ मानवाधिकार की दुहाई देता रहा। ताकि चीन को काबू में रख सके। पर मंदी ने अमेरिका को हिला दिया। अब चीन आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर। सो ओबामा सीधे चीन को शरणागत हो गए। पर चीन कम चालाक नहीं। जब खुद महाशक्ति बनने की ओर। तो डूब रही महाशक्ति को सहारा क्यों दे। सो भारत के खिलाफ फिलहाल अमेरिका का साथ निभाएगा। ताकि अरुणाचल के तवांग पर अपना दावा मजबूत कर सके। सो अमेरिका-चीन की गलबहियां भारत के लिए दोहरी चिंता की वजह। साझा बयान तो अमेरिका-चीन का जारी हुआ। पर जिक्र भारत-पाक मुद्दे की हो गई। ओबामा-जिंताओ ने मिलकर भारत-पाक के मामलों में दखल देने की प्रतिबद्धता जता दी। चीन तो पहले ही पाक को शह देता रहा। अब अमेरिका ने उसे दक्षिण एशिया का दादा घोषित कर दिया। यानी अब दोनों मिलकर कश्मीर में अपनी नाक घुसेड़ेंगे। पर कहीं ऐसा न हो, अमेरिकी-चीनी भाई-भाई बन भारत को कश्मीर में उलझा दें। उधर तवांग को चीन हथिया ले। पर चीन से अमेरिका को भी सचेत रहने की जरूरत। चीन ने पहले हिंदी-चीनी भाई-भाई कहकर भारत की पीठ में छुरा घोंपा। सो जो चीन पड़ोसी का सगा न हुआ। वह सात समंदर पार अमेरिका का क्या होगा। अब कोई पूछे, अमेरिका-चीन साझा बयान में भारत-पाक कहां से आ गए। दक्षिण एशिया में शांति का दादा क्यों बन रहे, जब किसी ने मदद मांगी ही नहीं। सो बुधवार को अपने विदेश मंत्रालय ने दो-टूक जवाब दे दिया। अमेरिका और चीन भले स्वयंभू दादा बन रहे हों। पर भारत का राष्टï्रीय हित सर्वोपरि। सो अपने विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर दिया। पाक के साथ द्विपक्षीय वार्ता के जरिए विवाद को खुद सुलझाएंगे। शिमला समझौते के तहत न तो तीसरे पक्ष की भूमिका हो सकती। और न भारत को इसकी दरकार। पर पाक से सार्थक बातचीत तभी, जब आतंकवाद का खात्मा होगा।

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18/11/2009

Friday, November 13, 2009

हेडली पर यूएस के रुख से ठगी रह गई अपनी सरकार

इंडिया गेट से
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हेडली पर यूएस के रुख से
ठगी रह गई अपनी सरकार
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 संतोष कुमार
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डेविड हेडली के मंसूबों के खुलासे ने फिर सवाल उठा दिया। आतंकवाद के खिलाफ अपनी तैयारी कितनी मुकम्मल। हाल में जनरल दीपक कपूर ने ताल ठोककर कहा था- '26/11 को मुंबई पर हमला आखिरी आतंकी वारदात। जैसे 9/11 के बाद अमेरिका ने कोई हमला नहीं होने दिया। इंडोनेशिया ने बाली विस्फोट के बाद दूसरा वाकया न होने दिया। वैसी ही अब हमारी तैयारी।' गुरुवार को अपने पी. चिदंबरम ने भी करीब-करीब यही दोहराया। भले 26/11 के बाद अपना सुरक्षा तंत्र चुस्त-दुरुस्त हुआ। पर जब तक सरकार में बैठे राजनीतिक आकाओं में कूटनीतिक साहस न हो। तो सुरक्षा तंत्र क्या बिगाड़ लेगा? डेविड हेडली का ताजा किस्सा तो यही बयां कर रहा। अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई ने हेडली को गिरफ्तार किया। तो लश्कर-ए-तोइबा से सांठगांठ कर अमेरिका व भारत में हमलों की साजिश का खुलासा हुआ। हेडली के भारत आने-जाने की रपट एफबीआई ने दी। तो अपनी सुरक्षा एजेंसी हेडली के फुट प्रिंट्स के पीछे-पीछे भाग रही। ताकि कोई सुराग मिल सके। हेडली 2006 से 2008 के बीच भारत आता-जाता रहा। अहमदाबाद, लखनऊ, मुंबई, आगरा, दिल्ली के होटलों में रुका। पर न अपने सुरक्षा बलों को भनक लगी। न हमलों के बाद कोई सुराग ढूंढ पाई। अब किस-किस साजिश में हेडली का हाथ। इसके पुख्ता सबूत आने बाकी। पर दिल्ली धमाके से लेकर 26/11 तक में हेडली का नाम आ रहा। खुलासे में किसी राहुल का नाम आया। तो मनमोहन सरकार सकते में आ गई। अंदेशा हुआ, कहीं राहुल बाबा का नाम तो नहीं। कहीं राहुल के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं। सो जांच ने फौरन रफ्तार पकड़ ली। तब जाकर शुक्रवार को खुलासा हुआ। राहुल भट्टï से मिला था डेविड हेडली। जब मुंबई आया, तो वर्जिश को लेकर राहुल भट्टï से मुलाकात हुई। राहुल भट्टï नामचीन फिल्म डायरेक्टर महेश भट्टï के बेटे। जो पेशे से जिम इंस्ट्रक्टर। सो राहुल ने खुद पुलिस को सारी कहानी बताई। पर राहुल नाम की गफलत में सरकार ने फौरन आईबी-रॉ की एक टीम अमेरिका भेज दी। ताकि हेडली से पूछताछ कर जांच को अंजाम तक पहुंचाया जा सके। पर आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई की पोल एक बार फिर खुल गई। अमेरिका की जुबान और नीयत में सात समुंदर का फासला। सो भारत के खिलाफ साजिश रचने वाले डेविड हेडली के बारे में रपट तो दी। पर भारतीय जांच टीम को डेविड से पूछताछ की इजाजत नहीं दी। पूछताछ की बात तो छोडि़ए। एफबीआई ने अमेरिकी मूल के गिरफ्तार आतंकी डेविड हेडली उर्फ दाऊद गिलानी और तहव्वुर राना का चेहरा तक नहीं देखने दिया। अब जरा अमेरिकी नीयत का फर्क आप खुद देख लो। जब 26/11 को मुंबई में हमला हुआ। मरने वालों में कई अमेरिकी नागरिक भी। सो अपनी जांच एजेंसियों ने कोई हील-हुज्जत नहीं की। अलबत्ता अजमल आमिर कसाब को एफबीआई के हवाले कर अलग से पूछताछ करने दी। सो अमेरिका की दोहरी नीति कब तक छिपी रहेगी। अब अपनी जांच एजेंसी और सरकार सिर्फ एफबीआई से मिलने वाली रिपोर्ट पर ही निर्भर। पर डेविड हेडली तो अपने मंसूबों को अंजाम देकर भारत से निकल चुका। सो जब तक अपनी एजेंसी पूछताछ न कर ले। अंधेरे में हाथ-पांव मारने के सिवा कोई चारा नहीं। अपनी हालत तो ऐसी, जैसे सांप के निकल जाने के बाद लकीर पर लाठी पीट रहे। यानी भारत में तबाही मचाने वाले आतंकियों से पूछताछ की खातिर भी अब अमेरिका की मुंहतकी की नौबत। अमेरिका भी यही चाह रहा। ताकि दुनिया की आंखों में धूल झोंक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का ढिंढोरा पीट सके। तो दूसरी तरफ पाक और चीन को शह देकर दक्षिण एशिया में दबदबा बनाए रखने की रणनीति। तभी तो 26/11 के हमले के बाद भले कूटनीतिक दबाव का असर दिखा। पर अब तो पाक ढीठ होकर पलटवार कर रहा। चीन से आधुनिक लड़ाकू विमान मिल रहे। अमेरिका से अरबों-खरबों की मदद। पाक में तालिबानी तांडव मचा हुआ। तो इसी नाम पर अमेरिकी सहायता मिल रही। दूसरी तरफ चीन भारत में नक्सली आतंकवाद फैलाने की तैयारी कर चुका। सो नक्सली सरकार से बातचीत की पेशकश को ठुकरा रहे। सरकार के खिलाफ जंग का एलान। सो चुनौती घरेलू हो या कूटनीतिक। सरकार में निपटने का कितना दमखम। अमेरिका ने भारत की जांच टीम को बैरंग लौटा दिया। पर मनमोहन सरकार चूं तक नहीं कर सकी। आखिर आतंकवाद के खिलाफ यह कैसी वैश्विक जंग? अगर अपनी सरकार सख्ती के साथ-साथ शक्ति की भाषा भी अपनाए। तो दोहरी नीति अपनाने वाले बेनकाब हो सकें। पर अपनी सरकार ने तो फिलहाल वैसा साहस नहीं दिखाया। अब हेडली के प्रत्यर्पण की कोशिश करेगी। सो अपनी नेशनल इनवेस्टीगेटिव एजेंसी ने हेडली-राना के खिलाफ केस दर्ज कर लिया। अब अंधेरे में हाथ-पांव मार सबूत जुटाएगी। फिर अमेरिका से प्रत्यर्पण की मांग होगी। पर तब तक एफबीआई हेडली-राना को निचोड़ चुकी होगी।
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13/11.2009

Thursday, November 12, 2009

इंडिया गेट से
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पश्चाताप के आंसू: कितने
घडिय़ाली, कितने सच?
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 संतोष कुमार
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फिजां बदली, तो बीजेपी को अपना घाव दर्द देने लगा। इतिहास का पन्ना कुरेद मरहम लगा रही। पर पहले बात अध्यक्षी घुड़दौड़ की। नितिन गडकरी गुरुवार को दिल्ली आए, और निकल लिए। झंडेवालान में हाजिरी लगाई। तो अशोका रोड पहुंच रामलाल से दो घंटे की गुफ्तगू। सो सवाल हुआ, तो गडकरी ने कह दिया- 'मैं किसी दौड़ में शामिल नहीं।Ó वाकई खुद से गडकरी या कोई और दौड़ में शामिल नहीं हो सकता। दौड़ाने का जिम्मा तो मोहन भागवत ने संभाल रखा। सो जिसे चाहें, डंडा थमा दें। पर रिटायरमेंट को मजबूर आडवाणी भी खूंटा गाड़े बैठे। अब अध्यक्ष गडकरी बनें, या मोदी, शिवराज, पारिकर या कोई डार्क हॉर्स। पर बीजेपी का झगड़ा ऐसी मजाक बन चुका। अशोका रोड में लोग कहने लगे। आडवाणी ने संघ को कुछ यों संदेशा भेज दिया। तुम मुझे न चाहो, तो कोई बात नहीं। किसी और को चाहोगी, तो मुश्किल होगी। यानी भागवत चाहे लाख घोड़े दौड़ा लें। आडवाणी की मर्जी के बिना किसी को अध्यक्ष नहीं थोप सकते। पर दिल्ली से बाहर के अध्यक्ष वाला भागवत का बयान हो या आडवाणी-राजनाथ की खेमेबाजी। बीजेपी खुद में मजाक बनकर रह गई। गुरुवार को नितिन गडकरी बीजेपी हैड क्वार्टर पहुंचे। तो खबरनवीसों तक सूचना पहले पहुंच गई। सो अपनी बिरादरी वालों ने भावी अध्यक्ष का तमगा थमा बधाइयां दे दीं। किसी ने कहा, चार्ज लेने आए हैं। तो किसी ने कहा, फाइल देखने। पर अब शायद मजाक की अति हो चुकी। सो बीजेपी मानो दर्द से कराह रही। बीजेपी के मुखपत्र 'कमल संदेशÓ के ताजा अंक में इसी बात का रोना-धोना। बीजेपी अब खुद से सवाल पूछ रही, जब संगठन सर्वोपरि है। तो फिर ऐसा क्यों...? अब शायद बीजेपी के नेता या वर्कर कम से कम मीडिया पर तो आरोप नहीं मढ़ेंगे। खुद बीजेपी कबूल रही। पराजय की मार झेलने के बाद जो हुआ, बीजेपी जनता को क्या मुंह दिखाए। वर्करों की भावना पहली बार 'कमल संदेशÓ में उभरी। तो हर वर्कर अपने आला नेताओं से यही पूछ रहा- 'हम जवाब क्या दें?Ó पर 'कमल संदेशÓ का संपादकीय भी फ्लैश बैक से शुरू हुआ। सो बानगी आप खुद देख लो। जैसी हार 2004 में हुई, वैसी ही 2009 में भी। फर्क इतना, तब एनडीए सरकार में था। अबके विपक्ष में। उस समय भी महाराष्टï्र, अरुणाचल, हरियाणा में बीजेपी हारी। इस बार भी यही हुआ। पर 2004 और 2009 के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क। अभी भी पांच-सात राज्यों में सरकार होने का गर्व। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी की शहादत। बीजेपी के कोर मुद्दे- हिंदुत्व की विचारधारा, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता की भी याद ताजा की। निराशा और हताशा से उबरने को जनसंघ से बीजेपी के सफर का भी जिक्र। जब पुरोधाओं ने तिल-तिल जलकर जनसंघ का 'दीयाÓ जलाया। गांव-गांव तक 'कमलÓ पहुंचाया। मनमोहन सरकार की पहली पारी में विधानसभा चुनाव जीतने का खूब बखान। ताकि पार्टी हताशा से निकल सके। बिहार में लालू राज समाप्त किया। झारखंड में संविधान की आन बचाई। पंजाब, हिमाचल और उत्तराखंड कांग्रेस से छीन लिए। प्रतिष्ठïा का मुद्दा बना गुजरात चुनाव भी कांग्रेस के मुंह पर तमाचा रहा। बीजेपी को उत्तर भारतीयों की पार्टी कहा गया। पर दक्षिण के कर्नाटक में परचम लहरा येदुरप्पा सीएम बने। नगालैंड में गठबंधन की सरकार बनी। यानी 'कमल संदेशÓ के पहले पार्ट में इतिहास से सिर्फ सुनहरे पन्ने निकाले गए। पर जिन्ना एपीसोड, उमा भारती प्रकरण, खुराना का दिल्ली प्रेम, कल्याण सिंह का जाना, राजस्थान और गुजरात की उठापटक तो आम बात रही। फिर भी इतिहास के काले पन्ने नहीं कुरेदे गए। पर अब जरा कबूलनामे के दूसरे पार्ट पर नजर फिराएं। तो राजस्थान का वसुंधरा एपीसोड और कर्नाटक का येदुरप्पा एपीसोड बीजेपी को झकझोर गया। सो 'कमल संदेशÓ में साफ लिखा गया- 'राजस्थान में हालत पतली। फिर भी राजस्थान को लेकर हाल में जो दृश्य पैदा हुआ। उससे देश भर के कार्यकर्ताओं का मन दुखी हुआ। आखिर बिना अनुशासन और दल की एकता के हम कहां रहेंगे?Ó यानी वसुंधरा प्रकरण पर भले उनके समर्थक डींगें हांक बीजेपी को ठेंगा दिखा रहे। नेता के आगे संगठन को बौना बता रहे। उनके लिए साफ नसीहत, संगठन ही सर्वोपरि। राजस्थान और दिल्ली की हार गले नहीं उतर रही। सो 'कमल संदेशÓ के जरिए बीजेपी अब बीजेपी से ही सवाल पूछ रही। हम कमजोर कहां हैं? हमारी कमजोरी क्या है? वक्त रहते कमजोरी दूर करने की जरूरत। दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। यह बात नेतृत्व को समझनी ही होगी। आखिर ऐसे कौन से हालात, जो बीजेपी यहां तक पहुंच गई? अब बीजेपी के नेता 'कमल संदेशÓ में उठाए सवालों को कितनी गंभीरता से लेंगे, यह तो वही जानें। पर 2004 और 2009 के बाद के माहौल में बड़ा फर्क। तब बीजेपी सत्ता से बेदखल हुई थी। पर कुछ विधानसभा में जीती, तो जश्र मनाया। हारी, तो सबक नहीं लिया। अबके 2009 में सत्ता की उम्मीद थी, पर जैसे प्यासा कुएं के पास जाकर लौटने को मजबूर हो। वैसी ही झल्लाहट बीजेपी के चेहरे पर। सो बीजेपी के पश्चाताप के आंसू, कितने घडिय़ाली, कितने सच, यह तो समय ही तय करेगा।
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Monday, November 9, 2009

इंडिया गेट से --------- 'राज' द्रोह पर नपुंसक क्यों अपनी राजनीति? ---------------  संतोष कुमार ----------- 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा... हिंदी हैं हम, वतन है... हिंदोस्तां हमारा।' मोहम्मद इकबाल का लिखा तराना 1904 से अब तक अपने गौरव का गीत बना हुआ। पर कौन सोच सकता, ऐसा तराना लिखने वाला कभी बंटवारे की बात करेगा। फिर भी इतिहास का यही सच। इकबाल बाद में बंटवारे के कट्टïर पैरोकार बन गए थे। ऐसा ही तराना उन ने पाक की खातिर भी लिखा। अब इकबाल तो सारे जहां से अच्छा गीत आम भारतीय की जुबान से दूर नहीं कर सके। पर सोमवार को महाराष्टï्र की विधानसभा से वही बंटवारे की बू आई। एक तरफ मराठी प्रेम, तो दूसरी तरफ देश को बांटने का संदेश। राज ठाकरे के गुंडों ने फिर देश को शर्मसार करने वाला वाकया दिखाया। पहली बार एमएनएस के 13 एमएलए चुने गए। तो राज ठाकरे के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे। सो सड़कों की लड़ाई विधानसभा पहुंच गई। विवाद का मुद्दा बनी अपनी राष्टï्र भाषा। राज ठाकरे ने अपील कम, आदेश के अंदाज में सभी विधायकों को फरमान थमा दिया था। शपथ ग्रहण सिर्फ मराठी में ही करना होगा। पर समाजवादी पार्टी के अबू आजमी ने हिंदी में शपथ का खम ठोका। सोमवार को आजमी शपथ लेने को खड़े हुए। तो राज ठाकरे के पालतुओं ने माइक छीना। हाथापाई से लेकर लप्पड़-थप्पड़ और जूते-चप्पल भी चलाए। पर आजमी का कसूर क्या? सिर्फ यही ना, राष्टï्र भाषा में शपथ ली। इसमें मराठी का अपमान कहां से? क्या मराठी संस्कृति यह कहती, किसी से जबरन अपनी जुबान बुलवाओ। क्या इंसानियत कोई संस्कृति नहीं? अगर राज ठाकरे ने अपील की थी। अपील या अनुरोध तो किसी पर बंदिश नहीं। फिर राज के गुर्गों ने इतना हंगामा क्यों बरपाया? क्या मराठी प्रेम या महाराष्टï्र राज ठाकरे के बाप की जागीर हो गई? उत्तर भारतीयों की मुखालफत कर कभी सड़कों पर तांडव, तो कभी विधानसभा में। भले सोमवार को एमएनएस की गुंडागर्दी पर फौरी कार्रवाई हुई। मर्यादा तार-तार करने वाले एमएनएस के चार एमएलए चार साल के लिए सस्पेंड कर दिए। राम कदम, शिशिर शिंदे, वसंत गीते, रमेश वांजले अब विधानसभा परिसर में भी कदम नहीं रख पाएंगे। पर यह तो कार्रवाई का टोकन भर। राज के गुर्गे फिर सड़कों पर तांडव मचाएंगे। पर दूसरा पहलू, सस्पेंड हुए चार एमएलए के इलाके की जनता खामियाजा क्यों भुगते? बेहतर तो यही होता, एमएलए बर्खास्त कर दिए जाते। एमएनएस को बैन करने की सिफारिश चुनाव आयोग से होती। राज ठाकरे के चि_ïीनुमा फरमान और बयानों पर फौरी कार्रवाई होती। ताकि ऐसे राष्टï्र द्रोहियों को दुबारा सिर उठाने का मौका न मिले। पर अपनी राजनीति में ऐसा साहस कहां। सीएम अशोक चव्हाण ने सस्पेंशन का एलान किया। तो सजा की वजह सदन में हुआ व्यवहार बताया। हिंदी के अपमान पर सवाल टाल गए। यों राज ठाकरे के खिलाफ जांच का एलान जरूर किया। पर राज तो पहले भी गिरफ्तार और रिहा होते रहे। पुलिस हाथ जोड़े खड़ी रहती। राज हाथ में सिगरेट लिए बयान देते। अबके विधानसभा में एमएनएस के एमएलए ने हाथापाई की। तो बाहर उनके नेताओं की जुबान जहर उगल रही थी। वागीश सारस्वत से लेकर सरपोतदार तक अपनी हरकत को जायज ठहराते रहे। वागीश ने यहां तक कह दिया, आजमी जैसे लोग लातों के भूत हैं, बातों से नहीं मानते। लगे हाथ एमएनएस की धमकी भी, जिसको जिस भाषा में बात करनी हो, आकर कर ले। यानी न संविधान का लिहाज, न कानून का डर। अलबत्ता राज ठाकरे तो हर कदम संविधान को श्रद्धांजलि दे रहे। आजमी की हिंदी पर हंगामा बरपाया। पर कांग्रेसी बाबा सिद्दीकी ने अंग्रेजी में शपथ ली। तो कुछ नहीं बोले। यानी अंग्रेजी मंजूर, हिंदी नहीं। अब राष्ट्रभाषा के खिलाफ लोगों को भड़काना राजद्रोह नहीं, तो और क्या? पर राज के खिलाफ ठोस कार्रवाई में किस बात का इंतजार? हिंदी भाषियों के खिलाफ मुंबई की सड़कों पर जो दुनिया ने देखा। सोमवार को विधानसभा का वाकया देखा। फिर किस बात की देरी? आखिर 'राजÓ द्रोह पर अपनी राजनीति नपुंसक क्यों बनी बैठी? कांग्रेसी सत्यव्रत हों, या सिंघवी। लालू हों या शाहनवाज। सिर्फ कड़ी भत्र्सना तक ही सीमित रहे। लालू ने इतना जरूर चेताया, देश टूटेगा, तो महाराष्टï्र की वजह से। पर जब लालू कांग्रेस के साथ पावरफुल थे, तब कार्रवाई का दबाव क्यों नहीं बनाया। महाराष्टï्र और केंद्र में तब भी कांग्रेस, आज भी कांग्रेस सत्ता में। विपक्षी बीजेपी की हालत तो न तीन में, न तेरह में। आपसी लड़ाई में ही इस कदर उलझी। राज कौन, शायद मालूम नहीं होगा। सो उससे आग या खून खौलने की उम्मीद ही बेमानी। पर कांग्रेस तो आजादी की आन, बान, शान वाली पार्टी। फिर भी खून क्यों नहीं खौल रहा? क्या खून इतना ठंडा पड़ चुका। जो संविधान की श्रद्धांजलि देने वाले और मानवता को कुचलने वाले राज को रोक नहीं पा रही। राज के सिर्फ तेरह पालतुओं ने हंगामा मचाया। तो मुंबई में हाई अलर्ट करना पड़ा। अब भी अगर राजनीति ऐसी ही नपुंसक बनी रही। तो इकबाल की मानसिकता वाले राज जैसे लोग बढ़ते जाएंगे। बाकियों को इकबाल का लिखा गीत भुलाना होगा। --------- 09।11।2009

Wednesday, November 4, 2009

Hindi Blogosphere: ब्लॉगवाणी Blogvani Hindi Agregator

Hindi Blogosphere: ब्लॉइंडिया गेट से---------------चोली-दामन जैसा रिश्ता राजनीति और भ्रष्टाचार का ------------------------तो शरद पवार ने फिर मुह खोला। सो न जाने महंगाई अब कहाँ जाकर थमेगी। ख़ुद पवार को भी मालूम नहीं। सो महंगाई का भूत दिखाकर कट लिए। कभी मंदी की दुहाई, तो कभी पैदावार में कमी की दलील। पर इन नेताओं से यह पूछकर देखो, कौन सा महकमा मलाईदार तो चट बता देंगे। मलाईदार महकमों का मामला न होता तो महाराष्ट्र में सरकार न बन गई होती। पर चुनावी खर्च सूद समेत निकालना जरूरी सो कांग्रेस-एनसीपी मलाई छोड़ने को राजी नहीं। अब गवर्नर ने 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया। तो कमोबेश शायद अब कुछ जुगाड़ फिट हो जाए। पर जनता की गाढ़ी कमाई की लूट कैसी मचेगी, यह मधु कोड़ा से पूछकर देख लो। अमीर बनने का सबसे शॉर्टकट तरीका बन चुकी राजनीति। मधु कोड़ा तो फर्श से अर्श तक पहुंचने का ताजा उदाहरण। पर पूछताछ हुई तो बीमार पड़ गए। पर छापे में अहम दस्तावेज जांच एजेंसी के हाथ लगे। सो बुधवार को इनकम टेक्स विभाग ने कोड़ा का घर सील कर दिया।जब झारखंड राज्य बना, तो बीजेपी कोटे से मंत्री थे। पर राज्यसभा चुनाव में पैसा लेकर क्रॉस वोटिंग की तो बीजेपी ने निकाल दिया। पर दूसरा चुनाव निर्दलीय जीते तो कांग्रेस-लालू-शिबू ने मिलकर सीएम बना दिया। सो कोड़ा ने जमकर कारगुजारी दिखाई। किसको कितना शेयर मिला, पता नहीं। पर अकेले कोड़ा ने चार हजार करोड़ जमा कर लिए। मंत्री-सीएम रहते कोड़ा दुबई-बैंकाक भी घूम आए। पर केंद्र सरकार को भनक भी न लगी। कहीं ऐसा तो नहीं, राजनीतिक शेयर मिल गया। तो सरकारी तंत्र ने आंख मूंद ली हो। कोड़ा इलाज के बहाने जिन देशों में गए। उन देशों से ही अकूत संपत्ति की पोल खुल रही। अब झारखंड चुनाव हो रहे। तो कांग्रेस खुद को बेदाग दिखाने की कोशिश में कोड़ा पर शिकंजा कसवा रही। पर यह तो वही बात, चोरी में भी साथ दिया। अब चौकीदार बन जनता को बरगला रही। यों कोड़ा तो सिर्फ भ्रष्टाचार की कड़ी। राजनीति और भ्रष्टाचार का तो चोली-दामन जैसा रिश्ता बन चुका। वरना चार आने का नेता यों ही करोड़पति नहीं बन जाता। फिर भी अपना इरादा किसी पर उंगली उठाने का नहीं। पर राजनेताओं का इतिहास-भूगोल याद करा दें। ताकि आप खुद उनका क्वनागरिक शास्त्रं तैयार कर सकें। हाजी मस्तान पोर्टर से स्मगलर, और स्मगलर से नेता बन गए। भजनलाल 1950 के दशक में चुन्नियां बेचा करते थे। चार आने का टिकट नहीं खरीद पाने की वजह से धर लिए गए थे। फिर किस्मत ऐसी बदली, चार बार सीएम, दो बार केंद्र में मंत्री और अब हरियाणा में किंगमेकर बने हुए। ओमप्रकाश चौटाला साधारण किसान परिवार से थे पर सीबीआई की नजर में 2000 करोड़ के मालिक। बूटा सिंह अकाली पत्रिका अखबार के दफ्तर में पानी पिलाने का काम करते थे। पर देश के होम मिनिस्टर की कुर्सी तक पहुंच गए। बेटा हाल ही में एक करोड़ की रिश्वत लेते धरा जा चुका। नरसिंह का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड। दिल्ली हाईकोर्ट ने तीन साल की सजा दी। पर सुप्रीम कोर्ट ने संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला बताकर बरी कर दिया। पंडित सुखराम के घर संचार घोटाले में छापा पड़ा। तो मंत्री के सरकारी आवास से साढ़े चार करोड़ मिले। पर वही सुखराम कभी मंडी के स्कूल में क्लर्क थे। दिल्ली आए, तो सर्वेट क्वार्टर में रहे। उस जमाने में पंद्रह रुपए की साइकिल आती थी। पर सुखराम की हैसियत से बाहर थी। यों सुखराम पहले नेता हुए, जिन्हें भ्रष्टाचार में सजा मिली। अब लालू यादव को ही लो। बिहार में साढ़े नौ सौ करोड़ का चारा घोटाला सबको चौंकाने वाला। कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा के परिवार की आधिकारिक संपत्ति साढ़ सात सौ करोड़। चुनाव आयोग को हलफनामे में इतना बताया। तो बाकी भगवान ही जाने। पर कभी देवगौड़ा जूनियर इंजीनियर के नीचे ड्राफ्टमैन हुआ करते थे।बीजेपी के येदुरप्पा की मुसीबत बने रेड्डी बंधुओं की संपत्ति सात हजार करोड़। जो सिर्फ 2004 से 2009 के बीच बनी। आंध्र में वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन के अकेले की संपत्ति पांच सौ करोड़। कहां से आए इतने पैसे? कोई निचले स्तर से उठकर देश की बागडोर संभाले, तो गौरव की बात। पर संपत्ति भी देश जैसी विशाल हो जाए, तो क्या कहेंगे? तमिलनाडु में जयललिता हों या करुणानिधि। जयललिता ने अपनी आत्मकथा में खुद लिखा। जब उनकी मां की मौत हुई, तो अंतिम संस्कार को पैसे न थे। लाश घर में पड़ी थी, पर वह फिल्म की शूटिंग में गईं। ताकि 51 रुपए का बंदोबस्त हो सके। आज जयललिता क्या हैं, बताने की जरूरत नहीं। बीजेपी में प्रमोद महाजन के शुरुआती दिन मुफलिसी में गुजरे। पर राजनीति में आए, तो संपत्ति बेहिसाब हो गई। ये सारे उदाहरण तो सिर्फ एक झलक। कई सफेदपोश तो ऐसे, जिन पर जांच एजेंसी हाथ डालने की हिमाकत भी नहीं कर सकती। पर उनका इतिहास और वर्तमान खुद हकीकत बयां कर रहा। आम आदमी तो दो जून की रोटी जुटा ले, तो संतोष की सांस लेता। पर राजनेताओं का पेट भरता ही नहीं। सुरसा की तरह मुंह फैलाए बैठे। करोड़ों-करोड़ों निगल रहे, पर डकार का नाम नहीं। सो भ्रष्टाचार पर नकेल, सिर्फ कहने की बात।-------०४/११/2009 गवाणी Blogvani Hindi Agregator
इंडिया गेट से --------------- चोली-दामन जैसा रिश्ता राजनीति और भ्रष्टाचार का ------------------------ तो शरद पवार ने फिर मुह खोला। सो न जाने महंगाई अब कहाँ जाकर थमेगी। ख़ुद पवार को भी मालूम नहीं। सो महंगाई का भूत दिखाकर कट लिए। कभी मंदी की दुहाई, तो कभी पैदावार में कमी की दलील। पर इन नेताओं से यह पूछकर देखो, कौन सा महकमा मलाईदार तो चट बता देंगे। मलाईदार महकमों का मामला न होता तो महाराष्ट्र में सरकार न बन गई होती। पर चुनावी खर्च सूद समेत निकालना जरूरी सो कांग्रेस-एनसीपी मलाई छोड़ने को राजी नहीं। अब गवर्नर ने 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया। तो कमोबेश शायद अब कुछ जुगाड़ फिट हो जाए। पर जनता की गाढ़ी कमाई की लूट कैसी मचेगी, यह मधु कोड़ा से पूछकर देख लो। अमीर बनने का सबसे शॉर्टकट तरीका बन चुकी राजनीति। मधु कोड़ा तो फर्श से अर्श तक पहुंचने का ताजा उदाहरण। पर पूछताछ हुई तो बीमार पड़ गए। पर छापे में अहम दस्तावेज जांच एजेंसी के हाथ लगे। सो बुधवार को इनकम टेक्स विभाग ने कोड़ा का घर सील कर दिया।जब झारखंड राज्य बना, तो बीजेपी कोटे से मंत्री थे। पर राज्यसभा चुनाव में पैसा लेकर क्रॉस वोटिंग की तो बीजेपी ने निकाल दिया। पर दूसरा चुनाव निर्दलीय जीते तो कांग्रेस-लालू-शिबू ने मिलकर सीएम बना दिया। सो कोड़ा ने जमकर कारगुजारी दिखाई। किसको कितना शेयर मिला, पता नहीं। पर अकेले कोड़ा ने चार हजार करोड़ जमा कर लिए। मंत्री-सीएम रहते कोड़ा दुबई-बैंकाक भी घूम आए। पर केंद्र सरकार को भनक भी न लगी। कहीं ऐसा तो नहीं, राजनीतिक शेयर मिल गया। तो सरकारी तंत्र ने आंख मूंद ली हो। कोड़ा इलाज के बहाने जिन देशों में गए। उन देशों से ही अकूत संपत्ति की पोल खुल रही। अब झारखंड चुनाव हो रहे। तो कांग्रेस खुद को बेदाग दिखाने की कोशिश में कोड़ा पर शिकंजा कसवा रही। पर यह तो वही बात, चोरी में भी साथ दिया। अब चौकीदार बन जनता को बरगला रही। यों कोड़ा तो सिर्फ भ्रष्टाचार की कड़ी। राजनीति और भ्रष्टाचार का तो चोली-दामन जैसा रिश्ता बन चुका। वरना चार आने का नेता यों ही करोड़पति नहीं बन जाता। फिर भी अपना इरादा किसी पर उंगली उठाने का नहीं। पर राजनेताओं का इतिहास-भूगोल याद करा दें। ताकि आप खुद उनका क्वनागरिक शास्त्रं तैयार कर सकें। हाजी मस्तान पोर्टर से स्मगलर, और स्मगलर से नेता बन गए। भजनलाल 1950 के दशक में चुन्नियां बेचा करते थे। चार आने का टिकट नहीं खरीद पाने की वजह से धर लिए गए थे। फिर किस्मत ऐसी बदली, चार बार सीएम, दो बार केंद्र में मंत्री और अब हरियाणा में किंगमेकर बने हुए। ओमप्रकाश चौटाला साधारण किसान परिवार से थे पर सीबीआई की नजर में 2000 करोड़ के मालिक। बूटा सिंह अकाली पत्रिका अखबार के दफ्तर में पानी पिलाने का काम करते थे। पर देश के होम मिनिस्टर की कुर्सी तक पहुंच गए। बेटा हाल ही में एक करोड़ की रिश्वत लेते धरा जा चुका। नरसिंह का झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड। दिल्ली हाईकोर्ट ने तीन साल की सजा दी। पर सुप्रीम कोर्ट ने संसद के अधिकार क्षेत्र का मामला बताकर बरी कर दिया। पंडित सुखराम के घर संचार घोटाले में छापा पड़ा। तो मंत्री के सरकारी आवास से साढ़े चार करोड़ मिले। पर वही सुखराम कभी मंडी के स्कूल में क्लर्क थे। दिल्ली आए, तो सर्वेट क्वार्टर में रहे। उस जमाने में पंद्रह रुपए की साइकिल आती थी। पर सुखराम की हैसियत से बाहर थी। यों सुखराम पहले नेता हुए, जिन्हें भ्रष्टाचार में सजा मिली। अब लालू यादव को ही लो। बिहार में साढ़े नौ सौ करोड़ का चारा घोटाला सबको चौंकाने वाला। कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा के परिवार की आधिकारिक संपत्ति साढ़ सात सौ करोड़। चुनाव आयोग को हलफनामे में इतना बताया। तो बाकी भगवान ही जाने। पर कभी देवगौड़ा जूनियर इंजीनियर के नीचे ड्राफ्टमैन हुआ करते थे।बीजेपी के येदुरप्पा की मुसीबत बने रेड्डी बंधुओं की संपत्ति सात हजार करोड़। जो सिर्फ 2004 से 2009 के बीच बनी। आंध्र में वाईएस राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन के अकेले की संपत्ति पांच सौ करोड़। कहां से आए इतने पैसे? कोई निचले स्तर से उठकर देश की बागडोर संभाले, तो गौरव की बात। पर संपत्ति भी देश जैसी विशाल हो जाए, तो क्या कहेंगे? तमिलनाडु में जयललिता हों या करुणानिधि। जयललिता ने अपनी आत्मकथा में खुद लिखा। जब उनकी मां की मौत हुई, तो अंतिम संस्कार को पैसे न थे। लाश घर में पड़ी थी, पर वह फिल्म की शूटिंग में गईं। ताकि 51 रुपए का बंदोबस्त हो सके। आज जयललिता क्या हैं, बताने की जरूरत नहीं। बीजेपी में प्रमोद महाजन के शुरुआती दिन मुफलिसी में गुजरे। पर राजनीति में आए, तो संपत्ति बेहिसाब हो गई। ये सारे उदाहरण तो सिर्फ एक झलक। कई सफेदपोश तो ऐसे, जिन पर जांच एजेंसी हाथ डालने की हिमाकत भी नहीं कर सकती। पर उनका इतिहास और वर्तमान खुद हकीकत बयां कर रहा। आम आदमी तो दो जून की रोटी जुटा ले, तो संतोष की सांस लेता। पर राजनेताओं का पेट भरता ही नहीं। सुरसा की तरह मुंह फैलाए बैठे। करोड़ों-करोड़ों निगल रहे, पर डकार का नाम नहीं। सो भ्रष्टाचार पर नकेल, सिर्फ कहने की बात। ------- ०४/११/2009