Friday, January 29, 2010

जब हाथों में हो जाम, तो निधन पर शोक कैसा?

 संतोष कुमार
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           जब महंगाई काबू में नहीं। तो भला जुबान क्यों काबू में रहे। अब तो महंगाई भी परेशान हो चुकी होगी, कहां राजनीति में आकर फंस मरी। बेचारी महंगाई ने सौ मीटर के धावक उसैन बोल्ट का भी रिकार्ड तोड़ दिया। पर नेता महंगाई को आराम देने के बजाए राजनीति चमकाने में जुटे हुए। बीजेपी 18 जनवरी से महंगाई के खिलाफ आंदोलन कर रही। पर कहीं सड़कों पर वर्कर नहीं दिख रहे। कांग्रेस तो सिर्फ गाल बजाकर महंगाई रोकने का दावा कर रही। अब शुक्रवार को रिजर्व बैंक ने सीआरआर बढ़ा दिया। यानी अब बैंकों को आरबीआई के पास कैश का रिजर्व बढ़ाना होगा। पर बैंक अपनी तरलता कम क्यों होने दें। सो बैंक लोन धारकों पर बोझ डाल अपने खजाने की भरपाई करेंगे। अब आप ही सोचो, महंगाई रोकने का यह कैसा तरीका। मार्केट से पैसा कम कर दो। लोग खरीदना कम कर देंगे। मांग घटेगी, तो पूर्ति के बराबर में आ जाएगी। यानी महंगाई के साथ सिर्फ खेल हो रहा। तभी तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी पीएम या पवार को चि_ïी नहीं लिख रहे। अलबत्ता सोनिया गांधी को चि_ïी लिखी। गुजरात के पाटन में मोदी ने बाकायदा गरीब मेला लगाया। तो गरीबों को चैक के जरिए राहत देने की कोशिश हुई। पर जब लिफाफा खुला। तो खोदा पहाड़, निकली चुहिया की कहावत से आगे निकल गई। कहावत में कम से कम चुहिया तो निकलती है। पर मोदी के हाथों से बंटे लिफाफे कोरे निकले। फिर भी राजनीति का मौका मोदी नहीं चूके। महंगाई पर सोनिया गांधी को लपेटा। बोले- 'महंगाई पर नियंत्रण को मैंने सोनिया गांधी को हिंदी में कई चि_िïयां लिखीं। पर न तो जवाब आया, न महंगाई रुकी। अब मैं क्या करूं। क्या इतालवी में चि_ïी लिखूं?' अब सोनिया गांधी के खिलाफ कोई ऐसी भाषा इस्तेमाल करे। तो परंपरा के मुताबिक कांग्रेस का आग-बबूला होना लाजिमी। वैसे भी किसी ऐरे-गैरे ने सोनिया पर निशाना नहीं साधा। अलबत्ता उस मोदी ने, जिनके और कांग्रेस के बीच सांप-नेवले का बैर। सो कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने झट मोदी पर हमला बोल दिया। कहा- 'मोदी सठिया गए हैं।'  यों मोदी अभी साठ साल के नहीं हुए। पर आका को खुश करने के चक्कर में भला कौन उम्र का हिसाब-किताब रखे। यों महंगाई के बहाने मोदी और कांग्रेस के बीच जुबानी जंग का कोई पहला राउंड नहीं। मोदी के मुखारविंद से इटली की... और जर्सी बछड़ा जैसी भाषा निकल चुकी। गुजरात चुनाव में सोनिया गांधी की ओर से मोदी को मौत का सौदागर कहा गया। यानी अब जनता का भला हो, न हो। नेता अपना भला करने की ठान चुके। सो महंगाई पर कांग्रेस-मोदी की जुबानी जंग। तो उधर महाराष्टï्र में बाल ठाकरे मुकेश अंबानी पर उबल पड़े। अंबानी ने मुंबई को पूरे देश की बता दिया। तो ठाकरे ने शुक्रवार को सिर्फ अंबानी को नहीं, शाहरुख खान को भी लपेटा। धमकी दी, पाकिस्तानी खिलाडिय़ों को कोलकाता नाइट राइडर्स में शामिल किया। तो ईंट से ईंट बजा देंगे। लगता है, चचा-भतीजे ठाकरे के पास विध्वंस के सिवा कोई विचार ही नहीं। पर अपनी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी। इधर महाराष्टï्र में अपने-अपनों को पीट रहे। तो उधर ऑस्ट्रेलिया में हमले थम नहीं रहे। अब, जब सरकार कुछ नहीं कर पाई। तो शुक्रवार को एडवाइजरी जारी कर दी। फिलहाल कोई छात्र ऑस्ट्रेलिया न जाए। अब सरकार हो या विपक्ष, आंखों का पानी मर चुका। शुक्रवार को दो घटनाएं हुईं। एक बीजेपी, एक कांग्रेस में। सो दोनों का हाल देख आप खुद अंदाजा लगा लीजिए। बीजेपी दफ्तर से दिसंबर 2008 में ढाई करोड़ रुपए चोरी हो गए। तब प्राइवेट डिटेक्टिव का सहारा लेकर बीजेपी ने अंदरूनी पड़ताल की। अकाउंटेंट नलिन टंडन निकाले गए। पर अंदरूनी गुटबाजी तेज हो गई। कभी रामदास अग्रवाल को हटाने, तो कभी श्याम जाजू पर गाज गिराने की कोशिश हुई। अब साल भर बाद बीजेपी में निजाम बदला। तो नया किस्सा हुआ। श्याम जाजू का आंध्रा बैंक में अकाउंट। एक व्यक्ति गुरुवार को बैंक में खाते की पड़ताल करने पहुंच गया। पर मैनेजर को शक हुआ। तो जाजू तक बात पहुंची। उस व्यक्ति ने अपना नाम चंदन झा और साधना चैनल का रिपोर्टर बताया। पर साधना चैनल ने इससे इनकार किया। सो जाजू के गुर्गों के हाथ पिट अब वह व्यक्ति दिल्ली पुलिस की हिरासत में। यानी पिछले साल जिस बही-खाते की लड़ाई को बीजेपी ने छुपाने की कोशिश की। अबके सार्वजनिक हो गई। सो जब बीजेपी में अपने ही अपनों की जासूसी करा रहे। तो आपसी विश्वास कैसे बहाल होगा, यह तो गडकरी ही जानें। पर आप दूसरा किस्सा कांग्रेस का देखिए। अपने रामनिवास मिर्धा का शुक्रवार को निधन हो गया। गहलोत सरकार ने एक दिन का राजकीय शोक रखा। दिल्ली में सोनिया-मनमोहन ने श्रद्धांजलि दी। पर अपने राजस्थान से ही राज्यसभा सांसद अभिषेक मनु सिंघवी की कॉकटेल पार्टी में खूब जाम छलके। नए साल के जश्र का आयोजन मिर्धा के शोक पर भारी रहा। सिंघवी का न्योता था। सो मंत्री अंबिका सोनी, सचिन पायलट और सुबोध कांत सहाय भी पहुंचे। अब आप ही सोचिए, राजनीति में विश्वास की उम्मीद किससे। यों बीजेपी में भी ऐसा हो चुका। दत्तोपंत ठेंगड़ी का जिस दिन निधन हुआ। उस दिन मुख्तार अब्बास नकवी ने अपने घर बर्थ डे पार्टी में खूब कॉकटेल की थी। पर जब नए साल की पार्टी के लिए 28 दिन रुका जा सकता। तो एक और दिन टालने में क्या जाता। राजस्थान कांग्रेस के बड़े नेता का निधन हो। और वहीं का कांग्रेसी सांसद ऐसी पार्टी जारी रखे। तो क्या संदेश जाएगा।
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29/01/2010

Thursday, January 28, 2010

ईको फ्रेंडली तो ठीक, पर वोटर फ्रेंडली कब?

 संतोष कुमार
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        भले बीजेपी आपस में लड़ती-भिड़ती रहे। पर पर्यावरण से दोस्ताना करेगी। नितिन गडकरी नित नए नुस्खे निकाल रहे। अभी अध्यक्ष पद पर न औपचारिक चुनाव हुआ, न राष्ट्रीय परिषद से अनुमोदन। पर इंदौर में बीजेपी कॉउंसिल की तैयारी ऐसे हो रही। मानो, अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन हो। और आहुति के बाद यज्ञ का घोड़ा देश की राजनीति पर भगवा झंडा लहराएगा। सो पहले टेंट का शिगूफा छेड़ा। तय हो गया, नेता टेंट में ही रहेंगे। जिस नेता को टेंट न सुहाए, अपनी जेब ढीली कर होटल का लुत्फ उठाए। अब टेंट के साथ ईको फ्रेंडली का भी फार्मूला बन गया। यानी बीजेपी के नए निजाम सब कुछ नया करना चाह रहे। सो वैलेंटाइन डे के तीसरे दिन इंदौर में तीन दिन बीजेपी की मीटिंग चलेगी। तो टेंट से नेतागण एंबेसडर कार या लग्जरी गाडिय़ों में नहीं, अलबत्ता ट्रिन-ट्रिन कर साइकिल की घंटी बजाते ओमेक्स सिटी पहुंचेंगे। यों तीन दिन के लिए ओमेक्स सिटी का नाम भी बदला होगा। सो बीजेपी नेता-वर्कर कुशाभाऊ ठाकरे नगर पहुंचेंगे। पर जिन्हें साइकिल चलाना न आता हो, या स्वास्थ्य साथ नहीं दे। तो उसका भी मुकम्मल इंतजाम। बैट्री चालित और बायो डीजल से चलने वाली गाडिय़ों का बंदोबस्त होगा। कुछ इंतजाम शिवराज करेंगे। बाकी बगल के राज्य छत्तीसगढ़ से रमन सिंह लिवा लाएंगे। रमन सिंह ही छत्तीसगढ़ में बायो डीजल का प्रयोग कर रहे। सो बीजेपी अपने प्रयोग का प्रदर्शन भी करेगी। यानी फाइनल हो चुका, नो पेट्रोल-नो डीजल। तीन दिन तक नेता और वर्कर केले की पत्तल में खाना खाएंगे। लिखने के लिए भी हाथों से निर्मित कागज बंटेंगे। थैला भी जूट का बना होगा। स्थानीय आयोजकों को दो-टूक हिदायत मिल चुकी। कहीं प्लास्टिक का टुकड़ा भी नजर नहीं आना चाहिए। यानी कुल मिलाकर गडकरी ने ईको फ्रेंडली और सादगी से भरी मीटिंग का पुख्ता बंदोबस्त कर लिया। यों देखने-सुनने में तो ईको फ्रेंडली और सादगी की बात ठीक। पर सादगी के प्रदर्शन में खर्च कितना बैठेगा? टेंट लगाने को आयोजन स्थल पर मिट्टïी का भराव हो रहा। जहां टेंट भी होंगे, वीआईपी के हेलीकॉप्टर के लिए हेलीपैड भी। टेंट भी कोई अपने सुरक्षा बलों जैसा खस्ता हाल नहीं होगा। अलबत्ता जिसका जितना बड़ा कद, टेंट की लग्जरी भी उसी हिसाब से। अब स्विस टेंट हो, तो लग्जरी का अंदाजा भी आप लगा लें। किसी फाइव स्टार से कम तो नहीं, भले ज्यादा हो। यानी कहने को तो टेंट, पर खजाना खाली होगा। लैदर-रैक्सीन की जगह जूट के बैग कहीं महंगे पड़ेंगे। साधारण कागज की जगह हस्त निर्मित कागज की कीमत भी ज्यादा होगी। यानी बीजेपी की महंगी सादगी। पर गडकरी तो ईको फ्रेंडली से दुनिया को मैसेज देना चाह रहे। साथ ही अपनी निजामशाही को यादगार बनाने की भी कोशिश। पर कोई पूछे, यह कैसी सादगी। यह तो वही बात हो गई। जैसे महंगाई के जमाने में अगर किसी गरीब को दाल नसीब नहीं हो रही। तो उसे जूस पीने की नसीहत दे दो। यानी बीजेपी की सादगी महंगाई के जमाने में दाल की जगह जूस पीने वाली। माना, सादगी और ईको फ्रेंडली का विचार उम्दा। पर सिर्फ तीन दिन ही क्यों? तीन दिन इंदौर में बीजेपी सादगी और ईको फ्रेंडली का प्रदर्शन कर पर्यावरण का कौन सा भला कर लेगी। अगर वाकई कोई दिल से सादगी दिखाए। ईको फ्रेंडली बनना चाहे। तो जो चीजें गडकरी इंदौर में तीन दिन के लिए करवा रहे। उसे समूची बीजेपी अपनी दिनचर्या का हिस्सा क्यों नहीं बना लेती? सही मायने में तो इससे पर्यावरण का भला होगा। सो बीजेपी की इंदौर मीटिंग पर्यावरण की रक्षा कम। शोशेबाजी और स्टंट ज्यादा लग रही। सो अकेले इंदौर मीटिंग से बीजेपी ग्लोबल वार्मिंग कम नहीं कर सकती। पर भोंडा प्रदर्शन कर जनता को बरगलाना ही राजनीति। सादगी की मिसाल सही मायने में देखनी हो। तो 11 अशोका रोड में ही दिख जाएगी, बस नजरिया चाहिए। प्यारेलाल खंडेलवाल बीजेपी के वरिष्ठï नेताओं में से एक रहे। संगठन के लिए जिंदगी गुजार दी। आखिरी पड़ाव में राज्यसभा भेजे गए। तो भी उन ने बड़ा सरकारी बंगला नहीं लिया। अलबत्ता बीजेपी हैड क्वार्टर के ही एक छोटे से कमरे में आखिरी सांस ली। पर गडकरी का नए अध्यक्ष के तौर पर जोश लाजिमी। गडकरी की इच्छाशक्ति पर भी संदेह जताने का अपना कोई इरादा नहीं। पर सादगी की बात, तो कुछ सवाल उठाने ही होंगे। गडकरी वाकई टेंट के मुरीद। तो बीजेपी दफ्तर के पीछे ही अपना ठिकाना क्यों नहीं बना लेते? क्यों टाइप-8 सरकारी बंगला चाहिए? दिल्ली में गडकरी जबसे आए, तबसे अपनी सादगी बता रहे। दफ्तर आने-जाने के लिए किराए की टेक्सी ले रखी। यों किराए की टेक्सी, सुनने में तो वाकई सादगी लग रही। पर उस टेक्सी की कार का नाम है- 'कैमरी'। टोयोटा की लग्जरी कार। भले कोई किसी गाड़ी में बैठे, एतराज नहीं। पर वर्कर और आम वोटर तीन दिन के दिखावे से क्या क्लाइमेट चेंज समझेगा और क्या सादगी। उसे तो जीवन-यापन को साधारण सी जिंदगी चाहिए। जो आज के महंगाई के दौर में दुश्वार हो रहा। जनता को तो जमीन पर काम दिखना चाहिए। तभी वोट मिलता। सो ईको फ्रेंडली तो ठीक है, पर वोटर फ्रेंडली कब होंगे जनाब। स्टंट से वोट नहीं मिलता। वोट के लिए वोटर फ्रेंडली होना बेहद जरूरी। पर तीन दिन के बाद जब बीजेपी वापस उसी ढर्रे पर होगी। तो वोटर यही पूछेंगे ना- प्रवचन नहीं, अमल करिए जनाब।
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28/01/2010

Wednesday, January 27, 2010

अब सम्मान भी मांग रहा अपना 'सम्मान'

  संतोष कुमार
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         'अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपनों को देय।'  पर अपना देश कोई अंधेर नगरी नहीं। जो सब कुछ टके सेर हो और लोग बिन सोचे-समझे गटक जाएं। आखिर देश के प्रतिष्ठिïत अवार्ड की प्रतिष्ठïा का सवाल। सो पद्म अवार्ड पर विवाद होना ही था। रेलवे ने 26/11 के जांबाज हैड कांस्टेबल जिल्लू यादव को मैडल की सिफारिश नहीं की। पर रेल राज्यमंत्री ई. अहमद के निजी सचिव जहूर जैदी पुलिस मैडल पा गए। जिल्लू यादव ने आतंकियों से जमकर लोहा लिया। तबके रेल मंत्री लालू यादव ने दस लाख का पुरस्कार भी दिया। फिर भी रेलवे ने जिल्लू यादव को पुलिस मैडल के काबिल नहीं समझा। पर रेल मंत्रालय की कारगुजारी यहीं तक नहीं। ओलंपिक में कुश्ती के लिए कांस्य जीतने वाले सुशील कुमार को भी पद्म अवार्ड नहीं। पर बॉक्सिंग में कांस्य दिलाने वाले विजेंद्र सिंह पद्म श्री की लिस्ट में शामिल। विजेंद्र के पद्म श्री पर शायद ही किसी को एतराज हो। पर सुशील का क्या कसूर? पहली बार कुश्ती में देश के लिए ओलंपिक पदक जीता। फिर कुश्ती के वल्र्ड कप में भी परचम लहराया। पर ऐसी अनदेखी हो। तो किसका दिल नहीं दुखेगा। पर सरकार के पास दिल ही कहां, जो दुखे। दिल होता, तो हिरणों के दिल पर तीर चलाने वाले सैफ अली खान पद्म श्री कैसे हो जाते। अभी तक सैफ के खिलाफ केस चल रहा। पर शायद सत्तारूढ़ दल से नवाब पटौदी-शर्मिला की नजदीकियां पद्म श्री दिला गईं। सो अपने राजस्थान के विश्रोई समाज के लोग खफा। वाकई सैफ ने ऐसा क्या कर दिया, जो कला क्षेत्र गौरवान्वित हो। कहीं ऐसा तो नहीं, हाथों पर करीना के नाम का गोदना गुदवा सैफ सुर्खियों में रहे। तो सरकार की आंखें चौंधिया गई हों। महाराष्टï्र में बीजेपी-शिवसेना ने तो खुला विरोध जताया। पर विरोध के मायने तो तब, जब सरकार भूल स्वीकार करने का साहस रखे। यहां तो समूची सरकार खुलेआम बचाव में उतरी। अमेरिका में रहने वाले एनआरआई संतसिंह चटवाल का नाम पद्म भूषण की लिस्ट में आया। तो बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने फौरन पीएम को चि_ïी लिख मारी। चटवाल के खिलाफ सीबीआई जांच। बिल क्लिंटन के साथ भारत आए थे। तो बाकायदा गिरफ्तार भी हो चुके। खुद को दिवालिया भी घोषित किया था। पर पद्म भूषण मिला। तो एटमी करार में अपनी भूमिका का बखान कर रहे। विपक्षी दलों को भी लताड़ा। सो प्रकाश जावडेकर ने पूछा- 'क्या अब दलालों को भी पद्म अवार्ड मिलने लगा?'  पर चटवाल की भाषा ऐसी, जैसे अवार्ड के भूखे हों। बोले- 'राजनीतिक दलों की परवाह नहीं। वे आते-जाते रहते हैं।'  आखिर चटवाल का मिजाज चढ़े भी क्यों ना। अपना विदेश से लेकर गृह मंत्रालय तक चट्टïान की तरह पीछे खड़ा। गृह मंत्रालय ने बयान जारी किया। तो खुद केसों का हवाला दिया। जरा आप खुद ही गौर फरमा लें। पहले तो चटवाल के कसीदे पढ़े गए। फिर पांच केस का हवाला। जिनमें सीबीआई ने खुद ही तीन केस बंद कर दिए। बाकी दो मामलों में अदालत से बरी। अब आप ही सोचो, इतने विवादास्पद लोगों को पद्म भूषण देना कहां तक उचित? अवार्ड तो वाकई रेवड़ी बन गए। सरकार जिसे चाहे, बांटती फिरे। चेहरा छिपाने को बाबा आम्टे, जोहरा सहगल जैसे कुछ योग्य नाम शामिल किए जाते। ताकि ईमानदार छवि के आभा मंडल में कुछ यों ही बाईपास हो जाएं। अगर सरकार अवार्ड को रेवड़ी की तरह न बांटे। तो कभी परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हामिद की पत्नी अनाज के लिए राशन कार्ड मांगती न दिखे। पर अपने साठ साल के गणतंत्र पर तमाचा नहीं तो और क्या। जो अब्दुल हामिद की पत्नी दाने-दाने को मोहताज। पर साठ साल में ही शायद देश की हालत ऐसी हो चुकी। मानो, अवार्ड या मैडल सिर्फ शो केस में सजाने की चीज। वाकई अवार्ड या मैडल में राजनीति-अफसरशाही की घुसपैठ न होती। तो ऐसा नहीं होता कि राजीव गांधी को मृत्यु के छह महीने बाद ही भारत रत्न मिल जाता। और अपने लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल को भारत रत्न मिलने में 41 साल लग जाते। इंदिरा गांधी, वी.वी. गिरि, कामराज तो 70 के दशक में ही भारत रत्न हो गए। पर संविधान रचयिता भीमराव अंबेडकर को 1990 में भारत रत्न मिला। आजादी के अहम सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद 1992 में औपचारिक भारत रत्न हुए। असम के स्वतंत्रता सेनानी गोपीनाथ वारदोलोई को मरणोपरान्त 41 साल बाद तब भारत रत्न मिला। जब असम गण परिषद वाजपेयी सरकार में थी। जयप्रकाश नारायण, जिन ने राजनीति की दिशा बदल दी। उन्हें भी मृत्यु के 19 साल बाद तब भारत रत्न से नवाजा गया। जब यूनाइटेड फ्रंट की केंद्र में सरकार बनी। जेपी के चेले हुकूमत के अगुआ बने। अमत्र्यसेन को पहले नोबल मिला। फिर भारत रत्न। आखिरी भारत रत्न 2001 में उस्ताद बिस्मिल्ला खां हुए। तबसे नौ साल हो गए। किसी को भारत रत्न नहीं। वैसे भी जब अवार्डों पर राजनीति हावी हो। तो भारत रत्न पर विवाद की मुसीबत कौन मोल ले। सो सरकार पद्म विभूषण, भूषण और श्री में ही गोल-गपाड़ा कर रही। वैसे भी अब जमाना काफी बदल चुका। नौ महीने में बराक ओबामा शांति का नोबल ले जाते। तो फिर चटवाल, सैफ को अवार्ड पर एतराज बेवजह। आखिर जब जमाना ही फिक्सिंग का। तो इकलौता अवार्ड ही अछूता क्यों रहे? सो लोगों को सम्मानित करने वाला सम्मान अब खुद के लिए 'सम्मान'  मांग रहा।
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27/01/2010

गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता

गणतंत्र के सालाना जश्र को राजपथ सज गया। हर बार की तरह कदम से कदम मिलाते अपने जवान दिखेंगे। रंग-बिरंगी झांकियां होंगी। कुल मिलाकर भारत की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन होगा। पर आम आदमी को झलकियां पहले ही दिख गईं। जब कांग्रेस और शरद पवार ने महंगाई-महंगाई खेलने की ठानी। पिछले हफ्ते दस दिन बीत गए। पर चीनी हो या बाकी जरूरत के सामान। कीमतें कम होनी तो दूर, अलबत्ता बढ़ गईं। सो ग्यारहवें दिन इतवार को फिर पवार उवाच। अबके पवार ने महंगाई के लिए पीएम को भी लपेटा। तो संदेश यही था, महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। यों सोमवार को पवार आदतन पलट गए। पर कांग्रेस ने नसीहत दे दी। मनीष तिवारी बोले- 'कृषि मंत्रालय को राज्यों के साथ सक्रियता से काम करने की जरूरत।' पर पवार खफा न हों, सो उनके बयान को केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी से जोड़ दिया। यानी कांग्रेस-पवार के बीच नूरा-कुश्ती जारी। सो गणतंत्र से गण गायब हुआ। सिर्फ तंत्र ही शेष। सो अब 'जनता द्वारा, जनता का, जनता के लिए' सिर्फ कहने भर की बात। तंत्र पर राजनीति, अफसरशाही हावी। संविधान रचयिताओं के गणतंत्र के मंसूबों पर मौजूदा तंत्र ने पानी फेर दिया। समूची व्यवस्था पर अपना लबादा ओढ़ा दिया। सिर्फ न बदला, तो सालाना जश्र पर दिखावे का दस्तूर। सो अबके सिर्फ गणतंत्र की 60वीं सालगिरह नहीं। वोट की व्यवस्था देखने वाला चुनाव आयोग भी 60 साल का हो गया। सोमवार को हीरक जयंती मनाई। तो इतिहास पर खूब इतराया। पर राजनीति की छाप से अछूता नहीं रहा समारोह। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अनिवार्य वोटिंग का कानून बना दिया। कांग्रेस के दिग्गी राजा तो पहले ही तानाशाही रवैया बता खारिज कर चुके। अब सीईसी नवीन चावला ने भी व्यवहारिक बताया। यों अनिवार्य वोटिंग का मामला कोई आज-कल का मुद्दा नहीं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसपी सेन वर्मा ने 1968 में वोट न डालने वालों पर जुर्माने का सुझाव दिया था। उन ने बेल्जियम, नीदरलैंड, आस्ट्रेलिया, क्यूबा, आस्ट्रिया जैसे देशों में 'मनी फाइन प्लान' की नजीर भी दी। पर चुनाव सुधार की बातें हमेशा आईं-गईं। उन ने आयोग पर राजनीतिक दबाव की बातें भी स्वीकार की थीं। अब नवीन चावला भले खुद को बेदाग बताएं। पर चावला का इतिहास शक की गुंजाइश छोड़ जाता। सो जब वोट का पहरुआ आयोग ही राजनीतिक पिट्ठू होगा। तो काहे का गणतंत्र। संविधान बनाने वालों ने रात-दिन एक कर नि:स्वार्थ भाव से देश के भविष्य का खाका खींचा। पर साठ साल में ही व्यवस्था चलाने वालों ने देश को बूढ़ा कर दिया। कहीं देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटने की कोशिश। तो कहीं राज ठाकरे जैसे सूबेदार पैदा हो चुके। अब गणतंत्र के मुंह पर इससे बड़ा तमाचा क्या होगा। जो राज ठाकरे खुलेआम पोस्टर लगाकर हिंदी भाषियों को धमका रहे। मुंबई में रहना है, तो मराठी सीखनी होगी। जो सीखना नहीं चाहता, घर लौट जाए। क्या मुंबई राज ठाकरे की बपौती हो गई? पर सैंया भए कोतवाल, तो डर काहे का। विलासराव देशमुख सीएम थे। तो भी राज के खिलाफ सिर्फ जुबान चलाई। अब अशोक चव्हाण, तो वह भी राज को इशारा कर ही रहे। पर राज जैसी जुबान की कमी नहीं। जब सितंबर 2007 में वंदे मातरम के सामूहिक गान पर विवाद हुआ। मुस्लिम समाज का एतराज था। तो देहरादून में बीजेपी की वर्किंग कमेटी चल रही थी। तब विनय कटियार ने जोश में नारा दिया- 'भारत में रहना है, तो वंदे मातरम कहना होगा।' पर भला हो वाजपेयी का। जिन ने मीटिंग के भीतर बात संभाल ली। फिर नारा आया था- 'भारत में रहना होगा, वंदे मातरम कहना होगा।' यानी अपने पास संविधान तो है। पर अमल कराने की इ'छाशक्ति किसी में नहीं। संविधान और कानून का फायदा एक खास वर्ग ही उठा पा रहा। व्यवस्था के रहनुमाओं ने साठ साल में संविधान को सही तरीके से लागू ही नहीं होने दिया। अलबत्ता गांव-गरीब के बीच एक ही संदेश गया। संविधान और कानून उसी का, जिसकी लाठी। नक्सलबाडी से शुरू नक्सलवाद भले 13 राज्यों में फैल गया। शिक्षा का स्तर आज भी रटंत से ऊपर नहीं। स्वास्थ्य सेवा निजी मकडज़ाल में। राजनीति का तो कहना ही क्या। अब साठ साल में गणतंत्र का सठियाना न कहें। तो और क्या कहेंगे। मनमोहन सरकार की मंत्री कृष्णा तीरथ ने इश्तिहार में पाकिस्तानी एयर चीफ मार्शल का फोटू छपवा दिया। हल्ला मचा, तो पीएमओ ने माफी मांग ली। पर कृष्णा तीरथ का तुर्रा देखिए। खेद जताया, पर कोई अफसोस नहीं। अलबत्ता बोलीं- 'फोटू नहीं, संदेश देखिए।' कृष्णा उवाच देख-सुन यही लगा। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कृष्णा को भी पद्म विभूषण मिल जाए। तो ठीक रहेगा। आखिर यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं। कोई 'सपूत' ढूंढते-ढूंढते पाकिस्तान चला जाए। वहां से तनवीर अहमद महमूद का फोटू ढूंढ लाए। तो यह आसान काम नहीं। पर पद्म अवार्ड की लिस्ट में कृष्णा का नाम तो नहीं। अपनी व्यवस्था की उम्मीद के हिसाब से कुछ नाम मिल ही गए। पीएम वाजपेयी के घुटने का आपरेशन कर चितरंजन राणावत पद्म भूषण हुए थे। अब मनमोहन की सर्जरी करने वाले डाक्टर रमाकांत मदनमोहन पांडा भी पद्म भूषण हो गए। सो फिर वही सवाल। क्या पीएम का आपरेशन पद्म अवार्ड का पैमाना? पर जब कोई बांटे रेवड़ी। तो अपना क्या, पैमाना क्या। सो कुल मिलाकर अपना गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता और चौपट हुई व्यवस्था। -------
25/01/2010

Thursday, January 21, 2010

क्षेत्रीय दलों के भंवर में फंसी बीजेपी-कांग्रेस

 संतोष कुमार
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          कहते हैं, तोल-मोल के बोल। पर राजनीति में फार्मूला उल्टा। पहले बोल, फिर तोल-मोल। सो कांग्रेस हो या बीजेपी, अपने ही जाल में उलझ गईं। मकर संक्रांति के दिन जब यहीं पर राजनीति की खिचड़ी लिखी। तो ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर नस्ली हमले की तुलना ठाकरे बंधुओं के कारनामों से की। पर तब उम्मीद न थी, ठाकरे बंधु इतनी जल्दी कोई शिगूफा ढूंढ लाएंगे। अब संयोग ही देखिए। जब गुरुवार को ऑस्ट्रेलियाई पीएम केविन रूड नस्ली हमले पर अफसोस जता रहे थे। मुंबई में चचा-भतीजे की जोड़ी उत्तर भारतीयों, खास तौर से गरीब टेक्सी चालकों पर ल_ï बरसाने की तैयारी में जुटे थे। अब राज के गुंडे सड़कों पर फिर वही दृश्य दोहराएंगे, जो करीब डेढ़ साल पहले दिखा चुके। अबके भी आग तो पहले से ही लगाई जा रही थी। जब राज ठाकरे ने खुलेआम धमकी दी। सरकार इस साल के 4500 टेक्सी परमिट सिर्फ मराठियों को दे। वरना सड़कों पर नॉन मराठियों की टेक्सी चलने नहीं देंगे। पर राज की आग को सरकार के मुखिया अशोक चव्हाण ने भी हवा दे दी। बिना तोल-मोल के राज के समर्थन में बोल गए। तो दिल्ली तक कांग्रेसियों की घिग्घी बंध गई। सो गुरुवार को अशोक चव्हाण पलटी मार गए। अब बोले- 'टेक्सी चालकों के लिए स्थानीय भाषा आनी चाहिए, चाहे वह मराठी हो या हिंदी-गुजराती।'  कांग्रेस ने भी ऐसी ही दलील दी। महाराष्टï्र में ऐसा कानून इक्कीस साल पुराना। पर चचा-भतीजा इतने में कहां मानने वाले। चचा लंबे समय से कुर्सी से महरूम। तो भतीजा पहली बार तेरह सीटें जीत नशे में चूर। हिंदी के खिलाफ राज ठाकरे का एपीसोड तो अबू आजमी के साथ विधानसभा में हो चुका। पर राज जब तक नाम को हकीकत में न बदल दें, चुप नहीं बैठने वाले। सो चालीस साल पहले जो चचा ने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ किया। बदले जमाने में भतीजा वही नुस्खा उत्तर भारतीयों के खिलाफ अपना रहा। कांग्रेस ने भी ठाकरे परिवार में फूट का फायदा उठाया। ताकि तीसरी बार भी सत्ता मिल जाए। कांग्रेस को वाकई फायदा भी हुआ। पर अशोक चव्हाण की कल की जुबां ऐसी। अब तक सिर्फ शह देती रही सरकार पूरी तरह से राज के रंग में रंगने लगी। यानी ऑस्ट्रेलिया हो या महाराष्टï्र, सत्तारूढ़ कांग्रेस का रुख एक जैसा। ऑस्ट्रेलिया में नस्ली हमले पर भी केंद्र की कांग्रेसी सरकार गाल बजा रही। तो महाराष्टï्र में ठाकरे बंधुओं का उत्तर भारतीयों पर नस्ली हमला भी कांग्रेसी सरकार के संरक्षण में ही। पर कांग्रेस शायद इतिहास भूल रही। भिंडरांवाला भी कांग्रेस की ही पैदाइश रहे। पर बाद में वही कांग्रेस के लिए नासूर बन गया। विश्व का इतिहास भी कुछ ऐसा ही। ओसामा बिन लादेन सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका की पैदाइश। पर अब वही लादेन अमेरिका पर कितना लद चुका। यह आप खुद ही देख रहे। अमेरिका पूरे घोड़े खोल चुका। पर अभी तक लादेन जिंदा या मुर्दा नहीं मिला। सो भविष्य में राज ठाकरे भी कांग्रेस के लिए नासूर ही साबित होंगे। फिलहाल कांग्रेस ने तीन स्थानीय भाषाओं में हिंदी का नाम लेकर बचाव तो कर लिया। पर राज का रोडछाप नाटक अभी बाकी। सो कांग्रेस तो राज ठाकरे के क्षेत्रीय भंवर में उलझ ही चुकी। वही हाल बड़ी राष्टï्रीय पार्टी बीजेपी का भी। यों नितिन गडकरी फिलहाल संभल-संभल कर बोल रहे। पर टेक्सी परमिट के मामले में बीजेपी की सहयोगी शिवसेना की भाषा राज जैसी ही। खुद उद्धव मुंबई में आने-जाने वालों के लिए भी परमिट की पैरवी कर चुके। अब देखो, कहां बीजेपी। जिसके आदर्श श्यामाप्रसाद मुखर्जी परमिट सिस्टम के खिलाफ शहीद हो गए। अब टेक्सी परमिट हो या महाराष्टï्र में घुसने का परमिट। बीजेपी का शिवसेवा से नाता तोडऩा तो दूर, उसके खिलाफ बोल भी नहीं पा रही। पर बीजेपी की मुश्किल सिर्फ महाराष्टï्र नहीं। महाराष्टï्र से आए नितिन गडकरी ने सबसे पहले बीजेपी को झारखंड में सत्ता दिलाई। अपने फैसले को जायज ठहराया। पर अब शिबू सोरेन का समर्थन करना गले की फांस बन गया। शिबू ने चुनावों में नक्सलियों की खूब मदद ली। सो सीएम बनने के बाद कर्ज अदा कर रहे। नक्सलवादियों के खिलाफ चल रहे ऑपरेशन रुकवा दिए। झारखंड में नक्सलियों के होने का सवाल ही खारिज कर दिया। पर बीजेपी केंद्रीय स्तर पर नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक जंग की पैरोकार। सो नक्सलवाद के मुद्दे पर झारखंड में सरकार दांव पर लगी। तो केंद्र में प्रतिष्ठïा। पर राजनाथ सिंह अभी शिबू से बात करने की दलील दे रहे। यानी जब दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय दलों के भंवर में फंसी हों। तो फिर क्या आम आदमी, क्या उत्तर भारतीय। और क्या देश की सुरक्षा।
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21/01/2010

Wednesday, January 20, 2010

महंगाई पर भी क्यों न हो इमरजेंसी जैसी एकजुटता?

 संतोष कुमार
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           जे बात। इसे कहते हैं पवारनामा। अब दूध की कीमतें भी बढ़ेंगी। ज्योतिषी शरद पवार की काली जुबान से ब्रह्मïवाक्य निकल गया। पवार चले थे चीनी की कीमत कम करने। पर जरा कीमतों में कटौती का पवार फार्मूला देखिए। दूध महंगा होगा, तो लोगबाग चाय और दूध कम पीएंगे। चीनी की खपत कम होगी, तो मांग कम होगी। सो चीनी के दाम खुद-ब-खुद गिरेंगे। पर दूध की कीमतें तीन महीने पहले ही बढ़ी थीं। अब बुधवार को पवार दूध उत्पादकों की भाषा बोले। उत्तर भारत में दूध की किल्लत बताई। तो पवार उवाच सुन ऐसा लगा, मानो कल रात सोते वक्त पवार को पीने को दूध नहीं मिला। सो तड़के भन्नाते हुए उठ किल्लत का एलान कर दिया। अब तो पवार के हर बयान में निजी झुंझलाहट ज्यादा नजर आती। तभी तो दूध की किल्लत पर जो भाषा बोले। आम आदमी के नहीं, दूधियों के मंत्री दिखे। बोले- 'कीमतें बढ़ाने का फैसला नहीं हुआ, तो राज्यों को दूध खरीदने में मुश्किल पेश आएगी।'  यानी दूधियों को पवार का इशारा हो गया। अब कोई मंत्री किल्लत पैदा करने का इशारा करे। तो दूध ही क्या, आम आदमी पानी को भी तरस जाए। पर अब कोई पवार-मनमोहन से पूछे, क्या हुआ तेरा वादा। कहां दस दिन में महंगाई कम करने का दावा। पिछले बुधवार को केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस की मीटिंग के बाद पवार ने दस में बस का खम ठोका था। पर जुमा-जुमा आठ दिन ही हुए। चीनी और रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतें तो कम नहीं हुईं। अलबत्ता बाबू मोशाय ने दूध की कीमतें बढ़वाने के लिए दूधियों के सिर पर हाथ रख दिया। सो दूध की कीमतें बढऩी तय। साथ ही पेट्रोल-डीजल भी कतार में। अब तो यही लग रहा, चुनाव के वक्त सत्तारूढ़ दल को चंदा देने वाले जमाखोर पूरी भरपाई नहीं कर लेते। महंगाई कम होना तो दूर, थमने वाली भी नहीं। चुनाव के वक्त राजनीतिक दल इस बात की फिक्र कहां करते। चुनावी चंदा चोरी से आ रहा या मंदिर की दानपेटी से। अब जिन जमाखोरों ने चंदे दिए होंगे, उन पर कार्रवाई कैसे होगी। पिछले हफ्ते महंगाई का शोर ज्यादा मचा। तो कांग्रेस-मनमोहन के कान में भी आवाज पड़ी। सो दिखाने को मीटिंगबाजी कर ली। शायद सोचा होगा, दो-चार रुपए महंगाई कम करा देंगे। पर जब चंदा देने वालों से बात हुई होगी। तो उन लोगों ने बैलेंस शीट दिखा दी होगी। आम आदमी को निचोडऩे के लिए कुछ और वक्त मांग लिया होगा। अपना अंदाजा यों ही नहीं। जब सरकार कभी महंगाई पर हाथ खड़ा करे। कभी दस दिन में नकेल कसने का दावा। तो आप ही सोचो, है ना कहीं न कहीं दाल में काला। शरद पवार ने दस दिन में चीनी की कीमत घटाने का वादा किया। तो पूरा करने को दूध की कीमत बढ़ाएंगे। अपने प्रणव मुखर्जी तो कई दफा हाथ खड़े कर चुके। पर सरकार के मुखिया होने के नाते पीएम मनमोहन का राग, कोशिश कर रहे। अब राहुल गांधी का बयान देखिए। राहुल बाबा बीजेपी के गढ़ मध्य प्रदेश में घुसे हुए। सो अपनी जानकारी के आधार पर कहा या ज्योतिषी पवार के दावे पर। यह तो पता नहीं, पर राहुल बोले- 'महंगाई अब थोड़े दिनों की मेहमान।' मनमोहन के एक मंत्री सलमान खुर्शीद ने फर्रुखाबाद में बयान दिया। महंगाई के लिए सिर्फ केंद्र नहीं, राज्य सरकार भी दोषी। चलो देर से ही सही, केंद्र को दोषी तो माना। यानी राहुल हों या सलमान, महंगाई पर इजहार-ए-जुर्म तो कर ही लिया। अब बताओ- कौन सच्चा, कौन झूठा। किसका मुंह काला और किसका बोलबाला। कांग्रेस को जब-जब महंगाई की चिंता हुई। खबरें प्लांट करने में बीजेपी को भी मात दे दी। कभी कहा, मनमोहन ने पवार को डांट लगा दी। तो कभी पवार की क्षमता पर सवाल उठाए। अब मनमोहन केबिनेट के जूनियर मंत्री जयराम रमेश ने बीटी बैंगन का गुस्सा पवार पर उतार दिया। बीटी बैंगन के प्रमोशन को देश में घूम रहे जयराम रमेश पर्यावरणवादियों के विरोध को झेल रहे। सो मंगलवार को अहमदाबाद में सवाल हुआ। बैंगन का मामला कृषि मंत्रालय का। तो जयराम क्यों घूम रहे। बस फिर क्या था, जयराम तुनक पड़े। बोले- 'कृषि मंत्रालय में आज-कल क्रिकेट चल रहा। मंत्री खेल में व्यस्त।'  यानी कांग्रेस-पवार का रिश्ता तो पति-पत्नी जैसा। तुम्हें सहा न जाए, तुम बिन रहा भी न जाए। पर फिर भी विपक्ष दबाव बनाने में नाकाम। यों बुधवार को आडवाणी-गडकरी की रहनुमाई में बीजेपी ने पीएम के घर अलख जगाई। पर भरोसा वही मिला, जो आम आदमी को मिलता। राज्यों में क्षत्रप खुद उलझे हुए। मायावती को तो मौके की तलाश थी। सो दूध के बहाने मनमोहन को धमकी दे दी। बुधवार को होने वाली सीएम मीटिंग से पहले पवार को बर्खास्त करो। वरना मीटिंग का बॉयकॉट करेंगे। वैसे भी माया मीटिंग में गईं। तो चीनी किल्लत पर सवालों में उलझेंगी। सो न जाने का पवार ने बहाना दे दिया। मुलायम, माया, लालू, पासवान, नीतिश, करुणा तमाम राजनीतिक क्षत्रपों को भी महंगाई की चिंता। पर सिर्फ राजनीतिक वजह से। सो महंगाई सियासी चाल में उलझ चुकी। अगर विपक्षी आम आदमी के हित में एकजुट हो जाएं। जैसे इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ समूचा विपक्ष एकजुट हुआ। तो इंदिरा की ईंट से ईंट बज गई थी। कुछ ऐसा महंगाई पर हो जाए। तो मनमोहन सरकार की चूलें हिल जाएं। पर असलियत तो यह, न सत्तापक्ष और न विपक्ष ईमानदारी से कीमतें कम कराना नहीं चाहते।
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20/01/2010

Tuesday, January 19, 2010

नौ जून 2006 को भी तो सुध ली थी मनमोहन ने!

 संतोष कुमार
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         काम के, न काज के, दुश्मन अनाज के। साउथ ब्लॉक में मनमोहन सर की क्लास लगी। तो राज्य मंत्रियों का यही दर्द उमड़ पड़ा। जब घर में बड़ा भाई छोटे को खिलौना देना तो दूर, छूने भी न दे। तो छोटा रोता-भागता मां के पास जाता। शाम को थका-हारा पिता घर आए। तो बड़े भाई की जमकर शिकायत होती। पर पिता की नजर में तो दोनों बच्चे एक जैसे प्यार के हकदार। सो बेचारे पिता की मुश्किल लाजिमी। मनमोहन के सरकारी परिवार की कहानी भी यही। सो जब मंगलवार को मनमोहन ने सुध ली। तो कुछ ने भावना का खुलकर इजहार किया। तो कुछ राजनीतिक कारीगरी दिखा गए। मनमोहन मंत्रिमंडल में कुल 78 मेंबर। केबिनेट में मनमोहन को मिला 33 बड़े भैया। सात इंडिपेंडेंट चार्ज वाले मझोले। बाकी 38 छोटे भाई लोग। सो मनमोहन की क्लास में 33 छोटे भाई पहुंचे। तो दर्जन भर ने खुलकर दुखड़ा रोया। ममतावादी को शिकायत कांग्रेसियों से। तो कांग्रेसी केएच मुनिअप्पा को ममता से। शिशिर अधिकारी का दर्द तो शनिवार को यहीं बता चुके। पर अब अधिकारी को मौका मिला। तो अपने सीपी जोशी को कैसे छोड़ते। अगर राज्यमंत्रियों में कोई संतुष्टï था। तो सिर्फ करुणानिधिवादी एसएस पलानिमणिक्कम। जो अपने प्रणव दा के मातहत वित्त राज्यमंत्री। पर डीएमके से विभागों की डील में रेवेन्यू मिला हुआ। वैसे भी करुणानिधि समर्थन की एवज में सत्ता का लिखित समझौता करने वाले। सो अपने सचिन पायलट गठबंधन की मजबूरी बखूबी समझ रहे। वैसे भी ए. राजा डीएमके के कोटे से। सो शिकायत करना, मतलब सरकार को मुश्किल में डालना। सो सचिन ने चुप रहना बेहतर समझा। यानी जिन राज्यमंत्रियों के सीनियर पावरफुल। उनने शिकायत के बजाए सुझाव का फार्मूला अपनाया। अब अंदाज भले कुछ भी हो। पर शिकायतों का लब्बोलुवाब एक जैसा। केबिनेट मंत्री फाइल नहीं आने देते। मीटिंग तक में नहीं बुलाया जाता। कार्यक्रम की सूचना नहीं मिलती। नीतिगत मामलों में राय नहीं ली जाती। सो जब सीनियर मंत्री ही भाव नहीं देते। तो सैक्रेट्री कहां तवज्जो देने वाले। कुछ राज्य मंत्रियों ने तो यहां तक कहा। जब सैक्रेट्री से फाइल मांगी, तो जवाब मिला- 'केबिनेट मंत्री ने मना कर रखा है।'  पर कोई फाइल नहीं, तो काम क्या। तो उसका जवाब भी सैक्रेट्री के जरिए ही जूनियर मंत्रियों को मिल रहा। केबिनेट मंत्री जूनियरों को कह रहे। तुम उद्घाटन करो, फीता काटो, मौज करो, बाकी हम देख लेंगे। पर मनमोहन के सामने शिकायतों की लिस्ट यहीं तक नहीं रुकी। अलबत्ता राज्यमंत्रियों ने जो इजहार किया। वह तथ्य चौंकाने वाले। राज्यमंत्रियों को अपने विभाग का बजट भी मालूम नहीं। यों सरकारी वेबसाइट पर सब उपलब्ध। फिर भी राज्यमंत्री को नहीं पता। तो फिर राज्यमंत्रियों की दिलचस्पी का अंदाजा भी आप लगा लें। पर पीएम ने सबकी सुन ली। आखिर में पीएमओ से दो लाइन की रिलीज जारी हुई। तो कहा- 'पीएम ने राज्य मंत्रियों की क्षमता के बेहतर इस्तेमाल के तौर-तरीकों पर चर्चा की। राज्य मंत्रियों को पीएम ने शासन में प्रभावी भूमिका निभाने का अनुरोध भी किया।'  पर राज्यमंत्रियों का यह दर्द कोई नया नहीं। वाजपेयी सरकार के वक्त कृषि राज्यमंत्री हुकुमदेव नारायण यादव का अपने सरकारी निवास में ही खेती करने का किस्सा आपको बता चुके। पर मनमोहन राज की कहानी के क्या कहने। पिछले टर्म में भी राज्यमंत्री इसी कदर रुसवा थे। तो मनमोहन ने कांतीलाल भूरिया से फिशरी विभाग लेकर लालूवादी तस्लीमुद्दीन को दिया था। फिर भी दर्द बढ़ता ही गया। तो मनमोहन ने नौ जून 2006 को एक चि_ïी सभी काबिना मंत्रियों को लिखी। अब उस चि_ïी का मजमून भी देख लो- 'आप सभी जानते हैं कि हमारे पास पूरे समय के लिए राज्यमंत्री हैं, जो विभिन्न विभागों के केबिनेट मंत्रियों के मातहत जुड़े हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से मैं बहुत से मामलों में यह देख रहा हूं कि राज्यमंत्रियों को दफ्तर के कामकाज के संदर्भ में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां नहीं दी जा रहीं। जिससे हम सुशासन के लिए नीति निर्धारण में उन मंत्रियों के अनुभवों और क्षमताओं से वंचित रह जाते हैं। इन सब पृष्ठïभूमि के तहत मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि इस पर विचार करते हुए राज्यमंत्रियों को ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदारियां दें। ताकि हम एक तरफ सरकार की कार्य प्रणाली को मजबूत कर सकें और दूसरी तरफ अपने नेतृत्व में उन मंत्रियों की क्षमता और अनुभवों को विकसित करने में सहयोग करें। आप इस बात को मानेंगे कि इससे न सिर्फ हमारी सरकार की छवि सुधरेगी, बल्कि हमारी सरकार के कामकाज की धारणा के बारे में भी सुधार होगा।' अब पीएमओ की ताजा रिलीज और नौ जून 2006 की उस चि_ïी की तुलना करें। कोई फर्क नजर आया? पर पीएम ने अबके फिर राज्य मंत्रियों को भरोसा दिलाया। केबिनेट की अगली मीटिंग में सीनियरों से बात करूंगा। केबिनेट सैक्रेट्री को नोट तैयार करने की हिदायत दी। पर होगा क्या। यही ना, मनमोहन तारीख बदल वही चि_ïी फिर भिजवा देंगे। या जुबानी बात करेंगे। पर केबिनेट मंत्री अपना वजन क्यों घटाएंगे? यों सिर्फ सीनियरों का ही दोष नहीं। राज्यमंत्री मुस्तैद हों। तो काम करने से कोई कब तक रोक सकेगा। पर लाल बत्ती मिल जाए। तो कामकाज में रुचि कहां रह जाती। सो काबिना मंत्री जूनियर की अरुचि का फायदा क्यों न उठाएं।
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19/01/2010

Monday, January 18, 2010

'गर अमर समाजवादी, तो पूंजीवादी कौन?

इंडिया गेट से
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 संतोष कुमार
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         कॉमरेड ज्योति बसु की अंतिम यात्रा में मंगलवार को सोनिया, आडवाणी, गडकरी जैसे दिग्गज पहुंचेंगे। यों राजनीति की अच्छी पहल। कम से कम मृत्यु के बाद तो विरोध नहीं। जब केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदरीपाद का 1998 में निधन हुआ। तो रायसिना हिल में अटल बिहारी वाजपेयी उसी दिन 19 मार्च को शपथ ले रहे थे। आडवाणी पहली बार होम मिनिस्टर बने। तो वाजपेयी ने नंबूदरीपाद की अंतिम यात्रा में सरकारी नुमाइंदा भेजना चाहा। आडवाणी ने विचारधारा को किनारे रख खुद जाने की इच्छा जताई। अब वही मिसाल ज्योति दा के निधन पर। सो लग रहा, राजनीति में थोड़ा लोक-लिहाज अभी बाकी। वैसे ज्योति दा वाम राजनीति के पुरोधा रहे। सो उनकी कमी हमेशा खलेगी। भले कई राजनीतिक दलों के विचार ज्योति दा से न मिलते हों। पर अंदर खाने उनकी कार्यशैली के कायल सभी। खास तौर से बंगाल में कैडर खड़ा करने की कला। जब 2004 में वाजपेयी सत्ता से हटे। तो वर्करों की निराशा देख बीजेपी को बंगाल से सीख लेने की नसीहत दी थी। सो लोगों के दिलों में खास जगह बनाने वाले ज्योति दा को अपनी भी श्रद्धांजलि। पर श्रद्धांजलि में भी कोई राजनीतिक चालबाजी दिखाए। तो आप क्या कहेंगे? यही ना... अमर सिंह। जी हां, अपना इशारा भी समाजवाद के नए-नए पहरुआ बाबू मोशाय अमर सिंह की ओर। अमर को तो बस मौका मिलना चाहिए अपनी वाणी सुनाने का। सो ज्योति दा को श्रद्धांजलि तो दी। पर मुलायम सिंह का कुनबा भाव नहीं दे रहा। तो कांग्रेस में ठौर ढूंढ रहे। सो ब्लॉगिए अमर ने लिख दिया- 'पीएम पद ठुकराने जैसा बड़ा बलिदान 1996 में ज्योति बसु के बाद 2004 में सोनिया गांधी ने किया।'  यों ये वही अमर सिंह हैं, जिन ने 18-19 मई 2004 को कसमें खाई थीं। जब बिन बुलाए अमर-मुलायम कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के साथ दस जनपथ चले गए। पर भाव तो छोडि़ए, कांग्रेसियों ने अमर को ऐसा दुत्कारा। खाना-पानी के बजाए कड़वा घूंट पीकर लौटे। फिर आदतन मीडिया के सामने राग। अब कभी दस जनपथ नहीं जाऊंगा। पर अमर अपनी बात पर कायम रह जाएं। तो फिर काहे के अमर। यों आखिरकार मुलायम के कुनबे ने बेदखल कर दिया। मुलायम ने अमर का इस्तीफा मंजूर कर लिया। तो अब अमर सिंह का क्षत्रिय खून उबाल मार रहा। सौ-सौ जूते खाकर भी सपा में रहने की रार ठान ली। प्रेस कांफ्रेंस की। तो संजय दत्त और मुस्लिम चेहरों की फौज भी साथ लाए। ताकि मुलायम को चिढ़ा सकें। अब देश भर में क्षत्रिय सम्मेलन भी करेंगे। यों अपने जसवंत सिंह राजस्थान में यह नुस्खा अपना चुके। सो अपना तो यही कहना- जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी। अब जरा खुद को शुरुआती कांग्रेसी कहने वाले और सोनिया के मुरीद अमर को कांग्रेस की सलामी देखिए। अपने दिग्गी राजा अर्जी डालने की सलाह दे चुके। पर अमर को जुबानी जंग में जवाब देने वाले सत्यव्रत चतुर्वेदी का अंदाज ही कुछ और। अमर को चिरकुट उन ने ही कहा था। अब कह दिया- 'जब अमर खुद को बीमार कह रहे। तो कांग्रेस में क्यों आना चाहते हैं। क्या कांग्रेस कोई सराय या नर्सिंग होम है? वाकई अमर को इलाज की जरूरत है।' यह तो रहा कांग्रेसी अंदाज। पर सही मायने में इलाज मुलायम ने कर दिया। अमर ने छह जनवरी को इस्तीफा भेजा। तो मुलायम ने सोचा, मान जाएंगे। पर अमर ब्लैकमेलिंग को उतर आए। तो शायद मुलायम का समाजवादी मन होश में आया। यों कहते हैं- बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया। पर मुलायम ने अबके कहावत झुठला दी। अमर के साथ मुलायम परिवार की जंग में आखिर जीत परिवार की हुई। मुलायम ने भी खम ठोक दिया। कहा- 'अमर पर अब कोई बात नहीं। मैं आगे देखता हूं, पीछे नहीं।'  यानी अमर को इशारा- जो जी में आए, कर लें। सो अमर तो धड़ाम से जमीन पर आ गिरे। कहां मुंबई से ही दुबई लौटने की सोची थी। अब सोमवार को सीधे दिल्ली आ गए। पर अभी भी बिना जूता खाए सपा छोडऩे को तैयार नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे पंचों की बात सिर-माथे, पतनाला वहीं रहेगा। अब खुद को आजाद महसूस कर रहे। सो न कुछ बोलेंगे, न कुछ करेंगे। बाकायदा मुलायम को थैंक यू भी बोला। पर बौखलाहट और पैसे का जोर कहां चुप रहने देगा। सो अमर ने कुनबा-ए-मुलायम को यदुकुल कहा। मुलायम पर व्यंग्य कसने में कोर-कसर नहीं छोड़ी। अमरवाणी का दर्द-ए-निचोड़ यही। खून के रिश्ते के आगे दोस्ती हार गई। वर्कर नहीं, परिवार बड़ा हो गया। अब दोनों गुर्दे बदल गए। जख्मी सिपाही बन गया। तो योद्धा मुलायम पीछे मुड़कर जख्मी सिपाही को क्यों देखेंगे। अब अमर सिंह प्रासंगिक नहीं। सो सहानुभूति क्यों जताएंगे मुलायम। यानी अपनी हैसियत अमर को भी दिखने लगी। सो आखिर में अमर की जो टिप्पणी लिख रहा। उसे पढ़ हंसना मत। अमर ने कहा- 'अब मैं मुलायमवादी नहीं, समाजवादी बनूंगा।' आप सोचो, गर अमर जैसे लोग समाजवादी। तो पूंजीवादी और दलाली व्यवस्था के पहरुआ कौन? अमर ने सोशलिस्ट मोहन सिंह की पैसे से मदद की। तो सोचा, समाजवाद जेब में। तभी तो मोहन सिंह ने आलोचना क्या कर दी। अमर इलाज के लिए मोहन को दी मदद वापस मांगने लगे। कहा- पहले पैसे लौटाओ, फिर आलोचना करना। सो अमर का समाजवाद आप खुद ही देख लो।
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18/01/2010

Friday, January 15, 2010

कैलेंडर, फोटू और व्यथा राज्यमंत्री की

संतोष कुमार
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           नए साल में कैलेंडरों की धूम न हो। तो नया साल नया सा नहीं लगता। पर बात किंगफिशर के कैलेंडर की नहीं। जिसकी शूटिंग पर करोड़ों खर्च होते। बंटते महज सौ-एक कॉपी। वैसे भी आम आदमी के घर किंगफिशर के कैलेंडर सज भी नहीं सकते। लोगों को मिल जाए, तो शायद घर की शोभा बढ़ाने के बजाए जलाना पसंद करेंगे। यों कैलेंडर तो सिर्फ तारीख देखने के मकसद से। पर अपने विजय माल्या पता नहीं क्या-क्या दिखाना पसंद करते। यों 'रंगीन'  कैलेंडर का रंग अब राजनीति पर भी। फर्क सिर्फ इतना, विजय माल्या का अपना अंदाज। तो राजनीति में खुद को चमकाना और चापलूसी ही मकसद। अब आप खुद ही देख लीजिए। लोकसभा चुनाव में राहुल-सोनिया गांधी कांग्रेस का बीड़ा उठाए देश भर में घूम रहे थे। तो प्रियंका ने अमेठी-रायबरेली की कमान संभाली। सो अपना चौबीसों घंटों वाले भोंपू का एक कैमरा वहीं पहुंच गया। अब प्रियंका रोज-रोज नई बात तो कहेंगी नहीं। सो कभी साडिय़ों के रंग, तो कभी साडिय़ों का इंदिरा स्टाइल। बोलने-चलने का भी इंदिरा अंदाज कैमरों में खूब कैद हुआ। चैनलों पर खूब विशेष प्रोग्राम भी चले। सो एक कांग्रेसी भक्त ने बारह फोटू छांटे और नए साल का कैलेंडर बना दिया। यानी मेहनत, न दौड़-धूप, बैठे-ठाले दरबार में नंबर बढ़ाने की स्ट्रेटजी। अब नंबर कितना बढ़ा, यह तो बाद की बात। पर एक कैलेंडर ऐसा भी, जिससे सीनियर पर जूनियर खफा हो गया। यों डीएवीपी के जरिए सालाना सरकारी कैलेंडर बनता। बीते साल के अंत में ही सूचना प्रसारण मंत्री उसका विमोचन करते। अबके भी ऐसा हुआ। सरकारी कैलेंडर में मनरेगा के साथ-साथ स्वास्थ्य मिशन, शहरीकरण जैसी यूपीए की तमाम फ्लैगशिप योजनाएं फोटू सहित। यानी परंपरा के मुताबिक सरकारी कैलेंडर में सरकारी उपलब्धियों का खूब बखान। एक कैलेंडर संसद के पीठासीन अधिकारी के दफ्तर से सालाना जारी होता। एक साल राज्यसभा सचिवालय, तो दूसरे साल लोकसभा सचिवालय की ओर से। पर अबके सीपी जोशी ने अपने मंत्रालय का अलग कैलेंडर जारी कर दिया। यों पिछले साल के सरकारी कैलेंडर में बारहों महीने नरेगा को ही समर्पित थे। तो फोटुओं में मजदूरों का काम। यानी साइट फोटू ही छाए हुए थे। पर उस कैलेंडर में अपने सीपी जोशी की भूमिका नहीं थी। अलबत्ता जोशी वाला मंत्रालय तब आरजेडी के रघुवंश बाबू के जिम्मे था। सो कांग्रेस ने सिर्फ योजनाओं को जगह देने की सोची होगी। ताकि मंत्री का फोटू देख क्रेडिट लालू की पार्टी न ले जाए। पर अबके कांग्रेसी सीपी जोशी मंत्री। तो सब कुछ अपने 'हाथ'  में। सो मंत्रालय का कैलेंडर छपा। तो सोनिया-मनमोहन के साथ जोशी भी छा गए। पर असली चूक कैलेंडर के सितंबर महीने वाले पन्ने में हुई। जोशी ने राष्टï्रपति के साथ अपना और दो सहयोगी राज्यमंत्रियों के फोटू डलवाए। पर जोशी के साथ तीन राज्यमंत्री। सो तीसरे मंत्री शिशिर अधिकारी का गुस्सा सातवें आसमान पर। वैसे भी अधिकारी ममता दीदी के सिपहसालार। सो आव देखा न ताव, सीपी जोशी पर भड़क उठे। कैलेंडर में मंत्रियों की फोटू पर आपत्ति जताई। दलील दी, मंत्री के बजाए विकास योजना को कैलेंडर में जगह दी जानी चाहिए थी। अब सुनते हैं, विवाद आगे न बढ़े। सो भले जनवरी बीतने को। पर दूसरा कैलेंडर छपवाने की तैयारी। अब जरा सोचिए, कैलेंडर में शिशिर अधिकारी का भी फोटू होता। तो विकास योजना वाली दलील देते? पर फोटू नहीं, तो एतराज जताने के लिए जनता से ज्यादा बड़ी ढाल और क्या। अब देखना होगा कि नए कैलेंडर में विकास होगा या फोटू। पर अधिकारी की नाराजगी सिर्फ कैलेंडर नहीं। कैलेंडर तो तात्कालिक कारण बना। मौलिक कारण तो राज्य मंत्रियों के दिल में हमेशा रहता। केबिनेट मंत्री अपने जूनियर राज्य मंत्रियों को काम नहीं देते। सो एनडीए राज हो या मनमोहन की पहली-दूसरी पारी। राज्यमंत्री कुढ़ते ही रहे। पिछले टर्म में मनमोहन ने तो बाकायदा केबिनेट मंत्रियों को चि_ïी भी लिखी थी। पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। कुछ दिन पहले शिशिर अधिकारी और कुछ राज्य मंत्रियों ने प्रणव मुखर्जी से दुखड़ा भी रोया था। पर केबिनेट मंत्री शायद रसूख दिखाने के आदी हो चुके। एक जमाना था, जब 1980 के दशक में बंसीलाल रेलमंत्री थे। तो माधवराव सिंधिया एमओएस थे। उन ने साफ हिदायत दे रखी थी। मेरे पास आने वाली फाइलें सिंधिया की नजरों से होकर आएं। पर क्या आज के वक्त में कोई केबिनेट मंत्री ऐसी दरियादिली दिखाएगा? शिवराज पाटिल के गृह मंत्री रहते उनके जूनियर सिर्फ बयान मंत्री रह गए थे। मनमोहन की दूसरी पारी में श्रीकांत जेना राज्यमंत्री बनने को तैयार नहीं थे। वजह, जेना यूएफ सरकार में केबिनेट मंत्री रह चुके। एनडीए राज में हुकुम देव नारायण यादव कृषि राज्यमंत्री थे। पर कुछ समय कृषि मंत्री रहे नीतिश कुमार ने कुछ काम नहीं दिया। तो खफा होकर अपने सरकारी निवास 19 कुश्क रोड पर फावड़ा-कुदाल लेकर काम पर जुट गए। साथ में मीडिया भी बुला लिया। इजहार-ए-दर्द का यादवी नमूना और क्या होगा। कृषि राज्यमंत्री को मंत्रालय में काम नहीं। तो निवास पर ही खेती करने लगे।
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15/01/2010

Thursday, January 14, 2010

मकर संक्रांति पर लो अपनी भी खिचड़ी!

संतोष कुमार
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         सूर्य उत्तरायण हो गया। हरिद्वार में आस्था के महाकुंभ की शुरुआत भी हो गई। पर सूर्य का उत्तरायण होना सभी राजनीतिक दलों के लिए शुभ नहीं रहा। यूपी में मायावती विधानसभा के बाद विधान परिषद में भी झंडाबरदार। विधान परिषद के आखिरी तीन नतीजे भी माया के हक में गए। सो दोनों सदनों में मायाराज हो गया। पर सबकी किस्मत माया जैसी नहीं। यों कांग्रेस ने शुभ मौका देख संगठन चुनाव का एलान कर दिया। पहला शुभ एलान सोनिया गांधी के चुनाव का। ताकि सब शुभ-शुभ हो। तभी तो जो औपचारिकताएं 25 जुलाई को पूरी होनी। एलान मकर संक्रांति पर ही कर दिया। पर क्या एक नाम जप से जुलाई तक कोई संकट नहीं आएगा? संकट तो पहले दिन ही, जब पटना में जगदीश टाइटलर और अनिल शर्मा के खिलाफ दलित एक्ट में एफआईआर दर्ज हो गई। बिहार कांग्रेस कार्यकारिणी की लिस्ट गुरुवार को जारी हुई थी। तो सत्ता के नशे में चूर कांग्रेस ने स्पीकर मीरा कुमार को भी मेंबर बना दिया। सिर्फ मेंबरी ही नहीं, सबके नाम के आगे जाति भी लिख दी। पर टाइटलर अब लिस्ट को कांग्रेस का अंदरूनी दस्तावेज बता रहे। अब आप ही देखो, जात-पांत से ऊपर उठने की बात करने वाले राजनेता कितने ढोंगी। यानी हजारों साल क्यों न बीत जाएं, अगर राजनीति का यही ढर्रा रहा। तो न जाति प्रथा मिटेगी, न भेदभाव और ना ही जाति के नाम पर वोट बटोरने की परंपरा। अब भले कांग्रेसी सोनिया गांधी को इस फजीहत से बचाने में जुटे। पर राजनीति का चेहरा फिर बेनकाब तो हो ही गया। राहुल गांधी के दलित बस्तियों में ठहरने पर राजनीतिक सवाल उठने लगे। तो राहुल ने खुद सफाई दी थी- 'मैं जाति पूछकर किसी के घर नहीं जाता। मैं सिर्फ यह देखता हूं कि वह इनसान गरीब है।'  अब राहुल कांग्रेस को कितना बदल पाएंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में। पर सूर्य का उत्तरायण बीजेपी के लिए कुछ अच्छा नहीं रहा। नितिन गडकरी खरमास में ही बीजेपी के अध्यक्ष बने। अभी कुल 26 दिन ही हुए। गडकरी को अपने ही बयान पर खंडन जारी करना पड़ गया। इतना ही नहीं, गुरुवार को जब हम-आप सूर्य ग्रहण के साये में होंगे। दिल्ली के जंतर-मंतर पर नितिन गडकरी के पुतले फूंके जा रहे होंगे। जानते हैं, पुतले फूंकने वाले कौन होंगे। कांग्रेस-सपा-बसपा-वामपंथी जैसी विरोधी पार्टियां नहीं। अलबत्ता बीजेपी की दिल-अजीज सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी जेडीयू। दिल्ली की जेडीयू शाखा गडकरी के उस बयान से नाराज। जिसमें उन ने दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों के लिए बाहरी लोगों को 'समस्या'  बताया। पर गुरुवार को खंडन किया। तो बोले- 'मैंने बड़े शहरों की समस्या पर ईमानदार पहल की बात कही। भारत एक है। किसी को भी देश में कहीं भी आने-जाने-बसने का संवैधानिक हक।'  यों गडकरी दो दिन पहले ही कह रहे थे- 'मीडिया से दूर रहना ही पार्टी हित में। मीडिया लिखे, तो भला। ना लिखे, तो भला। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।'  अब गडकरी को क्यों फर्क पड़ा, जो खंडन जारी करने की नौबत आन पड़ी। गडकरी खुद महाराष्टï्र से। सो राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद क्षेत्रीयता के सवालों पर एहतियात बरतना चाहिए था। पता नहीं किस बात से आग भड़क उठे। राज ठाकरे-बाल ठाकरे-शीला-शिवराज-तेजेंद्र खन्ना की टिप्पणियां पहले भी आग बन चुकीं। राष्टï्रीय नेता को हर बात तोल-मोल कर बोलनी चाहिए। अब क्षेत्रीयता की बात चली। तो बाल ठाकरे का नया फरमान, आस्ट्रेलिया को अब महाराष्टï्र में मैच नहीं खेलने देंगे। पाकिस्तान से भी मैच न होने का आंदोलन किया था। तो शिवसेनिकों ने वानखेड़े स्टेडियम खोद डाला। यों ठाकरे की भावना से अपना भी इत्तिफाक। आखिर आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर नस्ली हमले थमने का नाम नहीं। अपनी सरकार तो सिर्फ गाल बजा रही। पर सवाल बाल ठाकरे से। अगर आपको आस्ट्रेलिया में रहने वाले भारतीयों से इतनी सहानुभूति। तो भारत में ही हिंदी भाषियों से इतनी नफरत क्यों? आप तो अपने देश में ही अपने लोगों को पीट या पिटवा रहे। क्या आप और आपके भतीजे की ओर से उत्तर भारतीयों पर यह नस्ली हमला नहीं? ठाकरे साहब, हिंदी भाषियों पर हमला कर आपके परिवार ने देश की एकता खोद डाली। अब शुभ-अशुभ की बात चली। तो बेचारगी के दौर से गुजर रही सपा क्यों छूटे। सूर्य ने दिशा बदली। तो अमर सिंह भी दुबई से मुंबई आ गए। पर सपा की कहानी विचित्र मोड़ पर आ गई। अब अमर ने मुलायम को एक-दूसरे का राजदार बताया। तो राजनीतिक हलकों में सीडी का बाजार गर्म हो गया। यानी अमर शुद्ध रूपेण ब्लैक मेलिंग पर उतर आए। अब अमर हमाम में कैसे, यह तो सबको मालूम। पर अमर ने ठान ली, मुलायम को भी नहीं छोड़ेंगे। यों राजनीति में सीडी का बड़ा महत्व। बुढ़ापे में एनडी तिवारी शिकार हुए। बीजेपी में संजय जोशी के अपने ही दुश्मन थे। तो मुंबई से ही दिसंबर 2005 में सैक्स सीडी जारी हुई। एक बार बिहार निवास में कुछेक सांसदों की रंगीन सीडी भी खूब चलीं। हरियाणा के पिछले चुनाव के वक्त भजनलाल की अश£ील सीडी ने खेल बिगाड़ दिया था। अमर सिंह का फोन टेपिंग कांड अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित। तब अमर और अंबिका सोनी में जैसी तकरार हुई, लिखना भी मुनासिब नहीं। सो राजनीति मा सीडी की बड़ी आग है। अब मौका मकर संक्रांति का। तो बेहतर यही, क्यों न सभी नेता कुंभ हो आएं।
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14/01/2010

Wednesday, January 13, 2010

सुबह कीमत घटाने, तो शाम को बढ़ाने पर चर्चा

'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है। दुख तो अपना साथी है। सुख है एक छांव ढलती, आती है, जाती है...।'  आम आदमी के लिए अपनी सरकार का यही संदेश। मंगलवार को टली केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस (सीसीपी) की मीटिंग बुधवार को हो गई। पर नतीजा दोस्ती फिल्म के गीत जैसा ही। वैसे भी सरकार और आम आदमी के बीच दोस्ती हो। तो चुनावी साल से पहले राहत की उम्मीद ही बेमानी। सो सीसीपी की मीटिंग हुई। तो ऐसा कोई चौंकाऊ फैसला नहीं। जो महंगाई पर हमला बोल सके। अलबत्ता पुराने फैसले रिन्यू हो गए। अब सफेद हाथी बनी चीनी को बिना ड्यूटी आयात करने की छूट। कच्ची चीनी के आयात को पहले ही दिसंबर 2010 तक छूट मिली हुई। खुले बाजार में और भी गेहूं-चावल उतरेंगे। सब्सिडी वाले खाद्य तेलों के वितरण की समय सीमा बढ़कर 31 अक्टूबर 2010 तक। दालों पर दस रुपए की सब्सिडी पुरजोर ढंग से लागू होगी। सीसीपी में कुल 11 बिंदु तय हुए। फिर भी महंगाई की तेरहवीं के आसार नहीं। यूपी की सीएम मायावती ने कच्ची चीनी की प्रोसेसिंग पर रोक लगा रखी। सीसीपी के फैसलों में एक बिंदु यूपी सरकार के लिए भी। पर माया यों ही मान जाएं। तो फिर काहे की माया। सो अब पीएम मनमोहन सिंह सभी चीफ मिनिस्टर की मीटिंग लेंगे। सरकारी प्रेस नोट में तारीख का खुलासा नहीं। यों गणतंत्र दिवस का जश्र मनाकर अगली सुबह शायद मीटिंग हो। पर लानत-मलानत हुई। तो अब 'ज्योतिषी'  शरद पवार का अंदाज भी बदल गया। अब पवार ने खम ठोककर महंगाई को ललकारा। बोले- 'चार से आठ दिन में रोजमर्रा की वस्तुओं की और दस दिन में चीनी की कीमतों पर काबू पा लेंगे।'  पर जरा सोचिए, कैसे काबू में करेंगे महंगाई को मनमोहन और पवार? कहीं वही फार्मूला तो नहीं, जो कल आपको बताया। पहले कीमतें बढ़ा दो। फिर सेल लगाकर तीस फीसदी छूट का ऑफर। यानी गुरुवार को चीनी की कीमत 48 रुपए किलो। तो शायद दस दिन बाद 44 रुपए हो जाए। भले आपको राहत मिले, न मिले। सरकार के लिए तो बड़ी राहत की बात। सो आप 14-16 रुपए किलो वाली चीनी का जमाना गुड़ी-गुड़ी सपने की तरह भुला दें, तो ही आपकी सांस नहीं उखड़ेगी। सो पेट की आग के साथ-साथ सेहत की भी चिंता रखें। पर महंगाई की आदत अभी भी नहीं पड़ी। तो कुछ आसान नुस्खे अपनाइए। शुरुआत में थोड़े पैसे खर्च करिए। एक फर्जी मेडिकल रपट बना खुद को डायबिटिक दिखा दें। गृहणी खुद-ब-खुद चीनी में कटौती कर देंगी। एक लीटर दूध में दो लीटर पानी मिलाएं। दाल-सब्जी रसेदार (रस ट्रांसपेरेंट दिखे) हों। दिल्ली में घर है, तो ठंड के महीने में नहाना बंद कर दें। पानी की बचत तो होगी ही, कांग्रेसी सीएम शीला की बढ़ाई कीमत का बोझ भी कम पड़ेगा। अगर कोई पवार जैसे वजनदार हैं। तो जिम जाने के बजाए कम भोजन करें। यही है अपनी सरकार का महंगाई भगाओ मूल मंत्र। अपने लालबहादुर शास्त्री ने देश की शान की खातिर हफ्ते में एक दिन उपवास की अपील की थी। तो देश की जनता ने शास्त्री जी को सर-आंखों पर बिठाया था। पर मनमोहन राज में कहीं ऐसा न हो, हफ्ते में एक दिन भोजन करने की अपील जारी हो जाए। वैसे भी जनता को महंगाई में जीने में मजा आने लगा। कांग्रेस भी यही समझा रही, अगर महंगाई होती, तो हम चुनाव कैसे जीतते। पर अंदरखाने कांग्रेस को इल्म हो चुका। बिल्ली के भाग्य से हर बार छींका नहीं टूटता। पर महंगाई थामने को भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा। सो सीसीपी में तय हो गया- आओ मीटिंग-मीटिंग खेलें। पर सनद रहे, सो बताते जाएं। मंगलवार को सीसीपी की मीटिंग टलने की वजह थी सरकार में एकराय न होना। सो बुधवार को मीटिंग हुई। तो सरकार का एक सुर सामने आया- आओ आम आदमी को मूर्ख बनाएं। सो महंगाई पर अर्थशास्त्री मनमोहन का चेहरा फिर सामने रखा। पर पीएम खुद कूदे, तो भी कोई बड़ा फैसला नहीं हुआ। सो सीएम की मीटिंग में क्या होगा। वही राज्य केंद्र पर और केंद्र राज्य पर ठीकरा फोड़ेगा। जमाखोरों पर कार्रवाई की मांग होगी। पर सवाल वही, मियां अब तक कहां आराम फरमा रहे थे। यों मीटिंग-मीटिंग का खेल भी रिन्यू हो रहा। पिछले टर्म में मनमोहन ने 21 फरवरी 2007 को सभी सीएम को चि_ïी लिखी। तो पिछले एक साल में पीएमओ की ओर से उठाए गए कदमों का जिक्र कर सहयोग मांगा। फिर 17 सितंबर 2008 को गवर्नरों की मीटिंग में भी पीएम ने चिंता जताई। पर महंगाई कम तो नहीं हुई, मनमोहन दुबारा पीएम जरूर बन गए। सो दूसरे टर्म में भी पुराना नुस्खा अपना रहे। पर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। पिछले टर्म में भी महंगाई रोकने को कभी ब्याज दर बढ़ाई। तो कभी पेट्रोल-डीजल के दाम। पर आम आदमी बोझ से दबता ही चला गया। अब दूसरे टर्म का दिलचस्प पहलू देखिए। सुबह सीसीपी की मीटिंग में कीमतें घटाने पर चर्चा हुई। तो देर शाम पीएमओ में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ाने की। महंगाई घटाने का 'मनमोहिनी अर्थशास्त्र'  भी बहुत खूब। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा की दलील, तेल कंपनियों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा। सो पेट्रोल की कीमतें बढऩी चाहिए। कीमतों का फैसला भी कंपनियों पर छोडऩे की दलील दे रहे देवड़ा। वैसे सही भी, सरकारी कंपनी बोझ क्यों उठाए। बोझ उठाने का काम तो आम आदमी का। सरकारी कंपनी वालों को मोटी सेलरी-सुविधा भी दो। कंपनियों का खुला खेल फर्रुखाबादी भी करने दो। ----------
13/01/2010

Tuesday, January 12, 2010

तो गलत फिल्म के गाने से ही सुलझ गया बीजेपी का झगड़ा

इंडिया गेट से
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तो गलत फिल्म के गाने से ही
सुलझ गया बीजेपी का झगड़ा
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 संतोष कुमार
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            अलटा मार पलटा, शरद पवार पलट गए। केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस की मीटिंग भी बुधवार के लिए टल गई। वैसे भी महंगाई रुकने वाली नहीं। सो मीटिंग आज हो या कल। मनमोहन को क्या फर्क पड़ता। चीनी रात भर में 44 से 48 रुपए किलो क्यों न हो जाए। मार्केटिंग का तो फंडा भी ऐसा ही। कीमतें बढ़ाकर सेल लगा दो। फिर 30-40 फीसदी छूट दे दो। शायद मनमोहन सरकार भी इसी फार्मूले की फिराक में। बढ़ी कीमतों में से दो-चार रुपए कम करा देंगे। फिर कांग्रेसी ढोल-नगाड़े ले 24 अकबर रोड पर धप-धप बजाएंगे। यही कांग्रेसी कल्चर बन चुकी। पर कल्चर के मामले में तो बीजेपी की सानी ही नहीं। अब नितिन गडकरी के हाथ कमान। सो गडकरी रोज नए फंडे गढ़ रहे। अब मंगलवार को रीजनल मीडिया के कुछ पत्रकारों से मिले। तो कई चौंकाने वाली बातें सामने आईं। यानी बिना फंड के फंडे चाहिए। तो गडकरी से मिलिए। महाराष्टï्र की राजनीति से मिले अनुभव के बेस पर ही बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी चलाने की सोच रहे। सो पहले तो अपने धंधे गिनाए। राजनीति का समाजकरण और राष्टï्रकरण फार्मूला बताया। फिर बीजेपी का भावी एजंडा। गडकरी बीजेपी को फिर राजनीतिक शिखर पर लाने की संघ योजना से आए। सो बोले- 'बीजेपी के वोट बैंक में और दस फीसदी का इजाफा करना ही मेरा लक्ष्य।'  सो बीजेपी का नया फंडा, अपना कामगार संगठन होगा। अब तक भारतीय मजदूर संघ ही बीजेपी का श्रमिक संगठन रहा। पर अब बीजेपी को खुद के श्रमिक संगठन की कमी महसूस हो रही। सो नितिन गडकरी ने वामपंथी राह पर चलने की योजना बना ली। भले अपने गढ़ में वामपंथी खुद हांफ रहे। पर बीजेपी को वामपंथी राह ही तारणहार नजर आ रही। गडकरी की दलील, कांग्रेस की इंटक जैसी संस्था बीजेपी के पास नहीं। सो अब एससी-एसटी, महिलाओं और असंगठित कामगारों के लिए अपना संगठन बनाएगी। ताकि शहरों में खत्म हो रहे जनाधार को बढ़ा सके। यों सनद रहे, सो बता दें। जब 2004 में बीजेपी सत्ता से बाहर हुई। फिर एक बार दिल्ली में वर्किंग कमेटी हुई। तो अटल बिहारी वाजपेयी ने पार्लियामेंट एनेक्सी में नेताओं को मंत्र दिया था। कैसे वर्करों का दिल जीता जाए। सीखना हो, तो सीपीएम के गढ़ बंगाल जाओ। तब राजस्थान में वसुंधरा राजे सीएम थीं। उन ने तो फौरन दो सरकारी नुमाइंदे एसएन गुप्त और ओम बिड़ला कोलकाता भेज दिए। भले 2008 के चुनाव में बीजेपी हार गई। अब एक और चौंकाने वाली बात। खुद नितिन गडकरी सीपीआई महासचिव एबी वर्धन के अंडर में लेबरों की यूनियनबाजी कर चुके। एक बार तो गडकरी कांग्रेस के श्रमिक संगठन इंटक के अध्यक्ष भी चुन लिए गए थे। यह खुलासा कोई अपनी ओर से नहीं। खुद गडकरी ने ही किया। भारतीय मजदूर संघ वाले दत्तोपंत ठेंगड़ी भी वर्धन की एटक में काम कर चुके। सो गडकरी फार्मूला संघ की ही देन। पर गडकरी की मानें, तो संघ कभी बीजेपी में सीधे दखल नहीं देता। चलो, सीधे न सही, पीछे से ही। पर दखल देता है, ऐसा तो मान ही लिया। गडकरी ने बीजेपी के कांग्रेसीकरण से इनकार किया। पर यहां भी कबूला, अभी भी कई मायनों में पार्टी विद डिफरेंस। यानी कहीं न कहीं थोड़ी-बहुत गिरावट तो मान ली। अब गडकरी बीजेपी को राजनीतिक कम, सामाजिक-आर्थिक संगठन की तरह ज्यादा चलाना चाह रहे। सो विपक्ष की जगह विजिलेंस शब्द की मांग कर दी। अब जहां-जहां राज्यों में पार्टी विपक्ष की भूमिका में। वहां के नेताओं की मीटिंग लेंगे। ताकि बेहतर विपक्ष की भूमिका निभा सकें। उन ने तेलंगाना पर सरकार को कोसा। तो विदर्भ पर शिवसेना से इतर भुवनेश्वर वर्किंग कमेटी का प्रस्ताव दोहरा दिया। अब इंदौर में वर्किंग कमेटी होगी। तो नेताओं को टेंट में ही रहना होगा। होटल का खर्चा बीजेपी नहीं उठाएगी। भले टेंट का खर्चा होटल से ज्यादा क्यों न हो। पर यही नहीं, अब पदाधिकारियों पर भी नकेल होगी। जैसे संघ के पदाधिकारी ज्यादातर प्रवास में ही वक्त गुजारते। बीजेपी पर भी वही फार्मूला लागू होगा। सो गडकरी ने कह दिया- 'दिल्ली-मुंबई में बैठकर काम नहीं होगा। पदाधिकारियों को गांव-गांव प्रवास करना होगा। मैंने स्टेट थीम बना ली है।'  पर सवाल बीजेपी के कुछ संकटों पर हुए। तो गडकरी ने राजस्थान, पंजाब का उदाहरण दिया। बोले- 'आज सुबह राजस्थान से मुझे फोन आया। आप लोग तो छापते ही नहीं। अब राजस्थान में समूची बीजेपी एकजुटता से पंचायत चुनाव में जुटी हुई।'  पर राजस्थान का झगड़ा सुलझाने का फार्मूला पूछा। तो गदगद होकर बोले- 'मैंने सबको नया दौर का गाना सुनाया। आपको भी सुनाता हूं।... छोड़ो कल की बातें। कल की बात पुरानी...।'  पिछले पखवाड़े भर में सभी वरिष्ठï नेताओं के सहयोग और राजस्थान सुलझाने की खुशी चेहरे पर दिखी। पर जरा एक दिलचस्प पहलू देखिए। वसुंधरा गुट हो या चतुर्वेदी खेमा। नितिन गडकरी के गलत फिल्मी गाने से ही सारा झगड़ा-झंझट भूल गए। यों छोड़ो कल की बातें... गाना फिल्म नया दौर का नहीं। अलबत्ता फिल्म 'हम हिंदुस्तानी'  का गाना। पर शायद गडकरी नए अध्यक्ष। सो राजस्थान के भाजपाइयों को इशारा, अब नया दौर आ गया। गडकरी गलत फिल्म का नाम 20-22 दिनों से सुना रहे। पर देखिए, फिल्मों के शौकीन आडवाणी भी गलती सुधारने में मदद नहीं कर रहे।
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12/01/2010

Monday, January 11, 2010

कांग्रेस की लफ्फाजी या लफ्फाजी भरी कांग्रेस?

इंडिया गेट से
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कांग्रेस की लफ्फाजी या
लफ्फाजी भरी कांग्रेस?
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 संतोष कुमार
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          तो आज की शुरुआत सवाल से। क्या अपनी राजनीति की जुबान ही भद्दी हो चुकी या सिर्फ जुबान की राजनीति हो रही? माना, एचडी देवगौड़ा दंतहीन, विषहीन यानी सत्ताविहीन हो चुके। तो क्या बौखलाहट में किसी को भी डंक मारते रहेंगे। देवगौड़ा देश के पीएम रह चुके। पर कभी 'राष्ट्रीय'  न हुए, न शायद होंगे। कर्नाटक की राजनीति में ही उमड़-घुमड़ करते रहे। कभी खुद सीएम बनने की ललक। तो कभी बेटे को सीएम बनाने की अलख। सो कर्नाटक में एक ही टर्म में बीजेपी-कांग्रेस-देवगौड़ा ने सत्ता सुख भोगा। पर बीजेपी और कांग्रेस की सरकार में गौड़ा कॉमन फैक्टर रहे। कभी इधर तो कभी उधर। सो चुनाव में जनता ने इधर-उधर कहीं का न छोड़ा। यानी देवगौड़ा की बौखलाहट लाजिमी। पर पूर्व पीएम की मर्यादा भी तो कोई चीज। देवगौड़ा ने कर्नाटक के सीएम येदुरप्पा को बास्टर्ड कह दिया। देर रात जाकर माफी मांगी। तो ऐसे, मानो अहसान कर रहे। बोले- 'अगर येदुरप्पा मेरी टिप्पणी से वाकई आहत हुए हैं। तो मैं माफी मांगता हूं।'  पर राजनीति में किसकी जुबान ओछी नहीं। हाल के ही कुछ साल का मजमून आप देख लीजिए। वाजपेयी पीएम थे। तो नरेंद्र मोदी ने विरोधी दल की नेता और उनके बेटे के लिए इटली की कुतिया-जर्सी बछड़ा शब्द इस्तेमाल किया। प्रमोद महाजन ने भी मोनिका लेविंस्की से तुलना कर दी। जेतली ने पीएम मनमोहन सिंह को नाइट वॉचमैन बताया। पर कांग्रेसी भी कम नहीं। कभी पीएम वाजपेयी को गद्दार कहा। तो गुजरात चुनाव में सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कह चुकीं। हाल ही में मोदी का कांग्रेस को बुढिय़ा और गुडिय़ा कहना भी उम्दा जुबान नहीं। अब बीजेपी नेता पर भद्दी टिप्पणी हुई। तो बीजेपी देवगौड़ा को इशारों में ही मेंटल कह रही। सत्ता न होने की हताशा बताया। पर सत्ता में तो बीजेपी भी नहीं। सो बीजेपी की इस खस्ता हालत की क्या वजह? अब विनय कटियार भी गोविंदाचार्य की राह पर। तो बीजेपी कह रही- 'हमारे यहां पढऩे-पढ़ाने, अध्यात्म की परंपरा। वैसे भी कटियार सरयू किनारे बसते हैं।'  यानी हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। कटियार को बीजेपी ने इशारा कर दिया। अब देखने वाली बात तब होगी, जब अगले महीने इंदौर के तंबू में बीजेपी की वर्किंग कमेटी-कॉउंसिल होगी। कहीं ऐसा न हो, पहले दिन ही तंबू का बंबू उखड़ जाए। पर बीजेपी को छोडि़ए। देवगौड़ा की अभद्र भाषा पर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी से सवाल हुए। तो सिंघवी ने पहले जी-भर येदुरप्पा को कोसा। आखिर में नैतिक सिद्धांत और मर्यादित भाषा का पाठ पढ़ाया। पर देवगौड़ा का नाम न लिया। यानी राजनीति की मर्यादा भी वक्त के हिसाब से। पर भाषा सिर्फ गाली-गलौज की नहीं। एक भाषा आम आदमी की खातिर भी। आप जरा खुद गौर फरमाइए। महंगाई का करंट 11000 वोल्ट से दौड़ रहा। पर शरद पवार मन के साथ-साथ शरीर से भी हांफ रहे। सो कह दिया- 'महंगाई कब कम होगी, मुझे नहीं पता। मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं।' पर पवार शायद भूल गए। अगर वह ज्योतिषी होते, तो कुंभ के मेले में किसी घाट पर चंदन घिस रहे होते। लोगों के हाथ की रेखा देख ठगी का धंधा कर रहे होते। यों अब भी पवार का काम कुछ खास अलग नहीं। दो टर्म से देश के कृषि-खाद्य मंत्री। पर लोगों को सिर्फ झूठे दिलासे दिला रहे। यों शरद पवार हों या कांग्रेस, वक्त के हिसाब से महंगाई पर अलग-अलग दलीलें जरूर दीं। ताकि आम आदमी एक ही दलील सुनते-सुनते बोर न हो जाए। पवार ज्योतिषी नहीं। तो वित्त मंत्री रहते पी. चिदंबरम भी कह चुके- 'महंगाई रोकने को मेरे पास जादुई छड़ी नहीं।'  कभी एनडीए राज पर ठीकरा फोड़ा, तो कभी बीजिंग ओलंपिक पर। कभी आर्थिक महामंदी को कोसा। अब कांग्रेस अपना दामन बेदाग दिखाने को शरद पवार पर चढ़ बैठी। केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस में पीएम पवार को खरी-खरी सुना चुके। इसे कहते हैं हाथी के दांत। पर क्या कांग्रेस और सरकार जिम्मेदार नहीं? सोनिया गांधी की सीडब्लूसी कई दफा प्रस्ताव पास कर चुकी। पर सरकार सोई रही। तो सोनिया ने कड़े कदम क्यों नहीं उठाए? सोनिया तो संसदीय दल की अध्यक्ष। पीएम मनमोहन हों या वित्तमंत्री प्रणव। आखिर हैं तो सोनिया द्वारा ही नियुक्त नेता। पर कांग्रेस कह रही, महंगाई रोकने को आवश्यक कदम उठाए जा रहे। फिर भी महंगाई नहीं रुक रही। सो अकेले पवार पर हमला कांग्रेस की नई लफ्फाजी। जैसे शशि थरूर पर कांग्रेस कर रही। सादगी पर कैटल क्लास, हैडली-वीजा और अब नेहरू पर सवाल उठाए। पर हमेशा की तरह कांग्रेस गरजी, बरसी नहीं। यानी लफ्फाजी में कांग्रेस की सानी नहीं। तभी तो चीन इंच-इंच करके भारतीय सीमा में घुसपैठ कर चुका। पर अपनी सरकार को देखो, न सही मैप और न ही घुसपैठ का अंदाजा। मीडिया ने घुसपैठ का मामला उठाया। तो विदेश मंत्रालय से संयम की नसीहत मिल गई। चीन के मुद्दे पर मनमोहन सरकार गांधारी की भूमिका में। कभी मैकमोहन लाइन को लेकर चीन पर दबाव नहीं बनाया। अबके लद्दाख में जैसी चीन की घुसपैठ, 1962 में चीन ने तवांग पर ऐसे ही कब्जा किया। फिर महीने भर बाद चीन-भारत युद्ध। जैसा राग चीन पर, वैसा ही आस्ट्रेलिया में नस्ली हमले पर। सो इतिहास देखकर आप खुद ही तय कर लें। आजादी से अब तक सत्ता में रहते कांग्रेस ने सिर्फ लफ्फाजी की या कांग्रेस आदतन ही लफ्फाजी भरी।
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11/01/2010

Friday, January 8, 2010

तो क्या राजनीति को भी 'निवेश' की दरकार?

इंडिया गेट से
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तो क्या राजनीति को भी
'निवेश' की दरकार?
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 संतोष कुमार
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         तो 2014 तक एक और वोट बैंक तैयार होगा! अपने एनआरआई भाई लोगों का। शुक्रवार को आठवें प्रवासी भारतीय दिवस के मौके पर पीएम ने यह भरोसा दिलाया। विज्ञान भवन में तीन दिवसीय प्रवासी भारतीय सम्मेलन शुरु हुआ। तो दोहरी नागरिकता न मिलने से खफा प्रवासियों को मनमोहन ने नया लॉलीपॉप दिखा दिया। अगले आम चुनाव तक एनआरआई को भी वोट का हक दिलाने की कोशिश करेंगे। पर जुबान से कागज तक पहुंचना आसान नहीं। दोहरी नागरिकता का मुद्दा वाजपेयी सरकार की देन। तबके पीएम वाजपेयी ने वादा तो कर दिया। पर जब संसद के सामने बिल आया। तो कई तकनीकी फच्चर आन पड़े। खूब विवाद हुआ। 'अ पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजीन'  शब्द पर कई राय। मसलन, कितनी पुश्तों को आधार माना जाए। किस देश को अलग रखें, किसे चुने जैसी कई तकनीकी और संवैधानिक अड़चनें। सो दोहरी नागरिकता का मुद्दा 2003 से अब तक पेंडिंग। भले देश में इस मुद्दे पर बहस चलती रही। पर एनआरआई ने तो खुद को ठगा महसूस किया। भारत सरकार पर चौतरफा दबाव पड़ा। तो मनमोहन ने नया झुनझ्ुाना थमा दिया। फिर भी वोट का हक दिलाने का ठोस वादा नहीं किया। अलबत्ता उम्मीद और कोशिश शब्द का इस्तेमाल। वह भी 2014 तक। ताकि अगले आम चुनाव तक एनआरआई हायतौबा न मचा सकें। अब अगर वादा पूरा नहीं भी हुआ। तो मनमोहन का क्या। वह तो अगले चुनाव में शायद रिटायर हो जाएं। जैसे दोहरी नागरिकता का वादा निभाने से पहले ही वाजपेयी रिटायर हो गए। फिर नया नेतृत्व, नए वायदे। यही तो अपनी राजनीति का रंग। यों राजनीति के रंग कब बदल जाएं, मालूम नहीं। भले अपने एनआरआई संख्या में महज ढ़ाई करोड़। पर पैसा-पॉवर के मामले में अपनी एक अरब आबादी पर भारी। अब आप सोचो, अगर एनआरआई को वोटिंग हक मिल गया। तो लोकतंत्र का नया चारित्र कैसा होगा? कल्पना करिए, एनआरआई को वोट का हक मिल गया। नाथद्वारा से अपने सीपी जोशी एक वोट से हार रहे। और बाद में एनआरआई के वोट से जोशी जीत गए। सोचो, हू-ब-हू ऐसा हुआ होता। तो कैसा लगता। यही ना, नाथद्वारा में रहने वाली जनता के फैसले पर विदेशों में बैठे एनआरआई भारी। अब कोई उम्मीदवार आरआई यानी रेजीडेंट ऑफ इंडिया के बजाए एनआरआई के वोट से संसद या विधानसभा पहुंचे। तो वह किसकी बात ज्यादा सुनेगा? आपकी या धनकुबेर एनआरआई की। यानी राजनीति नई राह पर चलेगी। राजनेता कर्ता-धर्ता होंगे और एनआरआई नीति-नियंता। तभी तो एनआरआई की दिलचस्पी इन्फ्रास्ट्रक्चर में इनवेस्टमेंट से ज्यादा पोलिटिकल इंवेस्टमेंट में। सो मनमोहन ने एनआरआई की सोच का इजहार भी किया। बोले- 'शासन में महत्व मिलने की प्रवासियों की जायज इच्छा को मैं समझता हूं। उम्मीद करता हूं कि 2014 तक एनआरआई को वोट का हक मिल जाएगा।' पीएम ने भरोसा तो दिलाया। पर वोट के हक के पीछे कितना दबाव, इसकी झलक भी मिल गई। जब कहा- 'दरअसल, मैं तो एक कदम आगे बढ़ते हुए पूछना चाहता हूं कि प्रवासी भारतीय घर वापस लौटकर राजनीति और सार्वजनिक जीवन में क्यों नहीं शामिल होते।'  पर मनमोहन भी बखूबी समझते और एनआरआई भी। अगर वतन वापस लौटकर राजनीति में हिस्सेदारी करेंगे। तो किसी एक पार्टी के होकर रह जाएंगे। कभी सत्ता तो कभी विपक्ष में। पता नहीं कब-किस सरकार का मूड फिर जाए। तो नीति बदल धंधा चौपट कर दे। सो एनआरआई के पास पैसे की कमी नहीं। जिसकी भी सत्ता आए, अपनी धमक बनी रहे। इसी बात की कोशिश करते। अब अगर वोटिंग का हक भी मिल जाए। तो एनआरआई की पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में। सत्ता में जो भी राजनीतिक दल होगा। एनआरआई वोट बैंक की बात को सिर्फ सुनना नहीं, अमल करना भी मजबूरी होगी। पर जैसे दोहरी नागरिकता में तकनीकी पेच। एनआरआई के वोट के हक में भी कम नहीं। कैसे चयन होगा? सुरक्षा के लिए क्या मानक होंगे? और भी कई पेच, जो पालिसी जाहिर होने के बाद दिखेंगे। पर वोट के हक के पीछे की कहानी- निवेश। मनमोहन तो खुल्लमखुल्ला बोले- 'देश में निवेश के मामले में एनआरआई रुढि़वादी रहे हैं। पर सोच बदलने की जरुरत। भारत की ओर सजगता से देखना चाहिए। निवेश के मामले में भारत भी अहम ठिकाना है।'  पीएम ने एनआरआई से विकास और राजनीति में सक्रिया भागीदारी की भी अपील की। तो क्या अब राजनीति में भी टोटा हो गया। जो हम एनआरआई को वोट का लॉलीपॉप थमा सक्रिय राजनीति में आने का न्योता दे रहे। एक अपने पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री का जमाना था। जब देश में खाद्य संकट का पूर्वानुमान हुआ। तो देशवासियों से हफ्ते में एक दिन उपवास की मार्मिक अपील की। अपील के पीछे शास्त्री जी के तीन उद्देश्य थे। पहली- इससे अनाज की कमी दूर होगी। दूसरी- किसान फसल की पैदावार बढ़ाने को उत्साहित होंगे। और तीसरी- अनाज की खातिर दुनिया के सामने हाथ न पसारना पड़े। पर साठ साल में ही क्या हो गया। टेक्रोलॉजी की कमी हो। तो खुद बनाने के बजाए इंपोर्ट को तरजीह देते। रक्षा उपकरण की विदेशों से खरीद पर खुद रक्षा मंत्री एके एंटनी अफसोस जता चुके। अब एनआरआई को वोट का हक। यानी राजनीति में भी निवेश। क्या वाकई अपनी राजनीति में नेतृत्व का टोटा पड़ गया?
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08/01/2010

Thursday, January 7, 2010

संघरुपेण संवाद, विश्वास, और सड़कों पर बीजेपी

इंडिया गेट से
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संघरुपेण संवाद, विश्वास,
और सड़कों पर बीजेपी
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 संतोष कुमार
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          बदली आबोहवा में बीजेपी नए सफर को निकल पड़ी। गढ़ के रक्षक गडकरी ने गुरुवार को पदाधिकारियों की पहली मीटिंग ली। तो मंच पर तिकड़ी नहीं, चौकड़ी बैठी। बीजेपी की सभी अहम मीटिंगों में पहले अध्यक्ष और दोनों सदनों के नेता बैठा करते थे। यों वाजपेयी के सक्रिय रहते मंच भी पर तिकड़ी यानी अटल-आडवाणी और अध्यक्ष बैठते थे। पर वाजपेयी सक्रिय नहीं रहे। तो राज्यसभा के नेता को भी मंच पर जगह मिल गई। तभी से जसवंत का ओहदा और बढ़ गया। अब आडवाणी खुद अटल की भूमिका में। पर दूसरी पीढ़ी अपना कद क्यों घटाए। सो मंच पर अब आडवाणी, सुषमा, जेतली और गडकरी की कुर्सी लगने लगी। पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग वाले कमरे में भी संचालन साइड की तीन बड़ी कुर्सियां हटाकर चार छोटी कुर्सियां लगा दी गई। अब आप सोच रहे होंगे, कुर्सी का किस्सा क्यों? आपकी सोच सोलह आने सही। कोई कहीं भी बैठे, क्या फर्क पड़ता। पर बीजेपी में सारी लड़ाई तो कुर्सी की ही। तभी तो आडवाणी सन्यास को राजी नहीं। जसवंत को बतौर राज्यसभा नेता मंच पर जगह मिली। तो अरुण जेतली क्यों त्याग की मूर्ति बनें। भले कुर्सी की साइज ही घटानी क्यों न पड़ जाए। यों बताते जाएं। दिल्ली मैट्रो की ट्रेन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। पहले ट्रेनों के डिब्बे आए। तो सीटें चौड़ी और स्टैंडिंग सीटें कम थीं। अब नए डिब्बे फिर जर्मनी से मंगाए गए। तो डिब्बा अत्याधुनिक हो गया। सीटों की साइज छोटी, पर स्टैंडिंग सीटें दुगुनी हो गईं। अब बीजेपी में सीटों का यह फार्मूला कहां से आया। मालूम नहीं। पर आप खुद ही देख लो। संसदीय मापदंडों में राज्यसभा उच्च सदन और लोकसभा निम्र। पर अहमियत में लोकसभा सर्वोपरि। लोकसभा के आधार पर ही सरकारें बनती-बिगड़ती। सो सिर्फ सुषमा स्वराज को मंच पर कुर्सी मिलती। तो जेतली शायद हजम नहीं कर पाते। सो आडवाणी ने कुर्सी का किस्सा सुलझाने को उम्दा फार्मूला अपनाया। फार्मूला बना- 'सबका भला हो। पर शुरुआत मुझ से हो।'  सो बीजेपी में अपनों का भला भी कराया। आडवाणी खुद भी वटवृक्ष हो गए। सो कुर्सी के खेल से गुजर चुकी बीजेपी को नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नया मंत्र दिया। राजनाथ वाली टीम की पहली मीटिंग ली। तो गडकरी ने संवाद पर जोर दिया। नई टीम तो राष्टï्रीय परिषद के अनुमोदन के बाद गठित होगी। गुरुवार को मीटिंग में अध्यक्ष के औपचारिक चुनाव और अनुमोदन की तारीख भी तय हो गई। फरवरी में वेलेंटाइन डे से पहले आठ, नौ, दस तारीख को अध्यक्ष का चुनाव। फिर 17 को इंदौर में एकदिनी वर्किंग कमेटी और 18-19 को परिषद की मीटिंग। उसके बाद जब गडकरी नई टीम बनाएंगे। तो उसमें अपनी छाप तो छोड़ेंगे ही। पर पुरानी टीम में नई ऊर्जा डालने की कोशिश गुरुवार को ही की। मीडिया के जरिए नेताओं के बीच होने वाले संवाद पर नसीहत दी। बोले- 'आपलोग परस्पर विश्वास कायम करें। आपसी विश्वास के साथ संगठन में नई आशा जगाएं। आपस में लोकतांत्रिक तरीके से संवाद स्थापित करें, फिर किसी कार्य को अंजाम दें।'  गडकरी कंक्रीट-पत्थर के काम से ही राजनीति में ऊपर उठे। सो उन ने पदाधिकारियों को संगठन की महत्ता भी उसी अंदाज में समझाई। कहा- 'इमारत तभी बुलंद रहती, जब नींव मजबूत हो। पार्टी की नींव संगठनात्मक ढांचा है, जिसे मिलजुल कर मजबूत करें।'  यानी गडकरी ने कबूल लिया, बीजेपी की नींव कमजोर हुई। खुद मोहन भागवत कई बार कह चुके। बीजेपी राख से भी उठ खड़ी होगी। तब वाकई बीजेपी का तांडव उसे राख की ओर ले जा रहा था। पर अब गडकरी ने कमान संभाली। सो संघ का तय एजंडा अब अमल में ला रहे। संवाद और आपसी विश्वास बहाली का तो मंत्र दिया ही। पदाधिकारियों को कंप्यूटर और एसी कमरों से बाहर निकल ज्यादा से ज्यादा प्रवास का फरमान सुना दिया। संघ 2004 से ही बीजेपी को पथ से भटका बता रहा। सत्ता में बैठकर धार कुंद हो गई। अब गडकरी महंगाई पर विरोध का पहला बगुल फूंकेंगे। अ_ïारह जनवरी से मार्च के दूसरे हफ्ते तक तीन फेज में आंदोलन होगा। पर आंदोलन सिर्फ महंगाई नहीं, गडकरी की रहनुमाई में जोश का भी द्योतक होगा। अब आंदोलन पहले की तरह फुसफुसा और टोकन का विरोध साबित होगा। या विपक्ष सही में गंभीर हुआ, इसकी झलक तो तभी दिखेगी। फिलहाल तो संघरुपेण गडकरी अपने मिशन की ओर बढ़ रहे। बीजेपी को एसी कमरों से निकाल सड़कों पर उतार रहे। पर क्या वाकई बीजेपी अपने पुराने तेवरों में लौट पाएगी? आखिर आम जनता कैसे भरोसा करेगी? जब बीजेपी बनी थी। तो महीने भर बाद छह मई 1980 को पंचनिष्ठïाएं व्यक्त की थी। राष्टï्रवाद, लोकतंत्र, प्रभावकारी धर्मनिरपेक्षता, गांधीवादी समाजवाद और सिद्धांतपरक साफ-सुथरी राजनीति। पर जैसे-जैसे बीजेपी का ग्राफ बढ़ा। बीजेपी सत्ता तक पहुंची। तो बीजेपी को डंडा-झंडा वही रहा। पर एजंडा बदल गया। एनडीए सरकार बनने के बाद 28-30 दिसंबर 1999 को चेन्नई में परिषद हुई थी। आडवाणी ने एक ड्रफ्ट जारी किया, जिसे चेन्नई घोषणापत्र कहा गया। जिसमें कहा गया था- हर कार्यकर्ताओं को अच्छी तरह समझना चाहिए कि राजग के एजंडे के सिवा पार्टी का अपना कोई एजंडा नहीं है। यानी राम मंदिर समेत सभी विवादित मुद्दे किनारे। सो संघरुपेण गड़करी फार्मूला कितना चलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
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07/01/2010

Wednesday, January 6, 2010

'अमर प्रेम' की अजब 'गाथा'

इंडिया गेट से
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'अमर प्रेम'  की अजब 'गाथा'
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 संतोष कुमार
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     तो समाजवादी पार्टी में अब अमर-वाणी नहीं। पर कब तक, यह तो अमर-मुलायम ही जानें। नए साल की छुट्टिïयां मनाने दुबई गए अमर सिंह ने इस्तीफा फैक्स किया। सिर्फ सपा और सांसदी नहीं छोड़ी, पार्टी संगठन के सारे पद छोड़ दिए। सो सपा में खलबली मची। पर राजनीतिक जगत में एक और अमर-ड्रामे का संदेश गया। अमर सिंह ने इस्तीफे की वजह सेहत बताई। पर बातों ही बातों में सपा में घटती साख का दर्द बयां कर दिया। सो अटकलें लगीं, भाई अमर अब कांग्रेस में जाएंगे। पर 'अमर ड्रामा' का मंचन कई बार हो चुका। सो कांग्रेस ने 'अच्छे पड़ोस'  की भूमिका में मजा लिया। अपने दिग्गी राजा ने चुटकी तो ली ही, अमर सिंह को फिर औकात बता दी। दिग्विजय सिंह बोले- 'कांग्रेस में कोई सांसद, पूर्व सांसद या विधायक शामिल होना चाहे। तो पहले स्टेट यूनिट को आवेदन दे। स्टेट यूनिट अपनी सिफारिश के साथ प्रभारी महासचिव को भेजेगा। फिर उस पर सोनिया गांधी अंतिम फैसला लेंगी।'  यों दिग्गी-अमर के रिश्ते लोकसभा चुनाव से पहले ही जगजाहिर हो चुके। सो दिग्गी मौका क्यों चूकते। लोकसभा चुनाव के वक्त जब कांग्रेस और सपा में सीटों के तालमेल पर बात चल रही थी। अमर-मुलायम तो सोनिया-राहुल से मिल दिग्गी राजा को तालमेल की वार्ता से दूर रखने की मांग कर आए थे। पर अमर की दाल नहीं गली और ना ही सपा-कांग्रेस गठजोड़ हुआ। बाकी चुनाव नतीजे तो आपको याद ही होंगे। पर बात सपा की अमर कहानी की। जब कोई खुद को संगठन से बड़ा समझने लगे। तो वही समस्याएं होतीं, जो अमर के साथ हो रहीं। धन बल से अमर ने सपा में पैठ बना ली। पर मुगालता पाल लिया, बिन अमर सपा कुछ नहीं। खुद को सपा का खेवनहार मान बैठे। अब पूछ कम होने लगी। तो इस्तीफे का नाटक शुरू कर दिया। यों अमर सिंह कोई पहली बार इस्तीफा नहीं दे रहे। पहले भी दो बार ऐसा कर चुके। पर सोशलिस्ट मुलायम केपीटलिस्ट के चंगुल में। सो हर बार अमर को मना लेते। अबके भी मुलायम ने यही दावा किया। पर कहानी में थोड़ा ट्विस्ट। पहले अमर की नाराजगी का शिकार मुलायम परिवार से इतर कोई और हुआ। लोकसभा चुनाव के वक्त रामपुर सीट से आजम खान जया प्रदा को टिकट देने के खिलाफ थे। सो अमर-आजम में ठन गई। आखिर समाजवाद और पूंजीवाद की लड़ाई में अमर की ही जीत हुई। सपा के संस्थापकों में से एक रहे आजम विदा हो गए। आजम से पहले अमर की रार राज बब्बर से ठनी। तो राज बब्बर भी किनारे हो गए। पर उन्हीं राज बब्बर ने कांग्रेस का टिकट हासिल कर सपा के किले उखाड़ दिए। वैसे भी मुलायम सिंह के लिए अबके विवाद सुलझाना आसान नहीं। अमर के निशाने पर अबके राज बब्बर या आजम नहीं। अलबत्ता सीधे मुलायम के दुलारे और होशियार भाई रामगोपाल यादव। फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम की बहू डिंपल हार गईं। सपा की साख को बट्टïा लगा। तो अमर सिंह ने हार की वजह नेताजी और परिवार का अतिआत्मविश्वास बता दिया। सो मुलायम के भाई रामगोपाल ने अमर को हद में रहने की सलाह दी। आखिरकार मुलायम फिर अमर के घर गए। सुलह करा ली। पर अबके क्या होगा? अमर का ट्रैक रिकार्ड तो जगजाहिर। जिस परिवार में घुसे, परिवार को तोड़कर ही बाहर निकले। सो शायद रामगोपाल ने अमर को दरवाजा दिखाने की स्ट्रेटजी बना ली। तभी तो अमर का गुस्सा रामगोपाल तक ही घूमता दिखा। जब बोले- 'रामगोपाल को राष्टï्रीय प्रवक्ता बना दो। वही चुनाव जिताएंगे। रामगोपाल ने मुलायम-जनेश्वर को ही सपा का नेता बताया। मुझे अपना सहयोगी। पर मेरे नाम के आगे न श्री लगाया, न पीछे जी। सो मैं आहत हूं।' अब कोई श्री और जी के लिए इस्तीफे का ड्रामा करे। तो क्या कहेंगे आप? परिवार तोडऩे में अंबानी परिवार का किस्सा तो ताजा। एटमी डील पर मनमोहन सरकार को समर्थन दिया। तो डील की खासियत की वजह से नहीं। अलबत्ता अलग से 'राजनीतिक डील'  की थी। याद होगा, कैसे अमर ने मुकेश अंबानी पर दबाव बनाने के लिए विंड फाल टैक्स का सुर्रा छोड़ा था। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा और तबके वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की नाक में दम कर दिया। पीएम तक से मिल आए। पर कांग्रेस के आगे दाल नहीं गली। कांग्रेसी सत्यव्रत चतुर्वेदी ने तो कई बार अमर पर निशाना साधा। एक बार तो उन ने अमर को चिरकुट कह दिया। भन्नाए अमर ने फौरन मीडिया बुलाई। सीना फुलाकर बोले- 'हां मैं चिरकुट हूं।'  राज बब्बर ने दलाल कहा था। तब भी अमर ने इकरार किया। एटमी डील पर लेफ्ट ने मनमोहन का साथ छोड़ा। तो अमर-मुलायम ने लेफ्ट का साथ छोड़ मनमोहन का दामन थाम लिया। तो आडवाणी ने मौजूं टिप्पणी की थी। जब सपा के लिए 'लाल सलाम से दलाल सलाम तक' शब्द का इस्तेमाल किया। अमर की यही खासियत नहीं। याद है, 2004 में दस जनपथ से बेइज्जत होकर निकाले गए। कसमें खाईं, पर एटमी डील के वक्त सब भुला दिया। तभी तो कहा जाता- 'अमर प्रेम की अजब गाथा।'  अमर से दुश्मन से ज्यादा दोस्त ही सतर्क रहते। पता नहीं कब, कहां मुंह खुल जाए। तो क्या अब राजनीति में चिरकुटों और दलालों को भी नाम में श्री या जी का संबोधन चाहिए?
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06/01/2010

Tuesday, January 5, 2010

तेलंगाना: सांप-छछूंदर वाली हालत में कांग्रेस और सरकार

इंडिया गेट से
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तेलंगाना: सांप-छछूंदर वाली
हालत में कांग्रेस और सरकार
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 संतोष कुमार
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        तो तेलंगाना मुद्दे ने सरकार का तेल निकाल दिया। मंगलवार को ऑल पार्टी मीटिंग भी हो गई। पर आग बुझने का नाम नहीं ले रही। अलबत्ता तेलंगाना पर कांग्रेस और सरकार तिल-तिल फंसती जा रही। के. चंद्रशेखर राव की अनशन की हड़बड़ी में सरकार ने एलान तो कर दिया। पर दूरगामी प्रभाव नहीं भांप पाई। सो दबाव में फैसला लेकर अब नतीजा भुगत रही। जो आम राय का रोड मैप पहले तैयार होना चाहिए था। सरकार अब तैयार कर रही। पर जैसे हालात, सहमति की डोर कहीं दिखती नहीं। वैसे भी आम सहमति संभव नहीं। जब अलग-अलग वैचारिक ग्रुप ताकत दिखा रहे। तेलंगाना के मसले पर अलग-अलग दलों के बीच ही मतभेद नहीं। एक ही दल के भीतर भी कड़े मतभेद। कांग्रेस, तेलुगुदेशम, लेफ्ट फ्रंट और चिरंजीवी की प्रजा राज्यम। चारों में अंदर ही दो-फाड़। तेलंगाना रीजन से आने वाले नेता अलग राज्य की लड़ाई लड़ रहे। तो दूसरा पक्ष अखंड आंध्र की। सबके अपने-अपने निजी हित और स्वार्थ। सो आम सहमति के नाम पर तो न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। आम सहमति नहीं बनने वाली। फिर भी पी. चिदंबरम कवायद कर रहे। तो नतीजा वही होगा, जो मंगलवार को हुआ। मीटिंग शुरू हुई। तो चिदंबरम के चेहरे पर तेरह बजे थे। तेलंगाना पर खुफिया रपट चिदंबरम ने ही दस जनपथ पहुंचाई। फौरन किचन केबिनेट में विचार हुआ। तो सोनिया गांधी के सलाहकारों ने भी कोई खासी मशक्कत नहीं की। अलबत्ता नौ दिसंबर की रात को ही हड़बड़ी में केबिनेट बुलाकर अलग तेलंगाना की प्रक्रिया शुरू करने का एलान हो गया। एलान चूंकि चिदंबरम ने किया। रपट भी चिदंबरम ने दी। सो अब सारा ठीकरा चिदंबरम के सिर। कांग्रेस तो एक ही राग अलाप रही। तेलंगाना का मुद्दा सरकार के पाले में। सो अपनी बात सरकारी मंच पर कहेंगे। यानी कोल्हू में गर्दन फंसी। तो खुद कांग्रेस और सरकार का तेल निकल गया। सो मीटिंग में चिदंबरम ने संसदीय ज्ञान खूब बघारा। लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी का अहसास कराया। तो विधानसभा चुनाव के वक्त सभी दलों की तेलंगाना पर भूमिका भी याद दिलाई। वाकई तब चिरंजीवी हो या चंद्रबाबू, लेफ्ट हो या राइट। सब तेलंगाना के पक्ष में थे। कांग्रेस ने भी मैनीफेस्टो में वादा दोहराया था। अब सिर्फ बीजेपी में अलग तेलंगाना पर एक राय। बाकी सब आपस में ही बंटे हुए। सो चिदंबरम ने आंध्र में भड़की हिंसा पर चिंता जताई। राज्य में अमन-चैन बहाल हो, इसकी जिम्मेदारी सभी दलों पर डाल दी। कहा- 'अगर हम मामला नहीं सुलझा पाए, तो माओवादी खुश होंगे।'  फिर भी मीटिंग में तेलुगुदेशम के दो एम.पी. थे। तो एक तेलंगाना के पक्ष में, दूसरा विरोध में। कांग्रेसी नुमाइंदों का भी यही हाल। लेफ्ट फ्रंट में सीपीआई तेलंगाना के पक्ष में, तो सीपीएम विरोध में। एआईएमआईएम के ओबैसी न तीन में, न तेरह में। सो राष्टï्रपति राज की मांग की। प्रजा राज्यम ने एक हाई पॉवर कमेटी का सुझाव दिया। जो सभी ग्रुप से बात करे। पर बीजेपी के बंडारू दत्तात्रेय ने पहले कांग्रेस और सरकार से रुखनामा मांगा। फिर बजट सत्र में ही बिल लाने की मांग की। पर चिदंबरम को मीटिंग का कोई नतीजा नहीं दिखा। तो ऐसी बातचीत जारी रखने का सुर्रा छोड़ दिया। बोले- 'मुझे लगता है, कोई भी समूह आगे बातचीत के खिलाफ नहीं है।' पर बीजेपी ने फौरन आपत्ति जताई। तो सबसे अहम किरदार के. चंद्रशेखर राव ने मीटिंग में मुंह न खोला। केसीआर भांप चुके, बोतल से निकला जिन अब 'विश'  पूरी करके जाएगा। भले आज नहीं तो कल। यानी तेलंगाना के लिए केसीआर किरदार। तो अखंड आंध्र के नाम पर जगन मोहन का खेल चल रहा। वाईएसआर के जमाने वाली समूची उद्योग लॉबी जगन मोहन के साथ। सो जगन मोहन सीएम नहीं, तो कांग्रेस नहीं के खेल में जुटे हुए। यानी कुल मिलाकर चिदंबरम बाबू फंस गए। मुंबई हमले के बाद मनमोहन ने होम मिनिस्टर बनाया। तो चिदंबरम ने बाबूगिरी पर नकेल कस दी। शासन तंत्र को मुस्तैद कर दिया। पर तेलंगाना चिदंबरम के लिए पहला राजनीतिक टेस्ट। सो जल्दबाजी का फैसला गले की फांस बन गया। चिदंबरम ने ही तेलंगाना का एलान किया। फिर पखवाड़े भर बाद आम सहमति की दलील दी थी। सो चिदंबरम की हालत सांप-छछूंदर वाली हो गई। बड़े-बुजुर्ग तो सांप-छछूंदर पर मौजूं कहानी सुनाते। सांप को शाप मिला हुआ। अगर सांप छछूंदर को निगल जाए, तो भी मरेगा। अगर छोड़ दे, तो छछूंदर के काटने से भी सांप मरेगा। सो पेशे से वकील चिदंबरम राजनीति के कटघरे में फंस गए। चार घंटे मीटिंग चली। पर नतीजे में निकली कुल जमा चार शब्दों की अपील- 'राज्य में शांति, सौहार्द और कानून व्यवस्था बनाए रखी जाए।'  यानी आम सहमति को इन्हीं चार शब्दों की श्रद्धांजलि। अब भी अमन-चैन बहाल न हुआ। तो चिदंबरम का भविष्य क्या होगा?
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05/01/2010

Monday, January 4, 2010

मैडल वापसी काफी नहीं, 'राठौरों' से मुक्ति कब?

इंडिया गेट से
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मैडल वापसी काफी नहीं,
'राठौरों'  से मुक्ति कब?
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 संतोष कुमार
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          सोचो, मीडिया आवाज न उठाता। रुचिका केस में अदालती फैसले को दिन का घटनाक्रम मान आगे बढ़ जाता। तो क्या बात इतनी दूर तलक जाती? क्या 19 साल से कुंभकर्णी नींद सोई सरकार जागती? अब रुचिका के गुनहगार एसपीएस राठौर पर मुकदमों का बोझ। होम मिनिस्ट्री भी मैडल छीनने का फैसला कर चुकी। तो यह अपनी मीडिया की वाहवाही नहीं। अलबत्ता फर्ज के मुताबिक सजग प्रहरी की भूमिका निभाई। पर कटघरे में रसूख की राजनीति। आखिर जब तक जनता सड़कों पर नहीं उतरती। तब तक व्यवस्था के कान पर जूं क्यों नहीं रेंगती। अब होम सैक्रेट्री जी.के. पिल्लई की रहनुमाई वाली कमेटी ने मैडल वापस लेने की सिफारिश कर दी। तो हरियाणा के सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डïा की फुर्ती देखिए। इधर कमेटी की मीटिंग में फैसला होना था। उधर तड़के ही हुड्डïा की चि_ïी चिदंबरम को पहुंच गई। मैडल वापस लेने की अर्जी लगा दी। पर हुड्डïा कोई नवा-नवा सीएम नहीं। पांच साल से हरियाणा की कुर्सी पर काबिज। पर राठौर के खिलाफ सिफारिश तब भेजी। जब केंद्र सरकार मैडल छीनने का मन बना चुकी थी। पर अहम सवाल, मैडल छीनने से क्या होगा? इन 19 साल में हरियाणा और केंद्र में कई सरकारें आईं-गईं। पर राठौर के चेहरे से मुस्कराहट नहीं गई। जब 1990 में रुचिका के साथ छेड़छाड़ का मामला आया। तो तबके डीजीपी आर.आर. सिंह की विभागीय जांच में राठौर दोषी पाए गए। पर राठौर की राजनीतिक पकड़ ने बाल बांका न होने दिया। अब 19 साल बाद पदक छीनने से क्या रुचिका के परिवार को शांति मिलेगी? संसद पर हमले के शहीदों के परिजनों ने दो साल पहले मैडल राष्टï्रपति के लौटा दिए। पर सरकार की बेशर्मी देखिए। न आतंकी अफजल को फांसी चढ़ाई। न शहीदों के परिजनों को कोई ऐसा भरोसा दिलाया, जिससे मैडल वापस ले सकें। यानी सरकार की निगाह में मैडल अहमियत नहीं रखते। आखिर मैडल और सम्मान को सरकार झुनझुने के तौर पर इस्तेमाल करती। वैसे भी मैडल बांटने के सिर्फ दो पैमाने। पहला- सत्ता की चारणगिरी। दूसरा- सहानुभूति बटोरने और उपलब्धियां भुनाने की। भले सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो। अब आप खुद ही देख लो। जब वाजपेयी पीएम थे। डा. चितरंजन राणावत ने घुटने का आपरेशन किया। तो राणावत को पद्म श्री मिल गया। राणावत की काबिलियत पर सवाल नहीं। सवाल सरकार के इरादे पर। क्या पीएम के घुटने का आपरेशन पद्म श्री का पैमाना? अगर ऐसा, तो अबके 26 जनवरी पर पीएम मनमोहन की हर्ट सर्जरी करने वाले डाक्टर को क्यों न मिले पद्म श्री? अभी हाल का किस्सा लो। तो प्रख्यात कवि अशोक चक्रधर ने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खूब स्लोगन रचे। सो चुनाव बाद कांग्रेस ने चक्रधर को हिंदी अकादमी दिल्ली का उपाध्यक्ष बना दिया। पर काफी विरोध हुआ। कई बड़े लोगों ने इस्तीफा दे दिया। तो भी सरकार ने फैसला पलटा नहीं। अलबत्ता चक्रधर को एक और हिंदी संस्थान का अध्यक्ष बना दिया। अब दो-तीन साल पहले का एक अजीब-ओ-गरीब किस्सा भी देख लो। छत्तीसगढ़ में एक ऐसे शिक्षक को राष्टï्रपति पुरस्कार मिला। जो आठ साल से स्कूल ही नहीं गए। अलबत्ता पदस्थापना के तौर पर सीएम सैक्रेटेरिएट में रहे। सो सीएम से नजदीकी ने राष्टï्रपति पुरस्कार दिला दिया। गुजरात के डी.जी. बंजारा फर्जी एनकाउंटर कर मैडल पाते गए। पर अपनी सरकार कभी पानी बाबा के नाम से मशहूर राजेंद्र सिंह जैसे लोगों के बारे में नहीं सोचती। भले राजेंद्र सिंह को मैग्सेसे पुरस्कार किसी अन्य देश से क्यों न मिल जाए। सहानुभूति के लिए शहीदों के परिजनों को अवार्ड देना तो परंपरा बन गई। पर उपलब्धियां भुनाने को भी हरभजन, धोनी जैसों को पद्म श्री मिल जाता। भले विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त धोनी-हरभजन के पास देश का नागरिक सम्मान लेने की फुरसत न हो। पर राजनीति और अफसरशाही में चोली-दामन का ऐसा रिश्ता बन चुका। जो एक-दूसरे के बिना नंगा दिखे। सो नेता को भी रसूख चाहिए। अफसरशाही को भी राजनीतिक वरदहस्त। सो दोनों मिल-बांट कर रेवड़ी खाते। अपने-अपनों को मैडल और सम्मान दिला जाते। पर उंगली न उठे, सो एकाध बाबा आम्टे जैसे लोगों को भी सम्मान दिया जाता। ताकि एक ईमानदार-योग्य की छतरी में सारे बेईमान समा जाएं। अफसरानों में किसी एक राजनेता को गॉड फादर मानकर उसके इशारों पर चलने की आदत। सो राजनीतिक कमिटेड अफसरों को ईमानदार और योग्य अफसरों की वरिष्ठïता लांघकर पुरस्कृत करने का भी चलन आम। तभी तो खुद अफसर रहे देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन ने अपनी अफसरशाही को 'पॉलिश्ड कॉल गल्र्स'  की उपाधि दी थी। आजादी से पहले और अबकी अफसरशाही में कोई खास फर्क नहीं। सो चालाक अफसरान स्पष्टïवादिता के बजाए 'जी हुजूरी'  से नहीं हिचकिचाते। तभी तो पुलिस रिफॉर्म की फाइल धूल फांक रही। आतंकी पुलिस की नाक के नीचे से भाग रहे। पर सिर्फ पुलिस मैडल ही नहीं, अपना सर्वोच्च राष्टï्रीय सम्मान भारत रत्न भी राजनीति से सराबोर। तभी तो इंदिरा गांधी को 1971 में राजीव गांधी को मरणोपरांत 1991 में ही भारत रत्न मिल गया। पर सरदार पटेल को 1991 में, मौलाना अबुल कलाम आजाद को 1992 में। सुभाष चंद्र बोस को भी 1992 में नवाजा गया। पर सुप्रीम कोर्ट के दखल से नेताजी का नाम लिस्ट से हटाना पड़ा।
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04/01/2010

Friday, January 1, 2010

कांग्रेस मार रही खर्राटे, बीजेपी करेगी पहरेदारी

इंडिया गेट से
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कांग्रेस मार रही खर्राटे,
बीजेपी करेगी पहरेदारी
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 संतोष कुमार
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       नया साल आया, तो नई शुरुआत भी होगी। सो बीजेपी ने संकल्प लिया। अब संकल्प नया या पुराना, आगे बात करेंगे। पर बीजेपी वॉचडॉग की भूमिका निभाएगी। यों आडवाणी मनमोहन की दूसरी पारी में अपने सांसदों की सक्रियता पर खूब पीठ ठोक चुके। सो अबकी भूमिका में नया अंदाज क्या होगा, मालूम नहीं। पर बीजेपी दस का दम दिखाएगी। नए साल में सरकार पर निगाह रखने को दस मुद्दे तय हो गए। सो आप भी मुद्दे देख लो। पहला- महंगाई, जो कांग्रेस राज में खूब तेजी से बढ़ी। पर सरकार रोकने में नाकाम। संसद में बहस हुई। तो गिन-गिनाकर बहस के वक्त सदन में 17 सांसद दिखे। यानी विपक्ष हो या सत्तापक्ष। जनता के मुद्दों में किसका कितना इंटरेस्ट, आप सबको बखूबी मालूम। दूसरा- आतंकवाद और नक्सलवाद। तीसरा- पाकिस्तान से संबंध की नीति। चौथा- रंगनाथ मिश्र रपट। जिस पर सरकार ढाई साल बाद भी एटीआर पेश करने की हिमाकत नहीं दिखा सकी। पर खुद एनडीए में रंगनाथ रपट पर एक राय नहीं। सो बीजेपी अपने एजंडे पर खेलेगी। यानी बीजेपी की दलील, अगर रपट पर अमल हुआ। तो एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण अधिकार कम होंगे। पांचवां- महिला आरक्षण बिल। जिस पर संसद का बहुमत तो साथ, पर आम सहमति नहीं। सो गेंद सरकार के पाले में। पर बीजेपी भला अकेली कांग्रेस को क्रेडिट क्यों लेने दे। सो गाहे-ब-गाहे मुद्दा उठाएगी। छठा- सिख विरोधी दंगों के आरोपियों पर कार्रवाई। बीते साल के आखिरी दिन सरकार ने सज्जन कुमार के खिलाफ केस चलाने की हरी झंडी दे दी। पर जगदीश टाइटलर की तकदीर का फैसला नहीं। वैसे भी टाइटलर अब बिहार कांग्रेस के प्रभारी। जहां राहुल गांधी का फार्मूला लागू होने वाला। इसी साल बिहार विधानसभा का चुनाव होगा। तो नीतिश की अग्रि परीक्षा होगी। दूसरी तरफ लालू-पासवान की जमीन के लिए जद्दोजहद। पर यूपी में कांग्रेस का जीर्णोद्धार कर चुके राहुल अब बिहार का रुख करेंगे। यों बिहार में बीजेपी की राह भी आसान नहीं। जब उड़ीसा में बीजू जनता दल से बीजेपी का गठजोड़ टूटा। तो खुद बीजेपी के नेताओं ने यही हश्र बिहार में होने का अंदेशा जताया। सो सीटों का तालमेल नीतिश और बीजेपी का रिश्ता तय करेगा। सातवां- कश्मीर की स्वायत्तता की फिर से उठ रही मांग। यों स्वायत्तता की मांग कोई नई बात नहीं। नेशनल कांफ्रेंस ने 1996 के विधानसभा चुनाव में स्वायत्तता को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया। दो तिहाई बहुमत से सत्ता में आई। तो इस मसले पर डा. कर्ण सिंह की रहनुमाई में कमेटी बना दी। बाद में कमेटी की सिफारिशों पर राज्य विधानसभा ने स्वायत्तता प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा। पर एनडीए की सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस की सरकार होने के बाद भी केंद्र सरकार ने चार जुलाई 2000 को स्वायत्तता प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। प्रस्ताव को देश की एकता के खिलाफ बताया गया। अब फिर जम्मू-कश्मीर में एनसी की सरकार। अबके भी फारुक अब्दुल्ला केंद्र सरकार में साझीदार। आठवां- किसान समस्या। नौवां- तेलंगाना। जिसकी आग नहीं बुझ रही। और आखिरी- सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों पर निगरानी। ताकि कहीं चूक हो, तो सरकार को बेनकाब कर सकें। यों बीजेपी ने जिम्मेदार विपक्ष के नाते संसद में इन मुद्दों पर सरकार को सुझाव देने का भी एलान किया। अब आपने दस का दम देख लिया होगा। सो सोचो, ऐसे कौन से मुद्दे, जिन पर बीजेपी ने बीते साल सवाल नहीं उठाए? कुल मिलाकर बीजेपी में नएपन की उमंग। सो साफ-सफाई कर पुराने मुद्दे को ही नए साल का संकल्प बना लिया। पर बीजेपी खुद के झगड़ों से कितना दूर रह पाएगी। नितिन गडकरी ने चापलूसी और गुलदस्ते पर पाबंदी लगाई। पर नंबर बढ़ाने वाले कहां मानते। तभी तो साहिब सिंह के बेटे प्रवेश वर्मा ने गडकरी को चांदी का मुकुट पहना दिया। गडकरी ने खुशी-खुशी पहन भी लिया। अब खुद गडकरी ने नई बात कह दी। यों मीडिया से दूरी बनाने की बात कर रहे थे। पर दिल्ली में नए-नए। सो पहचान बढ़ाने में जुटे। एक टीवी इंटरव्यू में खुलासा कर दिया। आडवाणी तो नरेंद्र मोदी को अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे। पर मोदी ने दिल्ली आने से इनकार कर दिया। अब गडकरी उवाच आडवाणी की सत्ता को चुनौती या कुछ और। यह तो गडकरी और मोहन भागवत ही जानें। पर असली खेल तब शुरू होगा। जब गडकरी अपनी नई टीम का एलान कर देंगे। तभी मालूम पड़ेगा, बीजेपी मनमोहन सरकार को दस का दम दिखाएगी। या अपने झगड़ों में दम तोड़ेगी। पर नया अध्यक्ष, नया साल। सो बीजेपी नई-नई दिख रही। अब नए साल के संकल्प पर वाकई बीजेपी आगे बढ़े। तो वॉचडॉग कहलाए। अपने लेफ्ट वालों के पास अब कुछ बचा नहीं। सो कोई संकल्प नहीं लिया। पर पीएम को चि_ïी लिख दी। ताकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती 23 जनवरी को देश प्रेम दिवस घोषित किया जा सके। अब कोई पूछे, जब मनमोहन सरकार को पिछले टर्म में लेफ्टिए उंगली पर नचा रहे थे। तब ऐसा क्यों नहीं कराया? अब बंगाल में डूब रहे। तो नदी किनारे लोटा लेकर नहा रहे। पर कांग्रेस को देखिए। नया साल था। तो सोनिया गांधी सपरिवार लक्षद्वीप में छुट्टïी मना रहीं। सो संकल्प कौन लेगा। वैसे भी कांग्रेस का सितारा खुद-ब-खुद बुलंद हो रहा। तो नए संकल्प की क्या जरूरत। यानी न्यू ईयर रिजोल्यूशन- कांग्रेस मार रही खर्राटे, बीजेपी करेगी पहरेदारी।
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01/01/2010