Friday, April 30, 2010

दो दिन की फजीहत, फिर मौजां ही मौजां

एक मशहूर कहावत है- भानुमती ने खसम किया, बुरा किया। करके छोड़ा, उससे बुरा किया। छोडक़र फिर पकड़ा, ये तो कमाल ही किया। अब बीजेपी बुरा न माने, पर झारखंड में बीजेपी-झामुमो का रिश्ता कुछ ऐसा ही हो गया। जब शिबू संग दिसंबर में बीजेपी ने गलबहियां कीं। तो राजीव प्रताप रूड़ी जैसे कइयों ने आपत्ति जताई थी। पर तब बीजेपी ने सभी रूडिय़ों की राय को निजी बता खारिज कर दिया। अबके कट मोशन में शिबू ने दगा किया। तो बीजेपी दगाबाज बता दूर हो गई। समर्थन वापसी का फैसला बुधवार को हुआ। शुक्रवार आते-आते फैसला टल गया। बीजेपी ने जनता के हित में लिया समर्थन वापसी का फैसला अपने हित की खातिर होल्ड पर रख दिया। अब होल्ड तो सिर्फ दिखावा। असल में फैसला रद्द समझिए। अब झारखंड में सिर्फ नेतृत्व परिवर्तन होगा, गठबंधन में कोई बदलाव नहीं। बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड शुक्रवार को फिर बैठा। तो सहमति बन गई, नए फार्मूले पर सरकार बनाई जाए। सो अब कोई शक नहीं, शिबू की झामुमो के सहयोग से बीजेपी अपना सीएम बनाएगी। पर बाप-बेटा गच्चा न दे जाएं, सो पहले दो-टूक बात करने का फैसला हुआ। अब शनिवार को बीजेपी के रणनीतिकार बाप-बेटे से बात करेंगे। फिर बीजेपी स्टेट यूनिट के साथ शिबू-हेमंत बैठेंगे। आमने-सामने की बातचीत में मंत्रालयों की बंदरबांट होगी। ताकि शिबू बहुमत साबित करने से पहले देवगौड़ा की तरह ही कोई तेरह सूत्री फार्मूला न थमा दें। कर्नाटक में देवगौड़ा ने येदुरप्पा को सीएम बनवा दिया। पर विश्वासमत से पहले राजनाथ को तेरह सूत्री शर्त भेज दी। सो सात दिन में ही येदुरप्पा की सरकार गिर गई थी। अब कहीं शपथ ग्रहण के बाद शिबू-हेमंत ने कोई नई शर्त रख दी। तो अभी ही ऊहापोह में फंसी बीजेपी का तब क्या होगा। सो हर कदम फूंक-फूंक कर रख रही। शनिवार को शिबू-हेमंत के अलावा सभी सहयोगियों से भी बात होगी। नई सरकार का पूरा रोड मैप बनेगा। ताकि बीजेपी की रहनुमाई में बनने वाली सरकार अस्थिरता के भंवर में फंसी न रहे। बीजेपी ने जिस शिबू को विश्वासघाती बताया। अब उन पर उतना ही एतबार। बीजेपी को लग रहा, अपना सीएम बना, तो शिबू अपने बेटे हेमंत को डिप्टी सीएम बनवाएंगे। यानी शिबू को अपने बेटे के राजनीतिक कैरियर की फिक्र होगी। सो सरकार की स्थिरता बनी रहेगी। पर झामुमो के दो बड़े नेताओं ने वीटो लगा दिया। साइमन मरांडी और टेकलाल महतो एनडीए के साथ जाने के खिलाफ। दोनों ने एलान कर दिया, हम यूपीए के साथ सरकार चाहते हैं। शिबू के वोट का मतलब भी यही बताया। पर शिबू की असली रणनीति कुछ और थी। शिबू को अपनी खातिर कोई सीट नहीं मिल रही थी। सो यूपीए को पटाने की कोशिश की। अपनी मर्जी से सरकार के पक्ष में वोट किया। ताकि कांग्रेस गदगद हो अपनी गोद में बिठा ले। फिर झारखंड में बेटा, तो केंद्र में अपनी बात बन जाए। पर कांग्रेस ने भाव नहीं दिया। वैसे भी एक-दो वोट से सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था। सो कांग्रेस ने बेवजह आफत मोल लेना मुफीद न समझा। अब शिबू-हेमंत करते क्या, सो उलटे पांव लौट आए। बीजेपी से मिन्नतें शुरू कर दीं। सीएम की कुर्सी का ऑफर बीजेपी भी ठुकरा नहीं पाई। पर मुश्किल, साइमन और टेकलाल का टेक कैसे हटाए। अब भले मंत्री पद की रेवड़ी से टेक हट जाए। अर्जुन मुंडा या यशवंत सिन्हा में से कोई सीएम हो जाएं। पर बीजेपी जनता और अपने वर्करों को कैसे समझाएगी। आखिर मंगलवार को कट मोशन पर मुंह की खाई। तो बुधवार को शिबू से समर्थन वापसी की चाल चल दी। गुरुवार को गवर्नर से मिलने का टाइम तीन बार बदला। फिर भी समर्थन वापसी की चिट्ठी नहीं सौंप चरित्र दिखा दिया। आखिर में शुक्रवार को चेहरा भी साफ हो गया। जब पार्लियामेंट्री बोर्ड ने अपना ही फैसला रोक लिया। सो शुक्रवार को जब अनंत कुमार ने यह एलान किया, समर्थन वापसी का फैसला होल्ड पर। तो लगा, अपने देश के मतदाता बहुत पहले मैच्योर हो चुके। बीजेपी ने तो जनहित का फैसला होल्ड पर रखा। पर जनता तो बीजेपी को पहले ही होल्ड कर चुकी। छह साल सत्ता में बिठाकर पार्टी विद डिफरेंस देख लिया। सो 2004 के बाद 2009 में भी जनता ने विपक्षी बैंच पर ही होल्ड कर दिया। अब बीजेपी भी जनता के जुल्म-ओ-सितम कब तक सहती। सो बाहरी आवरण उतार दिया। झारखंड में 36 से 30, 30 से 18 सीट पर आ गई। फिर भी कह रही, जनता चाह रही, झारखंड में सरकार बनाए। पर जरा शुक्रवार को हुए पार्लियामेंट्री बोर्ड की कहानी बताते जाएं। आला नेता इस बात को तो राजी थे, अपनी सरकार बन जाए। पर झमेला यही, बुधवार का फैसला शुक्रवार को ही कैसे पलट दें। मीडिया में होने वाली किरकिरी भारी पड़ेगी। सो झारखंड के झमेले पर बोर्ड के सामने तीन बातें रखी गईं। फैसला पलटने से होने वाली फजीहत, शिबू-हेमंत की चिट्ठी और सरकार गठन का नया फार्मूला। आखिर में जब सबने राय दी, तो निचोड़ यही निकला। भले दो-चार दिन मीडिया में फजीहत हो, पर सीएम की कुर्सी नहीं छोडऩी चाहिए। जब सरकार बन जाएगी, तो मीडिया और लोग भूल जाएंगे। आखिर संपादकीय से अपनी राजनीति नहीं चलाई जा सकती। तो समझ गए ना आप। यही है बीजेपी की नई थ्योरी। दो दिन की फजीहत, फिर कुर्सी पर बैठ मौजां ही मौजां। चाल, चरित्र, चेहरा तो 1980 के दशक की बात।
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30/04/2010

Thursday, April 29, 2010

कभी बीजेपी भी चाल, चरित्र, चेहरे वाली पार्टी थी!

आखिर वही हुआ, जो बीजेपी की कहानी में हमेशा होता आया। बीजेपी ने फिर साबित कर दिया, सत्ता के आगे नीति, नैतिकता, सिद्धांत कुछ भी नहीं। कर्नाटक में जो एच. डी. देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी ने अक्टूबर 2007 में किया। अब शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन कर रहे। सो बाप को किनारे कर अपनी सियासत चमकाने में जुट गए। राजनीति का ऐसा पासा फेंका, आम आदमी के हित की बजाए कुर्सी दिखने लगी। सो समर्थन खींचने की धमकी महज घुडक़ी बनकर रह गई। सीएम की कुर्सी का लॉलीपॉप देख बीजेपी के मुंह से लार टपकने लगी। सो बुधवार को किए फैसले पर गुरुवार को भी अमल नहीं कर पाई। बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड ने इमरजेंसी मीटिंग बुला फैसला तो ले लिया। पर अमल के बजाए सौदेबाजी कर रही। हेमंत सोरेन ने ऐसा फार्मूला दिया, न उगले बन रहा, न निगले। सो गुरुवार को समर्थन वापसी पर बीजेपी ने भरपूर ड्रामा किया। पहले कहा, गवर्नर को 11 बजे मिलकर समर्थन वापसी की चिट्ठी देंगे। फिर एलान हुआ, सभी एमएलए पांच बजे गवर्नर से मिलेंगे। फिर सात बजे और अब मामला शुक्रवार के लिए टल गया। अब कोई पूछे, समर्थन वापसी की चिट्ठी देने में काहे की ड्रामेबाजी। अगर जनता के हित में सरकार की कुर्बानी देने का फैसला किया। तो उसी झामुमो के समर्थन से खुद की सरकार बनाने में क्यों जुटी? हेमंत सोरेन ने यही फार्मूला दिया है बीजेपी को। हेमंत ने बुधवार ही लोकसभा में शिबू के वोट को मानवीय भूल बताया था। तो गुरुवार को बाप से बीजेपी को चिट्ठी भिजवा दी। शिबू ने मुख्यमंत्री के लेटर हैड पर नितिन गडकरी और सुषमा स्वराज को माफीनामा भेजा। लोकसभा में वोट को खराब तबियत की वजह से मानवीय भूल बताया। एनडीए के साथ रहने की प्रतिबद्धता दोहराई। झारखंड के गठन में एनडीए की भूमिका का मक्खन भी लगाया। पर बीजेपी का दिल चिट्ठी से नहीं पसीजा। अलबत्ता हेमंत के फार्मूले ने गदगद कर दिया। यानी झारखंड में बीजेपी का सीएम होगा। दौड़ में यशवंत सिन्हा, अर्जुन मुंडा, रघुवर दास का नाम भी आ गया। यों अब तक यशवंत ही आगे। अब दूसरा फार्मूला भी चल रहा। बीजेपी इस फार्मूले से दोहरी रणनीति साधना चाह रही। बाबूलाल मरांडी को सीएम बनाने का ऑफर। बाकी बीजेपी-झामुमो समर्थन करें। ऐसे में बीजेपी को अपना बिछुड़ा हुआ साथी भी मिल जाएगा। शिबू से दुबारा हाथ मिलाने से भद्द भी नहीं पिटेगी। पर मरांडी झारखंड में बीजेपी को औकात में ला चुके। सो फिलहाल मरांडी बीजेपी के झांसे में फंसते नहीं दिख रहे। पर बीजेपी अपने ही जाल में फंस गई। अब किस मुंह से दुबारा शिबू की झामुमो से हाथ मिलाए। यों बीजेपी नए फॉर्मूले में दलील दे सकती, देखो, शिबू से एतराज था। सो शिबू को हटा राज्य की जनता के हित में नई सरकार बनाई। हेमंत ने फार्मूले में कुछ ऐसी ही दलील दी। ताकि बीजेपी कह सके, शिबू लोकसभा के सांसद हैं। झारखंड की सत्ता से कोई सरोकार नहीं। पर झारखंड में शिबू के बिना हेमंत की राजनीतिक हैसियत ही क्या। अब दलीलें कुछ भी हों, पर गुरुवार को पेच कहां फंस गया। चिट्ठी सौंपने में अब-तब का खेल चलता रहा। तो इधर बीजेपी झामुमो की ओर से ठोस प्रस्ताव की बाट जोहती रही। सत्ता लोलुपता ने बीजेपी को तकनकी दांव-पेच में फंसा दिया। अगर बीजेपी सीधे गवर्नर को समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंप देती। तो गवर्नर दूसरे पक्ष कांग्रेस को बुलाकर पूछते। और फिर राष्ट्रपति राज की सिफारिश हो जाती। सो सत्ता के लालच में गवर्नर से मिलने का टाइम बदलता रहा। फार्मूला बन रहा था, बीजेपी समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंपेगी। तो झामुमो हाथोंहाथ नेतृत्व परिवर्तन की। पर अब अगर शुक्रवार को झामुमो ने हेमंत सोरेन के फार्मूले को पार्टी के प्रस्ताव के तौर पर भेजा। तो पहले बीजेपी पार्लियामेंट्री बोर्ड बैठेगा। फिर बीजेपी समर्थन वापसी की नहीं, शायद नेतृत्व परिवर्तन की चिट्ठी सौंपेगी। गुरुवार को सुबह से लेकर रात तक बीजेपी झारखंड के झूले में ही झूलती रही। दो बार कोर ग्रुप की मीटिंग हुई। अनौपचारिक बैठकें तो अनगिनत हुईं। अब बीजेपी के इस हाई वोल्टेज ड्रामे को क्या कहेंगे आप। शिबू को विश्वासघाती बताया। पर क्या सीएम की कुर्सी मिलने से अब शिबू विश्वासपात्र हो जाएंगे? बीजेपी के एक बड़े नेता ने आज कहा- हमारा मुंह तो खुला हुआ है। अगर सामने भोजन रखा जाएगा, तो हम क्यों नहीं खाएंगे। यही बात 28 अक्टूबर 2007 को बीजेपी के एक नेता ने कही थी। कहा था- हवन तीन बजे न सही, छह बजे ही। जेडीएस ने हमारी बात मान ली, सो हम भी तो कोई सन्यासी नहीं। आखिर राजनीति इसीलिए तो कर रहे। क्या यही पार्टी विद डिफरेंस वाली बीजेपी? कल जिसे विश्वासघाती बताया, आज उसी से गलबहियां। आखिर यह राजनीति का कैसा चरित्र? कांग्रेस तो सत्ता की राजनीति करती ही रही। पर बीजेपी खुद को चाल, चरित्र, चेहरे वाली बताती रही। फिर भी बीजेपी के ड्रामे में एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी सीरियल से भी अधिक ट्विस्ट। अब कहीं बीजेपी पर एकता कोई सीरियल बनाए। तो शायद यह टाइटल मौजूं होगा- कभी बीजेपी भी चाल, चरित्र, चेहरे वाली पार्टी थी। अब सोचो, बीजेपी को अधर में लटका कल देवगौड़ा की तरह शिबू-हेमंत किसी नई सौदेबाजी पर उतर आएं, तो हैरत नहीं।
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29/04/2010

Wednesday, April 28, 2010

यही होगा, जब अटल बिहारी की बीजेपी में हों गगन विहारी

तो वाजपेयी को दिया बर्थ-डे गिफ्ट बीजेपी ने वापस ले लिया। चार महीने पहले 25 दिसंबर को ही बीजेपी-झामुमो गठबंधन का एलान हुआ था। तो सत्ता की खातिर हुए समझौते को बीजेपी ने वाजपेयी को तोहफा बताया। पर हनीमून पीरियड में ही तलाक हो गया। बीजेपी सचमुच कटी पतंग हो गई। कट मोशन पर मुंह की तो खाई ही, अब झारखंड में बेवक्त सरकार गई सो अलग। यानी खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। शिबू सोरेन को वोट के लिए बीजेपी ने बुलावा भेजा था। पर शिबू ने मनमोहन को वोट दे दिया। जैसे महाभारत में नकुल-सहदेव के मामा शल्य आए तो थे पांडवों की ओर से लडऩे। पर बीच रास्ते में दुर्योधन ने ऐसी आवभगत की। शल्य भ्रमित हो गए और बाद में कौरवों की ओर से लडऩा पड़ा। अब जब महाभारत युग में ऐसी भूल हुई, तो कलियुग में शिबू ने क्या गुनाह कर दिया। अब मनमोहन सरकार में कोयला मंत्री रह चुके। दिल्ली आए होंगे, तो कुछ पुरानी दोस्ती से आवभगत हो गई होगी। सो शिबू भूल गए होंगे, सीएम रहते संसद में क्या करने आए। चार महीने से शिबू को विधायकी की खातिर कोई सीट नहीं मिली। सो सांसदी अब तक नहीं छोड़ी। ऐसे में तो कोई भी कनफ्यूज हो जाएगा। सो शिबू ने मनमोहन के पक्ष में बटन दबा दिया। बीजेपी ने देखा, तो फौरन निशिकांत दुबे भेजे गए। सो शिबू ने कह दिया- जो हो गया, सो ठीक। पर बीजेपी का पारा चढऩे लगा। तो बुधवार को शिबू ने कहा- ऐसे ही हो गया। शिबू के बेटे हेमंत ने सफाई दी- भूलने की बीमारी, सो मानवीय भूल हो गई। पर जब मंगलवार को लोकसभा में मशीन खराब होने की वजह से परची से वोट पड़े। तो शिबू ने मांगकर मनमोहन के समर्थन वाली लाल परची ली। तो क्या इसे कलर ब्लाइंडनेस कहें? पर शिबू सोरेन की बात छोडि़ए। शिबू के पैंतरों के कहने ही क्या। शिबू को तो आज नहीं, दो महीने बाद ही सही, जाना ही था। पर बीजेपी के बारे में क्या कहें। क्या बीजेपी भी अल्जाइमर की मरीज? शिबू ने खिलाफ वोट किया। तो बीजेपी ने विश्वासघाती बता समर्थन खींच लिया। पार्लियामेंट्री बोर्ड की इमरजेंसी मीटिंग बुला फैसला हुआ। तो संदेश दे रही, महंगाई के मुद्दे पर समझौता नहीं। पर क्या सचमुच महंगाई की खातिर बीजेपी ने झारखंड में सरकार की शहादत दी? या खुद कट मोशन की बलि चढ़ गई? पर अब बीजेपी को शिबू विश्वासघाती दिख रहे। तो कोई पूछे, विश्वासपात्र कब दिखे? आखिर कितने घात खाने के बाद बीजेपी को विश्वासपात्र और विश्वासघाती में फर्क दिखेगा? या कहीं ऐसा तो नहीं, बीजेपी को दुलत्ती खाने की आदत पड़ चुकी। सनद रहे, सो बताते जाएं। कर्नाटक की पिछली विधानसभा की तस्वीर याद करिए। पहले बीस महीने कांग्रेस-देवगौड़ा ने सरकार चलाई। पर बाद में देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी ने बीजेपी से गठजोड़ किया। सत्ता की खातिर बीजेपी ने सिद्धांत ताक पर रख दिए। पर बीस महीने सीएम रहने के बाद कुमारस्वामी ने बीजेपी को कुर्सी ट्रांसफर नहीं की। तो बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने तब बोर्ड के फैसले का एलान किया था। देवगौड़ा को भी ऐसे ही विश्वासघाती बताया। सो कर्नाटक में राष्ट्रपति राज लगा। पर बीस दिन बाद ही बीजेपी-देवगौड़ा एक हो गए। भले सरकार हफ्ते भर में ही गिर गई। पर तब बीजेपी के एक बड़े नेता ने मौजूं टिप्पणी की थी। कहा था- हवन तीन बजे न सही, छह बजे हो। जेडीएस ने हमारी बात मान ली, सो हम भी कोई सन्यासी नहीं। आखिर राजनीति इसीलिए तो कर रहे। अब कोई पूछे, जब सत्ता ही सब कुछ। तो चाल, चरित्र, चेहरा और पार्टी विद डिफरेंस का ढकोसला क्यों? क्यों नहीं सिद्धांत का चोला फेंक कह देती, राजनीति में सब जायज। सिर्फ कर्नाटक नहीं, यूपी में मायावती को बीजेपी ने ही सीएम की कुर्सी तक पहुंचाया। पर वक्त आने पर माया ने बीजेपी को औकात दिखा दी। सो यूपी में आज माया कहां और बीजेपी कहां, जगजाहिर। हरियाणा में चौटाला से ऐसे ही मौकापरस्ती की दोस्ती और दुश्मनी। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने कैसे धूल चटाई, सबको पता। तब बीजेपी मुगालते में थी, उड़ीसा में नवीन का ताज छिनेगा। पर जनता ने चुनाव में बैसाखी ही तोड़ दी और नवीन पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौट आए। अब ताजा किस्सा शिबू सोरेन का। तो सुषमा कह रहीं- आडवाणी तो सीएम शिबू को बुलाने के हक में नहीं थे। पर शिबू खुद आ गए। अब इस झूठ को क्या कहें। एस.एस. आहलूवालिया ने सोमवार को एनडीए मीटिंग के बाद प्रेस कांफ्रेंस में एलान किया था- एनडीए के 153 सदस्यों को सदन में लाने का बंदोबस्त हो रहा। जिसमें सीएम शिबू और उनके ही जेल में बंद सांसद कामेश्वर बैठा भी शामिल। पर अब सवाल शिबू और झारखंड का नहीं। सवाल, कितने घात खाकर सुधरेगी बीजेपी? वर्करों की भावना से खेल झारखंड में सरकार बनाई थी। तब राजनाथ बीजेपी की स्टेयरिंग छोड़ चुके थे। गडकरी ने कुर्सी संभाल ली थी। सो दोनों को वर्कर नहीं, अपना रिकार्ड बनाने की फिक्र थी। गठबंधन बनाकर चलाना कोई गिल्ली-डंडे का खेल नहीं। वाजपेयी ने पहली बार में ही 22 दलों का इंद्रधनुषी गठबंधन बनाकर उसे बखूबी चलाया था। पर अब बीजेपी में वाजपेयी जैसे साख वाले नेता ही नहीं। अलबत्ता अटल बिहारी की बीजेपी में गगन विहारी की पूरी जमात जम चुकी। जिनका आपस में ही अहं टकराता, किसी का एक-दूसरे से सामंजस्य नहीं। हालत ऐसी हो चुकी, छोटा सा फैसला लेने में अब महीने नहीं, साल लग रहे। ऐसे में गठबंधन के दल क्या खाक साथ रहेंगे।
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28/04/2010

Tuesday, April 27, 2010

'तो जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है'

तो मंगलवार का दिन सरकार के लिए मंगलमय हो गया। सिख विरोधी दंगे में सीबीआई ने आखिर जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट दिला ही दी। वाकई सीबीआई बड़े काम की चीज। तभी तो लोकसभा में विपक्ष का कट मोशन औंधे मुंह गिरा। महंगाई के मुंह में अब सेक्युलरिज्म घुस गया। सो विपक्षी एकता ढहनी ही थी। पर कट मोशन इतनी कटुता पैदा कर जाएगा, उम्मीद नहीं थी। लालू-मुलायम ने लोकसभा में ऐसा रंग बदला, गिरगिट भी देखकर शर्मसार हो जाए। आम बजट के दिन यही लालू-मुलायम सेक्युलरिज्म को किनारे रख आम आदमी की दुहाई दे रहे थे। संसद से सडक़ तक सरकार की सिट्टी-पिट्टी गुम करने की कसमें खाईं। पर अब लालू-मुलायम को याद आ गया, बीजेपी तो सांप्रदायिक पार्टी। सो लेफ्ट को चुनौती दी। बीजेपी संग वोट नहीं करो, तो सरकार के खिलाफ हम भी वोट करेंगे। पर लालू से कोई पूछे, संख्या कहां से जुटाएंगे। खुद लालू ने कटौती प्रस्ताव को रस्म अदायगी बताया। पर सेक्युलरिज्म का झंडा उठा कौन सी सरकार गिरा लेते? अब कोई पूछे, महंगाई में सांप्रदायिकता कहां से आ गई? क्या दाल, चावल, सब्जी, आटे में भी कुछ हिस्से सांप्रदायिक होने लगे? या फिर महंगाई किसी खास धर्म या जाति को ही परेशान कर रही? आखिर राजनीतिक दल किसे बेवकूफ बना रहे? मंगलवार को तेरह दलों ने महंगाई पर भारत बंद किया। संसद के दोनों सदनों में सुबह से एकजुटता दिखाई। पर जब महंगाई के खिलाफ सरकार को घेरने का निर्णायक वक्त आया, तो भाई लालू-मुलायम कट लिए। मुलायम ने वाकआउट से पहले किसान, गरीब, बेरोजगारों के लिए अनुदान की मांग रखी। पर ऐसा क्या हुआ, जो पहले ही मैदान छोड़ गए। क्या निजी तौर पर कोई अनुदान मिल गया? या कहीं कांग्रेस ने लालू-मुलायम को यह डायलॉग तो नहीं सुना दिया- मेरे पास सीबीआई है। अब जरा लालू की सुनिए। कहा- आईपीएल पर सरकार की विदाई तय थी। आईपीएल में गरीबों, बेकारों का पैसा लूटा गया। पर आडवाणी कह रहे, आईपीएल बहुत हो चुका। लालू का इतना कहना था कि बीजेपी भडक़ गई। पर लालू से पूछे, आईपीएल में किस गरीब अंबानी, विजय माल्या, श्रीनिवासन, राज कुंद्रा, प्रीति जिंटा, शाहरुख खान का पैसा लगा हुआ। आखिर लालू के लिए महंगाई से बड़ा मुद्दा आईपीएल कैसे हो गया। लगता है, अब लालू-मुलायम राजनीति की थाली के बैंगन हो गए। पर एक सीबीआई ने सिर्फ लालू-मुलायम मैनेज नहीं किए। अलबत्ता कट मोशन पर सरकार की साख बचाई। विपक्षी महाजोट की खटिया खड़ी कर दी। मायावती ने सरकार को समर्थन की पूरी कीमत वसूल ली। सुप्रीम कोर्ट में चल रहे आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई से केस कमजोर कराया। तो जाकर मंगलवार को लखनऊ में समर्थन का एलान किया। पर जरा लालू-मुलायम की तरह मायावती की माया देखिए। प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत यूपीए सरकार को आड़े हाथों लेते हुए की। केंद्र पर यूपी से भेदभाव का आरोप लगाया। महंगाई, गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी जैसी तमाम समस्याओं की जड़ में मनमोहन सरकार की नीतियां बताईं। बोलीं- इन समस्याओं के मद्देनजर बसपा को सरकार के खिलाफ वोट करना चाहिए था। लेकिन हम नहीं चाहते कि सांप्रदायिक ताकतें सत्ता में आ जाएं। इसलिए कटौती प्रस्ताव पर यूपीए का समर्थन करेंगी। यानी सीधे शब्दों में मायावती की प्रेस कांफ्रेंस का निचोड़ बताएं। तो राजनीति का नया स्लोगन बनेगा- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है। पर मायावती ने यह भी कहा- समर्थन का सीबीआई से कोई लेना-देना नहीं। अब कोई अनाड़ी ही माया पर भरोसा करेगा। याद है 2008 में जब मनमोहन विश्वास मत की तैयारी कर रहे थे। मायावती ने समर्थन नहीं दिया। तो लोकसभा में तबके बीएसपी नेता बृजेश पाठक ने आरोप लगाया था, सीबीआई का अधिकारी उनके घर आया था। दस्तावेज दिखाकर धमकी दे गया, समर्थन दो, नहीं तो शिकंजा कस देंगे। तबके स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने मामला होम मिनिस्ट्री को रैफर किया था। पर जब 2007 में राष्ट्रपति चुनाव हुए। तो ताज कॉरीडोर केस से समर्थन की सौदेबाजी हुई। सो बीजेपी ने सरकार पर सीबीआई के बेजा इस्तेमाल का आरोप मढ़ा। तो सबसे मौजूं बात सीताराम येचुरी ने कही। उन ने कहा- कांग्रेस ने वर्षों तक देश पर कैसे राज किया, उस अनुभव को दिखा दिया। सरकार बचाने की जोड़-तोड़ में कांग्रेस विशेषज्ञ है। वाकई कट मोशन किसी और सरकार के खिलाफ होता। तो राजनीतिक माहौल अलग होता। पर कांग्रेस की राजनीति हमेशा धौंस की रही। सो अबके भी खम ठोककर कीमतें बढ़ाईं। विपक्ष ने लाख घोड़े दौड़ाए। पर रेस में दौड़ रहे कुछ घोड़ों पर बेखौफ बंदूक तान दी। अब कांग्रेस ने विपक्षी एकता का बंटाधार कर दिया। पर माया से नजदीकी अपनी ही फांस बन गई। आखिर राहुल बाबा यूपी में माया को दुश्मन नंबर एक बताते। माया के बुतों से लेकर मनरेगा आदि मुद्दों पर कांग्रेस ने घेराबंदी की। पर अब माया ने समर्थन दिया। तो कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन बोलीं- तबकी टिप्पणी तबके मुद्दे पर थी। वक्त के हिसाब से राजनीतिक जरूरतें बदलती कहीं। सो अब यूपी की राजनीतिक रणनीति का खुलासा वक्त आने पर करेंगे। पर कांग्रेस यह भूल रही, यूपीए-वन में कांग्रेस कमजोर थी। तो साढ़े चार साल बाद गिनती की नौबत आई। अबके कांग्रेस मजबूत, पर बहुमत की गिनती 11 वें महीने में ही करनी पड़ी। अभी तो सरकार के चार साल एक महीना बाकी।
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27/04/2010

Monday, April 26, 2010

कटौती प्रस्ताव पर कटी विपक्षी एकता की पतंग

संसद में शोरगुल थमने का नाम नहीं। पर संसद से पहले राज्यपाल प्रभा राव को अपनी श्रद्धांजलि। सोमवार को दिल का दौरा पडऩे से निधन हो गया। वाकई सहज, सीधी, सरल थीं प्रभा राव। पर कहते हैं, किसी व्यक्ति की खासियत जाननी हो, तो विरोधियों के शब्दों को देखो। संवैधानिक पद पर आसीन होने से पहले प्रभा राव कांग्रेस में थीं। पर उनके निधन के बाद बीजेपी के सांसद अर्जुन राम मेघवाल का संदेश काबिल-ए-गौर। मेघवाल ने लिखा- प्रभा राव ने सार्वजनिक जीवन में कुछ ऐसे मापदंड तय किए हैं, जिससे सार्वजनिक जीवन जीने वाला हमेशा प्रेरणा लेता रहेगा। यानी राजस्थान ही नहीं, देश के लिए अपूरणीय क्षति। अब मंगलवार को संसद भी श्रद्धांजलि देगा, फिर देर शाम वर्धा में दाह संस्कार। सो अब बात संसद में चल रहे स्यापे की। विपक्ष की तरकश में रोज नए मुद्दे जुट रहे। सरकार ऐसे मुद्दे थमा रही कि विपक्ष भी कनफ्यूज हो चुका। किस मुद्दे को उठाएं, किसे छोड़ें, समझ नहीं पा रहा। सो एक दिन आम आदमी का, तो दूसरे दिन खास आदमी का और तीसरे दिन अपनी भलाई भी देख लेता। सो पहले महंगाई का मुद्दा उठाया। फिर बीच में आईपीएल और मोदी-थरूर आ गए। अब नया मुद्दा राजनेताओं के फोन टेपिंग का। सो सोमवार को भी संसद की छुट्टी हो गई। दोनों सदनों में विपक्ष का रिंग टोन इस कदर गरजा, कामकाज ठप करना पड़ा। लोकसभा में आडवाणी ने मोर्चा संभाला, तो इमरजेंसी की याद दिलाई। जेपीसी गठित करने की मांग हुई। लगे हाथ अंग्रेज जमाने के टेलीग्राफ एक्ट में बदलाव की मांग कर दी। पर बात आगे तब बढ़े, जब सरकार टेपिंग का आरोप मान ले। यहां तो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने टेपिंग से इनकार कर दिया। पीएम ने जेपीसी की मांग ठुकरा दी। यों संसद में अभी पीएम का बयान नहीं हुआ। सोमवार को प्रणव दा ने लाख मिन्नतें कीं, साढ़े तीन बजे मनमोहन जवाब देंगे। पर विपक्ष को तो अपने मुद्दे की धार बनानी थी। भले संसद का कीमती वक्त कौड़ी क्यों न हो जाए। पर बात मुद्दे की, तो हमाम में नंगा कौन नहीं। सिस्टम तो सत्ताधारी दल का रखैल बन चुका। सो दुरुपयोग करने में कोई पीछे नहीं। तभी तो गाहे-ब-गाहे फोन टेपिंग के मुद्दे उठते रहते। अब सोमवार को टेपिंग मुद्दे का कोई हल नहीं निकला। पर मंगलवार को संसद में नया मुद्दा होगा। लोकसभा में सरकार गिलोटिन लाएगी। यानी सभी मंत्रालयों की अनुदान मांगें एक साथ वोट के लिए रखी जाएंगी। जिसका इंतजार विपक्ष समेत समूचे देश को। पेट्रोल-डीजल की कीमतें प्रणव दा ने बजट में बढ़ाई थीं। तो दो महीने पहले 26 फरवरी को हाथों में हाथ लेकर समूचे विपक्ष ने एलान किया था- कटौती प्रस्ताव लाकर कीमतें रोल बैक को मजबूर कर देंगे। पर ठीक दो महीने बाद विपक्षी कुनबा बिखर गया। यों अब भी एनडीए-लेफ्ट संग होने का दंभ भर रहे। पर लालू-मुलायम की चाल टेढ़ी हो गई। बीएसपी से तो हमेशा की तरह कांग्रेस ने सौदेबाजी कर ली। यानी अब विपक्षी एकता पस्त, तो कांग्रेस मस्त हो रही। कांग्रेस ने तो कह दिया- विपक्ष यह न भूले, यूपीए-वन से मजबूत है यूपीए-टू। सो वित्तीय प्रस्ताव पास हो जाएंगे। अब विपक्ष बिखर रहा हो, तो सरकार गदगद क्यों न हो। यों एहतियातन कांग्रेस ने सांसदों को व्हिप जारी कर दिया। व्हिप तो बीजेपी ने भी जारी किया। पर जरा राजनीति के असल दांव-पेच देखते जाइए। कहां 26 फरवरी को समूचे विपक्ष ने खम ठोका था, महंगाई के खिलाफ सरकार के घुटने टिकवा देंगे। पर दो महीने बाद खुद घुटने टेकता दिख रहा। बीजेपी ने पांच दिन पहले ही विशाल रैली भी की। पर विपक्षी कुनबे में बिखराव ने हालत पस्त की, या सरकार से कुछ सांठगांठ, यह मालूम नहीं। अब बीजेपी सरकार को मजबूर करने का खम नहीं ठोक रही। अलबत्ता बीजेपी सिर्फ इतना चाह रही, कम से कम एनडीए के 153 सांसदों के वोट रजिस्टर्ड हो जाएं। कटौती प्रस्ताव को लेकर इतनी हायतौबा मचाई। अब नहीं लाए, तो भद्द पिटेगी। सो रस्म अदा करने को मंगलवार को कटौती प्रस्ताव आएगा। बीजेपी को डर, कहीं ऐसा न हो, हंगामे में सरकार वित्तीय प्रस्ताव पास करा ले जाए। वैसे भी हंगामाई सरदारों लालू-मुलायम से सरकार की जुगलबंदी हो चुकी। सो कहीं कटौती प्रस्ताव के पक्ष में नंबर अधिक दिखा। तो हंगामे के लिए आईपीएल और फोन टेपिंग जैसे बड़े मुद्दे। वैसे भी सोमवार को विपक्षी एकता में दरार यहीं से पड़ी। बीजेपी-लेफ्ट ने फोन टेपिंग उठाया। तो लालू-मुलायम आईपीएल चाहते थे। सो लालू को यह भी मालूम न था, मंगलवार को कटौती प्रस्ताव आने वाला। अब जरा आम आदमी के पहरेदार विपक्षी दलों के चेहरे आप खुद देख लो। मंगलवार को गैर यूपीए, गैर एनडीए वाले तेरह दलों ने भारत बंद का एलान कर रखा। सो उधर महंगाई के खिलाफ भारत बंद होगा। तो इधर संसद में महंगाई का मुद्दा ही डंप हो जाएगा। विपक्ष का आखिरी हथियार है कटौती प्रस्ताव। सो उसके बाद विपक्ष से कैसी उम्मीद। विपक्ष को तो अब आईपीएल के पोस्टमार्टम और फोन टेपिंग मुद्दे में सुर्खियां नजर आ रहीं। सो आम आदमी के हित में अब मजबूती से खड़ी नहीं। सिर्फ और सिर्फ विरोध दर्ज कराने की रस्म निभाना चाहती है बीजेपी। सो जब विपक्ष ही सरेंडर कर चुका। तो भला आम आदमी की क्या बिसात। सो कटौती प्रस्ताव आएगा तो मंगलवार को। पर विपक्षी एकता की पतंग तो सोमवार को ही कट गई।
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26/04/2010

Friday, April 23, 2010

तो राजनीतिक आईपीएल में भी मैच फिक्सिंग!

यों आईपीएल का फाइनल इतवार को हो जाएगा। पर संसद में चल रहा लीग मैच खत्म नहीं हो रहा। सो शुक्रवार को संसद के दोनों सदनों में कामकाज ठप रहा। अबके समूचा विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ा। तो सरकार के होश फाख्ता हो गए। विवाद में शरद पवार-प्रफुल्ल पटेल का नाम गले की हड्डी बना। संसद में कुछ ने इस्तीफा मांगा। तो कुछ जांच की मांग पर ही सिमटे रहे। सो प्रणव मुखर्जी ने मोर्चा संभाला। चेहरे पर थोड़ा गुस्सा, थोड़ा धैर्य दिखा। तो दादा ने जेपीसी का एलान नहीं किया, पर विचार का झुनझुना थमा गए। फिर भी विपक्ष नहीं माना। सो देर शाम कांग्रेस कोर ग्रुप में मंथन हुआ। पर जेपीसी को लेकर कांग्रेस ऊहापोह में फंस गई। कोर ग्रुप में दो मत उभरे। पहला- जेपीसी को भी आखिर मौजूदा एजेंसी पर ही निर्भर रहना होगा। दूसरा- जेपीसी बनी, तो अब तक जो राज सिर्फ सरकार के पास, सबको मालूम हो जाएगा। सो प्रणव दा ने अब तक की जांच का ब्यौरा रखा। फिर तय हुआ, सरकारी एजेंसी सही काम कर रही। पर विपक्ष का हंगामा जारी रहा, तो क्या होगा। सो मामला पीएम पर छोड़ दिया। अब सरकार तेल और तेल की धार देखेगी। वित्त विधेयक का फच्चर न होता, तो शायद जेपीसी की हां या ना शुक्रवार को ही हो जाती। पर सरकार की बड़ी चुनौती वित्त विधेयक पास कराने की। सो अगर अगले हफ्ते संसद में स्थितियां बदलीं। तो सरकार मामले को लटकाएगी। तब तक शायद ललित मोदी की विदाई भी हो जाए। अगर विपक्ष ने रार ठान ली। तो शायद जेपीसी गठित हो जाए। पर बीजेपी ने तो शुक्रवार को ही साफ कर दिया। सोमवार के हंगामाई एजंडे में फोन टेपिंग मुद्दा होगा। अरुण जेतली ने भी तैयारी कर ली। सो दोनों सदनों में फोन टेपिंग पर हंगामा बरपेगा। एक मैगजीन में खुलासा हुआ, यूपीए सरकार 2006 से ही कई बड़े राजनेताओं के फोन टेप करा रही। जिसमें करीब-करीब सभी दलों के नेता शामिल। कांग्रेस भी यही चाह रही, हंगामा आईपीएल से दूसरे मुद्दे पर शिफ्ट हो। पर कोर ग्रुप में एक और आकलन हुआ। भले विपक्ष जेपीसी की मांग पर एकजुट हो। पर पवार-पटेल के इस्तीफे को लेकर बंटा हुआ। अब देखो, शुक्रवार को शरद यादव, बासुदेव आचार्य, गुरुदास दासगुप्त ने इस्तीफा मांगा। पर बीजेपी जेपीसी की मांग से आगे नहीं बढ़ी। अब भले जेपीसी के बाद पवार-पटेल का इस्तीफा बीजेपी अनिवार्य बता रही। पर सोचो, जेपीसी का दायरा सीमित रखा गया, तो क्या होगा। सो बीजेपी शुक्रवार को बुरी तरह घिर गई। शशि थरूर का इस्तीफा मांगने में बीजेपी ने तनिक भी देर नहीं की। या यों कहें, ट्विटर को राजनीतिक तेवर बीजेपी ने ही दिया। सो थरूर को इस्तीफा देना पड़ा। पर अब पवार-पटेल का नाम आया। तो बीजेपी को मानो सांप सूंघ गया। इस्तीफा मांगना तो दूर, पवार-पटेल के बचाव में बीजेपी इस कदर उतरी, जितनी एनसीपी भी नहीं। सो प्रेस कांफ्रेंस में एस.एस. आहलूवालिया पहुंचे। तो मीडिया ने सवालों की झड़ी लगा दी। चौतरफा घुमाफिरा कर वही सवाल। सो आहलूवालिया खीझ गए। मीडिया से ही सवाल पूछना शुरु कर दिया। पटेल-पवार के खिलाफ एक भी सबूत दिखा दें। अब कोई पूछे, थरूर के बारे में कौन सा सबूत मिल गया था। महज ट्विटर पर ललित मोदी ने सुनंदा पुष्कर के शेयर का खुलासा किया। तो बीजेपी ने मोदी का कहा सच मान लिया। तब बीजेपी नेताओं ने सुनंदा-थरूर के रिश्ते पर खूब चुटकियां लीं। अब विवाद में प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा का नाम आया। पूर्णा आईपीएल से जुड़ी हुई। उसने आईपीएल के सीईओ सुंदर रमन का भेजा ई-मेल अपने पिता के पीए को भेजा। फिर वही मेल थरूर तक पहुंचा। पर आहलूवालिया कह रहे, उस ई-मेल में ऐसा कुछ नहीं। उन ने मीडिया को नसीहत दी, पहले मेल पढि़ए। फिर तय करिए, वह दोषी है या नहीं। आहलूवालिया की खीझ यहीं तक नहीं। उन ने तो बाकायदा मीडिया को नैतिकता का पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया। पर सवाल उठा, बीजेपी के ही यशवंत ने पवार-पटेल का इस्तीफा मांगा। तो असहज आहलूवालिया बोले- यशवंत ने जो कहा, उससे असहमत नहीं। जरा गौर करिए, आहलूवालिया ने यह नहीं कहा, सहमत हैं। सो सवाल, कहीं ऐसा तो नहीं, बीजेपी को डर लग रहा। आंच पवार-पटेल तक पहुंची। तो बीजेपी भी झुलसेगी। सचमुच आईपीएल विवाद पर बीजेपी में दो खेमे बन चुके। बीजेपी के कनफ्यूजन की वजह भी यही। वैसे भी आईपीएल या बीसीसीआई से जुड़े नेता चैरिटी के लिए नहीं जुड़े। दुनिया को मालूम, अपनी बीसीसीआई के पास कितना माल। सो मोदी को हटाने के बाद राजनीतिक आईपीएल के मैच फिक्सिंग की तैयारी। ललित मोदी तो अब आत्मघाती दस्ता हो गए। भले खुद जाएं, पर कइयों को बेनकाब करने की ठान चुके। सो जेपीसी की चर्चा तेज हो गई। पर इतिहास साक्षी, जेपीसी ने मामले को जितना सुलझाया नहीं, उतना लटकाए रखा। हर्षद मेहता घोटाला हो या केतन पारिख घोटाला, जेपीसी तो बनी, पर रपट आने में तीन से चार साल लग गए। यानी जेपीसी का मतलब साफ, मोदी को हटाओ, फिर जांच के नाम पर विवाद ठंडे बस्ते में। पर जेपीसी क्या तीर मार लेगी। आखिर जेपीसी को भी सरकार की जांच एजेंसियों का ही सहयोग लेना पड़ेगा। सो विवाद के बाद भी बेफिक्र शरद पवार कह रहे- जिसे जो करना है, करने दीजिए। खुद सत्ता में, प्रमुख विपक्ष बीजेपी भी साथ। तो पवार क्यों हों फिक्रमंद। बीजेपी भी आईपीएल की पिच से पवार से गठजोड़ की बिसात बिछा रही।
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23/04/2010

Thursday, April 22, 2010

मोदी को हटाने की रस्म भर न रह जाए जांच

क्या ललित मोदी देश और क्रिकेट की जरूरत बन गए हैं? क्या मोदी-आईपीएल के सिवा देश की कोई समस्या ही नहीं? फटाफट क्रिकेट से फटाफट पैसे कइयों ने बनाए। पर जांच सरकारी अंदाज में ही क्यों चल रही? क्या सोमवार या मोदी के हटने तक यही खेल चलता रहेगा? बीसीसीआई के चीफ तो शशांक मनोहर। उन ने मोदी पर गैरकानूनी ढंग से काम करने का आरोप लगाया। बिन मोदी भी 26 अप्रैल की मीटिंग का खम ठोका। तो सवाल, अगर मोदी गलत, तो फिर आईपीएल सीजन-थ्री खत्म होने का इंतजार क्यों? आखिर बाकी लोग ईमानदार, तो एक बेईमान को क्यों नहीं हटा पा रहे? पर सच्चाई शायद कुछ और। आईपीएल के हमाम में सिर्फ मोदी नहीं, बड़े-बड़े सूरमा नंगे। सो शशि थरूर के ट्विटर से निकला आईपीएल का जिन्न अब बोतल में जाने को राजी नहीं। अब ट्विटर प्रेम से थरूर नपे। तो प्रफुल्ल पटेल के गले ई-मेल का फंदा। सरकार में पटेल नागरिक उड्डयन मंत्री का ओहदा संभाल रहे। सो दो-चार दिन की ना-नुकर के बाद अब खुद प्रफुल्ल पटेल ने मान लिया। थरूर की मदद करने के लिए ललित मोदी से बात की थी। पर ई-मेल का खेल देखिए। कोच्चि-पुणे टीम की नीलामी से दो दिन पहले आईपीएल के सीईओ सुंदर रमन ने प्रफुल्ल की बेटी पूर्णो पटेल को ई-मेल भेजा। पूर्णो आईपीएल में बतौर कर्मचारी तैनात। पूर्णो ने ई-मेल अपने पिता के निजी सचिव चंपा को भेजा। फिर चंपा ने शशि थरूर को। ई-मेल में बोली लगने वाली दोनों टीमों के बारे में आय-व्यय का अनुमान था। अब एनसीपी इसे गोपनीय नहीं, साधारण दस्तावेज बता रही। पर सवाल, मेल इतने रास्तों से होता हुआ थरूर तक क्यों पहुंचा? अब झूठ-सच का भी खेल देखिए। सुंदर रमन को पता नहीं पूर्णो ने मेल पिता के पीए को क्यों भेजा। पर पूर्णो की दलील, सुंदर के कहने पर ऐसा किया। अब कोई पूछे, नीलामी से पहले ही नफा-नुकसान का ब्यौरा भेजने का क्या मतलब? पर सिर्फ प्रफुल्ल का ही नाम नहीं, खुद पवार के समधी बी. आर. सुले का भी नाम। सो गुरुवार को पवार की सांसद पुत्री सुप्रिया सुले ने आईपीएल में अपने पति की हिस्सेदारी का खंडन किया। पर श्वसुर का प्रसारण कंपनी एमएसएम में दस फीसदी शेयर 1992 से। यही बात एनसीपी प्रवक्ता डी.पी. त्रिपाठी ने भी कही। बोले- सुले का शेयर तबसे, जब आईपीएल का जन्म भी नहीं हुआ था। चुनौती दी, अगर किसी के पास सबूत हों, तो दिखाए। एनसीपी का आईपीएल से कोई लेना-देना नहीं। अब एनसीपी की सफाई तो ठीक, पर डी.पी. त्रिपाठी ने एक और बात कही। बोले- हम खेल के राजनीतिकरण में विश्वास नहीं करते। शायद इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता। पर त्रिपाठी से जब पूछा गया- थरूर ने इस्तीफा दिया, तो पटेल-पवार क्यों नहीं। तपाक से जवाब आया- ऐसा सवाल ही नहीं उठता। त्रिपाठी ने लगे हाथ यह भी कह दिया, बीजेपी के लोग भी तो बीसीसीआई से जुड़े। कांग्रेस कोई दबाव नहीं डाल रही। हमारा गठबंधन ठीक-ठाक चल रहा। अब गठबंधन ठीक-ठाक कैसे न चले। आईपीएल की वित्तीय अनियमितता पर बवाल मचा हुआ। तो इधर सरकार का वित्त विधेयक संकट में। समूचा विपक्ष एकजुट होकर 27 अप्रैल को कटौती प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रहा। ऐसे में कांग्रेस भला सहयोगियों को नाराज करने का जोखिम क्यों उठाए। सो थरूर की विदाई के बाद जब प्रणव-चिदंबरम-पवार मंगलवार को बैठे थे। तब यही तय हुआ, कम से कम मोदी को हटाओ। पवार भी मान गए। तभी तो गुरुवार को प्रणव दा ने प्रफुल्ल पटेल का नाम उछलने पर चुप्पी साध ली। दो-टूक कहा- जांच चल रही है, उसके बाद ही कुछ कहेंगे। सो पवार के दूध में मक्खी बने ललित मोदी बौखला गए। चौतरफा घिरे मोदी कभी गवर्निंग कॉउंसिल की मीटिंग को अवैध ठहरा रहे। तो अब कोर्ट जाने की धमकी। पर मोदी कहीं भी जाएं, जैसे राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन से विदाई हुई। आईपीएल की कमिश्नरी भी जानी तय। मोदी शायद भूल गए, आईपीएल उनके घर की दुकान नहीं, अलबत्ता बीसीसीआई के मातहत। पर मोदी की बौखलाहट की वजह पवार की कांग्रेस से राजनीतिक सांठगांठ। सो मोदी बीसीसीआई के अमर सिंह हो गए। ब्लैकमेल पर उतर आए। कभी राज खोलने की धमकी दे रहे। तो कभी ऐसा दिखा रहे मानो, मोदी बिन आईपीएल सून। सपा से विदाई से पहले अमर सिंह ने हू-ब-हू यही किया था। पहले ब्लॉग लिख नाराजगी जाहिर की। फिर मुलायम सिंह के राज खोलने की धमकी। कभी कुछ, तो कभी कुछ बोलते रहे। यही हाल ललित मोदी का। ट्विटर से खेल शुरू हुआ। पर अब इनकम टेक्स से लेकर प्रवर्तन निदेशालय तक पीछे पड़ चुका। अब तक की जांच में 275 करोड़ के घोटाले की खबर। सो कभी आईटी, तो कभी ईडी मोदी से घंटों पूछताछ कर रहा। यानी एनसीपी, सरकार, बीसीसीआई, बीजेपी हर जगह से एक बात बिलकुल साफ हो रही। ललित मोदी 26 अप्रैल को विदा होंगे। यानी आईपीएल में राजनीति का खेल घुस चुका। हर रोज छापे पड़ रहे। दस्तावेज खंगाले जा रहे। पर हैवीवेट नए नामों से सबको सांप सूंघ रहा। प्रणव दा भी जांच की बात कर रहे। थरूर के इस्तीफे के लिए संसद ठप कराने वाली बीजेपी भी। पवार-प्रफुल्ल का नाम उछला। तो गोपीनाथ मुंडे बोले- चाहे कोई भी हो, जांच होनी चाहिए। पर इस्तीफा नहीं होगा। सो कहीं ऐसा न हो, मोदी को डंप करने के बाद भ्रष्टाचार का आईपीएल दब जाए। और जांच के बाद लोग यह कहने को मजबूर न हों- ना बाप बड़ा ना भइया, सबसे बड़ा रुपैया।
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22/04/2010

Wednesday, April 21, 2010

गडकरी तो पास हुए, पर मनमोहन क्यों फेल?

महंगाई पर रैली की बात करें उससे पहले के.एल. वाल्मीकि को श्रद्धांजिल। बुधवार को लोकसभा से बीजेपी ने वॉकआउट किया। पर राज्यसभा वाल्मीकि को श्रद्धांजलि देकर उठ गई। पिछली सर्दी में ही निमोनिया के शिकार वाल्मीकि का मंगलवार आधी रात करीब साढ़े बारह बजे निधन हो गया। सचमुच जमीन से जुड़े सांसद थे वाल्मीकि। सांसद होकर भी कभी सांसदी वाला गुरूर नहीं दिखा। हमेशा अपने समाज की फिक्र करते दिखे। बीजेपी हो या कांग्रेस, अब कर्तव्य के प्रति इतने समर्पित नेता इक्के-दुक्के ही मिलते। नेता हवा-हवाई हो चुके। सो जनता का भरोसा टूट चुका। अब बुधवार का ही किस्सा लो। बीजेपी ने महंगाई के खिलाफ संघर्ष का शंखनाद किया। सचमुच विपक्ष की जिम्मेदारी का अहसास कराया। पर मौसम की मार बीजेपी की रैली पर भारी पड़ी। वर्करों ने तो जैसे-तैसे गर्मी झेल ली। पर खुद सेनापति नितिन गडकरी गश खा गए। वर्कर तो हमेशा इस मौसमी थपेड़ों के बीच ही जीता। पर मुश्किल होती है नेताओं को। अब कोई पूछे, जब मौसमी कहर बर्दाश्त नहीं। तो गर्मी में रैली बुलाई ही क्यों? इंदौर अधिवेशन में ही फैसला किया था। सो बजट सत्र के पहले चरण में ही हल्ला बोल देते। पर ऐसा नहीं, पहले माहौल बनाएंगे। ताकि वोट बैंक की राजनीति कर सकें। अब खुद पर मार पड़ी। तो जुबां पर वही शब्द, उफ ये गर्मी! बात पुरानी नहीं, महज पिछले साल के अप्रैल महीने की ही। गर्मी ने तब बीजेपी ही नहीं, तमाम राजनेताओं का हाल बेहाल कर रखा था। पर मजबूरी थी, लोकसभा चुनाव की खातिर नेता दर-दर की खाक छान रहे थे। पर जब तीसरे राउंड की वोटिंग 30 अप्रैल को निपटे। वोटिंग की रफ्तार बेहद धीमी दिखी। यों शाम तक वोटिंग पचास फीसदी तक पहुंच गया था। पर दिन में सूर्य की तपिश देख तबके पीएम इन वेटिंग उखड़ गए। आडवाणी गर्मी में चुनाव के ही खिलाफ हो गए। कहा था- ‘गर्मी के मौसम में वोटिंग परसेंटेज गिर जाता है। सो चुनाव फरवरी महीने में कराए जाने चाहिए।’ गर्मी की आड़ में उन ने उसी दिन लगे हाथ तीन सुझाव भी दे डाले। पहला- लोकसभा-विधानसभा के चुनाव इक_ïे फरवरी में हों। दूसरा- लोकसभा का पांच साल टर्म फिक्स हो। और तीसरा- वोटिंग को अनिवार्य बनाया जाए। यों गर्मी में चुनाव अवसरवादी राजनीति की ही देन। फील गुड की हवा में आडवाणी ने ही छह महीने पहले चुनाव करवाए थे। सो पांच साल बाद 2009 में भी वही मौसम आ गया। यों आम आदमी तो हर मौसम में अपनी दिनचर्या निपटाने को मजबूर होता। पर कभी-कभार दर्शन देने वाले नेता महीने-डेढ़ महीने में ही उकता जाते। अगर नेतागण हमेशा जनता का हालचाल जानने फील्ड में उतरें। तो शायद गर्मी के तीखेपन का कम अहसास हो। पर नेता अपनी कमी नहीं सुधारेंगे। अलबत्ता वोटिंग अनिवार्य करने की बात करेंगे। अब बीजेपी हो या कांग्रेस या कोई और। नेताओं की यही आदत, अपना दोष नहीं देखेंगे और मतदाताओं पर जोर-जबरदस्ती थोपने की कोशिश करेंगे। अगर नेता ईमानदारी से क्षेत्र की जनता का ध्यान रखने लगें। तो वोटरों में खुद उत्साह पैदा होगा। पर राजनीति अपनी विश्वसनीयता खो चुकी। अब गडकरी निकले तो थे सरकार को होश में लाने। पर खुद ही बेहोश हो गए। तो सवाल उठा, एयर कंडीशंड कमरों में बैठकर जनता का क्या भला होगा? यों मनमोहन सरकार के छह साल में महंगाई ने माउंट एवरेस्ट से भी बड़ी चोटी बना ली। चाहकर भी मनमोहन चोटी नहीं चढ़ पा रहे। सो नितिन गडकरी ने विपक्ष की जिम्मेदारी का निर्वाह किया। अरसे बाद बीजेपी ने जनहित से जुड़े मुद्दे पर ऐसी ताकत दिखाई। सो गडकरी अपने पहले इम्तिहान में पास हो गए। संघ की छाप रैली में दिखी, जब पोस्टरों पर सिवा श्यामा प्रसाद मुखर्जी-दीनदयाल उपाध्याय के किसी नेता की तस्वीर नहीं। बीजेपी ने महंगाई के खिलाफ संघर्ष को सफल बनाने के लिए पूरी तैयारी की। सो महंगाई से परेशान जनता मौसमी मार को झेलते हुए दिल्ली पहुंच गई। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान और क्या महिलाएं सबके चेहरे पर मौसम से अधिक महंगाई की मार दिख रही थी। करीब एक लाख की संख्या में लोग जुटे। सो दिल्ली ठहर गई। पर सवाल, क्या महंगाई भी ठहरेगी? क्या महंगाई के खिलाफ गुस्से का इजहार करने दिल्ली पहुंचे लाखों लोगों का असर सरकार पर पड़ेगा? छह साल से कांग्रेस जिस तरह महंगाई से जूझ रही। उससे तो यह सवाल ही बेमानी लगता। तभी तो बुधवार को कांग्रेस या सरकार ने महंगाई पर चिंता तक नहीं जताई। यों पीएम ने आईपीएल में खूब रुचि दिखाई। तडक़े ही राजीव शुक्ल को बुला पूरा ब्यौरा लिया। तो राजीव शुक्ल ने बाहर आकर कह दिया, 26 अप्रैल की मीटिंग में कड़े फैसले लेंगे। यानी पीएम ने सीधे दखल दिया। तो ललित मोदी की विदाई तय हो गई। अब भले मोदी रार ठानें। पर यह बीसीसीआई को तय करना, कैसे होगी मोदी की विदाई। यानी पीएम के आईपीएल में कूदने के बाद मोदी के बचने का कोई रास्ता नहीं। पर कभी महंगाई की खातिर मनमोहन ऐसे क्यों नहीं कूदते? मोदी की विदाई में रुचि दिखाने वाले मनमोहन महंगाई को कब विदा करेंगे? आखिर ऐसी क्या वजह, जो एक मीटिंग में आईपीएल का भविष्य तय हो रहा। पर महंगाई से परेशान जनता के लिए सिर्फ मीटिंग-मीटिंग हो रही। अब देखना, कैसे थरूर की शानदार वापसी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं, दूसरी चुनावी जीत ने सरकार को निरंकुश बना दिया?
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21/04/2010

Tuesday, April 20, 2010

तो क्या विजन सिर्फ थरूर के लिए, महंगाई पर नहीं?

अपने देश में नेताओं-नौकरशाहों का विजन शायद कहीं गुम हो गया। एक छोटा सा किस्सा बताएं। दिल्ली मैट्रो में आजकल एक इश्तिहार देखने को मिल रहा। भारत सरकार के अधीन एक जनसंख्या नियंत्रण का विभाग है। जिसने अखबारी कतरन के अंदाज में लिखा है- सोमवार, 20 मार्च 2030, भारत से हारने पर चीन में जश्न का माहौल। इश्तिहार का मतलब, 2030 में अपनी जनसंख्या आज के दर के हिसाब से चीन को पीछे छोड़ देगी। यों जागरुकता पैदा करने के लिए इश्तिहार वाकई बहुत अच्छा। पर डेटलाइन देख अपना दिमाग ठनका। ख्याल आया, वाकई कितनी लंबी सोचकर आइडिया निकाला। सो तसल्ली के लिए अपना मोबाईल निकाल डेट चेक किया। तो जितनी इश्तिहार के संदेश से खुशी हुई, उतना ही दुख डेट और दिन देख कर हुआ। सही मायने में 20 मार्च 2030 को दिन सोमवार नहीं, अलबत्ता बुधवार होगा। अब कहने वाले कहेंगे, दिन से क्या फर्क पड़ता, संदेश देखो। पर देश का भविष्य बनाने वाले अगर मन में जो आया, वही करने लगे। तो फिर देश का भविष्य कैसा होगा? यों बात बहुत छोटी है, पर सरकार के विजन की पोल खोल रही। जिसे पता करने में अपने जैसे को महज तीन-चार सेकेंड लगे। क्या कोई सरकारी मुलाजिम इतनी जहमत नहीं उठा सकता? अब जवाब मांगें भी, तो किससे। महंगाई का भूत 2004 से पीछा कर रहा। अब तो महंगाई सुरसा के मुंह से अधिक फैल चुकी। पर विजन का नमूना आप खुद देख लो। आरबीआई ने मंगलवार को एलान किया। मार्च 2011 तक महंगाई दर को कम कर 5.5 फीसदी वार्षिक दर पर लाएंगे। पर महंगाई काबू करने का फिर वही पुराना नुस्खा आजमाया। सीआरआर से लेकर ब्याज दर बढ़ा दिए। यानी महंगाई के आदी लोगों पर एक और बोझ। पर महंगाई के रुप अनेक। याद होगा, हाल ही में विपक्ष ने कैसे महंगाई के खिलाफ इमरजेंसी जैसी एकजुटता दिखाई। अब बुधवार को बीजेपी की महारैली। रामलीला मैदान से संसद मार्च होगा। इंदौर में नितिन गडकरी ने तो दस लाख भीड़ जुटाने का खम ठोका था। पर मौसम का मिजाज देख बीजेपी अब आंकड़ेबाजी से परहेज कर रही। मौसम की मार रैली पर न पड़े। सो दिल्ली में प्याज के मुद्दे पर सरकार गंवाने वाली बीजेपी ने मौसम से निपटने के लिए प्याज ककी बोरियों का पूरा बंदोबस्त किया। ताकि वर्करों को लू न लगे। वर्करों को प्याज के साथ नींबू और कुछ हर्बल टॉफियां भी बांटने की तैयारी। प्रदर्शनकारियों पर वाटर कैनन छोड़े जाएं, इसकी गुहार खुद बीजेपी ने संबंधित विभाग से लगाई। अब बीजेपी के संसद घेरो संघर्ष का भले पल भर को सरकार पर असर पड़े। पर महंगाई का बाल बांका भी होता नहीं दिख रहा। वैसे जब विपक्षी एकजटुता में भी महंगाई अलग-अलग हों। तो सरकार क्यों परेशान हो। बुधवार को बीजेपी की रैली, तो अगले मंगलवार यानी 27 अप्रैल को लेफ्ट की रहनुमाई में 13 दलों ने भारत बंद का एलान कर रखा। सो संसद में सरकार को घेरने में सफल विपक्षी महाजोट ने फिर पहल की। लेफ्ट ने एनडीए को भारत बंद में शामिल होने का न्योता भेजा। एनडीए के संयोजक शरद यादव ने न्योता बीजेपी को अग्रेषित कर दिया। पर बीजेपी ने अभी जवाब नहीं दिया। पहले बीजेपी बुधवार की अपनी रैली देखेगी। गडकरी की रहनुमाई में बीजेपी के पहले विशाल प्रदर्शन की ताकत का इम्तिहान। पर संसद में एकजुट विपक्ष सडक़ पर साथ नहीं। बीजेपी की दलील, संसद में सरकार को घेरने के लिए मुद्दों पर आधारित सहमति के लिए विपक्षी महाजोट बना। सो संसद के बाहर ऐसी एकजुटता का फिलहाल कोई सवाल ही नहीं। यानी जनता के आंदोलन में महंगाई की आग पर सबकी अपनी-अपनी राजनीतिक रोटी। या यों कहें कि बीजेपी की महंगाई अलग और लेफ्ट की अलग। सो आप ही सोचिए, कैसे कम होगी महंगाई? वैसे भी महंगाई का असर आम आदमी पर हो रहा। सो आजकल बड़े लोगों की चर्चा संसद और मीडिया में खूब हो रही। शशि थरूर ने भले इस्तीफा दे दिया। पर मंगलवार को अचानक सफाई देने लोकसभा पहुंचे। अपना दर्द फिर उड़ेला। पीएम से गुहार लगाई, सभी आरोपों की जांच कराएं। अब तक के लंबे सार्वजनिक जीवन में बेदाग होने की दुहाई दी। एक कवि की पंक्ति सुनाकर बोलें, भारत का नाम आने पर गर्व का अहसास होता है। केरल का नाम आने पर रगों में खून दौडऩे लगता है। पर केरल की बात आई, तो सीताराम येचुरी ने बखूबी जवाब दिया। पूछा, केरल के बीपीएल के लिए खून क्यों नहीं दौड़ता। क्या सिर्फ आईपीएल के लिए खून दौड़ रहा। पर सोमवार के बजाए मंगलवार को थरूर की सफाई से अपना माथा ठनका। जो थरूर पीएम के आने से पहले तक इस्तीफे को राजी नहीं थे। अब इस्तीफे को नैतिकता बता रहे। सो लगा, देर-सबेर थरूर फिर मनमोहन केबिनेट की शोभा बढ़ाएंगे। जैसे तहलका कांड के बाद जार्ज फर्नांडिस गए और फिर रक्षा मंत्री पद पर ही लौट आए थे। यानी थरूर की खातिर सरकार ने अपने विजन का घोड़ा दौड़ा दिया। भले आम आदमी को महंगाई से निजात दिलाने में सरकार का विजन कुंद पड़ गया हो। कुछ यही हाल आईपीएल का भी। जैसे थरूर इस्तीफे को राजी नहीं थे। वैसे ही अब ललित मोदी तैयार नहीं। पर मंगलवार को संसद भवन में प्रणव-पवार-चिदंबरम बैठे। तो तय हो गया, मोदी को जाना होगा। बीसीसीआई चीफ शशांक मनोहर दिल्ली आकर पवार से मिले। पवार ने अरुण जेतली से बात की। पर मोदी का गेम ओवर शाायद आईपीएल फाइनल के बाद होगा।
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20/04/2010

Monday, April 19, 2010

थरूर तो गए, अब थरथरा रहा आईपीएल

न खुदा ही मिला, न विसाल-ए-सनम, न इधर के रहे, न उधर के। आखिर सरकार की थू-थू करा शशि थरूर विदा हो गए। सुनंदा पुष्कर ने भी कोच्चि टीम में अपने शेयर तज दिए। सो सारा एपीसोड देख चंद्रमोहन याद आ गए। चंद्रमोहन यानी भजनलाल के बेटे। बाप को कांग्रेस ने 2004 में सीएम नहीं बनाया था। तो तुष्टीकरण फॉर्मूले में बेटा चंद्रमोहन डिप्टी सीएम हो गया। पर प्यार के आगे ओहदा क्या चीज। सो पहली बीवी के रहते चंद्रमोहन ऐसे इश्क में पड़े। मजहब बदल खुद चांद मोहम्मद और प्रेमिका अनुराधा फिजां बन गईं। फिर डिप्टी सीएम की कुर्सी को ठुकरा फिजां संग नई पारी की शुरुआत। अब सुनंदा की वजह से थरूर की कुर्सी गई। तो कोई पूछे, और कितने चांद मोहम्मद होंगे कांग्रेस में? वाकई प्यार अंधा होता है, तभी तो चाहने वाले दुनियादारी की परवाह नहीं करते। शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज के लिए ताजमहल खड़ी कर दी। दुनिया का आठवां अजूबा बना डाला। यहां तो सिर्फ 70 करोड़ के शेयर और विदेश राज्य मंत्री की छोटी सी कुर्सी थी। वह भी महज एक दोस्त की खातिर। वैसे भी मनमोहन के राज्य मंत्रियों की व्यथा किसी से छुपी नहीं। पर दुनिया भी कम जुल्मी नहीं। ताजमहल के बनाने और खर्च या कारीगरों के हाथ काटे जाने की घटना पर तो कभी इतनी हायतौबा नहीं मची। जितनी मुफ्त शेयर को लेकर मची। अब भले थरूर का सुनंदा से रिश्ता शादी तक नहीं पहुंचा। पर इस्तीफे ने साफ कर दिया, सुनंदा को मुफ्त में 70 करोड़ के शेयर दिलाए थे। अब कोई बड़े ओहदे पर बैठा व्यक्ति यों ही पद का बेजा इस्तेमाल तो नहीं करेगा। यों मनमोहन का दिल अबके भी थरूर को हटाने को तैयार नहीं था। पर हालात और दस्तावेजी सबूतों ने मनमोहन को मजबूर कर दिया। वैसे भी मनमोहन अपना वीटो लगा एक बार थरूर को कांग्रेस से अभयदान दिला चुके। तब थरूर ने पं. नेहरू की विदेश नीति को कटघरे में खड़ा किया था। पर दुनिया में राजनय कौशल से अपनी साख बनाने वाले थरूर अबके थोड़ी चूक कर गए। सो अपने ही देश में साख पर बट्टा लगा लिया। पर थरूर-मोदी के बीच विवाद ने देश का इतना भला किया, बोतल से भ्रष्टाचार का जिन्न बाहर निकाल दिया। विपक्षी महाजोट ने भी थरूर की विदाई को सराहा। पर ललित मोदी को छोडऩे के मूड में कोई भी नहीं। विपक्ष ने सोमवार को सरकार के हाथ और मजबूत कर दिए। अब विपक्ष ने सीधे आईपीएल को निशाने पर लिया। सबका आरोप, आईपीएल में स्विस बैंक, मॉरीशस और दुबई के रास्ते काले धन को सफेद बनाया जा रहा है। सीपीआई के गुरुदास दासगुप्त ने संसद की संयुक्त समिति (जेपीसी) से जांच की मांग की। समूचे आईपीएल पर बैन लगाने की पैरवी भी। मुलायम ने विदेशी खेल बताया। शरद यादव ने सट्टेबाजी का अड्डा। पर लालू यादव बैन के हिमायती नहीं। सो उन ने क्रिकेट का राष्ट्रीयकरण करने का सुझाव रखा। ताकि क्रिकेट सीधे खेल मंत्रालय के अधीन हो। यानी लालू की खुन्नस बीसीसीआई से। पर लालू की एक बड़ी टीस भी सदन में उभर कर सामने आ ही गई। लालू के बेटे तेजस्वी यादव भी क्रिकेटर। आईपीएल की डेयरडेविल्स टीम में भी शामिल। सो आप खुद लालू वाणी पर गौर फरमाएं- मैं बेटे को मैच खेलते देखने गया था। पर वहां देखा कि ओवर के बीच में मेरा बेटा तौलिया और पानी लेकर पिच की ओर दौड़ा। जहां वह पसीना पोछ रहा था। मैं यह देखकर शर्मसार हो गया कि यादवों की देश में...। अब लालू की टीस की वजह तो आप समझ गए होंगे। पर संसद में मुद्दा गरमाया। तो अब तक आईपीएल की निगरानी से छिटक रहे प्रणव मुखर्जी तैयारी के साथ सदन में पहुंचे। वैसे भी थरूर को विदा कर चुकी सरकार का मनोबल बढ़ा हुआ। सो घर की सफाई के बाद अब बाहर का बीड़ा उठाया। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने एलान कर दिया, चाहे जो भी हो, अगर दोषी पाया गया, तो बख्शा नहीं जाएगा। इधर प्रणव दा ने एलान किया। उधर इनकम टेक्स विभाग ने आईपीएल-बीसीसीआई को नोटिस भेज दिया। दस सवालों के जवाब के साथ-साथ आईपीएल की पूरी बैलेंस शीट, सभी फ्रैंचाइजी मालिकों का नाम-पता और फंडिंग का ब्यौरा मांग लिया। वह भी 23 अप्रैल दोपहर तीन बजे से पहले-पहले। यानी थरूर गए, तो अब ललित मोदी की बारी। यों बीसीसीआई मोदी की आईपीएल कमिश्नरी छीनने का मन बना चुका। तो खुफिया और इनकम टेक्स विभाग को कई चौंकाने वाले सबूत मिल रहे। कथित तौर पर खुफिया रपट में कहा गया, चार साल पहले मोदी के पास कर्ज चुकाने को पैसे नहीं थे। अब मोदी के पास निजी विमान, यॉट, लक्जरी गाडिय़ा और दुनिया के तमाम ऐशोआराम हैं। यानी बीसीसीआई हटाए या नहीं हटाए। पर मोदी सरकारी शिकंजे में खुद ही फंस गए। ट्वीटर के जरिए थरूर को फंसाने की होशियारी दिखाई। पर अब बोरिया-बिस्तर गोल होता दिख रहा। यों मोदी की बीजेपी से नजदीकियां जगजाहिर। सो बीजेपी अब बचाव की मुद्रा में कह रही, जो भी दोषी हो, उस पर कार्रवाई हो। अप्रवासी मामलों के मंत्री वायलार रवि ने भी मोदी की बीजेपी से नजदीकी पर सवाल उठाया। पर कांग्रेसी जयंती नटराजन ने सीधा निशाना साधा। बीजेपी में ऐसे मामलों पर कार्रवाई का साहस ही नहीं। अब जो भी हो, पर कांग्रेस ने भी साहस कब दिखाया, सबको मालूम। अगर दस्तावेजी सबूत न मिलते, तो थरूर फिर ट्वीटर पर इठलाते मिल जाते।
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19/04/2010

Friday, April 16, 2010

तो आईपीएल का मतलब इंडियन पार्लियामेंट्री लीग

तो आईपीएल आखिर इंडियन पार्लियामेंट्री लीग हो गया। शुक्रवार को दोनों सदनों की पिच पर जोरदार मैच हुआ। सो संसद की कार्यवाही थम गई। पर कांग्रेस फिलहाल इस विवाद में कूदने से परहेज कर रही। सो शशि थरूर को दो-टूक कह दिया, अपना बचाव खुद करिए। विपक्षी एकजुटता ने फिर खम ठोका। तो लोकसभा में थरूर के बयान से ठीक पहले सोनिया गांधी से प्रणव-एंटनी मिले। फिर प्रणव ने बंसल-सामी को रणनीति समझा दी। सो हंगामे के बीच थरूर का बयान हुआ। सदन में थरूर की आवाज दब गई। सो थरूर ने बाहर मीडिया के सामने पूरा बयान पढ़ा। अब जरा थरूर की सफाई की बानगी देखिए। बतौर मंत्री या सांसद किसी को फायदा नहीं पहुंचाया। आईपीएल की नीलामी प्रक्रिया को प्रभावित नहीं किया। तीस साल के कैरियर में अभी तक कोई दाग नहीं। सुनंदा से संबंध को गलत तरीके से जोड़ा गया। हिस्सेदारों के बारे में जानकारी नहीं थी। सिर्फ संरक्षक के नाते सलाह दी। केरल में क्रिकेट जैसे महत्वपूर्ण खेल को बढ़ावा मिले। सो फ्रेंचाइजी लेने वालों की नहीं, अलबत्ता केरल की मदद की। यानी यूएन का महासचिव बनने का सपना देखने वाले थरूर क्षेत्रीयता की राजनीति पर उतर आए। अपने बचाव में केरल की जनता को भडक़ाने की कोशिश। अब थरूर की ठाकरेवादी राजनीति का असर क्या होगा, यह बाद की बात। पर उन ने जो सफाई पेश की, खुद ही उलझ गए। अब कोई पूछे, थरूर को रोंदेव्यू के हिस्सेदारों के बारे में पता नहीं था। तो संरक्षक कैसे बन गए? विदेश राज्यमंत्री पद पर बैठा व्यक्ति क्या सिर्फ केरल के नाम पर किसी का भी संरक्षक बनने को तैयार हो जाएगा? मानो, कल को डी. कंपनी का गुर्गा कोई फर्म बनाकर ऐसा करे। तो क्या थरूर उसके लिए भी राजी होंगे? पर कहते हैं ना, चोर की दाढ़ी में तिनका। थरूर को बाकायदा मालूम था, सुनंदा पुष्कर को भी शेयर मिलेगा। वैसे कहावत है, प्यार, जंग और राजनीति में सब जायज। अब भले सुनंदा सिर्फ थरूर की दोस्त। पर ऐसी दोस्ती, जिसके शादी में बदलने की अटकलें। सो किसी ऊंचे ओहदे पर बैठे राजनेता से कोई कैसी उम्मीद रखेगा? क्या अपने नेता या फिल्म कलाकार कभी बेमतलब चैरिटी करते? आखिर थरूर ने ललित मोदी या बीसीसीआई से जुड़े किसी भी व्यक्ति से कोच्चि टीम के लिए मदद क्यों मांगी? अगर मान भी लें, थरूर ने संरक्षकी के लिए इकन्नी न ली। पर फ्रेंचाइजी में इतनी दिलचस्पी क्यों ली? अगर थरूर वाकई बेदाग, तो उनकी ईमानदारी के साथ कांग्रेस खड़ी क्यों नहीं हो रही? अपनी ही पार्टी को क्यों नहीं समझा पा रहे थरूर? अब जिस थरूर की सफाई को मंत्री पद तक पहुंचाने वाली कांग्रेस गले से नीचे नहीं उतार पा रही। जुबान सिलकर बैठ गई। उस थरूर पर देश की जनता क्यों भरोसा करे। थरूर ने बयान दे दिया, तो क्या दूध का दूध और पानी का पानी हो गया? अगर थरूर सचमुच बेदाग, तो पद का मोह क्यों? आरोप लगा है, तो इस्तीफा देकर जांच का एलान क्यों नहीं करते? ताकि आम जनता का भरोसा कायम हो। याद है, पिछली लोकसभा में कांग्रेसी माणिकराव गावित गृह राज्यमंत्री थे। एक फर्जी व्यक्ति ने गावित की आवाज में यूपी की एक जेल में फोन किया। जेलर को हिदायतें दीं। तब जी-न्यूज पर यह खुलासा हुआ। तो गावित ने जांच तक संसद आने और मंत्रालय जाने से इनकार कर दिया। खुद सुषमा स्वराज ने कहा था- मैं गावित को जानती हूं। यह उनकी आवाज नहीं हो सकती। सरकार तय समय सीमा में जांच कराए। आखिर वही हुआ, हफ्ते भर में साबित हो गया, वह गावित की आवाज नहीं थी। पर शायद जमीन की राजनीति करने वाले गावित जैसा जज्बा एसी कमरों और पांच सितारा की राजनीति करने वाले थरूर में नहीं। कई सवाल तो थरूर की सफाई से ही उठ गए। सो विपक्षी महाजोट फिर तैयार हो गया। अब विपक्ष थरूर से नहीं, सरकार के मुखिया मनमोहन से जवाब चाहता। कांग्रेस ने भी गेंद मनमोहन के पाले में डाल दी। याद है ना, पिछली बार जब थरूर ने नेहरू की विदेश नीति पर सवाल उठाए थे। तो समूची कांग्रेस पिल पड़ी थी। पर तब मनमोहन ने दलील दी, यूएन चुनाव लड़ चुके थरूर को हटाने से दुनिया में गलत संदेश जाएगा। सो थरूर बच गए। अबके फिर विवाद, तो सोनिया-प्रणव-एंटनी ने तय किया। अब थरूर से उनके संरक्षक ही निपटें। पर मुश्किल एक हो, तो मनमोहन निपटें। यहां तो हर साख पे परेशानी। अब ममता बनर्जी ने संसद सत्र के बॉयकाट का मन बना लिया। बंगाल में नक्सलियों के खिलाफ चल रहे ऑपरेशन को राज्य प्रायोजित आतंकवाद बता रहीं। ममता के सिपहसालार सुदीप बंदोपाध्याय का दावा, वित्तमंत्री-गृह मंत्री से शिकायत कर चुके। अब तक कुछ नहीं हुआ। सो संसद सत्र में हिस्सा नहीं लेंगे। अब विपक्ष इस मुद्दे को शायद बाद में उठाए। फिलहाल थरूर पर सरकार को थरथराने की रणनीति। सो थरूर की किस्मत पीएम तय करेंगे। पर थरूर नपें या न नपें, जंग छेडऩे वाले ललित मोदी का नपना तय हो गया। सो बीजेपी भी कह रही, बीसीसीआई चाहे जो कार्रवाई करे। पर किससे बात छुपी हुई, राजस्थान चुनाव के वक्त बीजेपी का वित्तीय मामला ललित मोदी के ही जिम्मे था।
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16/04/2010

Thursday, April 15, 2010

तो कांग्रेसी 'लैंड माइन' से कैसे जूझेंगे चिदंबरम?

ब्रेक के बाद पहला दिन विपक्ष के नाम रहा। विपक्ष ने लंबे वक्त के बाद ऐसा जिम्मेदाराना रुख अपनाया। यों तो सुर्खियों में छाने वाले मुद्दे को ही बीजेपी तरजीह देती। सो बीजेपी पहले दिन शशि थरूर का मुद्दा उछालना चाहती थी। पर एनडीए मीटिंग में शरद यादव ने दंतेवाड़ा कांड को प्राथमिकता देने की पैरवी की। सो थरूर से पहले गुरुवार को नक्सली हमले पर बहस हुई। अब शुक्रवार को थरूर मुद्दा भी गरमाएगा। सो थरूर ने भी जवाबी तैयारी शुरु कर दी। गुरुवार को सोनिया-प्रणव से मिले। पर प्रणव दा ने अभी थरूर के बयान को हरी झंडी नहीं दिखाई। यों पुरानी नसीहत दोहरा दी, अपना बचाव खुद करें। अब भले कांग्रेस थरूर से दूरी दिखाए। पर आईपीएल के सभी मालिकों के नामों का खुलासा हुआ। तो अटकलें इस बात की भी, थरूर से भी किसी बड़े मंत्री का नाम आ सकता है। अगर सचमुच ऐसा हुआ, तो फिर कांग्रेस क्या करेगी? यों आईपीएल का फंदा कांग्रेस की फांस तो बाद में बनेगी। पर गुरुवार को दंतेवाड़ा की बहस में कांग्रेसी छोटी-छोटी टिप्पणियों से ही इस कदर बौखलाए। लोकसभा की कार्यवाही कई बार स्थगित करनी पड़ी। एजंडा पेपर में दंतेवाड़ा पर होम मिनिस्टर के बयान का भी जिक्र नहीं था। सो समूचे विपक्ष ने फिर एकजुटता दिखाई। आखिरकार बिन बयान ही लोकसभा में बहस शुरू हो गई। पर राज्यसभा में पहले चिदंबरम का बयान हुआ। तो उन ने फिर अपनी इच्छाशक्ति का इजहार किया। नक्सली समस्या से निपटने के लिए समझदारी, मजबूत हृदय और सहनशक्ति की जरूरत पर बल दिया। पर लोकसभा में बीजेपी से यशवंत सिन्हा ने मोर्चा संभाला। तो राज्यसभा में खुद विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने। आखिर बहस का हश्र वही हुआ, जो सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच होना चाहिए था। बीजेपी ने कांग्रेस पर नक्सलियों से सांठगांठ का आरोप लगाया। तो सदन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए जिम्मेदार संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल और उनके जूनियर नारायण सामी ने हंगामा मचाया। बीजेपी पर सांठगांठ का आरोप लगाया। सो स्पीकर मीरा कुमार को कार्यवाही रोकनी पड़ी। अब भले सदन में न सही, यशवंत ने बाद में वही सवाल उठाए। कैसे 2004 में कांग्रेस ने आंध्र में नक्सलियों से सांठगांठ की। तबके होम मिनिस्टर हैदराबाद नक्सलियों से वार्ता करने गए। लाखों नक्सलियों ने हैदराबाद की सडक़ों पर खुलेआम मार्च किया था। पर चिदंबरम और कांग्रेस की दुखती रग को बड़े सलीके से छेड़ा। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम जितने अपनों के निशाने पर। बीजेपी के उतने ही दुलारे बने। सो गुरुवार को बीजेपी के नेताओं के भाषणों का निचोड़ निकालें। तो बीजेपी का नया जुमला यही बनेगा- देश का नेता कैसा हो, पी. चिदंबरम जैसा हो। जेतली हों या यशवंत, चिदंबरम के खूब कसीदे पढ़े। संदेश देने की कोशिश की- देखो, एक जिम्मेदार विपक्ष के नाते हम नक्सलवाद की समस्या के प्रति होम मिनिस्टर के साथ खड़े हुए। पर कांग्रेस पार्टी अपने ही मंत्री का घेराव कर रही। अपने ही मंत्री से कांग्रेसी इस्तीफा मांग रहे। पर हम माओवादियों को खुशी मनाने का मौका नहीं देना चाहते। जेतली ने मणिशंकर अय्यर, ममता बनर्जी, दिग्विजय सिंह की ओर से चिदंबरम पर उठाए सवाल का जिक्र किया। सिर्फ इतना ही नहीं, राजनीति के फनकार जेतली ने भिगो-भिगोकर मारने में कसर नहीं छोड़ी। कहा- क्या देश का होम मिनिस्टर घायल सिपाही के तौर पर मुकाबला कर सकेगा? उन ने चिदंबरम को सलाह दी, अपनी पार्टी के आधी माओवादी मानसिकता वाले लोगों को नजरअंदाज करें। विपक्ष उनके साथ खड़ा है। पर जरा विपक्ष की रणनीति देखिए। चिदंबरम की तारीफ कर नक्सलवाद के खिलाफ सख्त रवैये की पैरवी कर रही। तो कांग्रेस को नक्सलियों के प्रति नरम दिखाने की कोशिश। सो मुश्किल चिदंबरम की। चिदंबरम नक्सलियों के खिलाफ कठोर रुख जारी रखें। तो चिदंबरम की बौद्धिकता के शिकार दिग्विजय जैसे लोग बीजेपी के स्टैंड पर चलना बताएंगे। अगर कठोर रुख से पलटे, तो विपक्ष को समूची सरकार पर हमले का मौका मिलेगा। सो अपनी ही चाल में कांग्रेस उलझ गई। पर बहस के बाद चिदंबरम ने लोकसभा में जवाब दिया। तो अपनों के विरोध का असर चेहरे और जुबान पर दिख रहा था। उन ने सेना के इस्तेमाल से पल्ला झाड़ा। पर अपने विरोधियों को जनवरी 2009 का एआईसीसी का प्रस्ताव भी पढक़र सुनाया। जिसमें कांग्रेस ने नक्सली समस्या को लॉ एंड आर्डर, सामाजिक-आर्थिक और बातचीत का जिक्र किया था। सो चिदंबरम ने नीति के साथ चलने की दलील दी। कहा- बातचीत के दरवाजे कभी बंद नहीं। विकास भी होगा। पर लॉ एंड आर्डर समस्या ज्यादा गंभीर। सो संसद में बहस तो पूरी हो गई। भले अपने जवान नक्सलियों के लैंड माइन को नाकाम कर किला फतह कर लें। पर सबसे अहम सवाल, अपनों के बिछाए 'लैंड माइन' से कैसे जूझेंगे पी. चिदंबरम?
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15/04/2010

Wednesday, April 14, 2010

कांग्रेस को भी लगा बीजेपी वाला रोग

बजट सत्र के दूसरे चरण की तैयारी हो गई। विपक्ष के तरकश में थरूर, एटमी दायित्व बिल, महिला आरक्षण, महंगाई के खिलाफ कटौती प्रस्ताव जैसे मुद्दे। तो सत्ता पक्ष की राह में कांटे ही कांटे। अब थरूर पर भले राजनीतिक पारा चढा हुआ। पर शशि थरूर असम में छुट्टियां मनाने चले गए। पीएम मनमोहन ने वाशिंगटन से ही एलान कर दिया। जांच के बाद ही थरूर पर कोई कार्रवाई संभव। यानी पीएम के लौटने तक आईपीएल की परतें उधड़ती रहेंगी। बुधवार को थरूर को धमकी भरा एसएमएस आया। तो उधर ललित मोदी ने मजाक उड़ाया, मुझे भी धमकी आई। सो संसद में आईपीएल का करप्शन सिर चढक़र बोलेगा। पर असली मुसीबत आंतरिक सुरक्षा की। विपक्ष ने ब्रेक के बाद पहले दिन ही दंतेवाड़ा कांड पर कामरोको प्रस्ताव लाने का एलान कर दिया। आडवाणी के घर मीटिंग में एनडीए ने तय किया। अब जब दंतेवाड़ा हमले पर होम मिनिस्टर चिदंबरम के खिलाफ अपने ही जहर बुझे तीर छोड़ रहे। तो विपक्ष भला क्यों चूके। चिदंबरम ने इस्तीफे की पेशकश का सुर्रा छोड़ विरोधियों को चित करने की सोची। पर विरोध थमने का नाम नहीं। तभी तो पीएम के आदेश पर जारी कैबिनेट सैक्रेटरी के.एम. चंद्रशेखर के फरमान की धज्जियां अपनों ने ही उड़ा दी। कांग्रेस के जनरल सैक्रेट्री दिग्विजय सिंह ने बाकायदा लेख लिखकर सवाल उठाए। तो रेल मंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता में साफ कर दिया। बंगाल में चल रहा नक्सल विरोधी ऑपरेशन ग्रीन हंट बंद हो। ममता की दलील, ऑपरेशन जनता और विपक्ष को कुचलने की साजिश है। सो संसद में सरकार कैसे अपना बचाव करेगी, यही देखने वाली बात। यों नक्सली ऑपरेशन के खिलाफ ममता की मजबूरी अलग। पर कोई पूछे, दिग्गी राजा की क्या मजबूरी, जो उनने मीडिया के जरिए चिदंबरम के खिलाफ मोर्चा खोला? दिग्विजय ने चिदंबरम को बौद्धिक अकड़ू, ज्यादा बुद्धिमान और जिद्दी बताया। नक्सलवाद के खिलाफ चिदंबरम के तौर-तरीकों को कटघरे में खड़ा किया। कहा- च्चिदंबरम माओवादी समस्या को लॉ एंड ऑर्डर की तरह देख रहे हैं। जबकि इसे आदिवासी समस्या के नजरिए से देखा जाना चाहिए।ज् उनने चिदंबरम के जिद्दी रवैया पर कुछ यूं फोकस किया। लिखा- च्मैंने जब चिदंबरम के सामने अपना सुझाव रखा। तो उन्होंने इसे अपनी जिम्मेदारी मानने से इनकार कर दिया। जबकि केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत के तहत होम मिनिस्टर का यह फर्ज बनता है कि वह मुद्दे को संपूर्णता में केबिनेट के समक्ष रखे, न कि मतांध होकर।ज् यानी खुन्नस की जड़, चिदंबरम ने भाव नहीं दिया। पर दिग्गी राजा किसकी पैरवी कर रहें? क्या बंदूक थामे नक्सली से बातचीत होगी? अगर विकास की मुख्य धारा में शामिल होना है। तो बंदूक छोड़ बातचीत की मेज पर आना होगा। पर दिग्गी कभी हिंदू आतंकवाद का जुमला उछालते। तो कभी बटला हाउस मुठभेड में मारे गए आतंकियों के घर जाकर सहानुभूति जताते। यों दिग्गी राजा ने बीजेपी को भी निशाने पर लिया। छत्तीसगढ़ में बीजेपी की चुनावी जीत को नक्सली सांठगांठ का नतीजा बताया। राज्य की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठाए। पर असली निशाना चिदंबरम और नक्सलियों से निपटने का उनका तरीका ही रहा। अब दिग्गी राजा अपनी ही सरकार के होम मिनिस्टर पर इतना बड़ा आरोप मढ़े। तो बिना राहुल-सोनिया की सहमति संभव नहीं। चिदंबरम ने इस्तीफे की खबरें प्लांट की थी। तो समूची कांग्रेस असहज हो गई। चिदंबरम की नक्सलियों पर सख्ती कुछ कांग्रेसियों को हजम नहीं हो रही। या यों कहें, कांग्रेस एक तरफ सख्ती, तो दूसरी तरफ नरमी का संदेश देना चाह रही। पर दिग्गी राजा ने अपने लेख में कुछ अहम सवाल उठाए। मसलन, नक्सली समस्या जंगली क्षेत्र में रहने वाले लोगों की उम्मीद को नजर अंदाज कर नहीं सुलझ सकती। क्या इन तक जनवितरण प्रणाली, मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन और अन्य गरीबपरक नीतियां पहुंची? क्या हमारी वन नीति, खनन नीति, भूमि व जल नीति जनता केंद्रित हैं? उस ऐतिहासिक पेसा कानून का क्या हुआ, आदिवासियों में पंचायती व्यवस्था के लिए बनी थी? क्या जन सहयोग के बिना सिर्फ पुलिस-सेना के जरिए नक्सल समस्या सुलझ जाएगी? बुलेट नक्सलियों की बंदूक से निकले या पुुलिस की बंदूक से। आखिरकार शिकार आम हिंदुस्तानी ही होगा। सो उस क्षेत्र की समस्या सुलझाए बिना नक्सलवाद से नहीं निपटा जा सकता। अब भले दिग्गी राजा की बात सही। पर सवाल देख यही लगा, दिग्गी राजा सत्ता पक्ष के नेता कम, विपक्ष के ज्यादा हैं। अब कोई दिग्गी राजा से पूछे, आजादी के साठ साल तक आदिवासी मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाएं। तो जिम्मेदार किस सरकार की नीतियां। देश में करीब 50 साल तक कांग्रेस का ही राज रहा। जिन नीतियों की बात दिग्गी ने की, पिछले छह साल से मनमोहन सरकार क्या कर रही। रही बात राजनीतिक सांठगांठ की। तो वाकई नेता ही एक-दूसरे की पोल खोल सकते। पर दिग्गी राजा को अपनी बात कहने के लिए सार्वजनिक मंच की जरुरत क्यों पड़ी? आखिर मुद्दे ने तूल पकड़ा। तो कांग्रेस ने बटला की तर्ज पर दिगगी को फिर नसीहत दी। निजी राय भी पार्टी फोरम पर ही रखे। अब दिग्गी की निजी राय हो या किसी के इशारे पर दी गई। कांग्रेस को भी बीजेपी का रोग लग गया। जैसे बीजेपी में पार्टी फोरम से पहले नेता मीडिया में बोलते। वैसे ही अब कांग्रेस ने किया।
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14/04/2010

Tuesday, April 13, 2010

आईपीएल, फ्रेंचाइजी की गुगली और 'वो' !

दूसरी बीवी का कनफोड़ू शोर अभी ठीक से थमा भी नहीं कि अब तीसरी बीवी का किस्सा गूंजने लगा। शोएब मलिक ने आयशा को तलाक तो दिया। पर हायतौबा ऐसी मची, तीन दिन पहले ही सानिया से निकाह हो गया। अब रस्में निकाहनामे के बाद पूरी हो रहीं। पर तीसरी बीवी का किस्सा सीधे राजनीति से जुड़ा। दो-तीन दिनों से लगातार खबरें आ रही, विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर तीसरी शादी करने जा रहे। अब भले थरूर तलाक देकर तीसरी शादी रचा लें। पर विवादों से थरूर का रिश्ता ऐसा, जो शायद कभी तलाक नहीं हो। अब जिस सुनंदा पुष्कर से शादी की अटकलें लग रही। उसी को लेकर विवाद हो गया। आईपीएल के अगले सीजन से कोच्चि और पुणे की टीम भी मैदान में उतरेगी। हाल ही में दोनों टीमों की बोली लग चुकी। पुणे टीम को सहारा ने खरीदा, तो कोच्चि में रोंदेवू कंपनी के साथ कई शेयरहोल्डर। अब दोनों टीमें खेलेगी तो अगले सीजन में, पर बखेड़ा इसी सीजन में हो गया। आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी और शशि थरूर में ठन गई। मोदी की मानो, तो थरूर ने कोच्चि टीम की खरीददादी में खेल किया। रोंदेवू कंपनी की आड़ में अपनी दोस्त सुनंदा पुष्कर को 75 करोड़ के शेयर भी दिलाए। बकौल मोदी, शेयरहोल्डरों के नाम सार्वजनिक नहीं करने को थरुर ने दबाव डाला। पर थरूर इससे इनकार कर रहे। अलबत्ता उनने मोदी पर ही पलटवार किया। मोदी ने रोंदेवू को बोली प्रक्रिया से हटने के लिए दबाव बनाया। यों थरूर ने मोदी से फोन पर बातचीत कबूला। अब किसने, किसके कहने पर क्या किया। यह तो बाद की बात। पर इतना साफ हो गया, थरूर हों या मोदी, किसी की कमीज एक-दूसरे से सफेद नहीं। मोदी ने थरूर पर सुनंदा के जरिए पैसा लगाने का आरोप मढ़ा। तो थरूर के ओएसडी जैकब जोसेफ ने दोहरे आरोप लगाए। पंजाब टीम में ललित मोदी के रिश्तेदारों के पैसे लगे। तो यूएस में मोदी पर ड्रग केस का मामला। यानी अपने बचाव के चक्कर में दोनों एक-दूसरे की पोल-पट्टी ही खोल रहे। वैसे भी आईपीएल का मकसद क्रिकेट को बढ़ावा देना था ही नहीं। अलबत्ता खाली सीजन में कैसे अकूत धन उगाही हो। इसका फंडा ललित मोदी ने बीसीसीआई को सुझाया। फंड का इतना बड़ा फंडा देख आखिर किसका ईमान नहीं डोलेगा। सो किसी जमाने में एक-दूसरे के दुश्मनों को भी आईपीएल ने एक कर दिया। शरद पवार जब पहली बार बीसीसीआई का चुनाव हारे। तब अरुण जेतली ने रणवीर सिंह महेंद्रा को जिताने में ताकत झोंकी थी। फिर अपने राजस्थान में बीजेपी सरकार ऑर्डिनेंस लाई। तो मोदी की वजह से जेतली ने राजनीति का भी लिहाज नहीं किया। अपनी पार्टी की ही सरकार के खिलाफ केस की पैरवी की। सो जेतली की तब ललित मोदी के साथ-साथ वसुंधरा राजे से भी छत्तीस का आंकड़ा था। पर जैसे ही आईपीएल का फंडा आया। राजस्थान विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बजी। तो जेतली-वसुंधरा की राजनीतिक एकता भी बन गई। आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी हुए, तो जेतली को गवर्निंग बॉडी में जगह मिल गई। यानी आईपीएल ने बड़े-बड़े रिश्ते बनाए। पर विवाद की ताजा वजह, एक मंत्री की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का। वैसे भी थरूर मंत्रालय के कामकाज से ज्यादा ट्वीटर की दुनिया में ही रहते। सो मंत्री बने साल भर भी नहीं हुए। पर विवादों की लिस्ट देखिए। मिस्र के शर्म-अल-शेख में मनमोहन-गिलानी साझा बयान हुआ। भारत में विरोध के सुर गूंजे। तो थरूर ने साझा बयान को यों ही बताकर बखेड़ा बढ़ाया था। फिर फाइव स्टार से निकलना पड़ा और सादगी का फार्मूला दिया गया। तो जिस इकॉनॉमी क्लास में सोनिया गांधी तक ने सफर किया। उसे थरूर ने मवेशियों का क्लास बता दिया। नेहरू की विदेश नीति पर सवाल, गांधी जयंती की छुट्टी पर सवाल और फिर भारतीय राजनीति में बहस की गुंजाईश न होने की टिप्पणी। हर बार थरूर को विरोधियों के साथ-साथ अपनों की भी फटकार सुननी पड़ी। पर सुधरने का नाम नहीं। अब आईपीएल की कोच्चि टीम की फ्रैंचाईजी का विवाद। तो राजनीतिक पारा चढ़ा ही, मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया। बीजेपी ने फौरन पीएम से मांग कर दी, थरूर को बर्खास्त करें। कांग्रेस भी गंभीर हुई, तो विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा और राजीव शुक्ल दस जनपथ तलब हुए। मामले का जायजा लिया गया। तो देर शाम कांग्रेस ने बीसीसीआई का मामला बता दूरी बना ली। शायद पीएम के विदेश दौरे से लौटने का इंतजार। बीसीसीआई भी मीटिंग बुला चुकी। मोदी से भी जवाब तलब कर लिया गया। पर क्या देश में क्रिकेट ही सबकुछ? नेता जी, और भी गम हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा। पर जब क्रिकेट में की गुगली और 'वो'  का तडक़ा लग जाए। तो फिर कोई गम नहीं। कैसे हरियाणा के डिप्टी सीएम चंद्रमोहन ने फिजा के लिए कुर्सी गंवा दी थी। अब आईपीएल को ही लो। पंजाब टीम के प्रमुख प्रीति जिंटा और नेस वाडिया, दोनों की शादी की चर्चा लंबे समय से। राजस्थान रॉयल्स में शिल्पा पहले मालकिन बनीं। फिर शेयर होल्डर राज कुंद्रा से शादी। मुंबई टीम मुकेश ने बीवी नीता के नाम पर खरीदा। रॉयल चैलेंजर्स के मालिक विजय माल्या तो दीपिका पादुकोण को लकी चाम्र्स बनाकर हर मैच में बिठाते। अब सुनंदा से थरूर की तीसरी शादी की खबर और कोच्चि टीम की फ्रैंचाईजी पर मोदी-थरुर की गुगली।
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13/04/2010

आग लगी है! आओ मिलकर खोदे कुआं

तो अब सरकारी फरमान जारी हो गया। आंतिरक सुरक्षा के मसले पर सिवा होम मिनिस्ट्री के कोई जुबान नहीं खोले। केबिनेट सेक्रेटरी के.एम. चंद्रशेखर का सर्कुलर सभी विभाग को पहुंचा। तो इशारों ही इशारों में नसीहत अपने सेना प्रमुखों को थी। दंतेवाड़ा नक्सली हमले के बाद बदहवासी में जैसी बयानबाजी हुई। छत्तीसगढ़ के सीएम रमण सिंह ने तो बाकायदा एतराज भी जताया था। पर सोमवार को वायुसेना प्रमुख पीवी नाईक ने फिर सवाल उठाया। अगर नक्सलियों के खिलाफ हवाई बम गिराए गए। तो ढ़ाई सौ किलोग्राम वाले बम का असर कम से कम आठ सौ मीटर तक होगा। सो पहले जनहानि की स्पष्ट नीति तय हो। यों नाईक की बात सोलह आने सही। वायुसेना घरेलू जंग के लिए नहीं बनाई गई। अन्य देशों से लड़ाई के हिसाब से मारक क्षमता वाले अस्त्र-शस्त्र तैयार किए गए। अब वाकई उन बमों का इस्तेमाल अपने ही देश में हो। तो नक्सलियों को नुकसान होगा ही, आसपास रहने वाले निर्दोष लोगों की कई पीढिय़ां उसके दुष्परिणाम भुगतेंगी। जैसे जापान में हिरोशिमा-नागासाकी के लोग भुगत रहे। इराक-अफगानिस्तान में भी अमेरिकी बमों का असर आनेे वाली पीढियों पर दिखने लगा है। सो वायु सेना प्रमुख जो कह रहे, वह हथियारों की मारक क्षमता को समझते हुए। पर नक्सली हमले में 76 जवानों की मौत ने राजीतिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। सो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने वायु सेना के इस्तेमाल की संभावना जता दी। तो थल सेना के इस्तेमाल की जरुरत पर भी बहस छिड़ गई। पीएम से लेकर होम मिनिस्टर तक। थल सेना प्रमुख से वायु सेना प्रमुख तक। मंत्रियों से लेकर राजनीतिक दलों तक। सबके बयानों में विरोधाभास दिखने लगा। अब सर्कुलर तो जारी हो गया, पर नेताओं की जुबां पर कौन लगाम कस सकता? अपनी व्यवस्था की तो अजब कहानी हो चुकी। जैसे आतंकवादी हमलों के बाद अपना तंत्र मुस्तैद होता था। अब नक्सलवादी हमले में भी वही हाल हो गया। ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु तो कर दिया। नक्सलियों को डरपोक-कायर कहकर उकसाने की कोशिश भी शुुरु कर दी। ताकि नक्सली सामने आकर लड़े। पर गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सलियों ने जवानों को छकाया। पहली बार इतनी बड़ी तादाद में अपने जवान में मारे गए। तो भी सीआरपीएफ से लेकर होम मिनिस्ट्री तक, सबने जवानों के प्रशिक्षण पर उठे सवाल खारिज कर दिए। पर कहते हैं ना, झूठ के पांव नहीं होते। अब सरकार ने तय किया, सीआरपीएफ के जवानों को कमांडो और गुरिल्ला युद्ध में माहिर करने को पूर्व सैनिक भर्ती किए जाएंगे। यानी जंगल युद्ध में निपुण रहे रिटायर्ड फौजी अब सीआरपीएफ को ट्रेंड करेंगे। पर यह कैसी व्यवस्था, जो बीती घटना के हिसाब से खुद को तैयार करती? अगर कल को नक्सली भी आतंकियों की तरह कोई और तरीका अपनाए। तो क्या फिर जवानों के नए सिरे से ट्रेनिंग दी जाएगी? क्या व्यवस्था के पास अपना कोई विजन नहीं? क्या सिर्फ जुबान चलाना ही राजनीतिक व्यवस्था की खासियत? मौजूदा व्यवस्था का रुख देखकर तो यही आभास हो रहा। तभी तो आग लगने के बाद कुआं खोद रहे। नक्सलियों ने 76 जवान मार दिए। तो अब सरकार को ट्रेनिंग याद आ रहा। वाकई नक्सली युद्ध में अपने जवान तो झोंक दिए जाते। पर उनकी सुविधा की फिक्र शायद ही कोई करता। जंगली क्षेत्र से नावाकिफ सुरक्षा बलों को सिर्फ आदेश दिया जाता। फलां जगह जाकर कैंप करो। पर कैसे जाना है, कौन आगे का रास्ता बताएगा या रास्ते में कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, यह बताने वाला कोई नहीं। बड़े अधिकारी तो एसी कमरों में बैठकर सिर्फ फरमान जारी कर देते। यही हाल अधिकारियों के ऊपर बैठे राजनीतिक आकाओं की। तभी तो जैसे नक्सली हमले के बाद ट्रेनिंग की बात हो रही। कुछ वैसा ही हाल महिला आरक्षण बिल का। राज्यसभा से बिल पास हो गया। तो लोकसभा में आम सहमति की कवायद हो रही। बिल में संशोधन की गुंजाईश पर भी मंथन हो रहा। पर महिला बिल का विरोध राज्यसभा में पारित कराने से पहले भी था। सो आम सहमति के प्रयास पहले ही कर लेते। वरना, जैसे राज्यसभा में पास कराया, कांग्रेस वैसी ही हिम्मत लोकसभा में भी दिखाए। पर आग लगने के बाद कुआं खोदना अपनी राजनीति की आदत। अब देखो, राज्यसभा से भले बिल पास हुआ। पर आरक्षण के बाद मुश्किलें किसकी बढेंगी। लोकसभा के करीब 138 उन सांसदों की परेशानी बढेगी, जिनकी सीटें आरक्षण की भेंट चढेगी। सो विरोध के स्वर सभी दलों में। आखिर जिन क्षत्रपों की परंपरागत सीटें जाएंगी, वह क्या करेंगे? सवाल महिला आरक्षण बिल के समर्थन या विरोध का नहीं है। अलबत्ता करीब 138 सांसदों के राजनीतिक कैरियर का है, जो बिना सांसद बने बिन पानी मछली हो जाएंगे। सो तड़प अपना अस्तित्व बचाने की। पर विरोध के लिए अलग-अलग पैतरे आजमाए जा रहे। कोई पिछड़ों की, तो कोई मुस्लिमों के आरक्षण की आवाज बुलंद कर रहा। कभी उलेमा फतवा जारी कर रहे, कभी पर्सन लॉ बोर्ड। खुद बीजेपी-कांग्रेस के ज्यादातर नेता बिल के हक में नहीं। अब आप ही सोचिए, जब परिसीमन को लेकर इतना बखेड़ा हुआ था। तो महिला बिल पर क्या होगा, यहां तो अस्तित्व की लड़ाई है। तभी तो आपसे कहा, देश की सुरक्षा का मामला हो या आधी आबादी के हक की लड़ाई का। आग लगने के बाद कुआं खोदने में मशगूल हैं अपने नेता। -----

Friday, April 9, 2010

एक थे पाटिल और एक हैं चिदंबरम

शुक्रवार को एक फिल्म रिलीज हुई, जो आपको परदे पर नजर नहीं आएगी। फिल्म का नाम है- राजनीति की नैतिकता। पी. चिदंबरम ने इस्तीफे की पेशकश की। अब यह सब अचानक से नहीं हुआ। अलबत्ता जैसे पूरी फिल्म की शूटिंग पहले हो जाती और बढिय़ा मुहुर्त देख रिलीज होता। ठीक वैसे ही शुक्रवार को हुआ। जब दंतेवाड़ा के नक्सली हमले पर नैतिकता का बड़ा खेल हुआ। चिदंबरम सीआरपीएफ के शौर्य दिवस प्रोग्राम में थे। वहीं नैतिक जिम्मेदारी ओढऩे का एलान कर दिया। पीएम-सोनिया से मिलकर अपनी बात कह चुके। अब ये बातें तो सार्वजनिक तौर से हुई। पर बैक डोर से प्लांट हो गया, चिंदबरम ने इस्तीफे की पेशकश की। बस क्या था, चारों तरफ राजनीतिक पारा चढ़ गया। चिंदबरम के बिछाए राजनीतिक जाल में अपने तो अपने विपक्षी भी फंस गए। सफाई आने लगी, पीएम ने इस्तीफा मंजूर नहीं किया। विपक्षी बीजेपी ने तो दो कदम आगे बढकर कह दिया। चिदंबरम इस्तीफा न दे, नहीं तो यह नक्सलियों की जीत होगी। अब किसी केबिनेट मंत्री के लिए विपक्ष ऐसी भावना दिखाए। तो क्या समझेंगे आप? यही ना, देखो कितना अच्छा मंत्री है। अब अगर अंदरखाने कहीं किसी कांग्रेसी के मन में खुन्नस भी हो। तो दबानी पड़ जाएगी। चिदंबरम का यही दर्द तो उभर कर सामने आया। उनने कहा, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर मुझसे पूछा जा रहा था। इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है। सो दंतेवाड़ा हमले की पूरी जिम्मेदारी मैं लेता हूं। अब पूछने वालों को जवाब भी मिल गया। चिदंबरम ने एक ही स्ट्रोक से अपनी राजनीतिक हैसियत भी बढ़ा ली। पर इस्तीफे की खबरों में कितना दम, यह खुद प्रणव मुखर्जी ने बता दिया। सवाल हुआ, तो दादा ने साफ कह दिया। अफवाहों पर यकीन न करो। यानी नक्सली हमले में अपनों की आलोचना से आहत चिदंबरम ने सोच-समझकर इस्तीफे का राजनीतिक पासा फेंका। अगर चिदंबरम ने छत्तीसगढ़ से लौटते ही पीएम से मिल अपनी मंशा जता दी थी। तो क्या राजनीतिक नौटंकी दिखाने के लिए शुक्रवार का इंतजार कर रहे थे? उसी दिन देश को कह देते, जिम्मेदारी लेता हूं। पर नेता इतनी ईमानदारी दिखाने लगे। तो फिर राजनेता कहां, समाज सेवक हो जाएं। अब चिदंबरम का बतौर होम मिनिस्टर हिसाब-किताब लें। तो कोई शक नहीं, उनने 26/11 के हमले के बाद खुफिया तंत्र का कायापलट कर दिया। अधिकारियों को जिम्मेदारी का अहसास कराया। पर नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में थोड़ी चूक कर गए। राजनीतिक नंबर बढ़ाने के चक्कर में लालगढ़ गए। तो बुद्धदेव भट्टाचार्य से ही उलझ गए। अपनी शेखी बघारने को एलान कर दिया। नक्सलवादी कायर हैं, जंगलों में छुपे बैठे। अब सुरक्षा बल किसी खास ऑपरेशन में जुटे हों और होम मिनिस्टर ऐसा उकसाने वाला बयान दे। तो क्या कहेंगे आप। आखिर वही हुआ, जंगल के हर रास्ते से वाकिफ नक्सलियों ने ऐसा जाल बिछाया। अपने सीआरपीएफ के जवान समझ ही नहीं पाए। चिदंबरम के बयान का जवाब नक्सलियों ने 76 सुरक्षा बलों को मार कर दिया। वैसे नक्सली वाकई कायराना हरकत पर उतारु। पर गांव में कहावत है ना, मरखाने बैल को लाल कपड़ा दिखाओगे, तो वह सींग मारेगा ही। नक्सलियों ने चिदंबरम के बयान को लाल कपड़ा समझ लिया। अब चिदंबरम नैतिक जिम्मेदारी ओढ़ रहे और वाकई उन्हें अपनी भूल का अहसास। तो सिर्फ पेशकश क्यों, इस्तीफा देकर चले जाते। भले पीएम पद पर रहने की मनुहार करते, अगर अपनी गलती का अहसास है तो कतई नहीं मानते। अगर चिदंबरम इस्तीफे की पेशकश कर रहे। तो इसका क्या मतलब निकाला जाए। यही ना, नक्सलवाद के खिलाफ बनाई अपनी रणनीति के आगे चिदंबरम हार गए। ऑपरेशन ग्रीन हंट आखिर चिदंबरम की ही तैयारी। पर इस्तीफा देकर अपनी ही योजना का नाकाम बता रहे। अगर नक्सलवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ा है। तो युद्ध में कुर्बानी तो होंगी ही। अगर व्यवस्था में जज्बा, तो ईंट का जवाब पत्थर से दें। साथ ही कुर्बानी देने वाले जवानों के परिवार की जिम्मेदारी भी सरकार की। पर नेताओं से उम्मीद करना बेमानी ही। तभी तो शुक्रवार को जब चिदंबरम के इस्तीफे की पेशकश पर राजनीतिक पारा चढ़ा। तो कांग्रेस ने साफ कर दिया, इस्तीफा नहीं माना जाएगा। पर लगे हाथ एक और बात कही, जरा आप भी सुन लो। अभिषेक मनु सिंघवी बोले- च्हम रमण सिंह का इस्तीफा नहीं मांग रहे।ज् यानी कांग्रेसी पैंतरा, जब रमण नहीं तो चिदंबरम क्यों? पर रमण सिंह का इस्तीफा नैतिकता के किस फॉर्मूले से मांगेगी कांग्रेस? नक्सलियों के खिलाफ राज्य और केंद्र का यूनीफाइड कमांड अब तक नहीं बना। तो जिम्मेदार कौन? रमण सिंह तो अभी भी लडऩे का जज्बा दिखा रहे। चिदंबरम की तरह नहीं, जो मैदान छोडऩे की तैयारी कर रहे। वैसे जो भी हो, चिदंबरम और उनके पूर्ववर्ती शिवराज पाटिल में एक बड़ा फर्क तो दिखा। हर आतंकी धमाके के बाद शिवराज पाटिल सिर्फ जुबान चलाते। पर इस्तीफे की पेशकश तो छोडि़ए, इस्तीफा शब्द आते ही एनडीए राज के हमले गिना देते। पर चिदंबरम ने भले राजनीति के लिए ही सही, कम से कम इस्तीफे की पेशकश तो की।
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09/04/2010

Thursday, April 8, 2010

ये लो महंगाई पर अब कमेटी-कमेटी का खेल

महंगाई पर मत्थापच्ची करने फिर बैठी सरकार। छह फरवरी को सीएम कांफ्रेंस में चतुराई दिखा पीएम ने कोर कमेटी बना ली थी। दस राज्यों के सीएम और खुद पीएम-प्रणव-पवार-मोंटेक मेंबर हो गए। एक्सपर्ट के नाते पीएम के आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन भी शामिल किए गए। यानी महंगाई भगाने नहीं, अलबत्ता जिम्मेदारी से भागने का पूरा बंदोबस्त तभी हो गया। सो दस राज्यों में चार विपक्षी एनडीए शासित बिहार, पंजाब, छत्तीसगढ़, गुजरात। तो पांच यूपीए शासित आंध्र, असम, महाराष्ट्र, हरियाणा, तमिलनाडु और एक वामपंथियों का बंगाल। मकसद साफ था, अब विपक्ष सिर्फ केंद्र पर ठीकरा न फोड़ सके। यों राजनेताओं का जो भी मकसद हो। आम आदमी को तो महंगाई की आदत पड़ चुकी। सो पीएम-सीएम खामखाह दिमाग पर बोझ ले रहे। जेब पर महंगाई का बोझ तो आम आदमी उठा ही रहा। फिर देश की और भी कई समस्याएं। वैसे भी एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर राजकाज चलाना आसान नहीं होता। सो सत्तानशीं दिमागदारों को सलाह, बेवजह स्ट्रेस न लें। आखिर उम्र भी कोई चीज होती। सो पहले अपनी सेहत का ख्याल रखें। आम आदमी का क्या, वह तो जैसा पैदा हुआ, वैसा ही मर जाएगा। पर नेतागण तो देश की महान विभूतियां। कितनी भट्ठियों में तपकर आज सेवाभाव से देश का भला कर रहे। सो हे नेताओं, कुछ विश्राम भी कर लें। ताकि आगे भी इसी तल्लीनता के साथ सेवारत रह सकें। देश के पीएम मनमोहन ने तो छह फरवरी को ही कह दिया था। महंगाई का बुरा दौर अब खत्म हो चुका और जल्द ही कीमतें नीचे की ओर आएंगी। भले तबसे अब तक में दूध-सब्जी, पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि की कीमतें बढ़ गईं। पर आम आदमी को कौन समझाए। देश हित में भी नेताओं को कुछ फैसले लेने पड़ते हैं। अपने नेता कितने दबाव में काम करते हैं, कौन समझेगा। आम आदमी पर थोड़ी सी बोझ क्या बढ़ी, हो-हल्ला करने लगे। भइया नेता लोग जमीन से उठकर आए। सो जमीनी हकीकत समझने के लिए गांवों में जाने की जरुरत नहीं पड़ती। एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर ही काम हो जाए। तो कमर को तकलीफ क्यों देवें नेताजी। वैसे भी जब किसी का जीवन स्तर ऊपर उठता है। तो वह पीछे मुडक़र नहीं देखता। फिर भी यह नेताओं की मेहरबानी समझिए। गुरुवार को सात रेस कोर्स पर पीएम-सीएम की कोर कमेटी ने घंटों सिर खपाया। नेताओं की इस कड़ी मिहनत की तो तारीफ होनी चाहिए। पर नहीं हो रही, सो अपनी तो यही सलाह। अभी क्यों महंगाई पर मत्थापच्ची कर रहे। अभी न तो कोई चुनाव और न ही कोई किर्गिजस्तान जैसा जन विद्रोह। सो जैसे पहली पारी के आखिरी बजट में मनमोहन सरकार ने किसानों की कर्ज माफी और छठा वेतन आयोग लागू करने के चक्कर में खजाना लुटाया। अबके भी जब चुनावी शंखनाद हो, तब कुछ ऐसा ही करतब दिखा दे। अपनी जनता का क्या, वह तो क्षणिक मात्र को नाराज होती। सो फिर चुनावी महीनों तक के लिए झोली भर दो। ईवीएम में वोट ले लो और कर लो सत्ता मुट्ठी में। अब सत्ताधारियों के पास चुनावी जीत का लाजवाब मंत्र। तो विपक्ष के आंदोलनों से डरने की क्या जरुरत। गुरुवार को वामदलों ने महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन और जेल भरो आंदोलन किया। तो बीजेपी ने 21 अप्रैल की रैली की योजना बनाई। नितिन गडकरी की टीम की पहली मीटिंग हुई। तो महंगाई पर यूपीए सरकार को झुकाने का खम ठोका। पर आंदोलन की हवा कैसे निकल रही, आप खुद देख लो। इंदौर अधिवेशन के मंच से गडकरी ने 10 लाख की भीड़ जुटा संसद घेरने का एलान किया था। पर गुरुवार को अनंत कुमार आंकड़ा बताने के बजाए कहां से कितनी ट्रेन आएंगी, यही बताते रहे। अब ट्रेन एकला बीजेपी वर्करों के लिए तो आएगी नहीं। वैसे भी ट्रेनें चलाने का काम रेल मंत्रालय का। पर फिलहाल बीजेपी ट्रेनें गिन रही। मध्यप्रदेश से कहीं भीड़ कम न हो जाए। सो प्रदेश अध्यक्ष के चयन का मामला रैली तक टाल दिया। वैसे भी मध्यप्रदेश में उमा भारती को लेकर बीजेपी संकट में। शिवराज तो उमा की वापसी के खिलाफ धमकी पर उतर आए। राजस्थान, बिहार, दिल्ली जैसे राज्यों में अंदरुनी सिर-फुटव्वल संगठन चुनाव नहीं होने दे रहा। पर गुरुवार को टीम गडकरी की पहली मीटिंग हुई। तो गडकरी ने रोडमैप बताया। नेताओं को महीने में आठ दिन प्रवास करने, संगठनात्मक-राजनीतिक-चुनावी योजना तैयार करने और बूथ कमेटियों दुरुस्त करने का मंत्र दिया। हर साल दस हजार लोगों को विचारधारा के हिसाब से प्रशिक्षण देने की भी योजना बनी। गडकरी ने हर स्तर के नेताओं को जमीन से जुडऩे की हिदायत भी दी। अब गडकरी की बीजेपी में कितनी चल रही, यह तो चार महीने में ही साफ हो चुका। सो हे सत्ताधारियों, क्यों व्यर्थ विपक्ष से डरते हो। विपक्षी बीजेपी वाले तो आपस में ही एक-दूसरे से डरे हुए। सो 21 अप्रैल के आंदोलन की चिंता छोड़ दो। तुम तो एयरकंडीशंड कमरों में बैठकर देश के भविष्य की तस्वीर बनाओ। जैसे गुरुवार को सात रेस कोर्स में बनाई गई। पीएम-सीएम की कोर कमेटी ने महंगाई पर मंथन के बाद अलग-अलग तीन कमेटियां बना दीं। अब आप ही देखो, मंथन करने बैठे कुल जमा पंद्रह लोग। पर निपटें कैसे, पल्ले नहीं पड़ा। सो 15 मेंबरों में ही तीन कमेटी बन गई। अब पीएम-सीएम की कोर कमेटी दो महीने बाद रपट के साथ मिलेगी। तब तक संसद में वित्त विधेयक पारित हो चुका होगा। अब छह फरवरी की मीटिंग के दो महीने बाद मीटिंग हुई। तो महंगाई बढ़ चुकी। अब फिर दो महीने बाद क्या होगा, यह कौन जाने।
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08/04/2010

Wednesday, April 7, 2010

और भी गम हैं जमाने में हैदराबादी ड्रामे के सिवा

बेगानी शादी में दीवाने 'अब्दुल्लों' को आखिर बोरिया-बिस्तर बांधना पड़ा। शोएब-आयशा में समझौता हो गया। आखिर शोएब ने तलाक, तलाक, तलाक कह दिया। तो सानिया-शोएब के निकाह में जबरन बाराती बनने को बेकरार अपनी बिरादरी वालों को मायूसी हाथ लगी। सो भले सानिया मिर्जा का घर न सही, चैनलों के दफ्तरों में ही महफिल सज गई। किसी ने शोएब को झूठा कहा। तो किसी ने तलाकनामे को आधार बना अपनी खबरों को पुष्ट करना शुरु कर दिया। शोएब-आयशा एपीसोड खत्म हुआ, तो चैनलों ने विशेष एपीसोड बना दिए। दिन भर इन्हीं खबरों को ऐसे परोसा। मानो, देश में और कोई गम ही नहीं। मंगलवार को नक्सली हमले में अपने 76 जवान शहीद हुए। तो बुधवार को बिहार से एक बड़ी खबर आई। पर अपने चैनलों के लिए महज नीचे की पट्टी पर चलने वाली खबर रही। पटना की एक अदालत ने 16 दबंगों को फांसी और आठ को आजीवन कारावास की सजा सुनाई। मामला पहली दिसंबर 1997 का था। भूमि मामले को लेकर दबंगों की बनाई रणबीर सेना ने 58 दलितों का नरसंहार कर दिया था। जिनमें 27 महिलाएं और 16 बच्चे भी शामिल थे। बिहार के लक्ष्मणपुर बाथे गांव में रणबीर सेना वाले सोन नदी पार कर घुसे। जिस नाव से नदी पार की, उसे चलाने वाले मल्लाह को भी मार दिया। फिर आधी रात के करीब गांव में घुस लोगों को बाहर निकाला और गोलियों से भून दिया। तीन घंटे चले इस कत्ल-ए-आम ने पूरा गांव ही उजाड़ दिया था। तबके राष्ट्रपति के.आर. नारायणन इस घटना से इतने आहत हुए कि उन्होंने इसे राष्ट्रीय शर्म करार दिया था। अब बुधवार को उस पर ऐतिहासिक फैसला आया। तो अपने चैनलों के लिए यह शायद बड़ी खबर नहीं थी। आईपीएल में कोई टीम जीते या हारे, तो फौरन लाइव होने लगता, ब्रेकिंग न्यूज चलने लगती। क्या भूमिहीन मजदूरों को मिले न्याय में कुछ ब्रेकिंग नहीं? क्या संजय दत्त, और सिद्धू के केस ही मीडिया के तराजू पर खरी उतरती? अब दांतेवाड़ा की घटना ही लीजिए। बुधवार को जगदलपुर में शहीदों को विशेष श्रद्धांजलि दी गई। पर दिन के वक्त चैनलों ने शोएब-आयशा-सानिया विवाद को ही फोकस किया। क्या नक्सलियों का इतना बड़ा हमला अपनी मीडिया के लिए एक दिनी घटना भर? प्राइम टाइम में चैनलों ने नक्सली हमले से जुड़ी खबरें भी परोसी। पर जरा नमूना देखिए। एक चैनल ने पांच हैडलाईन दिखाए, जिसमें से तीन सिर्फ और सिर्फ शोएब-आयशा-सानिया से जुड़े थे। श्रद्धांजलि और होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम का एलान चौथी खबर थी। यों एकाध चैनल ऐसा भी, जिसने ईमानदारी दिखाई। नक्सलवादी हमले और बाद की कहानी को विस्तार से परोसा। नक्सलियों के हमले को चिदंबरम ने सरकार के खिलाफ युद्ध तो करार दिया। पर सेना के इस्तेमाल से इनकार कर गए। इंटेलीजेंस की नाकामी को भी नकारा। तो सवाल, आखिर चूक कहां हुई? अपने सुरक्षा बलों पर जंगल में छुपकर रहने वाले नक्सली भारी कैसे पड़े? नक्सलियों को ट्रेनिंग कहां से मिल रही? नक्सलियों को हथियार और बम तैयार करने के साजो-समान कहां से सप्लाई हो रहे? पर सरकार को कटघरे में खड़ा करने और बार-बार की कुर्बानी का हिसाब दिलाने के बजाए कुछ चैनलों को शोएब-आयशा-सानिया विवाद में मजा आ रहा था। तो क्या टीआरपी की होड़ में चैनल वाले सिर्फ चॉकलेटी चेहरों को ही दिखाएंगे? क्या देश के लिए खून बहाने वाले जवानों की कोई कीमत नहीं? यों एकाध चैनल ने मानवीय मूल्यों से जुड़ी खबरों को फोकस जरुर किया। पर तब, जब हैदराबादी ड्रामे का परदा गिर गया। सो मीडिया के लिए मंथन की घड़ी, आखिर चौैथा स्तंभ किसके लिए काम कर रहा? अगर मीडिया ने इतना शोर-शराबा न मचाया होता। तो मामला कूटनीतिक स्तर तक नहीं पहुंचता। पर पाक हुकूमत ऐसे मामलों में टांग अड़ाने से कहां पीछे रहने वाली। अब कोई पूछे, शोएब-आयशा-सानिया एपीसोड में देश की बाकी जनता का क्या हित रहा? तीनों परिवार का निजी मामला था। सो निजी तरीके से निपटा लिए। अब पूरे एपीसोड में शोएब जीता या आयशा, यह कहने नहीं, समझने की बात। आयशा ने शोएब की पत्नी होने का दावा किया था। शोएब ने आयशा से निकाह कबूला, पर माहा मानकर। अब तलाकनामे को ही देख लो। शोएब ने माहा और आयशा दोनों नाम को तलाक दिए। आयशा के परिवार ने एफआईआर वापस ले ली। अब आप ही तय करिए, कौन जीता-कौन हारा। इस पूरे विवाद में इतना भर हुआ कि दोनों पक्षों की बात रह गई और बुद्धू बना अपना मीडिया। अब सानिया और शोएब का निकाह होगा। और चैनल वाले बहस का मुद्दा बनाएंगे। इससे भी मन नहीं भरा, तो निकाह के दिन जबरन तांक-झांक की कोशिश होगी। अगर शादी कवरेज का मौका मिल गया। तो फिर चैनल वाले रिसेप्शन-हनीमून और बच्चे होने तक की कहानी दिखाने को बेताब होंगे। इतना ही नहीं, सानिया-शोएब का रिश्ता कब तक टिकेगा, इसकी भी कहानी गढ़ी जाने लगी। कहीं सट्टे लग रहे, तो अपने कुछ ज्योतिषी पोथा खोलकर बैठ गए। अब चैनल वालों को कुछ नहीं मिला, तो इन्हीं ज्योतिषियों को स्टूडियों में बुला शुरु हो जाएंगे। क्या यही अपनी विजुअल मीडिया का पैमाना? मुंबई हमला हो या निजी जिंदगी में तांक-झांक का मुद्दा विजुअल मीडिया हमेशा सवालों के घेरे में रहा। मुंबई हमले के बाद न्यूज ब्रॉडकास्टर एसोसिएशन ने खुद की आचार संहिता तो बना ली। पर जिम्मेदारी तय नहीं की। ----------
07/04/2010

Tuesday, April 6, 2010

राह भटके नक्सली, तो राजनीति भी कम नहीं

हमलों के बाद हरकत में आना और फिर राजनीति करना अपनी व्यवस्था की फितरत बन चुकी। नक्सलवाद अब नासूर बन चुका। राजनेता अपने शरीर का नासूर डॉक्टरी के इलाज से ठीक कर लेते। पर अपनी व्यवस्था के इस नासूर को खत्म करने का साहस नहीं। तभी तो नक्सलवादियों के हौंसले इतने बुलंद। मंगलवार की सुबह देश के लिए अमंगलकारी साबित हुआ। ऑपरेशन ग्रीन हंट में जुटे करीब 75 जवान शहीद हो गए। छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में नक्सलियों ने छुप कर घात लगाया। तो अपने सुरक्षा बल संभल नहीं पाए। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने दो दिन पहले नक्सलियों को कायर कहा। तो बौखलाए नक्सलियों ने अपनी कायरता भी दिखा दी। पर सवाल, अगर हिंसा के जरिए ही नक्सली हक छीनने को आमादा। तो सामने आकर वार क्यों नहीं करते। अगर व्यवस्था की खामी से खफा हर कोई इसी तरह बंदूक उठा ले। तो फिर व्यवस्था कहां रह जाएगी? चारों तरफ अराजकता ही अराजकता का माहौल होगा। अगर वाकई व्यवस्था से लडऩा है, तो व्यवस्था में घुसना होगा। समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर ताकत दिखानी होगी। अगर बंदूक के जरिए व्यवस्था को झुकाया जाने लगा। तो क्या भरोसा, कल को माओवादी व्यवस्था में कोई बंदूक नहीं उठाएगा? पर असलियत तो यह, नक्सलवाद अपनी राह से भटक चुका। नक्सलबाड़ी से आंदोलन की शुरुआत करने वाले कानू सान्याल अंतिम दिनों में इसी भटकाव से आहत थे। अब मंगलवार को देश पर सबसे बड़ा नक्सली हमला हुआ। सीरआरपीएफ के 80 से ज्यादा जवान मौत के घाट उतार दिए गए। तो दिल्ली में नक्सल समर्थक जायज ठहराने को सडक़ों पर उतर आए। ऑपरेशन ग्रीन हंट को नाजायज ठहराया, पर सुरक्षा बलों की हत्या को जायज। अब ये समर्थक कोई और नहीं। कहीं कोई नक्सली या आतंकी सजा पा जाए। तो ये फौरन मानवाधिकार का राग अलापेंगे। क्या देश की मासूम जनता का कोई मानवाधिकार नहीं? क्या देश की सुरक्षा में अपना जीवन न्योछावर करने वाले जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं? आखिर कब तक सुरक्षा बल कुर्बानी देते रहेंगे? सुरक्षा बल भी इंसान हैं, उनका भी परिवार है। पर नक्सलियों को अपने निजी स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा। यों जैसी नक्सली मानसिकता, वैसी ही अपनी राजनीति भी। हर चीज को वोट के चश्मे से देखते हैं राजनीतिक दल। तभी तो वाजपेयी राज में नक्सलियों के खिलाफ शुरु हुआ युनीफाइड कमांड ऑपरेशन यूपीए की पहली पारी में पूरी तरह से ठप रहा। तबके होम मिनिस्टर नक्सलियों को अपना भाई बता समझाने का प्रवचन संसद में देते रहे। अबके चिदंबरम ने ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु किया, तो एक्शन से ज्यादा बयानबाजी करते दिखे। नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे अहम मुद्दे पर भी कभी राजनीतिक एकता नहीं दिखती। अलबत्ता सुविधा की राजनीति सबको मुफीद। झारखंड में शिबू-बीजेपी की सरकार नक्सलियों के प्रति नरमी दिखाती। तो बीजेपी जुबान सिल कर बैठ जाती। अब बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा में हमले हुए। तो सरकार के हर एक्शन को ब्लैंक समर्थन का एलान कर दिया। यों राजीव प्रताप रूड़ी फिर भी राजनीति कर ही गए। कहा, चिदंबरम के तौर-तरीकों से सहमत नहीं। पर फिलहाल राजनीति नहीं करेंगे। अब आप इसे राजनीति नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे। सरकार में शामिल ममता बनर्जी तो ग्रीन हंट के खिलाफ ही थीं। ममता का मन रेल भवन में नहीं लग रहा। वह तो रेल भवन से सीधे रायटर्स बिल्डिंग के लिए रेलवे लाईन बिछा रहीं। सो उनकी नजर में ऑपरेशन ग्रीन हंट नहीं, अलबत्ता रेड हंट है। पर अब नक्सलियों ने तांडव मचाया, तो ममता सर्वदलीय मीटिंग की मांग कर रहीं। अब आप ही सोचो, सर्वदलीय मीटिंग में क्या होगा? क्या नेता नक्सलियों से लडऩे जाएंगे? नेताओं को तो सिर्फ वोट बैंक साधाना आता। बाकी देश और व्यवस्था जाए भाड़ में। तभी तो मंगलवार को 80 से ज्यादा सुरक्षा बल मारे गए। तो सरकार की ओर से वही घिसा-पिटा बयान आया। नक्सली मर्डरर हैं। मुंहतोड़ जवाब देंगे। सघन कार्रवाई करेंगे। नक्सलियों को बख्शा नहीं जाएगा। आदि....आदि......। अब ऐसे बयानों से कब तक जनता को ठगेंगे नेता? इससे पहले 2005 में दांतेवाड़ा में ही 30 जवानों को नक्सलियों ने उड़ा दिया था। फिर 2007 में बीजापुर में 55 जवान मारे गए। पिछले साल जुलाई में 29 पुलिस वाले मारे गए थे। नक्सलवादियों का दावा देश के 165 जिले उनके नियंत्रण में। सिर्फ 2006 का आंकड़ा बताता है, नक्सलवादियों ने 930 से ज्यादा हमले किए। इन हमलों में हजारों निर्दोष लोग मारे गए। जबकि 2002 में 1465, 2003 में 1597, 2004 में 1533 और 2005 में 1608 जगहों पर नक्सली हमले हुए। याद है, मार्च 2007 में झामुमो के सांसद सुनील महतो को नक्सलियों ने मंच पर चढक़र गोलियों से भून दिया था। अब फिर हर बार की तरह गृह मंत्रालय नक्सल प्रभावित राज्यों के पुलिस प्रमुखों की बैठक करेगा। पीएम भी मुख्यमंत्रियों के साथ शायद बात करें। हर बार की तरह तल्खी दिखेगी और फिर कैलेंडर का पन्ना बदलते ही सबकुछ बदल जाएगा। सो अब कोई क्या कहे, अगर नक्सली अपनी राह से भटक चुके। तो राजनीति भी संभली हुई नहीं।
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06/04/2010

Monday, April 5, 2010

बैठक नहीं, बिल पर 'बैठने' की तैयारी कहिए

बजट सत्र पार्ट-टू के प्रोमो दिखने लगे। अब संसद के सुनहरे पर्दे पर दिखने वाली फिल्म पार्ट-वन का सिक्वल होगी। या कुछ नयापन होगा, यह तो वक्त आने पर ही मालूम पड़ेगा। पर फिल्म के प्रसारण की तैयारी शुरु हो गई। महिला बिल पर सोमवार को सर्वदलीय बैठक हुई। तो नतीजा वही ढाक के तीन पात रहे। यादवी तिकड़ी टस से मस नहीं हुई। अलबत्ता सरकार की सहयोगी ममता बनर्जी ने छौंका लगा दिया। यादवों का हौंसला बढ़ाने को खड़ी हो गईं। यों ममता बिल के साथ, पर दिल से नहीं। महिला आरक्षण के खिलाफ नहीं, पर पश्चिम बंगाल के चुनाव की तैयारी में लगीं। सो उनने बिल में अल्पसंख्यक आरक्षण का तडक़ा लगा दिया। प्रणव मुखर्जी की रहनुमाई में संसद भवन में बैठक हुई। सरकार की ओर से प्रणव, चिदंबरम, मोईली, पवन बंसल, पृथ्वीराज चव्हाण, ममता, पवार, नारायणसामी मौजूद थे। पर ममता ने छौंक लगाई, तो पवार मुस्कराते दिखे। इसे कहते हैं- घर को आग लगी घर के ही चिराग से। बैठक बुलाई विरोधियों को मनाने के लिए। पर अपने ही विरोधी के पाले में जा बैठे। सो अब बीजेपी ने भी राजनीतिक पेच फंसा दिया। यादवी तिकड़ी ने कोटा के भीतर पिछड़ी-अल्पसंख्यक महिला का कोटा हुए बिना बिल पर राजी नहीं। तो अब बीजेपी कह रही, कोटा के भीतर कोटा मंजूर नहीं। सुषमा स्वराज ने तो बाकायदा गिल फार्मूले का राग अलाप दिया। यानी राजनीतिक दल खुद ही 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दें। पर आधा सफर तय करने के बाद कोई वापस घर लौटे और फिर मंजिल तय करने की बात कहे, तो उसे आप क्या कहेंगे? यों सुषमा का इसमें कोई कसूर नहीं। अलबत्ता महिला बिल पर बीजेपी खुद से दो-चार हो रही। बीजेपी में कई ऐसे नेता, जो मौजूदा बिल के खिलाफ झंडा उठाए खड़े। याद है ना, जब राज्यसभा में बिल पास हुआ था। तब बीजेपी ने अंदरुनी बवाल थामने को आडवाणी के घर मीटिंग भी बुलाई थी। पर मीटिंग में सुषमा-मेनका की तीखी झड़प हो गई। कई सांसदों ने अपने नए नेतृत्व पर सवाल भी उठा दिए। सो बीजेपी अब हर कदम फूंक-फूंक कर रख रही। तभी तो सुषमा ने सोमवार को नया पेच फंसाया। आम राय के पक्ष में, पर कोटा के भीतर कोटा नामंजूर। अब आप ही देखो, न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। विरोधी कोटा की जिद छोडऩे का राजी नहीं। तो बीजेपी कोटा के खिलाफ मुखर हो उठी। इतना ही नहीं, बीजेपी मार्शल इस्तेमाल के भी खिलाफ। अब सरकार की मुश्किल तो बढनी तय। अव्वल तो मार्शल बुलाकर बिल पास कराने की हिम्मत नहीं। अगर किया भी, तो अबके बीजेपी साथ नहीं देगी। अगर हंगामे के बीच वोटिंग कराया, तो हिंसक हंगामे से कोई इनकार नहीं कर सकता। राज्यसभा में तो महज सात हंगामाई थे। जिनने चेयरमैन की माइक तोड़ दी। फाइलों को गेंद की तरह उछाला। कमाल अख्तर ने तो कांच का गिलास सदन में तोड़ नस काटने तक की कोशिश की थी। सो सात बवालियों को सदन से बाहर फिंकवाने के लिए सरकार ने करीब 70 मार्शल सदन में बुलाए। पर लोकसभा में तस्वीर दूसरी। मुलायम, लालू, शरद और माया के ही सिपहसलारों को मिलाकर करीब 70 सांसद। ममता के 19 सांसद अभी छोड़ दें। तो क्या 70 सांसदों को सदन से बाहर निकलवाने के लिए 700 मार्शल बुलाए जाएंगे? अगर बुलाया भी तो, लोकसभा में इतनी जगह कहां होगी? क्या मार्शलों के लिए भी अलग से लोकसभा बनेगी? पर कांग्रेस इतनी हिमाकत दिखा पाएगी, यह संभव नहीं दिखता। अगर मार्शल नहीं बुलाया, तो मौजूदा बिल का पास होना संभव नहीं दिखता। यह बात कांग्रेस भी बाखूबी समझ रही, बीजेपी भी। सो फिलहाल बैठक-बैठक खेल रहे हैं राजनेता। कांग्रेस भी माहौल बना रही। विधि मंत्री वीरप्पा मोईली कई दफा कह चुके। बिना किसी बदलाव के दूसरे पार्ट में लोकसभा में बिल लाएंगे। अब कोई पूछे. जब कोई बदलाव नहीं करना। सरकार के पास कोई नया आईडिया नहीं। तो फिर काहे की सर्वदलीय बैठक बुलाई? अब फिर बैठक बुलाने का एलान। तो क्या बिल विरोधियों का स्टैंड सरकार या कांग्रेस को मालूम नहीं। आखिर जो स्टैंड 14 साल में नहीं बदला। वह क्या एक-दो बैठकों में बदल जाएगा? सो सोमवार की बैठक भी फेल हुई। पर यों कहिए कि कांग्रेस हो या बीजेपी या लेफ्ट या बाकी बिल विरोधी, सबकी इच्छा पूरी हो रही। सभी महिला आरक्षण के पक्ष में। पर फिर वही कहावत- पंचों की राय सिर माथे, पर पतनाला वहीं लगेगा। यादवी तिकड़ी को कोटा में कोटा चाहिए। अब बीजेपी को कोटा नहीं चाहिए। तो आखिर रास्ता क्या निकले? अगर सरकार कोटा में कोटा को राजी भी हो जाए। तो बीजेपी पेच फंसाएगी। या विरोधी किसी दूसरे फार्मूले पर राजी हो गए। तो कांग्रेस अपना मजबूत इरादा दिखाने को फिर पुराने बिल का ही राग अलाप देगी। यानी महिला बिल नहीं, सहुलियत की राजनीति सबका फार्मूला। सो बजट सत्र के दूसरे हिस्से में कांग्रेस भी राजनीति करेगी। महिला बिल एजंडे में शामिल होगा, उस दिन हाई-वोल्टेज ड्रामा और आखिर में ठंडे बस्ते का मुंह खुल जाएगा। पर बिल कब एजंडे में आएगा? अपना मानना तो यही, जिस दिन 21 अप्रैल को बीजेपी महंगाई के खिलाफ दस लाख लोगों के साथ संसद के घेराव का खम ठोक रही। हो न हो, लोकसभा के एजंडे में उस दिन महिला बिल शामिल हो जाए। ताकि अपने टीवी चैनलों का एके-47 संसद में ही रहे, बाहर न जाए। सो कुल मिलाकर बैठक-बैठक खेल बिल पर बैठने की तैयारी में हैं अपने नेतागण। --------
05/04/2010