Tuesday, June 29, 2010

जनता के दिल की चिंगारी आखिर कब बनेगी शोला?

अब बढ़ी कीमतों पर दो-दो हाथ की तैयारी। टोरंटो से लौटते हुए पीएम ने खम ठोक दिया, बढ़ी कीमतें वापस नहीं लेंगे। सब्सिडी का बोझ कम करने के लिए कीमत बढ़ोतरी जरूरी थी। यानी साफ हो गया, अंतर्राष्ट्रीय भाव सिर्फ बहाना था। अमेरिका को खुश करने के लिए सरकार ने जनता से राहत का निवाला छीन लिया। बराक ओबामा पहले ही भारत और चीन को अधिक ईंधन खपाऊ देश बता चिंता जता चुके। ओबामा के पूर्ववर्ती जार्ज बुश ने तो महंगाई के लिए भारतीयों को पेटू तक कह दिया था। अगर सचमुच अंतर्राष्ट्रीय भाव पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ाने की मजबूरी होती। तो सोचिए, जब कच्चे तेल की कीमत 140 डालर प्रति बैरल थी, तब अपने देश में पेट्रोल की कीमत 42-44 रुपए और डीजल 35-37 रुपए प्रति लीटर थी। रसोई गैस की कीमत दिल्ली में 280 रुपए थी। अब अंतर्राष्ट्रीय भाव 77 रुपए प्रति बैरल। पर पेट्रोल 50 के पार, डीजल 40 के और रसोई गैस साढ़े तीन सौ के करीब। यानी अमेरिकी दबाव में अपनी सरकार ने जनता से सब्सिडी छीन ली। पर मनमोहन सरकार अपने सांसदों के वेतन-भत्ते पांच गुना बढ़ाने जा रही। सांसदों-मंत्रियों की फिजूलखर्ची तो रोकी नहीं जा रही। कीमतें बढ़ाकर आम जनता की खपत को कम करने की ठान ली। अमेरिकापरस्ती अपने नेताओं में कोई नया शगल नहीं। छब्बीस साल पहले कैसे एंडरसन को भगाया, जगजाहिर हो चुका। पर मनमोहन का दावा, भोपाल कांड में सरकार कुछ नहीं छुपा रही। अब कह रहे, एंडरसन पर अमेरिका से पूरा सहयोग हासिल करने की कोशिश करेंगे। क्या इतना सबकुछ होने के बाद भी सिर्फ कोशिश? क्या यही है अमेरिका से बराबरी का रिश्ता? अगर पीएम सचमुच एंडरसन को सजा दिलवाने के प्रति गंभीर, तो टोरंटो में ओबामा से हुई मुलाकात में यह बात क्यों नहीं कही? पिछली बार डेविड हेडली से अमेरिका ने पूछताछ नहीं करने दी थी। देश में बवाल मचा, तो मनमोहन ने ओबामा से बात की। पर भोपाल त्रासदी के प्रमुख गुनहगार एंडरसन को लेकर चुप्पी क्यों साधी? बराक ओबामा ने तो टोरंटो में मनमोहन की दिल खोलकर तारीफ की। कहा- जब मनमोहन बोलते हैं, तो दुनिया सुनती है। फिर मनमोहन सुनाने से कतरा क्यों रहे? आखिर कब तक अमेरिका को खुश करने की कीमत भारत की जनता चुकाएगी? पेट्रोलियम पदार्थों से सब्सिडी हटा मनमोहन ने दुनिया को तो खुश कर दिया। पर देश की जनता का क्या? अब मनमोहन कह रहे- तेल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना बेहद जरूरी था। चलो माना, आर्थिक मजबूरी की वजह से यह जरूरी था। तो क्या महंगाई पर काबू पाना जरूरी नहीं? या फिर जैसे तेल की कीमत को नियंत्रण मुक्त कर दिया, क्या महंगाई को भी वैसे ही छोड़ दिया? अब महंगाई पर सियासत शुरू हो गई। लालू-मायावती को छोड़ समूचे विपक्ष ने पांच जुलाई को भारत बंद का एलान किया। तो इधर कांग्रेस और सरकार ने जवाबी रणनीति बना ली। संयुक्त मोर्चा और राजग सरकार के काल में जारी अधिसूचना को ढाल बनाएगी। नवंबर 1997 में गुजराल सरकार ने और मार्च 2002 में वाजपेयी सरकार ने बाजार भाव से पेट्रोल-डीजल की कीमतें तय करने की समय सीमा बनाई थी। सब्सिडी का बोझ हटाने की पहल भी हुई थी। सो कांग्रेस की दलील, विरोधी दल नौटंकी कर रहे। अगर सत्ता में ये होते, तो वही करते, जो हमने किया। पर कांग्रेस भूल रही, कीमतों को नियंत्रण मुक्त करने का फार्मूला संयुक्त मोर्चा सरकार की देन, जो कांग्रेस की बैसाखी पर चल रही थी। तब वित्तमंत्री पी. चिदंबरम थे। इतना ही नहीं, तबकी सरकार चाहकर भी वह साहस नहीं दिखा पाई, जो कांग्रेस की मौजूदा सरकार ने कर दिखाया। कांग्रेस ने जतला दिया, सत्ता में ठसक के साथ कैसे रहते। भले आम जनता भाड़ में जाए। पर यह कैसी दलील। इंदिरा गांधी ने तो 1971 में ही गरीबी हटाओ का एजंडा हाथ में लिया था। पर किसी भी सरकार ने आज तक गरीबी मिटाई क्या? अलबत्ता अब तो गरीब और बढ़ गए। तो क्या सरकारी नीति का यही मतलब, जनता पर बोझ डालने वाले फैसले फौरन लागू होंगे और जनहित वाले अधर में? सो अब वक्त आ गया, जब जनता को अपने हित का बीड़ा खुद उठाना होगा। विपक्षी दलों ने बंद का एलान तो किया। पर पांच जुलाई को सभी दल अपनी डफली अलग-अलग बजाएंगे। अगर एक साथ बजाते, तो शायद सरकार के बहरे कान तक गूंज पहुंचती। पर नहीं, सबको अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां जो सेकनी। सो अब जनता को क्रांति करनी होगी। बंद में राजनीतिक दलों को मोहरा बनने के बजाए सीधे जनता सडक़ों पर उतरे। जैसे 26/11 के हमले के बाद जब जनता सडक़ों पर उतरी थी। तो सभी राजनीतिक दलों के नेताओं की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई थी। सो अब जनता ने सरकार को जगा उसके बहरे कान का इलाज नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं, जब सरकार ऊलजलूल दलील देकर आम जनता के कान भी बहरे कर देगी। सरकार के हर जनविरोधी फैसले के आगे घुटने टेकने के बजाए आम जनता को अब टीपू सुल्तान बनना होगा। आखिर कब तक मन ही मन सरकार को कोसते जिंदगी काटेंगे। टीपू सुल्तान की अत्यंत प्रिय उक्ति थी- 'शेर की तरह एक दिन जीना बेहतर है, लेकिन भेड़ की तरह लंबी जिंदगी जीना अच्छा नहीं।' टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके। अलबत्ता लड़ते हुए मरना कबूल किया। आखिर साढ़े पांच साल से मनमोहन सरकार महंगाई पर सिर्फ दिलासा दे रही। महंगाई दूर करना तो दूर, कीमतें बढ़ा और चोट कर रही।
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29/06/2010

Monday, June 28, 2010

महंगाई है, तो अच्छा है ना, सांसदों के वेतन जो बढ़ेंगे

अंधा बांटे रेवड़ी, अपनों-अपनों को देय। महंगाई की मार से भले जनता को राहत नहीं मिली। पर अपने सांसदों के वारे-न्यारे होंगे। संसद की ज्वाइंट कमेटी की सिफारिश हो गई। सांसदों का वेतन पांच गुना बढ़े। पर दलील तो महंगाई की, असली वजह अहं आड़े आ रहा। केंद्र सरकार में सचिव स्तर के अधिकारियों के वेतन 80 हजार प्रति माह। सो रुआब झाडऩे वाले सांसद महज 16 हजार से कैसे गुजारा करें। अब सिफारिश हुई, सांसदों का वेतन 80,001 रुपया हो। ताकि सांसद नाम से नहीं, जेब से भी सचिव पर भारी पड़ें। यानी अपने माननीय सांसदों का दर्द महंगाई नहीं, सचिवों का बढ़ा वेतन। जिससे रुआब कम होता दिख रहा। यों सांसद भूल रहे, भले वेतन कम। पर भत्तों और सुविधाओं को मिला दें, तो इतनी सुविधा स्वर्ग लोक में इंद्र को भी नसीब नहीं। अगर सांसदी नहीं भी रही, तो भी सुविधाएं इतनी, जिंदगी मौज में कटे। सो सांसदों को सचिवों से अधिक वेतन क्यों चाहिए? सचिव बनने वाला अधिकारी अखिल भारतीय स्तर का इम्तिहान देकर आता। सचिव बनते-बनते अफसर रिटायरमेंट की उम्र में होता। पर सांसदों की तो कोई योग्यता तय नहीं। लोकसभा में तो चुनाव लडऩे का जोखिम। पर राज्यसभा में तो दल किसी को भी भेज दे। यों सांसदों की दलील सिर्फ सचिवों के वेतन वाली नहीं। अलबत्ता श्रीलंका के सांसदों को मिलने वाली शानदार कार का भी दुख। अमेरिका में एक सिनेटर को अपने स्टाफ में 18 कर्मचारी रखने की छूट। पर सांसद यह भूल रहे, अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय और भारत की प्रति व्यक्ति आय में बड़ा अंतर। अपने देश में 45 करोड़ लोग बीपीएल में। इतना ही नहीं, अमेरिकी सिनेटर के काम करने का तरीका और अपने सांसदों का तरीका जगजाहिर। अपने सांसदों को सचिवों से एक रुपया अधिक वेतन चाहिए। पर सांसद कैसे अठन्नी में बिकते, यह ऑपरेशन दुर्योधन और ऑपरेशन चक्रव्यूह के जरिए इतिहास में दर्ज। भ्रष्टाचार रोकने की भी दलील वेतन बढ़ाने के लिए दी जा रही। पर अबके महंगाई के सहारे बेड़ा पार की तैयारी। सचमुच महंगाई की आड़ में इतना बड़ा खेल नेता ही कर सकता। संसद की कमेटी ने सिफारिश की, तो वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी महज औपचारिकता समझिए। अब तक की यही परंपरा, कोई भी दल इसका विरोध नहीं करता। अलबत्ता यही बिल ऐसा, जो झटपट बिना बहस के सर्वसम्मति से पारित हो जाता। पर विडंबना देखिए, सांसद अपना वेतन-भत्ता खुद तय करते। अब तक 27 बार सांसदों के लिए वेतन-भत्ते कानून-1954 में संशोधन हो चुके। माननीयों को जब सुविधा में कोई कमी नजर आई, कानून मनमाफिक बदल लिया। इसे कहते हैं अपना हाथ जगन्नाथ। पिछली लोकसभा में सोमनाथ दा स्पीकर थे। उन ने अपना हाथ जगन्नाथ पर एतराज जताया। वेतन आयोग जैसी संस्थागत प्रक्रिया का सुझाव दिया। पर क्या कभी कोई अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारता है? पिछली बार 23 अगस्त 2006 को जब वेतन-भत्ते बढ़े थे। तो तबके संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने सोमनाथ दा के सुझाव के मुताबिक संस्था बनाने पर हामी भरी थी। पर असलियत सबके सामने। मानसून सत्र में बिल तो पास होकर रहेगा। सांसदों का दर्द दूर होकर रहेगा। भले महंगाई जनता को मार क्यों न दे। एक जमाना था, सांसद 400 रुपए वेतन, 21 रुपए भत्ते पर थे। वर्ष 1998 तक महज 1500 रुपए वेतन था। पर एनडीए राज में सीधे 12,000 हो गया। फिर 16,000, अब सीधे 80,001 की तैयारी। संविधान सभा का इतिहास तो और भी रोचक। दिल्ली बैठक में आने वाले मेंबरों को सब कुछ मिलाकर सिर्फ 25 रुपए मिलते थे। जिसमें रहना, खाना-पीना भी शामिल था। पर आज के सांसदों का मुंह तो मानो सुरसा हो गया। ऐसे भी कई सांसद, जो महज एक रुपया वेतन लेते रहे। हसरत मुहानी और डा. कर्ण सिंह इसी श्रेणी में। महात्मा गांधी ने भी यही नसीहत दी थी, सार्वजनिक जीवन जीने वाले लोगों को कम वेतन लेकर सादा जीवन जीना चाहिए। पर अपने माननीय सांसदों के वेतन-भत्ते देख शायद गांधी जी की आत्मा भी बिलख पड़े। यों एक रुपया लेने वालों में अपने मनमोहन सिंह भी। पर मनमोहन की कहानी दूसरी। पहले वल्र्ड बैंक के मुलाजिम रहे। अब वल्र्ड बैंक पेंशन दे रहा, जो बतौर सांसद मिलने वाले वेतन-भत्ते से अधिक। ऊपर से टेक्स का कोई लफड़ा नहीं। यों टेक्स का लफड़ा अपने सांसदों के वेतन में भी नहीं। पर बात मनमोहन की। सुनते हैं, मनमोहन पेंशन ही लेते। सांसद के तौर पर महज एक रुपया उठाते। अब मनमोहन सिंह से आम जनता क्या उम्मीद रखे। पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस-कैरोसिन के दाम बढ़ा मनमोहन जी-20 की मीटिंग में गए। तो सदस्य देशों ने खूब पीठ थपथपाई। सब्सिडी खत्म करने में मनमोहन की पहल का जमकर स्वागत किया। तो जाकर मनमोहन का अर्थशास्त्र समझ आया। अब अगली बार मनमोहन की विदेश यात्रा की खबर सुनें। तो दिल थामकर बैठिएगा। भले बीजेपी महंगाई के खिलाफ पहली-दूसरी जुलाई को कॉरपेट बोंबिंग करेगी। मुलायम ने पांच जुलाई को आम हड़ताल का एलान किया। पर मनमोहन के पास हर मर्ज का इलाज। सांसदों का वेतन महंगाई की आड़ में इतना बढ़ा देंगे, सांसदों का मुंह हैरानी से खुला ही रह जाएगा। सांसदों को महंगाई से त्रस्त जनता का दर्द समझ नहीं आता। तभी तो जितना जतन अपने वेतन के लिए कर रहे, आम आदमी की खातिर नहीं किया। अब आम आदमी को मझधार में छोड़ सांसद अपनी बल्ले-बल्ले कराएंगे। यानी महंगाई है, तो अच्छा है। कम से कम सांसदों के वेतन तो बढ़ेंगे।
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28/06/2010

Friday, June 25, 2010

तो पैंतीस साल बाद भी मानसिकता 'इमरजेंसी' की

महंगाई सिंह.... माफ करिए मनमोहन सिंह की सरकार तेरह महीने की हो गई। पर तेरह महीने में ही आम आदमी का चौथा निकाल दिया। तो सोचो, बाकी के तीन साल ग्यारह महीने में क्या होगा? मनमोहन सरकार की दूसरी पारी में चौथी बार पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बढ़े। बाईस मई 2009 को दूसरी बार शपथ ली। तो जुलाई में दाम बढ़ाए। फिर आम बजट में प्रणव दा ने कीमत बढ़ा इतिहास रचा। पहली अप्रैल से बीएस-4 मानक लागू होने से कीमतें बढ़ीं। अब चौथी बार में कीमतें ऐसी बढ़ाईं, आम आदमी का दम निकाल दिया। जमाखोर, घूसखोर, सूदखोर, यहां तक कि आदमखोर भी सुना। पर कोई चुनी हुई सरकार गरीबखोर और आम आदमी खोर हो जाएगी, किसी ने सपने में भी न सोचा होगा। शुक्रवार को पेट्रोल 3.73 रुपए, डीजल दो रुपए, कैरोसिन तीन रुपए और रसोई गैस 35 रुपए महंगी हो गई। आठ साल बाद पहली बार गांव की रोशनी का सहारा कैरोसिन तेल महंगा हुआ। गांव में बिजली के खंभे और तार भले पहुंच गए हों। पर बिजली नहीं पहुंची, सो गांव में दीये और लालटेन ही सहारा। अब कोई पूछे, क्या यही है आम आदमी की सरकार? पर सरकार और कांग्रेस मजबूरी का रोना रो रहीं। देश की तरक्की के लिए उठाया गया कदम बता रहीं। तो क्या अब आम आदमी की लाश पर देश का विकास होगा? जब गरीब महंगाई की वजह से भूखे मर जाएंगे, तो विकास किसके लिए होगा? कभी कॉमन वैल्थ गेम्स के नाम पर आम आदमी की कमर तोड़ी जा रही, तो कभी विकास दर के नाम पर। आखिर कब तक आम आदमी ही पिसता रहे? अबके जो कीमतें बढ़ीं, सिर्फ पेट्रोल-डीजल तक सीमित नहीं। अलबत्ता अब कुछ भी ऐसा नहीं, जो सस्ता मिल सके। अब तो जहर भी महंगा हो चुका। कुएं, तालाब, नदियां भी सूख चुकीं। सो डूब मरना भी मुश्किल हो चुका। बाकी बची ट्रेन, तो पता नहीं कब केंसिल हो जाए। सो मुरली देवड़ा ने जब कीमतें बढ़ाने का एलान किया। तो दोहरी बेशर्मी भरे अंदाज में कह दिया- 'अभी तो थोड़ा भाव बढ़ाया है। भगवान करेगा, मार्केट में भाव थोड़ा ठीक होगा, तो हम घटा देंगे।' पहली बेशर्मी यह, इतनी कीमतें बढ़ाईं, पर कह रहे- थोड़ा भाव बढ़ाया। दूसरी और सबसे बड़ी बेशर्मी, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया। पर मुरली देवड़ा भगवान के नाम पर भी आम आदमी को ठग रहे। असल में तेल की कीमतें अब सरकारी नियंत्रण से बाहर हो चुकीं। सो मुरली देवड़ा तो क्या, उनके आका भी घटाने की नहीं सोच सकते। अब तो तेल कंपनियां अंतर्राष्ट्रीय बाजार के हिसाब से कीमतें तय करेंगी। हर पखवाड़े नफा-नुकसान का जायजा होगा। तो कंपनियां आम आदमी का हित नहीं, अपना लाभांश देखेंगी। सो तेल पर अब खुला खेल फर्रुखाबादी होगा। पर सवाल, कब तक आम आदमी को ठगेगी अपनी सरकार? हर बार वही देश की तरक्की का रोना-धोना और कीमतें बढ़ाना। पर संयोग देखिए, मनमोहन की पहली पारी खत्म होने को थी। तब भी जून में दाम झटके से बढ़ाए गए। अबके दूसरी पारी का पहला साल पूरा हुआ। तो झटके से आम आदमी को हलाल कर दिया। सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। तब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 140 प्रति बैरल पहुंच गई थी। चार जून 2008 को पेट्रोल पांच रुपए, डीजल तीन रुपए, रसोई गैस 50 रुपए महंगा हुआ था। महंगाई की मार झेल रही जनता को मनमोहन ने जुबानी सांत्वना देने की कोशिश की। पहली बार ऐसा हुआ, जब पीएम ने बढ़ी कीमतों पर राष्ट्र को संबोधित किया। तब मनमोहन ने जो कहा, आप देख लो- 'हमने विकास किया, पर चिंता की बात, तरक्की के साथ महंगाई भी बढ़ी। पर बढ़ी कीमतों से तो तेल कंपनियों के घाटे का सिर्फ दसवां हिस्सा पूरा होगा। नब्बे फीसदी बोझ सरकार उठाएगी। कर्ज और बांड समस्या का समाधान नहीं। कंपनियों को घाटे में डालकर हम अपना भविष्य बिगाड़ रहे। हमें अपने लिए नहीं, अपनी पीढ़ी के लिए सोचना चाहिए। पेट्रोल-डीजल-एलपीजी-बिजली-पानी की बचत करें। आपको किफायती बनना होगा। भविष्य में सही दाम चुकाने होंगे।' यानी हर बार एक ही दलील। तो कोई पूछे, आखिर विकास किसका हो रहा? पर नेताओं की नौटंकी का जवाब नहीं। जून 2008 में चुनावी साल था। तो सोनिया गांधी के निर्देश पर कांग्रेस शासित राज्यों में सेल्स टेक्स घटाने का ड्रामा हुआ। दिल्ली में शीला सरकार ने रसोई गैस में 40 रुपए की छूट दी। सिर्फ दस रुपया बढऩे दिया। पर दिल्ली और केंद्र के चुनाव निपटे। तो सब्सिडी वापस ले ली। अबके फिर यह संभव, जनता का विरोध देख सोनिया चिट्ठी लिख दें। दिखावे की खातिर कैरोसिन के दाम घट जाएं। पर सचमुच देश की विडंबना, आज 35 साल बाद भी इमरजेंसी की मानसिकता खत्म नहीं हुई। आज के दिन ही 1975 में इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई। पर कांग्रेस की मानसिकता जून 2008 और जून 2010 में वैसी ही दिख रही। समूचा देश महंगाई की मार से कराह रहा। फिर भी तेल-रसोई गैस के दाम में बढ़ोतरी का साहस शायद कांग्रेस ही कर सकती। पर यूपीए के सहयोगियों की नौटंकी भी कम नहीं। ममता, पवार, करुणा की हरी झंडी लेकर ही शुक्रवार को दाम बढ़े। पर तीनों ने बढ़ोतरी पर एतराज जताना शुरू कर दिया। फिर भी सरकार के साथ ही रहेंगे, भले आम आदमी तड़प-तड़प कर क्यों न मर जाए। मानसून सत्र में अपने सांसदों, मंत्रियों के वेतन-भत्ते पांच गुना बढ़ेंगे। सो मन्नू भाई की मोटर तो पम-पम चलेगी। बाकी आम आदमी वही फटे हाल, बदहाल, पैदल।
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25/06/2010

Thursday, June 24, 2010

तो जसवंत के भी जिन्ना अब बीजेपी को मंजूर

सुबह का भूला शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते। पर झारखंड में बीजेपी 27 दिन बाद लौटे। बिहार में साढ़े चार साल बाद होश में आए। जसवंत सिंह की किताब समझने में दस महीने चार दिन लगा दे। तो उसे आप भूला कहेंगे या कुछ और। अब आप चाहे जो भी कहें, अपने जसवंत सिंह तो बीजेपी में लौट आए। बीजेपी दफ्तर में खूब ढोल-नगाड़े बजे। आडवाणी-गडकरी-सुषमा ने अगवानी की। पर जैसे जसवंत की दलील सुने बिना बीजेपी से बाहर निकाला। वैसे ही अब बीजेपी वापसी पर कोई दलील नहीं दे पा रही। सो जसवंत की वापसी तो करा ली। पर जून के महीने में बीजेपी नेताओं ने अपनी जुबां पर अघोषित इमरजेंसी थोप ली। आखिर बीजेपी के नेता बोलें भी, तो किस जुबां से। दस महीने पहले जसवंत के लिए बड़े तो बड़े, छुटभैये बीजेपी नेता भी संसदीय भाषा में गाली दे रहे थे। लोकसभा चुनाव की हार के बाद बीजेपी में भूचाल आ गया था। तो तय हुआ, शिमला में चिंतन बैठक कर चिंता दूर करेंगे। पर तभी अपने जसवंत सिंह की किताब 'जिन्ना: भारत विभाजन के आईने में' लांच हुई। यों जसवंत ने अपनी किताब में जिन्ना के बारे में वही लिखा, जो पांच जून 2005 को कराची में आडवाणी कह चुके। पर जसवंत की किताब में सरदार पटेल की भूमिका पर भी सवाल उठे। सो बीजेपी ने शिमला में चिंतन से पहले 19 अगस्त 2009 को जसवंत अध्याय समाप्त कर दिया। पर बीजेपी की अदालत में जसवंत के कोर्ट मार्शल से पहले नेताओं ने जो ताना-बाना बुना, जरा उसकी झलक दिखा दें। जसवंत की किताब 17 अगस्त को लांच हुई। लोकार्पण समारोह में बीजेपी का एक भी नेता नहीं पहुंचा। भूले-बिसरे श्याम जाजू पहुंच गए थे। पर किसी को न देख, उलटे पांव लौट आए। फिर 24 घंटे के भीतर बीजेपी के नेताओं के बयान देखिए। सुषमा स्वराज ने तब कहा था- 'सरदार पटेल का अपमान, देश का अपमान। सो बीजेपी जसवंत से सहमत नहीं।' अगले दिन 18 अगस्त को राजनाथ सिंह का बयान जारी हुआ। तो साथ में दस जून 2005 को जिन्ना पर संसदीय बोर्ड के प्रस्ताव की याद दिलाई। फिर मुरली मनोहर जोशी ने कहा था- 'जिन्ना पाकिस्तानियों के आदर्श हो सकते हैं, भारतीयों के नहीं।' उनका इशारा जसवंत के पाक प्रेम पर था। विनय कटियार ने तो जसवंत को सीधे-सीधे जिन्ना हाउस में जाकर पनाह लेने की नसीहत दी थी। यह तो ऑन रिकार्ड टिप्पणियां थीं। अब जरा ऑफ रिकार्ड भी देख लो। एक वरिष्ठ नेता ने कहा था- 'बीजेपी में रहकर मलाई खाने के बाद अब वैचारिक बदला लेने के लिए जसवंत ने किताब लिखी।' इस नेता ने तो यहां तक कहा- पहले राजस्थान से चुनाव लड़े, अबके गोरखालैंड से। अब अगला चुनाव 'इस्लामाबाद' से लड़ेंगे। क्या बीजेपी के ये नेता दस महीने पहले कही अपनी बात भूल गए। जसवंत को जब निकाला गया, तो आडवाणी हों या जेतली-सुषमा-राजनाथ। दलील दी, जसवंत ने विचारधारा को चुनौती दी, सो बर्खास्तगी का फैसला करना पड़ा। पर क्या अब जसवंत की किताब विचारधारा को आत्मसात हो गई? जसवंत ने बीजेपी में वापसी के बाद वही रुख अपनाया, जो जिन्ना पर आडवाणी ने अपनाया था। जसवंत बोले- 'मैं किताब का लेखक हूं। कोई लेखक अपनी किताब से कैसे मुकर सकता। मैं अपनी किताब पर अटल हूं।' अब जसवंत वापसी के बाद भी वही तेवर दिखा रहे। तो यह साफ हो गया, बीजेपी ने विचारधारा की बलि चढ़ा दी। गुरुवार को जब जसवंत की सम्मान सहित वापसी हुई, तो गडकरी ने वर्करों के लिए आदर व सम्मान का दिन बताया। आडवाणी ने खुशी के साथ-साथ मन का सुकून करार दिया। पर सनद रहे, सो चिंतन बैठक के आखिर में 21 अगस्त 2009 को आडवाणी ने अपना दुखड़ा कुछ यों सुनाया था- 'तीस साल तक साथ रहे जसवंत। सो निकालने से कष्ट होना लाजिमी। पर जसवंत ने बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ काम किया। इसलिए निष्कासन से कम में वर्कर संतुष्ट नहीं होते।' यानी जसवंत की बर्खास्तगी जायज ठहराई। पर कोई पूछे, दस महीने पहले वर्करों की संतुष्टि के लिए निकाला। तो अब जसवंत की वापसी वर्करों के लिए 'आदर-सम्मान' की बात कैसे हो गई? पर गडकरी तबकी बात को बीता हुआ कल बता रहे। तो क्या बीजेपी की नीति चाल, चरित्र, चेहरा भी अब बीती बात हो गई? बीजेपी के तमाम फैसले तो यही बता रहे। जसवंत की वापसी पर चुप्पी साध बता दिया, विचारधारा से कैसे समझौता कर रहे। झारखंड में सिद्धांतों की बलि चढ़ाई। तो राम जेठमलानी को राज्यसभा भेज वाजपेयी जैसे व्यक्तित्व के सम्मान को तिलांजलि दे दी। बाकी बीजेपी में फैसलों की रफ्तार राजस्थान से बेहतर कौन समझेगा। साल होने को, पर विधानसभा में नेता तय नहीं कर पाई। अब जसवंत की वापसी भी अपना असर दिखाएगी। पर पार्टी की मूल नीतियों से गडकरी के हाथों समझौता कहीं अंदरूनी साजिश तो नहीं? आडवाणी भले रिटायर हो चुके। पर 16-17 सितंबर 2005 की चेन्नई वर्किंग कमेटी में संघ के खिलाफ आडवाणी की भड़ास याद करिए। सो कहीं ऐसा तो नहीं, आडवाणी धीरे-धीरे बीजेपी को संघ से मुक्त कराने में लगे? बीजेपी के हालिया फैसले और आडवाणी के प्रभाव यही इशारा कर रहे। जनसंघ जमाने में जब पहली बार 1964 में संघ के स्वयंसेवक बछराज अध्यक्ष बने, तो वाजपेयी ने नहीं माना। विजयवाड़ा अधिवेशन में नहीं गए। आखिर ऐसी परिस्थिति बनी, संघ के नामित बछराज साल भर के भीतर कुर्सी छोडऩे को मजबूर हो गए।
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24/06/2010

Wednesday, June 23, 2010

गांठ का गट्ठर ले चुनाव में उतरेगा गठबंधन

आखिर वही हुआ, जो नीतिश कुमार ने चाहा। बिहार में गठबंधन की खातिर बीजेपी को सरेंडर करना पड़ा। पर दिखावे का आत्मसम्मान आस्तीन चढ़ा-चढ़ा दिखा रहे। यों सार्वजनिक तौर पर बीजेपी का रुख यही, नीतिश की शर्त गवारा नहीं। अभी भी कुर्ता फाड़ कह रही- नरेंद्र मोदी और वरुण प्रचार में जाएंगे या नहीं, यह फैसला बीजेपी करेगी। पर बुधवार को नीतिश के खास शिवानंद तिवारी ने दो-टूक एलान कर दिया, बिहार में नीतिश सीएम। सो कौन आएगा, कौन नहीं, नीतिश तय करेंगे। नीतिश के तेवर देख बीजेपी ने शर्त मानना ही मुफीद समझा। आखिर तय हो गया, मोदी को बिहार के प्रचार में न बुलाया जाएगा, न जाएंगे। बीजेपी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर ने कुछ ऐसा ही बयान दिया। बोले- 'नरेंद्र मोदी को जहां बुलाया जाता है, वहीं जाते हैं। वह हमारे स्टार प्रचारक हैं, पर जहां तक बिहार का सवाल है, तो बिहार में नीतिश सीएम हैं और हर जगह सीएम ही स्टार प्रचारक होता।'  अब मुंडी हां में और हाथ ना में हिलाना कोई बीजेपी से सीखे। सीधा-सीधा इशारा कर दिया, मोदी बिहार नहीं जाएंगे। पर जुबां से मानना तो दूर, अभी भी तेवर दिखा रही। वेंकैया नायडू कह रहे- 'मोदी-वरुण को लेकर न कोई शर्त रखी गई और ना ही अभी उन दोनों को प्रचार से दूर रखने का कोई सवाल उठता।' पर सच्चाई वेंकैया के दावे के बिलकुल उलट। वैसे राजनीति का तकाजा यही, बीजेपी अपनी जुबां से यह बात नहीं कह सकती। सो परदे के पीछे गठबंधन की खटास दूर करने की पहल तेजी से हुई। यों नीतिश का दबदबा इसी से साफ, अब तक बीजेपी का कोई नेता सीधे बात करने सामने नहीं आ पा रहा। सो गठबंधन की खटास दूर करने की कोशिश शरद यादव के जरिए हुई। वेंकैया हों या बीजेपी के दूसरे नेता, सबने शरद यादव के सामने ही अपनी व्यथा रखी। बीजेपी के स्वाभिमान की हवा निकल गई। तो नीतिश कुमार ने भी थोड़ी नरमी दिखाई। शरद यादव के जरिए यह कहलवा दिया, गुजरात को चैक लौटाना कुछ बड़ा कदम हो गया। पर नीतिश ने खुद कुछ नहीं कहा और आप लिख लो, न कहेंगे। यों बीजेपी अभी भी कोशिश कर रही, एकाध रोज में नीतिश ही प्रेस कांफ्रेंस कर गठबंधन पर ड्रामे का पटाक्षेप करें। ताकि बीजेपी की लाज बच जाए। पर अहम सवाल, हमेशा बीजेपी अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मार लेती? कहने को तो बीजेपी के पास रणनीति के बड़े-बड़े तीसमार खां। पर सिर्फ गठबंधन का ही किस्सा लो, तो मायावती हों या देवगौड़ा, चौटाला हों या नवीन पटनायक या फिर झारखंड में शिबू। बीजेपी ने सब जगह मुंह की खाई। पीढ़ी परिवर्तन के बाद बीजेपी का यह हश्र क्यों? शायद अब बीजेपी वाजपेयी की 'हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा' वाली पार्टी नहीं रही। वाजपेयी ने 24 दलों के साथ इंद्रधनुषी गठबंधन चलाकर मिसाल कायम की। पर किसी सहयोगी के आगे न कभी हार मानी और ना ही रार ठनने दी। अब झारखंड और बिहार का ही किस्सा देख लो। तो वाजपेयी की बीजेपी और गडकरी-सुषमा-जेतली की बीजेपी का फर्क साफ। कई पुराने भाजपाई तो अब यह कहते मिल जाएंगे, अटल बिहारी की बीजेपी में अब गगन विहारियों की फौज जम चुकी। तभी तो पटना में वर्किंग कमेटी के वक्त नरेंद्र मोदी पर हृदय सम्राट बनने की ऐसी धुन सवार हुई, गठबंधन की बाट लगा दी। अब मोदी के खिलाफ बीजेपी ही नहीं, एनडीए में सवाल उठने लगा। बीजेपी के मंच पर बैठने वाली चौकड़ी में से एक ने बेहद तल्खी दिखाई। उन ने साफ-साफ पूछा-  'आखिर मोदी को इश्तिहार देने की जरूरत क्या थी। हम पटना किस मकसद से गए थे, पर उस इश्तिहार ने पूरी वर्किंग कमेटी को धो दिया। अच्छा-भला गठबंधन हिला दिया।' यानी जब वरिष्ठ नेताओं ने मोदी पर भृकुटि तानी, तो मोदी भी नरम पड़ गए। उधर सुशील कुमार मोदी ने भी शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात में मोदी के इश्तिहारों पर भड़ास निकाली। आलाकमान के सामने दलील रखी, साढ़े चार साल से सब कुछ सहज चल रहा था। पर मोदी के इश्तिहार ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। बिहार में नरेंद्र मोदी को दखल देने की क्या जरूरत थी। पर सुशील मोदी ने बंद कमरे में यह गुबार निकाला। तो बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने मजाक-मजाक में यहां तक कह दिया, इश्तिहार छपवाकर पीएम बनने चले थे मोदी। बीजेपी में एक बड़ा तबका मोदी की महत्वाकांक्षा से खार खाए बैठा। वैसे पटना में जो हुआ, भले नीतिश ने चैक लौटाकर अति कर दी। पर विवाद के सूत्रधार नरेंद्र मोदी ही। सो सिर्फ बीजेपी में ही मोदी के खिलाफ आवाज नहीं उठी, अलबत्ता शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे ने भी अपना गुबार निकाला। यों जब लोकसभा चुनाव के वक्त मोदी महाराष्ट्र के प्रभारी बनाए गए, तभी बाल ठाकरे ने मोदी की हैसियत बता दी थी। अबके उन ने बीजेपी को नसीहत दी। मुखपत्र सामना में लिखा- 'अगर बीजेपी नरेंद्र मोदी के जरिए बिहार की सत्ता में वापसी का ख्वाब देख रही, तो बीजेपी को शुभकामनाएं। पर यह न भूलें, मोदी उड़ीसा, दिल्ली, महाराष्ट्र, यूपी के भी चुनाव प्रचार में गए। पर क्या हश्र हुआ, बीजेपी को बखूबी मालूम।' अब सोचो, आपस में ही बीजेपी ऐसे उलझ गई, तो गठबंधन का क्या होगा? मोदी चाहे जो कहें, पर बिहार के गठबंधन में गांठ नरेंद्र मोदी की ही देन। सो समझौते के बाद भी अब बीजेपी-जेडीयू गठबंधन गांठ का गट्ठर लेकर ही चुनावी समर में कूदेगा।
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23/06/2010

Tuesday, June 22, 2010

बिहार में होय वही, जो नीतिश रचि राखा

तो बिहार में होय वही, जो नीतिश रचि राखा। पर बीजेपी भी अब आत्मसम्मान दिखा रही। आत्मसम्मान भी पटना पहुंचकर जागा। जब नीतिश ने न्योता देकर खाना नहीं खिलाया। वैसे बीजेपी पटना में चुनावी शंखनाद के बजाए कपास ओटकर लाई। अगर पटना में ही कपास ओटने के बजाए सीधे हरि भजन किया होता, तो यह नौबत नहीं आती। आखिर नीतिश ने बीजेपी वर्किंग कमेटी के दिन जो एलान किया था, हफ्ते भर बाद उसे कागजी जामा पहना दिया। अब नया तो कुछ हुआ नहीं। पर बीजेपी को हफ्ते भर बाद समझ आई, आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहे नीतिश। अब ऐसी शिकायत बिहार बीजेपी के नेता अरसे से कर रहे। एक बारगी तो सुशील कुमार मोदी के खिलाफ बीजेपी में दो-फाड़ हो गया। गुप्त वोटिंग के जरिए विधायकों की रायशुमारी करा आलाकमान ने सुशील मोदी को अभयदान दे दिया। साढ़े चार साल से बिहार बीजेपी नीतिश के आगे नतमस्तक। कभी ऐसी त्यौरियां नहीं चढ़ाईं, जैसी अबके चढ़ा रही। सो बीजेपी-जदयू विवाद में लालू, पासवान, कांग्रेस जैसे मुहाने पर पहुंच चुके दलों की लाटरी खुल गई। मानसून अभी दिल्ली तो नहीं पहुंचा। मौसम विभाग की मानें, तो मानसून बिहार में ही ठहर चुका। सो मानसून में सब नहा रहे। लालू तो दिल से दुआ कर रहे, गठबंधन कल टूटे, सो आज टूट जाए। सो उन ने नीतिश पर बिहार की छवि खराब करने का आरोप लगाया। बोले- नीतिश अल्पसंख्यकों को बेवकूफ बनाने का स्टंट कर रहे। यों बेवकूफ बनाने को ही राजनीति कहते। जिसकी मिसाल लालू ने 15 साल तक बिहार में दी, बाकी पांच साल रेलवे में। कांग्रेस तो यूपी दोहराने के चक्कर में। जैसे यूपी के चतुष्कोणीय मुकाबले में कांग्रेस बाजी मार गई। वैसे ही बिहार में चतुष्कोणीय मुकाबला चाह रही। ताकि खफा सवर्ण और मुस्लिम वोट कांग्रेस की झोली में गिरे। पर फिलहाल गठबंधन टूटने की आस लगाए विरोधियों की मंशा पूरी होती नहीं दिख रही। बीजेपी जबर्दस्त उथल-पुथल के दौर से गुजर रही। नीतिश कुमार ने नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी को बिहार चुनाव अभियान से बाहर रखने की शर्त रख दी। सो बीजेपी के लिए अब प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। यों बीजेपी अभी भी वही पुराना राग दोहरा रही। चुनाव में कौन नेता प्रचार करेगा और कौन नहीं, यह फैसला चुनाव के वक्त अभियान समिति करती। पर जदयू से मोदी-वरुण का नाम लेकर रखी गई शर्त गले की फांस बन गई। बीजेपी आलाकमान में फिलहाल किसी का ऐसा बूता नहीं, जो मोदी को नाराज कर सके। याद है ना, राम जेठमलानी को बीजेपी के कोटे से टिकट न देने की बात थी। पर मोदी ने चाहा, तो गडकरी ना नहीं कर सके। सो मोदी ने अब नीतिश कुमार से निजी रार ठान ली। मंगलवार को नितिन गडकरी संग नरेंद्र मोदी अपने उदयपुर में थे। तो अपनी आदत से परहेज नहीं किया। कहते हैं ना, हिरण लाख बूढ़ा हो जाए, कुलांचें भरना नहीं भूलता। बीजेपी के किसी और सीएम ने पटना में इश्तिहार देकर शेखी नहीं बघारी होगी। लेकिन मोदी की हृदय सम्राट बनने की ललक खत्म नहीं हो रही। पर वही इश्तिहार गठबंधन के लिए काल बन गया। बिहार को राहत के लिए दिए पैसे का गुणगान किया। तो नीतिश कुमार ने लौटा दिया। अब मंगलवार को उदयपुर में मोदी की वही गर्जना राजस्थान के लिए सुनाई दी। मोदी बोले- विकास की राजनीति हमारा मकसद। बहन वसुंधरा सीएम थीं, नर्मदा का पानी समय से पहले मांगा। तो हमने राजस्थान को पानी दिया। अब मुश्किल में शायद अपने अशोक गहलोत। नीतिश ने तो पांच करोड़ का चैक लौटा दिया। पर नर्मदा का पानी उलटा गुजरात कैसे लौटाएंगे। यों यह तो मजाक की बात। पर गठबंधन के लिए मंगलवार भी ऊहापोह से भरा रहा। सोमवार को सीपी ठाकुर आडवाणी-गडकरी से मिले। तो मंगलवार को सुशील कुमार मोदी और रविशंकर प्रसाद आडवाणी से मिले। बीजेपी कोर ग्रुप की मीटिंग तय हो गई। सो मीटिंग से पहले सुशील मोदी ने शरद यादव से मुलाकात की। फिर कांग्रेसी कल्चर में देर रात गडकरी ने मीटिंग की। तो बिहार बीजेपी के नेताओं ने जमकर भड़ास निकाली। पर हाईकमान गठबंधन न तोडऩे का फैसला कर चुका। सो सुबह चढ़ा पारा शाम को गिर गया। नीतिश केबिनेट की मीटिंग से बीजेपी के मंत्री गैरहाजिर होने वाले थे। पर शाम तक बात बन गई, सो पटना में मौजूद मंत्री केबिनेट में गए। अब गठबंधन भले बरकरार रहे, पर नीतिश विरोधी बीजेपी नेता अड़ गए। विवाद नीतिश ने शुरू किया, सो नीतिश ही खत्म करें। यों सचमुच राई का पहाड़ बन गया। अब दोनों को अहसास, बात कुछ अधिक दूर चली गई। पर नरेंद्र मोदी ने विवाद में सीधा हाथ डाल दिया। सो चुनाव प्रचार के मुद्दे पर बीजेपी ने कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की। बीजेपी के गिरिराज सिंह ने तो कह दिया- मोदी जरूर आएंगे। पर शाहनवाज और सीपी ठाकुर ने वक्त आने पर चुनाव समिति के हवाले छोड़ दिया। यों गठबंधन बचाने के लिए बीजेपी को फार्मूला मानना ही पड़ेगा। भले बीजेपी कुर्ता फाड़ क्यों न चिल्लाएं- मोदी-वरुण आएंगे, हमारे मोदी-वरुण आएंगे। पर बिहार में बीजेपी-जदयू गठबंधन रहेगा, तो आप लिख लो, होय वही, जो नीतिश रचि राखा।
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22/06/2010

Monday, June 21, 2010

एंडरसन सिर्फ गुनहगार, अपनी व्यवस्था तो पापी

भोपाल त्रासदी पर जीओएम ने पीएम को रपट सौंप दी। अब शुक्रवार को केबिनेट राहत का पिटारा खोलेगी। पर राहत से पहले बात बीजेपी पर आई आफत की। शनि अमावस के दिन 12 जून को पटना में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन पर ऐसी साढ़े साती पड़ी। दोनों का हाल मियां-बीवी के झगड़े जैसा हो गया। जहां तुम बिन रहा भी न जाए, तुम संग सहा भी न जाए वाली स्थिति। सो गठबंधन का संकट दूर होने का नाम नहीं ले रहा। अब तो संकट दूर वही कर सकते, जिन ने संकट पैदा किया। अगर बीजेपी ने नीतिश कुमार की शर्त मान ली। पहले की तरह नरेंद्र मोदी को बिहार से दूर रखने का वादा किया। तो गठबंधन शायद बचा रहे। नीतिश कोसी बाढ़ राहत का पांच करोड़ गुजरात को लौटा बहुत आगे निकल चुके। सो मोदी से ठनी रार पर नीतिश ने समझौता कर लिया। तो बिहार में नीतिश की हालत वही होगी, जो यूपी में कल्याण सिंह को लाने से मुलायम की हुई। सो दोनों की रणनीति सिर्फ अपना-अपना वोट बैंक साधने की। फिलहाल सवर्ण वोट नीतिश सरकार से नाराज। पर गठबंधन टूटा, तो सवर्ण वोट सीधे कांग्रेस की झोली में जाएगा। बरकरार रहा, तो सवर्णों के लिए बीजेपी-जदयू के सिवा कोई विकल्प नहीं। नीतिश की भी मजबूरी, गठबंधन तोड़ कांग्रेस से हाथ नहीं मिला सकते। वैसे भी कांग्रेस का इतिहास रहा, उसने जिससे गठजोड़ किया, उसके लिए भस्मासुर साबित हुई। लालू, पासवान, मुलायम के उदाहरण पुराने नहीं। पर बीजेपी की बात दूसरी। उसने जिससे गठजोड़ किया, वह कंध पर ही बैठ गया। झारखंड हो या मायावती, देवगौड़ा हो या चौटाला-बंसीलाल। कभी बीजेपी ने अपनी ओर से गठबंधन नहीं तोड़ा। सो जैसी नीतिश की मजबूरी, वैसी ही बीजेपी की भी। अगर जदयू साथ छोड़ कांग्रेस से मिल गया। तो बीजेपी फिर राजनीतिक अछूत हो जाएगी। अभी जेडीयू जैसे दल की वजह से सांप्रदायिकता की चादर मटमैली हो चुकी। सो नीतिश को अहंकारी, अहसानफरामोश कहने के बाद भी बीजेपी गठबंधन तोडऩे का साहस नहीं जुटा पा रही। बिहार बीजेपी के अध्यक्ष सीपी ठाकुर आडवाणी से मिले। तो आडवाणी ने गडकरी से मिलने को कह दिया। सो आलाकमान की नब्ज भांप ठाकुर ने भी कह दिया, पखवाड़ा बीतने तक फैसला हो जाएगा। उधर शरद यादव भी गठबंधन न टूटने की दलील दे रहे। तो नीतिश कुमार ने कह दिया- 'टेंशन की बात नहीं, आप लोग रिलेक्स रहिए।' यानी नीतिश ने अपनी तैयारी पूरी कर ली। अब फैसला बीजेपी को करना। सो बीजेपी की स्थिति सांप-छछूंदर वाली हो गई। बीजेपी का स्थानीय नेतृत्व गठबंधन तोडऩे पर जोर दे रहा। तो केंद्रीय नेतृत्व जमीनी हकीकत से वाकिफ। सचमुच गठबंधन टूटा, तो विकास की ओर बढ़ा बिहार फिर ठहर जाएगा। सो बीजेपी के केंद्रीय नेता आज-कल यही गुनगुना रहे- 'तेरे बिन मैं कुछ भी नहीं, मेरे बिन तू कुछ भी नहीं। तेरे सारे आंसू मेरे, मेरी सारी खुशियां तेरी..। यानी गठबंधन नहीं टूटेगा, नूरी-कुश्ती चलती रहेगी। पर बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बन कांग्रेस नाचने लगी। चैक लौटाने को नीतिश का गलत कदम बताया। पर आलोचना बीजेपी की कर रही। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने उत्साह में यहां तक कह दिया- 'अब देश में द्विध्रुवीय राजनीति की धारणा नेस्तनाबूद हो गई। सिर्फ कांग्रेस ही राष्ट्रीय दल, बाकी सिर्फ प्रासंगिक।'  यों दिल बहलाने को कांग्रेस-ए-खयाल अच्छा है। पर उन ने कट मोशन हो या भोपाल त्रासदी, बीजेपी के विरोध को बौखलाहट करार दिया। यों बौखलाहट में कौन, कांग्रेस बखूबी जानती। आखिर 26 साल पुराना पाप का घड़ा फूटा, तो कांग्रेस को गैस त्रासदी के शिकार लोग भी याद आ गए। अभी तक वहां पड़ा रासायनिक कचरा भी दिखने लगा। भोपाल त्रासदी के बाद कांग्रेस ने पीडि़तों के साथ कैसी त्रासदी की, सबका पर्दाफाश हो चुका। अब चेहरा बचाने को जीओएम बनाया। सोमवार को जीओएम की सिफारिश भी हो गई। तो 26 साल बाद पीडि़त परिवारों को दस लाख देना तय हुआ। अपंगों को पांच लाख मिलेंगे, घायलों को तीन लाख। पर जरा सोचिए, 26 साल में कितने खर्च कर चुके होंगे पीडि़त। मनीष तिवारी को गर्व, कांग्रेस ही एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी। पर क्या ऐसी भूमिका होती है राष्ट्रीय पार्टी की? भोपाल के पीडि़त 26 साल से लगातार इसी मांग के साथ प्रदर्शन कर रहे थे कि मुआवजा मिले, पीडि़तों का इलाज हो और रासायनिक कचरा हटाया जाए। पर दंभ भरने वाली राष्ट्रीय पार्टी ने क्या किया? जब यह हादसा हुआ था, तब कांग्रेस साढ़े चार सौ सीटों के साथ केंद्र की सत्ता में थी। राज्य में भी कांग्रेस का एकछत्र राज था। पर तब तो कांग्रेस ने कुछ नहीं किया। अब 26 साल बाद कोर्ट ने लचर कानूनी दायरे में सजा दी। तो लगा, जैसा सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, अपनी समूची व्यवस्था का जमीर जाग उठा। पर जीओएम अभी भी एंडरसन को लेकर खामोश। एंडरसन पर फिर वही पुराना राग, प्रत्यर्पण की कोशिश होगी। सुप्रीम कोर्ट में क्यूरेटिव पिटीशन डालेंगे। पर एंडरसन का क्या होगा, यह कांग्रेस भी जानती और आपको भी यहीं पर बता चुके। सो कांग्रेस हो या अपनी व्यवस्था के बाकी पहरुए, अब सिर्फ लफ्फाजी हो रही। राहत पैकेज के नाम पर एक बार फिर लूट मचेगी। सो भोपाल त्रासदी का दोषी अगर वारेन एंडरसन, तो त्रासदी के बाद के 26 साल की बदहाली के गुनहगार हम और आप। मीडिया समेत लोकतंत्र के सभी स्तंभ, जो गाहे-ब-गाहे चीख-चीख कर खुद की ईमानदारी का ढोल पीटते। असल में सबने मानवता के साथ पाप किया। लोक-लिहाज इन सभी स्तंभों के लिए तो सिर्फ कहने की बात। बाकी भोपाल अपनी व्यथा खुद कह रहा।
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21/06/2010

Saturday, June 19, 2010

तो राव पर ठीकरा कांग्रेसी मैनेजमेंट!

तो राम जेठमलानी पर बीजेपी की जिद पूरी हुई। कांग्रेस गच्चा खा गई। या यों कहें, अबके राजस्थान में जादूगर का जादू नहीं चला। सो राजस्थान में ही नहीं, कर्नाटक में भी कांग्रेस का धन-पशु वाला तुरुप नहीं चला। राजस्थान में संतोष बागड़ोदिया को निर्दलीय तो उतारा, पर फजीहत करा दी। चार निर्दलियों के जुगाड़ से अपने राम का बेड़ा पार करा लिया। अब राज्यसभा चुनाव का झंझट निपटा, तो शुक्रवार को सरकार ने भोपाल गैस पीडि़तों की सोची। पी. चिदंबरम की रहनुमाई वाली जीओएम की मीटिंग दो दिन और होगी। फिर सोमवार को पीएम को शुरुआती रिपोर्ट सौंपे जाने की संभावना। पर जरा सुध लेने की रफ्तार देखिए। जीओएम का गठन हुआ नौ जून को। पर पहली मीटिंग नौ दिन बाद हुई। वह भी तब, जब अपने मनमोहन ने दस दिन में रपट मांगी। पर बात पहली मीटिंग की। सो जीओएम ने अपनी लक्ष्मण रेखा तय कर ली। राहत, पुनर्वास और मुआवजे पर फोकस होगा। पर वारेन एंडरसन को लेकर अभी मुट्ठी बंद कर ली। चिदंबरम ने मीटिंग के बाद सभी पहलुओं पर गौर करने का भरोसा दिया। पर लगे हाथ जीओएम की लक्ष्मण रेखा भी बता दी। जैसे नक्सलवाद पर चिदंबरम ने खुद के सीमित अधिकार की दुहाई देकर हाथ खड़े किए थे। अब एंडरसन पर भी अधिकारों की दलील। जीओएम को महज राहत, पुनर्वास पर फौकस बता रहे। यानी 26 साल बाद अपने लोगों की सुध ले रही सरकार। यों 26 साल पहले जब 15-20 हजार लोग त्रासदी के शिकार हुए। तो कांग्रेस ने सिर्फ और सिर्फ वारेन एंडरसन की फिक्र की। एंडरसन पर मेहरबानी दिखाते हुए स्वदेश वापसी का पुख्ता बंदोबस्त किया। भले भोपाल की जनता त्रासदी की आग में जल रही। यों त्रासदी की आग अभी भी नहीं बुझी। सो लपटें सीधे दस जनपथ को झुलसाने लगीं। तो कांग्रेस 26 साल बाद देश के पीडि़त लोगों पर भी मेहरबान हो गई। पर एंडरसन को भगाने के आरोप से घिरी कांग्रेस की दलील सचमुच चौंकाने वाली। पंद्रह-बीस हजार भारतीयों की मौत पर एक विदेशी एंडरसन भारी पड़ा। कांग्रेस यही तो दलील दे रही। अगर तब एंडरसन को सेफ पैसेज नहीं दिया होता। तो उसका खून हो जाता। तो क्या सिर्फ अमेरिकियों का खून असली और भारतीयों का नकली? अपने मनमोहन अमेरिका और ओबामा के काफी मुरीद। पर नुकसान का मुआवजा कैसे हासिल किया जाता, यह सचमुच अमेरिका से सीखना चाहिए। मैक्सिको की खाड़ी में तेल फैलाने वाली ब्रिटिश कंपनी बीपी को आखिर 20 अरब डालर का हर्जाना भरने को राजी होना पड़ा। यह मुआवजा अमेरिकी कानून के तहत तय साढ़े सात करोड़ डालर से इतर है। हर्जाना वसूलने के लिए ओबामा ने सबसे पहले बीपी के अध्यक्ष टोनी हेवर्ड को लंदन से वाशिंगटन बुलवाया। फिर संसदीय कमेटी के सामने पेश किया। और आखिर में ब्रिटिश कंपनी को झुकना पड़ा। क्या कांग्रेस की पूर्व या मौजूदा सरकार में बराक ओबामा जैसा माद्दा है? क्या मनमोहन एंडरसन को वापस लाने की सोच भी सकते? सोचना तो दूर, अजीब-ओ-गरीब दलीलें दी जा रहीं। अब पीडि़तों के जख्म निचली अदालत के फैसले से हरे हो चुके। तो उस जख्म पर मुआवजे का मरहम लगाने की तैयारी। क्या 26 साल बाद मुआवजा सही व्यक्ति तक पहुंचेगा? जिस देश में लोग पशुओं का चारा खा जाते, बाढ़ और सूखे के शिकार लोगों का निवाला निगल जाते, जहां मंत्री अपनों को रेवड़ी बांटने में बेखोफ देश को चूना लगा जाते। ऐसे लूट तंत्र वाले देश की व्यवस्था से कैसी उम्मीद? जब 26 साल में भोपाल गैस पीडि़तों तक इंसाफ नहीं पहुंचा। तो अपनी लूटखसोट वाली व्यवस्था में मुआवजा कहां तक पहुंचेगा। कांग्रेस की हमेशा यही रणनीति। जब नानावती रिपोर्ट के बाद सिख विरोधी दंगे के शिकार परिवारों के जख्म हरे हुए, तो मनमोहन ने संसद में माफी मांगी। फिर जीओएम ने मुआवजे से मुंह बंद करने की कोशिश की। सीबीआई से जगदीश टाइटलर को बरी करवा कर ही दम लिया। अब भोपाल गैस त्रासदी में भी यही होगा। कांग्रेस कभी भी गांधी-नेहरू खानदान पर उंगली उठती नहीं देख सकती। कांग्रेस की हमेशा यही रणनीति, मीठा-मीठा दस जनपथ का, बाकी कड़वा-कड़वा कांग्रेजन का। सो भोपाल कांड में कई पूर्व अधिकारियों ने राजीव सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया। तो अब नया खुलासा कांग्रेस की रणनीति के मुताबिक। पूर्व विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने एंडरसन को सेफ पैसेज देने के मामले में नरसिंह राव को जिम्मेदार ठहरा दिया। राव को एंडरसन पर मेहरबान बताया। राजीव गांधी को पूरे मामले में पाक-साफ बताने की कोशिश की। पर राव के बेटे रंगाराव ने पिता का नाम घसीटने पर एतराज जताया। पर नेहरू-गांधी खानदान से इतर पीएम बनने वाले कांग्रेसी नेताओं को कांग्रेस कभी अपना नहीं मानती। तभी तो पिछले यूपी विधानसभा चुनाव के वक्त राहुल गांधी ने 1992 के बाबरी मस्जिद कांड के लिए राव को दोषी ठहरा दिया। तब कहा था- अगर उस वक्त नेहरू-गांधी खानदान का पीएम होता, तो बाबरी विध्वंस न होता। अब भोपाल का ठीकरा भी राव के सिर। सो अब भोपाल त्रासदी पर राजनीतिक मैनेजमेंट की तैयारी।
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Thursday, June 10, 2010

अब तो साफ हो, कौन थे अर्जुन के 'कृष्ण' ?

अब कांग्रेस डैमेज कंट्रोल में जुट गई। अभी तो जितने नेता, उतनी बातें। पर दस जनपथ से एक मास्टर स्ट्रोक आएगा। फिर भोपाल गैस त्रासदी पर भी कांग्रेस गंगा नहा लेगी। कांग्रेस में हमेशा यही होता। आप इतिहास उठाकर देख लो। पीएम की कुर्सी का त्याग हो या लाभ के पद के विवाद में सांसदी से इस्तीफा। राष्ट्रपति चुनाव हो या लोकसभा स्पीकर का। सबसे अहम, तेल की दलाली में वोल्कर रपट के बाद अपने नटवर सिंह की विदाई। नटवर जिनके खून में कांग्रेस रचा-बसा। पर कांग्रेस ने उस खून को कैसे खुद से अलग किया, सबको मालूम। यों कांग्रेस झूठ को भी सच बनाकर परोसने की कला में माहिर। जब वोल्कर रपट में तेल की दलाली की आंच कांग्रेस नेतृत्व तक पहुंचने लगी। तो बड़ी चालाकी से नटवर को हटाया गया। अगर सचमुच नटवर तेल के खेल में गुनहगार थे। तो सीधे कांग्रेस से बाहर क्यों नहीं निकाला। पर आप खुद देखो। नटवर का नाम जब वोल्कर रपट में आया, विपक्ष ने घोड़ा खोल दिया। तो मनमोहन ने पहले विदेश मंत्रालय छीना, पर केबिनेट मंत्री बने रहे। फिर कांग्रेस ने अपने मुखपत्र के संपादकीय मंडल से हटाया। पर वर्किंग कमेटी से बाहर करने से पहले जूनियर नेता कपिल सिब्बल से बयान दिलवा दिया। ताकि नटवर खुद इस्तीफा देकर कांग्रेस छोड़ जाएं। फिर जब एटमी डील पर नटवर ने मनमोहन को घेरने की कोशिश की। बीजेपी के यशवंत, सपा के अमर, लेफ्ट के सीताराम के साथ मिलकर डी-4 बनाया। तो आधी रात को कांग्रेस ने निलंबन का फैसला लिया। फिर नटवर ने पीएम मनमोहन से लेकर प्रणव मुखर्जी तक को वफादारी याद दिलाई। सो आखिर वही हुआ, नटवर को कांग्रेस से विदा होना पड़ा। यानी कांग्रेस ने वोल्कर रपट में नटवर को इस तरह उलझाए रखा कि विपक्ष आगे तक सवाल ही नहीं उठा पाया। सो कांग्रेस ने नटवर प्रकरण को लंबा खींच दस जनपथ पर उठ रही उंगली की दिशा ही मोड़ दी। यानी नटवर प्रकरण सिर्फ एक उदाहरण, ताकि भोपाल त्रासदी पर कांग्रेस की रणनीति साफ हो। अब कांग्रेस ने सियासत की बिसात बिछा दी। कांग्रेस के ही नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप शुरु कर चुके। ताकि विपक्ष के सवाल की धार भोंथरी हो सके। अब गैस कांड के मुख्य अभियुक्त वारेन एंडरसन की भगाने में तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की भूमिका पर सवाल उठा। खुद तात्कालीन डीएम ने खुलासा किया। तो मध्य प्रदेश में अर्जुन के साथ मंत्री और बाद में उत्तराधिकारी बने दिग्विजय सिंह बचाव में उतर आए। भले राजनीतिक स्तर पर दोनों नेताओं के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा। यानी मौसेरे भाई वाली कहावत चरितार्थ हो रही। दिग्विजय की दलील देखिए, एंडरसन को भगाने में राज्य सरकार की नहीं, अलबत्ता केंद्र की भूमिका संभव। उन ने साफ तौर से माना, एंडरसन को रिहा कर अमेरिका भगाने के पीछे अमेरिकी दबाव से इनकार नहीं किया जा सकता। पर दिग्विजय के बयान के फौरन बाद कांग्रेस के सत्यव्रत चतुर्वेदी ने असहमति जता दी। सारा ठीकरा राज्य के सिर फोड़ दिया। अब आप बयानों के विरोधाभास को खुद देख लो। जब कोई सीएम बिना पीएमओ की मंजूरी के खुद विदेश नहीं जा सकता। तो वह किसी और को कैसे भगा सकता है? वह भी राज्य सरकार के विमान में। एंडरसन को रिहा करने का आदेश अब स्वर्ग सिधार चुके तबके चीफ सेक्रेट्री ब्र्हम स्वरुप ने दिया था। डीएम-एसपी ने बिना सवाल उठाए आका के हुक्म की तामील की। डीएम की कार से एंडरसन सरकारी दामाद की तरह विमान में सवार होकर दिल्ली पहुंचा था। अब सवाल, तबके सीएम अर्जुन सिंह ने चीफ सेक्रेट्री को रिहाई का आदेश किसके कहने पर दिया? यों जनता पार्टी के सर्वेसर्वा सुब्रहमण्यम स्वामी ने ट्विटर पर खुलासा किया, एंडरसन ने अर्जुन सिंह के ट्रस्ट को तीन करोड़ चंदा दिया था। पर चंदा लेकर कोई सीएम इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकता। वैसे भी विदेश मामले पर राज्य नहीं, अलबत्ता केंद्र का अधिकार। सो एंडरसन को भगाने के लिए मची अफरा-तफरी बिना दिल्ली में बैठे आका के संभव नहीं। चीफ सेक्रेट्री ने तो तत्कालीन गृह सचिव के.एस. शर्मा को भरोसे में भी नहीं लिया। यानी भोपाल त्रासदी की सबसे बड़ी गुनहगार तो कांग्रेस हो गई। खुद तबके सूचना व प्रसारण मंत्री वसंत साठे ने खुलासा किया। एंडरसन को भगाए जाने की जानकारी केंद्र-राज्य दोनों को थी। सो बीजेपी ने कांग्रेस से मांग कर दी, देश से माफी मांगो। पर अब कांग्रेस अपना खेल करेगी। अर्जुन अगर कुछ बोलेंगे, तो हश्र नटवर जैसा ही होगा। अगर नहीं बोले, तो भी कांग्रेस अर्जुन को ही बलि का बकरा बनाएगी। कांग्रेस नेताओं के परस्पर विरोधी बयानों के बाद आप खुद देखना, कैसे दस जनपथ से फरमान आएगा और तमाम विरोधों की हवा उड़ जाएगी। पर सियासत की पिच पर कांग्रेस-बीजेपी चाहे जो खेल खेले। पर यह तो साफ हो चुका, भोपाल त्रासदी के शिकार लोगों को न्याय दिलाने के लिए कांग्रेस कभी ईमानदार नहीं रही। जैसे सिख विरोधी दंगे के लिए अपने मनमोहन ने बीस साल बाद देश से माफी मांगी, कुछ ऐसा ही मानसून सत्र में भोपाल त्रासदी के लिए हो जाए, तो हैरानी नहीं। पर वसंत साठे के बयान के बाद गुरुवार को मौजूदा सूचना व प्रसारण मंत्री का बयान आया। बोलीं- 'जीओएम सभी तथ्य को सामने लाएगा। देश से कुछ भी नहीं छुपाया जाएगा। सरकार पूरी पारदर्शिता बरतेगी। पीएम मनमोहन के कार्यकाल में कोई चीज छुपाई नहीं जाती।' चलो माना, मनमोहन के कार्यकाल में कुछ नहीं छुपाई जाती। तो क्या यह मान लें, 1984 वाले पीएम के कार्यकाल में बहुत कुछ छुपाया गया? इशारा साफ, एंडरसन को भगाने वाला कौन। अर्जुन सिंह तो जरिया थे,  'कृष्ण' तो दिल्ली में थे।
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10/06/2010

Wednesday, June 9, 2010

तो अपने 'नीरो' भी बसाएंगे भोपाल!

आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में नीरो वाली कहावत आपने कई दफा सुनी होगी। कहते हैं, जब रोम जल रहा था, तब नीरो बंसी बजा रहा था। अब संयोग कहें या कुछ और, आज के दिन ही 68 ईसवी में नीरो ने आत्महत्या की थी। आत्महत्या प्रायश्चित के लिए की या कोई और वजह, इसके लिए इतिहास खंगालना होगा। सो इतिहास की बात फिर कभी, पर अब 26 साल बाद अपनी सरकार भोपाल की त्रासदी का प्रायश्चित करने की सोच रही। यानी 26 साल तक भोपाल के पीडि़त जलते रहे, अपने खैर-ख्वाह नेता बंसी बजाते रहे। किसको मालूम नहीं था, अदालत दो साल से अधिक की सजा नहीं सुना सकती। जब एफआईआर ही कमजोर धारा में दर्ज हो। तो जज का क्या कसूर। अपनी जांच एजेंसी सीबीआई ने क्या किया, किसी से छुपा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में जो फैसला दिया, वह भी सबके सामने था। पर 1984 से 1996 तक की कहानी छोड़ दो, तो उसके बाद किस राजनीतिक दल या सरकार ने भोपाल गैस पीडि़तों के लिए कुछ किया। अब अदालत ने महज दो साल की सजा सुनाई। पीडि़तों के जख्म पर फिर चोट हुई। तो अब मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार को भोपाल गैस पीडि़त अपनी जनता दिखने लगे। केंद्र में बैठी मनमोहन सरकार को भी ख्याल आ गया पीडि़तों की राहत और पुनर्वास का। मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह चौहान ने पांच मेंबरी कमेटी गठित कर दी। एलान किया- 'पीडि़त राज्य की जनता। सो राज्य सरकार अब अपनी जनता का केस लड़ेगी। राज्य सरकार ऊपरी अदालत में अपील करेगी। पर पहले पांच मेंबरी कमेटी केस से जुड़े सभी कानूनी पहलुओं का अध्ययन करेगी।' यों शिवराज ने एक पते की बात कही। आईपीसी की धारा 71 के तहत हर मौत के लिए धारा 304-ए का एक अलग अपराध बनता है। सो हर मौत के लिए दो-दो साल की सजा हो, तो दोषियों को लंबी सजा संभव। पर कोई पूछे, यह बुद्धि पहले क्यों नहीं आई? जब पीडि़तों का घाव कैंसर बन गया, तो ही राजनेताओं की इंद्रियां जाग रहीं। सबको मालूम, अब वारेन एंडरसन को लाकर सजा दिलाने की कुव्वत मनमोहन सरकार में नहीं। याद है, तीन मार्च को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस हुई। आडवाणी ने ओबामा के आगे सरकार को सरेंडर बताया। तो पीएम ऐसे भडक़े, जैसे खुद ओबामा हों। उन ने कहा था- 'मैंने कई बार ओबामा से बात की है। पर यूएस की पॉलिसी में कोई बदलाव नहीं आया।' अब आप ही सोचिए, अगर यूएस की पॉलिसी में बदलाव आएगा, तो क्या ओबामा अंदरूनी पॉलिसी मनमोहन को बताएंगे? अब ऐसी पैरोकारी होगी, तो एंडरसन पर कैसी उम्मीद? पर कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने मंगलवार को जुबानी रस्म अदायगी निभा ली। बोलीं- 'कांग्रेस इस बात पर दृढ़ है कि प्रत्यर्पण की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए और वारेन एंडरसन को भारत लाकर मामले को तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाया जाए।' अब कानूनी अड़चन आपको कल यहीं पर बता चुके। कोई भी देश अपने नागरिक का प्रत्यर्पण नहीं करता। अलबत्ता विदेश में किए गए उसके अपराध पर देश में ही घरेलू कानून के तहत मुकदमा चलता। यानी एंडरसन का न अमेरिका में कुछ बिगड़ा, न भारत में बिगड़ेगा। अलबत्ता बुधवार को जितने खुलासे हुए, शायद नीरो का भी सिर शर्म से झुक जाए। वारेन एंडरसन को भोपाल में गिरफ्तार कर गैस्ट हाउस में रखा गया था। पर तबके चीफ सैक्रेट्री ब्रह्म स्वरूप ने डीएम मोती सिंह और एसपी स्वराज पुरी को बुलाकर एंडरसन को रिहा करने की हिदायत दी। तब कांग्रेस के अर्जुन सिंह सीएम थे। एंडरसन की रिहाई की औपचारिकता पूरी करने के बाद मोती की कार में ही एयरपोर्ट पहुंचाया गया। एयरपोर्ट पर सीएम अर्जुन सिंह का विमान आव-भगत को तैयार था। सो एंडरसन दिल्ली पहुंचे। तबके राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिल अमेरिका लौट गए। अब बीजेपी-कांग्रेस दोनों एंडरसन को भारत लाने की मांग कर रहीं। पर सत्ता में रहते किसने क्या किया? अब परमाणुवीय जनदायित्व बिल संसद में पेश हो चुका। मनमोहन पास कराने को आमादा। पर बिल के प्रावधान देखिए। अगर भोपाल जैसी त्रासदी हुई, तो मरने वालों की संख्या कई गुना अधिक होगी। पर विदेशी ऑपरेटर सिर्फ पांच सौ करोड़ रुपए की भरपाई करेगा। उस पर भारत में कोई मुकदमा नहीं चलेगा। जबकि अमेरिकी कानून के मुताबिक वहां ऐसा हादसा हो, तो ऑपरेटर 12.5 बिलियन डालर की भरपाई करेगा। यानी 23 गुना अधिक। तो क्या भारतीयों के खून के मुकाबले अमेरिकियों का खून 23 गुना अधिक कीमती? पर कोई सवाल न उठे, सो दिखावे को राहत-पुनर्वास का जिम्मा केंद्र ने लिया। होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम की रहनुमाई में नौ मंत्रियों का जीओएम बन गया। जो पुनर्वास के साथ-साथ ऐसे हादसे न हों, यह भी बताएगा। पर जीओएम का मतलब ग्रुप ऑफ मिनिस्टर नहीं, गड्ढे में ऑफिशियल मैटर। तेलंगाना, वन रेंक-वन पेंशन, जातीय जनगणना, महंगाई जैसे कई अहम मुद्दे जीओएम के सुपुर्द। पर जीओएम के गठन का मतलब ही मामले को ठंडे बस्ते में डाल देना। जीओएम की दलील देकर मनमोहन मानसून सत्र में परमाणुवीय नुकसान दायित्व बिल पास करवाएंगे। बाकी पीडि़त परिवार तो भगवान भरोसे। यही होता है अपने देश में। जब मुंबई में 26/11 हुआ, तो जाकर सिस्टम में सुधार का ख्याल आया। पर अर्जुन के बाद कांग्रेसी दिग्विजय सीएम बने। पिछले छह साल से बीजेपी सरकार। पर सब लंबी तानकर सोए रहे। अब यूनियन कार्बाइड तो डाऊ कैमिकल्स के नाम से फिर भारत में आ चुका। जिसके वकील अपने कांग्रेस के प्रवक्ता। सो पीडि़त परिवारों को न्याय के नाम पर अब सिर्फ सियासत की त्रासदी।
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09/06/2010

Tuesday, June 8, 2010

विधुर व्यवस्था का यह कैसा विधवा विलाप?

हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराने से पहले जब मित्र राष्ट्रों पर धुरी राष्ट्र हावी थे। तब विंस्टन चर्चिल ने न्याय व्यवस्था से जुड़े एक अधिकारी से पूछा था, अपनी न्याय व्यवस्था कैसी चल रही? पर वह अधिकारी द्वितीय विश्व युद्ध को लेकर ब्रिटेन की जनता की चिंता लेकर पहुंचा था। सो चर्चिल ने अपना सवाल बार-बार दोहराया। तो अधिकारी ने झल्लाते हुए जवाब दिया, जनता में आज यह विषय नहीं। अलबत्ता जनता यह सोच रही, मित्र राष्ट्रों का क्या होगा? पर चर्चिल ने जवाब दिया- अगर हमारी जनता समूची व्यवस्था पर भरोसा करती होगी, तो हिटलर-मुसोलिनी जैसे जीतकर भी राज नहीं कर पाएंगे। यानी जिस देश की कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका पर जनता को एतबार न हो, उसे कोई भी गुलाम बना सकता। अपनी कार्यपालिका और विधायिका से जनता का भरोसा तो उठ चुका। रही-सही कसर भोपाल की महात्रासदी पर सोमवार को आए फैसले ने पूरी कर दी। आखिर अब न्यायपालिका पर कितना भरोसा करेगा आम आदमी? खास तौर से भोपाल गैस त्रासदी के पीडि़त तो अब कोई उम्मीद नहीं बांधेंगे। जिन ने न्याय की खातिर 26 साल से एक नहीं, दो-दो लड़ाइयां लड़ीं। न्याय की उम्मीद में अभियुक्तों से भी लडऩा पड़ा, अपनी सरकार से भी। दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी है भोपाल गैस कांड। पूरे 26 साल मुकदमा चला। पर दोषियों को सजा मिली दो साल की। उससे भी क्रूर मजाक, इधर फैसला हुआ, उधर 25 हजार के मुचलके पर दोषियों को जमानत भी मिल गई। क्या भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोग इसलिए 26 साल से बाट जोह रहे थे? क्या इसी व्यवस्था के जरिए भारत विकसित देश बनने की सोच रहा? अपनी व्यवस्था में बैठे लोगों की नींद अब खुल रही। भोपाल गैस कांड की जांच कर चुके तबके सीबीआई संयुक्त निदेशक बीआर लाल ने अब खुलासा किया, विदेश मंत्रालय ने इस मामले के सबसे बड़े विदेशी गुनाहगार वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण की पहल न करने की हिदायत दी थी। बकौल लाल, उन ने हिदायत नहीं मानी, एतराज जताया। तो उनका ट्रांसफर कर दिया गया। उन ने यह भी बता दिया, सीबीआई हमेशा से वही करती, जो सत्ता में बैठे आका का हुक्म होता। लाल की बात सोलह आने सही। पर सवाल बीआर लाल से भी। आखिर सोमवार को कोर्ट के फैसले के बाद ही नींद क्यों खुली? अब तक क्यों चुप बैठे थे लाल? क्या फैसले के बाद मीडिया ने तूल दिया, तो टीवी पर चेहरा चमकाने को खुलासा कर रहे? अब खुलासे से क्या होगा? अगर लाल इतने ही खुद्दार थे, तो तभी खुलासा क्यों नहीं किया? अब भोपाल की महात्रासदी पर 26 साल बाद विधवा विलाप करने वाले बहुतेरे। अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली अब फैसले को इंसाफ का दफन होना करार दे रहे। कानून में बदलाव से लेकर फास्ट ट्रेक कोर्ट की पैरवी कर रहे। पर पिछले 26 साल में कभी ऐसा ख्याल क्यों नहीं आया? अदालत में सीबीआई ने जिस धारा के तहत चार्जशीट दाखिल की, उसमें अधिकतम सजा दो साल की। वह भी 1987 में दाखिल की। फिर सितंबर 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोई बड़ा करिश्मा नहीं किया। अलबत्ता कमजोर धारा में ही केस दर्ज करने का फैसला सुना दिया। फिर भी 1996 से 2010 तक किसी नेता ने कोई पहल नहीं की। भोपाल त्रासदी के पीडि़त न जाने कितनी दफा जंतर-मंतर पर चीख-पुकार मचा चुके। पर लकवाग्रस्त व्यवस्था अब गूंगी-बहरी भी हो चुकी। वारेन एंडरसन को तो चार दिसंबर 1984 को ही जमानत मिल गई थी। बाकायदा विशेष विमान से वह अमेरिका लौट गया। फिर तमाम वारंट के बाद भी एंडरसन नहीं लौटा। अब सरकार पर बचाने का आरोप लगा। तो मोइली बोले- अभी एंडरसन के खिलाफ केस बंद नहीं। यों मोइली देश की जनता को सिर्फ गुमराह कर रहे। दुनिया भर में यही कानून, अगर अपराध कर कोई व्यक्ति अपने देश लौटने में कामयाब हो जाए। तो वह देश अपने नागरिक का प्रत्यर्पण नहीं करता। अलबत्ता उस व्यक्ति पर उसके ही देश में स्थानीय कानून के तहत मुकदमा चलाया जा सकता। क्या मोइली को इस कानून का ज्ञान नहीं? सो चाहे जो हो, एंडरसन अब हाथ नहीं आएगा। यही तो अपनी व्यवस्था का निकम्मापन। भोपाल त्रासदी में न्याय नहीं हुआ, तो झूठा विलाप। रुचिका छेड़छाड़ कांड में 19 साल बाद एसपीएस राठौड़ को महज छह महीने की सजा मिली। मीडिया ने तूल दिया। तो नए सिरे से केस चला। राठौड़ के मैडल छिन गए। अपनी होम मिनिस्ट्री ने देश के सभी थानों को सर्कुलर जारी कर दिया। शिकायत को ही एफआईआर मानें। रुचिका केस में नौ साल तक एफआईआर तक दर्ज नहीं हुई थी। पर 19 साल बाद फैसला आया। तो बीजेपी के शांता कुमार कहने लगे- 'रुचिका केस को सुन पीएम वाजपेयी भी रो पड़े थे। तब वाजपेयी ने सीएम चौटाला को कड़ी चिट्ठी लिखी थी।' पर क्या हुआ, बताने की जरूरत नहीं। जेसिका लाल का केस हो या नितीश कटारा का। बीएमडब्ल्यू कांड हो या फिर भोपाल जैसा ही 26 साल पुराना सिख विरोधी नरसंहार। जब व्यवस्था की पोल खुली, तो राजनेता हों या नौकरशाह, विधवा विलाप करने लगे। पर सवाल, अब विधवा विलाप का क्या मतलब? भोपाल त्रासदी में 20-25 हजार लोग मारे गए। आज भी पीडि़त परिवार उस त्रासदी का दंश झेल रहे। गुजरात दंगे से कई गुना भयावह थी भोपाल की गैस त्रासदी। पर जितना प्रो-एक्टिव सुप्रीम कोर्ट गुजरात दंगे में दिखा, क्या कभी भोपाल के लिए दिखा? अब क्या कहें अपनी व्यवस्था को। अपनी व्यवस्था ही 'विधुर' हो चुकी। सो अब 'विधवा विलाप' कैसा?
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08/06/2010

Monday, June 7, 2010

'राम' की छाया पड़ते ही बीजेपी में बवंडर

तो बीजेपी के सुराज की शुरुआत राम जेठमलानी के साथ हुई। कभी बीजेपी अटल बिहारी की पार्टी थी, अब गगनविहारी नेताओं का कब्जा हो चुका। सो वाजपेयी के अस्वस्थ होने का खूब फायदा उठा रहे। चाल, चरित्र, चेहरे की बलि तो बीजेपी पहले ही चढ़ा चुकी। अब विचारधारा और विजन की भी आहुति दे दी। जैसे कोई लालची बेटा अपने बाप की बीमारी का फायदा उठा सारी दौलत हथियाकर बैठ जाता। कुछ यही हाल अटल बिहारी की बनाई बीजेपी का हो गया। सो मुंबई में बीजेपी के सीएम कॉन्क्लेव का एजंडा तो सुराज था। पर सुराज के सबसे बड़े पैरोकार आडवाणी नहीं पहुंचे। क्यों नहीं पहुंचे, वजह बीजेपी प्रवक्ता को भी मालूम नहीं। अरुण जेतली भी नहीं गए, यशवंत सिन्हा मुंबई एयरपोर्ट जाकर लौट आए। पर वजह बीजेपी ने बताई, जेतली के किसी रिश्तेदार का निधन हो गया। तो सिन्हा कुल्लू-मनाली में छुट्टियां मना रहे थे। रविशंकर की मानें, तो राजनाथ को बुलाया ही नहीं गया था। पर नाराजगी की असली वजह भी सुनते जाइए। राज्यसभा चुनाव में टिकट बंटवारे ने बीजेपी को वापस वहीं ला खड़ा किया, जहां से गडकरी ने कमान संभाली थी। गडकरी ने भी शुरुआत में सपनों का बुर्ज खलीफा खड़ा कर दिया। पर भूल गए, समंदर के बीच बुर्ज को टिकाए रखना आसान नहीं। जेठमलानी को टिकट दिया, तो अरुण जेतली, वसुंधरा राजे, यशवंत सरीखे नेता नाराज। राजनाथ-यशवंत को तो झारखंड के टिकट में पूछा तक नहीं। बीजेपी ने अबके हर राज्य में एक बाहरी उम्मीदवार थोपने का मन बनाया। पर इतना बवंडर मचेगा, उम्मीद नहीं थी। जेठमलानी तो विशुद्ध बाहरी उम्मीदवार। पर सोमवार को अपनों के टिकट पर भी सवाल उठ गए। संघ पृष्ठभूमि से बीजेपी में आए शेषाद्रि चारी ने लेटर बम फोड़ दिया। जैसे लोकसभा चुनाव के बाद अपने जसवंत-यशवंत और शौरी ने फोड़ा था। शेषाद्रि चारी ने तरुण विजय को उत्तराखंड से टिकट दिए जाने पर एतराज जताया। गडकरी को लिखी चिट्ठी में कहा- 'अब यह साफ हो गया है कि जबसे चुनाव में पार्टी हारी है, केंद्रीय नेतृत्व विचारधारा और विजन से भटकता जा रहा है।' तरुण विजय की ओर इशारा करते हुए शेषाद्रि चारी ने लिखा- उत्तराखंड से ऐसे व्यक्ति को टिकट दिया गया, जिनकी ईमानदारी पर सवाल उठे हैं। चारी ने बाद में बेखौफ कहा- 'ऐसे व्यक्ति को टिकट दिया जाना, जिसके बारे में पार्टी का जांच कमीशन वित्तीय गड़बड़ी का दोषी मान पद से हटने को मजबूर कर चुका हो, पार्टी के लिए उचित नहीं।' अब शेषाद्रि चारी गडकरी से मिलेंगे, तो जमीनी वर्करों की उपेक्षा का सवाल फिर उठाएंगे। पर नाराजगी सिर्फ उत्तराखंड में नहीं। मध्य प्रदेश से पत्रकार चंदन मित्रा को टिकट दिया जाना कई नेताओं को नहीं पच रहा। पर मजबूरी यह है कि राज्य इकाई ने पिछली बार ही एक बाहरी के लिए केंद्र को वादा कर दिया था। सो थावरचंद गहलोत अपनी नाराजगी का इजहार दूसरे तरीके से करेंगे। पटना वर्किंग कमेटी में गडकरी से पूछा जाएगा, क्या यही है दस फीसदी वोट बढ़ाने का मंत्र? आखिर बीजेपी ने किसी दलित को टिकट क्यों नहीं दिया? अब सोचो, दलित की बात उठेगी, तो फिर महिला का भी सवाल उठेगा। बीजेपी ने एक नहीं, तीन-तीन महिलाओं नजमा-हेमा-स्मृति को दिया वादा तोड़ दिया। अब बीजेपी में जेठमलानी के खिलाफ विरोध को देख कांग्रेस ने भी संतोष बागड़ोदिया को निर्दलीय मैदान में उतार दिया। यानी अब राजस्थान में घोड़ों की मंडी सजेगी। कितने विधायकों की पौ-बारह हुई, यह तो सत्रह जून को ही मालूम पड़ेगा। पर राम जेठमलानी के आने से बीजेपी का कितना भला होगा। बीजेपी को 86 साल के जेठमलानी में भविष्य दिख रहा। जेठमलानी गुजरात दंगे के मामले में मोदी सरकार की ओर से पैरवी कर रहे। सो मोदी ने वीटो लगाकर टिकट दिलाया। क्या वकालत की फीस अब राज्यसभा की टिकट? अगर बीजेपी का यह मापदंड, तो फिर बीजेपी को कांग्रेस पर दोषारोपण हा हक नहीं। जेठमलानी की छवि आया राम-गया राम से कम नहीं। पर आडवाणी के हमेशा खास रहे। अब इसे दोनों का सिंध प्रांत से होना मानो, या कुछ और। पर वाजपेयी सरकार में मंत्री बने, तो आडवाणी की वजह से। तब भी जुडिशियरी के खिलाफ बोल बखेड़ा किया, तो जाना पड़ा। अफजल की फांसी पर बीजेपी के उलट स्टैंड। पिछले साल दस अगस्त को वड़ोदरा में उन ने कसाब के लिए भी वही राय दी थी। उन ने कहा था- 'कसाब को फांसी नहीं, जेल में सडऩे देना चाहिए।' इंदिरा के हत्यारे की पैरवी कर चुके। हर्षद मेहता, केतन पारिख का बचाव कर चुके। जेसिका लाल के मर्डरर मनु शर्मा का केस लड़ चुके। अब ललित मोदी का लड़ेंगे। सो बीजेपी कह रही- अब जेठमलानी पार्टी की भाषा बोलेंगे। सो इतिहास देख भविष्य का इंतजार करिए। बात अधिक पुरानी नहीं। जब जसवंत बीजेपी से निकाले गए, तो दस सितंबर को जयपुर में जेठमलानी ने बीजेपी में ठोस नेतृत्व का अभाव बताया था। जसवंत की बर्खास्तगी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ बताया था। पर जेठमलानी को टिकट दिए जाने की असली वजह तब समझ आई, जब 16 अप्रैल 2009 को दिया जेठमलानी का एक इंटरव्यू पढ़ा। तब जेठमलानी ने कहा था- 'मेरे बेटे महेश को नॉर्थ-सेंट्रल मुंबई से टिकट देने की खबर सबसे पहले मुझे कमला ने बताई थी। कमला मेरी राखी सिस्टर।' अब आप गांव-गांव में बोली जाने वाली कहावत दोहराओ, बीजेपी को अपने हाल पर छोड़ दो।
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07/06/2010

Friday, June 4, 2010

तो गोलमाल है, भाई सब गोलमाल है

आखिर शरद पवार भी घेरे में आ गए। वैसे अब तक रक्षा सौदों को कोयला खदान माना गया। जहां कितना भी बेदाग छवि का चेहरा क्यों न बिठा दो, कालिख लग ही जाती। पर अब क्रिकेट में भी कोयले जैसी कहानी। आईपीएल का विवाद जबसे शुरू हुआ, तबसे अब तक काली कमाई के काले खेल का लगातार खुलासा हो रहा। अब शरद पवार भी आईपीएल टीम की बोली के मामले में फंस गए। आईपीएल की पुणे टीम के लिए सिटी कारपोरेशन ने भी बोली लगाई थी। पर जैसे कोच्चि टीम में ललित मोदी अपनी पसंद की कंपनी को फ्रेंचाइजी नहीं दिला पाए। वैसे ही शरद पवार के परिवार के शंयर वाली कंपनी सिटी कारपोरेशन भी नाकाम रही। पर ललित मोदी ने फौरन खुन्नस निकाली। सीधे विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर से पंगा लिया। सो कांग्रेस ने थरूर को विदा किया। पर आईपीएल के कमिश्नर रहे ललित मोदी की कमिश्नरी भी नहीं रही। अब वही ललित मोदी शुक्रवार को शरद पवार के बचाव में उतर आए। सोचिए, एक निलंबित, तो दूसरा ताजा-ताजा विवाद में फंसा। आखिर बचाव में आने का क्या मतलब? इसे भी आप आईपीएल का एक लीग मैच ही मानो। पर जैसे खुलासा हुआ, पवार और सुप्रिया सुले ने खंडन किया। अब जरा याद करिए, जब थरूर का मामला आया। तब भी शरद पवार के परिवार और प्रफुल्ल पटेल का नाम विवाद में उछला। पर तब सुप्रिया सुले और शरद पवार खम ठोककर यही कहते रहे- कहीं भी हमारे परिवार की आईपीएल में हिस्सेदारी या भागेदारी नहीं। पर अब सफाई देखिए। जिस सिटी कारपोरेशन में पवार के परिवार की 16 फीसदी हिस्सेदारी। जिस कंपनी ने आईपीएल की नीलामी में हिस्सा लिया। अब पवार कह रहे, कंपनी के प्रबंध निदेशक अनिरुद्ध देशपांडे पुणे टीम की नीलामी प्रक्रिया में हिस्सा लेने को उत्सुक थे। सो उन्हें निजी तौर पर शामिल होने की स्वीकृति दी गई। बकौल पवार, कंपनी बोर्ड के प्रस्ताव में यह साफ किया गया कि व्यक्तिगत तौर पर देशपांडे के अलावा किसी अंश धारक की प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी नहीं होगी। पर पूछा गया, यह बात थरूर-मोदी विवाद के वक्त ही क्यों नहीं बताई? तो जवाब आया, तब जरूरी नहीं समझा। पर पवार की खीझ देखिए। यह तक कहने से गुरेज नहीं किया, अगर वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते, तो सिटी कारपोरेशन कंपनी सहारा से बोली में नहीं हारती। अब सोचो, आईपीएल में कितने ऐसे पेच होंगे। क्रिकेट में राजनेताओं की घुसपैठ की असली वजह क्रिकेट प्रेम नहीं, धन प्रेम रहा। सो शुक्रवार को कांग्रेस ने पवार को अपना बचाव खुद करने की नसीहत दी। तो बीजेपी को मौका मिल गया। बीजेपी ने सीधे पवार से इस्तीफा मांग ही लिया। अब जरा याद करिए, कैसे थरूर के मुद्दे पर बीजेपी ने 16 अप्रैल को संसद का पहिया रोक दिया। विवाद इतना बढ़ा, कांग्रेस ने 19 अप्रैल को थरूर की विदाई में ही भलाई समझी। पर थरूर का जाना आईपीएल की आड़ में चल रहे गोरखधंधे की कलई खोल गया। आखिर आईपीएल के बाद ललित मोदी को भी जाना पड़ा। बाकी जांच की रफ्तार थरूर-मोदी विदाई के बाद थम गई। पर जैसे ही थरूर हटाए गए, पवार-प्रफुल्ल का नाम सामने आ गया। तो समूचा विपक्ष जेपीसी की मांग पर अड़ गया। तब प्रणव दा ने सदन में भरोसा दिया। पर कांग्रेस कोर ग्रुप की मीटिंग में दो मत उभरे। पहला- जेपीसी को भी मौजूदा जांच एजेंसी पर ही निर्भर रहना होगा। दूसरा- जेपीसी बनी, तो जो राज अब तक सिर्फ कांग्रेस और सरकार के पास, सबको मालूम हो जाएगा। सो तभी मन बन गया, जब अपनी जांच एजेंसी सही काम कर रही। तो जेपीसी क्यों बने। पर सनद रहे, सो तब बीजेपी का पवार-प्रफुल्ल प्रेम भी बताते जाएं। बीजेपी ने थरूर का इस्तीफा कराकर दम लिया। पर पवार-पटेल का इस्तीफा मांगना तो दूर, अलबत्ता बचाव में उतर आई। प्रेस कांफ्रेंस में एसएस आहलूवालिया पर सवालों की बौछार हुईं। तो आहलूवालिया खीझ गए। मीडिया से ही सवाल पूछना शुरू कर दिया था। पूछा, पटेल-पवार के खिलाफ आप एक भी सबूत दिखा दो। प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णो के ई-मेल पर सवाल हुआ। तो भी आहलूवालिया ने कहा- पहले मेल को पढि़ए। फिर तय करिए, वह दोषी है या नहीं। सचमुच पवार-पटेल का इतना बचाव तो एनसीपी ने भी नहीं किया। पर अब बीजेपी पवार की सफाई को थोथा बयान बता इस्तीफा मांग रही। अब जरा एनसीपी के डीपी त्रिपाठी ने 22 अप्रैल को जो दलील दी, जरा देख लें। उन ने कहा- हम खेल के राजनीतिकरण में विश्वास नहीं करते। यों इससे बड़ा मजाक कोई और नहीं हो सकता। पर दूसरा सवाल हुआ था- थरूर ने इस्तीफा दिया, तो पवार-पटेल क्यों नहीं। तब त्रिपाठी का जवाब आया- बीजेपी के लोग भी तो बीसीसीआई से जुड़े। पवार ने तो तभी कह दिया था- जिसे जो करना है, करने दीजिए। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। जब पवार पर दबाव बनाने का मौका था, तब बीजेपी बचाव कर रही थी। अब मौका नहीं, तो इस्तीफा मांग रही। कांग्रेस गठबंधन की वजह से दबाव में। सो खुद बोलने के बजाए मामला पवार पर ही छोड़ दिया। पर पवार से कोई कैसी उम्मीद करे। जिनके एक बयान से आम आदमी कराह उठता। अब ललित मोदी पवार का बचाव कर रहे। यानी आईपीएल का गोरखधंधा, बोले तो 1979 में बनी फिल्म गोलमाल को चरितार्थ कर रहा। जहां झूठे का बोलबाला, सच्चे का मुंह काला। गोलमाल है, भाई सब गोलमाल है।
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04/06/2010

Thursday, June 3, 2010

अभिव्यक्ति की 'तेरी-मेरी', तो मौलिक हक कहां?

यों तो साहित्य समाज का दर्पण माना जाता। पर जबसे साहित्य में नेताओं की घुसपैठ हो गई। तबसे सिर्फ हल्ला ही मच रहा। कहीं कोरी कल्पना, तो कहीं कल्पना-हकीकत का तडक़ा मार घालमेल। फिर वोट के हिसाब से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला। अब ताजा विवाद सोनिया गांधी की जिंदगी पर लिखी गई काल्पनिक किताब पर। स्पेन के एक लेखक जेवियर मोरो ने स्पेनिश में एक पुस्तक लिखी- एल साड़ी रोजो। इसी पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण बना- दी रेड साड़ी। सारा विवाद अंग्रेजी संस्करण को लेकर था। किताब का प्रकाशन रोकने के लिए सात-आठ महीने पहले ही अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने प्रकाशक को नोटिस भेजा था। पर अब मामला उछला। सिंघवी ने नोटिस की बाबत सोनिया की सहमति कबूली। पर कांग्रेस ने कोई सीधी टिप्पणी नहीं की। अब जरा किताब को लेकर आपत्ति भी देखते जाएं। जेवियर मोरो ने कल्पना के आधार पर किताब लिखी। जिसमें सोनिया की जिंदगी की शुरुआत से इस मुकाम तक पहुंचने की कहानी को कल्पना में ढालने की कोशिश। पर किसी की निजी जिंदगी को कल्पना में ढालकर प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना अभिव्यक्ति की कैसी स्वतंत्रता? अब किताब अभी भारत में नहीं आई। सो कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने यही दलील दी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान पर जोर दिया। पर बीजेपी को तो सिर्फ सोनिया नाम का कोई मुद्दा भर चाहिए। सो न सोचा, न विचारा, मुंह खोल दिया। बीजेपी के चीफ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद स्पेनिश लेखक के बचाव में उतर आए। बोले- प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबको सम्मान करना चाहिए। रविशंकर ने शुक्रवार को रिलीज होने वाली फिल्म राजनीति पर कांग्रेस के एतराज पर भी सवाल उठाए। फिर स्पेनिश लेखक और प्रकाश झा के खिलाफ कांग्रेसी मुहिम को आपात काल से जोड़ दिया। पर कोई होम वर्क किए बिना क्लास में पहुंचे, तो उसकी भद्द पिटनी लाजिमी। रविशंकर बाबू के साथ भी यही हुआ। उन ने कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया। आपात काल की काली छाया याद कराई। पर जब सवाल हुआ, अपने जसवंत सिंह को क्यों बीजेपी से बाहर निकाला? आखिर जसवंत सिंह ने भी तो वही किया, जिसकी बीजेपी पैरवी कर रही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक हक का इस्तेमाल किया। जसवंत ने जिन्ना पर किताब लिखी। तो बीजेपी ने न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला, अलबत्ता न्याय के सिद्धांत को भी मसल कर रख दिया। जसवंत को न दलील, न वकील, न अपील का मौका दिया। अपने बुजुर्ग नेता को शिमला की चिंतन बैठक में बुलाकर भी बैठक में आने से मना कर दिया। भारतीय संस्कृति में ऐसा व्यवहार तो शत्रु भी नहीं करता। पर बीजेपी ने तीस साल पुराने सहयोगी को चुटकी में बाहर निकाल दिया। सो रविशंकर अपनी ही दलील से घिर गए। पर जवाब दिया- हमने कभी जसवंत की किताब पर बैन लगाने की मांग नहीं की। बीजेपी के सक्रिय नेता थे, पर उनकी किताब हमारी विचारधारा के प्रतिकूल थी। सो निकाल दिया। अब कोई पूछे, क्या किसी दल से जुडऩे का मतलब विचारधारा की संकीर्णता में बंध जाना चाहिए? अगर विचारधारा की लक्ष्मण रेखा के भीतर ही सोच बने, तो फिर विचारधारा का विकास कहां हो पाएगा। पर कांग्रेस को घेरने आए रविशंकर यहीं तक नहीं घिरे। वह भूल गए, जसवंत की किताब 17 अगस्त 2009 को लांच हुई। बीजेपी ने एक दिन बाद ही 19 अगस्त को जसवंत का कोर्ट मार्शल कर दिया। फिर नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना पढ़े-लिखे 20 अगस्त को गुजरात में किताब पर बैन लगा दिया। जसवंत ने सुप्रीम कोर्ट तक बैन को चुनौती दी। आखिर बैन हटाना पड़ा। फिर बीजेपी से टाइम मैगजीन में पीएम वाजपेयी पर छपे लेख का सवाल हुआ। टाइम मैगजीन के पत्रकार एलेक्स पेरी ने वाजपेयी को पियक्कड़ बताया। तो पेरी को हमेशा के लिए भारत से निकाल दिया गया। अब भले पेरी ने जो लिखा, वह खुन्नस हो। पर सोनिया की जिंदगी पर काल्पनिक किताब में बीजेपी की दिलचस्पी क्यों? अगर कुछ भी लिखने की आजादी, तो जसवंत और पेरी पर कार्रवाई क्यों? प्रसिद्ध चित्रकार एम.एफ. हुसैन की अभिव्यक्ति बीजेपी को रास क्यों नहीं आई? गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म परजानिया को किस तरह गैर आधिकारिक तरीके से मोदी सरकार ने रोका, सबको मालूम। याद करिए, सरदार सरोवर बांध को लेकर मेधा पाटकर के साथ जब दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमिर खान भी उतर आए। तो समूचे गुजरात में आमिर की फिल्म फना पर अघोषित बैन लग गया। अब वही बीजेपी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर स्पेनिश लेखक का बचाव कर रही। पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल तो आडवाणी ने भी किया था। जब जिन्ना की मजार पर जाकर पांच जून 2005 को जिन्ना को सेक्युलर बता आए। समूची बीजेपी-संघ परिवार आडवाणी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। तो क्या सिर्फ सुविधा के मुताबिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता परिभाषित होगी? कभी पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून का विवाद। कभी नेताओं की आत्मकथा पर विवाद। तो फतवों के जरिए आए दिन मौलिक हक पर चोट हो रही। वीपी सिंह ने आत्मकथा लिखी। तो बीजेपी को गवारा नहीं हुआ। आडवाणी ने लिखी, तो कांग्रेस को नहीं। जसवंत-आडवाणी की नजर में जिन्ना एक समान। पर सजा मिली सिर्फ जसवंत को। अब कोई पूछे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भी तेरी-मेरी, तो मौलिक हक कहां?
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03/06/2010

Wednesday, June 2, 2010

अब जनता ने दिखाया लेफ्टियों को 'पाछा'

अब बंगाल ममता की छांव में आने को बेताब। लोकसभा चुनाव लीग मैच था, तो निकाय चुनाव सेमीफाइनल। ममता बनर्जी ने अबके न सिर्फ लेफ्ट, अलबत्ता कांग्रेस को भी औकात बता दी। कांग्रेस ममता बिन चुनाव में उतरी। पर अबके दांव उल्टा पड़ गया। कांग्रेसी गढ़ में भी ममता का ही परचम लहराया। सो बुधवार को कांग्रेस नतमस्तक थी। अब कांग्रेस रिश्ता सुधारने में जुटी। कल तक होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस हादसे की सीबीआई जांच को संविधान की दुहाई देकर ठुकरा रहे थे। पर ममता एक्सप्रेस बंगाल की पटरी पर बेधडक़ दौड़ी। तो चिदंबरम को संविधान और कानून समझ आ गए। अब ममता की मांग के मुताबिक सीबीआई जांच का आदेश हो गया। तो कांग्रेस ने भी ममता के पीछे चलना कबूल कर लिया। खुद ममता ने भी कोई गांठ नहीं बांधी। अलबत्ता कांग्रेस के साथ गठबंधन जारी रखने का एलान किया। पर कांग्रेस-तृणमूल के रिश्तों से इतर बंगाल चुनाव के नतीजों से यह साफ हो गया, अब लेफ्ट फ्रंट का तख्ता पलट महज औपचारिकता। सचमुच नतीजों ने लेफ्ट फ्रंट का तिलिस्म तोड़ दिया। पेंतीस साल बाद आखिर किला ढहने लगा। तो सवाल लेफ्ट फ्रंट और नेतृत्व के अस्तित्व का। जब तक ज्योति बसु सीएम रहे, बंगाल में लेफ्ट का किला मजबूत हुआ। पर कमान बुद्धदेव ने संभाली। तो पुरातन नीतियां और आधुनिक सोच के बीच लेफ्ट का कॉकटेल हो गया। वामपंथियों का हमेशा से नारा रहा- लैंड बिलोंग्स द टिलर। यानी भूमि सिर्फ खेतिहारों की। पर सत्ता का नशा सिर चढक़र बोलने लगा। तो सिंगूर और नंदीग्राम में वामपंथियों का असली चेहरा सामने आ गया। और नया नारा हो गया- लैंड बिलोंग्स द मिलर। कैसे पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार ने किसानों-मजदूरों पर गोलियां चलवाईं। समूचा देश तब जनरल डायर को याद कर रहा था। नंदीग्राम में किसानों ने अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया। तो 14 मार्च 2007 को ढाई हजार पुलिस कर्मियों ने घेरा बना गांव वालों पर गोलियां बरसा दी थीं। सिंगूर में भी किसानों की जमीन बुद्धदेव सरकार ने जबरन ली। तो ममता बनर्जी ने आमरण अनशन कर वामपंथियों का चेहरा बेनकाब कर दिया। तबके राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को सीधे दखल देना पड़ा था। कलाम ने बुद्धदेव से दो बार बात की। तब जाकर बुद्धदेव नरम पड़े और ममता का 25 दिन का उपवास टूटा। पर जैसे ही मामला ठंडा हुआ। बुद्धदेव ने टाटा को पुलिस सुरक्षा मुहैया करा नैनो प्रोजैक्ट पर काम शुरू करा दिया। पर ममता की मोर्चेबंदी ने सरकार को नाकों चने चबवा दिए। यों ममता को सीपीएम काडर ने कम परेशान नहीं किया। फिर भी ममता अपने लक्ष्य के प्रति डटी रहीं। आखिर टाटा ने सिंगूर छोड़ दिया। नंदीग्राम में एसईजेड की योजना धरी रह गई। पर जनता ने वामपंथ का असली चेहरा देख लिया। सचमुच वामपंथियों ने बंगाल को राज्य नहीं, अपना गढ़ बनाकर चलना चाहा। वामपंथियों की सोच आजादी के बाद ही साफ हो गई थी, जब 14-17 फरवरी 1948 को कलकत्ता में सम्मेलन हुआ। कलकत्ता थीसिस तैयार हुई। तो वामपंथियों ने देश की आजादी को सच्ची आजादी मानने से इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, अपने संविधान को दासता का घोषणा पत्र तक कहा। तब वाम नेता रणदिवे ने कहा था- भारत में भी रूस की अक्टूबर क्रांति की तर्ज पर अंतिम क्रांति शुरू की जा सकती है। फिर 1964 में वामपंथ में दो-फाड़ हुआ। तो ए.के. गोपालन, ज्योति बसु, प्रमोद दासगुप्त, पी. रामामूर्ति ने सीपीएम बनाई। अब जरा उस सीपीएम की बनाई नीति का मजमून देखो- उद्योग धंधों का राष्ट्रीयकरण हो, जमींदारी प्रथा खत्म हो, भूमिहीन-कमजोर तबकों के बीच भूमि बांटी जाए, किसानों-खेतिहर और गांव के गरीब को मुफ्त जमीन दी जाए, गरीब किसानों को किसी भी सूरत में उसके खेतों से बेदखल न किया जाए। पर सिंगूर-नंदीग्राम में उसी सीपीएम सरकार ने क्या किया। किसानों-गरीबों से जमीन छीनने के लिए खून की नदियां बहा दीं। पर संसद से सडक़ तक खूब हंगामा बरपा। फिर भी वामपंथियों ने अफसोस नहीं जताया। अलबत्ता स्टालिन की भाषा बोलती रही। नंदीग्राम में नरसंहार के बाद तबके सीपीएम सांसद हन्नान मौला की टिप्पणी याद दिलाते जाएं। कहा था- नंदीग्राम में अपराधी तत्व। सो 15 मरे तो क्या, पांच सौ भी मर जाएं, हम पीछे नहीं हटेंगे। जब वामपंथियों की सोच ऐसी, तो पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटना ही था। अब तो लेफ्ट फ्रंट ही टूट के कगार पर। सिंगूर-नंदीग्राम में भी सीपीएम के सहयोगियों ने मोर्चा खोला था। पर सत्ता का गुमान इस कदर हावी था, सीपीएम ने किसी की नहीं सुनी। अपने बुद्धिजीवी वर्ग को भी कुपित कर लिया, जो सीपीएम का थिंक टेंक हुआ करता था। नंदीग्राम में नरसंहार का एक वाकया तब महाश्वेता देवी ने बयां किया था। कैसे कुछ स्त्री-पुरुषों के गुप्तांगों-जननागों में गोली मारी गई, जिससे लोग नित्य क्रियाएं भी नहीं कर पा रहे। पर नंदीग्राम से पहले ही सीपीएम काडर की बेशर्मी दिखने लगी थी। मेधा पाटेकर और ममता बनर्जी के आंदोलन चल रहे थे। तब सीपीएम सेंट्रल कमेटी के एक सदस्य विनय कोंगार ने खुले आम कहा था- 'मेधा और ममता नंदीग्राम जाएंगी, तो सीपीएम समर्थक उन्हें अपना पाछा दिखाएंगे।' सचमुच ऐसा हुआ भी, जब मेधा नंदीग्राम गईं। तो सीपीएम कॉडर ने अपना पेंट खोलकर पाछा दिखाया था। सो सांच को आंच नहीं। बंगाल की जनता ने अब उसी सीपीएम को 'पाछा' दिखा दिया।
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Tuesday, June 1, 2010

बहाली एनएसी की, बयां कर रही हाल सरकार का

मेंगलोर हादसे के 11वें दिन सरकार ने रपट जारी करके ही दम लिया। पर रिपोर्ट टू द पीपुल से पहले बात झारखंड की। झारखंड में राष्ट्रपति राज लग गया। गवर्नर ने अपनी रपट केंद्र को भेज दी थी। सो मंगलवार को केबिनेट ने सिफारिश मंजूर कर राष्ट्रपति को भेज दी। पर महीने भर से बटेर ढूंढ रही बीजेपी बौखला उठी। सो बीजेपी के कानूनदां महासचिव रविशंकर प्रसाद कांग्रेस पर बरसे। आरोप मढ़ा, राष्ट्रपति राज के जरिए कांग्रेस सौदेबाजी का रास्ता बना रही। पर कोई पूछे, महीने भर से बीजेपी-शिबू के बीच क्या हो रहा था? क्या गरमी के मौसम में रेन डांस कर रही थी बीजेपी? ये तो वही बात हो गई, हम करें तो लीला, वो करें तो करेक्टर ढीला। वैसे भी झारखंड में राष्ट्रपति राज के सिवा कोई विकल्प नहीं। पर रविशंकर बाबू की दलील, विधानसभा निलंबित नहीं, बर्खास्त कर नए चुनाव हों। अगर वाकई बीजेपी इतनी ईमानदार, तो सोमवार को ही यह मांग क्यों नहीं रखी? अलबत्ता सोमवार को भी जीभ लपलपा रही थी। यों निलंबित विधानसभा में बीजेपी कोई उपवास नहीं करेगी। अलबत्ता झामुमो ने सीएम की कुर्सी दी, तो फिर सत्ता का फलाहार करने में परहेज नहीं करेगी। वैसे संवैधानिक प्रक्रिया भी यही कहती। अगर कोई राजनीतिक दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो पहले विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति राज होना चाहिए। ताकि इस बीच राजनीतिक दल आपस में फिर विचार-विमर्श कर लोकतांत्रिक सरकार के गठन की कोशिश करें। फिर भी कोई हल न निकले, तो विधानसभा भंग करना आखिरी विकल्प। सो झारखंड में अब तक जो हुआ, कांग्रेस या गवर्नर पर उंगली उठाना मुनासिब नहीं। सत्ता की बंदरबांट का इतना लंबा ड्रामा चला और केंद्र ने गवर्नर से रपट नहीं मांगी, यही बड़ी बात। फिर भी बीजेपी हांडी कांग्रेस के सिर फोड़ रही। तो यह महज खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे वाली कहावत को चरितार्थ करना। पर अब झारखंड की बाजी कांग्रेस के हाथ आ गई। सो बीजेपी लाख छटपटाए, अब वही होगा, जो दस जनपथ को मंजूर। अगर कांग्रेस का गणित बैठ गया, तो सरकार बनेगी। पर बीजेपी-झामुमो ने फिर कोई जमा-खर्च किया। तो वही होगा, जो बिहार में हुआ था। शुरुआत में विधानसभा निलंबित थी। पर जैसे ही पासवान के एमएलए टूटकर नीतिश संग जाने लगे। तो तबके गवर्नर बूटा सिंह ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश भेज दी। यानी झारखंड में अगर घोड़े कांग्रेस के अस्तबल में गए, तो ठीक। भाजपा के अस्तबल में गए, तो अंजाम सबको मालूम। सो राजनेताओं की जुबान का क्या भरोसा। अब मंगलवार को मनमोहन ने दूसरी पारी का पहला रिपोर्ट कार्ड जारी किया। तो यूपीए के फ्लैगशिप प्रोग्राम का ही बखान हुआ। आरटीआई, शिक्षा का हक, मनरेगा, स्वास्थ्य मिशन, भारत निर्माण आदि आदि। सरकार के कामकाज को उम्दा बताया। लगे हाथ दूसरे साल का संकल्प भी बता गए। खाद्य सुरक्षा बिल आएगा। विकास की दर साढ़े आठ फीसदी के पार जाएगी। नक्सलवाद से दृढ़ता से निपटेंगे। पर सबसे अहम दावा महंगाई से निपटने का। मनमोहन ने फिर भरोसा दिलाया, महंगाई पर जल्द काबू पाएंगे। पर कोई पूछे, पिछले पांच साल से महंगाई लगातार बढ़ क्यों रही? कभी ऐसा क्यों नहीं दिखा, जब रोजमर्रा की चीजों की कीमतें कम हुई हों। फिर भी मनमोहन अपने कामकाज को उम्दा बता रहे। अगर मनमोहन की पहली पारी छोड़ दें। तो दूसरी पारी के पहले साल में ही इतने कारनामे हुए, सरकार अराजक माहौल में दिखी। मनमोहन मजबूत तो हुए। पर कभी मंत्रियों का बड़बोलापन, तो कभी ममता का रूठना। कभी राजा पर करुणा की जिद, तो कभी विदेश, नक्सल जैसी नीतियों पर ऊहापोह। महंगाई तो सरकार के हर दावे के बाद बढ़ती ही गई। सो अब सोनिया गांधी ने खुद कमान संभाल ली। पहली पारी में दो साल बाद ही मृत हुआ एनएसी दूसरी पारी के दूसरे साल में जिंदा हो उठा। यूपीए-वन में लाभ के पद का मामला ऐसा बवंडर खड़ा कर गया। सोनिया गांधी को सांसदी तक छोडऩी पड़ी थी। कांग्रेस नेता की शिकायत पर जांच के बाद 17 मार्च 2006 को जया बच्चन को लाभ के पद की वजह से बर्खास्त किया गया। पर यह कांग्रेस के लिए ही बर्र का छत्ता बन गया। सो 23 मार्च को सोनिया गांधी ने सांसदी से इस्तीफा दिया। फिर कोई पेच न फंसे, सो सोनिया ने राजीव गांधी फाउंडेशन से लेकर तमाम पद छोड़ दिए। पर तब कानून बन जाने के बाद भी एनएसी बहाल नहीं हुई। अबके बहाल हुई, तो मतलब साफ, सरकार का कामकाज उम्दा नहीं। सो सोनिया की रहनुमाई वाली एनएसी में फिर हर क्षेत्र के विशेषज्ञ जोड़े जाने लगे। मंगलवार को चौदह हस्तियों का एलान भी हो गया। हर्षमंदर, अरुणा राय, नरेंद्र जाधव आदि सोनिया के सलाहकार होंगे। यानी नीतियां एनएसी और सोनिया तय करेंगी। मनमोहन की टीम अमल करेगी। सो बड़बोले मंत्रियों की सांस अभी से फूलने लगी। यों संवैधानिक तौर से देखो, तो सोनिया की केबिनेट सही नहीं। पर जब संगठन कमजोर हो, तो सरकार तानाशाह हो जाती। सत्ता में अहंकार हो जाता। वैसे भी मनमोहन की दूसरी पारी का पहला साल कुछ ऐसा ही रहा। सो एनएसी के बहाने सोनिया की समानांतर केबिनेट भले विपक्ष को मुद्दा थमाए। पर शायद जनता के हित में सरकार पर अंकुश लगाने का सही फार्मूला। यानी मनमोहन भले कितना भी दावा करें, पर एनएसी की बहाली सरकार का हाल बता रही।
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01/06/2010