Tuesday, August 31, 2010

अनाज तो बंट जाएगा, पर व्यवस्था की सड़ांध का क्या?

अंत भला, तो सब भला। मानसून सत्र का परदा गिर गया। पर आखिरी दिन सांसदों ने जमकर काम किया। सत्तापक्ष ने ताबड़तोड़ बिल निपटाए। तो विपक्ष भी जनहित के मुद्दे उठाने में पीछे नहीं रहा। सो बीजेपी अपनी पीठ आप ठोक रही। तो सरकार भी अपना काम निपटाने को उपलब्धि बता रही। पर सचमुच मानसून सत्र से अवाम को क्या मिला? महंगाई पर सत्र के शुरू में चर्चा हुई। तो आखिर में खुले में पड़ा अनाज मुफ्त बांटने को लेकर। अनाज सडऩे का मामला लंबे समय से उठ रहा। पर अपने शरद पवार लंबी तानकर सो रहे। सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त को सरकार को अनाज मुफ्त बांटने को कहा। तो 19 अगस्त को शरद पवार ने उसे कोर्ट की सलाह बता पल्ला झाड़ लिया था। पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाई। कहा- गरीबों में मुफ्त अनाज बांटने की बात सलाह नहीं, आदेश। सो लोकसभा में खूब हंगामा बरपा। विपक्ष ने सरकार को घेरा। तो सदन में आकर पवार ने आदेश के पालन का भरोसा दिया। पर पुछल्ला जोड़ दिया, अभी सुप्रीम कोर्ट का फाइनल आर्डर नहीं मिला। यानी जब तक आर्डर नहीं मिलेगा, भले अनाज सड़ जाए, गरीबों को नहीं देगी सरकार। पवार को उम्र के पड़ाव पर पता नहीं क्या हो गया। बीते इतवार को ही बयान दिया- जब लोग कोल्ड ड्रिंक खरीद सकते, तो महंगी सब्जी क्यों नहीं। अब जब देश का कृषि व खाद्य मंत्री ऐसा बेहूदा बयान दे, तो मुफ्त अनाज की उम्मीद कैसे की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने भले मानवीय दृष्टिकोण से सरकार को आदेश दिया। पर यह कितना व्यवहारिक? आखिर सरकार किस तंत्र के जरिए मुफ्त अनाज बांटेगी? पीडीएस का हाल तो अरुणाचल के पूर्व सीएम गेगांग अपांग की गिरफ्तारी से हाल ही में उजागर हुआ। सो भले सुप्रीम कोर्ट का फैसला देखने-सुनने में मन को भा रहा हो। पर हकीकत यही, अनाज बंटा, तो बिचौलियों की ही बल्ले-बल्ले होगी। जरूरतमंदों तक वैसे ही पहुंचेगा, जैसे राजीव गांधी ने गांव तक पहुंचने वाले एक रुपए की कहानी बताई थी। सरकारें जनता के मुद्दों के प्रति किस तरह उदासीन रहतीं, यह कोई छुपी हुई बात नहीं। सो सुप्रीम कोर्ट का आदेश तात्कालिक तौर पर सही। पर दीर्घकालिक हिसाब से मुफीद नहीं। कोर्ट ने कोई ऐसा आदेश नहीं दिया, जो सरकार को मजबूर करे कि हर जिले-शहर में गोदाम बने। ताकि कभी अनाज सडऩे की नौबत न आए। बदहाल पीडीएस को दुरुस्त करने की बात नहीं हुई। सो मुफ्त अनाज बांटने का आदेश सुनने में अच्छा लग रहा। पर जैसी अपनी व्यवस्था, उसमें व्यवहारिक नहीं। अब भले सुप्रीम कोर्ट की लताड़ से बचने को कागजों पर अनाज मुफ्त बंट जाए। अनाज सडऩे से बच जाए। पर व्यवस्था की सड़ांध का क्या? गरीब-गुरबों की जुबां पर व्यवस्था को कोसना कोई नई बात नहीं। पर व्यवस्था के रहनुमाओं ने कभी फिक्र नहीं की। सचमुच मानसून सत्र में भले आम आदमी के मुद्दे उठे हों। पर आम आदमी का न भला हुआ, न होने के आसार। अपने वामपंथी सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में मौजूं सवाल उठाया। कहा- पीएम ने महंगाई पर संसद में जुबां नहीं खोली। पर अमेरिका को खुश करने वाले एटमी बिल की खातिर न सिर्फ बहस में दखल दिया, अलबत्ता दोनों सदनों में बहस के वक्त अधिकांश समय मौजूद रहे। आखिर ऐसा क्यों, अमेरिका की खातिर मानसून सत्र की अवधि बढ़ गई। अब नवंबर में बराक ओबामा भारत आ रहे। तो संसद का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। यों आवभगत के लिए सत्र बुलाने में कुछ गलत नहीं। पर कभी किसानों की आत्महत्या पर विशेष सत्र क्यों नहीं होता? महंगाई सातवें आसमान पर, फिर भी विशेष सत्र क्यों नहीं? जनहित के मुद्दे हमेशा सियासत की भेंट क्यों चढ़ जाते? अब मंगलवार को सांसदों ने जितनी फुर्ती अपनी जेब भरने के लिए दिखाई, उतनी आम आदमी के लिए क्यों नहीं? राज्यसभा में सांसदों के वेतन-भत्ते का बिल चार बजकर 23 मिनट पर पेश हुआ। और पूरी बहस के बाद चार बजकर 52 मिनट पर पारित भी हो गया। यानी आधा घंटा भी नहीं, महज 29 मिनट में ही सांसदों की जेबें भर गईं। फिर भी बहस में मांगने वालों ने कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के राशिद अल्वी ने सांसदों के वेतन पर मीडिया में मचे शोर पर खीझ निकाली। याद दिलाया, आज से दो सौ साल पहले 1814 में अमेरिकी सिनेटर की सैलरी साढ़े छह हजार रुपए थी। हमारी तनख्वाह साठ साल में 27 बार बढ़ी, पर अभी भी महज 16 हजार। पर अपने सांसद क्यों भूल जाते अमेरिका और भारत की प्रति व्यक्ति आय का फर्क। यों शिवसेना के भरत राउत ने मीडिया का साथ दिया। बोले- मीडिया की आवाज जनता की आवाज होती। सो सांसदों को आत्म मंथन करना चाहिए। उनके वेतन पर ही इतना शोर क्यों मचता? अगर हम जिम्मेदारी से काम करें, तो शोर नहीं मचेगा। बात सोलह आने सही। पर नेताओं को तो मीठा-मीठा घप, और कड़वा-कड़वा थू करने की आदत। भूल जाते, वेतन उसे दिया जाता, जिसे सरकार नौकरी पर रखती। सांसदों को तो जनता चुनकर भेजती। फिर अपनी सैलरी खुद तय करने का हक क्यों मिले? जनता को ही यह हक क्यों न दिया जाए? सही मायने में तो जन प्रतिनिधि को वेतन मिलना ही नहीं चाहिए। वह सिर्फ भत्ते के हकदार। पर आलोचनाओं के बाद भी सांसदों ने कितना लोकलिहाज किया? जाते-जाते मालामाल हो गए। सो व्यवस्था के इस चेहरे को क्या कहें? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अनाज तो बंट जाएगा। पर फिर वही सवाल, व्यवस्था की सड़ांध कब दूर होगी?
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31/08/2010

Monday, August 30, 2010

तो राजा के लिए बिल, राजस्थानी को झुनझुना

तो सीबीआई से शुरू, सीबीआई पर ही खत्म। मानसून सत्र के आखिर में बीजेपी को सीबीआई का मुद्दा याद आ गया। सत्र से पहले सीबीआई के बेजा इस्तेमाल पर ही पीएम के लंच का बॉयकाट किया था। पर पूरे सत्र में इस मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। अब सत्र की अवधि दो दिन बढ़ गई। तो सोमवार को दोनों सदनों में बवाल काटा। घंटे भर संसद ठप करा संतुष्ट हो गई। सो चुटकी लेने वालों ने नरेंद्र मोदी इंपैक्ट बताया। यों बीजेपी की मानिए, तो मोदी का फोन आया जरूर था। पर मामला उठाने के लिए नहीं, उठाने से रोकने के लिए। गीता जौहरी ने सीबीआई की धमकी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी डाली, तो मोदी ने मना किया। अब सच जो भी हो, इतना तो साफ हो चुका। पीएम के लंच का बॉयकाट हो या सोमवार को संसद में हंगामा, मोदी का फोन आया था। पर सीबीआई का मुद्दा निपटा, तो एनीमी प्रॉपर्टी बिल हंगामे की वजह बना। सुप्रीम कोर्ट ने राजा महमूदाबाद की 1100 प्रॉपर्टी वापस करने का आदेश दिया। तो सरकार ने फैसले को गलत मानते हुए अध्यादेश जारी कर दिया। सो राजा महमूदाबाद को संपित्त वापस नहीं मिली। अब मुस्लिम सांसदों के दबाव में सरकार अध्यादेश में संशोधन चाह रही। सलमान खुर्शीद ने मोर्चा संभाल मुस्लिम सांसदों को लामबंद किया। सोनिया-पीएम-चिदंबरम तक अलख जगाई। सो मुस्लिम वोट की खातिर सरकार इतिहास रचने को तैयार हो गई। अध्यादेश संसद सत्र न होने के वक्त लाया जाता। पर सत्र में जस का तस अध्यादेश को कानूनी जामा मिलता। अबके सरकार जिस खातिर अध्यादेश लाई, संशोधन जोड़ उसे ही पलटना चाह रही। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गलत बताया था। पर संशोधन के साथ बिल पास हो जाए। तो राजा महमूदाबाद को सारी प्रापर्टी वापस मिल जाएगी। सो बीजेपी ने एतराज किया। पर लालू-मुलायम को तो अपने वोट बैंक की फिक्र। बीजेपी की दलील, अगर राजा को प्रॉपर्टी वापस मिली, तो सारे किरायेदारों को बाहर कर देगा। पर चिदंबरम बीजेपी की इस आपत्ति को दूर करने को राजी थे। फिर भी बीजेपी ने प्रॉपर्टी वापस करने की मुखालफत की। सो विरोध को देखते हुए सरकार ने सोमवार को बिल वापस ले लिया। अब शीत सत्र में बिल लाने का एलान हुआ। पर सरकार के इरादे नेक नहीं। सो सुषमा स्वराज ने सदन में ही हमला बोला। पूछा- क्या सरकार कोई नया अध्यादेश लाने की सोच रही? चिदंबरम ने कोई जवाब नहीं दिया। पर चाल देखिए, मौजूदा अध्यादेश सत्र खत्म होते ही लेप्स हो जाएगा। फिर सरकार अभी जो संशोधन चाह रही थी। उसी संशोधन के साथ नया अध्यादेश ले आएगी। फिर शीत सत्र में विपक्ष ने विरोध किया, तो भी सरकार की राजनीतिक सेहत पर फर्क नहीं पड़ेगा। संविधान के तहत यह प्रावधान, अगर कोई अध्यादेश लेप्स हो जाए। तो उसके जरिए हुआ काम मान्य होगा। यानी मौजूदा अध्यादेश के तहत राजा महमूदाबाद को प्रॉपर्टी वापस नहीं मिलेगी। पर नया अध्यादेश आया, तो सरकार और लालू-मुलायम की मंशा पूरी होगी। राजा महमूदाबाद के बेटे को 24 हजार करोड़ की प्रॉपर्टी वापस मिल जाएगी। फिर जब राजा को बैठे-ठाले इतनी संपत्ति मिलेगी। तो राजा की खातिर फुर्ती दिखाने वाले दल चुनावी चंदे के साथ-साथ वोट बैंक का भी जुगाड़ कर सकेंगे। यों एनीमी प्रॉपर्टी बिल को लेकर सरकार की नीयत में खोट। तो विपक्ष भी दूध का धुला नहीं। हदबंदी कानून देश में लंबे समय से लागू। कृषि संपत्ति सीमा तय करने का कानून 1968 में बना। तो शहरी संपत्ति सीमा का कानून 1973 में। यूपी में इस कानून के मुताबिक कोई परिवार अधिक से अधिक 33 एकड़ कृषि भूमि ही रख सकता। जबकि लखनऊ जैसे शहर में सीलिंग की सीमा एक हजार वर्ग मीटर। पर अब शहर में सीलिंग का कानून रद्द हो चुका। अगर शहर सीलिंग एक्ट लागू होता। तो न अध्यादेश की जरूरत पड़ती, न वोट के सौदागर ऐसा ख्याल दिल में लाते। पर सनद रहे, सो बता दें। शहरी सीलिंग एक्ट 1999 में एनडीए राज में बतौर शहरी विकास मंत्री राम जेठमलानी ने रद्द करवाया। तब दलील दी गई, एक हजार वर्ग मीटर में मकान के अलावा छोटा सर्वेंट क्वार्टर भी नहीं बन पाता। सो कानून ही हटा दिया गया। अब कोई कानून नहीं, सो संशोधित रूप में अध्यादेश आया। तो लोकतंत्र के इस दौर में भी राजा महमूदाबाद का वारिस सचमुच का राजा होगा। वोट की खातिर नेताओं ने संसद को सचमुच कठपुतली बना दिया। पाकिस्तान जा चुके लोगों की खातिर कानून बन रहे। लालू को तो एनीमी शब्द पर ही एतराज। देश की जनता से किए वादे शायद ही कभी पूरे होते। पर एनीमी और अमेरिका के लिए कुछ भी होगा। अब सोमवार को राजस्थानी भाषा को लेकर लोकसभा में हंगामा बरपा। तो 18 दिसंबर 2006 का गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का वादा याद कराया गया। खम ठोककर बजट सत्र 2007 में बिल लाने का एलान किया था। पर उस लोकसभा का विसर्जन हो गया, वादा पूरा नहीं हुआ। सत्ता में आने वाले यह भूल जाते, संसद सरकार और जनता के बीच मध्यस्थ का काम करती। राजेंद्र प्रसाद ने संविधान सभा में कहा था- संसद की असली संप्रभुता इसी में कि वह अपने और जनता के हक के बीच कोई फर्क न करे। लोकतंत्र को सफल बनाना है, तो संसद को अपने अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ जनता की आवाज सुनने को भी तैयार रहना चाहिए। पर अब संसद का इस्तेमाल सिर्फ वोट और निजी हित की खातिर होता।
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30/08/2010

Friday, August 27, 2010

संसद भवन, जनता हारी नैतिकता पर सांसद भारी

मांगने में माननीयों ने तो मंगतों को भी मात दे दी। शुक्रवार को लोकसभा से सांसदों के वेतन-भत्तों को हरी झंडी तो मिली ही। सांसदों ने भविष्य का बंदोबस्त करने में कसर नहीं छोड़ी। लुटियन जोन में मिले आवास अब सांसदों को छोटे लग रहे। आवास के साथ अमेरिका की तरह अलग दफ्तर नहीं मिलना साल रहा। अब वेतन-भत्ते बढऩा महज औपचारिकता रह गई। सो आगे के बंदोबस्त में जुटे। लोकसभा में छोटी बहस हुई। पर सांसदों ने बड़ी-बड़ी मांगें रखने में कोई लिहाज नहीं किया। सांसदी न रहने पर भी दिल्ली में सरकारी सुकून मिले। सो पेंशन के साथ-साथ अलग गेस्ट हाउस की भी मांग कर दी। बसपा के धनंजय ने अमेरिका की तरह 18 स्टाफ की मांग की। हर विषय पर रिसर्चरों की टीम चाहिए। असम के विश्वमुतियारी ने सांसद निधि दो से दस करोड़ की मांग की। पेंशन आठ से बीस हजार हो रही। पर पेट है कि भरता नहीं, सो 25 हजार की मांग कर रहे। लालूवादी रघुवंश बाबू ने बाकायदा संशोधन भी पेश किया। पर सरकार और सदन ने खारिज कर दिया। फिर भी मामला खत्म नहीं समझिए। संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने भरोसा दे दिया। जब सांसदों के वेतन-भत्ते के लिए अलग मैकेनिज्म बनेगा, तब सभी मुद्दों पर विचार होगा। पर मैकेनिज्म को लेकर भी आम राय नहीं। लोकसभा में वेतन-भत्ते में बढ़ोतरी बिल पर घंटे भर की खानापूर्ति बहस हुई। तो बीजेपी ने नैतिकता दिखाने की कोशिश की। बीजेपी से कोई नहीं बोला, अलबत्ता आडवाणी ने दखल दिया। उन ने वही बात दोहराई, जो अगस्त 2006 से कही जा रही। आडवाणी ने अलग मैकेनिज्म की बात की। मौजूदा सत्र में ही इसके एलान की मांग भी। फिर कांग्रेस-सपा-लेफ्ट-जदयू-तृणमूल ने भी मैकेनिज्म की पैरवी की। पर अपने रघुवंश बाबू और मायावादी धनंजय ने इसकी मुखालफत की। वेतन-भत्ते तय करने का अधिकार किसी और संस्था को देने को अपनी तौहीन बता रहे। दलील, जब संसद में सारी चीजें तय होतीं, तो सांसदों के वेतन तय करने का अधिकार किसी और को क्यों दें। अगर दूसरा व्यक्ति सांसद का वेतन तय करेगा, तो वह मालिक और हम नौकर हो जाएंगे। यों सही भी, कोई अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारता। अब इतनी दलील तो तब सामने आई, जब बिल पर महज दस सांसदों ने बोला। अगर लंबी-चौड़ी दो-चार घंटे की बहस होती, तो सांसद अपनी पोल-पट्टी खुद ही खोल लेते। यों लालूवादियों और मायावादियों की सोच लाजिमी। जहां वन मैन शो हो, वहां दूसरों को अधिकार क्यों दे? पर सांसदों की फुर्ती देखिए। महज घंटे भर में बहस के साथ बिल पारित हो गया। संसद पर यह सांसदों की मेहरबानी समझिए। वरना पहले तो चट बिल आया, पट पारित हो गया। इतना ही नहीं, अपने सांसदों ने शुक्रवार को साफ कर दिया, पहले के जमाने में नैतिकता के आधार पर वेतन कम लिए जाते रहे होंगे। पर अब यह नहीं चलेगा। रघुवंश बाबू ने तो एक कहावत सुना पूछ लिया, क्या ऐसा नौकर चाहिए, जो मांग-चांग के खाए और हुक्म पर तामील करे, कभी घर न जाए? कुल मिलाकर निचोड़ यही रहा, जनता के लिए न सही, अपने लिए तो लड़ेंगे। सो समूची बहस में सबने मीडिया को आड़े हाथों लिया। मीडिया में हुई आलोचना से सभी नेता सदन में उल्टी करते नजर आए। किसी ने प्राइवेट कंपनी के सीईओ से तुलना की, किसी ने भारत सरकार के सचिव से तो किसी ने अन्य देशों के सांसदों से। पर अपने सांसद क्यों भूल जाते प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत और दुनिया का फर्क? अगर कोई सीईओ वेतन के नाम पर लूट रहे, तो क्या नेता भी सरकारी खजाना लूटेंगे? जिन लालू-मुलायम ने 50,000 को नाकाफी बता 80,001 रुपए की मांग की, वह अपना दिन क्यों भूल गए। मुलायम अपने शुरुआती दिन में टीचर थे, अगर राजनीति में न आते, तो रिटायरमेंट तक महज प्राइमरी स्कूल के हैड मास्टर होते और आज पेंशन सात हजार होती। लालू किसी जमाने में दस रुपए दिहाड़ी पर मजदूरी किया करते थे। पर आज 50,000 भी कम लग रहे। अपने अधिकांश सांसद ऐसे, जिनकी आमदनी पांच साल में दुगुनी से दस गुनी तक बढ़ जाती। फिर भी कम वेतन का रोना, खर्च की बात। लालू-मुलायम तो सिर्फ उदाहरण, दिल से सभी वेतन बढ़ोतरी चाहते। पर लोकसभा में राजनीति भी हुई। लेफ्ट ने वाकआउट किया। तो ममतावादी सुदीप ने फब्ती कसी, वाकआउट करने वाले बढ़ा हुआ वेतन न लें। अब मानसून सत्र की अवधि बढ़ चुकी। सो मंगलवार को जब संसद उठेगा, तो सांसद भी मंगल गान करते उठेंगे। वेतन तो बढ़ा ही, एरियर के नाम पर करीब पांच लाख मिलेंगे। पर सांसदों और सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही देखिए। शुक्रवार को बाढ़-सूखे पर चार बजे बहस होनी थी। पर तब अपने सांसद वेतन-भत्ते बढ़ाने में लगे हुए थे। अमेरिका की खातिर संसद का सत्र दो दिन बढ़ गया। पर किसानों के लिए जमीन अधिग्रहण बिल का मामला अगले सत्र के लिए टल गया। अब सोम-मंगल को बढ़े सत्र में खूब दबाकर सरकारी काम निपटेंगे। एटमी जनदायित्व बिल से लेकर सांसदों के वेतन-भत्ते तक का मामला राज्यसभा से चुटकियों में पास होगा। सच कहें, तो संसद अब सिर्फ एक भव्य इमारत भर रह गई। जो भारत की आन-बान-शान की प्रतीक। जहां जनता और नैतिकता की फिक्र कम, बाकी अपनी खातिर सांसद कुछ भी करने को तैयार।
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27/08/2010

Wednesday, August 25, 2010

तो कांग्रेस-बीजेपी और ‘मंशा’ अमेरिका की

तेरी-मेरी यारी और संसद हमारी। कांग्रेस-बीजेपी ने मिलकर एटमी जनदायित्व बिल लोकसभा से निपटवा लिया। बुधवार को लेफ्ट तो बुद्धू ही बना रहा। बाकी कांग्रेस ने बीजेपी संग टांका भिड़ा बराक ओबामा का गिफ्ट तैयार कर लिया। लोकसभा में बिल पेश होने से पहले ही सरकार और विपक्ष की गुटरगूं हो चुकी थी। सो दोपहर बाद पीएमओ में राज्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने 18 संशोधनों के साथ बिल पेश कर दिया। फिर देर शाम बिल पास भी हो गया। जब पक्ष-विपक्ष में हो ऐसी यारी, तो फिर संसद का रंगमंच भर होना लाजिमी। वैसे भी मौजूदा सत्र में स्वांग रचने वाली संसद का नजारा भी दिख चुका। सचमुच स्वांग रचने में नेताओं की कोई सानी नहीं। अब एटमी जनदायित्व बिल का ही पूरा किस्सा लो। तो कैसे बजट सत्र में विपक्ष ने इसी बिल पर सरकार की बोलती बंद कर दी थी। पर मानसून सत्र में ऐसा क्या बरसाया सरकार ने, बीजेपी बाग-ओ-बाग हो गई। जिन लालू-मुलायम-लेफ्ट-शरद-शिवसेना को भरोसे में लेकर बीजेपी ने बजट सत्र में बिल रुकवा दिया। अबके किसी को पूछा तक नहीं। सो बिल के लिए डील की आशंका यों ही नहीं। याद करिए मानसून सत्र से ठीक तीन दिन पहले 23 जुलाई की तारीख। गुजरात के तबके गृह राज्यमंत्री अमित शाह के खिलाफ सीबीआई ने सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में चार्जशीट दाखिल कर दी थी। तो नरेंद्र मोदी ने आला नेताओं को फोन खडक़ा आर-पार का मंत्र थमाया। सो बीजेपी की चतुर चौकड़ी आडवाणी-गडकरी-सुषमा-जेतली ने पीएम मनमोहन के घर का जायकेदार लंच ठुकरा दिया था। सीबीआई के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगा संसद में हंगामे की तैयारी कर ली थी। पर महंगाई का मुद्दा संसद में विपक्षी एकता का आधार बना। तो बीजेपी ने सीबीआई पर बहस की मांग अगले हफ्ते के एजंडे में डाली। पर बुधवार को इधर बीजेपी के समर्थन से एटमी जनदायित्व बिल पास हुआ। उधर बीजेपी सीबीआई पर बहस की जिद छोड़ गई। अब आप क्या कहेंगे? पीएम का लंच ठुकराना, फिर उसी मुद्दे पर बहस की जिद छोड़ देना क्या किसी सौदेबाजी की शंका नहीं? अब भले बीजेपी सौदेबाजी से इनकार करे या सवाल पूछने पर भडक़ उठे। पर सरकार ने एटमी बिल की खातिर बीजेपी को पटा इतना मैसेज तो जरूर दे दिया। जैसे सीबीआई के आगे लालू-मुलायम-माया-अजित। कुछ वैसी ही अब बीजेपी भी। अगर ऐसा नहीं, तो जिस सीबीआई के मुद्दे पर राष्ट्रपति भवन तक मार्च हुआ। देश भर में सीबीआई के मुख्यालयों पर प्रदर्शन हुए। उसी सीबीआई के बेजा इस्तेमाल पर बहस की जिद बीजेपी ने कैसे छोड़ दी? अब सुषमा कह रहीं- संसद के सत्र में सरकार के कई बिल पास होने, सो वक्त नहीं। क्या विपक्ष से कोई ऐसी दलील की उम्मीद करेगा? क्या यह विपक्ष का सरेंडर नहीं? बिल पास होने को संसद का सत्र बढ़ रहा। फिर भी बीजेपी सीबीआई पर बहस नहीं मांग रही। पर जब अमेरिका की खातिर विपक्ष समर्थन दे रहा हो, तो सरकार के हौसले बुलंद क्यों न हों। सो हील-हुज्जत के बाद बिल पेश हुआ। तो सरकार ने बीजेपी की तमाम शर्तें मान लीं। पर लेफ्ट को ठेंगा दिखा दिया। यों लेफ्ट की मांग अमेरिका को किसी भी सूरत में मंजूर नहीं होतीं। सो बीजेपी से समझौता सरकार को मुफीद रहा। अब लोकसभा में बिल पास हो गया। राज्यसभा से पास होकर राष्ट्रपति की मंजूरी मिलेगी। फिर कानून बन जाएगा। पर कानून क्या सचमुच जनता को राहत दिलाएगा? अगर इरादे नेक हों, तो कानून के बिना भी जनता का हित संभव। पर जब इरादे नेक न हों, तो कानून कुछ नहीं कर सकता। वैसे भी आम धारणा यही, कानून सिर्फ गरीबों के लिए होता, बड़े लोगों के लिए नहीं। सो एटमी जनदायित्व बिल की खातिर मनमोहन के सिपहसालारों ने जितने खेल किए, उससे तो नीयत ही साफ नहीं दिखती। पहले बिल में 500 करोड़ की बात हुई। फिर 1500 करोड़ की सीमा तय हुई। फिर भी विदेशी कंपनियों को बचाने के लिए नौकरशाही का सुझाया ‘एंड’ शब्द जोड़ दिया। विपक्ष ने एतराज किया, तो एंड हटाकर ‘इंटेंट’ यानी मंशा शब्द जोड़ दिया। अब मंशा शब्द भी हट चुका। पर जरा सोचिए, जिस बिल को सरकार ने पेश किया, उसमें खुद 18 संशोधन लेकर आई। सो भले एटमी जनदायित्व बिल अब कुछ दिनों में कानून बन जाएगा। नवंबर में भारत दौरे पर आ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को तोहफा मिल जाएगा। पर सचमुच कभी कोई एटमी हादसा हुआ, तो आप देख लेना, विदेशी कंपनियां उसी तरह सस्ते में छूट जाएंगी, जैसे वॉरेन एंडरसन छूट गया। हम और आप यानी आम जनता तो सिर्फ आंसू बहाएगी, जैसा भोपाल त्रासदी पर बहा रही। अगर सरकार की मंशा जनता के हित की होती, तो कभी बिल पर शब्दों का ‘कॉमनवेल्थ’ नहीं होता। पता नहीं अपने नेताओं को क्या हो गया। जो शपथ तो देशहित की लेते, पर विदेशी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए कभी विपक्ष से डील तो कभी शब्दों का खेल करते। सो अगर एटमी जनदायित्व बिल का सरकारी भाषा में मतलब निकालें, तो रेलवे के प्लेटफार्म पर लिखा होता है ना- यात्री अपने सामान की रक्षा खुद करें। उसी तरह जनदायित्व का मतलब जनता के लिए दायित्व नहीं, अलबत्ता जनता का ही दायित्व। अगर कुछ हुआ, तो भुगतेगी जनता, सरकारें तो आती-जाती रहतीं। तभी तो पीएम ने भी दिलासा दी, अमेरिकी दबाव में कुछ नहीं कर रहे। सबका ख्याल रखा। बीजेपी के जसवंत ने सदन में सरकार पर अमेरिकी पिछलग्गू बनने का आरोप लगाया। बिल पर जल्दबाजी को ओबामा की अगवानी बताया। पर आखिर में कांग्रेस-बीजेपी साथ-साथ।
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25/08/2010

Friday, August 13, 2010

‘सात’ की महिमा और रिकार्ड मनमोहन का

तो इसे कहते हैं सत्ते पे सत्ता। भले मनमोहन सिंह की लोकप्रियता का ग्राफ गिर गया। पर लाल किले की प्राचीर से सातवीं बार झंडा फहराने का रिकार्ड बनाएंगे। अटल बिहारी वाजपेयी से आगे निकल तीसरे पायदान पर होंगे मनमोहन। पंडित नेहरू के नाम सत्रह बार का, तो इंदिरा के नाम सोलह बार का रिकार्ड। अपने मनमोहन वहां तक पहुंचेंगे, ऐसी उम्मीद बेमानी। इंडिया टुडे का सर्वे आया, तो वाजपेयी-मनमोहन का फर्क देखिए। करीब ढाई-तीन साल से वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर। मनमोहन साढ़े छह साल से पीएम। पर पीएम पद के लिए लोकप्रियता का सर्वे हुआ, तो मनमोहन को एक फीसदी लोगों ने पसंद किया। वाजपेयी को सोलह फीसदी ने। लोकप्रियता के मामले में अव्वल रहे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी। सचमुच बहुत कम समय में राहुल ने युवा वर्ग में खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली। सो अब कांग्रेस की मुश्किल, सर्वे को नकारे या स्वागत करे। पर बात लोकप्रियता की, तो देखिए कैसे वाजपेयी आज भी सभी वर्गों में लोकप्रिय। मनमोहन पिछली बार के सर्वे में नंबर वन थे। पर अबके सात उम्मीदवारों में मनमोहन सातवें स्थान पर आए। सो देश की जनता का मूड मौजूदा पीएम के लिए ऐसा हो, तो सातवीं बार झंडा फहराना मनमोहन की उपलब्धि होगी या देश की मजबूरी? आजादी की चौंसठवीं सालगिरह पर यह क्या। एक अर्थशास्त्री पीएम सातवीं बार लालकिले की प्राचीर से जनता को तब संबोधित करेगा, जब महंगाई भी सातवें आसमान पर। सरकार की तानाशाही सातवें आसमान पर। तभी तो संसद में महंगाई से लेकर कॉमनवेल्थ के भ्रष्टाचार और भोपाल गैस त्रासदी तक, बहस तो हुई, पर कोई असर नहीं। अलबत्ता अब मनमोहन सरकार ने अपनी एक थीम बना ली। हर बहस में सरकार एक ही जवाब देती, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले। एंडरसन को राजीव गांधी ने नहीं भगाया, यह सरकार को मालूम नहीं। पर किसने भगाया, इसके भी रिकार्ड नहीं। महंगाई पर तो चाहे जितनी बहस करा लो, कम नहीं होगी। भ्रष्टाचार तो राजनीति का शाश्वत नियम। आने वाले वक्त में भ्रष्टाचार पर भी कोई कॉमनवेल्थ हो जाए, तो अचरज नहीं। वैसे अपना सुझाव यही, लालकिले की प्रचार से मनमोहन एलान कर दें, भ्रष्टाचार मंत्रालय बनेगा। ताकि भ्रष्टाचार से आने वाले धन की निगरानी हो सके और एक हिस्सा सरकारी खजाने में भी जमा हो। अगर पेट्रोल-डीजल की तरह भ्रष्टाचार से अधिक उगाही करनी हो, तो बाकी मंत्रालयों की प्रतियोगिता करवा लो। मुनादी करवा दो- जो मंत्रालय भ्रष्टाचार कोष में जितना धन जमा करवाएगा, उसे और मलाईदार मंत्रालय दिया जाएगा। सचमुच भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी अंदर घुस चुकीं, उखाडऩा मुमकिन नहीं। सो क्यों न भ्रष्टाचार को सरकारी मान्यता दे दी जाए। संसद तक व्यवस्था के घुन को रोकने में नाकाम हो रही। संसद तो सिर्फ कर्मकांड की जगह भर रह गई। अब अंकल सैम ओबामा भारत आ रहे। तो परमाणुवीय दायित्व बिल तोहफा में देने की तैयारी। सो अब मानसून सत्र की अवधि बढ़ेगी। यही होता है, कोई बिल हो या किसी मुद्दे की बहस, सारी रणनीति सदन के बाहर ही तय हो जाती। सो संसद में न बहस का कोई स्तर रहा और ना ही सरकार पर कोई असर पड़ता। संसद की प्रासंगिकता कैसे चौपट हो रही, इसकी एक छोटी सी मिसाल शुक्रवार को भी दिखी। लोकसभा में तकनीकी खामी की वजह से अंग्रेजी अनुवाद सांसदों तक नहीं पहुंच रहा था। ऊर्जा राज्यमंत्री भरत सिंह सोलंकी हिंदी में जवाब दे रहे थे। तभी डीएमके के टीआर बालू हत्थे से उखड़ गए। अंग्रेजी अनुवाद नहीं होने पर एतराज जताया। तो स्पीकर ने तकनीकी खामी का हवाला दे फौरन चैक करने का भरोसा दिया। पर बालू को तो मुद्दा मिल गया। इसी बीच सोलंकी के सीनियर मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने अंग्रेजी में बोलने की हिदायत दी। सोलंकी अंग्रेजी में बोलने लगे। फिर बालू हैडफोन फेंक सदन से जाने लगे। हंगामा बढ़ा, तो सदन कुछ देर के लिए ठप करना पड़ा। फिर बाद में सब ठीक हो गया। तो हिंदी के पैरोकार हंगामा करने लगे। सवाल उठा, अंग्रेजी की ही पैरवी क्यों? तमिल, तेलुगु, मलियाली, उर्दू की बात क्यों नहीं। हिंदी का अपमान सही नहीं। बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने एक कदम आगे बढक़र कहा- सभी भाषा एक समान नहीं, अलबत्ता हिंदी राष्ट्रभाषा है। ऐसा दर्जा किसी और भाषा को नहीं। पर सवाल, मुंडे कभी राज या उद्धव ठाकरे की टिप्पणी पर यह दलील क्यों नहीं देते? बीजेपी का मराठी-हिंदी विवाद पर ढुलमुल रुख जगजाहिर। पर बात बालू की। तो इतिहास साक्षी, डीएमके ने भाषायी विवाद की पीएचडी कर रखी। अगर बालू कुछ देर इंतजार कर लेते, तो कोई आफत नहीं आती। पर छोटी सी बात पर संसद को अखाड़ा बनाने वालों ने संघीय ढांचे की फिक्र नहीं की। यही डीएमके 1950 के दशक में अलग द्रविड़ स्थान देश की मांग कर रही थी। अक्टूबर 1963 में संविधान का सोलहवां संशोधन कर अखंड़ता की खिलाफत करने वालों पर रोक लगाई। तो डीएमके वालों ने राज्य स्वायत्तता का राग अलापा था। यह वही डीएमके है, जिसने नारा दिया था- भारत भारत वालों के लिए और तमिलनाडु तमिल लोगों के लिए। भारत के नक्शे तक जलाए गए। उत्तर-दक्षिण में भेदभाव का बीज बोने की कोशिश की। तो क्या अब संसद में भी राज ठाकरे जैसी राजनीति होगी? क्या अपने सांसद संसद को खत्म करने पर आमादा हो गए? क्या आजादी की चौंसठवीं सालगिरह पर सातवीं बार झंडारोहण करने जा रहे मनमोहन सरकार की यही उपलब्धि?
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13/08/2010

Thursday, August 12, 2010

राजीव बचाओ मुहिम में एंडरसन कथा का द एंड

लोकसभा से राज्यसभा तक पहुंचते-पहुंचते अपनी व्यवस्था की तेरहवीं हो गई। अर्जुन सिंह ने ऐसा अग्नेयास्त्र छोड़ा, सात दिसंबर 1984 के सारे रिकार्ड स्वाहा हो गए। अब सरकार के पास कोई रिकार्ड नहीं। माननीय वॉरेन एंडरसन को किस माननीय के फोन से भगाया गया। यह सवाल सिर्फ सवाल ही रहेगा। जवाब चाहिए, तो स्वर्ग का पासपोर्ट लेना होगा। गुरुवार को पी. चिदंबरम ने भोपाल त्रासदी पर राज्यसभा में बहस का जवाब दिया। तो सचमुच कांग्रेसी गुरु घंटाल निकले। जहां-जहां कांग्रेस फंसती दिखे, रिकार्ड ही नहीं मिलेगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के मामले में यही हो चुका। यानी न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी फार्मूले से कांग्रेस ने त्रासदी पर फैला राजनीतिक कचरा निपटा लिया। चिदंबरम ने कह दिया- सात दिसंबर 1984 को गृह मंत्रालय से किसने चीफ सैक्रेट्री ब्रह्म स्वरूप को हिदायत दी, इसका कोई रिकार्ड नहीं। यानी अर्जुन ने राजीव को क्लीन चिट दी। गृह मंत्रालय पर ठीकरा फोड़ा। तो चिदंबरम ने रिकार्ड न होने की दुहाई दी। अब आप ऐसी व्यवस्था को क्या कहेंगे? सो सीताराम येचुरी ने सही बोला। बोले- औपनिवेशिक काल के सारे दस्तावेज हमारे पास हैं, पर सात दिसंबर 1984 के नहीं। यह अपने आप में हास्यास्पद। पर चिदंबरम ने साफ कह दिया- वक्त के साथ यादें कमजोर पड़ जाती हैं। पच्चीस साल बाद यह पूछा जा रहा, जब अधिकांश लोग गुजर चुके। अगर पचास साल बाद पूछते, तो सब गुजर चुके होते। सो अब उस वक्त के व्यक्ति ने जो कहा, वही मानना होगा। यानी अर्जुन ने जो कहा, उसे ही कांग्रेस ने ढाल बना लिया। पर अर्जुन की पोल शिवराज ने खोल दी। अर्जुन ने सरकारी दामाद की तरह एंडरसन की रिहाई से खुद को अनजान बताया था। पर शिवराज ने खुलासा किया- सात दिसंबर 1984 को सीएम अर्जुन के आर्डर से स्टेट का विमान एंडरसन को लेकर दिल्ली गया। यह बात लॉगबुक में दर्ज। शिवराज ने एक और बात कही, जो सोलह आने सही। अगर यही सच था, तो अर्जुन दो महीने चुप क्यों रहे? यानी मतलब साफ, कांग्रेस ने स्क्रिप्ट तैयार करने में वक्त लगा दिया। तो अर्जुन को भी स्टेज पर आने में वक्त लगा। अब आप ही देखो, मध्य प्रदेश में अभी बीजेपी की सरकार। तो तमाम सरकारी रिकार्ड मिल गए। केंद्र में कांग्रेस की रहनुमाई वाली यूपीए सरकार, तो यहां कोई रिकार्ड ही नहीं। यानी सत्ता सिर्फ पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष नहीं बना सकती। अलबत्ता सारे कर्मकांड बखूबी कर सकती। वैसे झूठ के पांव नहीं होते। पर सत्ताधीश चाहे, तो जयपुरिया पांव लगाकर चला दे। गुरुवार को राज्यसभा में पी. चिदंबरम ने यही किया। अगर एक लाइन में कहें, तो अब एंडरसन कथा का द एंड हो गया। वैसे भी इंदिरा के बाद की सरकारें अमेरिका के आगे दुमछल्ला बनकर ही रहीं। अगर अपनी सरकार में माद्दा होता, तो रासायनिक कचरा भोपाल में और मुख्य आरोपी एंडरसन अपने घर अमेरिका में मौज की जिंदगी नहीं काट रहा होता। बात बहुत पुरानी नहीं। मैक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश कंपनी बीपी का तेल फैल गया। तो अमेरिकी कानून के तहत तय साढ़े सात करोड़ डालर से इतर बीस अरब डालर का हर्जाना भरवाया। हर्जाना वसूलने के लिए ओबामा ने सबसे पहले बीपी के अध्यक्ष टोनी हेवर्ड को लंदन से वाशिंगटन बुलवाया, संसदीय कमेटी के सामने पेश किया। और आखिर में ब्रिटिश कंपनी को झुकना पड़ा। हर्जाना भी भरा और कचरा भी वही उठाएगी। क्या अपने मनमोहन सिंह से ऐसे माद्दे की उम्मीद करें? उम्मीद करना शायद बेमानी होगा। राज्यसभा में सीताराम येचुरी ने अमेरिकी दबाव का सवाल उठाया। तो चिदंबरम ने क्या कहा, जरा सुनिए। बोले- चूक हमसे हुई, सो अमेरिका को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। हमें अपनी भूल-चूक दूसरे पर नहीं डालनी चाहिए। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पर कांग्रेस की पुख्ता रणनीति भी देख लो। कबूला, भोपाल की त्रासदी मानव निर्मित थी। प्रशासनिक-न्यायिक नाकामी को भी माना। राजनीतिक व्यवस्था के नकारेपन को भी। न्यायपालिका के सुपुर्द कर 26 साल तक खामोश बैठी फाइल घुमाऊ कार्यपालिका को कोसा। माना, सात जून के फैसले के बाद व्यवस्था की नींद टूटी। फिर राहत-पुनर्वास की बात, एंडरसन के प्रत्यर्पण की झूठी दिलासा। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई क्यूरेटिव पिटीशन। पर कुल मिलाकर चिदंबरम भी राजीव बचाओ मुहिम में जुटे दिखे। कांग्रेस ने राजीव गांधी को अर्जुन से क्लीन चिट दिलवा दी। गृह मंत्रालय में रिकार्ड नहीं। सो विपक्ष को माकूल जवाब कैसे दिया जाता, यह भी चिदंबरम ने कर दिखाया। अरुण जेतली ने घेरने की कोशिश की। तो चिदंबरम बोले- यह सवाल 2001 में क्यों नहीं उठाया? तब तो आपके होम मिनिस्टर थे। रिकार्ड देखकर पता लगा लेते। चिदंबरम ने बिना लाग-लपेट कहा- विपक्ष के नेता की नीयत में खोट। उनकी मंशा राजीव गांधी को कटघरे में खड़ा करने की। पर राजीव गांधी ने कुछ नहीं किया। फिर उन ने अर्जुन उवाच दोहरा दिया। पर विपक्ष ने फिर घेरने की कोशिश की। तो कांग्रेसी राजीव शुक्ल बोले- कंधार प्रकरण में आडवाणी को जानकारी नहीं थी, यह मान रहे। तो यह क्यों नहीं मानते कि एंडरसन के बारे में राजीव को जानकारी नहीं थी। अब आप इसे क्या कहेंगे? राजीव शुक्ल ने राजीव गांधी का बचाव किया या यह बताया, जैसे आडवाणी ने गुमराह किया, वैसे ही अर्जुन भी कर रहे। मतलब तो यही निकल रहा। सचमुच भोपाल गैस त्रासदी की पूरी बहस राजीव को फंसाने और बचाने में ही निपट गई।
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12/08/2010

Wednesday, August 11, 2010

तेरी-मेरी त्रासदी नहीं, त्रासदी की तेरी-मेरी

तो आइए, अपनी राजनीतिक व्यवस्था के लिए दो मिनट मौन रखें। भोपाल गैस त्रासदी पर 26 साल बाद संसद में बहस हो और राजनेता ऐसी संवेदना दिखाएं। तो इससे बेहतर यही, राजनीतिक व्यवस्था को श्रद्धांजलि दे दो। कम से कम दिल को सुकून मिलेगा, जिसे श्रद्धांजलि दे चुके, उसे क्या कोसना। लोकसभा में बुधवार को दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भी राजनीतिक त्रासदी की शिकार हो गई। भोपाल गैस त्रासदी में 15-16 हजार मौतें हुईं। पर लोकसभा से ऐसा संदेश नहीं आया, जो मानवीय संवेदना दिखाता हो। अलबत्ता पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे की कमीज उतारने में लगे रहे। तो बाकी दोनों नंगों को देख हंसी-ठिठोली में। जब सात जून को भोपाल की महात्रासदी पर फैसला आया। दोषियों को महज दो-दो साल की सजा मिली। पीडि़तों के जख्म फिर हरे हो गए। व्यवस्था पर सवाल उठने लगे। तो सभी राजनीतिक दल विधवा विलाप करने लगे। गैस कांड की जांच कर चुके तबके सीबीआई ज्वाइंट डायरेक्टर बी.आर. लाल ने मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन के प्रत्यर्पण रोकने को विदेश मंत्रालय के दखल का खुलासा किया। अपने विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने इंसाफ का दफन होना बताया। कानून में बदलाव से लेकर फास्ट ट्रेक कोर्ट की पैरवी की। आनन-फानन में मनमोहन केबिनेट ने पुनर्वास के लिए जीओएम बना दी। मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने पांच मेंबरी कमेटी गठित कर दी। कोर्ट के फैसले से भले पीडि़तों को न्याय नहीं मिला। पर इतना जरूर हुआ, 26 साल बाद राजनेताओं की इंद्रियां जाग उठीं। फिर खुलासे दर खुलासे होते गए। भोपाल के तत्कालीन डीएम मोती सिंह ने नौ जून को पूरी कलई खोल दी। जब बताया- कैसे वारेन एंडरसन को गिरप्तार कर गेस्ट हाउस में रखा गया। फिर चीफ सैक्रेट्री ब्रह्म स्वरूप ने मोती सिंह और एसपी स्वराज पुरी को बुलाकर एंडरसन को रिहा करने की हिदायत दी। फिर एंडरसन मोती की कार में एयरपोर्ट पहुंचा। सीएम अर्जुन सिंह के विमान से दिल्ली पहुंचाया गया। फिर वहां से एंडरसन हमेशा के लिए अमेरिका फरार हो गया। पर खुलासों के बाद कांग्रेस चौतरफा घिर गई। तो चिदंबरम की रहनुमाई वाली जीओएम ने फुर्ती दिखाई। फटाफट मीटिंगें हुईं और मुआवजे की सिफारिश हो गई। पर पूरे दो महीने अर्जुन सिंह खामोश रहे। बुधवार को राज्यसभा में चुप्पी तोड़ी। तो वही किया, जो कांग्रेसी मैनेजमेंट का हिस्सा। अर्जुन की दिली ख्वाहिश अब राजभवन से रिटायरमेंट की। सो राजीव गांधी को क्लीन चिट थमा दी। हमेशा की तरह कांग्रेसी गुनाह का ठीकरा दिवंगत नरसिंह राव के सिर फूटा। राव तब राजीव केबिनेट में गृहमंत्री थे। सो बुधवार को अर्जुन बोले- एंडरसन की रिहाई के लिए राजीव गांधी ने कुछ नहीं कहा। त्रासदी के बाद मैंने इस्तीफे की पेशकश की थी, पर राजीव ने नामंजूर कर दिया। मेरे अधिकारियों के पास केंद्रीय गृह मंत्रालय से फोन आते थे। हू-ब-हू यही बात 18 जून को पूर्व विदेश सचिव एस.के. रसगोत्रा ने कही थी। रसगोत्रा ने राजीव को पूरे मामले में पाक-साफ बता नरसिंह राव को एंडरसन पर मेहरबान बताया था। एंडरसन को सेफ पैसेज देने के लिए राव को जिम्मेदार ठहराया। यानी अर्जुन ने तीर वहीं चलाया, जहां कांग्रेसी द्रोणों ने इशारा किया। पर राजीव केबिनेट में सूचना प्रसारण मंत्री रहे वसंत साठे ने भी जून में ही खुलासा किया। कहा- एंडरसन को भगाए जाने की जानकारी केंद्र-राज्य दोनों को थी। अब अगर अर्जुन की बात सच मानें, तो भी सवाल राजीव के नेतृत्व पर उठेगा। क्या पीएम को यह तक मालूम नहीं था, गृहमंत्री क्या कर रहा? क्या अर्जुन के कृष्ण राजीव नहीं, सचमुच राव ही थे? अब त्रासदी पर इतने खुलासे हो गए। फिर भी लोकसभा में बहस का कोई स्तर नहीं दिखा। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला। तो बहस की गंभीरता सोहराबुद्दीन तक पहुंच गई। भोपाल की त्रासदी में भी बीजेपी ने गुजरात की राजनीति घुसेड़ दी। सो लेफ्ट-सपा-बसपा सबने बीजेपी पर भी हमला बोला। महंगाई पर बनी एकजुटता भोपाल त्रासदी तक आते-आते बिखर गई। समूची बहस यहीं आकर सिमट गई, एनडीए ने क्या किया, यूपीए ने क्या किया। बीजेपी ने कांग्रेस को कटघरे में उतारा। तो कांग्रेस ने बीजेपी के दिन याद कराए। मानवीय संवेदना से जुड़ी बहस में पक्ष-विपक्ष इतिहास खंगालते रहे। जहां सभी हमाम में नंगे। कांग्रेस के मनीष तिवारी बोले- छह साल एनडीए सरकार रही, रिव्यू पिटीशन क्यों नहीं डाला? कांग्रेस-बीजेपी ने एक-दूसरे से सही कहा- मैं ही नहीं, तुम भी चोर। तो बाकी दलों ने कहा- ये दोनों चोर। पर आखिर तक साफ नहीं हुआ, एंडरसन का क्या होगा। पी. चिदंबरम ने बहस का जवाब दिया। तो दुख जताया और बोले- आठवीं लोकसभा के वक्त हुए हादसे की चर्चा पंद्रहवीं लोकसभा में हो रही। पर अब ऐसा न हो, ऐसी पहल हो। पीडि़तों को संदेश दिया जाए, हम गंभीर हैं। पर जुबानी जमा-खर्च से गंभीरता नहीं दिखती। छब्बीस साल से पीडि़त बाट जोह रहे। पर बीजेपी हो या कांग्रेस, किसी ने सुध नहीं ली। अब जख्म कैंसर बन चुका। तो इलाज के लिए ‘हाथ’ उठ रहे। पर यही ‘हाथ’ 26 साल पहले एंडरसन की हथकड़ी खोलने के बजाए गिरेबां तक पहुंचे होते, तो आज यह नौबत नहीं आती। पर आज भी अपने नेता 1984 की तरह ही संवेदनहीन दिख रहे। दंगे, आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष का इतिहास एक जैसा ही। सो एक-दूसरे का इतिहास कुरेदते रहते। वही किस्सा भोपाल की त्रासदी पर भी लोकसभा में दोहरा दिया। जब पीडि़तों का दर्द बांटने के बजाए नेता त्रासदी की तेरी-मेरी ही करते रहे।
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11/08/2010

Tuesday, August 10, 2010

तो ‘वेल्थ’ पर ‘कॉमन’ खेल कर गई सरकार

नक्सलवाद को शह, अलगाववाद को मरहम, कॉमनवेल्थ पर कारीगरी। मंगलवार को मनमोहन सरकार यही करती दिखी। ममता बनर्जी की लालगढ़ रैली पर संसद में हंगामा बरपा। एक तरफ ऑपरेशन ग्रीनहंट, तो दूसरी तरफ ममता की छांव पर सवाल उठा। तो प्रणव-पृथ्वीराज ने ममता से जवाब तलब करने का भरोसा दिया। अब नक्सलवाद पर ममता की चाल मनमोहन की मुसीबत बनी। सो पीएम क्या सफाई देंगे, यह बाद की बात। पर कश्मीर को लेकर दो महीने बाद पीएम ने मंगलवार को चुप्पी तोड़ी। सर्वदलीय मीटिंग की ओपनिंग स्पीच से ही अवाम को भी संबोधित किया। घाटी के हालात पर चिंता जताई। नई शुरुआत पर जोर देते हुए युवाओं से स्कूल-कालेज जाने की अपील की। बोले- खून-खराबे का सिलसिला अब खत्म होना चाहिए। अब कोई मासूम जानें न जाएं। उन ने रोजगार का भरोसा दिलाया। बुनियादी ढांचे को तरजीह देने की बात कही। अपने आर्थिक सलाहकार सी. रंगराजन की रहनुमाई में कमेटी भी बना दी। अब रोजगार और अमन की बात में किसी को एतराज नहीं। पर एक बार फिर आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल एक्ट को खत्म करने का इरादा जतला दिया। बोले- जम्मू-कश्मीर पुलिस को खुद ही जिम्मेदारी लेनी होगी। हम अवाम का ख्याल समझते हैं। पर पूरे संबोधन में सुरक्षा बलों के लिए सिर्फ एक लाइन कही। सुरक्षा बलों का मनोबल न गिरे। यानी अलगाववादियों के सामने नतमस्तक दिख रही सरकार। फिर भी हालात सुधरेंगे, कहना मुश्किल होगा। सर्वदलीय मीटिंग में पीडीपी फिर नहीं पहुंची। अब पीएम का मरहम कितना कारगर, यह तो दो-एक दिन में दिख जाएगा। सो बात कॉमनवेल्थ पर कारीगरी की। मंगलवार को लोकसभा में खेल मंत्री एम.एस. गिल ने जवाब दिया। तो बेटी के बाप जैसी लाचारी ही दिखाई। कहा- जब इतना बड़ा स्वयंवर रचा लिया, तो अब सवाल इज्जत का। सो बीती ताहि बिसार दे का मंत्र थमा दिया। यानी फिलहाल गोल-गपाड़े की बात छोड़ दो। सिर्फ खेल और खिलाडिय़ों पर फोकस हो। पर कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद होगा क्या? तब तक तो सारे कागज दुरुस्त हो चुके होंगे। अपने कलमाड़ी की कारीगरी ही देख लो। कैसे शुरुआत में मीडिया को लीगल नोटिस की धमकी दे रहे थे। पर जब विदेश मंत्रालय और लंदन के अपने उच्चायोग ने पल्ला झाड़ लिया। तो कलमाड़ी फर्जीवाड़े में उलझ गए। सो अब सांसदों को चिट्ठी लिख सफाई दे रहे। क्वींस बेटन में 13.13 करोड़ खर्च का बजट मंजूर हुआ था। पर उन ने महज 5.75 करोड़ में ही समारोह निपटा दिया। यानी कलमाड़ी चिट्ठी के जरिए दिखा रहे, कितने बचतखोर इनसान। पर जो दिल्ली सडक़ों पर अवाम ने खुली आंखों से देखा, उसका क्या। महीने में कम से कम दो बार तो पत्थर उखड़ते और लगाए जाते रहे। कॉमनवेल्थ में कलमाड़ी एंड कंपनी से लेकर शीला सरकार और खेल मंत्रालय बेदाग नहीं। मंगलवार को गिल ने जांच की बात भले कही, पर समूचे जवाब में बचाव करते दिखे। स्टेडियम के पुनर्निर्माण में बढ़े खर्च को जायज ठहराया। बोले- वक्त के साथ कंस्ट्रक्शन कॉस्ट भी बढ़ी। खुद कबूला- 1300 करोड़ का प्रोजैक्ट 2903 करोड़ तक पहुंच गया। यह भी कबूला- स्टेडियम के जितने काम हुए, महज दो साल में हुए। अब आप ही बताओ, इस बढ़े खर्च के लिए दोषी कौन? साल 2004 से कोई बीजेपी की सरकार नहीं। खुद मनमोहन पीएम। स्टेडियम की खस्ता हालत पर भी गिल की सफाई सुनिए। जब कोई घर बनाता है, तो बीवी भी छह महीने तक नुस्ख निकालती रहती है। सो कुछ नुस्ख हैं, पर गंभीर नहीं। हफ्ते में मलबा हट जाएगा, एक महीने में सब दुरुस्त हो जाएगा। पर किसकी मानेंगे आप। जब दिल्ली बारिश में ठहर गई थी, तो पिछले महीने शीला ने खबरनवीसों को चुनौती दी थी- दस अगस्त की शाम में आकर सवाल पूछिएगा। यानी दस अगस्त तक मलबा हटाने का काम पूरा होना था। पर अब यह डेडलाइन 31 अगस्त हो गई। कॉमनवेल्थ की डेडलाइन पता नहीं कौन सा अमृत पीये बैठी, जो कभी डेड नहीं हो रही। पर शीला के सच की पोल खुली, तो मंगलवार को ही उनके सांसद बेटे संदीप की दहाड़ याद आ गई। एम.एस. गिल के जवाब से खफा विपक्ष ने सदन से वाकआउट किया। तो संदीप बोले- सच सुनने ही हिम्मत नहीं थी, सो बीजेपी भाग गई। पर कोई पूछे, शीला खुद दस अगस्त को मीडिया के सामने क्यों नहीं आईं? क्यों चीफ सैक्रेट्री को भेज दिया? पर बात गिल की, जिन ने 1982 के एशियाड जैसी कमांड न होने पर चिंता जताई। कहा- 1982 में राजीव के नीचे बूटा, और बूटा के नीचे 25 अफसर। कमांड की अच्छी कड़ी थी। पर अबके सारी जिम्मेदारी ऑर्गनाइजिंग कमेटी की। अब कोई पूछे, सरकार ने पहले कमान क्यों नहीं संभाली? आखिरी वक्त में क्यों हाथ-पैर मार रही। देश की इज्जत की खातिर ऑर्डीनेंस लाकर कमान क्यों नहीं ली? पर गिल संसद में जवाब देने कहां आए थे। वह तो जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में बने टनल में घोड़े दौड़ाते दिखे। बोले- भगवान ने मुंह आगे की ओर दिया। सो आगे की ओर ही देखना चाहिए। कुछ कमियां होंगी, तो बाद में देखेंगे। यानी पूरी बहस के बाद सरकार ने माना, कॉमनवेल्थ में कोढ़, खाज, खुजली सभी बीमारियां। पर जैसा भी है, अब अपना। सो अब आगे बढऩा ही होगा। मीडिया और विपक्ष को गिल ने नसीहत दी- देश की सर्चलाइट खिलाडिय़ों पर लगाओ, ताकि हमारा नाम ठीक रहे। आखिरी वक्त में सरकार को खिलाडिय़ों की सुध। गिल ने दो-चार खिलाडिय़ों के नाम गिना यही अपील की। यानी 'वेल्थ' यानी भ्रष्टाचार पर 'कॉमन' खेल कर गई सरकार।
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10/08/2010

Friday, August 6, 2010

कॉमनवेल्थ से कश्मीर तक कराह रही सरकार

कॉमनवेल्थ का पॉलिटीकल रिहर्सल जमकर हो रहा। शुक्रवार को लोकसभा में घोटाले का घंटा बजा। तो सरकार समझ गई, कलमाडिय़ों का बचाव किया, तो बेभाव की पड़ेगी। सो कांग्रेस और सरकारी खेमे से यही गुहार हो रही, पहले गेम्स निपट जाने दो। फिर कलमाडिय़ों से निपट लेंगे। पर विपक्ष सुनहरा मौका हाथ से क्यों जाने देगा। सो ठान लिया, अब खेल के गड़बड़झाले पर जवाब तो पीएम से ही चाहिए। दलील भी सही, गड़बड़झाले के तार खेल मंत्रालय, शहरी विकास मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, ऑर्गनाइजिंग कमेटी, दिल्ली सरकार तक जुड़े। सो एक मंत्री समुचित जवाब नहीं दे सकता। अब अगले हफ्ते बहस होगी, तो घोटाले की कई परतें खुलेंगी। पर शुक्रवार को लोकसभा में जयपाल रेड्डी को विपक्ष ने बोलने नहीं दिया। सो रेड्डी ने बाहर आकर कह दिया- गड़बडिय़ों की जांच सीबीआई से भी कराने को तैयार। पर कॉमनवेल्थ गेम्स के खर्चों का आंकड़ा सही नहीं। सच माइने में 11500 करोड़ खर्च हुए। यानी रेड्डी का आंकड़ा सही मानें, तो घोटाला करने वालों ने भ्रष्टाचार का पूरा सम्मान रखा। किसी भी योजना में अगर 15-20 फीसदी तक भ्रष्टाचार न हो, तो वह योजना सफल नहीं मानी जा सकती। आखिर योजना से जुड़े लोग सरकारी मेहनताने पर कितना काम करेंगे। पर कॉमनवेल्थ गेम्स का भ्रष्टाचार कुछ-कुछ आईपीएल के खेल जैसा ही। याद है ना, पिछले सत्र में आईपीएल के मामले ने क्या-क्या गुल खिलाए थे। सुनंदा के चक्कर में थरूर नपे। होशियारी दिखाकर ललित मोदी खुद बुद्धू बन गए। तब प्रणव दा से लेकर ईडी, सीबीडीटी सबने ताबड़तोड़ जांच शुरू कर दी। ऐसा लगा, अब चार-छह दिन में भ्रष्टाचार की पूरी कलई खुल जाएगी। पर हुआ क्या? आप राज्यसभा में गुरुवार को दिए खेल राज्यमंत्री का जवाब सुन लीजिए। आईपीएल की जांच पर सवाल था। तो सरकारी जवाब आया- मंत्रालय आईपीएल के साथ डील नहीं करता और राष्ट्रीय टीम आईपीएल टूर्नामेंट में हिस्सा नहीं लेती। फिर भी वित्त मंत्रालय ने आयकर नियमों की अवहेलना के कुछ मामलों की जांच शुरू की। पर जांच में समय लगेगा। अब हू-ब-हू वैसा ही शोर कॉमनवेल्थ का मचा। सरकार उसी तरह सच सामने लाने के दावे कर रही। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने पद से हटाए गए दरबारी और महेंद्रू को नोटिस भेज दिया। सीबीडीटी ने भी जांच में दखल दिया। विपक्ष पिछली बार की तरह अबके भी वही जेपीसी की मांग कर रहा। सो सरकार घिर गई। आईपीएल में तो कारपोरेट घराने का पैसा। पर यहां आम आदमी की गाढ़ी कमाई। सो कहीं ऐसा न हो, हायतौबा के चक्कर में कॉमनवेल्थ भी आईपीएल की तरह कहीं और हो जाए। आईपीएल-टू आखिरी वक्त में दक्षिण अफ्रीका में हुआ था। अगर ऐसा हुआ, तो भारत किस विकास दर का मुंह दिखाएगा? अब सवाल, मनमोहन सरकार आखिरी वक्त में ही क्यों जागती? गेम्स की तैयारियां सात साल से चल रहीं। पर जब भ्रष्टाचार की कलई खुली, तो मनमोहन ने मोर्चा संभाल लिया। कॉमनवेल्थ हो या कश्मीर, सरकार के पास कोई रोडमैप नहीं दिख रहा। अब कश्मीर की हिंसा काबू से बाहर हो चुकी। तो मनमोहन सोमवार को सर्वदलीय मीटिंग करेंगे। पर एजंडा क्या होगा? सरकार का फर्ज यही, एक रोडमैप लेकर आगे बढ़े और बाकी दलों से विचार करे। पर मनमोहन खाली हाथ आएंगे, तो बैठक से कोई झोली भरकर नहीं लौटेंगे। जब कश्मीर की आग बुझाने की पहल करनी थी, तब उमर अब्दुल्ला के भरोसे सब-कुछ छोड़ दिया। उमर के अक्खड़पन ने चिंगारी को शोला बना दिया। जब फाइरिंग की पहली घटना में एक मौत हुई, तो जनाब उमर छुट्टियां मना रहे थे। फिर हिंसा का दौर बढ़ता गया। पर युवा मुख्यमंत्री की अकड़ देखिए, कभी मौका-मुआइना नहीं किया। ऐसे में आवाम का दिल कैसे जीत पाएंगे? होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने शुक्रवार को राज्यसभा में दिल-दिमाग जीतने का मंत्र दिया। पर उमर से कैसी उम्मीद? लोकसभा के 38 युवा सांसदों ने कश्मीरी युवाओं से शांति की अपील की। तो यह एक अच्छी पहल जरूर। पर सवाल, राहुल बाबा की टीम के युवा जनता से कितने जुड़े हुए? राहुल की टीम के जितने भी युवा मंत्री मनमोहन केबिनेट में, उनमें से कितने अपने क्षेत्र तक की जनता का दिल जीत पा रहे? कश्मीर में अलगाववादियों को आवाम ने पिछले दो चुनाव में सबक सिखा दिया था। कई अलगाववादी नेता चुनाव हार गए। अगर उमर और केंद्र सरकार सजग होतीं, तो अलगाववादियों को दुबारा पनपने का मौका नहीं मिलता। पर युवा मन अहंकार में डूब गया। सो पाकिस्तान ने अपना नापाक चेहरा फिर दिखाया। बम, गोले-बारूद की जगह पत्थरबाजी का ट्रैंड शुरू कर दिया। ताकि दुनिया को दिखे, कश्मीरी आवाम की भावना कैसी। दुनिया में भारत की कश्मीर नीति को फौजी हुकूमत बताने की कोशिश में जुटा पाक। सचमुच जम्मू-कश्मीर को लेकर सरकार की नीति साफ नहीं। अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन विवाद में जम्मू ठप हुआ था। अब घाटी अलगाववाद की आग में झुलस रही। पर फिर वही सर्वदलीय मीटिंग। वही संसदीय टीम भेजने की मांग। सो कॉमनवेल्थ से कश्मीर तक कराह रही सरकार।
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06/08/2010

Thursday, August 5, 2010

‘शेरू’ आखिर रंगा सियार ही निकला

मणिशंकर अय्यर के भाग्य से कॉमनवेल्थ का छीका टूट ही गया। यों कॉमनवेल्थ के नाम पर मची राष्ट्रीय लूट का खुलासा शरद यादव दो साल से करते आ रहे। पर लोकतंत्र के चारों स्तंभों ने अनसुना कर दिया। अब मणि के बोल से ही सही, परतें उधड़ रहीं। तो सुनने वाले दांतों तले उंगली नहीं, पूरा हाथ दबा रहे। सचमुच जिस फ्रिज की कीमत आठ-दस हजार हो, उसका किराया कोई 45 हजार दे। तो ऐसे आयोजक को मोहम्मद बिन तुगलक ही कहेंगे। छतरी बढिय़ा से बढिय़ा 4100 रुपए की। पर कॉमनवेल्थ आयोजकों ने साढ़ छह हजार के किराए पर ली। ऐसा कोई सामान नहीं, जो दुगुने से पांच गुने अधिक दाम पर नहीं लिया गया हो। लूट मचाने का इससे नायाब फार्मूला क्या होगा। कुछ महीने के लिए अपना सामान किराए पर दो, फिर माल भी अपना और धन भी अपनी जेब में। सो करोड़ों खर्च कर दुरुस्त हुआ स्टेडियम पानी-पानी हो रहा। समूची दिल्ली खुदी हुई दिख रही। अब मौसम विभाग ने अक्टूबर के पहले हफ्ते में बारिश की आशंका जता दी। सो बेचारे शीला-कलमाड़ी की मुसीबत और बढ़ गई। अभी तो देश की जनता के सामने कलई खुल रही, तब विदेशी मेहमानों को क्या मुंह दिखाएंगे। अब तो चुटकी लेने वाले भी खूब हो गए। शीला-कलमाड़ी को सुझाव मिल रहा, जब दिवालिया कंपनियों से समझौता कर सकते हो। तो अक्टूबर में बारिश न हो, इसके लिए इंद्र से 'एमओयू' दस्तखत कर लो। इसी बहाने इंद्र के घर तक जाने का यात्रा भत्ता भी अच्छा-खासा बन जाएगा। और किसी को यह घोटाला मालूम ही नहीं पड़ेगा। किसे मालूम इंद्र कहां रहते हैं और उन तक पहुंचने का क्या रास्ता। अपने मीडिया वाले तो कम से कम नहीं पहुंचेंगे। वैसे भी कॉमनवेल्थ गेम पर जितनी हाय-तौबा मच रही, अभी उतना भ्रष्टाचार तो हुआ भी नहीं। पता नहीं आयोजकों को डाइटिंग किसने सिखा दी। अगर पूरे खेल के आयोजन पर 37,000 करोड़ का खर्चा माना जाए। तो दस से पंद्रह फीसदी का हिस्सा तो ईमानदारी का बनता। पर अभी महज दो हजार करोड़ के ही आरोप लग रहे। यानी 1700 करोड़ कम। यह तो 'भ्रष्टाचार' का अपमान है। याद करिए अपने राजीव गांधी ने क्या कहा था। एक रुपया अपने पड़ाव तक पहुंचते-पहुंचते महज 15 पैसे रह जाता। यानी जब 80-85 फीसदी पैसा खाकर कोई डकार न ले, तब उसे भ्रष्टाचार कहते हैं। पर अपने कॉमनवेल्थ आयोजन से जुड़े लोगों का लीवर कमजोर हो चुका। सो 15 फीसदी भी नहीं डकार पाए, पर देश में हो-हल्ला मच गया। बात संसद तक पहुंच गई। तो तैयारियों का हाल देख कांग्रेस खुलकर नहीं रो पा रही। ना ही कलमाडिय़ों का साथ दे रही। पर अब जैसे भी हो, जनता की लूट पर कॉमनवेल्थ गेम कराना मजबूरी। सो राज्यसभा में गुरुवार को खेल मंत्री एम.एस. गिल ने लाचारी दिखाई। बोले- अब बारात घर आने को तैयार, सो स्वागत करना ही होगा। जलसा पूरा करना होगा। पर बाद में सच सामने लाएंगे। फिलहाल जब कुछ तैयार ही नहीं हुआ, तो जांच किसकी कराएं। अब सोचो, गेम्स के बाद जांच होंगी, तो समूचे दस्तावेज दुरुस्त हो चुके होंगे। सो फिलहाल हल्ला शांत करने को दो-चार की बलि ले ली। आयोजन समिति से कोषाध्यक्ष अनिल खन्ना का इस्तीफा हो गया। खन्ना के बेटे की कंपनी को भी ठेका मिला था। कलमाड़ी के करीबी टीएस दरबारी, संजय महेंद्रू हटाए गए। हैड एकाउंटेंट जयचंद भी नपे। अब एके मट्टू नए कोषाध्यक्ष होंगे। पर सुरेश कलमाड़ी को हटाने की मुहिम उचित नहीं। वैसे भी यह कैसा फार्मूला, खाने-पीने वाले तोंद निकाल कर आराम करने चले जाएं। और जिम्मेदारी संभालने वाला नया व्यक्ति सिर्फ काम करे, खाने-पीने को कुछ न मिले। वैसे भी जांच में होगा क्या। इराक तेल दलाली के मामले में वोल्कर रपट के बाद नटवर सिंह एंड फेमिली कांग्रेस से नप गई। पर जांच का निचोड़ क्या निकला। किसी पर कार्रवाई हुई। यहां भी वही हाल, दो-चार निलंबन हुए। गेम्स के बाद कुछेक और हो जाएंगे। फिर समय के साथ सारा खाया-पीया हजम हो जाएगा। पर बात गेम्स की तैयारी की। जब खेल मंत्री संसद में लाचारी दिखा रहे। तो सोचो, कैसे होगा राष्ट्रमंडल खेल? कैसे बचेगी राष्ट्र की इज्जत? सचमुच अब तो एक ही फार्मूला, जैसे आठ अक्टूबर 2009 को कॉमनवेल्थ गेम्स फैडरेशन के अध्यक्ष के साथ 71 देशों के डेलीगेट्स ने तैयारियों का मौका-मुआइना किया। तो समूची दिल्ली सील कर दी गई थी। ट्रेफिक की बदहाली विदेशी मेहमान न देख सकें, सो पहले ही लोगों को एडवाइजरी दी जा चुकी थी। तब यहीं पर लिखा था- अभी ऐसा हाल, तो 2010 में क्या होगा। सचमुच अब एक ही तरीका, सरकार उम्दा बाड़ तैयार करे। जब तक गेम्स हों, सभी दिल्ली वालों को बाड़ में ठूंस दो। दिल्ली से लगने वाले सभी बार्डर सील कर दो। समूचे खेल का लाइव टेलीकास्ट कराओ। और अपनी इज्जत बचाओ। सात साल में गेम्स की तैयारी का राजधानी में यह हाल। तो मनमोहन किस विकास दर का ढिंढोरा पीट रहे? अब कॉमनवेल्थ गेम्स के भ्रष्टाचार की जांच ईडी करे, या 'डीडी' (देवी-देवता)। पर होना-जाना कुछ नहीं। तभी तो जब सीवीसी ने खामियां उजागर कीं, सीबीआई से केस दर्ज करने को कहा। तो खेल में पीएम भी कूद गए। सो अगले ही दिन सीवीसी का बयान जारी हो गया- हमारी रपट अभी आरंभिक। सो निष्कर्ष न निकाला जाए। अब सोचो, जब सीवीसी का यह हाल। तो सीबीआई का क्या होगा? बेजा इस्तेमाल का आरोप यों ही नहीं लगता। पर बात गेम्स की, तो कॉमनवेल्थ गेम्स का 'शेरू' आखिर रंगा सियार ही निकला। बारिश होते ही भेद खुल गया। 'शेरू' यानी गेम्स का शुभंकर।
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05/08/2010

Wednesday, August 4, 2010

महंगाई पर ये लो अपना ‘गीता सार’

बुरा मत मानना, अब आप महंगाई में जीने की आदत डाल ही लें। संसद की भावना को आवेग मान सरकार ने यही नुस्खा बताया। बुधवार को प्रणव मुखर्जी ने लोकसभा में जवाब दिया। तो चेहरे पर नकारेपन की खीझ बार-बार छलकी। फिर भी महंगाई कम करने का भरोसा नहीं दिलाया। अलबत्ता महंगाई को न्यायसंगत ठहराते रहे। सचमुच प्रणव दा का जवाब गीता सार का कांग्रेसी रूपांतरण भर। पहली बार महंगाई पर संसद की भावना के तहत बहस हुई। पर प्रणव दा का जवाब वही। हे आम आदमी, क्यों व्यर्थ चिंता करते हो। महंगाई से व्यर्थ क्यों डरते हो। महंगाई भला तुम्हें कैसे मार सकती। वह तो न पैदा होती, न मरती, अलबत्ता गैर कांग्रेसी राज में कछुआ चाल, तो कांग्रेस राज में खरगोश की भांति दौड़ती। सो जो हुआ, वह अच्छा हुआ। महंगाई बढ़ रही, वह भी अच्छा हो रहा। महंगाई और बढ़ेगी, वह भी अच्छा ही होगा। तुम एनडीए राज की कम कीमतें याद कर पश्चाताप न करो। ना ही भविष्य में आने वाली सरकार की चुनौतियों की चिंता करो। अलबत्ता वर्तमान में हमारी महंगाई के साथ चलो। प्रणव दा ने भरे सदन में कबूला, वाजपेयी राज के छह साल कीमतें काबू में रहीं। पर दलील दी, वाजपेयी राज में विकास दर, निवेश दर और निर्यात दर नहीं बढ़ीं। यानी विकास दर का झंडा लहरा आम आदमी की कमर पर डंडा चला रही सरकार। प्रणव दा ने ताल ठोककर कहा- यूपीए राज में विकास दर बढ़ी, सो मुद्रास्फीति बढ़ी। इतना ही नहीं, आम लोगों की क्रयशक्ति बढ़ी। यानी गीता सार के तीसरे चरण में प्रणव दा ने खूब कहा। हे आम आदमी, तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो। तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया। तुमने क्या पैदा किया था, जो नाश हो गया। अरे भाई, तुम्हारी आमदनी बढ़ी। तो थोड़ी महंगाई भी झेल लो। आखिर इतना पैसा लेकर कहां जाओगे। न तुम कुछ लेकर आए। जो लिया, यहीं से लिया। सो देना भी यहीं पड़ेगा। जो लिया, इसी भगवान (हमारी सरकार) से लिया। सो हमको ही देना होगा। तुम तो खाली हाथ आए, खाली हाथ चले जाओगे। वैसे भी जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा। तुम इसे अपना समझकर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दुखों का कारण है। यानी प्रणव दा का प्रवचन यही, हे आम आदमी, सिर्फ अपनी मत सोचो, आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचो। परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु यानी महंगाई समझते हो, वही तो जीवन है। आज तुम महंगाई झेलोगे, कल महंगाई तुम्हारे बच्चों को झेलेगी। तो तुम्हारे बच्चे तुम्हें पीढिय़ों तक याद रखेंगे। अब बताओ, पल-दो पल की परेशानी के लिए तुम पीढिय़ों की याद दांव पर लगाओगे? पर विकास दर की प्रणवी थीसिस को मुलायम ने आईना दिखाया। मुलायम सिंह बोले- यह कैसा विकास। अगर देश में 125 से 130 अरब-खरबपति परिवार बाहर कर दो, तो देश की विकास दर क्या होगी? सचमुच सवाल मौजूं। देश में जितनी तेजी से करोड़पति अरबपति हुए। अरबपति खरबपति हुए, उतनी ही तेजी से आम आदमी की कंगाली भी बढ़ी। सुषमा स्वराज ने भी पीएम से पूछा- अर्थशास्त्री महोदय, यह आपका कैसा अर्थशास्त्र। एक तरफ आप विकास दर के साथ महंगाई को जायज ठहरा रहे। तो दूसरी तरफ अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ रही। पर प्रणव दा यहां भी चालबाजी कर गए। गुड्स एंड सर्विस टेक्स यानी जीएसटी पर राज्यों की ओर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सो प्रणव दा का दांव देखिए। बोले- जीएसटी लागू हो जाए, तो महंगाई के इलाज में रामबाण होगी। पेट्रोलियम पर टेक्स हो या बाकी और टेक्स, सब समान हो जाएगा। सो प्रणव दा ने आम आदमी को फिर समझाया। हे आम आदमी, वैसे भी एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो। दूसरे ही क्षण में दरिद्र बन जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया यानी बीजेपी-कांग्रेस, लेफ्ट-सपा, एनडीए-यूपीए मन से मिटा दो। सिर्फ कांग्रेस को वोट दो। फिर देश का सारा खजाना तुम्हारा है और तुम सिर्फ कांग्रेस के हो। न यह शरीर तुम्हारा है न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश से बना है। सो हमने चारों जगह महंगाई बढ़ा दी। ताकि जीने और मरने में तुम्हें कोई फर्क समझ में न आए। आखिर तुम्हें इसी में मिल जाना है। परंतु आत्मा यानी कांग्रेस पार्टी स्थिर है। फिर तुम क्या चीज हो। तुम अपने आपको कांग्रेस को अर्पित करो, यही सबसे उत्तम सहारा है। जो इसके सहारे को जानता है, वह भय, चिंता, शोक से सर्वदा मुक्ता होकर खरबपति बन जाता है। सो हे आम आदमी, जो कुछ भी तू करता है, उसे कांग्रेस को अर्पण करता चल। ऐसा करने से सदा जीवन मुक्ति का आनंद अनुभव करेगा। यानी महंगाई पर संसद की भावना महज कागजी रह गई। कांग्रेस ने पानी पी-पीकर एनडीए राज के आंकड़े गिनाए। पर शरद यादव ने पूछ लिया- आप सिर्फ इतना बताओ, आपके तमाम प्रयासों के बावजूद महंगाई कम क्यों नहीं हो रही? पर जवाब वही, गांव, गरीब का दर्द समझती है सरकार। लेकिन सुनहरे भविष्य के लिए कठोर कदम लाजिमी। प्रणव दा ने दस किलोमीटर पैदल चलने का बचपन याद किया। दाम बांधो नीति को नकारा। कहा- ऐसा करने से मार्केट में सामान ही नहीं मिलता। पर प्रणव दा, कालाबाजारियों पर कार्रवाई कौन करेगा। कुल मिलाकर प्रणव दा ने यही कहा। देश में महंगाई है, पर आम आदमी परेशान नहीं, क्योंकि उसकी आमद बढ़ चुकी है। यानी आने वाले वक्त में महंगाई नहीं बढ़ी, तो कम भी नहीं ही होगी। सो महंगाई का गीता सार सुनने के बाद अब आप सब खड़े होकर बोलो, ‘महंगाई मैया के सैंया कांग्रेस की जय हो।’
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04/08/2010

Tuesday, August 3, 2010

विपक्षी गठजोड़ ने आखिर उड़ा दिए कांग्रेस के तोते

तो विपक्ष ने अपने हिस्से का महंगाई पुराण बांच दिया। अब बुधवार को प्रणव मुखर्जी लोकसभा में जवाब देंगे। तो आप यह तय समझिए, गीता सार से अधिक कुछ नहीं होगा। सो आम आदमी व्यर्थ चिंता न करे। महंगाई तो कांग्रेस राज का अटल सत्य। अगर सत्य के मार्ग पर चलना सीख सको, तो सीख लो। वरना अपने हाल पर जीते रहो। मंगलवार को महंगाई की बहस में कांग्रेस ने यही निचोड़ थमाया। बहस की शुरुआत तो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने की। उन ने सरकारी दलीलों को आंकड़ों से धोया। पर आखिर में जो कहा, सच की गुंजाइश कम दिखी। सुषमा बोलीं- अगर हम विशुद्ध राजनीति करें, तो चाहेंगे, यह सरकार गिर जाए। पर हम व्यापारी नहीं, प्रहरी हैं, सो सरकार भी जिम्मेदारी समझे। अब आप ही बताओ, कौन सा राजनीतिक दल ऐसा, जो वोट बैंक का व्यापार न करता हो? वोट बैंक का सवाल न होता, तो हफ्ते भर संसद ठप क्यों रहती। पर सत्तापक्ष की बेशर्मी देखिए, राहत का भरोसा देना तो दूर, लोगों को और डरा दिया। सत्तापक्ष से दिल्ली की सीएम शीला आंटी के सांसद बेटे संदीप दीक्षित ने कमान संभाली। तो आप सोच लो, क्या कहा होगा संदीप ने। सचमुच मां की जुबान से बेटा अलग नहीं दिखा। संदीप ने देश के हर व्यक्ति पर महंगाई के असर की बात मानी। पर राहत के बजाए कल्पना के जगत में घुस गए। कहा- अगर अभी एनडीए की सरकार होती, तो पेट्रोल की कीमत 84 रुपए लीटर बढ़ चुकी होती। हमने तो आम आदमी के हित को देखते हुए अनुपात में बढ़ाया। जिस एनडीए ने दो-ढाई रुपए लीटर की कैरोसिन नौ रुपए कर दी, वह हम पर उंगली कैसे उठा सकता। पर विपक्ष के सांसदों ने फौरन जवाब दे दिया। विपक्ष की बैंचों से एक सुर में आवाज आई- इसलिए हम लोग आज यहां आ गए। यानी सत्ता से बेदखल होकर विपक्ष में बैठना पड़ा। सुषमा स्वराज ने तो संदीप के सवाल से पहले ही अपने भाषण में यह कबूला था। कहा था- हमने कीमत बढ़ाने पर महज एक केलकर कमेटी की रपट मान ली, सो आज विपक्ष में बैठने को मजबूर। पर सत्तापक्ष के पास कोई जवाब नहीं। ना ही अपनी मजबूरी का इजहार कर सकते। सो संदीप ने सुनहरे भविष्य की तस्वीर दिखा आम आदमी को फिर डरा दिया। संदीप का लब्बोलुवाब यही रहा। अगर परिस्थितियों के मुताबिक तेल की कीमतें नहीं बढ़ाईं, तो देश का भविष्य दांव पर होगा। हम भी वोट की राजनीति करें, तो देश को दांव पर लगाकर 20-25 रुपए लीटर पेट्रोल कर सकते हैं। पर तीन-चार साल बाद जब अगली सरकार आएगी, वैसे हमारी ही आएगी, तब क्या होगा? आने वाले वक्त में कच्चे तेल की कीमत 200 डालर प्रति बैरल होगी। तब इकट्ठे दाम बढ़ाए गए, तो तबकी पीढ़ी हमें कोसेगी। सो देश की जनता को सरकार की ओर से ठोस संदेश देना होगा। ताकि देश कठोर कदमों के लिए खुद को तैयार कर सके। इतना ही नहीं, संदीप ने दलील दी- महंगाई बढ़ी, तो किसानों को अच्छी कीमत भी मिली। पर यह भी कह दिया- कृषि उत्पादकता नहीं बढ़ रही। सो पीएम-एफएम महेंद्र सिंह धोनी के जमाने में अजीत वाडेकर के जमाने का विशेषज्ञ शामिल न करें। यानी संदीप ने अपनी भद्द खुद पिटवा ली। जब किसानों को अच्छी कीमत कांग्रेस राज में मिल रही, तो कृषि उत्पादकता क्यों नहीं बढ़ रही? पर मुलायम सिंह ने पूरी कलई खोल दी। बोले- अरहर दाल को पूरी प्रोसेसिंग के बाद बाजार में लाया जाए, तो तीस रुपए किलो कीमत बनती। फिर सौ रुपए तक कैसे पहुंची। यानी सरकार ने एक तरफ किसानों को लूटा, तो दूसरी तरफ आम आदमी को मारा। फायदा पहुंचा उन खास लोगों को, जो चुनावी चंदा देते। पर महंगाई के फन से नीली पड़ चुकी कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं। सो विपक्ष के जहर बुझे तीरों से लहूलुहान होकर भी उफ तक नहीं कर पाई। या यों कहें, समूची बहस में कांग्रेसी बैंचों पर मुर्दनी छाई रही, तो गलत नहीं होगा। तभी तो कांग्रेस ने इतने गंभीर मुद्दे पर कोई हैवीवेट नेता नहीं उतारा। अलबत्ता संदीप दीक्षित को उतारा, जो सुषमा-मुलायम-लालू-शरद के आगे बौने दिखे। पर बेचारी कांग्रेस करे भी क्या। विपक्षी एकता हर मुद्दे पर ऐसे घेर रही, कांग्रेस को कोई रास्ता ही नहीं दिख रहा। सचमुच कांग्रेस ने ठसक और हठधर्मिता की जो नीति अपनाई। मुलायम-लालू जैसे दिग्गजों को भी बीजेपी के साथ खड़ा कर दिया। लालू पहले ही कांग्रेस विरोधी साझा मंच की पैरवी कर चुके। तो अबके मुलायम ने इशारा किया। महंगाई पर बहस में मुलायम ने सीबीआई के इस्तेमाल और स्विस बैंक में जमा काले धन का मुद्दा उठाया। जिस मुद्दे को लेकर बीजेपी संसद से सडक़ तक उतर चुकी। मुलायम का दर्द आखिर छलक ही पड़ा। जब बोले- सीबीआई के नाम पर कब तक दबाओगे। कब तक सरकार चलाना चाहते हो। यह कैसी सरकार, मैं और लालू फंसेंगे सीबीआई में, बाकी स्विस बैंक में जमा करने वाले मौज करेंगे। यह देश नहीं चल रहा, सिर्फ सरकार चल रही। अब मुलायम-लालू का दर्द का मतलब समझ लो। लालू-मुलायम ने तो बीजेपी को कह दिया- आप सांप्रदायिकता छोड़ दीजिए। यानी विपक्ष की लामबंदी सरकार का सिरदर्द बन चुकी। कॉमनवैल्थ का भ्रष्टाचार गले की नई फांस। मुलायम ने तो खुलासा कर दिया- अपने चौदह स्टेडियम को दुरुस्त करने में चालीस हजार करोड़ खर्च हो गए। पर इतने में चीन ने चौदह नए स्टेडियम खड़े कर ओलंपिक करा लिए। यानी सीबीआई, ब्लैकमनी, कॉमनवैल्थ और बाकी तमाम मुद्दे, जहां विपक्षी एकता सरकार के कोढ़ में खाज। ---------
03/08/2010

Monday, August 2, 2010

महंगाई पर सरकार के पक्ष में विपक्ष ने डाला ‘वोट’

‘यह सदन अर्थव्यवस्था पर पड़ रहे मुद्रास्फीति के दबाव पर चिंता व्यक्त करता है और सरकार से आह्वान करता है कि आम आदमी पर पड़े रहे मुद्रास्फीति के दुष्प्रभाव को रोकने के लिए कार्रवाई करे।’ संसद में मंचन के लिए आम आदमी की खातिर यही स्क्रिप्ट तैयार हुई। अब जरा संविधान के तहत ली जाने वाली शपथ की भाषा देखिए- ‘मैं.. ईश्वर के नाम पर शपथ लेता हूं कि सत्यनिष्ठा के साथ संविधान के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करूंगा....।’ पर जब राजनेता उस शपथ पर कायम नहीं रह पाते, तो महंगाई पर संसद में आने वाले इस प्रस्ताव से क्या होगा? संसद तो अब सत्ताधीशों की कठपुतली बन चुकी। सो हफ्ते भर बाद गतिरोध टूट गया। पक्ष-विपक्ष की ऐसी जुगलबंदी हुई, बेचारा आम आदमी तमाशबीन ही रह गया। प्रस्ताव में आम आदमी का हित तो दूर, उसकी समझ में आने वाली भाषा तक नहीं। आखिर किस आम आदमी की समझ में मुद्रास्फीति आएगी। विपक्ष ने खूब कोशिश की, मुद्रास्फीति की जगह मूल्य वृद्धि का जिक्र हो। पर सरकार ने नहीं माना। आखिर सरकार खुद को कटघरे में क्यों खड़ी करती। मनमोहन सरकार को तो विकास दर पर गुरूर। अब एक नई रपट आ गई, नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकनोमिक रिसर्च ने खुलासा किया, देश में गरीब से ज्यादा अमीर लोग हो गए। अब जब ऐसे-ऐसे आंकड़े आएंगे। तो सरकार को महंगाई कहां दिखेगी। दिल्ली की कांग्रेसी सीएम शीला आंटी तो न जाने कब से कह रहीं। लोगों की आमदनी बढ़ चुकी, सो महंगाई कोई मुद्दा नहीं। देखो, अब रिसर्च में शीला आंटी की बात सच साबित हुई। पर विपक्ष वाले मानते ही नहीं थे। अब माई का लाल विपक्षी दल कह देगा, महंगाई से आम आदमी परेशान। अरे भई, जब कोई आम आदमी ही नहीं, तो महंगाई से कौन परेशान? अगर महंगाई बढ़ी, तो अमीरी उससे कहीं अधिक बढ़ी। सो सरकार ने विपक्ष के नेताओं को साफ बतला दिया, भले कुर्ता फाड़ो या बाल नोंचो, चर्चा होगी तो मुद्रास्फीति पर। अब विपक्ष वाले बेचारे क्या करते। सो प्रणव दा यहां नाश्ता किया, चाय पी और मान गए। पर लाज दोनों की रहे, सो दो शब्द विपक्ष के मान लिए, तो एक अपना मनवा लिया। पर मुद्रास्फीति की चिंता से आम आदमी को क्या मिलने वाला? मनमोहन राज में ही मुद्रास्फीति की दर माइनस तक जा चुकी। पर महंगाई कभी कम नहीं हुई। अबके भी मुद्रास्फीति की दर घट रही। सो कांग्रेस इतराते हुए कह रही- सरकार के ठोस कदमों का नतीजा आने लगा। पर महंगाई तो बाजार जाने पर मालूम पड़ती। एयरकंडीशंड कमरों में बैठने वाले नेताओं को महंगाई क्या मालूम। पर महंगाई के बहाने अपने वेतन-भत्ते जमकर बढ़ाने वाले। तभी तो दोनों पक्षों ने सांठगांठ कर ली। वरना शुक्रवार को बीजेपी-एनडीए हुंकार भर रहे थे, नियम 184 के तहत ही बहस चाहिए। शुक्रवार को ही सोमवार के लिए नोटिस लगा दिया। पर सोमवार संसद की कार्यवाही शुरू होने से पहले ही विपक्ष की हुंकार गीदड़ भभकी बनकर रह गई। सोमवार को प्रणव मुखर्जी ने नाश्ते पर विपक्षी नेताओं को न्योता दिया। गतिरोध तोडऩे का मजमून पेश किया। तो विपक्ष भी बिना हील-हुज्जत के मान गया। पर सवाल, जब इसी प्रस्ताव से मानना था, तो सत्र से पहले ही स्पीकर की बात क्यों नहीं मानी? मीरा कुमार ने भी तो आसंदी से प्रस्ताव का फार्मूला दिया था। फिर हफ्ते भर की नौटंकी क्यों? अब बीजेपी की दलील, महंगाई पर हफ्ते भर हंगामा कर लिया। सो अब सीबीआई, भोपाल गैस कांड, भारत-पाक वार्ता जैसे कई मुद्दे संसद में उठाने हैं। बीजेपी के शीर्ष नेताओं ने आडवाणी के साथ बैठकर पहले मंत्रणा की। तो तय कर लिया था, अब सदन चलने देंगे। अगर सरकार नियम 184 नहीं मानी, तो 193 के तहत की बहस का बॉयकाट करेंगे। ताकि संसद सुचारु रूप से चल सके। आडवाणी तो शुक्रवार को राष्ट्रपति भवन में ही गांडीव समर्पण कर चुके। इधर सरकार ने भी ठान लिया था, नियम 193 के सिवा कुछ मंजूर नहीं होगा। अगर विपक्ष संसद नहीं चलने देगा, तो हंगामे में ही कामकाज निपटा चलते बनेंगे। सो सोमवार को नियम 342 के तहत बहस करने, फिर आसंदी से सदन की भावना व्यक्त करने का फार्मूला आया। तो सभी दल खुशी-खुशी राजी हो गए। अब मंगलवार को लोकसभा में जुबानी दंगल होगा। राज्यसभा बुधवार को सुध लेगी। सो झेंप मिटाने को विपक्ष कह रहा- न सरकार जीती, न विपक्ष हारा। सचमुच हारा, तो आम आदमी। सो सोमवार को संसद सुचारु ढंग से चली। तो जातीय जनगणना, जम्मू-कश्मीर की आग का मुद्दा उठा। पर सरकार से क्या उम्मीद करेंगे। जब छह साल से बढ़ रही महंगाई की फिक्र नहीं, तो डेढ़ महीने से जल रहे जम्मू-कश्मीर की क्या फिक्र करेगी। सो संसद अब सिर्फ नाम की सर्वोपरि, असल में राजनीतिक दलों के लिए उपकरण भर रह गई। तभी तो हंगामा संसद में किया, समझौता नाश्ते की टेबुल पर। कल तक विपक्ष कह रहा था- पहले महंगाई की चर्चा, बाकी काम बाद में। ऐसी रार ठनी, लगा, अब तो महंगाई दम तोड़ देगी। पर वोटिंग वाले नियम की मांग करते-करते विपक्ष ऐसा लुढक़ा, अपना ‘वोट’ भी सत्तापक्ष को दे दिया।
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02/08/2010