Thursday, September 30, 2010

दिलों का फासला भी मिट जाए, अब हो ऐसी सुलह

'तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय, न तुम हारे, न हम हारे।' गर सचमुच फैसले को दोनों पक्ष इसी नजरिए से देखें। तो अयोध्या पर अदालती फैसला न सिर्फ एतिहासिक, अलबत्ता राष्ट्रीय एकता की अनूठी मिसाल होगा। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच के तीनों जजों ने राम जन्मभूमि को कानूनी मान्यता दी। तो बाकी अन्य पक्षों को भी निराश नहीं किया। भले तीनों जजों की राय में फर्क हो। पर फैसला यही, विवादित जमीन तीन हिस्सों में बांटी जाए। रामलला विराजमान यानी मूर्ति वाली जगह का हक भगवान राम को। तो सीता रसोई और राम चबूतरा का हक निर्मोही अखाड़े को। चूंकि लंबे समय से मुस्लिम भी इबादत करते आ रहे। सो एक हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को भी। यों शुक्रवार को रिटायर हो रहे बैंच के एक जज धर्मवीर शर्मा ने तो समूची जमीन भगवान राम की बताई। पर जस्टिस एस.यू. खान और सुधीर अग्रवाल ने तीन हिस्से में बांटने का फैसला दिया। भारतीय पुरातत्व विभाग की रपट से माना गया, मस्जिद किसी इमारत को तोडक़र बनाई गई थी। सो इस्लामिक मान्यता के तहत ऐसी जमीन पर मस्जिद को मान्यता नहीं दी गई। पर दस हजार पन्नों के फैसले में कोर्ट का लब्बोलुवाब यही, रामलला की पूजा अनंतकाल से होती आ रही। सो मंदिर भी बने। निर्मोही अखाड़े को सीता रसोई और राम चबूतरा का कब्जा बरकरार रखा। तो लंबे समय से मुस्लिमों की इबादत को मान वक्फ बोर्ड को भी जमीन में हिस्सा दिया गया। यानी कानून से परे हट अदालत ने शायद पहली मर्तबा आस्था को महत्व दिया। जिस पक्ष का जैसा था, उसको करीब-करीब वैसा ही मिल गया। सचमुच इतने उलझे हुए केस का इससे सुलझा हुआ हल नहीं हो सकता। सो सभी पक्षों को अब लचीला रुख अपनाना चाहिए। अदालती फैसले को आधार बना नए सिरे से बातचीत हो। तो सिर्फ विवादित जमीन ही नहीं, समूची 70 एकड़ जमीन का फैसला हो जाए। सो अब केंद्र सरकार की भूमिका भी अहम, जिसने 1993 में 67 एकड़ जमीन अधिग्रहित कर ली थी। हाईकोर्ट ने तो रामलला और निर्मोही अखाड़े की जमीन तय कर दी। पर मुस्लिमों की इबादत की जगह तय नहीं की। अलबत्ता तीनों के लिए बराबर व्यवस्था करने का जिम्मा सरकार पर छोड़ दिया। अगर केंद्र चाहे, तो अब दोनों पक्षों में समझौता कराने की पहल कर सकता। भले दोनों पक्ष फैसले से पूरी तरह संतुष्ट नहीं। पर पूरी तरह असंतुष्ट भी नहीं। सो सरकार ईमानदार और प्रभावी पहल करे, तो विवाद हाईकोर्ट के फैसले से ही खत्म हो सकता। यों फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट जाने का एलान कर दिया। तो मंदिर के पैरोकारों में भी कुछ ऐसे कट्टरपंथी, जो मस्जिद के लिए एक तिहाई जमीन के फैसले को चुनौती देने के मूड में। यों फैसले के फौरन बाद संघ-बीजेपी ने इस पर चुप्पी साध ली। सर संघचालक मोहन भागवत ने यह फैसला संत उच्चाधिकार समिति पर छोड़ दिया। पर भागवत-आडवाणी दोनों अपनी खुशी का इजहार चतुराई से कर गए। कहा- हिंदुओं का हक साबित हो गया। सो अब गर्भगृह पर भव्य राम मंदिर बने। हाईकोर्ट का फैसला राष्ट्रीय एकता का नया अध्याय और सांप्रदायिक सौहार्द का नया युग। मोहन भागवत ने फैसले पर खुशी को स्वाभाविक बताया। पर संयम की अपील करते हुए कहा- कोई ऐसा कुछ न करे, जो दूसरे की भावना को ठेस पहुंचाए। संघ परिवार ने मुस्लिम समाज से भूली ताहि बिसारने की अपील करते हुए मंदिर निर्माण में जुटने का न्योता भी दिया। पर संघ की ओर से जारी बयान में मंदिर आंदोलन में मारे गए लोगों की कुर्बानी का भी जिक्र कर गए। यों देश की जनता की परिपक्वता को अपना भी सलाम, जिसने फैसले को न्याय के तौर पर कबूला। फिर भी राजनीति नहीं होगी, ऐसा कहना बेमानी। मायावती ने तो फैसले के फौरन बाद पीएम की चिट्ठी लिख दी। केंद्र की ओर से 67 एकड़ जमीन अधिग्रहण का इतिहास याद कराते हुए माया ने फैसले के मुताबिक यथोचित कार्रवाई करने की मांग की। उन ने बार-बार दोहराया, इस विवाद में जो भी करना है, वह केंद्र ही करेगा। यानी माया ने एक पक्ष की थोड़ी निराशा को देख अपना पल्ला फौरन झाड़ लिया। ताकि कहीं कुछ गड़बड़ हो, तो ठीकरा केंद्र के ही सिर फूटे। पर कांग्रेस कोई बीजेपी-बीएसपी की तरह गबरू जवान पार्टी नहीं। अलबत्ता सवा सौ साल पुरानी तजुर्बेकार पार्टी। सो मामले की संवेदनशीलता देख हर बार की तरह इस बार भी फैसले का स्वागत किया। कांग्रेस के जनार्दन द्विवेदी आध्यात्मिक गुरु बन गए। रामचरित मानस की चौपाई का जिक्र किया- प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्था, न मम्ले वनवास दु:खत:। मुखाम्बुजश्री रघुनंदनस्य मे, सदास्तु सा मञ्जुलमंगलप्रदा।। अर्थात भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ या वनवास हुआ। पर चेहरे पर कभी खुशी या दुख नहीं। अलबत्ता स्थिरप्रज्ञ की तरह रहे। यानी राम को शरणागत होकर कांग्रेस ने संयम की अपील की। सचमुच देश के लिए इम्तिहान का दौर। सुबह से ही फैसले के प्रति देश की निगाहें टिकी हुई थीं। हर तरफ बापू के भजन, ईश्वर-अल्लाह.... सन्मति दे भगवान की धुन बजती रही। फैसले के बाद मीटिंगों, बयानबाजियों का दौर चला। पीएम ने भी देश की जनता पर भरोसा जताया। देश की जनता ने भी परिपक्वता दिखा राजनीति की रोटी सेकने वालों को बतला दिया, 1992 का दौर अब खत्म हो चुका। यानी अयोध्या पर फैसला भी आ गया, दोनों समुदायों के बीच फासला भी नहीं बढ़ा। सो अब अपील, जो भी फासला बचा, सुलह के प्रयासों से ही मिट जाए। और किसी को सुप्रीम कोर्ट जाने की जरूरत न पड़े।
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30/09/2010

Wednesday, September 29, 2010

तो क्यों न नेहरू और काटजू के फार्मूले पर हो अमल?

ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। अयोध्या हो या कॉमनवेल्थ, अब बापू भजन ही आसरा। अयोध्या विवाद में गुरुवार को नया अध्याय जुड़ेगा। सो फैसले से पहले शांति की अपील के साथ-साथ सुरक्षा के भी पुख्ता बंदोबस्त हो गए। अब इंतजार तीन जजों की बैंच के फैसले का। कॉमनवेल्थ गेम्स के आगाज से ठीक पहले फैसले ने सरकार के हाथ-पांव फुला रखे। सो बुधवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने बापू भजन सुना शांति की अपील की। सरकार को पूरा भरोसा, फैसला जो भी हो, आखिर में गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में ही आएगी। पर हाईकोर्ट के फैसले से राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में कुछ अनहोनी न हो, यही दुआ कर रही सरकार। अपनी भी कामना यही, इतिहास खुद को न दोहराए। यों कॉमनवेल्थ से पहले अयोध्या से भले सरकार को राहत मिल जाए। पर गेम्स के ठीक बाद कॉमनवेल्थ का भूत सरकार को डराएगा। झलक तो बुधवार को अपने सुप्रीम कोर्ट ने दिखा दी। सुनवाई हो रही थी दिल्ली के जंतर-मंतर के निकट एनडीएमसी के दफ्तर से जुड़े अवैध कंस्ट्रक्शन के मामले पर। कानूनन संरक्षित स्मारकों के सौ मीटर के दायरे में कंस्ट्रक्शन नहीं हो सकता। पर एनडीएमसी ने खुद को कोतवाल मान वह सब कर लिया, जिसकी कानून इजाजत नहीं देता। सो सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमसी को जमकर लताड़ा। कहा- कोई इतना बेदिमाग और कानून विरोधी कैसे हो सकता। क्या इतिहास और संविधान के प्रति आपका कोई सम्मान नहीं? क्या सिर्फ पैसा ही सब कुछ हो गया? अगर यही करना है, तो क्यों नहीं जंतर-मंतर को होटल या मॉल में बदल देते। ताकि भारत की चमक दिख सके। सरकारी अमला जब कानून को बपौती समझ ले। तो सुप्रीम कोर्ट का बिफरना लाजिमी। सो कोर्ट की टिप्पणी एनडीएमसी से आगे बढक़र कॉमनवेल्थ तक पहुंच गई। कोर्ट ने चेतावनी दे दी, वह आंख मूंदकर नहीं बैठने वाली। सत्तर हजार करोड़ पानी में बहा दिए गए। फिर भी नया पुल ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। कोर्ट की तल्खी यहीं नहीं थमी। कहा- इस देश में बिना काम के पेमेंट हो जाते। सत्तर हजार करोड़ की कोई जिम्मेदारी नहीं। भ्रष्टाचार का बोलबाला हो चुका। जिस कॉमनवेल्थ को अभी सार्वजनिक उद्देश्य बताया जा रहा, पंद्रह अक्टूबर के बाद निजी उद्देश्य हो जाएंगे। सचमुच सीवीसी और कैग की ओर से सवाल उठाए जाने के बाद भी कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजकों ने परवाह नहीं की। उखाडऩे-लगाने के खेल में इतना समय गंवाया कि अब शीला-कलमाड़ी-गिल-जयपाल चौबीस घंटे की जगह अड़तालीस घंटे काम कर रहे। सूरज कब निकल रहा, कब डूब रहा, इन चारों को मालूम नहीं। पर सचमुच दिमाग लगाकर आयोजकों ने काम किया होता। तो आज न काम पड़े होते, न देश की फजीहत होती। पर क्या सचमुच कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद भ्रष्टाचारियों को सजा मिलेगी? सुप्रीम कोर्ट भले सख्ती दिखाए। पर जांच तो सीबीआई या सरकार की एजेंसी से ही करानी होगी। तब इस बात की गारंटी कौन देगा कि इस केस का भी हश्र लालू-माया-मुलायम के केस जैसा नहीं होगा। लीपापोती में राजनेता और नौकरशाह चोर-चोर मौसेरे भाई ही नहीं, दो जिस्म, एक जान हो जाते। देश की यही बड़ी विडंबना, भ्रष्टाचार कण-कण में व्याप्त हो चुका। पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। बुधवार को ही बीसीसीआई ने जगमोहन डालमिया से आरोप वापस लेने का फैसला किया। यानी राजनीति में कोई, कब दोस्त और कब दुश्मन बन जाए, पता नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सोलह आने सही कहा- सरकारी अमले में अब कोई नैतिकता नहीं, सिर्फ पैसा ही सब कुछ। पर सुप्रीम कोर्ट अपनी व्यथा का इजहार कई बार कर चुका। सनद रहे, सो बताते जाएं। सात मार्च 2007 को चारा घोटाले के मामले में जस्टिस एस.बी. सिन्हा और जस्टिस मार्कंडेय काटजू सुनवाई कर रहे थे। घोटाले के आरोप के बाद बर्खास्त कर्मचारी बृजभूषण प्रसाद को विशेष अदालत से सजा हो चुकी थी। सो सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए वकील ने दलील दी कि बृजभूषण तो सिर्फ बजट एकाउंट आफीसर थे। सो जस्टिस काटजू भडक़ गए। कहा- तुम्हें फंड का ऑडिट करना था, पर तुमने क्या किया? हर कोई इस मुल्क को लूट लेना चाहता है। बस एक ही उपाय बचा है कि भ्रष्ट लोगों को लैम्प पोस्ट पर लटका फांसी दे दी जाए। पर क्या करें, कानून हमें इसकी इजाजत नहीं देता। वरना कुछ भ्रष्ट लोगों को सरेआम फांसी की सजा देते, ताकि लोग भ्रष्टाचार के नाम से डरें। जो पीड़ा सुप्रीम कोर्ट के जज ने उड़ेली। हू-ब-हू यही बात देश के पहले पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू भी कह चुके। उन ने भी कहा था- भ्रष्टाचारियों को सबसे पास के लैम्प पोस्ट से लटका कर फांसी दे देनी चाहिए। पर जब नेहरू के काल में भ्रष्टाचार नहीं रुका, तो अब कैसी उम्मीद। कॉमनवेल्थ के नाम पर भ्रष्टाचार का जो खेल हुआ, वह दिल्ली की जनता ने तो खुली आंखों से देखा। हर उखडऩे और बिछने वाले टाइल्स को जुबान मिल जाए, तो भ्रष्टाचार की सत्यकथा सामने आ जाएगी। पर देश में सत्य और अहिंसा की फिक्र अब किसे? कहीं अयोध्या के नाम पर रोटी सेकने के लिए अहिंसा की बलि देने को तैयार। रही बात सत्य की, तो सचमुच वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ ही 30 जनवरी 1948 को खत्म हो चुकी। सो कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर मची लूट का सच सामने आएगा, इसकी गुंजाइश कम। यों राजनीति के लिए हायतौबा जरूर मचेगी। पर फिर आखिर में वही सवाल, कॉमनवेल्थ का भ्रष्टाचार देश की साख को बट्टा लगा गया। सो सच माइने में यह देश के साथ गद्दारी। तो क्यों न अब नेहरू और काटजू के फार्मूले पर अमल हो।
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Tuesday, September 28, 2010

‘यूपीए चैनल’ पर रामायण और ‘महाभारत’ एक साथ

अयोध्या विवाद में नई इबारत लिखने का रास्ता खुल गया। सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे के खामखां रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका खारिज कर दी। सो हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच अब 30 सितंबर को फैसला सुनाएगी। पर फैसले से समाज में फासला न बढ़े। सामाजिक सौहार्द कायम रहे, सो सभी पक्षों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया। फैसले को कबूल करने और शांति बनाए रखने की अपील भी की। सो अब सबकी निगाहें इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच पर टिक गईं। अब फैसला क्या होगा, यह बाद की बात। पर राजनीति की बिसात हफ्ते भर में कुछ अधिक बिछ गईं। बीजेपी-संघ परिवार ने चुप्पी तोड़ी, तो दूसरे पक्ष ने भी जल्द फैसले का दबाव बनाया। सुप्रीम कोर्ट में सिवा निर्मोही अखाड़े के कोई फैसला टालने को राजी नहीं हुआ। सो केंद्र सरकार ने भी दोहरा रुख अपनाया। अटार्नी जनरल जी.ई. वाहनवती ने दलील दी- बातचीत से समाधान निकले, इससे अच्छी बात नहीं हो सकती। पर कानूनी प्रक्रिया में भी अनिश्चितता नहीं रहनी चाहिए। यानी त्रिपाठी से सांठगांठ से केंद्र ने दूरी दिखा दी। सो कोर्ट ने प्रक्रिया में दखल देने से इनकार कर दिया। त्रिपाठी को वक्त से उलटी दिशा में चलने वाला करार दिया। सो अयोध्या मामला अब एक कदम आगे बढ़ेगा। तो फिर सुप्रीम कोर्ट में आना तय। फैसला किसी के लिए खुशी, तो किसी को गम देगा। पर खुशी या गम में कोई बलवा न हो। सो एहतियातन तैयारियां हो गईं। केंद्र सरकार ने फौरन एडवाइजरी जारी कर देश भर में शांति बरतने की सलाह दी। यूपी को अर्धसैनिक बलों की 52 कंपनियां देने का फैसला हुआ। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र समेत 19 संवेदनशील जगहों की पहचान कर विशेष तैनाती का फैसला हुआ। देश भर के आठ ठिकानों पर वायुसेना के विमान तैनात रहेंगे। जो दस मिनट में मौके पर पहुंचने में सक्षम। केंद्र सरकार की एडवाइजरी में लोगों से फैसले पर खुशी न मनाने की भी अपील। यूपी की मायावती सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के फौरन बाद दो लाइन का नोट जारी कर दिया। गड़बड़ी करने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा। यों पिछले साठ साल में अयोध्या की सरयू नदी में बहुत पानी बह चुका। अगर छह दिसंबर 1992 को भी देखें, तो अठारह साल बीत चुके। तबसे अब तक पीढिय़ां बदल चुकीं। अब युवा वर्ग मंदिर-मस्जिद के झमेले से अधिक देश की तरक्की की ओर उन्मुख। पर नई पीढ़ी की सोच से जिन लोगों की राजनीतिक दुकान बंद होती दिख रही। सचमुच उनके इरादे न तब नेक थे, न अब। रणनीति यही बन रही- फैसला कुछ भी हो, अपने वोट बैंक के हिसाब से भुनाएंगे। यानी राम-रहीम के नाम पर वोट बटोरने का गुणा-भाग करने में कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं। संघ-विहिप ने सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी के बाद फिर वही राग अलापा। अदालती फैसला तो हो, पर भगवान राम दुनिया की सभी अदालतों से ऊपर। राम को आस्था का विषय बताया। पर अयोध्या में मंदिर-मस्जिद की ठेकेदारी करने वालों ने क्या कभी उस नगरी की सुध ली। जहां इमारतें खंडहर, सडक़ें बदहाल, बाकी पूजा स्थल चीख-चीख कर अपना कसूर पूछ रहे। अब सोचो, जब भगवान या खुदा आस्था के मुद्दे। तो जमीन के लिए ऐसी कटु लड़ाई क्यों? अब संघ परिवार की दलील देखिए। कोर्ट तो 2.77 एकड़ जमीन पर फैसला सुनाएगा। पर मंदिर के लिए तो समूची 70 एकड़ जमीन चाहिए। यानी केंद्र की ओर से अधिग्रहीत 67 एकड़ जमीन के लिए सोमनाथ की तर्ज पर कानून बनाने की मांग। सो भले कोर्ट के फैसले के बाद पहले जैसा बलवा न हो। पर धर्म के ठेकेदारों ने इस कदर जाल बुन रखा, सामाजिक तनाव का वातावरण बनेगा। सो चुनौती केंद्र और राज्य सरकारों की। अगर वक्त रहते खतरा भांप असामाजिक तत्वों पर काबू पा लिया। तो तथाकथित स्वयंभू ठेकेदारों की मंशा धरी रह जाएगी। सचमुच यूपीए सरकार के लिए अग्नि परीक्षा की घड़ी। देश की सुरक्षा में लगे जवान कई मोर्चों पर लड़ रहे। कश्मीर में अलगाववाद, तो कई राज्यों में नक्सलवाद के खिलाफ जंग चल रही। पर सबसे बड़ी चुनौती कॉमनवेल्थ गेम्स कराने की। हाल ही में जामा मस्जिद के पास हुई फायरिंग की घटना से किरकिरी हो चुकी। सो कॉमनवेल्थ की सुरक्षा भी अभेद्य बनाने की तैयारी हो गई। सुखोई से लेकर मिग-21 तक। मानव रहित विमान के जरिए 24 घंटे निगरानी की व्यवस्था। पर संयोग कहें या कुछ और, अयोध्या का फैसला 24 सितंबर को आना था। अब गुरुवार को फैसला आएगा। इतवार से कॉमनवेल्थ गेम्स का आगाज। यानी कॉमनवेल्थ रूपी महाभारत से जूझ रही सरकार को अब फिक्र, कहीं अयोध्या की रामायण पर कोई ‘महाभारत’ न छिड़ जाए। वैसे भी खेल के महाभारत में आयोजकों ने देश की भद्द तो पिटवा ही दी। अब कहीं अयोध्या के फेर में कुछ गड़बड़ हुई। तो खेल का राम ही राखा। सचमुच यूपीए सरकार के लिए अयोध्या और कॉमनवेल्थ किसी चुनौती से कम नहीं। सो एक बार फिर वही पुरानी अपील। फैसले का सम्मान हो, पर दिलों के बीच फासला न बढ़े। देश की जनता को शांति और धैर्य रखने की जरूरत। किसी के बहकावे या उकसावे में आकर अपना ही नुकसान करेंगे। राजनेताओं का क्या, उनकी तो आदत। जब भी मौका मिलता, उल्लू सीधा कर कुर्सी से चिपक जाते। और फिर राम-खुदा के नाम पर राजनीति की रोटी सेकते रहते। सो पीएम से लेकर देश का हर तबका यही अपील कर रहा- शांति बनाए रखें।
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28/09/2010

Monday, September 27, 2010

पटरी पर कॉमनवेल्थ, मुहाने पर गौरव!

अब कॉमनवेल्थ की पटरी पर शीला-गिल-कलमाड़ी-जयपाल एक्सप्रेस दौडऩे लगी। चारों ट्रेन रास्ते में कहीं फिर तफरी न मारने लगें। सो पैरलल लाइन पर मनमोहन की राजधानी चल रही। पर विवाद है कि थमने का नाम नहीं ले रहा। कॉमनवेल्थ को शाप देने वाले कांग्रेसी दुर्वासा मणिशंकर अय्यर तो सोमवार को विदेश चले गए। कॉमनवेल्थ का बेड़ा गर्क होने की भविष्यवाणी पहले ही कर चुके। सो मणिशंकर अपनी आंखों के सामने भविष्यवाणी सच होते नहीं देखना चाहते। पर दिल में अभी भी वही बात, काश, कॉमनवेल्थ का बेड़ा गर्क हो जाए। यों मणिशंकर का लंदन जाना भले संयोग हो। पर दिलचस्प पहलू बताते जाएं। जब 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया, तब भी मणि भाई लंदन में थे। बतौर छात्र मणिशंकर ने कम्युनिस्टों के लिए खूब चंदे इकट्ठे किए थे। पर मणिशंकर की मति मणि ही जानें, फिलहाल फिक्र देश की साख की। सो आखिरी छह दिनों में सरकारी अमला छककर काम कर रहा। शीला खुद दिन में चार-छह दफा खेल गांव के चक्कर लगा रहीं। पर सच कहें, कॉमनवेल्थ गेम्स के अपने आयोजनों ने देश का बेड़ा गर्क कर दिया। कहीं गंदगी का अंबार, तो कहीं खिलाड़ी के बैठने से ही बैड टूट रहे। खेल गांव की लिफ्ट यमुना की मार झेल रही। तो कहीं कमरे में सांप निकल रहे। फिर भी कलमाड़ी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं। तुर्रा देखिए, सोमवार को बोले- साफ-सफाई करना मेरा काम नहीं। पर कोई पूछे, क्या सिर्फ मलाई मारना ही काम? आखिर आयोजन समिति का अध्यक्ष क्या झक मारने के लिए बने? अगर वक्त पर शहरी विकास मंत्रालय या दिल्ली सरकार या एमसीडी ने काम पूरा करके नहीं दिया। तो कलमाड़ी ने केबिनेट सचिव या पीएम से बात क्यों नहीं की? क्या इसी दिन का इंतजार कर रहे थे कलमाड़ी? सचमुच ये आयोजक देश की इज्जत के दु:शासन बन गए। अब देश के लिए गौरव का कॉमनवेल्थ फजीहत की वजह बन रहा। सो मनमोहन की नींद उसी तरह अब टूटी, जैसे द्रोपदी के चीर हरण के वक्त कौरवों की सभा में अट्टहास से धृतराष्ट्र द्रवित दिखे। तलत महमूद के गीत की तरह मनमोहन अब होश में आए। पर सवाल, सब कुछ लुटा के होश में आए, तो क्या किया। दिन में अगर चिराग जलाए, तो क्या किया। अगर मनमोहन यही चिराग साल भर पहले भी जलाते। तो आज कॉमनवेल्थ गेम्स में दूधिया रोशनी होती। बदनामी की काली छाया नहीं। पर देर से ही सही, अब करीब-करीब सब दुरुस्त होता दिख रहा। भले कुछ जगहों पर अपना देशी जुगाड़ काम आ रहा। जहां-जहां काम पूरे नहीं हुए, बड़े-बड़े फ्लैक्स बोर्ड लगाकर गंदगी को ढकने और सुंदरता बिखेरने का काम हो रहा। खेल गांव में जो भी कमियां पाई जा रहीं, फौरन दुरुस्त कराई जा रहीं। एक दिन में चौबीस घंटे नहीं, अड़तालीस घंटे काम कर रहे। पर मीन-मेख निकालने वाले विदेशी अपनी हरकतों से बाज कहां आएंगे। भारत को नीचा दिखाने की मानसिकता दुनिया के कई देशों ने अभी तक नहीं छोड़ी। पर सबसे अहम बयान कॉमनवेल्थ गेम्स फैडरेशन के सीईओ माइक हूपर का। जिन ने पहले कॉमनवेल्थ के लिए बनी विशेष लेन को चौबीस घंटे रिजर्व रखने की जिद पकड़ी। अपनी सरकार ने ट्रेफिक का हवाला देकर इनकार किया। तो हूपर ने समस्या के लिए दिल्ली की बेतरतीब जनसंख्या पर उंगली उठा दी। कॉमनवेल्थ की तैयारियों में कमी के लिए भारत सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। पर आलोचना हुई, तो कलमाड़ी एंड कंपनी का नाम लिया। अपने बयान से पलट गए। पर माइक हूपर के बड़े यानी फैडरेशन के अध्यक्ष माइक फेनेल ने हूपर का बचाव किया। सारा दोष अपने नेताओं की तरह मीडिया के सिर मढ़ दिया। पर फैडरेशन के माइक बंधुओं को तैयारियों में कमी आज ही नहीं दिखी। सो सवाल, फैडरेशन ने डे-टू-डे मानीटरिंग क्यों नहीं की? सनद रहे, सो माइक बंधुओं समेत आपको भी बताते जाएं। जब आठ अक्टूबर 2009 को 71 देशों के डेलीगेट्स ने अपनी तैयारियों का जायजा लिया था। तब दो दिन पहले से भडक़ने वाले डेलीगेट्स शाम होते-होते संतुष्ट हो गए थे। मौका-मुआइने से पहले फैडरेशन के मुखिया फैनेल ने मेजबानी छीनने तक की चेतावनी दी थी। सो सवाल, जब पिछले साल अक्टूबर में ही हालात इतने खराब होने की रपट फैनेल तक थी। तो फैनेल ने उसके बाद क्या किया? आखिर ऐसा क्या जुगाड़ हुआ, जो फैनेल तब तैयारियों के प्रति आश्वस्त हो गए? पर माइक बंधुओं की छोडि़ए। कमी सचमुच अपनी। टीवी पर सोमवार को शीला दीक्षित का चार साल पुराना एक बयान दिखा। तब शीला से पूछा गया था- गेम्स में सिर्फ चार साल बचे हैं, काम कैसे पूरा होगा? तो इतराती शीला ने कहा था- ब्रह्मा ने तो सिर्फ छह दिन में पूरी सृष्टि रच दी थी। सोचिए, तब आयोजन से जुड़े सभी महकमों ने फुर्ती दिखाई होती, तो आज विदेशी तो छोडि़ए, कोई भारतीय भी उंगली नहीं उठा पाता। पर अपने आयोजकों ने फैडरेशन के आगे ऐसे घुटने टेके, मानो माइक बंधु अब देश के गौरव को लेन बनाकर उस पर दौड़ेंगे। माइक हूपर ने सोमवार को बेहिचक कह दिया- मुझे भारत के गौरव की फिक्र नहीं। मेरी प्राथमिकता सफल खेल कराने की। पर विवाद अभी खत्म नहीं। तैयारी पटरी पर लौट आई। तो उद्घाटन-समापन समारोह की राजनीति शुरू हो गई। यानी अपने आयोजकों ने देश के लिए गौरव के आयोजन कॉमनवेल्थ को कड़वा घूंट बना दिया।
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27/09/2010

Friday, September 24, 2010

गिल की उड़ी गिल्ली, तो जयपाल हुए ‘रेड्डी’

पंचों की राय सिर-माथे, पर पतनाला वहीं रहेगा। अयोध्या पर फैसला टलना अब दोनों पक्षों को साजिश लग रहा। सो शुक्रवार को बीजेपी-विहिप ने चुप्पी तोड़ दी। विहिप ने फैसले के सम्मान की बात तो की। पर साधु-संतों की अहम बैठक के बाद एलान हो गया। विवादित स्थल पर जैसे भी हो, सिर्फ मंदिर बनेगा। साथ में चेतावनी भी, अगर मंदिर के हक में फैसला नहीं आया। तो देश में जबर्दस्त विरोध होगा। अब देखिए, एक तरफ विहिप फैसला सुनाने की मांग कर रहा। तो दूसरी तरफ फैसला मंदिर के हक में ही चाहिए। कोई और फैसला मंजूर नहीं होगा। साधु-संतों की मीटिंग के बाद अशोक सिंघल बोले- भगवान राम दुनिया की सभी अदालतों से ऊपर। सो हम तो राम का आदेश मानेंगे। अब आप खुद सोचकर देखिए, तो मालूम पड़ जाएगा। समझौते की लाख कोशिशों के बाद भी समझौता क्यों नहीं हो पाया। सचमुच समझौते की मेज पर कोई भी पक्ष खुले मन से नहीं बैठा। अब विहिप को यह भी डर, कहीं ऐसा न हो, हाईकोर्ट जमीन का कुछ हिस्सा मंदिर वालों को दे, तो कुछ मस्जिद वालों को। सो साधु-संतों की बैठक में प्रस्ताव पारित कर कह दिया- हमें समूची 70 एकड़ जमीन चाहिए। परिसर का विभाजन और उसमें किसी दूसरे मजहब का पूजा स्थल नहीं बनेगा। पर बीजेपी अभी संयम बरते हुए। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया। तो शुक्रवार को बीजेपी कोर ग्रुप की मीटिंग हुई। आडवाणी हर साल की तरह सोमनाथ चले गए। पर बाकी वरिष्ठों ने दो लाइन की व्यापक अर्थ वाली टिप्पणी तैयार की। मीडिया से मुखातिब होने को सीधे अरुण जेतली भेजे गए। तो बोले- इकसठ साल से न्यायिक प्रक्रिया में जो देरी हुई, उससे अयोध्या में मंदिर निर्माण का विषय हल नहीं हो पाया। पर अब हम उम्मीद करते हैं कि और देरी नहीं होगी। मतलब, बीजेपी हो या विहिप, तेवर एक जैसे, सिर्फ भाषा अलग। बीजेपी-विहिप को अब लग रहा, केंद्र सरकार फैसला टलवाने के मूड में। रमेश चंद्र त्रिपाठी को भी दबी जुबान केंद्र का एजेंट बता रहे। सो बीजेपी-विहिप का बयान केंद्र को इशारा, अब संयम का और इम्तिहान न लो। पर सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की। अयोध्या जैसे संवेदनशील मुद्दे से निपटना खालाजी का घर नहीं। सो जैसे वाजपेयी राज में समझौते के नाम पर छह साल तक वार्ता-वार्ता खेलते रहे। अब अयोध्या की ओखली में कांग्रेस का सिर। सो समझौते को तरजीह दे रही। तब तो बीजेपी ने सत्ता में बने रहने के लिए राम मंदिर समेत अपने कोर मुद्दे त्याग दिए थे। सनद रहे, सो बता दें। बीजेपी ने 28-30 दिसंबर 1999 को चेन्नई अधिवेशन में एक संकल्प पारित किया था। आडवाणी ने चेन्नई घोषणा पत्र जारी किया। बोले- ‘यही घोषणा पत्र अब बीजेपी की आगे की सोच। राम जन्मभूमि समेत सभी विवादित मुद्दों को दरकिनार कर एनडीए के एजंडे को निष्ठापूर्वक लागू करना है।’ बीजेपी ने चेन्नई घोषणा पत्र के प्रारूप में स्पष्टï तौर पर अपने कार्यकर्ताओं को बताया- ‘हर कार्यकर्ता को यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि एनडीए के एजंडे को छोडक़र पार्टी का अपना कोई एजंडा नहीं।’ सो मंदिर की राजनीति से सत्ता तक पहुंची बीजेपी सुलझा नहीं सकी। तो फिर मध्य मार्गी कांग्रेस से उम्मीद क्यों? आखिर कांग्रेस फैसले की आग में खुद का वोट बैंक क्यों झुलसाए? सो वोट की खातिर फैसला लटकाने की कोशिश पहले भी हुई। अब भी हो रही और शायद आगे भी होती रहेगी। देश में अयोध्या के सिवा भी कई अहम मुद्दे, जो सीधे जनता की जिंदगी से जुड़े। यूपीए सरकार की ताजा चुनौती कॉमनवेल्थ गेम्स ठीक से निपटाने की। ताकि देश की साख पर बट्टा न लगे। सचमुच गेम्स के आयोजकों ने अब तक देश की किरकिरी कराई। पर आखिरी वक्त में पूरी ताकत झोंक काम करीब-करीब निपटा लिया। शुक्रवार को केबिनेट में एमएस गिल कुछ प्रजेंटेशन देना चाह रहे थे। पर खफा पीएम ने गिल की गिल्ली उड़ा दी। तैयारियों से जुड़े जीओएम के मुखिया जयपाल रेड्डी को झिडक़ी लगा कह दिया- अब तो रेड्डी हो जाओ। भारत सरकार ने आखिर में कड़े कदम उठाए। तो अब तक ना-नुकर करने वाले खिलाड़ी दिल्ली पहुंचने शुरू हो गए। न्यूजीलैंड की टीम ने आने से इनकार किया था। पर शुक्रवार को न्यूजीलैंड के पीएम ने बयान दिया। अगर वह एथलीट होते, तो दिल्ली जरूर जाते। सो टीम ने आने का एलान कर दिया। इंग्लैंड की टीम पहुंची, पर अभी खेल गांव में नहीं, होटल में रुकी। इंग्लैंड का उपनिवेश खत्म हो चुका। पर मानसिकता अभी भी वही। विदेशी खिलाड़ी और नेता शायद भारत की आंतरिक मजबूती को भूल रहे। यह नहीं भूलना चाहिए, गर हमारे आयोजकों ने गलती की। तो भारत की मीडिया ने ही कान मरोड़ा। अब जरा आस्ट्रेलिया ओलंपिक संघ के अध्यक्ष की टिप्पणी देखिए। कह दिया- भारत को कॉमनवेल्थ की मेजबानी देनी ही नहीं चाहिए थी। पर आस्ट्रेलिया ने शायद आईना नहीं देखा। आयोजन में कमी थी या कुछ और, हमने ही अपनों की क्लास ली। जो अधिकारी काम नहीं कर रहे थे, उनके होश ठिकाने लाए। उस आस्ट्रेलिया की तरह नहीं, जहां नस्लभेद के नाम पर भारतीयों को निशाना बनाया गया। पर भारत उस आस्ट्रेलिया की तरह नहीं। तैयारी में कमी थी, तो हमीं ने माना, हमने ही मिलकर दुरुस्त किया। आस्ट्रेलिया की तरह नहीं, जिसने नस्लभेद की शिकायत मानी ही नहीं। अब कोई पूछे, जब भारतीयों पर हमले हो रहे थे। तब आस्ट्रेलिया की कानून-व्यवस्था कहां थी? सचमुच कुछ देश ऐसे, जो भारत की प्रगति को देखना पसंद नहीं करते। दुनिया में भारत तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था बनने जा रही। तो साम्राज्यवादी मानसिकता वाले देश पचा नहीं पा रहे।
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24/09/2010

Thursday, September 23, 2010

गर नीयत हो साफ, तो सुलह नामुमकिन नहीं?

तो अयोध्या फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने ब्रेक लगा दी। अब 28 सितंबर को फिर सुनवाई होगी। तभी तय होगा, फैसला आ रहा या लटक गया। पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने हफ्ता भर फैसला टालने का आदेश दिया। तो हू-ब-हू जस्टिस धर्मवीर शर्मा जैसी दलील। सुप्रीम कोर्ट ने माना, गर समझौते की एक फीसदी भी गुंजाईश हो। तो मौका दिया जाना चाहिए। पर जैसे सुलह की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच में मतभेद। वैसा ही सुप्रीम कोर्ट में दिखा। जब 17 सितंबर को हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका को शरारतपूर्ण बता मामला खारिज किया। पचास हजार रुपए का जुर्माना भी लगाया। पर बैंच के तीसरे जज जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने समझौते की पहल में सहमति दिखाई। दोनों जजों की ओर से दिए गए फैसले पर असहमति दर्ज कराई। अब मामला सुप्रीम कोर्ट आया। तो बुधवार को जस्टिस अल्तमस कबीर और जस्टिस एके पटनायक की बैंच ने सुनावाई से इनकार कर दूसरी पीठ को भेजने को कहा। सो गुरुवार को मामला जस्टिस आरवी रवींद्रन और जस्टिस एच.एस. गोखले की बैंच के सामने आया। पर फैसला टालने को लेकर मतभेद। सो परंपरा के मुताबिक सभी पक्षों को नोटिस जारी किया गया। अब सभी पक्ष और एटार्नी जनरल भी मगंलवार को पहुंचेंगे। फिर सुप्रीम कोर्ट तय करेगा, फैसला टाला जाए या नहीं। यों फैसला टालने के पीछे कॉमनवेल्थ गेम्स की भी दलील दी जा रही। पर अहम पहलू, हाईकोर्ट के तीन जजों की बैंच में से एक जस्टिस धर्मवीर शर्मा इसी महीने रिटायर हो रहे। अगर तब तक फैसला नहीं हुआ। तो मामला 11 जनवरी 2010 की जगह पहुंच जाएगा। तब भी एक जज रिटायर हुए थे। यानी समूची कानूनी प्रक्रिया फिर से नई बैंच के सामने होगी। अगर जज को एक्सटेंशन दिया जाए, तो भी प्रक्रिया लंबी। सो कोई भी राह फिलहाल आसान नहीं। यों फैसले के बाद के माहौल की कोई गारंटी नहीं। सो सुप्रीम कोर्ट की पहल की मकसद यही, अनहोनी की स्थिति में कोई यह न कह सके कि कोर्ट ने सुलह का आखिरी मौका नहीं दिया। यों कहने वाले अब कह रहे, हालात से निपटना सरकार का काम। सो अदालत को तो अपना फैसला सुनाना चाहिए था। अब कोई कुछ भी कहे या भले किसी के मंसूबे पर पानी फिर गया हो। पर सुप्रीम कोर्ट की पहल संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर ही आया। सो कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया। तो चुनाव में भुनाने का मंसूबा पाले बैठी बीजेपी की बोलती बंद। अब लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ का संयोग नहीं बिठा पाए। हर साल की तरह सोमनाथ जाएंगे या नहीं, अभी ऊहापोह। आडवाणी ने ब्लॉग लिखकर कहा था- अयोध्या पर 24 सितंबर को फैसला आ रहा और यह एक संयोग कि 25 सितंबर 1990 को ही सोमनाथ से राम रथ यात्रा शुरु की थी। पर बीजेपी का संयोग सच में वियोग बन गया। उम्मीदवारों के चयन में अयोध्या फैसले का असर होना था। पर अब बीजेपी को उम्मीदवारों पर पहले ही मत्थापच्ची करनी होगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बीजेपी के रविशंकर प्रसाद हों या निर्मला सीतारमण, फैसले पर बोलती बंद। यों रविशंकर ने मन की पीड़ा उजागर कर ही दी। बोले, इस मामले में याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी के पीछे कौन लोग हैं, यह देखा जाना चाहिए। अब भले दोनों पक्ष समझौते की पहल को बेमानी बता रहे। समझौते की गुंजाईश से दूर भाग रहे। पर एक बात काबिल-ए-गौर, रमेशचंद्र त्रिपार्टी के इरादे को दोनों संदेह की नजर से देख रहे। सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी बोले- जब देश के तीन-तीन पीएम ने सुलह की कोशिश की, फिर भी कोई नतीजा नहीं निकला। तो ये रमेश चंद्र त्रिपाठी क्या सुलह कराएगा। सो जब दोनों पक्ष फैसला चाह रहे थे, तो ऐसा ही होना चाहिए था। पर जिलानी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया। बोले- जब साठ साल इंतजार किया, तो एकाध हफ्ते और सही। सचमुच फैसले पर रोक के बाद जिस तरह सभी पक्षों ने टिप्पणियां कीं, सुलह की गुंजाईश तो नहीं दिख रही। राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति की वकील रंजना अग्निहोत्री ने खुद को फैसले से आहत बताया। बोलीं- पूरे मामले में असमाजिक और तथाकथित राजनीतिक तत्वों ने वकीलों की मेहनत पर पानी फिरवा दिया है। यों सच मायने में सुलह के कई प्रयास हो चुके। हाईकोर्ट की बैंच ने भी सुनवाई पूरी करते वक्त 27 जुलाई को आखिरी पहल की थी। पर जब कोई पक्ष समझौते को राजी न हो। तो अदालत जबरन कुछ नहीं करा सकता। अब अदालती फैसला जो भी हो। पर अयोध्या जमीन विवाद को दोनों पक्षों ने सिर्फ प्रतिष्ठा का सवाल बना रखा। सो कभी भी सुलह की दिशा में ईमानदार पहल नहीं हो सकी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी ने एक और अहम टिप्पणी की। बोले- समझौते की पहल तो पहले भी हुई। पर समझौते के नाम पर हम सरेंडर नहीं कर सकते। आखिर समझौते के उचित बिंदू भी होने चाहिए। यानी जिलानी का इशारा साफ। अगर दोनों पक्ष समझौते के मूड से बैठे। तो समझौते की गुंजाइश। कोई तलवार दिखाकर समझौता नहीं कर सकता। बातचीत से बर्लिन की दीवार टूट सकती। तो अपने घर में ही दो दिलों की दरार क्यों नहीं भर सकती? सो कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने सुलह की जिम्मेदार पहल तो की। पर मजहब के ठेकेदारों का क्या भरोसा। जो लोगों को मजहब की दीवार में घेर इंसान को इंसान का दुश्मन बनाने की कोशिश करते रहते।
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23/09/2010

Wednesday, September 22, 2010

कॉमनवेल्थ के महाभारत में आयोजक ही दुशासन!

जिस देश को महात्मा ने अपने खून से सींचा। भारतवासियों को अपने देश पर गर्व। विविधता में एकता अपने देश की अमिट पहचान। पर 12 साल से दिल्ली की सीएम की कुर्सी पर बैठीं शीला दीक्षित को अब देश से नफरत हो रही। कॉमनवेल्थ गेम्स पर पानी फिर रहा। तो मैडम शीला और आयोजन से जुड़े कलमाडियों-जयपालों-गिलों के होश फाख्ता। मीडिया ने कॉमनवेल्थ की तैयारियों पर सत्य क्या बोल दिया। शीला ऐसे बिफरीं, मानो ‘सत्य’ बोलकर मीडिया ने गुनाह कर दिया हो। हिकारत भरी नजरों के साथ मीडिया पर बरसीं। बोलीं- ‘ऐसा देश नहीं देखा, जो अपने ही देश को बदनाम करे। ये मेरा, इनका या आपका गेम नहीं, देश का गेम है।’ यों सोलह आने सही, ये देश का गेम। पर यह भी सच, देश के इज्जत की डोर आयोजकों ने संभाल रखी। अगर आयोजक अपनी कमजोरी छिपाने की कोशिश करेंगे। तो मीडिया भला चुप क्यों बैठे। लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ यों ही नहीं माना गया। आखिर कब तक नेताओं को इस बात की छूट दी जाए कि वह देश को द्रोपदी बना खुद ‘दुशासन’ बने रहे? दुशासन बनने वाले नेता यह क्यों भूल जाते, तब भी लाज बचाने भगवान कृष्ण आए थे। अगर देश की इज्जत और आन-बान-शान पर कोई आंच आएगी, तो सबसे पहले मीडिया ही आगे आएगा। पर सवाल, जिन शीलाओं-कलमाडियों-जयपालों से काम नहीं संभल रहा, वे कुर्सी से चिपक उलटा मीडिया को भाषण क्यों पिला रहे? गेम्स से ठीक तेरह दिन पहले मुख्य आयोजन स्थल जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम के पास बना फूटओवर ब्रिज की तेरहवीं हो जाए। अगले दिन यानी बुधवार को स्टेडियम के भीतर की सीलिंग उखड़ जाए। तो क्या मीडिया इन नेताओं की पीठ थपथपाए? कुर्सी से जोंक की तरह चिपके नेताओं के अंधे और बहरेपन को कौन नहीं जानता। अगर मीडिया अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वाह न करे। तो हिटलर की नीति लागू करने में सत्ताधीश कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। आखिर शीला दीक्षित मीडिया और भारत देश से इतनी खफा क्यों? क्या महात्मा गांधी के इस देश में ‘सत्य’ बोलना गुनाह हो गया? क्या यह सच नहीं, कॉमनवेल्थ के जो काम 2004-05 से शुरु होने थे। वह 2008 में शुरु हुए? क्या शुरुआती साल में कॉमनवेल्थ के कमीशन तय हो रहे थे? सचमुच अपने देश में राजनीति-नौकरशाही की सांठगांठ ने कमीशनखोरी को प्रथा बना दिया। जहां कोई भी प्रोजैक्ट शुरु होने से पहले कमीशन तय किए जाते। ऊपर से नीचे तक कमीशन का अनुपात बनाया जाता। फिर बचे हुए धन में कांट्रेक्टर अपना मुनाफा निकाल काम करता। सो रोड हो, या पुल या ओवर ब्रिज या सीलिंग, वही हश्र होता। जो नेहरू स्टेडियम के अंदर-बाहर हुआ। पर नेताओं की नाकामी की आंच अब सचमुच देश की साख पर आने लगी। नामी-गिरामी एथलीटों ने गेम्स में आने से इनकार कर दिया। अपने बंदोबस्तों पर ऊंगली उठा दी। सौ मीटर रेस के वल्र्ड चैंपियन वोल्ट काफी पहले दिल्ली आने से इनकार कर चुके। फिर भी शीलाओं-कलमाडियों-जयपालों-एमएस गिलों ने अफसरशाही के भरोसे सबकुछ छोड़ दिया। अब नट यानी कलई ‘ढह’ और ‘गिर’ रहे। तो खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे वाली हालत। ओवर ब्रिज ढहने से 27 मजदूर घायल हो गए। जिनमें चार की हालत गंभीर। पर शीला-जयपाल और टीम कलमाड़ी के ललित भनोट की नजर में यह छोटी-मोटी घटना। सोचिए, उस हादसे में किसी टाटा-बिरला-अंबानी जैसे अमीरों की कार को खरोंच भी आ जाती। तो ऐसा हल्का बयान नहीं आता। शीला के बयान को देख-सुन अब कॉमनवेल्थ गेम नहीं ‘शेम-शेम’ कहने को मजबूर। बुधवार को शीला उवाच की बनागी देखिए। बोलीं- ‘आपलोगों को सकारात्मक चीजें नहीं दिखती। एक हजार क्षमता वाले बस स्टैंड बनवाए, जैसा दुनिया में कहीं नहीं। नेहरू स्टेडियम इतना भव्य बना, पर आप नहीं दिखा रहे।’ यानी मजदूरों का घायल होना शीला के लिए खास बात नहीं। सो दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को जमकर क्लास ली। मुआवजे की रकम बढ़ाने के आदेश दिए। सभी खेल स्थलों की जांच के लिए अफसरों को भेजने का हुक्म दिया। अब आप देख लो, कॉमनवेल्थ गेम्स में गड़बड़ी पर विधायिका यानी संसद, न्यायपालिका और मीडिया में आवाज उठ चुकी। तो क्या सिर्फ कार्यपालिका यानी शीला मंडली ही ईमानदार और देशप्रेमी? सो बीजेपी के वेंकैया ने भी हल्ला बोला। शीला-जयपाल को नसीहत दी, हल्के बयान देकर देश का नाम बदनाम न करें। उन ने 26 मामलों में भ्रष्टाचार की जांच की भी मांग की। पर अब तक शीला मंडली का बचाव करने वाली कांग्रेस को ‘ओवरब्रिज’ ने बता दिया। कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए बनी दीवारें भले कमजोर, पर भ्रष्टाचार की खाई बहुत गहरी। सो अभिषेक मनु सिंघवी बोले- ‘आप धैर्य रखिए, खेल अच्छे से होंगे और दोषियों की जिम्मेदारी भी तय होंगी।’ यानी कांग्रेस ने इशारा कर दिया। अगर कॉमनवेल्थ गेम्स पर देश को शर्मसार होना पड़ा। तो शीला हो या कलमाड़ी, कुर्सी छोड़ ‘कॉमन’ होना पड़ेगा। पर क्या अब तक देश की कम बदनामी हुई? कनाडा कॉमनवेल्थ गेम्स के एंड्रयू पिप ने टिप्पणी की, भारत के लिए अपनी चमक बिखेरने का मौका था। पर उसने कमियों को दूर करने के बजाए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदनामी मोल ले ली। सचमुच जब सीवीसी ने काम की क्वालिटी पर सवाल उठाए। तो पीएमओ तक से परदा डालने की कोशिश हुई। संसद में कलमाड़ी घिरे, तो गिल ने नतमस्तक होकर बचाव किया। अब उखड़ते इंतजामों पर मैडम शीला एंड कंपनी बिफर रही।
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22/09/2010

Monday, September 20, 2010

डेलीगेशन डाल-डाल, तो पात-पात अलगाववादी

फैसले से पहले फैसला देने वाले ही बंट गए। अयोध्या विवाद पर शुक्रवार को कोर्ट ने सुलहनामे की याचिका खारिज कर जुर्माना लगाया था। पर सोमवार को तीन जजों की बैंच में से एक जस्टिस धर्मवीर शर्मा ने शुक्रवार के फैसले पर असहमति जता दी। जस्टिस एसयू खां और सुधीर अग्रवाल की दलील से इतर जस्टिस शर्मा फैसले से एक दिन पहले तक सुलह की गुंजाइश देख रहे। जस्टिस शर्मा ने याचिकाकर्ता रमेश चंद्र त्रिपाठी पर लगाए जुर्माने की रकम को भी अनुचित ठहराया। यों जस्टिस शर्मा का फैसला अब महज एक टिप्पणी भर, क्योंकि बहुमत जज का फैसला ही लागू होगा। पर अंतिम फैसले से पहले जजों के सार्वजनिक मतभेद से पेचीदगी और बढ़ गई। संघ परिवार फिलहाल संयत रणनीति अख्तियार कर रहा। पर कांग्रेस के दिग्विजय सिंह को एतबार नहीं। बोले- इतिहास गवाह है, सो संघ-बीजेपी-वीएचपी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सरकार की ओर से एहतियातन तैयारी हो रही। माना, संघ परिवार पर कांग्रेस को भरोसा नहीं। तो सवाल, कांग्रेस की तैयारी पर कैसे भरोसा करें? जिस इतिहास की बात दिग्विजय सिंह कर रहे, उस वक्त भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। पिछले तीन महीने से कश्मीर घाटी झुलस रही। पर कांग्रेस या उसकी सरकार ने क्या तीर मार लिया? तीन महीने बाद ऑल पार्टी डेलीगेशन भेजने का फैसला हुआ। सोमवार को 42 मेंबरी टीम चिदंबरम की रहनुमाई में श्रीनगर पहुंच गई। पर सुबह से रात तक हुई चर्चाओं के बाद भी कशमकश जारी रही। फिर भी डेलीगेशन उम्मीद की कोई किरण नहीं छोड़ पाया। घाटी की सुलगी आग में सचमुच सबने रोटी सेकने की ठान ली। सो दिल्ली में बिना शर्त बातचीत की पैरवी करने वाली पीडीपी की महबूबा न डेलीगेशन में शामिल हुईं, न मिलीं। अलबत्ता अपने नुमाइंदे भेजे। सो महबूबा की नजर में मुद्दे की गंभीरता आप खुद देख लो। पर सिर्फ महबूबा ही नहीं, रोटी सेकने में नेशनल कांफ्रेंस भी पीछे नहीं रही। एनसी के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला खुद सीएम। तीन महीने से आग की लपटें नहीं बुझा पाए। सो अब उसी आग में रोटी सेकने आ गए। ऑल पार्टी डेलीगेशन पहुंचा समस्या के समाधान के लिए। पर नेशनल कांफ्रेंस ने फिर स्वायत्तता का पुराना राग अलाप दिया। जो हमेशा से इसी का चुनावी मुद्दा रही। एनसी ने 1996 के विधानसभा चुनाव में इसी मुद्दे पर दो तिहाई बहुमत हासिल किया था। फिर स्वायत्तता पर रपट देने के लिए डा. कर्ण सिंह की रहनुमाई में कमेटी बनाई गई। पर उन ने इस्तीफा दे दिया। सो बाद में फारुक अब्दुल्ला केबिनेट के गुलाम मोहिउद्दीन शाह को जिम्मेदारी सौंपी गई। रपट में 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने की सिफारिश हुई। भारत के संविधान के 21वें भाग में अनुच्छेद 370 के लिए लिखे अस्थायी शब्द को हटा विशेष शब्द जोडऩे की सिफारिश हुई। पर वाजपेयी सरकार के वक्त जब नेशनल कांफ्रेंस राजग का हिस्सा थी, तब भी चार जुलाई 2000 को केबिनेट ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा से पारित स्वायत्तता प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। केबिनेट ने माना था, प्रस्ताव मंजूर करने का मतलब पीछे की ओर लौटना होगा और ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा, जो देश की एकता के हित में नहीं। यानी एनसी हो या पीडीपी, हालात पर काबू पाने के बजाए वोट बैंक को संबोधित कर रहीं। भले घाटी में अलगाववादी खुलेआम पाकिस्तानी झंडा लहरा रहे। तमाम कफ्र्यू को धता बता फौजों पर पत्थरबाजी कर रहे। अलगाववादी तो बातचीत की मेज पर भी आने को तैयार नहीं। सचमुच अनुच्छेद 370 के तहत पंडित नेहरू ने कश्मीर को स्पेशल स्टेटस तो दिला दिया। पर क्या सभी मुख्य धारा में लौट आए? आज हालात पंडित नेहरू की सोच से बिलकुल उलट। घाटी में अलगाववादियों का मनोबल सिर चढक़र बोल रहा। सोचिए, उमर के दादा शेख अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 को स्थायी बनाने के मकसद से इसे देश के सभी राज्यों में लागू करने का दांव खेला था। अगर ऐसा होता, तो आज सिर्फ कश्मीर नहीं, समूचा देश सुलग रहा होता। अलगाववादियों पर नकेल कसने की ईमानदार पहल कभी नहीं हुई। सो मौका पाकर अलगाववादी अवाम को भडक़ाने में पीछे नहीं रहे। सोमवार को तीनों अलगाववादी नेता सैयद अलीशाह गिलानी, मीरवाइज और यासीन मलिक ने डेलीगेशन से मिलने से इनकार कर दिया। फिर भी डेलीगेशन के कुछ मेंबर अलग-अलग दल में तीनों से मिले। पर चूंकि अलगाववादियों ने उपद्रव न रोकने की ठान रखी। सो मेहमाननवाजी कर डेलीगेशन मेंबरों को विदा कर दिया। पर सवाल, जब अलगाववादी वार्ता को राजी नहीं। तो उनके घर जाकर हौसला अफजाई करने की क्या जरूरत? अलगाववादियों से मिलने के बजाए डेलीगेशन एलान करता। अवाम को बताता, देखो, हम बात करने आए हैं। पर ये बात करने को राजी नहीं। सीधे अवाम और पीडि़तों से बात करते। पर जब डेलीगेशन के मेंबर अपने एजंडे के साथ गए हों। तो खुले दिमाग से बातचीत की उम्मीद ही कैसे करें? सो घाटी में इधर डेलीगेशन पहुंचा, उधर 72 घंटे का कफ्र्यू लगा दिया। सरकारी एजंडे के मुताबिक जो तय था, वही डेलीगेशन से मिलने पहुंचा। सो अलगाववादियों की तो छोडि़ए, अवाम में डेलीगेशन कोई भरोसा पैदा नहीं कर पाया। उमर अब्दुल्ला ने भी यही किया था, जब पहली बार 11 जून को घटना हुई। तो उमर मौके पर पहुंचने के बजाए छुट्टी में मशगूल रहे। सो हालात बेकाबू हो गए। सचमुच जिन उमर के काम को राहुल गांधी बेहतर बता रहे थे। सोमवार को कांग्रेसी सैफुद्दीन सोज ने मान लिया, कुछ कमी जरूर रही।
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20/09/2010

Friday, September 17, 2010

गांधीनगर से गडकरी तक गदगद बीजेपी!

अब तय हो गया, अयोध्या पर फैसला शुक्रवार को ही आएगा। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की मंशा पर सवाल उठा जुर्माना भी लगा दिया। सुलह के लिए निर्मोही अखाड़े के सिवा कोई राजी नहीं था। वैसे भी फैसले के मोड़ पर आकर सुलह के फार्मूले में कुछ नहीं था। कोर्ट ने याचिकाकर्ता से सुलह का आधार पूछा। तो कोई जवाब नहीं। सो फैसले की उलटी गिनती शुरू हो गई। पर अयोध्या फैसले से पहले कश्मीर की लपटें थामना जरूरी। सो कांग्रेस के संकटमोचक प्रणव मुखर्जी ऑल पार्टी डेलीगेशन लेकर कश्मीर जाएंगे। तीन दिन तक हालात का बारीकी से जायजा लिया जाएगा। ताकि सरकार ऐसे ठोस कदम उठा सके, जिनसे हालात फौरी काबू में आ जाएं। घाटी में शुक्रवार को भी हिंसक वारदातें जारी रहीं। सो सोनिया गांधी ने तमाम वरिष्ठ नेताओं को बुला मंत्रणा की। पर कांग्रेस की परेशानी सिर्फ कश्मीर और अयोध्या पर संभावित फैसला ही नहीं। अलबत्ता कर्नाटक, गुजरात के विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने भी खतरे की घंटी बजा दी। पर बीजेपी को जबर्दस्त फील गुड होने लगा। अयोध्या फैसले से पहले गुजरात में नरेंद्र मोदी का डंका बजा। तो गांधीनगर से गडकरी तक बीजेपी बम-बम दिखी। कठलाल विधानसभा सीट पर पहली बार कमल खिला। सो नरेंद्र मोदी ने अपने खास अंदाज में फिर हुंकार भरी। बोले- कांग्रेस और सीबीआई को जनता ने नकार दिया। अब गांधीनगर में जो स्क्रिप्ट मोदी ने लिखी। दिल्ली में गडकरी ने प्रवक्ता निर्मला सीतारमण के जरिए पढ़वा दी। बीजेपी ने शुक्रवार को न अयोध्या, न कश्मीर पर कुछ कहा। अलबत्ता मोदी की जीत के बाद नितिन गडकरी भाजपा मुख्यालय में रिक्शा पर घूमते दिखे। सोलर और बैटरी चालित रिक्शा का प्रदर्शन हुआ। जिसे बीजेपी अंत्योदय कार्यक्रम के तहत गरीबों में बांटने का मन बना रही। कहा गया- इस रिक्शा को चलाने में कम कैलोरी खर्च होतीं। पर कोई पूछे, जिस गरीब के पेट में दाना नहीं। कैलोरी किस चिडिय़ा नाम, उसे क्या पता। पर बात अंत्योदय की नहीं, उपचुनाव में कांग्रेस के अंत और बीजेपी के उदय की। पर जिन उपचुनावों के नतीजे आए, उनका फाइनल अभी काफी दूर। सो कांग्रेस भी फिलहाल बेफिक्र ही दिख रही। पर बीजेपी इतनी गदगद, मानो किला फतह कर लिया हो। यों कठलाल सीट पहली बार जीतना बीजेपी के लिए उपलब्धि। पर कर्नाटक में क्या हुआ। दो सीटों पर उपचुनाव हुए थे। तो बीजेपी वाली सीट देवगौड़ा की जेडीएस ने जीत ली। कांग्रेस वाली सीट बीजेपी के खाते में आ गई। राजनीतिक दलों की अजीब कहानी बन चुकी। मीठा-मीठा घप और कड़वा-कड़वा थू। उपचुनाव की जीत किसी राष्ट्रीय मुद्दे से नहीं जोड़ी जा सकती। अगर उपचुनाव किसी बड़े बदलाव का संकेत होता, तो छत्तीसगढ़ में पिछली बार बीजेपी लगातार आधा दर्जन विधानसभा उपचुनाव हारी। फिर भी फाइनल चुनाव में बीजेपी की ही सरकार बनी। सो कोई जरूरी नहीं जो उपचुनाव में जीते, बाकी जगह उसी का परचम लहराएगा। पर अहम सवाल, सिर्फ जीत का ही श्रेय क्यों लेते राजनीतिबाज? हार की जिम्मेदारी उठाने का जज्बा जीत जैसा क्यों नहीं दिखता? अब जरा बीजेपी का ही दोहरापन देख लो। स्थानीय उपचुनाव में जीत पर इतरा रही। पर जब गुजरात में जूनागढ़ निकाय चुनाव में लुढक़ी। राजस्थान में विधानसभा के बाद पंचायत चुनाव में भी पटखनी मिली। तो बीजेपी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद में हार पर सवाल झेलने का भी साहस नहीं रहा। बोले- स्थानीय चुनाव के बारे में स्थानीय नेता टिप्पणी करेंगे। राष्ट्रीय प्रवक्ता से स्थानीय सवाल न पूछें। इसे कहते हैं रस्सी जल गई, पर बल नहीं गया। पर कोई पूछे, जब जूनागढ़, राजस्थान, बंगाल जैसे निकाय चुनाव जिनमें बीजेपी हारी, वह स्थानीय। तो सवाल, पोरबंदर, बेंगलुरु जैसे निकाय चुनाव में जीत पर दिल्ली में बीजेपी संसदीय दल और बोर्ड ने क्यों प्रस्ताव पारित किया? क्यों बीजेपी के मंच से प्रवक्ता जीत का ढोल बजाते दिखे? क्या यह बीजेपी का कांग्रेसी कल्चर नहीं? कांग्रेस में तो यह परंपरा बन चुकी। जीत का श्रेय सिर्फ गांधी-नेहरू खानदान को, हार का ठीकरा स्थानीय नेतृत्व पर। अब ताजा प्रकरण ही देख लो। राहुल गांधी यों तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बात करते नहीं थक रहे। पर प्रदेश अध्यक्षों के चुनाव में दो लाइन का प्रस्ताव पारित कर अध्यक्ष तय करने का अधिकार सोनिया पर छोड़ा जा रहा। सो बीजेपी भी कम नहीं। जीती, तो बीजेपी आलाकमान, हार गए, तो ठीकरा स्थानीय नेतृत्व पर। लोकसभा चुनाव के बाद जब बीजेपी में हार पर सिर-फुटव्वल होने लगी, तो क्या हुआ। केंद्रीय स्तर पर चुनाव के सर्वेसर्वा अरुण जेतली प्रमोशन पाकर संवैधानिक पद पर जा बैठे। राज्यों में कई प्रदेश अध्यक्षों को जिम्मेदार ठहराया गया। उत्तराखंड में बी.सी. खंडूरी की सीएम की कुर्सी छिन गई। तो राजस्थान में वसुंधरा से जबरन इस्तीफा कराया गया। अपने वामपंथियों को भी कम न समझो। लोकसभा चुनाव में खुद के हारने का मलाल नहीं, पर इस बात की खुशी थी कि बीजेपी हार गई। यही हाल बीजेपी का था, जब नेता कहते फिर रहे थे- भले हम नहीं जीते, पर लेफ्ट तो हार गया। सच कहूं, तो सही मायने में कोई भी पार्टी लोकतांत्रिक नहीं। बीजेपी और कांग्रेस के लोकतंत्र में सिर्फ इतना फर्क- कांग्रेस में पहले स्थानीय नेता प्रस्ताव पारित कर सोनिया पर फैसला छोड़ देते। पर बीजेपी में पहले आलाकमान तय करता। फिर पर्यवेक्षक के जरिए स्थानीय नेतृत्व को एक-एक कर बता दिया जाता।
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17/09/2010

Thursday, September 16, 2010

अयोध्या: फैसला हो, पर फासला न बढ़े

'मोको कहां ढूंढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलाश में।' कबीर की इस वाणी को मजहबी ठेकेदारों ने आत्मसात किया होता। तो मंदिर-मस्जिद का कोई झगड़ा न होता। पर आजादी के 63 साल बाद देश एक बार फिर खुद को वहीं खड़ा पा रहा। सो अयोध्या विवाद पर 24 सितंबर को संभावित फैसले से पहले केंद्र सरकार को अपील जारी करनी पड़ी। मनमोहन केबिनेट ने प्रस्ताव पारित कर अदालती फैसले के सम्मान पर जोर दिया। शांति सौहार्द कायम रखते हुए कानूनी विकल्प अख्तियार करने की सलाह दी। प्रस्ताव में साफ कहा गया- सभी तबके के लोगों को अदालती फैसले के बाद धैर्य और शांति रखनी होगी। एक वर्ग की ओर से दूसरे वर्ग को उकसाने का प्रयास नहीं होना चाहिए और ना ही किसी की भावनाएं आहत की जानी चाहिए। केबिनेट की अपील में संस्कृति और सर्व धर्म समभाव की दुहाई देते हुए देश की तरक्की की बात कही गई। यानी अयोध्या पर आने वाला फैसला महज अदालती फैसला नहीं, अलबत्ता विविधता में एकता वाले देश के इम्तिहान की घड़ी। सचमुच साठ साल बाद फैसले की घड़ी आ रही। अयोध्या में विवादित स्थल पर राम जन्मभूमि या बाबरी मस्जिद, इस पर लड़ाई मुगल काल से चली आ रही। मंदिर का दावा करने वालों की दलील, 1538 में बाबर ने मंदिर तोडक़र मस्जिद बनवाई। अंग्रेजों के शासनकाल में 1885 में पहली बार मुकदमा हुआ। तब मस्जिद के पास चबूतरा को भगवान राम का जन्म स्थान बता भजन-कीर्तन की इजाजत मांगी गई। पर अंग्रेज राज में फैजाबाद कोर्ट ने यह अपील खारिज कर दी। कोर्ट की दलील थी- मस्जिद के ठीक सामने मंदिर दो समुदायों के बीच झगड़े की वजह बनेगा। फिर 22-23 दिसंबर 1949 को राम, सीता, लक्ष्मण की मूर्ति वहां रखी गई। पहली जनवरी 1950 को निर्मोही अखाड़े के गोपाल दास विशारद ने अपील की, मूर्ति न हटाई जाए और पूजा-अर्चना की अनुमति मिले। अखाड़े की ओर से 1959 में फिर अपील दायर हुई। तो 1961 में सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने नमाज की अनुमति मांगी। फिर 1989 में रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल ने वीएचपी में शामिल होकर राम के मित्र की हैसियत से याचिका लगाई। जिसमें भगवान राम को भी एक पक्ष बनाया गया। कहा गया- मैं राम हूं, यहीं पैदा हुआ था। मेरे भक्तों को पूजा करने की छूट दी जाए। फिर दोनों पक्षों की ओर से लगातार दलीलें दी जाती रहीं। अदालती आदेश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने खुदाई कर अपनी रपट सौंप दी। बीजेपी-वीएचपी की ओर से गुरुनानक देव से लेकर ब्रिटिश किताब की दलील दी गई। हिंदू चिंतन में देव होने की दलील के साथ-साथ इस्लाम धर्म में मस्जिद के लिए जमीन खरीदे जाने वाली दलील का भी जिक्र किया गया। अब जमीन के मालिकाना हक को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच क्या फैसला सुनाएगी, यह तो 24 सितंबर को साफ होगा। पर जहां मंदिर-मस्जिद के पैरोकार अभी से माहौल बनाने में जुटे। वहां सरकार संवेदनशील मुद्दे से निपटने के उपाय में जुटी। मायावती सरकार तो पहले ही अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात करने की मांग कर चुकी। गुरुवार को मनमोहन केबिनेट ने भी एहतियात बरतते हुए शांति की अपील की। यों फैसले का अंदाजा भले देश की जनता को न हो। पर अदालत में अपना पक्ष रखने वाले शायद अपनी दलीलों की ताकत भांप चुके। सो अदालती फैसले से आठ दिन पहले संघ ने बाकायदा एलान कर दिया। संघ प्रमुख मोहन भागवत तीन दिन से दिल्ली में डेरा डाले बैठे। बीजेपी-वीएचपी नेताओं के साथ लगातार मंत्रणा चल रही। सो मंत्रणा का असर गुरुवार को संघ के बयान में दिखा। संघ के प्रवक्ता राम माधव बोले- राम मंदिर करोड़ों लोगों की आस्था का विषय है। संघ का पूरा प्रयास होगा कि संसद से कानून बनाकर ही समाधान ढूंढा जाना चाहिए। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। जब कोर्ट के फैसले पर देश की निगाहें टिकी हों। तब विवाद से जुड़ा एक पक्ष अदालती फैसले के बजाए संसद से कानून बनाने की पैरवी करे। तो मायूसी का अंदाजा लगाया जा सकता। अब कोई पूछे, जब मामले में संघ-वीएचपी की ओर से पैरवी करने वाले रविशंकर प्रसाद जैसे कानूनदां अपनी दलील के प्रति आश्वस्त होकर अपना बखान कर रहे। तो फैसले से ठीक पहले संसद से कानून बनाने की मांग क्यों हो रही? क्या अब बीजेपी-संघ-वीएचपी को अपनी दलील में दम नहीं नजर आ रहा? यों वाजपेयी राज हो या संघ के पुराने तेवर, हमेशा यही कहा गया- अयोध्या विवाद आपसी बातचीत से हल हो या अदालती फैसले से। वीएचपी ने साथ में संसद से कानून पारित करने पर भी जोर दिया। अब अदालती फैसले से पहले बीजेपी में भले खामोशी हो। पर संघ परिवारियों की मंत्रणा कोई यों ही नहीं। जामा मस्जिद के शाही इमाम तो जुमातुल विदा के वक्त ही आगामी रणनीति पर विचार कर चुके। पर फिलहाल संघ में हलचल अधिक हो रही। सो केंद्र सरकार हो या अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाने वाली अदालत, कोशिश यही हो रही कि न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान हो और कहीं प्रतिक्रिया न हो। सो गुरुवार को केंद्र ने अपील जारी की। तो शुक्रवार को हाईकोर्ट ने सभी पक्षों में सहमति बनाने के लिए बुला रखा। पर संघ सोमनाथ मंदिर जैसा कानून बनाने की दलील देगा। संघ की रणनीति, अगर फैसला मंदिर के हक में नहीं आया, तो सरकार का रुख देखकर अगली रणनीति तय करेंगे। पर अपनी अपील यही, मंदिर-मस्जिद विवाद में अब तक बहुत पानी बह चुका। सो अयोध्या पर फैसला तो हो, पर कोशिश यही हो कि हिंदू-मुसलमान में फासला न बढ़े।
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16/09/2010

Wednesday, September 15, 2010

ऑल पार्टी मीटिंग, फिर भी क्यों नहीं ‘ऑल इज वैल’?

तो दो साल बाद कश्मीर फिर मुहाने पर खड़ा हो गया। घाटी का बवाल नहीं थम रहा। बुधवार को हल ढूंढने को हुई सर्वदलीय मीटिंग भी ढाक के तीन पात ही रही। मीटिंग का हश्र वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी। आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट यानी अफ्स्पा पर राजनीतिक अफसाना नहीं बना। सो तय हुआ, ऑल पार्टी डेलीगेशन घाटी का दौरा करेगा। फिर हालात देख फैसले लिए जाएंगे। पर तीन महीने बाद ही मनमोहन सरकार की नींद क्यों उचटती? जब तक धरती खून से न सन जाए, क्या सरकार को खतरे का अंदाजा नहीं होता? सनद रहे, सो याद दिलाते जाएं। दो साल पहले जब देश 61वां स्वाधीनता दिवस मना रहा था। तब घाटी के हालात हू-ब-हू इसी तरह थे। तब अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन मुद्दे पर जम्मू बनाम कश्मीर जंग सी छिड़ गई थी। शुरुआत में तबके सीएम गुलाम नबी आजाद की चूक ने चिंगारी को शोला बनने दिया। करीबन दो-ढाई महीने बाद मनमोहन सरकार ने घाटी की सुध ली। तो जैसे बुधवार को सर्वदलीय मीटिंग हुई। वैसी ही तब हुई थी और तबके होम मिनिस्टर शिवराज पाटिल की रहनुमाई में डेलीगेशन जम्मू-कश्मीर गया। पर आखिर में वही हुआ, श्राइन बोर्ड को जमीन देनी पड़ी। असल में केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार के वक्त अमरनाथ यात्रा में असुविधा की वजह से करीबन सौ यात्री मर गए थे। सो नितीश सेन गुप्त कमेटी बनाई गई थी। जिसने श्राइन बोर्ड बनाने की सिफारिश की। फिर 2000 में फारुक अब्दुल्ला सरकार ने एसजीपीसी और वक्फ बोर्ड की तरह जे एंड के श्राइन बोर्ड एक्ट पास किया। पर जमीन सीधे श्राइन बोर्ड को नहीं मिली। तो मामला हाईकोर्ट गया। मुफ्ती मोहम्मद सईद के टर्म में कोर्ट ने जमीन देने का फैसला दिया। फिर आजाद सीएम बने, तो केबिनेट ने मंजूरी दी। पर राजनीतिक फायदे के लिए पीडीपी ने तब भी वही खेल किया, जो आज कर रही। आखिर में जमीन श्राइन बोर्ड को ही देनी पड़ी। पर सोचिए, विवाद का क्या मतलब रहा? अगर सरकार पहले ही कदम उठा लेती। तो घाटी में न तब कफ्र्यू जैसे हालात पैदा होते, न अबके। पर सत्ता में बैठे लोग अब नीरो तो नहीं, पर उसकी मानसिकता वाले हो ही चुके। सो जब तक घाटी के जलने की बू दिल्ली तक न पहुंचे, कोई असर नहीं होता। पर देर से ही सही, सरकार ने सुध ली। फिर भी घाटी में अमन-चैन बहाल होगा, इसकी उम्मीद नहीं दिख रही। सर्वदलीय मीटिंग में फैसला हुआ, एक डेलीगेशन घाटी का दौरा कर अवाम से बात करे। हालात का जायजा ले, फिर सरकार कोई फैसला लेगी। पर फैसला होगा क्या? जब बुधवार की मीटिंग में ही अफ्स्पा पर राजनीतिक दलों ने अपना-अपना तराना सुना दिया। तो मौका-मुआइना के बाद तराना बदलेगा, इसकी उम्मीद नहीं। जैसे तमाम विरोध के बाद भी ए.आर. रहमान ने कॉमनवेल्थ के लिए गाया गाना फिर से बनाने की मांग ठुकरा दी। कुछ ऐसी ही आदत राजनीतिक दलों की। यों तमाम विरोध के बाद भी ऑल पार्टी मीटिंग में सबने ऑल इज वैल की ही कामना की। पहली बार पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ऐसी मीटिंग में पहुंचीं। तो मिजाज भी बदले-बदले दिखे। मीटिंग के बाद बोलीं- अलगाववादी हों या सरकार, दोनों पक्षों को बिना शर्त बातचीत करनी चाहिए। हमें मानवीयता के नजरिए से घाटी की समस्या को देखना होगा। महबूबा ने मीटिंग के भीतर भी मनमोहन को वाजपेयी सरकार की पहल याद कराई। जब आडवाणी के डिप्टी पीएम रहते मानवता के दायरे में बिना शर्त बातचीत शुरू हुई। महबूबा ने वाजपेयी-आडवाणी की पहल को गुड स्टार्ट करार दिया। पर अब उनकी शिकायत, कश्मीर को जेल बना दिया गया। यों महबूबा की दिल्ली में हुई अपील अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी को नागवार गुजरी। उन ने बिना शर्त बातचीत से इनकार कर दिया। दो-टूक कह दिया- सर्वदलीय डेलीगेशन के आने का कोई मतलब नहीं। सो वह बात नहीं करेंगे। जब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकलता, घाटी के हालात नहीं बदलने वाले। यानी अलगाववादी नेता आंदोलन की आग को जलाए रखना चाहते। पर गिलानी की जो शर्तें, वह शायद ही मानी जा सकतीं। गिलानी कश्मीर को विवादास्पद मानने, अफ्स्पा हटाने, जेल में बंद लोगों की रिहाई और मानवाधिकार जैसी शर्तें रख रहे। रिहाई और मानवाधिकार पर भले कोई एतराज न हो। पर भारतीय हिस्से वाले ही नहीं, अलबत्ता पाक अधिकृत कश्मीर को भी संसद के प्रस्ताव के जरिए वापस हासिल करने की बात हो चुकी। उसे कोई भी सरकार भला विवादास्पद कैसे माने? अलगाववादी पाकिस्तानी शह से घाटी में हिंसा को हवा दे रहे। हालात फिर 1965 के युद्ध से पहले वाले हो गए। भले पाकिस्तान ने अलगाववादियों की मदद के लिए आर्मी नहीं भेजी। पर बिना पाकिस्तानी शह के अलगाववादी इतने मुखर नहीं हो सकते। जो अलगाववादी पस्त हो चुके थे। उन्हें उमर अब्दुल्ला की अपरिपक्वता ने पनपने का मौका दिया। फिर भी सर्वदलीय मीटिंग में मनमोहन ने उमर की ही सराहना की। अलगाववादी बेखौफ पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे। पर सरकार सेना का मनोबल तोडऩे की फिराक में। यों एयर चीफ मार्शल पीवी नाइक ने खुला एतराज जता दिया। पर सीसीएस से सर्वदलीय मीटिंग और डेलीगेशन भेजने तक की कवायद आखिर में अफ्स्पा की अर्थी बनाने के लिए हो रही। पर कोई पूछे, हर बार सरकार देर से क्यों जागती। आखिर कब तक घाटी के हालत बेकाबू होते रहेंगे और सरकारें ऐसे ही सर्वदलीय मीटिंग कर डेलीगेशन भेजती रहेंगी। कोई अंतिम समाधान क्यों नहीं ढूंढ पा रही अपनी सरकार?
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15/09/2010

Tuesday, September 14, 2010

गुरु-शिष्य परंपरा पर भारी ‘गिल सिंड्रोम’

कॉमनवेल्थ से पहले अयोध्या फैसले के खिलाफ अर्जी लग गई। फैसले के बाद प्रतिक्रिया हुई, तो देश की छवि खराब होगी। सो अर्जी में फिलहाल फैसला टालने की अपील। यों एक और अर्जी लगी, जिसमें फैसले के बजाए समझौता कराने की मांग की गई। सो अब हाईकोर्ट की लखनऊ बैंच पहले इन दोनों अर्जियों पर सुनवाई करेगी। पर मंदिर-मस्जिद के नाम पर रोटी सेकने वालों ने दुकानें सजा लीं। संघ का शीर्ष नेतृत्व दिल्ली में डेरा जमा चुका। साधु-संतों को आगे करने की रणनीति। ताकि बीजेपी फिर बंटाधार न करे। पर आडवाणी अपना गौरवगान शुरू कर चुके। सितंबर महीने की महिमा का बखान किया। तो साफतौर पर जतलाया, 24 सितंबर को फैसला आ रहा। अयोध्या मामले पर उनकी पहली रथयात्रा सोमनाथ से 25 सितंबर को शुरू हुई थी। यानी फैसला हक में आया, तो आडवाणी श्रेय लेंगे। पर जिस छह दिसंबर को बाबरी ढांचा ढहाया गया, आडवाणी उसे दुखद और काला दिन करार दे चुके। सो आडवाणी का दिल और दिमाग किधर, वही जानें। पर बीजेपी ने एक बार फिर खोया भरोसा हासिल करने की कवायद शुरू कर दी। फैसले से पहले जनता की नब्ज टटोलने का अभियान चलेगा। तो इधर गडकरी कह रहे- सत्ता से पहले कार्यकर्ता का सम्मान जरूरी। पर जब सत्ता थी, तो बीजेपी के सूरमाओं ने किस तरह कार्यकर्ताओं को दुत्कारा, आज बीजेपी के नेता ही किंवदंती की तरह सुनाते। सो काठ की हांडी चढ़ेगी या नहीं, यह तो बाद की बात। पर कहीं हाईकोर्ट ने फैसला टालने की अर्जी मान ली। तो संघ-बीजेपी की मौजूदा तैयारियों पर पानी फिर जाएगा। पर देश की जनता को फिलहाल कॉमनवेल्थ गेम्स की चिंता। सो अब लोग यही दुआ कर रहे- सब कुछ ठीक से निपट जाए, ताकि देश का नाम खराब न हो। सो देश की जनता को अपने खिलाडिय़ों से भी नाम रोशन करने की उम्मीद। पर गुरु-शिष्य परंपरा वाले इस देश में जब एम.एस. गिल जैसे मंत्री होंगे। तो मैडल की उम्मीद करना बेमानी। मंगलवार को कुश्ती के वल्र्ड चैंपिंयन सुशील कुमार अपने गुरु सतपाल के साथ एम.एस. गिल से मिलने पहुंचे। फोटो सेशन हुआ, तो गिल ने सतपाल सिंह को फोटो शूट से हटा दिया। यह बात चैंपियन सुशील को भी नागवार गुजरी। पर मंत्री के आगे किसकी क्या बिसात। गिल ने कह दिया- यह सिस्टम ठीक नहीं। पर कोई पूछे, गिल किस सिस्टम से कांग्रेस सांसद और मंत्री बने? मुख्य चुनाव आयुक्त पद से रिटायर हुए जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी न हुए होंगे। कांग्रेस ने राज्यसभा का टिकट थमाने का फैसला कर लिया। तब तक गिल कांग्रेस के मेंबर भी नहीं थे। पर रेवड़ी के लिए सब कुछ रातों-रात हुआ। फिर सांसद से मंत्री बन गए। तब विपक्ष ने सवाल उठाया था। पर जब खुद को रेवड़ी मिल रही हो, तो सब जायज हो जाता। सारे सिस्टम सही लगने लगते। पर सवाल, मुख्य चुनाव आयुक्त पद से रिटायर होने वाले गिल कोई विरले नहीं। फिर कांग्रेस ने सिर्फ गिल को ही सांसदी और मंत्री पद की रेवड़ी क्यों थमाई? क्या संवैधानिक पद पर रहते हुए कांग्रेस के लिए कोई राजनीतिक कॉमनवेल्थ तो नहीं खेल रहे थे? पर ब्यूरोक्रेटों को अपना किया खूब अच्छा लगता। या यों कहें, ब्यूरोक्रेटों को यह गफलत हो चुकी कि समूची व्यवस्था वही चला रहे। ब्यूरोक्रेट में यह सिंड्रोम घर कर चुका कि वह कुछ भी कर सकते। ब्यूरोक्रेट के बारे में विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी सोमवार को बखूबी फरमाया। बोले- रिटायरमेंट के बाद ब्यूरोक्रेट संत हो जाते। सो कुश्ती चैंपियन सुशील के गुरु के अपमान में गिल का नहीं, गिल के अंदर के ब्यूरोक्रेट का दोष। जो द्रोणाचार्य अवार्डी सतपाल सिंह को नहीं पहचान पाए। साइना नेहवाल के कोच गोपीचंद को भी गिल ने नहीं पहचाना था। अब देखो, अगर किसी मंत्री के साथ ऐसा हो जाए। तो आसमान सिर पर उठा लेंगे। पर गिल ने यहां पहचान कर भी गुरु का अपमान किया। सिस्टम की दुहाई दी। तो क्या ऐसे मनोबल बढ़ेगा खिलाडिय़ों का? जिस गुरु सतपाल सिंह ने सुशील को बचपन से कुश्ती के गुर सिखा आज विश्व चैंपियन बनवाया। जब उस गुरु का अपमान होगा, तो मैडल कैसे देश में आएगा? खेल के प्रति भेदभाव का रवैया कोई नया नहीं। याद करिए, गणतंत्र दिवस समारोह के वक्त पद्म अवार्ड से सम्मानितों के नाम। ओलंपिक में सुशील ने कांस्य जीता। पर बॉक्सर विजेंद्र की तरह सुशील को पद्मश्री नहीं मिला। तब भी सरकार ने सुशील का दिल दुखाया। पर सरकार के पास दिल ही नहीं, जो दुखे। सचमुच सरकार के पास दिल होता, तो हिरणों के दिल पर तीर चलाने वाले सैफ अली खान पद्मश्री नहीं होते। एटमी डील में बिचौलिया बनकर संत सिंह चटवाल पद्मभूषण हो गए। जिनके खिलाफ सीबीआई जांच हुई। बिल क्लिंटन के साथ जब भारत दौरे पर आए, तो गिरफ्तारी भी हुई थी। सो जब नागरिक सम्मान भी फिक्सिंग के शिकार होने लगे। तो सम्मान को मंत्री सम्मान देंगे, इसकी उम्मीद करना बेमानी। मैडल-पदक जैसी चीजों के लिए राजनेता अब उसी नाम पर मुहर लगाते। जो राजनीति की चारणगिरी करे। तभी तो कॉमनवेल्थ में घोटाले की कई परतें उधड़ीं। पर एम.एस. गिल ने संसद में कलमाडिय़ों का बचाव करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कॉमनवेल्थ में पानी की रह पैसा बहाने को जायज ठहरा चुके। सो कॉमनवेल्थ में खिलाडिय़ों को खिलाने के बजाए गिल को ही मैदान में उतार दो। वैसे भी गिल खुद को बॉक्सिंग, तैराकी और कई खेलों में माहिर बता चुके। अब सब-कुछ गिल खुद ही कर लेंगे। तो न सिस्टम में गिलती मिलेगी, न किसी गुरु का अपमान होगा।
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14/09/2010

Monday, September 13, 2010

तो कश्मीर पर कब तक मीटिंग-मीटिंग खेलेंगे?

घाटी की आग को अमेरिकी घी ने शोला बना दिया। पिछले तीन महीने से घाटी का बवाल थम नहीं रहा। अब हालात इतने बदतर हो चुके, एक चिंगारी भी शोला बन जाती। अमेरिका के एक पादरी ने 9/11 की बरसी पर कुरान-ए-पाक जलाने की धमकी दी। पर बराक ओबामा ने दखल दिया। चौतरफा आवाज उठी, तो पादरी ने कदम पीछे खींचा। फिर भी कश्मीर में मुद्दा बन गया। अलगाववादियों ने भावना भडक़ाने में कसर नहीं छोड़ी। सो ईद के दिन से अब तक हिंसक वारदातों में कई जानें जा चुकीं। कई सरकारी इमारतें स्वाहा हो चुकीं। सोमवार को उमर अब्दुल्ला केबिनेट ने शांति की अपील की। अमेरिकी पादरी के कदम की भत्र्सना की। पर कुरान वाली घटना तो महज बहाना बनी। असल में आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट पर केंद्र सरकार की ऊहापोह से नाराजगी। ईद से पहले उमर ने सोनिया-मनमोहन से मुलाकात कर कुछ जगहों से एक्ट को हटाने का फार्मूला रखा था। ताकि घाटी में अमन-चैन बहाल किया जा सके। पर मनमोहन केबिनेट में ही इस पर दो राय हो गईं। रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी एक्ट को हटाए जाने से सहमत नहीं। पर राजनीतिक लिहाज से कांग्रेस और गृह मंत्रालय हटाने के पक्ष में। सो दो बार टलने के बाद सोमवार को सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी बैठी। तो तीन घंटे की मत्थापच्ची के बाद भी सरकार आगे बढऩे के बजाए एक महीना पीछे चली गई। अब बुधवार को सर्वदलीय मीटिंग होगी। तो आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट पर चर्चा होगी। पर क्या सचमुच मनमोहन राजनीतिक आम सहमति बनाना चाह रहे या सिर्फ दिखावा? सनद रहे सो याद दिलाते जाएं। पिछले महीने दस अगस्त को पीएम ने सर्वदलीय मीटिंग बुलाई थी। तो ओपनिंग स्पीच का लाइव टेलीकास्ट करा कश्मीरी अवाम को भी संबोधित किया था। शांति की तमाम अपील के साथ-साथ बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए सी. रंगराजन की रहनुमाई में कमेटी का वादा किया। अपने संबोधन में मनमोहन ने साफ तौर पर आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल एक्ट को खत्म करने का इरादा भी जतला दिया। जब कहा था- जम्मू-कश्मीर पुलिस को अब खुद ही जिम्मेदारी लेनी होगी। हम अवाम की भावना समझते हैं। अब कोई पूछे, जब पिछले महीने की सर्वदलीय मीटिंग में ही इरादा साफ कर दिया। तो दुविधा का दिखावा किसके लिए? बीजेपी इस एक्ट को हटाने के खिलाफ। पर जैसे सरकार में दो राय, अब बीजेपी के राम जेठमलानी का अलग राग। जेठमलानी भी इस बात से इत्तिफाक रखते कि प्रयोग के तौर पर कुछ जगहों से स्पेशल एक्ट हटाया जाना चाहिए। जेठमलानी का जिक्र इसलिए जरूरी, क्योंकि पीएम से मिलने गए बीजेपी के शीर्ष प्रतिनिधिमंडल में आडवाणी, जेतली, सुषमा के अलावा चौथे शख्स जेठमलानी थे। सो विपक्ष हो या सरकार, जब आपस में ही कोई एका नहीं। तो अमन बहाली की उम्मीद कैसे करें। घाटी की आग में सब अपनी-अपनी रोटियां सेक रहे। यों तो आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट 1958 में तब बना था, जब पूर्वोत्तर के राज्यों में उग्रवाद हावी हो चुका था। पर आतंकी घटनाओं के मद्देनजर 1990 में जम्मू-कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। जिसमें सेना को देश की सुरक्षा की खातिर कुछ विशेष अधिकार दिए गए। पर मानवाधिकारवादियों से लेकर यूएन ने भी इसका विरोध किया। घाटी से पहले मणिपुर में इस एक्ट के खिलाफ तीखे प्रदर्शन हो चुके। मनोरमा बलात्कार कांड से सेना की भूमिका पर कई सवाल उठे थे। इस एक्ट को मणिपुर से हटाने के लिए एक्टिविस्ट शर्मिला की दस साल से भूख हड़ताल चल रही। सो सरकार की मुश्किल सिर्फ कश्मीर नहीं। अलबत्ता कश्मीर से एक्ट हटाया गया। तो एक्शन दूर तलक होगा। तब केंद्र के लिए आंतरिक सुरक्षा का ऐसा खतरा पैदा होगा, जिसे संभालना सरकार के लिए टेढ़ी खीर होगा। पर स्पेशल पॉवर एक्ट को वापस लेने का सुर्रा भी मनमोहनवादियों ने ही छेड़ा। मनमोहन जब पिछली बार कश्मीर दौरे पर गए। तो अलगाववादियों से वार्ता की पेशकश कर दी। अलगाववादी पिछले कुछ चुनावों में अपनी हार और भारतीय लोकतंत्र के प्रति अवाम के जुनून को देख पस्त हो चुके थे। पर जम्मू-कश्मीर के चौकलेटी चेहरे वाले युवा सीएम उमर अब्दुल्ला जमीनी हकीकत को नहीं भांप पाए। जून में सुरक्षा बलों की गोलीबारी से 11 साल के बच्चे की मौत के बाद से भडक़ी हिंसा में अब तक पाच-छह दर्जन लोग मारे जा चुके। पर उमर अभी तक संभाल नहीं पाए। सो उन ने भी राजनीतिक पैकेज के नाम पर स्पेशल एक्ट में नरमी का फार्मूला रख दिया। जो अब मनमोहन के गले की ऐसी फांस बना, जो न निगलते बन रहा, न उगलते। सो अलगाववादियों को फिर से पनपने देने के लिए भी मनमोहन-उमर सरकार ही जिम्मेदार। अगर वक्त रहते उमर ने संवेदना दिखाई होती, मनमोहन ने सक्रियता। तो आज घाटी के हालात काबू से बाहर न होते। उमर ने पिछली लोकसभा में अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन विवाद के वक्त आग लगाऊ भाषण दिया था। तो कांग्रेस ने खूब मेजें थपथपाई थीं। उसी भाषण से उमर का ग्राफ अवाम की नजर में बढ़ा। पर सचमुच में उमर ने अपरिपक्वता दिखाई थी। जो तब देखने-सुनने में भले अच्छी लगी हो। पर अब घाटी उसका नतीजा भुगत रही। सो बीजेपी उमर को हटाने की मांग कर रही। तो कांग्रेस को कुछ सूझ नहीं रहा। सो बीजेपी की मांग पर सोमवार को पलटवार किया। तो कहा- वाजपेयी राज में बीजेपी ने कौन सा तीर मार लिया था? मतलब साफ, कांग्रेस भी कोई तीर मारने नहीं जा रही। घाटी भले झुलसती रहे।
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13/09/2010

Friday, September 10, 2010

गर लौह पुरुष, तो इतने बेबस क्यों आडवाणी?

अब चाहे आडवाणी विरोध करें या कोई और, अर्जुन मुंडा तो झोला उठाए गुरुजी के साथ चल दिए। जब सिर पर संघ और गढ़ के रक्षक गडकरी का हाथ हो। तो शपथ में कोई आए या न आए, मुंडा को फर्क नहीं। सो आडवाणी खेमे के विरोध से बेपरवाह अर्जुन चिडिय़ा की आंख की तरह सिर्फ गुरुजी को साधने में जुटे। ताकि अस्थिरता की दलील देने वालों को स्थिरता की मिसाल पेश कर सकें। अब अर्जुन और गुरुजी की जोड़ी भले झारखंड में सत्ता का मजा लूटे। पर बीजेपी में महाभारत हो गया। आडवाणी कैंप को झारखंड का फैसला नहीं सुहा रहा। सो शनिवार को शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनाएगा। पर अहम सवाल, आडवाणी की छठी इंद्री देर से क्यों जागती? अगर झारखंड में शिबू संग सरकार बनाने के खिलाफ थे। तो गडकरी के इकतरफा फैसले पर उंगली क्यों नहीं उठाई? क्यों नहीं संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाने की मांग की? पर अब जब मेज पर खाना परोसा जा चुका, तो आडवाणी कैंप मैन्यू क्यों बदल रहा? सचमुच फैसला हो जाने के बाद फैसले पर उंगली उठाना आडवाणी की आदत हो चुकी। भारत सुरक्षा यात्रा के वक्त पुणे में आडवाणी ने कंधार प्रकरण से पल्ला झाडऩे की कोशिश की थी। खुद को लौह पुरुष साबित करने को कह दिया- कंधार जाकर आतंकियों को छोडऩे के फैसले के खिलाफ थे। फिर बहस छिड़ी, तो खुद को इस फैसले से भी अनजान बताना शुरू कर दिया। जसवंत सिंह आतंकियों को लेकर कंधार गए, इसकी भी जानकारी से खुद को अनभिज्ञ बताया। मानो कंधार प्रकरण सिर्फ वाजपेयी और बीजेपी का, आडवाणी तो पाक-साफ। पर सांच को आंच नहीं, खुद जसवंत सिंह ने कह दिया था- आडवाणी शायद भूल गए होंगे। सचमुच इतना बड़ा अपहरण कांड हो, मसूद अजहर जैसे तीन खूंखार आतंकी विशेष विमान से कंधार छोडऩे का फैसला हो। और तबके गृहमंत्री आडवाणी पूरे फैसले से पल्ला झाड़ें, तो क्या उन्हें आप लौह पुरुष मानेंगे? सिर्फ कंधार प्रकरण ही नहीं, जिन्ना प्रकरण याद करिए। देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना को कराची जाकर आडवाणी ने सेक्युलर बताया। तो पूरा संघ परिवार खिलाफ खड़ा हो गया था। पर तब आडवाणी न तो अपने बयान से डिगे और ना ही अपने बयान को ठीक से अभिव्यक्त कर पाए। भले अध्यक्षी छोडऩी पड़ी। पर अंदरखाने ऐसा खेल हुआ, संघ ने आडवाणी को पीएम इन वेटिंग बना दिया। राजस्थान बीजेपी के विवाद में आडवाणी की भूमिका हमेशा बदलती रही। जब 2009 के आम चुनाव में आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए। कई राज्यों में बीजेपी का सूपड़ा-साफ हुआ। तो आडवाणी के घर कोर ग्रुप की मीटिंग हुई। हार वाले राज्यों में चरणबद्ध नेतृत्व परिवर्तन का खाका बना। राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष पद से ओम माथुर ने तो लोकसभा नतीजे के चौथे दिन ही इस्तीफा दे दिया था। पर विवाद तब खड़ा हुआ, जब अगस्त में वसुंधरा राजे को नेता विपक्ष से इस्तीफा देने को कहा गया। फिर तीन महीने तक वसुंधरा बनाम राजनाथ जो हाई वोल्टेज ड्रामा चला, जगजाहिर। आडवाणी की शह पर वसुंधरा ने अध्यक्ष को चुनौती दे डाली। फिर जिस फैसले को आडवाणी ने खुद सहमति दी थी, बाद की संसदीय बोर्ड की मीटिंग में पलटने की मांग करने लगे। पर राजनाथ सिंह ने दो-टूक इनकार कर दिया था। आखिर में वसुंधरा का इस्तीफा हुआ। फिर अगस्त में शिमला में चिंतन बैठक से पहले जसवंत सिंह जिन्ना के मुरीद हो गए। तो हार पर चिंतन से पहले बीजेपी ने जसवंत की चिंता की। जसवंत को बिना वकील-दलील-अपील के बीजेपी से बाहर कर दिया। तब चिंतन बैठक के आखिरी दिन सुषमा स्वराज ने आडवाणी के भाषण का सार परोसा। तो साफ-साफ कहा था- आडवाणी ने कहा, जिनके (जसवंत के) साथ तीस साल रहा, उनका निष्कासन दुखद है। लेकिन कार्यकर्ता इससे कम में संतुष्ट नहीं होते। पर याद है ना, पखवाड़े भर बाद ही आडवाणी कैंप से खबरें प्लांट होने लगीं। आडवाणी जसवंत के निष्कासन के खिलाफ थे। अब यह कैसी खिलाफत, यह आडवाणी और उनके समर्थक ही जानें। फिर निष्कासन की बरसी से पहले ही किस शान-ओ-शौकत के साथ जसवंत की बीजेपी में वापसी हुई। आडवाणी ने अहम भूमिका निभा जसवंत की ससम्मान वापसी कराई। पर कोई पूछे, शिमला के संसदीय बोर्ड की बैठक में क्या हो गया था? बी.सी. खंडूरी को सीएम पद से हटाने में भी आडवाणी बनाम राजनाथ जंग हुई थी। अगर आडवाणी जी की तरह थोड़ा और स्मरण करें, तो राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष पद पर ओम माथुर की नियुक्ति के वक्त छिड़ा विवाद याद करिए। कैसे गुटबाजी सामने आई थी। उमा भारती को बीजेपी से आडवाणी के अध्यक्ष रहते निकाला गया। पर अब आडवाणी उनकी वापसी चाह रहे। लोकसभा चुनाव के वक्त सुधांशु मित्तल को असम का सह-प्रभारी बनाए जाने पर कैसे जेतली और राजनाथ में ठनी। जेतली ने सीईसी का लगातार बायकाट किया। पर आडवाणी ने पहले कोई बीच-बचाव का कदम नहीं उठाया। संघ को कभी मातृ संगठन तो कभी रोजमर्रा के काम में दखल देने वाला कहा। अब झारखंड में सरकार बनाने के खिलाफ बताए जा रहे। शपथ से दूरी बनाकर छवि बेहतर बनाने की कोशिश। क्या सचमुच झारखंड पर आडवाणी की नहीं चली। या सत्ता की रेवड़ी और छवि के बीच संतुलन बिठाने की कवायद? आडवाणी बीजेपी के वट वृक्ष। सो इतने कमजोर तो नहीं हो सकते। आखिर खुद को लौह पुरुष बताने वाले इतने बेबस क्यों?
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10/09/2010

Thursday, September 9, 2010

लोकतंत्र छोड़, जातितंत्र ही क्यों नहीं कहते?

तो राजनीतिबाजों ने कबीर वाणी पलटकर ही दम लिया। अब साधु ही नहीं, सबकी जाति पूछी जाएगी। केबिनेट ने गुरुवार को फैसला ले लिया, 2011 में जातीय गणना होगी। यानी मौजूदा जनगणना से इतर एक और दौर होगा। अब जाति पूछने को करीबन साढ़े तीन-चार हजार करोड़ खर्चे जाएंगे। क्या आजादी के 63 सालों में कभी किसी नेता या सरकार ने आम आदमी के घर जाकर पूछा- तुम्हारे पेट में अन्न का दाना पहुंचा या नहीं? जब कोई नेता आम आदमी के पेट की सुध नहीं ले सकता, तो जाति पूछने वाले कौन? जब दुनिया ग्लोबलाइजेशन के दौर में। संचार क्रांति के युग में जब दुनिया आगे बढ़ रही, तो भारत आजादी से पहले के दिनों में क्यों लौट रहा। सचमुच अपने नेताओं का जाति गणना से जन कल्याण लक्ष्य नहीं। अलबत्ता जाति की आड़ में अपनी राजनीति को अजर-अमर करना चाह रहे। जाति बंधन लगातार टूट रहे। पर जातीय गणना एक बार फिर देश को उलटी दिशा में ले जाएगी। अपने नेताओं को जनता की नहीं, सिर्फ अपनी फिक्र। जिनने कभी जाति बंधन को कमजोर नहीं होने दिया। राजनीतिक दलों में अध्यक्ष का चयन हो या पदाधिकारियों का। चुनाव में उम्मीदवारों को टिकट देना हो या सत्ता में आने वाले दल की बनने वाली केबिनेट का मामला। हर जगह जाति को महत्व दिया जाता। ताकि जातीय संतुलन बना रहे। अंग्रेजों ने भी जातीय जनगणना को इसलिए तरजीह दी थी, ताकि फूट डालो, राज करो की नीति को अमल में ला सके। आजादी का पहला संग्राम 1857 में हुआ। तो राष्ट्रवाद की पैदा हुई लहर ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। सो अंग्रेजों ने 1871 में हिंदुस्तानियों को जाति, मजहब और भाषा में बांटने की नीति बनाई। अंग्रेजों की इसी नीति का असर रहा कि पृथक निर्वाचन मंडल और द्विराष्ट्र सिद्धांत की बात निकली। बात सिर्फ निकली नहीं, दूर तलक गई। जिसका दंश आज भी देश झेल रहा। तब लोगों ने अपनी हैसियत ऊंची दिखाने को जनगणना में अगड़ी जाति का बता दिया। तो आज का वक्त ऐसा, जब आरक्षण के लिए लोग खुद को पिछली जाति में शामिल करने के लिए कभी रेल की पटरी उखाड़ रहे, तो कभी मरने-मारने की बात। ऐसे में आरक्षण की खातिर अगड़े भी खुद को पिछड़े नहीं बताएंगे, इसकी गारंटी कौन लेगा? कोई किस जाति का, इसका प्रमाण क्या होगा? पूछने वाले को लोग जुबानी जो चाहे, बता देंगे। तो क्या इससे देश की सही तस्वीर सामने आ जाएगी? इंदिरा आवास योजना हो या कई अन्य योजनाएं, आप गांवों में जाकर देख लो। बड़े-बड़े जमींदार भी इंदिरा आवास फंड से मकान बना चुके। बड़े नेता तो बड़ी-बड़ी कंपनियां और स्विस बैंक तक पहुंच चुके। सो उनकी बात फिर कभी। पर फायदे के लिए अपना नाम इधर से हटा उधर जुड़वाना आम बात हो चुकी। तभी तो 1931 में जब जातीय जनगणना होनी थी, तबके अंग्रेज सेंसेक कमिश्नर जे.एच. हट्टन ने मुखालफत की थी। उन ने यही दलील दी थी, हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी ऊंची जाति हैसियत दिखाने को फर्जी जातियां लिखवा रहे। पर अंग्रेज जमाने में कोई आरक्षण नहीं था। अब तो अपने देश में आरक्षण की खातिर क्या-क्या हो रहा, बताने की जरूरत नहीं। ओबीसी एससी बनना चाह रहा, एससी एसटी बनना चाह रहा। बाकी बचा जनरल, वह सबको देखकर हाय ये आरक्षण की पुकार कर रहा। भाषायी विवाद ने 1960 के दशक में जो कोहराम मचाया, उसको छोड़ दें, तो आज भी कई ठाकरे उसी की रोटी तोड़ रहे। भाषा के नाम पर देश कैसे बंटा हुआ, यह जगजाहिर। सो आने वाले वक्त में जाति के नाम पर त्राहि-त्राहि मचेगी। फिर उस संकट से कौन निजात दिलाएगा? अगर सचमुच जातीय जनगणना देश के लिए कल्याणकारी, तो आजादी के 63 साल बाद सुध क्यों आई? सच्चाई तो यह, जातीय जनगणना की मांग करने वाले अब अपने वोट बैंक की बैलेंस शीट नहीं बना पा रहे। लालू-मुलायम-बीजेपी-लेफ्ट को मालूम ही नहीं चल रहा, क्यों हार रहे। अगर बीजेपी को सचमुच जातीय जनगणना से जन कल्याण की खुशबू आ रही, तो 2001 में जब सत्ता में थी, तब कदम क्यों नहीं उठाया? तब भी जातीय जनगणना की आवाज उठी थी। पर सत्ता के नशे में चूर बीजेपी को तब समझ नहीं आई। अब विपक्ष की बैंच पर बैठकर जनकल्याण का ख्याल आ रहा। सोचो, जातीय जनगणना के बाद मौजूदा आंकड़ों से हटकर कुछ चौंकाने वाले आंकड़े आए, किसी जाति को अपना हक छिनता दिखा। तो क्या वह संघर्ष पर उतारू नहीं होगी? मानो या न मानो, समाज में दुर्भावना तो जरूर बढ़ेगी। जाति गणना की पैरवी करने वाले भले दलील दे रहे, जब आरक्षण मिल रहा, लोग जाति प्रमाणपत्र बना रहे। तो जाति बताने में गुरेज क्यों करेंगे। पर शायद ऐसी दलील देने वाले भूल रहे, कुछ चीजें परदे में ही अच्छी लगतीं। कोई जरूरी नहीं कि ढोल पीटकर अपनी जाति बताई जाए। फिर भी अगर नेताओं को जातीय गणना की दरकार। तो लोकतंत्र की बात क्यों कर रहे? जब लोगों का मूल जाति, तो क्यों न लोकतंत्र की जगह जातितंत्र शब्द का इस्तेमाल करें। हर जाति का एक सरदार बना दो। देश को कबीलाई भारत घोषित कर दो। फिर कबीले के हिसाब से राजनीतिक हिस्सेदारी तय करिए।
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09/09/2010

Wednesday, September 8, 2010

कॉमनवेल्थ का अब तो सचमुच ‘राम’ ही राखा

यों तो दिल्ली के ऊपर का आकाश अब नीला नहीं रहा। काले-घने बादलों ने ऐसा डेरा डाल रखा, शीला दीक्षित की पुकार इंद्र तक नहीं पहुंच पा रही। रोज सुबह उठते ही अर्जी लगातीं, हे इंद्र उतना ही बरसो, जितनी हमारी जरूरत। पर इंद्र पुकार नहीं सुन रहे। सो अब सरकार ने ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। दिल्ली की सडक़ों पर नीली पट्टियां बना डालीं। ताकि इंद्र देव भ्रमित हो जाएं। कुदरत के बनाए इनसान को नीली पट्टी का खौफ दिखाकर परेशान करना शुरू कर दिया। सो बुधवार को दिल्ली और आसपास के इलाके मानो ठहर गए। हर तरफ जाम और रेंगती हुई गाडिय़ां नजर आईं। कोई गलती से नीली पट्टी वाली लेन में घुसा, तो हाथ से गाड़ी भी छूटी, जेब भी ढीली हुई। कॉमनवेल्थ गेम्स में आने वाले मेहमानों के लिए पुलिस-प्रशासन कसरत कर रहे। भले आम लोगों को परेशानियों से दो-चार होना पड़े। यों ट्रेफिक सेंस सिखाना गलत नहीं। पर सिर्फ कॉमनवेल्थ के नाम पर लोगों को कष्ट देना कहां तक उचित। सरकार अगर आखिरी वक्त पर कॉमनवेल्थ के लिए मारामारी न करती, शुरू से ही जिम्मेदारी निभाई होती। तो आज दिल्ली समस्याओं की नगरी न होती। हर जगह मलबा जमा हुआ। दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस में कई बैंक पखवाड़े भर से काम नहीं कर रहे। कॉमनवेल्थ की तैयारियों के नाम पर कनॉट प्लेस को उजाड़ तो दिया। पर दुरुस्त करने में देर लग रही। जगह-जगह केबल कटे हुए। सो इंटरनेट काम नहीं कर रहा। कई दफ्तर ऐसे, जहां बिजली की सप्लाई आठ से दस घंटे ठप हो रही। ऊपर से बारिश ने व्यवस्था की पोल खोल रखी। ठहरे हुए पानी में मच्छर पनप चुके। सो डेंगू, मलेरिया का खौफ विदेश से आने वाले खिलाडिय़ों तक पहुंच चुका। खिलाडिय़ों के परिवारों ने तो आने से मना करना शुरू कर दिया। सो कहीं नाम खराब न हो, विदेशी मेहमानों के ठहरने की जगहों पर सुबह से लेकर शाम तक चार-छह बार छिडक़ाव हो रहे। यों अभी उन जगहों पर कोई इनसान नहीं। पर जहां इनसान रह रहे, वहां डेंगू, मलेरिया विकराल रूप ले चुके। लोग मर रहे, फिर भी फिक्र नहीं। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का हाल रोज सुर्खी बन रहा। कहीं गरीब बच्चे के शरीर से बदबू की दलील देकर सरकारी डाक्टर बिना इलाज के भगा रहे। तो कहीं सडक़ों पर बच्चा जनने को मजबूर हो रहीं महिलाएं। अब तो अपने वह होनहार खिलाड़ी भी डेंगू-मलेरिया की चपेट में, जिनसे देश को मैडल की आस। सो कॉमनवेल्थ भले एक आयोजन, देश की साख का सवाल। पर इसमें कोई शक नहीं कि अपनी व्यवस्था की अकर्मण्यता साबित हो गई। साठ साल में देश के बाकी हिस्सों को तो छोडि़ए, राजधानी दिल्ली का ऐसा हाल। तो व्यवस्था पर आम आदमी कैसे एतबार करे। आखिर कब तक आम लोगों को परेशान किया जाएगा? सनद रहे, सो याद दिला दें। जब पिछले साल अक्टूबर में कॉमनवेल्थ गेम्स फैडरेशन के अध्यक्ष माइक फेनेल ने मेजबानी छीनने की चेतावनी दी। तो अपना समूचा तंत्र हिल गया था। फिर आठ अक्टूबर 2009 को 71 देशों के डेलीगेट्स ने तैयारियों का जायजा लिया। तो सुबह के आठ बजे से शाम से सात बजे तक दिल्ली के सभी अहम रोड सील कर दिए गए। बाकायदा इश्तिहार जारी कर लोगों को उन रोड से न गुजरने की हिदायत दे दी गई थी। पर सवाल, ऐसा कब तक होगा कि अपनी नाकामी को छुपाने के लिए जनता को परेशान करेगी सरकार। पर उस घटना को साल भर बीत चुका। फिर भी नतीजा वही ढाक के तीन पात। सो तब यहीं पर लिखा था- क्यों ना दिल्ली वालों को बाड़ में डाल दें। सचमुच जब व्यवस्था के निकम्मे संचालक धौंस जमा लोगों को एक ओर धकेल रहे। तो यह कोई बाड़ से कम नहीं। लोकतंत्र में दिखावे की खातिर अपनी ही जनता पर चाबुक क्यों? क्या इसे ही विकास कहेंगे? अपने राहुल गांधी कई बार बैकवर्ड इंडिया और शाइनिंग इंडिया की बात कर चुके। कांग्रेस को विकास का साथी बताया, तो विपक्ष को दुश्मन। पिछले साल आठ अक्टूबर को जब कॉमनवेल्थ फैडरेशन के डेलीगेट्स दिल्ली में तैयारियों का मुआइना कर रहे थे, तो अपने राहुल गांधी मुंबई के पनवेल में चुनावी सभा कर रहे थे। तो उन ने कहा था- सत्तर साल पहले देश में सभी गरीब थे, आज आधा देश तरक्की कर रहा। राहुल यह बात हाल में भी दोहरा चुके। तो सवाल, देश की बाकी गरीबी दूर करने के लिए क्या कांग्रेस को राज करने के लिए सत्तर साल और चाहिए? पर कॉमनवेल्थ की तैयारी ने बता दिया, देश की राजधानी का कितना विकास हुआ। अब सचमुच एक ही तरीका बचा, पी. चिदंबरम के फार्मूले पर चाबुक चला दिल्ली वालों को सुधारो। वरना टिकट वाले दर्शकों और खिलाडिय़ों को छोडक़र बाकी दिल्ली वालों को नजरबंद कर दो। फिर भी कोई खतरा नजर आए, तो दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर तेजेंद्र खन्ना की ओर से कुछ साल पहले मजाक में कही गई बात को गंभीरता से ले लो। खन्ना से ट्रेफिक समस्या पर सवाल हुए। पूछा गया- क्या दिल्ली स्वर्ग बन जाएगी? तो उन ने मजाक में कहा था- दिल्ली तो तभी स्वर्ग बनेगी, जब सभी स्वर्गवासी हो जाएं। सच भी सही, कॉमनवेल्थ के नाम पर दिल्ली को स्वर्ग बनाने का दावा था। पर अब हालात ऐसे, कहीं ऐसा न हो, कॉमनवेल्थ गेम ही स्वर्गवासी हो जाएं। आयोजन समिति ने साढ़े सात सौ करोड़ का बीमा करा यही संकेत दिया। अब 24 सितंबर को अयोध्या की विवादित जमीन पर मालिकाना हक का फैसला आ रहा। कहीं इतिहास ने खुद को दोहराया। तो कॉमनवेल्थ का ‘राम’ ही राखा। शीला-कलमाड़ी ने तो वैसे ही राम भरोसे छोड़ रखा।
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08/09/2010

Tuesday, September 7, 2010

अब तो बीजेपी का चेहरा ही हो गया ‘झारखंडी’

चार महीने बाद ही कहावत दुबारा लिखनी पड़ेगी, ऐसा सोचा नहीं था। मशहूर कहावत है- भानुमती ने खसम किया, बुरा किया। करके छोड़ा, उससे बुरा किया। छोडक़र फिर पकड़ा, ये तो कमाल ही किया। झारखंड में सत्ता की खातिर बीजेपी-शिबू फिर साथ हो गए। तो इस कहावत को भी मात दे दी। पर जब कोई शर्म-हया बेच खाए, तो क्या थूकना-चाटना और क्या जूते-प्याज खाने वाली कहावत। यों राजनीति में कोई भजन करने नहीं आया। सबका लक्ष्य सत्ता हासिल करना ही होता। पर जब कोई खम ठोककर खुद को राजनीति की दुकानदारी से अलग सामाजिक ठेकेदारी की बात करे। अलग चाल, चरित्र, चेहरे का खम ठोके। तो ऐसे सवाल उठना लाजिमी। सो बीजेपी के लिए चाल, चरित्र, चेहरा ही डायन हो गईं। अगर बीजेपी खम ठोककर कांग्रेस की तरह राजनीति करे, तो इतनी टीका-टिप्पणी शायद ही हो। पर बीजेपी कंबल ओढक़र घी पीना चाहती। जैसा अबके झारखंड में हो रहा, हू-ब-हू यही कहानी कर्नाटक में हो चुकी। कर्नाटक की पिछली विधानसभा में तीनों बड़े दलों ने बारी-बारी सत्ता का जायका लिया। कांग्रेस-जेडीएस का गठजोड़ बीस महीने बाद टूटा। तो एचडी देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी ने बीजेपी को सत्ता का टुकड़ा फेंका। तो बीजेपी बड़ा दल होने के बावजूद छोटेपन की भूमिका को राजी हो गई। पर बीस महीने बाद कुमारस्वामी ने दो अक्टूबर 2007 को कुर्सी नहीं छोड़ी। तो दोनों ने एक-दूसरे की लानत-मलानत करते हुए तलाक ले ली। सो राष्ट्रपति राज लग गया। पर करीब बीस दिन बाद ही देवगौड़ा ने फिर बीजेपी को समर्थन का भरोसा दिया। तो 28 अक्टूबर 2007 को बीजेपी के एक बड़े नेता ने दबी जुबान में कहा था- हवन तीन बजे न सही, छह बजे ही। जेडीएस ने हमारी बात मान ली, सो हम भी तो कोई सन्यासी नहीं, आखिर राजनीति इसलिए तो कर रहे। यही बात बीजेपी कभी खुलकर नहीं कहती। पर कर्नाटक में सात दिन बाद ही देवगौड़ा ने फिर गच्चा दे दिया। तो बेचारी बीजेपी मुंह में खून लगे शेर की तरह देवगौड़ा पर फिर दहाडऩे लगी। सो झारखंड में क्या होगा, यह तो बाद की बात। पर पिछले चार महीने में बीजेपी ने झारखंड की खातिर अपने सिद्धांत की बलि चढ़ा दी। झारखंड में जब बीजेपी ने शिबू संग पिछले साल दिसंबर में सरकार बनाई। तो कई बड़े नेताओं ने विरोध किया था। पर सरकार बन गई। तो 27 अप्रैल को लोकसभा में कटौती प्रस्ताव के वक्त शिबू ने मनमोहन सरकार के पक्ष में वोट कर अपनी पतंग कटवा ली। बीजेपी ने इमरजेंसी मीटिंग कर समर्थन वापसी का एलान कर दिया। पर शिबू सोरेन एंड सन्स ने बीजेपी को सीएम की कुर्सी का ऑफर दिया। तो सिद्धांत और नैतिकता की दुहाई देकर समर्थन वापसी का एलान करने वाली बीजेपी महज 24 घंटे में ही पलटी मार गई। फिर महीने भर बीजेपी-झामुमो के बीच गुरिल्ला युद्ध चला। तो बीजेपी का चेहरा और बेनकाब हो गया। शिबू सोरेन के चेहरे को तो अब नकाब की जरूरत ही नहीं। पर पिछली बार मीडिया में हुई फजीहत से बीजेपी अबके संभली हुई। झारखंड में जब तक झामुमो के संग गोटी फिट नहीं हो गई, खबरें लीक नहीं होने दीं। मंगलवार को अर्जुन मुंडा विधायक दल के नेता चुन लिए गए। फिर गवर्नर के सामने सरकार बनाने का दावा पेश हो गया। अब कोई पूछे, क्या जनहित में बीजेपी-शिबू ने हाथ मिलाया? अगर जनहित का ख्याल होता, तो सरकार गिरती ही क्यों। बीजेपी ने भले कटौती प्रस्ताव पर शिबू सोरेन के धोखे को आधार बनाया था। पर सीएम की कुर्सी देखते ही शिबू पर भरोसा हो गया। यानी झारखंड में जनता का नहीं, किस्सा सिर्फ कुर्सी का। बीजेपी के आका संघ परिवारी पिछली बार भी सरकार गंवाने के मूड में नहीं थे। पर सौदेबाजी में बाजी हाथ से छूट गई। सो अबके मौका मिला, तो बीजेपी तैयार हो गई। यों आडवाणी अभी भी खिलाफ। पर संघ को खुश करने और झारखंड पर अपने पूर्व के फैसले को जायज ठहराने के लिए नितिन गडकरी हाथ-पैर मार रहे। संघ को भी झारखंड में चल रही अपनी मुहिम की फिक्र। वैसे भी अयोध्या पर 17 सितंबर को आने वाले फैसले के बाद की पृष्ठभूमि तैयार हो रही। झारखंड में धर्मांतरण मुहिम रोकने का संघ अभियान तेजी से चल रहा। तो दूसरी तरफ विधायक बैठे-बैठे थक गए। पर अगले चुनाव की तैयारी के लिए बिना सरकार चंदा उगाही संभव नहीं। सो सबने आपस में तय कर लिया, आओ सरकार बनाएं। कुछ तुम कमाओ, कुछ हम। यानी स्वार्थ की खातिर बीजेपी-शिबू साथ आ रहे, जनहित कतई नहीं। अब गवर्नर एमओएच फारुख ने भी अपनी रपट केंद्र सरकार को भेज दी। बीजेपी की ओर से सीएम पद के उम्मीदवार अर्जुन मुंडा के पक्ष में 44 एमएलए के समर्थन को माना। सो केबिनेट आज-कल में शायद राष्ट्रपति राज उठा ले। कांग्रेस भी यही रणनीति अपना रही। या यों कहें, कांग्रेस भी चाह रही, गुरुजी संग बीजेपी की सरकार बन जाए। ताकि बीजेपी पूरी तरह सत्तालोलुप साबित हो जाए। सो झारखंड की हलचल पर कांग्रेस कोर ग्रुप की अहम बैठक में पीएम, सोनिया, चिदंबरम, एंटनी ने मंथन किया। इधर झारखंड कांग्रेस के प्रभारी केशव राव ने दो-टूक कह दिया- हमारे पास नंबर नहीं, सो सरकार नहीं बनाएंगे। पर बीजेपी-शिबू की सरकार स्थायी नहीं होगी। अब कांग्रेस भले बीजेपी को बेनकाब करने की रणनीति बनाए। पर बीजेपी को क्या फर्क पड़ता। अब तो उसने भी अपना चेहरा ‘झारखंडी’ बना लिया। जैसे झारखंड अपने गठन से अब तक स्थिर नहीं। वैसे ही बीजेपी का ‘चेहरा’ भी हो गया।
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07/09/2010

Monday, September 6, 2010

कार्यपालिका पर कंट्रोल नहीं, कोर्ट को नसीहत

नक्सली कब्जे से बिहार के तीनों पुलिसिए रिहा हो गए। पर नक्सलियों ने अपना बर्बर चेहरा फिर दिखा दिया। चार बंधकों में से एक सिपाही लूकस टेटे की हत्या कर दबाव बनाया। पर दबाव रंग न लाया, तो आखिर में सारे बंधक छोड़ दिए। ताकि आम जनता की सहानुभूति बटोर सकें। पर नीतिश कुमार ने चुनौती दी, गर नक्सलियों को जनसमर्थन का इतना भरोसा। तो चुनावी समर में उतरकर लड़ें। शाम होते-होते चुनाव आयोग ने भी तारीखों का एलान कर डुगडुगी बजा दी। पर नक्सली खुद में इतने कन्फ्यूज्ड, शायद ही चुनाव लड़ें। अब चुनाव में कहीं गड़बड़ी न हो, सो आयोग ने छह फेज में चुनाव कराने का फैसला किया। आयोग ने तारीखों के चयन में त्योहार का ख्याल रखने की दलील दी। पर शायद आयोग बिहार के त्योहार को समझ ही नहीं पा रहा। दीपावली और छठ के बीच नौ नवंबर को वोटिंग होगी। जिस दिन छठ व्रत रखने वाले महिला-पुरुष उपवास पर होंगे। पर आयोग की तो छोडि़ए, यहां तो अपनी सरकार देश को उपवास कराने पर तुली हुई। भले खुले में पड़ा सरकारी अनाज सड़ जाए, पर मुफ्त नहीं बंटेगा। सुप्रीम कोर्ट ने सड़ते अनाज की खबरों के बाद आदेश क्या दिया। समूची सरकार बौखला गई। पहली बौखलाहट महंगाई बढ़ाने वाले मंत्री शरद पवार ने दिखाई। तो कोर्ट के आदेश को महज सलाह बता निकल लिए। पर मानसून सत्र के आखिरी दिन सुप्रीम कोर्ट ने ठोक बजाकर सरकारी वकील को बताया- जाकर अपने मंत्री को बता दो, मुफ्त अनाज बांटने की सलाह नहीं आदेश दिया। सो संसद में हंगामा बरपा। तो शरद पवार ने आदेश पालन करने का भरोसा दिया। पर सोमवार को साफ हो गया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सिर्फ पवार नहीं बौखलाए, अलबत्ता समूची सरकार सकते में। मनमोहन ने सोमवार को संपादकों के एक समूह से मुलाकात की। तो दिल का दर्द जुबां से छलक पड़ा। भले सरकारी व्यवस्था आउट ऑफ कंट्रोल हो। पर मनमोहन ने सुप्रीम कोर्ट को लाइन ऑफ कंट्रोल दिखाया। कोर्ट को नीतिगत मामलों में दखल न देने की नसीहत दी। दो-टूक कह दिया- मुफ्त अनाज बांटना संभव नहीं। मनमोहन के इनकार की दलील देखिए। बोले- सेंतीस फीसदी बीपीएल हैं, सो मुफ्त अनाज कैसे बांटा जा सकता। मुफ्त बांटेंगे, तो किसानों को अधिक पैदावार के लिए प्रेरित करने के उपाय फेल हो जाएंगे। फिर अनाज ही नहीं होगा, तो क्या बांटेंगे। मतलब साफ- भले अनाज सड़ जाए, पर मुफ्त नहीं देंगे। सुप्रीम कोर्ट की भावना और मनमोहन की भावना का फर्क देखिए। माना, कोर्ट को नीतिगत मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। संविधान में भी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखा तय। तीनों के बीच संतुलन ऐसा, अगर कोई एक नाकाम हो, तो दूसरा हावी हो जाएगा। यानी कार्यपालिका लंबी तानकर सोएगी। तो न्यायपालिका को दखल का मौका मिलेगा। पर मनमोहन ने कार्यपालिका में सुधार का कोई एजंडा नहीं रखा। अलबत्ता न्यायपालिका को हद में रहने की नसीहत दी। पर सवाल, खुद पीएम 37 फीसदी बीपीएल की बात कर रहे। तो क्या यह देश और पीएम के लिए शर्म की बात नहीं कि बीपीएल के रहते भी देश में अनाज सड़ रहा? आजादी के 63 साल बाद भी बीपीएल परिवारों की संख्या इतनी अधिक, क्या कार्यपालिका की संवेदनहीनता का सबूत नहीं? पिछले छह साल से महंगाई कोहराम मचा रही। पर सरकार सिर्फ जुबानी दिलासा दिला रही। क्यों नहीं पीडीएस को दुरुस्त करने का कदम उठाया मनमोहन ने? न्यायपालिका को कार्यपालिका में दखल देने का कोई शौक नहीं। अलबत्ता हमेशा ऐसा काम करती, जिससे आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ हो जाती। न्यायपालिका को नसीहत कोई नई बात नहीं। सनद रहे, सो बता दें। दस दिसंबर 2007 को खुद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए.के. माथुर और मार्कंडेय काटजू की बैंच ने न्यायपालिका को हद में रहने की नसीहत दी थी। सो तब भी राजनीतिक बहस छिड़ी। तो राजनेताओं के अहं का कीड़ा कुलबुलाने लगा। कोर्ट का फैसला मनमाफिक हो, तो ठीक। वरना जुडीशियल एक्टिविज्म का शिगूफा छेडऩे में नेतागण माहिर। पर सवाल, कोर्ट दखल क्यों देता? स्कूलों में एडमिशन हो या सरकारी अस्पतालों में इलाज, आम नागरिक के साथ कैसा व्यवहार होता, सभी जानते। पर कार्यपालिका ने कभी पुख्ता बंदोबस्त क्यों नहीं किया? अब अगर कोई अदालत का दरवाजा खटखटाए और अदालत आदेश दे, तो एक्टिविज्म की बात होने लगती। क्या जनता को कोर्ट से गुहार लगाने का हक नहीं? क्या न्यायपालिका में भी नेताओं की मर्जी चले? जैसा 1973 और 1977 में हो चुका। जब 1973 में वरिष्ठता के आधार पर जस्टिस शेलट, हेगड़े और ग्रोवर का नंबर था। पर तब इन तीनों से जूनियर ए.एन. रे को चीफ जस्टिस बना दिया। सो तीनों ने इस्तीफा दे दिया। इसी तरह 1977 में रे के बाद एच. आर. खन्ना का नंबर था। पर बनाए गए मिर्जा हमीदुल्ला बेग। सो खन्ना ने इस्तीफा दे दिया। पर पीआईएल के दौर से कोर्ट एक्टिव हुआ। सरकारी तंत्र ने गलतियों पर परदा डालने की कोशिश की। तो न्यायपालिका ने हथौड़ा चलाया। अगर कोर्ट एक्टिव न होता, तो जैन हवाला, सेंट किट्स मामला, चारा घोटाला, विचाराधीन कैदियों का मामला जैसे कई अहम केस फाइलों में ही दब जाते। पर कोर्ट ने नजीर पेश की। कार्यपालिका की पोल खुली, जनता ने कोर्ट का साथ दिया। सो नेताओं का भडक़ना लाजिमी।
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06/09/2010

Friday, September 3, 2010

वर्किंग कमेटी टाल बीजेपी ने खुद की खोली पोल

तो सोनिया गांधी का निर्वाचन भी निपट गया। बारिश ने भले जश्न का माहौल फीका कर दिया। पर सोनिया ने हमेशा की तरह रंग चढ़ा दिया। समारोह की शुरुआत वंदे मातरम से हुई, तो समापन जन, गण, मन से। सचमुच सोनिया ने जब राजनीतिक सफर की शुरुआत की, तब विपक्ष के कई थपेड़े झेले। पर हार नहीं मानी। सो कांग्रेसियों की खातिर सोनिया सफलता का पर्याय बन चुकीं। सोनिया ने निर्वाचन का सर्टिफिकेट हासिल करने के बाद कोई लंबा-चौड़ा भाषण नहीं फेंका, जैसा और पार्टियों के नेता फेंकते। अलबत्ता मंच पर आईं, सबका आभार जताया। बोलीं- अपने टर्म में मैंने महसूस किया कि अध्यक्ष पद देश के प्रति बड़ी जिम्मेदारी। आज कांग्रेस हर कोने, वर्ग और पीढ़ी की भावना-आकांक्षा की प्रतीक। सत्ता में हों या विपक्ष में, हमें अपनी बड़ी भूमिका का अहसास रहना चाहिए। आखिर में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखने का भरोसा दिखा धन्यवाद कर गईं। सोनिया ने चौथी बार कांग्रेस की कमान संभाल रिकार्ड कायम किया। पर गुरुवार को सोनिया को त्याग की नसीहत देने वाली बीजेपी शुक्रवार को खामोश रही। बीजेपी के कानूनदां प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस का संविधान पढक़र पेच निकाला था। परिवारवाद पर निशाना साधा। अपने नितिन गडकरी ने भी वही बात कही, जो अध्यक्षी संभालने के दिन कही थी। कहा था- बीजेपी में पोस्टर चिपकाने वाला मुझ जैसा छोटा कार्यकर्ता अध्यक्ष बन सकता है। पर कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेहरू-गांधी खानदान का होना जरूरी। यानी बीजेपी ने शीर्ष स्तर से कांग्रेस के लोकतंत्र का मखौल उड़ाया। सो कल यहीं पर लिखा था- कांग्रेस में चेहरा, तो बीजेपी में मोहरा का लोकतंत्र। कैसे कांग्रेस खुद को नेहरू-गांधी परिवार के साये से बाहर नहीं निकाल पा रही। तो बीजेपी में संघ की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सो कल आपको बताया था, कैसे संघ हमेशा अपने मोहरे बीजेपी में फिट करता। सोनिया गांधी का तो औपचारिक चुनाव हुआ। पर बीजेपी में गडकरी पहले अध्यक्ष बने, फिर चुनाव हुआ। सो वर्करों पर अपनी मर्जी थोपने में कोई पीछे नहीं। बीजेपी में तो आज भी संगठन महासचिवों का पद संघ के पूर्णकालिक वर्कर के लिए आरक्षित। यानी बीजेपी भले स्वतंत्र संगठन हो, पर उसे चलाने वाला सीईओ संघ तैनात करता। अगर बीजेपी के वर्करों को इस दलील पर एतराज हो, तो शुक्रवार की एक कहानी देख लें। कहते हैं ना, सांच को आंच नहीं। बीजेपी ने गुरुवार को सोनिया के चयन को अलोकतांत्रिक ठहराने की कोशिश की। पर देर रात जब झंडेवालान में नितिन गडकरी, अरुण जेतली और सुषमा स्वराज की संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से मीटिंग हुई। तो बीजेपी की ऐसी क्लास लगी, शुक्रवार को पौ फटते ही कोर ग्रुप की मीटिंग बुलानी पड़ी। बीजेपी ने 18-19 सितंबर को जम्मू में वर्किंग कमेटी का फैसला कर लिया था। तैयारियां शुरू हो गई थीं। पर संघ ने लताड़ लगाई। पूछा, किस सोच से 18-19 सितंबर को वर्किंग कमेटी करने जा रहे? संघ ने बीजेपी नेताओं को दो-टूक कह दिया- अयोध्या मामले पर 17 सितंबर को कोर्ट का फैसला आ रहा। आप लोगों को दिल्ली में बैठकर आगे की रणनीति बनानी चाहिए। पर आप जम्मू में राजनीतिक-आर्थिक और आंतरिक सुरक्षा का प्रस्ताव पारित करने जा रहे। अब बीजेपी को काटो, तो खून नहीं। सो शुक्रवार को तडक़े एलान हो गया- वर्किंग कमेटी 18-19 सितंबर को नहीं होगी। नई तारीख का एलान बाद में करेंगे। अब कोई गडकरी से पूछे, क्या इसी लोकतंत्र की बात कर रहे थे? खुद में दम नहीं, पर लोकतांत्रिक संगठन का दंभ भर रहे। गडकरी को अध्यक्ष बने साढ़े आठ महीने हो गए। पर क्या यही उपलब्धि? यों गुरुवार को बीजेपी ने कांग्रेस पर चुटकी ली थी। पर शुक्रवार को बीजेपी की चुटकी बीजेपी वालों ने ही ली। गडकरी की उपलब्धि यही, पहली बार आडवाणी खुद चलकर गडकरी के घर हुई कोर ग्रुप की मीटिंग में पहुंचे। वह भी बारहवीं मंजिल पर किराये वाले घर में। राजनाथ सिंह जब तक अध्यक्ष रहे, या तो खुद आडवाणी के घर गए या बीजेपी दफ्तर में ही मीटिंग करनी पड़ी। पर गडकरी ने साढ़े आठ महीने में ही यह उपलब्धि हासिल कर ली। यों यह तो महज चुटकी। पर सच्चाई यही, कोई भी पार्टी लोकतंत्र को तवज्जो नहीं देती। कांग्रेस तो खम ठोककर परिवार के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर कर चुकी। पर बीजेपी नीतिगत मामलों पर संघ से दूरी का दंभ भरती। अब जब वर्किंग कमेटी तक की तारीख संघ तय करे, तो बीजेपी किस मुंह से अपनी बड़ाई कर रही? संघ के बीजेपी में दखल का खुल्लमखुल्ला इजहार आडवाणी 16 सितंबर 2005 की चेन्नई वर्किंग कमेटी में कर चुके। जब पानी पिये बिना ही संघ को कोसा था। संघ के दखल से इतने परेशान थे कि पानी पी-पीकर कोसने की फुर्सत नहीं मिली। अब जिस अयोध्या मामले पर आने वाले अदालती फैसले के मद्देनजर संघ ने बीजेपी की वर्किंग कमेटी टलवाई। उसी संघ के आनुषांगिक संगठन आपस में भिड़ते दिख रहे। विश्व हिंदू परिषद विपरीत फैसले की स्थिति में साधु-संतों को आगे करने की रणनीति बना रहा। तो बीजेपी एक बार फिर काठ की हांडी चढ़ाने की सोच रही। पर विहिप ने कह दिया- अब मंदिर मामले में बीजेपी दखल न दे। सो अयोध्या पर फैसला जब आएगा, तब आएगा। फिलहाल बीजेपी के सिर से खिजाब का रंग उतर गया। चौबीस घंटे भी न हुए, आईने की तरह साफ- अगर कांग्रेस का रिमोट दस जनपथ में, तो बीजेपी का रिमोट नागपुर के रेशमबाग में।
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03/09/2010

Thursday, September 2, 2010

कांग्रेस में ‘चेहरा’, बीजेपी में ‘मोहरा’ का लोकतंत्र

सोनिया गांधी का अध्यक्ष चुना जाना अब महज रस्म। रमजान के आखिरी शुक्रवार को बाकायदा एलान हो जाएगा। पर गुरुवार को सोनिया दरबार में मत्था टेकने को कांग्रेसियों की बेकरारी खूब दिखी। कतार ऐसी, मंत्री पर संतरी भारी पड़े। चीफ मिनिस्टर हों या केबिनेट मंत्री या सोनिया के किचिन केबिनेट के नेता। या फिर देश भर से पहुंचा हुजूम। दस जनपथ में जाने को सबको अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा। दिल्ली की गर्मी और उमस भी एयरकंडीशंड में बैठने वाले नेताओं का हौसला पस्त नहीं कर पाई। ऐसी भक्ति गुरुवार को या तो मथुरा-वृंदावन के मंदिरों में दिखी या दस जनपथ पर। कांग्रेसी नेताओं के चेहरों पर वही भाव दिखे, जो देश भर में दही-हांडी फोडऩे वाले ग्रुपों के। पर सब नंबर से अंदर गए। नामांकन के सैट पर मैडम की मंजूरी ली। फिर ऑस्कर फर्नांडिस को सौंप आए। कुल 56 सैट में परचे आए। पर एक परचा खानापूर्ति पूरी न होने की वजह से खारिज हो गया। किसी भक्त ने अपना चेहरा दिखाने के लिए हड़बड़ी में यों ही सैट तैयार कर लिया होगा। पर बात सैट की नहीं, माइंडसैट की। परिवारवाद राजनीति की सैट धारणा बन चुकी। परिवार-परिवार खेलने में कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं। मुलायम सिंह के बेटे अखिलेष, कल्याण सिंह के बेटे राजबीर, राजनाथ सिंह के बेटे पंकज, लालजी टंडन के बेटे गोपाल जैसे कई नेता। अपने राजस्थान में जसवंत-मानवेंद्र, वसुंधरा-दुष्यंत जैसे कई। सो परिवारवाद तो राजनीति में संस्था बन चुका। जब बीजेपी पर परिवारवाद का आरोप लगता, तो बीजेपी बचाव में कहती- नेता का बेटा नेता नहीं बनेगा, तो क्या बनेगा। पर अब सोनिया गांधी के चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना तय हो गया, तो बीजेपी की बौखलाहट कहें या घबराहट, यह आप ही तय करिए। जिन सोनिया गांधी को बीजेपी ने गूंगी गुडिय़ा कहा, उसी गुडिय़ा ने 2004 के आम चुनाव में बीजेपी को पुडिय़ा बनाकर फेंक दिया। बीजेपी फील गुड करती रह गई, जनता ने सोनिया के ऊपर हुए राजनीतिक प्रहार को खुद पर हमला माना। याद है ना 2004 के चुनाव में विदेशी मूल का मुद्दा कितना हावी था। बीजेपी के नेताओं ने सोनिया को कई अपशब्द भी कहे। इतना ही नहीं, चुनाव हारने के बाद बौखलाई बीजेपी की दो वरिष्ठ नेत्रियों ने जो सिर मुंडाने का तांडव किया, वह इतिहास बन चुका। पर 2007 में सुप्रीम कोर्ट में सोनिया के विदेशी मूल पर याचिका दायर हुई। तो चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन ने कहा था- विदेशी मूल के किसी व्यक्ति पर संवैधानिक पाबंदी नहीं। इससे पहले हाईकोर्ट ने याचिका ठुकरा वसुधैव कुटुंबकम की बात कही थी। पर अब विदेशी मूल का मामला बीजेपी की डिक्शनरी से गायब हो चुका। सो सवाल विदेशी मूल का नहीं। गुरुवार को बीजेपी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सोनिया के चुनाव पर फब्ती कसी। यों संगठन चुनाव हर पार्टी की अंदरूनी प्रक्रिया। कौन अध्यक्ष बनेगा, यह अंदरूनी तौर पर ही तय होता। सो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दंभ भरना तो हर पार्टी का ढकोसलापन। पर बीजेपी के रविशंकर प्रसाद बोले- पीएम पद की तरह अध्यक्ष पद का त्याग करके दिखाएं सोनिया, तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया दिखेगी। बीजेपी ने कांग्रेस नेताओं को भी ललकारा। कहा- सोनिया को चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं। यों बात सोलह आने सही। पर कोई पूछे, बीजेपी के किस अध्यक्ष के चुनाव में वोटिंग की नौबत आई? सीताराम केसरी और सोनिया के पहली बार के चुनाव में बाकायदा वोटिंग हुई थी। पर बीजेपी की दलील, हर बार नया अध्यक्ष बना। कांग्रेस संविधान में ब्लाक, जिला और प्रदेश अध्यक्ष के लिए दो साल का टर्म फिक्स, तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए क्यों नहीं? यानी बीजेपी के निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार। बीजेपी का अंदरूनी लोकतंत्र कैसा, यह किसी से छुपा नहीं। सो बीजेपी की दलील पर कहावत याद आ गई- छज बोले, तो बोले, छलनी भी बोले, जिसमें खुद हजारों छेद। बीजेपी ने कांग्रेस के परिवारवाद को आड़े हाथों लिया। पर भूल गई, बीजेपी का अध्यक्ष भले कोई नेता बनता हो, पर बनता वही है, जिसे संघ चाहता। बीजेपी में अध्यक्ष ही नहीं, पार्टी का हर नीतिगत फैसला संघ की सहमति के बाद ही लिया जाता। नितिन गडकरी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी कार्यकर्ताओं की मंजूरी से नहीं हुई। अलबत्ता संघ ने नागपुर से दिल्ली भेजा। पर हश्र क्या हुआ, खुद गडकरी अच्छी तरह जानते। अपना दर्द कई बार नागपुर में करीबियों को बता चुके। कैसे बीजेपी का चेहरा बनने आए थे, पर मोहरा बनकर रह गए। झारखंड में शिबू संग सरकार का फैसला गडकरी के पहुंचने से पहले ही हो चुका था। मीटिंग में गडकरी पहुंचे, तो एलान करने का जिम्मा सौंप दिया गया। यों बीजेपी के ऐसे लोकतांत्रिक किस्से कई। पर अगर बीजेपी ने फब्ती कसी, तो कांग्रेस ने भी कोई लोकलिहाज नहीं किया। अलबत्ता दरबारियों ने पलट कर कह दिया- चार बार नहीं, मौका मिला तो चालीस बार सोनिया को ही अध्यक्ष बनाएंगे। मतलब साफ, कांग्रेसियों को नेहरू-गांधी खानदान का एक चेहरा चाहिए। यानी लोकतंत्र राजनीतिक दलों में सिर्फ कहने की बात। अलबत्ता दो-चार लोग बैठकर एजंडा तय करते। बाकी लाखों-करोड़ों वर्कर मानने को मजबूर। सो कुल मिलाकर कांग्रेस को हमेशा एक चेहरे की जरूरत। तो बीजेपी में बदलते चेहरे के बावजूद नेतृत्व मोहरा ही दिखता।
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02/09/2010

Wednesday, September 1, 2010

विपक्ष जीता, न सरकार, हार गया आम आदमी

 रहीम का एक दोहा है- बड़े बड़ाई ना करें, बड़े न बोलें बोल। रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका मा मोल। पर अपने राजनेता जनता को ईवीएम का बटन दबाने के सिवा कोई हक नहीं देना चाहते। सो मानसून सत्र में किसका मान बढ़ा और किसका नहीं, यह खुद ही तय कर लिया। बीजेपी ने तो बेहिचक कह दिया- संसद सत्र में विपक्ष के बिना सरकार सून रही। यानी जहां-जहां बीजेपी ने साथ दिया, सरकार आगे बढ़ी। जहां अड़ंगा डाला, पीछे हट गई। पर संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल भी पलटवार करने से नहीं चूके। बोले- लोकसभा में 45 घंटे, राज्यसभा में 35 घंटे हंगामे में बरबाद हुए। फिर भी लोकसभा में बीस और राज्यसभा में दो बिल पारित कराए। यों सत्तानशीं बंसल के जवाब से कोई हैरत नहीं। सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल जनता के प्रति उदासीन हो ही जाते। पर विपक्ष का आत्ममुग्ध होना कितना न्यायोचित? सत्र निपटा, तो बीजेपी के दोनों नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेतली उपलब्धि का पिटारा खोलकर बैठ गए। कहा- मानसून सत्र का निचोड़ यही, हम जीते, सरकार हारी। सुषमा बोलीं- सरकार के लिए यह सत्र रेफर एंड डेफर वाला रहा। जहां हमने साथ दिया, सरकार ने बिल पारित कराया। जहां विरोध किया, सरकार ने बिल वापस ले लिया। बतौर विपक्ष बीजेपी ने अपनी भूमिका पर आत्मसंतोष जताया। कहा- हमने सरकार को कॉमनवेल्थ, भोपाल गैस कांड, एटमी जनदायित्व बिल पर घेरा। जहां सरकार ने हमारी बात मानी, समर्थन दिया। और जहां सरकार और अन्य विपक्षी दलों ने बीजेपी का साथ नहीं दिया, वहां भी हम अपनी बात पर डटे रहे। यानी अगर बीजेपी की सारी दलील मान लें, तो मानसून सत्र में वही हुआ, जो बीजेपी ने चाहा। तो सवाल- आम आदमी को महंगाई से निजात क्यों नहीं दिला पाई? क्यों नियम 184 और कामरोको प्रस्ताव से हटकर सरकारी प्रस्ताव के आगे घुटने टेके? जम्मू-कश्मीर की बहस पर मंत्री का जवाब क्यों नहीं ले पाई? भूमि अधिग्रहण पर यूपी के किसानों ने 15 अगस्त के दिन गोलियां खाईं। पर विपक्ष ने सिर्फ संसद घेराव कर अपनी चादर क्यों फेंक दी? क्यों नहीं किसानों के लिए आर-पार की बात हुई? क्यों नहीं मौजूदा सत्र में ही भूमि अधिग्रहण बिल लाने की रार ठानी? बिल तो 2007 से ही तैयार। क्यों नहीं एटमी जनदायित्व बिल जैसी रार ठानी? क्या बराक ओबामा को खुश करने के लिए ही सरकार से हाथ मिलाया? भोपाल गैस त्रासदी की चर्चा से क्या निकला? सरकार ने तो दो-टूक कह दिया- किसके फोन से एंडरसन को छोड़ा और भगाया गया, इसका रिकार्ड नहीं। फिर भी बीजेपी ने एटमी जनदायित्व बिल पर इतनी जल्दबाजी क्यों होने दी? अगर बीजेपी चाहती, तो इसी बिल की एवज में आम आदमी की खातिर डील करती। पहले भूमि अधिग्रहण बिल लाने और महंगाई पर अंकुश की बात करती। पर विपक्ष ने ऐसा नहीं किया। सो बीजेपी मानसून सत्र को अपनी जीत बता इतनी आत्ममुग्ध क्यों, यह वही जाने। पर संसद तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर। संसद में किसने कैसी भूमिका निभाई, किसको कितने नंबर मिले, यह तय करने का हक जनता को। पर सरकार हो या विपक्ष, खुद ही हार-जीत तय कर रहे। सचमुच सरकार और विपक्ष की इस हार-जीत की लड़ाई में आम आदमी ठगा महसूस कर रहा। मानसून सत्र तो बीत गया, पर महंगाई लगातार डेंगू सा डंक मार रही। अब जरा हार-जीत की जंग में दोनों पक्षों का एक नमूना देखिए। मंगलवार को राज्यसभा में एजूकेशनल ट्रेबुनल बिल अटक गया। कांग्रेस के ही केशव राव ने मोर्चा खोला। तो बाकी विपक्ष भी उठ खड़ा हुआ। पर कपिल सिब्बल बिल पर वोटिंग को अड़ गए। सो संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने फौरन बात संभाली। सिब्बल को मनाने की कोशिश की। पर सिब्बल नहीं मान रहे थे। आखिर में बिल वापस लिया और गुस्से में सदन से बाहर निकल गए। सिब्बल की नाराजगी ऐसी, संसदीय कार्य मंत्री के फ्लोर मैनेजमेंट पर जेतली-सुषमा सरीखे सवाल उठा दिए। बुधवार को तो सिब्बल ने बाकायदा पीएम से मिल बंसल की शिकायत भी कर दी। पर बंसल ने भी जवाब देने में देर नहीं की। फ्लोर मैनेजमेंट को सिर्फ अपनी नहीं, बिल पेश करने वाले मंत्री की भी जिम्मेदारी बताई। अब सिब्बल बनाम बंसल में जीत सिब्बल की तो नहीं हुई। असल में जिस बिल पर सरकार में ही जंग छिड़ी, वह मामला सीधे राहुल गांधी से जुड़ा। स्टेंडिंग कमेटी की सिफारिशों को सिब्बल ने नजरअंदाज कर बिल पेश किया। इसी कमेटी में राहुल गांधी भी मेंबर। सो केशव राव ने कड़ा एतराज जताया। विपक्ष के नेता अरुण जेतली सिब्बल के घमंड से तो आहत बैठे ही थे। सिब्बल सहयोग मांगने के लिए विपक्ष के नेता के पास खुद नहीं गए। अलबत्ता एक अफसर भेज दिया। अब नेहरू-गांधी परिवार का मामला हो, तो सिब्बल की क्या बिसात। सो बंसल ने पीएम से हुई शिकायत की परवाह नहीं की। सिब्बल के धुर विरोधी जनार्दन द्विवेदी ने भी बंसल के सुर में सुर मिलाया। कहा- लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक। केशव राव ने कुछ गलत नहीं किया। अब जरा इसी बिल पर विपक्ष की भूमिका देखिए। जेतली-सुषमा ने सरकार के फ्लोर मैनेजमेंट पर सवाल तो उठाया। पर खुद बीजेपी का यह कैसा मैनेजमेंट, जो लोकसभा में बिल पास हो गया, राज्यसभा में अटक गया। यों सुषमा बोलीं- लोकसभा में हमारे पास नंबर कम थे। पर विपक्ष ने पहले ही राज्यसभा में अटकाने की धमकी दे दी होती, तो बिल राज्यसभा तक पहुंचता ही क्यों। पर अब बीजेपी भागने का रास्ता ढूंढ रही।
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01/09/2010