Wednesday, November 18, 2009

तो क्या अब चीनी-अमेरिकी भाई-भाई?

इंडिया गेट से

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तो क्या अब चीनी-
अमेरिकी भाई-भाई?
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 संतोष कुमार
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         अब तय हो चुका, बीजेपी का किला नितिन गडकरी ही संभालेंगे। बुधवार को बीजेपी प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर तो गडकरी शब्द के अर्थ भी पार्टी मंच से बता गए। गडकरी, यानी गढ़ की रक्षा करने वाला। किले को मजबूत करने वाला। यानी कमजोर हो रहे बीजेपी के किले को संघ ने नाम का गडकरी थमा दिया। सो बीजेपी में गडकरी का गुणगान भी शुरू हो गया। यों गडकरी शब्द शिवाजी महाराज के वक्त खूब इस्तेमाल होता था। शिवाजी किला फतह करते जाते। उसकी रक्षा के लिए सिपाही भी तैनात होते जाते। सो गढ़ की रक्षा करने वालों इन सिपाहियों को ही गडकरी कहा गया। अब शिवाजी के गडकरी तो इतिहास की बात। पर संघ के गडकरी बीजेपी के कितने काम आएंगे, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। सो फिलहाल तो बीजेपी के धुरंधर सरकार को घेरने में जुट गए। आखिर जन, गण, मन की घड़ी आ ही गई। गुरुवार को शीत सत्र शुरू होगा। तो संसद के बाहर गन्ना किसान दर्द उड़ेलेंगे। सदन के भीतर विपक्ष की गर्जना। सो संसद सत्र के लिए मुद्दों की भरमार और विपक्ष के तेवरों ने सरकार की तबियत नासाज कर दी। सो अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने बुधवार को ही बचावी पेंतरा ढूंढ लिया। बोले- 'अंदरूनी कलह से बचने के लिए विपक्ष सत्र को बाधित करने की मंशा पाले हुए है।Ó यानी बीजेपी जब भी मुद्दा उठाकर हंगामा करेगी। तो कांग्रेस जवाब में यही दलील देगी। पर क्या गन्ना किसानों की आवाज या महंगाई, भ्रष्टïाचार, आतंकवाद जैसे मुद्दे उठाना विपक्ष की जिम्मेदारी नहीं? अब अगर बीजेपी इन मुद्दों पर सरकार से जवाब तलब करे। तो सरकार को सीधे-सीधे जवाब देना चाहिए। ताकि संसद में बहस का स्तर उम्दा हो। आम जनता का संसद के प्रति भरोसा बढ़े। ब्रिटिश विद्वान सर आइवर जैनिंग्स ने लोकतंत्र के बारे में यही तो लिखा था। अगर किसी देश की जनता स्वतंत्र है या नहीं, यह पता करना हो। तो पहले यह पता करो कि उस देश में विपक्षी दल है या नहीं। और अगर है, तो उसकी स्थिति कैसी है। यानी लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती ही बेहतर शासन की नींव। सो जनता के मुद्दे से मुंह छिपाने को विपक्ष के अंदरूनी झगड़ों पर हमला कहां तक उचित? पर सरकार भी विपक्ष को जवाब देने की तैयारी का दावा कर रही। सो भले घरेलू मुद्दों पर राजनीतिक नफा-नुकसान बहस में दिखे। पर अंतर्राष्टï्रीय मामले में एकजुटता की जरूरत। अब अमेरिका की चीन से गलबहियां अपनी चिंता का विषय। अमेरिका ने यू-टर्न लेते हुए तिब्बत पर पहली बार चीन का साथ दिया। यही अमेरिका दलाईलामा को चीन के खिलाफ अंतर्राष्टï्रीय मंच मुहैया कराता रहा। हर तरीके से मदद के साथ-साथ मानवाधिकार की दुहाई देता रहा। ताकि चीन को काबू में रख सके। पर मंदी ने अमेरिका को हिला दिया। अब चीन आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर। सो ओबामा सीधे चीन को शरणागत हो गए। पर चीन कम चालाक नहीं। जब खुद महाशक्ति बनने की ओर। तो डूब रही महाशक्ति को सहारा क्यों दे। सो भारत के खिलाफ फिलहाल अमेरिका का साथ निभाएगा। ताकि अरुणाचल के तवांग पर अपना दावा मजबूत कर सके। सो अमेरिका-चीन की गलबहियां भारत के लिए दोहरी चिंता की वजह। साझा बयान तो अमेरिका-चीन का जारी हुआ। पर जिक्र भारत-पाक मुद्दे की हो गई। ओबामा-जिंताओ ने मिलकर भारत-पाक के मामलों में दखल देने की प्रतिबद्धता जता दी। चीन तो पहले ही पाक को शह देता रहा। अब अमेरिका ने उसे दक्षिण एशिया का दादा घोषित कर दिया। यानी अब दोनों मिलकर कश्मीर में अपनी नाक घुसेड़ेंगे। पर कहीं ऐसा न हो, अमेरिकी-चीनी भाई-भाई बन भारत को कश्मीर में उलझा दें। उधर तवांग को चीन हथिया ले। पर चीन से अमेरिका को भी सचेत रहने की जरूरत। चीन ने पहले हिंदी-चीनी भाई-भाई कहकर भारत की पीठ में छुरा घोंपा। सो जो चीन पड़ोसी का सगा न हुआ। वह सात समंदर पार अमेरिका का क्या होगा। अब कोई पूछे, अमेरिका-चीन साझा बयान में भारत-पाक कहां से आ गए। दक्षिण एशिया में शांति का दादा क्यों बन रहे, जब किसी ने मदद मांगी ही नहीं। सो बुधवार को अपने विदेश मंत्रालय ने दो-टूक जवाब दे दिया। अमेरिका और चीन भले स्वयंभू दादा बन रहे हों। पर भारत का राष्टï्रीय हित सर्वोपरि। सो अपने विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर दिया। पाक के साथ द्विपक्षीय वार्ता के जरिए विवाद को खुद सुलझाएंगे। शिमला समझौते के तहत न तो तीसरे पक्ष की भूमिका हो सकती। और न भारत को इसकी दरकार। पर पाक से सार्थक बातचीत तभी, जब आतंकवाद का खात्मा होगा।

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18/11/2009