Friday, October 8, 2010

मन की हो, तो वाह, नहीं तो पार्टी की तेरी....!

तो केंद्र सरकार ने भी मान लिया, अलगाववादियों की जुबान बोल रहे उमर। सो उमर से सफाई मांगी। क्षेत्रीय स्वायत्तता और विलय पर दिए बयान का मतलब पूछा। पर केंद्र सरकार गर सचमुच उमर से नाराज। तो सवाल, क्या कोई कार्रवाई करेगी? अगर ऐसा कोई इरादा होता। तो कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह गुरुवार को उमर संग सुर न मिलाते। कांग्रेस उमर के बयान को वजूद बचाने वाला बयान मान रही। सो केंद्र सरकार की जवाबतलबी का मकसद, पाक को बेवजह मौका न मिले। यानी देश या लोकतंत्र की नहीं, नेताओं को सिर्फ अपने वजूद की फिक्र। तभी तो अब्दुल्ला खानदान की तीसरी पीढ़ी बागडोर संभाल रही। पर सोच पहली पीढ़ी से भी गई-गुजरी। सचमुच राजनीति में वजूद बचाने को नेता लोक-लिहाज को रौंदने में तनिक भी संकोच नहीं करते। तभी तो इस होड़ में लेफ्ट को छोड़ कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं। पर ताजा किस्सा बीजेपी का। वैसे कहते हैं, मुसीबत कभी अकेले नहीं आती। बीजेपी पर यह कहावत सटीक। कर्नाटक में संकट अभी सुलझा भी नहीं, बीजेपी बिहार में उलझ गई। यों कर्नाटक में दल-बदल कानून का डंडा और मंत्री पद का लॉलीपाप दिखा कुछ बागियों को पटा लिया। पर बिहार में पहले चरण की वोटिंग से महज 14 दिन पहले सीपी ठाकुर ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। चुनावी समर के बीच बीजेपी में ऐसा हुड़दंग दिल्ली की ही देन। याद करिए लोकसभा चुनाव का वाकया। तबके बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और अरुण जेतली के बीच ऐसी जंग छिड़ी। पोल मैनेजर होते हुए भी जेतली ने केंद्रीय चुनाव समिति की मीटिंग का लगातार बॉयकाट किया। संयोग देखिए, तब खींचतान की वजह भले सुधांशु मित्तल थे। पर अधर में बिहार का ही टिकट लटका था। रार ऐसी कि जेतली बैठक में नहीं गए। पर आडवाणी के कहने पर राजनाथ के घर जाकर टिकट बंटवाया। अब जरा सीपी ठाकुर की नाराजगी की वजह भी देख लो। प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए भी बेटे विवेक ठाकुर को मनमाफिक सीट से टिकट नहीं दिला पाए। अलबत्ता वह सीट नीतिश कुमार की झोली में आलाकमान ने डाल दी। तो सीपी ठाकुर ने आव देखा न ताव, अपना इस्तीफा दिल्ली भेज दिया। पर जरा खत का मजमून बताते जाएं। ताकि नेताओं के दिल और दिमाग का फर्क साफ हो जाए। सीपी ठाकुर ने अपने इस्तीफे में लिखा- प्रदेश अध्यक्ष पद से मेरे इस्तीफे का यह मतलब नहीं है कि अपने बेटे विवेक ठाकुर को टिकट नहीं दिला पाया। बल्कि प्रदेश में अब तक बहुत से ऐसे निर्णय हुए हैं, जिनमें मुझसे सहमति नहीं ली गई। इससे मैं आहत हूं। यानी सीपी ठाकुर का दिल रो रहा कि बेटे को टिकट नहीं दिला पाए। पर मजबूरी, वही बात जुबां से कह नहीं सकते। सो निर्णय में उपेक्षा की दलील दे रहे। पर सवाल, सीपी ठाकुर को यही वक्त क्यों मिला? गर उपेक्षा हो रही थी, तो पहले ही इस्तीफा क्यों नहीं दिया? अब जब दीघा विधानसभा सीट बीजेपी ने गठबंधन के सहयोगी जेडीयू को दे दी। तो ही ठाकुर को उपेक्षा क्यों नजर आई? अगर दीघा सीट से विवेक ठाकुर उम्मीदवार हो जाते। तो क्या सीपी ठाकुर उपेक्षा का आरोप लगाते? अगर उपेक्षा हुई भी हो, तो बेटे को टिकट मिल जाने से सारे दर्द दूर हो जाते। यों गठबंधन की जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व की होती। सो केंद्र ने फैसला लिया, तो इसमें नाराजगी क्यों? आखिर नेताओं में यह कौन सा रोग। जब आलाकमान तमाम विरोधों के बावजूद सीपी ठाकुर को अध्यक्ष बनाए, तो फैसला बहुत अच्छा। पर वही आलाकमान गठबंधन में समझौते के तहत दीघा सीट सहयोगी को दे दे। तो आलाकमान का फैसला गलत कैसे हो गया? राजनीति में किसी प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनने के बाद आलाकमान से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि जो बात राज्य को पसंद हो, वही बात करे। कम से कम सीपी ठाकुर जैसे कद्दावर नेता को यह शोभा नहीं देता। बीजेपी खुद को लोकतांत्रिक पार्टी कहती। नितिन गडकरी हर मंच से कहते- बीजेपी ही ऐसी पार्टी, जहां मेरे जैसा पोस्टर चिपकाने वाला व्यक्ति राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता। गडकरी ने इस बयान से हमेशा कांग्रेस के वंशवाद पर निशाना साधा। पर ठाकुर बीजेपी में रहकर कांग्रेस जैसा मंसूबा पाले बैठे। कांग्रेस में जहां वंशवाद की पूरी बेल और हर शाख पर वंशवाद का फल दिख रहा। कुछ हद तक बीजेपी में भी यह बेल लगी। जब राजनाथ सिंह अध्यक्ष थे, तो उनने अपने बेटे पंकज सिंह को यूपी के चिरईगांव विधानसभा से उम्मीदवार बना दिया। पर सवाल उठे, तो राजनाथ ने कदम पीछे खींचने में पूरी शालीनता दिखाई। खुद पंकज ने टिकट छोड़ संगठन में रहने की इच्छा जताई। सो आज राजनाथ का अलग वजूद। पर अपने बेटे-बेटियों-रिश्तेदारों को टिकट दिला राजनीतिक वजूद बनाने वाले नेता भी कम नहीं। गोपीनाथ मुंडे बेटी पंकजा को एमएलए बना चुके। दामाद को टिकट दिलाया, पर हार गए। मध्य प्रदेश में विक्रम वर्मा की पत्नी, कैलाश सारंग और कैलाश जोशी का बेटा एमएलए। राजस्थान से अपने दुष्यंत सांसद। हिमाचल से धूमल के बेटे अनुराग का ग्राफ बढ़ रहा। तो भला सीपी ठाकुर पीछे क्यों रहते। यों बीजेपी में सीपी ठाकुर जैसे क्षत्रपों की कमी नहीं। जब कुर्सी मिलती, तो आलाकमान की वाह-वाह। और जब कुछ न मिले या कुर्सी छोडऩे को कहा जाए, तो आलाकमान को आंख दिखाने लगते। अपनों की ऐसी-तैसी और छीछालेदर करने में नहीं हिचकते।
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08/10/2010