Thursday, February 25, 2010

इतना विकास, बाप रे बाप!

चलो, संसद भी महंगाई से निपट ली। यूपीए के छह साल में नौवीं बार बहस हुई। तो पहली मर्तबा सांसदों में दिलचस्पी दिखी। भले कामरोको प्रस्ताव खारिज हो गया। पर अबके नियम 193 के तहत विशेष चर्चा हुई। प्रश्रकाल को स्थगित करना पड़ा। सो विपक्ष इसी से गदगद हो गया। गुरुवार को संसद ने ठाना, सातवें आसमान की महंगाई सात घंटे में निपटा देंगे। अब बहस तो निपट गई, बाकी महंगाई की तो आप ही जानें। पर राजनीति के चंगुल में फंसी महंगाई की चर्चा तो ऐसी रही- 'तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय। न तुम हारे, न हम हारे।' विपक्ष ने जनता की आवाज बुलंद कर दी। तो सरकार ने भी अपने गीत सुना दिए। वैसे भी अपनी संसद यों ही गोल नहीं। नेता गोल संसद की तरह आम आदमी को गोल-मोल घुमाने में माहिर हो चुके। अब संसद भवन का डिजाइन बनाने वाले ब्रिटिश वास्तुकार हरबर्ट बेकर ने क्या सोचकर संसद गोल बनाई, पता नहीं। पर अपने नेताओं ने इसका यही निचोड़ निकाला, एक बार चुनकर लोकतंत्र के मंदिर में आ जाओ। फिर आम आदमी तो खुद-ब-खुद मंदिर की परिक्रमा करता फिरेगा। सो संसद में शरद पवार ने बहस का जवाब दिया। तो लगा, मानो शरद पवार आम आदमी से पूछ रहे- महंगाई किस चिडिय़ा का नाम? पवार ने सरकारी आंकड़े गिनाए। कुछ राज्यों की चि_िïयां सुनाईं। तो महंगाई कहीं नहीं दिखी। पवार ने एक और करिश्मा दिखाया। कल के पांच बड़े अखबारों की खबरें भी लोकसभा में सुनाईं। तो उसमें महंगाई कम होने की खबरें थीं। अब जरा अखबारों के नाम देखिए। फाइनेंशियल एक्सप्रेस, अमर उजाला, हिंदुस्तान टाइम्स, बिजनेस लाइन के नाम गिनाए। अब अमर उजाला को छोड़ दें, तो बाकी कौन से अखबार सुदूर गांव तक पहुंचते? अब देश का मंत्री अखबारी खबरों को महंगाई घटने का आधार बनाए। तो आप क्या कहेंगे। पर सरकार का आपसी विरोधाभास ही देखिए। पवार ने तमाम ऐसी दलीलें दीं। जिनमें दावा किया, महंगाई तेजी से घट रही। पर दूसरी तरफ प्रणव मुखर्जी की आर्थिक समीक्षा कुछ और कह रही। समीक्षा की मानें, तो महंगाई पर फिलहाल नियंत्रण संभव नहीं। महंगाई के लिए प्रबंधन नीति को खूब कोसा। समीक्षा में कहा गया- 'खाद्यान्न फसलों के मामले में संतोषजनक स्थिति और रबी की सुधरी हुई फसल का ध्यान नहीं रखा गया। आयातित चीनी को बाजार में लाने की देरी से अनिश्चितता पैदा हुई। सो चीनी की कीमतें चढ़ गईं।Ó यानी निशाने पर शरद पवार। पर पवार कहां मानने वाले। वह तो महंगाई को चिढ़ाते हुए आ बैल मुझे मार कह रहे। पर गोल संसद में गोलमाल यहीं खत्म नहीं होता। पवार हों या प्रणव, बहस में शामिल हुए। तो राज्यों पर ठीकरा फोडऩे में पीछे नहीं रहे। अब कोई पूछे, अगर महंगाई के लिए राज्य सरकारें जिम्मेदार। तो फिर कांग्रेसी राज्यों में महंगाई क्यों नहीं कम हो रही। अब प्रणव दा की समीक्षा ने तो पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने का भी इशारा कर दिया। यानी संसद की बहस का निचोड़ यही, राजनीतिक छींटाकशी में आम आदमी का दर्द छू-मंतर हो गया। बहस की शुरुआत विपक्ष के हमलावर तेवरों से हुई। वैसे भी बीजेपी नए नेतृत्व के साथ मुस्तैद हो चुकी। सो लोकसभा में सुषमा स्वराज ने मोर्चा खोला। तो राज्यसभा में अरुण जेतली ने समान संभाली। लखनऊ में राजनाथ सिंह ने लाठियां खाईं। पर बहस के वक्त सत्तापक्ष की बेशर्मी भी खूब दिखी। मंत्री हो या सत्तापक्ष की बैंचों पर बैठे सांसद। ठीक वैसे ही मुस्करा रहे थे, जैसे रुचिका छेड़छाड़ कांड के दोषी एसपीएस राठौर के चेहरे पर कोर्ट से बाहर आते दिखी थी। भले आम आदमी महंगाई से त्रस्त हो। पर कांग्रेसियों की ठसक ही कहेंगे कि आंकड़ों में जनता का दर्द उलझा दिया। सुषमा ने महंगाई को महाघोटाला बता ताबड़तोड़ हमले किए। सरकार की इधर का माल उधर करने की नीति पर सवाल उठाए। तो कांग्रेस की गंभीरता का अंदाजा आप इसी से लगा लें कि महंगाई पर कांग्रेस की नुमाइंदगी शिवसेना से आयातित संजय निरुपम ने की। सो निरुपम शिवसेनिक वाले अंदाज में ही दिखे। कुतर्कों से विपक्ष के आरोपों का जवाब देने की कोशिश की। पर होना तो यह चाहिए था, समूचा सदन महंगाई के खिलाफ एकजुट होकर संकल्प लेता। पर विपक्ष ने आरोप लगाए, सरकार ने जवाब दे दिया। बस महंगाई गायब हो गई। अब अगर सरकार की दलील मान भी लें। बफर स्टॉक से लेकर विपक्ष के तमाम आरोप निराधार मान लें। तो फिर सवाल वही, महंगाई क्यों बढ़ रही? यों आर्थिक समीक्षा में मंदी से उबरने का एलान। पर महंगाई अभी और मुंह फैलाएगी। सरकार अब भी मानसून पर निगाह टिकाए बैठी। नई फसल आए, और महंगाई कम हो। पर सोचो, मानसून ने फिर ठेंगा दिखाया, तो क्या होगा। पर कांग्रेस को फिक्र नहीं। फिलहाल बिहार को छोड़ कोई बड़ा चुनाव नहीं। सो आर्थिक सुधार की नई पहल होगी। विनिवेश का दायरा बढ़ेगा। ताकि खाद्य सुरक्षा बिल और शिक्षा के मौलिक हक कानून के लिए धन जुटा सके। पर देश के खजाने की खस्ता हालत खुद देख लो। कृषि विकास दर में तीन गुनी गिरावट दर्ज हुई। राजकोषीय घाया बढ़कर छह फीसदी हो गया। फिर भी सरकार ने 2010-11 में 8.75 फीसदी विकास दर का दावा किया। चार साल बाद दुनिया की सबसे तेज अर्थव्यवस्था बनने का दंभ भरा। पर यह कैसा विकास? जहां देश तो तरक्की कर रहा, पर आम आदमी फटेहाल। महंगाई ऐसे छलांग मार रही, आम आदमी की जुबां से यही आवाज निकल रही- 'बाप रे बाप, इतनी महंगाई।' बेहतर यही, शुक्रवार को प्रणव दा के बजट से ज्यादा उम्मीद करना बेमानी।
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25/02.2010