Tuesday, April 13, 2010

आईपीएल, फ्रेंचाइजी की गुगली और 'वो' !

दूसरी बीवी का कनफोड़ू शोर अभी ठीक से थमा भी नहीं कि अब तीसरी बीवी का किस्सा गूंजने लगा। शोएब मलिक ने आयशा को तलाक तो दिया। पर हायतौबा ऐसी मची, तीन दिन पहले ही सानिया से निकाह हो गया। अब रस्में निकाहनामे के बाद पूरी हो रहीं। पर तीसरी बीवी का किस्सा सीधे राजनीति से जुड़ा। दो-तीन दिनों से लगातार खबरें आ रही, विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर तीसरी शादी करने जा रहे। अब भले थरूर तलाक देकर तीसरी शादी रचा लें। पर विवादों से थरूर का रिश्ता ऐसा, जो शायद कभी तलाक नहीं हो। अब जिस सुनंदा पुष्कर से शादी की अटकलें लग रही। उसी को लेकर विवाद हो गया। आईपीएल के अगले सीजन से कोच्चि और पुणे की टीम भी मैदान में उतरेगी। हाल ही में दोनों टीमों की बोली लग चुकी। पुणे टीम को सहारा ने खरीदा, तो कोच्चि में रोंदेवू कंपनी के साथ कई शेयरहोल्डर। अब दोनों टीमें खेलेगी तो अगले सीजन में, पर बखेड़ा इसी सीजन में हो गया। आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी और शशि थरूर में ठन गई। मोदी की मानो, तो थरूर ने कोच्चि टीम की खरीददादी में खेल किया। रोंदेवू कंपनी की आड़ में अपनी दोस्त सुनंदा पुष्कर को 75 करोड़ के शेयर भी दिलाए। बकौल मोदी, शेयरहोल्डरों के नाम सार्वजनिक नहीं करने को थरुर ने दबाव डाला। पर थरूर इससे इनकार कर रहे। अलबत्ता उनने मोदी पर ही पलटवार किया। मोदी ने रोंदेवू को बोली प्रक्रिया से हटने के लिए दबाव बनाया। यों थरूर ने मोदी से फोन पर बातचीत कबूला। अब किसने, किसके कहने पर क्या किया। यह तो बाद की बात। पर इतना साफ हो गया, थरूर हों या मोदी, किसी की कमीज एक-दूसरे से सफेद नहीं। मोदी ने थरूर पर सुनंदा के जरिए पैसा लगाने का आरोप मढ़ा। तो थरूर के ओएसडी जैकब जोसेफ ने दोहरे आरोप लगाए। पंजाब टीम में ललित मोदी के रिश्तेदारों के पैसे लगे। तो यूएस में मोदी पर ड्रग केस का मामला। यानी अपने बचाव के चक्कर में दोनों एक-दूसरे की पोल-पट्टी ही खोल रहे। वैसे भी आईपीएल का मकसद क्रिकेट को बढ़ावा देना था ही नहीं। अलबत्ता खाली सीजन में कैसे अकूत धन उगाही हो। इसका फंडा ललित मोदी ने बीसीसीआई को सुझाया। फंड का इतना बड़ा फंडा देख आखिर किसका ईमान नहीं डोलेगा। सो किसी जमाने में एक-दूसरे के दुश्मनों को भी आईपीएल ने एक कर दिया। शरद पवार जब पहली बार बीसीसीआई का चुनाव हारे। तब अरुण जेतली ने रणवीर सिंह महेंद्रा को जिताने में ताकत झोंकी थी। फिर अपने राजस्थान में बीजेपी सरकार ऑर्डिनेंस लाई। तो मोदी की वजह से जेतली ने राजनीति का भी लिहाज नहीं किया। अपनी पार्टी की ही सरकार के खिलाफ केस की पैरवी की। सो जेतली की तब ललित मोदी के साथ-साथ वसुंधरा राजे से भी छत्तीस का आंकड़ा था। पर जैसे ही आईपीएल का फंडा आया। राजस्थान विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बजी। तो जेतली-वसुंधरा की राजनीतिक एकता भी बन गई। आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी हुए, तो जेतली को गवर्निंग बॉडी में जगह मिल गई। यानी आईपीएल ने बड़े-बड़े रिश्ते बनाए। पर विवाद की ताजा वजह, एक मंत्री की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी का। वैसे भी थरूर मंत्रालय के कामकाज से ज्यादा ट्वीटर की दुनिया में ही रहते। सो मंत्री बने साल भर भी नहीं हुए। पर विवादों की लिस्ट देखिए। मिस्र के शर्म-अल-शेख में मनमोहन-गिलानी साझा बयान हुआ। भारत में विरोध के सुर गूंजे। तो थरूर ने साझा बयान को यों ही बताकर बखेड़ा बढ़ाया था। फिर फाइव स्टार से निकलना पड़ा और सादगी का फार्मूला दिया गया। तो जिस इकॉनॉमी क्लास में सोनिया गांधी तक ने सफर किया। उसे थरूर ने मवेशियों का क्लास बता दिया। नेहरू की विदेश नीति पर सवाल, गांधी जयंती की छुट्टी पर सवाल और फिर भारतीय राजनीति में बहस की गुंजाईश न होने की टिप्पणी। हर बार थरूर को विरोधियों के साथ-साथ अपनों की भी फटकार सुननी पड़ी। पर सुधरने का नाम नहीं। अब आईपीएल की कोच्चि टीम की फ्रैंचाईजी का विवाद। तो राजनीतिक पारा चढ़ा ही, मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया। बीजेपी ने फौरन पीएम से मांग कर दी, थरूर को बर्खास्त करें। कांग्रेस भी गंभीर हुई, तो विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा और राजीव शुक्ल दस जनपथ तलब हुए। मामले का जायजा लिया गया। तो देर शाम कांग्रेस ने बीसीसीआई का मामला बता दूरी बना ली। शायद पीएम के विदेश दौरे से लौटने का इंतजार। बीसीसीआई भी मीटिंग बुला चुकी। मोदी से भी जवाब तलब कर लिया गया। पर क्या देश में क्रिकेट ही सबकुछ? नेता जी, और भी गम हैं जमाने में क्रिकेट के सिवा। पर जब क्रिकेट में की गुगली और 'वो'  का तडक़ा लग जाए। तो फिर कोई गम नहीं। कैसे हरियाणा के डिप्टी सीएम चंद्रमोहन ने फिजा के लिए कुर्सी गंवा दी थी। अब आईपीएल को ही लो। पंजाब टीम के प्रमुख प्रीति जिंटा और नेस वाडिया, दोनों की शादी की चर्चा लंबे समय से। राजस्थान रॉयल्स में शिल्पा पहले मालकिन बनीं। फिर शेयर होल्डर राज कुंद्रा से शादी। मुंबई टीम मुकेश ने बीवी नीता के नाम पर खरीदा। रॉयल चैलेंजर्स के मालिक विजय माल्या तो दीपिका पादुकोण को लकी चाम्र्स बनाकर हर मैच में बिठाते। अब सुनंदा से थरूर की तीसरी शादी की खबर और कोच्चि टीम की फ्रैंचाईजी पर मोदी-थरुर की गुगली।
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13/04/2010

आग लगी है! आओ मिलकर खोदे कुआं

तो अब सरकारी फरमान जारी हो गया। आंतिरक सुरक्षा के मसले पर सिवा होम मिनिस्ट्री के कोई जुबान नहीं खोले। केबिनेट सेक्रेटरी के.एम. चंद्रशेखर का सर्कुलर सभी विभाग को पहुंचा। तो इशारों ही इशारों में नसीहत अपने सेना प्रमुखों को थी। दंतेवाड़ा नक्सली हमले के बाद बदहवासी में जैसी बयानबाजी हुई। छत्तीसगढ़ के सीएम रमण सिंह ने तो बाकायदा एतराज भी जताया था। पर सोमवार को वायुसेना प्रमुख पीवी नाईक ने फिर सवाल उठाया। अगर नक्सलियों के खिलाफ हवाई बम गिराए गए। तो ढ़ाई सौ किलोग्राम वाले बम का असर कम से कम आठ सौ मीटर तक होगा। सो पहले जनहानि की स्पष्ट नीति तय हो। यों नाईक की बात सोलह आने सही। वायुसेना घरेलू जंग के लिए नहीं बनाई गई। अन्य देशों से लड़ाई के हिसाब से मारक क्षमता वाले अस्त्र-शस्त्र तैयार किए गए। अब वाकई उन बमों का इस्तेमाल अपने ही देश में हो। तो नक्सलियों को नुकसान होगा ही, आसपास रहने वाले निर्दोष लोगों की कई पीढिय़ां उसके दुष्परिणाम भुगतेंगी। जैसे जापान में हिरोशिमा-नागासाकी के लोग भुगत रहे। इराक-अफगानिस्तान में भी अमेरिकी बमों का असर आनेे वाली पीढियों पर दिखने लगा है। सो वायु सेना प्रमुख जो कह रहे, वह हथियारों की मारक क्षमता को समझते हुए। पर नक्सली हमले में 76 जवानों की मौत ने राजीतिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। सो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने वायु सेना के इस्तेमाल की संभावना जता दी। तो थल सेना के इस्तेमाल की जरुरत पर भी बहस छिड़ गई। पीएम से लेकर होम मिनिस्टर तक। थल सेना प्रमुख से वायु सेना प्रमुख तक। मंत्रियों से लेकर राजनीतिक दलों तक। सबके बयानों में विरोधाभास दिखने लगा। अब सर्कुलर तो जारी हो गया, पर नेताओं की जुबां पर कौन लगाम कस सकता? अपनी व्यवस्था की तो अजब कहानी हो चुकी। जैसे आतंकवादी हमलों के बाद अपना तंत्र मुस्तैद होता था। अब नक्सलवादी हमले में भी वही हाल हो गया। ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु तो कर दिया। नक्सलियों को डरपोक-कायर कहकर उकसाने की कोशिश भी शुुरु कर दी। ताकि नक्सली सामने आकर लड़े। पर गुरिल्ला युद्ध में माहिर नक्सलियों ने जवानों को छकाया। पहली बार इतनी बड़ी तादाद में अपने जवान में मारे गए। तो भी सीआरपीएफ से लेकर होम मिनिस्ट्री तक, सबने जवानों के प्रशिक्षण पर उठे सवाल खारिज कर दिए। पर कहते हैं ना, झूठ के पांव नहीं होते। अब सरकार ने तय किया, सीआरपीएफ के जवानों को कमांडो और गुरिल्ला युद्ध में माहिर करने को पूर्व सैनिक भर्ती किए जाएंगे। यानी जंगल युद्ध में निपुण रहे रिटायर्ड फौजी अब सीआरपीएफ को ट्रेंड करेंगे। पर यह कैसी व्यवस्था, जो बीती घटना के हिसाब से खुद को तैयार करती? अगर कल को नक्सली भी आतंकियों की तरह कोई और तरीका अपनाए। तो क्या फिर जवानों के नए सिरे से ट्रेनिंग दी जाएगी? क्या व्यवस्था के पास अपना कोई विजन नहीं? क्या सिर्फ जुबान चलाना ही राजनीतिक व्यवस्था की खासियत? मौजूदा व्यवस्था का रुख देखकर तो यही आभास हो रहा। तभी तो आग लगने के बाद कुआं खोद रहे। नक्सलियों ने 76 जवान मार दिए। तो अब सरकार को ट्रेनिंग याद आ रहा। वाकई नक्सली युद्ध में अपने जवान तो झोंक दिए जाते। पर उनकी सुविधा की फिक्र शायद ही कोई करता। जंगली क्षेत्र से नावाकिफ सुरक्षा बलों को सिर्फ आदेश दिया जाता। फलां जगह जाकर कैंप करो। पर कैसे जाना है, कौन आगे का रास्ता बताएगा या रास्ते में कौन सी समस्याएं आ सकती हैं, यह बताने वाला कोई नहीं। बड़े अधिकारी तो एसी कमरों में बैठकर सिर्फ फरमान जारी कर देते। यही हाल अधिकारियों के ऊपर बैठे राजनीतिक आकाओं की। तभी तो जैसे नक्सली हमले के बाद ट्रेनिंग की बात हो रही। कुछ वैसा ही हाल महिला आरक्षण बिल का। राज्यसभा से बिल पास हो गया। तो लोकसभा में आम सहमति की कवायद हो रही। बिल में संशोधन की गुंजाईश पर भी मंथन हो रहा। पर महिला बिल का विरोध राज्यसभा में पारित कराने से पहले भी था। सो आम सहमति के प्रयास पहले ही कर लेते। वरना, जैसे राज्यसभा में पास कराया, कांग्रेस वैसी ही हिम्मत लोकसभा में भी दिखाए। पर आग लगने के बाद कुआं खोदना अपनी राजनीति की आदत। अब देखो, राज्यसभा से भले बिल पास हुआ। पर आरक्षण के बाद मुश्किलें किसकी बढेंगी। लोकसभा के करीब 138 उन सांसदों की परेशानी बढेगी, जिनकी सीटें आरक्षण की भेंट चढेगी। सो विरोध के स्वर सभी दलों में। आखिर जिन क्षत्रपों की परंपरागत सीटें जाएंगी, वह क्या करेंगे? सवाल महिला आरक्षण बिल के समर्थन या विरोध का नहीं है। अलबत्ता करीब 138 सांसदों के राजनीतिक कैरियर का है, जो बिना सांसद बने बिन पानी मछली हो जाएंगे। सो तड़प अपना अस्तित्व बचाने की। पर विरोध के लिए अलग-अलग पैतरे आजमाए जा रहे। कोई पिछड़ों की, तो कोई मुस्लिमों के आरक्षण की आवाज बुलंद कर रहा। कभी उलेमा फतवा जारी कर रहे, कभी पर्सन लॉ बोर्ड। खुद बीजेपी-कांग्रेस के ज्यादातर नेता बिल के हक में नहीं। अब आप ही सोचिए, जब परिसीमन को लेकर इतना बखेड़ा हुआ था। तो महिला बिल पर क्या होगा, यहां तो अस्तित्व की लड़ाई है। तभी तो आपसे कहा, देश की सुरक्षा का मामला हो या आधी आबादी के हक की लड़ाई का। आग लगने के बाद कुआं खोदने में मशगूल हैं अपने नेता। -----