Monday, May 10, 2010

पहले अमेरिका, अब चीन की पैरवी का क्या मतलब?

पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन की वजहों में चीन से हार का सदमा भी माना जाता। हाल ही में चीनी अतिक्रमण बढ़ा था। तो संसद और संसद के बाहर विपक्ष ने यही वजह गिना कांग्रेस को झकझोरने की खूब कोशिश की। वाकई नेहरू ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया था। पर चीन ने पीठ में खंजर घोंप दिया। सो 1962 का वह जख्म आज भी कोई भारतवासी भुला नहीं पाता। वैसे भी चीन की साम्यवादी सरकार जिस नीति की पोषक, उस पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। पर अपनी ही मिट्टी में जन्मे और रचे-बसे कुछ चीनी पैरोकार भी। सो गाहे-ब-गाहे चीनी प्रेम दिखा ही जाते। यूपीए-वन की सरकार में लेफ्ट अपने समर्थन की वसूली कर रहा था। जब-तब चीनी कंपनियों को विशेष रियायत देने की आवाज उठती रहती थी। तब लेफ्ट सरकार का हिस्सा नहीं, अलबत्ता बाहर से समर्थन दे रहा था। पर अबके सरकार के मंत्री ही चीनी कंपनी की लॉबिंग कर रहे। अपने जयराम रमेश वन व पर्यावरण मामले के स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री। पर लगता है, पद में स्वतंत्र क्या जुड़ा, जयराम कुछ अधिक ही स्वतंत्र हो गए। सो अबके उन ने चीन में जाकर अपने गृह मंत्रालय की मीन-मेख निकाली। दूर संचार क्षेत्र की एक चीनी कंपनी हुआवेई का निवेश भारत में नहीं हो पा रहा। अपने पी. चिदंबरम सुरक्षा कारणों से चीन के मामले में काफी सतर्क। पर कंपनी से ज्यादा जयराम रमेश को अखर गया। बीजिंग में कह दिया- गृह मंत्रालय का रुख जरूरत से ज्यादा रक्षात्मक और सावधानी बरतने वाला। सो चीनी निवेश की खातिर गृह मंत्रालय को नरम रुख अपनाना चाहिए। अब गृह मंत्रालय पर कांग्रेसी खेमे से यह दूसरी बड़ी टिप्पणी। पहले दिग्विजय सिंह उंगली उठा चुके। अब एक मंत्री ने सवाल उठा दिया। तो कांग्रेस में खलबली मच गई। हमेशा की तरह कांग्रेस ने मंत्री के बयान से दूरी बना ली। बीजिंग से सोमवार की सुबह लौटे जयराम ने पीएम से बात की। तो पीएम ने सलाह दी- दूसरे मंत्रालय के कामकाज पर टिप्पणी न करें। जहां तक चीन से संबंध का सवाल, तो सरकार के रुख में कोई भ्रम नहीं। अब आप इसे पीएम की फटकार कहेंगे, या कुछ और। अपनी नजर में तो यही लग रहा, जैसे पीएम सफाई दे रहे। वैसे विदेशी धरती पर अपने घर की पोल खोलना यूपीए सरकार की नई आदत नहीं। अपने पीएम तो देश में कभी-कभार ही बोलते। विदेश दौरे के वक्त घरेलू मुद्दों पर खुलकर बोलते। याद है, कैसे एटमी डील का वाजपेयी ने विरोध किया। तो मनमोहन ने वाशिंगटन में जॉर्ज बुश से वाजपेयी का नाम लेकर शिकायत की थी। सो जब मनमोहन ही ऐसा करें, तो फिर जयराम गलत कहां। यों जयराम ने एक गलती जरूर की। मनमोहन विदेश में जाकर विपक्ष पर हमलावर रहे। तो जयराम अपनी ही सरकार की पोल खोलने लगे। सो कांग्रेस ने फौरन बयान को गैरवाजिब बताया। उचित फोरम पर बात रखने की नसीहत दी। पर यह कोई पहला मौका नहीं, जब जयराम को ऐसी नसीहत मिली हो। वैसे तो यूपीए-टू की टीम मनमोहन में बयान बहादुरों की कमी नहीं। पर कोपेनहेगेन समिट से पहले पिछले साल अक्टूबर में भी जयराम ने सरकार की फजीहत कराई थी। जब पीएम को चिट्ठी लिख सलाह दी, भारत अपना स्टैंड बदल ले। तकनीकी के लिए सहायता की शर्त छोड़ जी-77 से खुद को अलग कर यूएस का साथ दे। यानी जयराम की सलाह थी, गुटनिरपेक्ष देशों की नेतागिरी छोड़ अमेरिका की बात मान लो। पर बवेला मचा, बीजेपी ने अमेरिका के लिए लॉबिंग करने का आरोप लगाया। खुद कांग्रेस ने अपने होनहार जयराम से दूरी बना ली। तो बीस अक्टूबर 2009 को सार्क देशों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में क्योटो प्रोटोकॉल पर ही राजी होना पड़ा था। संसद में भी सफाई देनी पड़ी थी। बीटी बैंगन पर भी जयराम ने खूब लॉबिंग की। पर आखिरकार लौट के घर आना पड़ा। तो खुन्नस में वरिष्ठ मंत्रियों पर ही खीझ उठे। फिर गंदगी के मामले में देश के लिए नोबल प्राइज का सुर्रा छेड़ सुर्खियों में छाए। प्रोजैक्ट को लेकर केबिनेट में कमलनाथ से तू-तू, मैं-मैं। डिग्री लेते वक्त गाउन पहनना एक परंपरा। पर जयराम ने पहनने के बाद मंच से उसे उतार फेंका। दलील दी, यह गुलामी की निशानी। पर कोई पूछे, मंच पर आने से पहले पहना ही क्यों था? जयराम को मीडिया की सुर्खी बनना खूब पसंद। तभी तो दिन में एकाध प्रेस कांफ्रेंस कर ही लेते। पर जयराम का विवाद से यहीं नाता खत्म नहीं। यूपीए-वन में जब रामसेतु पर हलफनामे में गड़बड़ हुई थी। तो अंबिका सोनी से इस्तीफा मांगने वालों में सबसे पहले खड़े थे जयराम। पर अबके चीन की पैरवी कर फंस गए जयराम। बीजेपी तो झारखंड का अपना आचरण भूल जयराम के आचरण पर सवाल उठाए। पीएम को इस्तीफा मांगने की सलाह दी। बीजेपी ने चिदंबरम की नीति को जायज ठहराया। कहा- चीनी हैकर इतने सक्रिय हो चुके, सो चिदंबरम की नीति सही। वाकई चीन की विस्तारवादी नीति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चीन के बारे में यहां तक कहा जाता, उसने दुनिया के महत्वपूर्ण देशों के दस्तावेज चुराने के लिए हैकरों की एक आर्मी तैयार कर ली है। ऐसे में किसी चीनी कंपनी के हित में कोई भारतीय मंत्री इस हद तक जाए, तो क्या कहेंगे आप? आखिर चीन में ऐसी क्या आवभगत हुई, जो विदेश में देश की नीति पर सवाल उठा दिए? कभी अमेरिका, तो कभी चीन की पैरवी का क्या मतलब?
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10/05/2010