Wednesday, April 28, 2010

यही होगा, जब अटल बिहारी की बीजेपी में हों गगन विहारी

तो वाजपेयी को दिया बर्थ-डे गिफ्ट बीजेपी ने वापस ले लिया। चार महीने पहले 25 दिसंबर को ही बीजेपी-झामुमो गठबंधन का एलान हुआ था। तो सत्ता की खातिर हुए समझौते को बीजेपी ने वाजपेयी को तोहफा बताया। पर हनीमून पीरियड में ही तलाक हो गया। बीजेपी सचमुच कटी पतंग हो गई। कट मोशन पर मुंह की तो खाई ही, अब झारखंड में बेवक्त सरकार गई सो अलग। यानी खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना। शिबू सोरेन को वोट के लिए बीजेपी ने बुलावा भेजा था। पर शिबू ने मनमोहन को वोट दे दिया। जैसे महाभारत में नकुल-सहदेव के मामा शल्य आए तो थे पांडवों की ओर से लडऩे। पर बीच रास्ते में दुर्योधन ने ऐसी आवभगत की। शल्य भ्रमित हो गए और बाद में कौरवों की ओर से लडऩा पड़ा। अब जब महाभारत युग में ऐसी भूल हुई, तो कलियुग में शिबू ने क्या गुनाह कर दिया। अब मनमोहन सरकार में कोयला मंत्री रह चुके। दिल्ली आए होंगे, तो कुछ पुरानी दोस्ती से आवभगत हो गई होगी। सो शिबू भूल गए होंगे, सीएम रहते संसद में क्या करने आए। चार महीने से शिबू को विधायकी की खातिर कोई सीट नहीं मिली। सो सांसदी अब तक नहीं छोड़ी। ऐसे में तो कोई भी कनफ्यूज हो जाएगा। सो शिबू ने मनमोहन के पक्ष में बटन दबा दिया। बीजेपी ने देखा, तो फौरन निशिकांत दुबे भेजे गए। सो शिबू ने कह दिया- जो हो गया, सो ठीक। पर बीजेपी का पारा चढऩे लगा। तो बुधवार को शिबू ने कहा- ऐसे ही हो गया। शिबू के बेटे हेमंत ने सफाई दी- भूलने की बीमारी, सो मानवीय भूल हो गई। पर जब मंगलवार को लोकसभा में मशीन खराब होने की वजह से परची से वोट पड़े। तो शिबू ने मांगकर मनमोहन के समर्थन वाली लाल परची ली। तो क्या इसे कलर ब्लाइंडनेस कहें? पर शिबू सोरेन की बात छोडि़ए। शिबू के पैंतरों के कहने ही क्या। शिबू को तो आज नहीं, दो महीने बाद ही सही, जाना ही था। पर बीजेपी के बारे में क्या कहें। क्या बीजेपी भी अल्जाइमर की मरीज? शिबू ने खिलाफ वोट किया। तो बीजेपी ने विश्वासघाती बता समर्थन खींच लिया। पार्लियामेंट्री बोर्ड की इमरजेंसी मीटिंग बुला फैसला हुआ। तो संदेश दे रही, महंगाई के मुद्दे पर समझौता नहीं। पर क्या सचमुच महंगाई की खातिर बीजेपी ने झारखंड में सरकार की शहादत दी? या खुद कट मोशन की बलि चढ़ गई? पर अब बीजेपी को शिबू विश्वासघाती दिख रहे। तो कोई पूछे, विश्वासपात्र कब दिखे? आखिर कितने घात खाने के बाद बीजेपी को विश्वासपात्र और विश्वासघाती में फर्क दिखेगा? या कहीं ऐसा तो नहीं, बीजेपी को दुलत्ती खाने की आदत पड़ चुकी। सनद रहे, सो बताते जाएं। कर्नाटक की पिछली विधानसभा की तस्वीर याद करिए। पहले बीस महीने कांग्रेस-देवगौड़ा ने सरकार चलाई। पर बाद में देवगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी ने बीजेपी से गठजोड़ किया। सत्ता की खातिर बीजेपी ने सिद्धांत ताक पर रख दिए। पर बीस महीने सीएम रहने के बाद कुमारस्वामी ने बीजेपी को कुर्सी ट्रांसफर नहीं की। तो बीजेपी के यशवंत सिन्हा ने तब बोर्ड के फैसले का एलान किया था। देवगौड़ा को भी ऐसे ही विश्वासघाती बताया। सो कर्नाटक में राष्ट्रपति राज लगा। पर बीस दिन बाद ही बीजेपी-देवगौड़ा एक हो गए। भले सरकार हफ्ते भर में ही गिर गई। पर तब बीजेपी के एक बड़े नेता ने मौजूं टिप्पणी की थी। कहा था- हवन तीन बजे न सही, छह बजे हो। जेडीएस ने हमारी बात मान ली, सो हम भी कोई सन्यासी नहीं। आखिर राजनीति इसीलिए तो कर रहे। अब कोई पूछे, जब सत्ता ही सब कुछ। तो चाल, चरित्र, चेहरा और पार्टी विद डिफरेंस का ढकोसला क्यों? क्यों नहीं सिद्धांत का चोला फेंक कह देती, राजनीति में सब जायज। सिर्फ कर्नाटक नहीं, यूपी में मायावती को बीजेपी ने ही सीएम की कुर्सी तक पहुंचाया। पर वक्त आने पर माया ने बीजेपी को औकात दिखा दी। सो यूपी में आज माया कहां और बीजेपी कहां, जगजाहिर। हरियाणा में चौटाला से ऐसे ही मौकापरस्ती की दोस्ती और दुश्मनी। उड़ीसा में नवीन पटनायक ने कैसे धूल चटाई, सबको पता। तब बीजेपी मुगालते में थी, उड़ीसा में नवीन का ताज छिनेगा। पर जनता ने चुनाव में बैसाखी ही तोड़ दी और नवीन पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौट आए। अब ताजा किस्सा शिबू सोरेन का। तो सुषमा कह रहीं- आडवाणी तो सीएम शिबू को बुलाने के हक में नहीं थे। पर शिबू खुद आ गए। अब इस झूठ को क्या कहें। एस.एस. आहलूवालिया ने सोमवार को एनडीए मीटिंग के बाद प्रेस कांफ्रेंस में एलान किया था- एनडीए के 153 सदस्यों को सदन में लाने का बंदोबस्त हो रहा। जिसमें सीएम शिबू और उनके ही जेल में बंद सांसद कामेश्वर बैठा भी शामिल। पर अब सवाल शिबू और झारखंड का नहीं। सवाल, कितने घात खाकर सुधरेगी बीजेपी? वर्करों की भावना से खेल झारखंड में सरकार बनाई थी। तब राजनाथ बीजेपी की स्टेयरिंग छोड़ चुके थे। गडकरी ने कुर्सी संभाल ली थी। सो दोनों को वर्कर नहीं, अपना रिकार्ड बनाने की फिक्र थी। गठबंधन बनाकर चलाना कोई गिल्ली-डंडे का खेल नहीं। वाजपेयी ने पहली बार में ही 22 दलों का इंद्रधनुषी गठबंधन बनाकर उसे बखूबी चलाया था। पर अब बीजेपी में वाजपेयी जैसे साख वाले नेता ही नहीं। अलबत्ता अटल बिहारी की बीजेपी में गगन विहारी की पूरी जमात जम चुकी। जिनका आपस में ही अहं टकराता, किसी का एक-दूसरे से सामंजस्य नहीं। हालत ऐसी हो चुकी, छोटा सा फैसला लेने में अब महीने नहीं, साल लग रहे। ऐसे में गठबंधन के दल क्या खाक साथ रहेंगे।
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28/04/2010