Friday, September 10, 2010

गर लौह पुरुष, तो इतने बेबस क्यों आडवाणी?

अब चाहे आडवाणी विरोध करें या कोई और, अर्जुन मुंडा तो झोला उठाए गुरुजी के साथ चल दिए। जब सिर पर संघ और गढ़ के रक्षक गडकरी का हाथ हो। तो शपथ में कोई आए या न आए, मुंडा को फर्क नहीं। सो आडवाणी खेमे के विरोध से बेपरवाह अर्जुन चिडिय़ा की आंख की तरह सिर्फ गुरुजी को साधने में जुटे। ताकि अस्थिरता की दलील देने वालों को स्थिरता की मिसाल पेश कर सकें। अब अर्जुन और गुरुजी की जोड़ी भले झारखंड में सत्ता का मजा लूटे। पर बीजेपी में महाभारत हो गया। आडवाणी कैंप को झारखंड का फैसला नहीं सुहा रहा। सो शनिवार को शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनाएगा। पर अहम सवाल, आडवाणी की छठी इंद्री देर से क्यों जागती? अगर झारखंड में शिबू संग सरकार बनाने के खिलाफ थे। तो गडकरी के इकतरफा फैसले पर उंगली क्यों नहीं उठाई? क्यों नहीं संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाने की मांग की? पर अब जब मेज पर खाना परोसा जा चुका, तो आडवाणी कैंप मैन्यू क्यों बदल रहा? सचमुच फैसला हो जाने के बाद फैसले पर उंगली उठाना आडवाणी की आदत हो चुकी। भारत सुरक्षा यात्रा के वक्त पुणे में आडवाणी ने कंधार प्रकरण से पल्ला झाडऩे की कोशिश की थी। खुद को लौह पुरुष साबित करने को कह दिया- कंधार जाकर आतंकियों को छोडऩे के फैसले के खिलाफ थे। फिर बहस छिड़ी, तो खुद को इस फैसले से भी अनजान बताना शुरू कर दिया। जसवंत सिंह आतंकियों को लेकर कंधार गए, इसकी भी जानकारी से खुद को अनभिज्ञ बताया। मानो कंधार प्रकरण सिर्फ वाजपेयी और बीजेपी का, आडवाणी तो पाक-साफ। पर सांच को आंच नहीं, खुद जसवंत सिंह ने कह दिया था- आडवाणी शायद भूल गए होंगे। सचमुच इतना बड़ा अपहरण कांड हो, मसूद अजहर जैसे तीन खूंखार आतंकी विशेष विमान से कंधार छोडऩे का फैसला हो। और तबके गृहमंत्री आडवाणी पूरे फैसले से पल्ला झाड़ें, तो क्या उन्हें आप लौह पुरुष मानेंगे? सिर्फ कंधार प्रकरण ही नहीं, जिन्ना प्रकरण याद करिए। देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना को कराची जाकर आडवाणी ने सेक्युलर बताया। तो पूरा संघ परिवार खिलाफ खड़ा हो गया था। पर तब आडवाणी न तो अपने बयान से डिगे और ना ही अपने बयान को ठीक से अभिव्यक्त कर पाए। भले अध्यक्षी छोडऩी पड़ी। पर अंदरखाने ऐसा खेल हुआ, संघ ने आडवाणी को पीएम इन वेटिंग बना दिया। राजस्थान बीजेपी के विवाद में आडवाणी की भूमिका हमेशा बदलती रही। जब 2009 के आम चुनाव में आडवाणी पीएम इन वेटिंग ही रह गए। कई राज्यों में बीजेपी का सूपड़ा-साफ हुआ। तो आडवाणी के घर कोर ग्रुप की मीटिंग हुई। हार वाले राज्यों में चरणबद्ध नेतृत्व परिवर्तन का खाका बना। राजस्थान बीजेपी के अध्यक्ष पद से ओम माथुर ने तो लोकसभा नतीजे के चौथे दिन ही इस्तीफा दे दिया था। पर विवाद तब खड़ा हुआ, जब अगस्त में वसुंधरा राजे को नेता विपक्ष से इस्तीफा देने को कहा गया। फिर तीन महीने तक वसुंधरा बनाम राजनाथ जो हाई वोल्टेज ड्रामा चला, जगजाहिर। आडवाणी की शह पर वसुंधरा ने अध्यक्ष को चुनौती दे डाली। फिर जिस फैसले को आडवाणी ने खुद सहमति दी थी, बाद की संसदीय बोर्ड की मीटिंग में पलटने की मांग करने लगे। पर राजनाथ सिंह ने दो-टूक इनकार कर दिया था। आखिर में वसुंधरा का इस्तीफा हुआ। फिर अगस्त में शिमला में चिंतन बैठक से पहले जसवंत सिंह जिन्ना के मुरीद हो गए। तो हार पर चिंतन से पहले बीजेपी ने जसवंत की चिंता की। जसवंत को बिना वकील-दलील-अपील के बीजेपी से बाहर कर दिया। तब चिंतन बैठक के आखिरी दिन सुषमा स्वराज ने आडवाणी के भाषण का सार परोसा। तो साफ-साफ कहा था- आडवाणी ने कहा, जिनके (जसवंत के) साथ तीस साल रहा, उनका निष्कासन दुखद है। लेकिन कार्यकर्ता इससे कम में संतुष्ट नहीं होते। पर याद है ना, पखवाड़े भर बाद ही आडवाणी कैंप से खबरें प्लांट होने लगीं। आडवाणी जसवंत के निष्कासन के खिलाफ थे। अब यह कैसी खिलाफत, यह आडवाणी और उनके समर्थक ही जानें। फिर निष्कासन की बरसी से पहले ही किस शान-ओ-शौकत के साथ जसवंत की बीजेपी में वापसी हुई। आडवाणी ने अहम भूमिका निभा जसवंत की ससम्मान वापसी कराई। पर कोई पूछे, शिमला के संसदीय बोर्ड की बैठक में क्या हो गया था? बी.सी. खंडूरी को सीएम पद से हटाने में भी आडवाणी बनाम राजनाथ जंग हुई थी। अगर आडवाणी जी की तरह थोड़ा और स्मरण करें, तो राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष पद पर ओम माथुर की नियुक्ति के वक्त छिड़ा विवाद याद करिए। कैसे गुटबाजी सामने आई थी। उमा भारती को बीजेपी से आडवाणी के अध्यक्ष रहते निकाला गया। पर अब आडवाणी उनकी वापसी चाह रहे। लोकसभा चुनाव के वक्त सुधांशु मित्तल को असम का सह-प्रभारी बनाए जाने पर कैसे जेतली और राजनाथ में ठनी। जेतली ने सीईसी का लगातार बायकाट किया। पर आडवाणी ने पहले कोई बीच-बचाव का कदम नहीं उठाया। संघ को कभी मातृ संगठन तो कभी रोजमर्रा के काम में दखल देने वाला कहा। अब झारखंड में सरकार बनाने के खिलाफ बताए जा रहे। शपथ से दूरी बनाकर छवि बेहतर बनाने की कोशिश। क्या सचमुच झारखंड पर आडवाणी की नहीं चली। या सत्ता की रेवड़ी और छवि के बीच संतुलन बिठाने की कवायद? आडवाणी बीजेपी के वट वृक्ष। सो इतने कमजोर तो नहीं हो सकते। आखिर खुद को लौह पुरुष बताने वाले इतने बेबस क्यों?
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10/09/2010