Thursday, January 21, 2010

क्षेत्रीय दलों के भंवर में फंसी बीजेपी-कांग्रेस

 संतोष कुमार
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          कहते हैं, तोल-मोल के बोल। पर राजनीति में फार्मूला उल्टा। पहले बोल, फिर तोल-मोल। सो कांग्रेस हो या बीजेपी, अपने ही जाल में उलझ गईं। मकर संक्रांति के दिन जब यहीं पर राजनीति की खिचड़ी लिखी। तो ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर नस्ली हमले की तुलना ठाकरे बंधुओं के कारनामों से की। पर तब उम्मीद न थी, ठाकरे बंधु इतनी जल्दी कोई शिगूफा ढूंढ लाएंगे। अब संयोग ही देखिए। जब गुरुवार को ऑस्ट्रेलियाई पीएम केविन रूड नस्ली हमले पर अफसोस जता रहे थे। मुंबई में चचा-भतीजे की जोड़ी उत्तर भारतीयों, खास तौर से गरीब टेक्सी चालकों पर ल_ï बरसाने की तैयारी में जुटे थे। अब राज के गुंडे सड़कों पर फिर वही दृश्य दोहराएंगे, जो करीब डेढ़ साल पहले दिखा चुके। अबके भी आग तो पहले से ही लगाई जा रही थी। जब राज ठाकरे ने खुलेआम धमकी दी। सरकार इस साल के 4500 टेक्सी परमिट सिर्फ मराठियों को दे। वरना सड़कों पर नॉन मराठियों की टेक्सी चलने नहीं देंगे। पर राज की आग को सरकार के मुखिया अशोक चव्हाण ने भी हवा दे दी। बिना तोल-मोल के राज के समर्थन में बोल गए। तो दिल्ली तक कांग्रेसियों की घिग्घी बंध गई। सो गुरुवार को अशोक चव्हाण पलटी मार गए। अब बोले- 'टेक्सी चालकों के लिए स्थानीय भाषा आनी चाहिए, चाहे वह मराठी हो या हिंदी-गुजराती।'  कांग्रेस ने भी ऐसी ही दलील दी। महाराष्टï्र में ऐसा कानून इक्कीस साल पुराना। पर चचा-भतीजा इतने में कहां मानने वाले। चचा लंबे समय से कुर्सी से महरूम। तो भतीजा पहली बार तेरह सीटें जीत नशे में चूर। हिंदी के खिलाफ राज ठाकरे का एपीसोड तो अबू आजमी के साथ विधानसभा में हो चुका। पर राज जब तक नाम को हकीकत में न बदल दें, चुप नहीं बैठने वाले। सो चालीस साल पहले जो चचा ने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ किया। बदले जमाने में भतीजा वही नुस्खा उत्तर भारतीयों के खिलाफ अपना रहा। कांग्रेस ने भी ठाकरे परिवार में फूट का फायदा उठाया। ताकि तीसरी बार भी सत्ता मिल जाए। कांग्रेस को वाकई फायदा भी हुआ। पर अशोक चव्हाण की कल की जुबां ऐसी। अब तक सिर्फ शह देती रही सरकार पूरी तरह से राज के रंग में रंगने लगी। यानी ऑस्ट्रेलिया हो या महाराष्टï्र, सत्तारूढ़ कांग्रेस का रुख एक जैसा। ऑस्ट्रेलिया में नस्ली हमले पर भी केंद्र की कांग्रेसी सरकार गाल बजा रही। तो महाराष्टï्र में ठाकरे बंधुओं का उत्तर भारतीयों पर नस्ली हमला भी कांग्रेसी सरकार के संरक्षण में ही। पर कांग्रेस शायद इतिहास भूल रही। भिंडरांवाला भी कांग्रेस की ही पैदाइश रहे। पर बाद में वही कांग्रेस के लिए नासूर बन गया। विश्व का इतिहास भी कुछ ऐसा ही। ओसामा बिन लादेन सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका की पैदाइश। पर अब वही लादेन अमेरिका पर कितना लद चुका। यह आप खुद ही देख रहे। अमेरिका पूरे घोड़े खोल चुका। पर अभी तक लादेन जिंदा या मुर्दा नहीं मिला। सो भविष्य में राज ठाकरे भी कांग्रेस के लिए नासूर ही साबित होंगे। फिलहाल कांग्रेस ने तीन स्थानीय भाषाओं में हिंदी का नाम लेकर बचाव तो कर लिया। पर राज का रोडछाप नाटक अभी बाकी। सो कांग्रेस तो राज ठाकरे के क्षेत्रीय भंवर में उलझ ही चुकी। वही हाल बड़ी राष्टï्रीय पार्टी बीजेपी का भी। यों नितिन गडकरी फिलहाल संभल-संभल कर बोल रहे। पर टेक्सी परमिट के मामले में बीजेपी की सहयोगी शिवसेना की भाषा राज जैसी ही। खुद उद्धव मुंबई में आने-जाने वालों के लिए भी परमिट की पैरवी कर चुके। अब देखो, कहां बीजेपी। जिसके आदर्श श्यामाप्रसाद मुखर्जी परमिट सिस्टम के खिलाफ शहीद हो गए। अब टेक्सी परमिट हो या महाराष्टï्र में घुसने का परमिट। बीजेपी का शिवसेवा से नाता तोडऩा तो दूर, उसके खिलाफ बोल भी नहीं पा रही। पर बीजेपी की मुश्किल सिर्फ महाराष्टï्र नहीं। महाराष्टï्र से आए नितिन गडकरी ने सबसे पहले बीजेपी को झारखंड में सत्ता दिलाई। अपने फैसले को जायज ठहराया। पर अब शिबू सोरेन का समर्थन करना गले की फांस बन गया। शिबू ने चुनावों में नक्सलियों की खूब मदद ली। सो सीएम बनने के बाद कर्ज अदा कर रहे। नक्सलवादियों के खिलाफ चल रहे ऑपरेशन रुकवा दिए। झारखंड में नक्सलियों के होने का सवाल ही खारिज कर दिया। पर बीजेपी केंद्रीय स्तर पर नक्सलवाद के खिलाफ निर्णायक जंग की पैरोकार। सो नक्सलवाद के मुद्दे पर झारखंड में सरकार दांव पर लगी। तो केंद्र में प्रतिष्ठïा। पर राजनाथ सिंह अभी शिबू से बात करने की दलील दे रहे। यानी जब दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां क्षेत्रीय दलों के भंवर में फंसी हों। तो फिर क्या आम आदमी, क्या उत्तर भारतीय। और क्या देश की सुरक्षा।
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21/01/2010