Monday, February 7, 2011

‘हाथ’ में नहीं अपनी लगाम, न्यायपालिका को नसीहत

बजट सत्र का क्या होगा, तस्वीर अभी साफ नहीं। सोमवार को स्पीकर मीरा कुमार ने लोकसभा के नेताओं की मीटिंग ली। पर हालात जस के तस। सो अब निगाह मंगलवार की प्रणव दा वाली मीटिंग पर टिकीं। कांग्रेस जेपीसी की मांग पर सरेंडर नहीं दिखना चाहती। पर फिलहाल विपक्ष को लोकसभा में जेपीसी पर बहस और वोटिंग का फार्मूला भी नामंजूर। अब तो टू-जी के बाद इसरो से जुड़े एस बैंड स्पेक्ट्रम आवंटन में घोटाले का खुलासा हो रहा। इसरो सीधे पीएम के मातहत। देवास मल्टीमीडिया के चेयरमैन एम.जी. चंद्रशेखर पीएम के वैज्ञानिक सलाहकार रह चुके। इसी कंपनी को 70 मैगाहार्ट्ज वाला एस बैंड महज एक हजार करोड़ रुपए में आवंटित हुआ। पर सरकारी कंपनी एमटीएनएल-बीएसएनएल को इसी की कीमत साढ़े बारह हजार करोड़ रुपए चुकानी पड़ी। सो सीएजी की रपट में अनियमितता का खुलासा हुआ। तो कहा जा रहा- यह घोटाला टू-जी से भी बड़ा। यानी टू-जी घोटाला 1.76 लाख करोड़ का। तो इसके बारे में अनुमान दो लाख करोड़ से अधिक का। अब संचार मंत्रालय के घोटाले में राजा कुर्सी छोड़ जेल गए। अगर इसरो से जुड़े मामले में कैग ने घोटाले को पुख्ता कर दिया। तो सवाल- पीएम मनमोहन का क्या होगा? सोमवार को विपक्ष ने सीधे पीएम से जवाब मांग लिया। लेफ्ट ने इस मामले में भी जेपीसी की मांग कर दी। सो क्या करे या ना करे, कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा। पर सुप्रीम कोर्ट और राजनीतिक मोर्चे से बेभाव की पड़ रही मार से कांग्रेस अब दर्द महसूस करने लगी। अपने पीएम मनमोहन सिंह ने इतवार को अपना सारा दर्द उड़ेल दिया। जब हैदराबाद में आयोजित कॉमनवेल्थ लॉ कांफ्रेंस में चीफ जस्टिस एस.एच. कपाडिय़ा की मौजूदगी में बोले- सरकार की जिम्मेदारी तय करने में न्यायिक समीक्षा की भूमिका अहम। पर इसका इस्तेमाल शासन के दो अन्य अंगों- कार्यपालिका और विधायिका में दखल के लिए नहीं होना चाहिए। यानी न्यायिक सक्रियता से मनमोहन सरकार की सांसें फूल रहीं। पर न्यायपालिका को नसीहत देने से पहले पीएम ने अपनी सरकार की दशा क्यों नहीं देखी? कैसे एक गरीब किसान की आत्महत्या के केस से रसूखदार साहूकार को बचाने वाला नेता केंद्र में ग्रामीण विकास मंत्री बन जाता। कैसे चार्जशीटेड नौकरशाह सीवीसी बन जाता। बोफोर्स मामले के दलाल के खाते खुलवा दिए जाते। सिख विरोधी नरसंहार के आरोपियों की फाइल बंद कर दी जाती। अनाज भले सड़ जाए, पर भुखमरी के शिकार लोगों तक नहीं पहुंचता। अगर कार्यपालिका-विधायिका में बैठे महानुभाव निष्ठा के साथ काम करें, तो न्यायपालिका क्यों दखल देगी? अपने संविधान में कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका की अपनी-अपनी लक्ष्मण रेखा। पर जब एक पलड़ा कमजोर पड़ता, तो दूसरा हावी दिखने लगता। सो मनमोहन को अपनी सरकार में न्यायपालिका का दखल नजर आ रहा। तो उसके जिम्मेदार खुद मनमोहन। आखिर सीवीसी पी.जे. थॉमस पर इतनी पंगु क्यों? कोर्ट में अलग-अलग स्टैंड लेकर खुद ही भद्द पिटवा रही। अब सोमवार को थॉमस के वकील ने ऐसी दलील दी, शर्म भी पानी मांगे। कहा- जब देश के 153 सांसद आपराधिक रिकार्ड वाले, तो सीवीसी थॉमस क्यों नहीं? यानी जब दागी लोग सांसद बन सकते, तो सीवीसी क्यों नहीं। थॉमस के वकील ने नियुक्ति को सुप्रीम कोर्ट के समीक्षा दायरे से बाहर करार दिया। अगर न्यायपालिका गलत, तो आम लोगों का उस पर इतना भरोसा क्यों? गाहे-ब-गाहे मनमोहन कोर्ट को तो नसीहत दे रहे। कभी सड़े अनाज के मामले में, तो कभी स्पेक्ट्रम-थॉमस जैसे मामलों में। पर नेता कभी अपनी इमेज क्यों नहीं सुधारते? न्यायपालिका का इस्तेमाल सहूलियत के लिए नहीं। पीएम की नजर में कोर्ट की हाल की टिप्पणियां दखलंदाजी, तो सवाल- स्पेक्ट्रम घाटले में विपक्ष की धार कमजोर करने के लिए सीबीआई जांच को सुप्रीम कोर्ट ने मॉनीटर करवाने का फैसला किसने लिया? इतिहास तो यही इशारा कर रहा- जब नेताओं, मंत्रियों, अफसरों ने गठजोड़ कर लोकतंत्र के क्रियाकर्म का प्रोग्राम बना लिया, तब न्यायपालिका ने अपने दायरे के तहत सक्रिय और प्रभावी भूमिका का बीड़ा उठाया। जैन हवाला कांड हो या संचार टैंडर घोटाला। मकान आवंटन में भ्रष्टाचार हो या हवाला कांड में चार्जशीट का मामला। लक्खूभाई पाठक या सेंट किट्स मामले हों या चारा घोटाला। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड हो या बोफोर्स घोटाला। सभी मामलों में तभी नई जान आई, जब अदालतों ने कदम उठाया। सीबीआई तो हमेशा आकाओं को बचाने में लगी रही। सो चीफ जस्टिस एम. एन. वेंकटचलैया ने तो जैन हवाला मामले में तत्कालीन सीबीआई डायरेक्टर विजय रामाराव को निजी तौर पर जवाबदेह बनाया। कई बार कोर्ट की जांच पर मॉनीटरिंग सवालों के घेरे में रही। पर जस्टिस जे.एस. वर्मा ने साफ कर दिया था- मॉनीटरिंग का मतलब कार्यपालिका का अधिकार हथियाना नहीं, उसके कर्तव्य निर्वहन का अहसास कराना। जस्टिस चेनप्पा रेड्डी ने कहा था- अदालतों को निगरानी का काम इसलिए हाथ में लेना पड़ा, क्योंकि उसके आदेशों को पूरा करने में कार्यपालिका का रिकार्ड खराब रहा है। सचमुच न्यायपालिका तो संविधान और कानून के दायरे में अपनी बात रखती। पर कार्यपालिका-विधायिका कैसे काम करतीं, किसी भी आम आदमी से पूछकर देखो।
----------
07/02/2011