Friday, September 3, 2010

वर्किंग कमेटी टाल बीजेपी ने खुद की खोली पोल

तो सोनिया गांधी का निर्वाचन भी निपट गया। बारिश ने भले जश्न का माहौल फीका कर दिया। पर सोनिया ने हमेशा की तरह रंग चढ़ा दिया। समारोह की शुरुआत वंदे मातरम से हुई, तो समापन जन, गण, मन से। सचमुच सोनिया ने जब राजनीतिक सफर की शुरुआत की, तब विपक्ष के कई थपेड़े झेले। पर हार नहीं मानी। सो कांग्रेसियों की खातिर सोनिया सफलता का पर्याय बन चुकीं। सोनिया ने निर्वाचन का सर्टिफिकेट हासिल करने के बाद कोई लंबा-चौड़ा भाषण नहीं फेंका, जैसा और पार्टियों के नेता फेंकते। अलबत्ता मंच पर आईं, सबका आभार जताया। बोलीं- अपने टर्म में मैंने महसूस किया कि अध्यक्ष पद देश के प्रति बड़ी जिम्मेदारी। आज कांग्रेस हर कोने, वर्ग और पीढ़ी की भावना-आकांक्षा की प्रतीक। सत्ता में हों या विपक्ष में, हमें अपनी बड़ी भूमिका का अहसास रहना चाहिए। आखिर में कांग्रेस का झंडा बुलंद रखने का भरोसा दिखा धन्यवाद कर गईं। सोनिया ने चौथी बार कांग्रेस की कमान संभाल रिकार्ड कायम किया। पर गुरुवार को सोनिया को त्याग की नसीहत देने वाली बीजेपी शुक्रवार को खामोश रही। बीजेपी के कानूनदां प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कांग्रेस का संविधान पढक़र पेच निकाला था। परिवारवाद पर निशाना साधा। अपने नितिन गडकरी ने भी वही बात कही, जो अध्यक्षी संभालने के दिन कही थी। कहा था- बीजेपी में पोस्टर चिपकाने वाला मुझ जैसा छोटा कार्यकर्ता अध्यक्ष बन सकता है। पर कांग्रेस अध्यक्ष के लिए नेहरू-गांधी खानदान का होना जरूरी। यानी बीजेपी ने शीर्ष स्तर से कांग्रेस के लोकतंत्र का मखौल उड़ाया। सो कल यहीं पर लिखा था- कांग्रेस में चेहरा, तो बीजेपी में मोहरा का लोकतंत्र। कैसे कांग्रेस खुद को नेहरू-गांधी परिवार के साये से बाहर नहीं निकाल पा रही। तो बीजेपी में संघ की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सो कल आपको बताया था, कैसे संघ हमेशा अपने मोहरे बीजेपी में फिट करता। सोनिया गांधी का तो औपचारिक चुनाव हुआ। पर बीजेपी में गडकरी पहले अध्यक्ष बने, फिर चुनाव हुआ। सो वर्करों पर अपनी मर्जी थोपने में कोई पीछे नहीं। बीजेपी में तो आज भी संगठन महासचिवों का पद संघ के पूर्णकालिक वर्कर के लिए आरक्षित। यानी बीजेपी भले स्वतंत्र संगठन हो, पर उसे चलाने वाला सीईओ संघ तैनात करता। अगर बीजेपी के वर्करों को इस दलील पर एतराज हो, तो शुक्रवार की एक कहानी देख लें। कहते हैं ना, सांच को आंच नहीं। बीजेपी ने गुरुवार को सोनिया के चयन को अलोकतांत्रिक ठहराने की कोशिश की। पर देर रात जब झंडेवालान में नितिन गडकरी, अरुण जेतली और सुषमा स्वराज की संघ के सरकार्यवाह भैयाजी जोशी से मीटिंग हुई। तो बीजेपी की ऐसी क्लास लगी, शुक्रवार को पौ फटते ही कोर ग्रुप की मीटिंग बुलानी पड़ी। बीजेपी ने 18-19 सितंबर को जम्मू में वर्किंग कमेटी का फैसला कर लिया था। तैयारियां शुरू हो गई थीं। पर संघ ने लताड़ लगाई। पूछा, किस सोच से 18-19 सितंबर को वर्किंग कमेटी करने जा रहे? संघ ने बीजेपी नेताओं को दो-टूक कह दिया- अयोध्या मामले पर 17 सितंबर को कोर्ट का फैसला आ रहा। आप लोगों को दिल्ली में बैठकर आगे की रणनीति बनानी चाहिए। पर आप जम्मू में राजनीतिक-आर्थिक और आंतरिक सुरक्षा का प्रस्ताव पारित करने जा रहे। अब बीजेपी को काटो, तो खून नहीं। सो शुक्रवार को तडक़े एलान हो गया- वर्किंग कमेटी 18-19 सितंबर को नहीं होगी। नई तारीख का एलान बाद में करेंगे। अब कोई गडकरी से पूछे, क्या इसी लोकतंत्र की बात कर रहे थे? खुद में दम नहीं, पर लोकतांत्रिक संगठन का दंभ भर रहे। गडकरी को अध्यक्ष बने साढ़े आठ महीने हो गए। पर क्या यही उपलब्धि? यों गुरुवार को बीजेपी ने कांग्रेस पर चुटकी ली थी। पर शुक्रवार को बीजेपी की चुटकी बीजेपी वालों ने ही ली। गडकरी की उपलब्धि यही, पहली बार आडवाणी खुद चलकर गडकरी के घर हुई कोर ग्रुप की मीटिंग में पहुंचे। वह भी बारहवीं मंजिल पर किराये वाले घर में। राजनाथ सिंह जब तक अध्यक्ष रहे, या तो खुद आडवाणी के घर गए या बीजेपी दफ्तर में ही मीटिंग करनी पड़ी। पर गडकरी ने साढ़े आठ महीने में ही यह उपलब्धि हासिल कर ली। यों यह तो महज चुटकी। पर सच्चाई यही, कोई भी पार्टी लोकतंत्र को तवज्जो नहीं देती। कांग्रेस तो खम ठोककर परिवार के प्रति अपनी निष्ठा जाहिर कर चुकी। पर बीजेपी नीतिगत मामलों पर संघ से दूरी का दंभ भरती। अब जब वर्किंग कमेटी तक की तारीख संघ तय करे, तो बीजेपी किस मुंह से अपनी बड़ाई कर रही? संघ के बीजेपी में दखल का खुल्लमखुल्ला इजहार आडवाणी 16 सितंबर 2005 की चेन्नई वर्किंग कमेटी में कर चुके। जब पानी पिये बिना ही संघ को कोसा था। संघ के दखल से इतने परेशान थे कि पानी पी-पीकर कोसने की फुर्सत नहीं मिली। अब जिस अयोध्या मामले पर आने वाले अदालती फैसले के मद्देनजर संघ ने बीजेपी की वर्किंग कमेटी टलवाई। उसी संघ के आनुषांगिक संगठन आपस में भिड़ते दिख रहे। विश्व हिंदू परिषद विपरीत फैसले की स्थिति में साधु-संतों को आगे करने की रणनीति बना रहा। तो बीजेपी एक बार फिर काठ की हांडी चढ़ाने की सोच रही। पर विहिप ने कह दिया- अब मंदिर मामले में बीजेपी दखल न दे। सो अयोध्या पर फैसला जब आएगा, तब आएगा। फिलहाल बीजेपी के सिर से खिजाब का रंग उतर गया। चौबीस घंटे भी न हुए, आईने की तरह साफ- अगर कांग्रेस का रिमोट दस जनपथ में, तो बीजेपी का रिमोट नागपुर के रेशमबाग में।
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03/09/2010