Thursday, June 3, 2010

अभिव्यक्ति की 'तेरी-मेरी', तो मौलिक हक कहां?

यों तो साहित्य समाज का दर्पण माना जाता। पर जबसे साहित्य में नेताओं की घुसपैठ हो गई। तबसे सिर्फ हल्ला ही मच रहा। कहीं कोरी कल्पना, तो कहीं कल्पना-हकीकत का तडक़ा मार घालमेल। फिर वोट के हिसाब से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला। अब ताजा विवाद सोनिया गांधी की जिंदगी पर लिखी गई काल्पनिक किताब पर। स्पेन के एक लेखक जेवियर मोरो ने स्पेनिश में एक पुस्तक लिखी- एल साड़ी रोजो। इसी पुस्तक का अंग्रेजी संस्करण बना- दी रेड साड़ी। सारा विवाद अंग्रेजी संस्करण को लेकर था। किताब का प्रकाशन रोकने के लिए सात-आठ महीने पहले ही अपने अभिषेक मनु सिंघवी ने प्रकाशक को नोटिस भेजा था। पर अब मामला उछला। सिंघवी ने नोटिस की बाबत सोनिया की सहमति कबूली। पर कांग्रेस ने कोई सीधी टिप्पणी नहीं की। अब जरा किताब को लेकर आपत्ति भी देखते जाएं। जेवियर मोरो ने कल्पना के आधार पर किताब लिखी। जिसमें सोनिया की जिंदगी की शुरुआत से इस मुकाम तक पहुंचने की कहानी को कल्पना में ढालने की कोशिश। पर किसी की निजी जिंदगी को कल्पना में ढालकर प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना अभिव्यक्ति की कैसी स्वतंत्रता? अब किताब अभी भारत में नहीं आई। सो कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद ने यही दलील दी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सम्मान पर जोर दिया। पर बीजेपी को तो सिर्फ सोनिया नाम का कोई मुद्दा भर चाहिए। सो न सोचा, न विचारा, मुंह खोल दिया। बीजेपी के चीफ प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद स्पेनिश लेखक के बचाव में उतर आए। बोले- प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबको सम्मान करना चाहिए। रविशंकर ने शुक्रवार को रिलीज होने वाली फिल्म राजनीति पर कांग्रेस के एतराज पर भी सवाल उठाए। फिर स्पेनिश लेखक और प्रकाश झा के खिलाफ कांग्रेसी मुहिम को आपात काल से जोड़ दिया। पर कोई होम वर्क किए बिना क्लास में पहुंचे, तो उसकी भद्द पिटनी लाजिमी। रविशंकर बाबू के साथ भी यही हुआ। उन ने कांग्रेस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया। आपात काल की काली छाया याद कराई। पर जब सवाल हुआ, अपने जसवंत सिंह को क्यों बीजेपी से बाहर निकाला? आखिर जसवंत सिंह ने भी तो वही किया, जिसकी बीजेपी पैरवी कर रही। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक हक का इस्तेमाल किया। जसवंत ने जिन्ना पर किताब लिखी। तो बीजेपी ने न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला, अलबत्ता न्याय के सिद्धांत को भी मसल कर रख दिया। जसवंत को न दलील, न वकील, न अपील का मौका दिया। अपने बुजुर्ग नेता को शिमला की चिंतन बैठक में बुलाकर भी बैठक में आने से मना कर दिया। भारतीय संस्कृति में ऐसा व्यवहार तो शत्रु भी नहीं करता। पर बीजेपी ने तीस साल पुराने सहयोगी को चुटकी में बाहर निकाल दिया। सो रविशंकर अपनी ही दलील से घिर गए। पर जवाब दिया- हमने कभी जसवंत की किताब पर बैन लगाने की मांग नहीं की। बीजेपी के सक्रिय नेता थे, पर उनकी किताब हमारी विचारधारा के प्रतिकूल थी। सो निकाल दिया। अब कोई पूछे, क्या किसी दल से जुडऩे का मतलब विचारधारा की संकीर्णता में बंध जाना चाहिए? अगर विचारधारा की लक्ष्मण रेखा के भीतर ही सोच बने, तो फिर विचारधारा का विकास कहां हो पाएगा। पर कांग्रेस को घेरने आए रविशंकर यहीं तक नहीं घिरे। वह भूल गए, जसवंत की किताब 17 अगस्त 2009 को लांच हुई। बीजेपी ने एक दिन बाद ही 19 अगस्त को जसवंत का कोर्ट मार्शल कर दिया। फिर नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना पढ़े-लिखे 20 अगस्त को गुजरात में किताब पर बैन लगा दिया। जसवंत ने सुप्रीम कोर्ट तक बैन को चुनौती दी। आखिर बैन हटाना पड़ा। फिर बीजेपी से टाइम मैगजीन में पीएम वाजपेयी पर छपे लेख का सवाल हुआ। टाइम मैगजीन के पत्रकार एलेक्स पेरी ने वाजपेयी को पियक्कड़ बताया। तो पेरी को हमेशा के लिए भारत से निकाल दिया गया। अब भले पेरी ने जो लिखा, वह खुन्नस हो। पर सोनिया की जिंदगी पर काल्पनिक किताब में बीजेपी की दिलचस्पी क्यों? अगर कुछ भी लिखने की आजादी, तो जसवंत और पेरी पर कार्रवाई क्यों? प्रसिद्ध चित्रकार एम.एफ. हुसैन की अभिव्यक्ति बीजेपी को रास क्यों नहीं आई? गुजरात दंगों पर आधारित फिल्म परजानिया को किस तरह गैर आधिकारिक तरीके से मोदी सरकार ने रोका, सबको मालूम। याद करिए, सरदार सरोवर बांध को लेकर मेधा पाटकर के साथ जब दिल्ली के जंतर-मंतर पर आमिर खान भी उतर आए। तो समूचे गुजरात में आमिर की फिल्म फना पर अघोषित बैन लग गया। अब वही बीजेपी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई देकर स्पेनिश लेखक का बचाव कर रही। पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल तो आडवाणी ने भी किया था। जब जिन्ना की मजार पर जाकर पांच जून 2005 को जिन्ना को सेक्युलर बता आए। समूची बीजेपी-संघ परिवार आडवाणी के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था। तो क्या सिर्फ सुविधा के मुताबिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता परिभाषित होगी? कभी पैगम्बर मोहम्मद के कार्टून का विवाद। कभी नेताओं की आत्मकथा पर विवाद। तो फतवों के जरिए आए दिन मौलिक हक पर चोट हो रही। वीपी सिंह ने आत्मकथा लिखी। तो बीजेपी को गवारा नहीं हुआ। आडवाणी ने लिखी, तो कांग्रेस को नहीं। जसवंत-आडवाणी की नजर में जिन्ना एक समान। पर सजा मिली सिर्फ जसवंत को। अब कोई पूछे, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में भी तेरी-मेरी, तो मौलिक हक कहां?
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03/06/2010