Tuesday, November 24, 2009

'राम कसम' अब नेताओं को 'शर्म' आती ही नहीं

इंडिया गेट से
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'राम कसम' अब नेताओं
को 'शर्म' आती ही नहीं
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 संतोष कुमार
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लीकेज से आग भड़की। तो मंगलवार को ही पी. चिदंबरम ने रपट पेश कर दी। सोनिया गांधी के घर मीटिंग में स्ट्रेटजी बनी। तो बिन मनमोहन ही केबिनेट मीटिंग हो गई। पौ फटते ही प्रणव दा ने केबिनेट में रपट और एटीआर को हरी झंडी दी। संसद के दोनों सदनों में रपट पेश भी हो गई। पर सुना था शोर पहलू में बहुत, चीरा तो कतरा-ए-खूं न निकला। रपट की स्याही तो पहले ही अखबारों में। सो रपट संग एटीआर पहली नजर में कोरी ही निकली। दोषियों की लिस्ट में अटल, आडवाणी, जोशी समेत 68 नाम। पर कार्रवाई रपट में सरकार ने चुप्पी साध ली। अलबत्ता 13 पन्नों की एटीआर में सरकार लिब्राहन रपट की तेरहवीं मनाती दिखी। सहमत हैं, नोट कर लिया, जांच करेंगे, ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए जैसे शब्दों से ही एटीआर भरी पड़ी। सांप्रदायिक हिंसा रोकने का बिल आएगा। मुकदमों की सुनवाई तेजी से होगी। पर ये सारी बातें तो पहले भी कही जा चुकीं। सो एटीआर में एकशन कम, टीयर ज्यादा। यही हाल लिब्राहन रपट का भी। अहम खुलासे तो पहले ही हो चुके। सो मंगलवार को नई बात सिर्फ यही, धर्म का राजनीति से घालमेल न हो। पर यह बात तो 1947 से ही कही जा रही। सो घालमेल न हो, फिर राजनीति काहे की होगी। तभी तो देश में महंगाई हो या गन्ना किसानों की समस्या। असम के धमाके हों या 26/11 की बरसी का मौका। पर अपनी संसद, सरकार और विपक्ष के लिए मुद्दा क्या है? बस लिब्राहन रपट, बाबरी ढांचा, अयोध्या में राम मंदिर, और कुछ नहीं। वोट बैंक की राजनीति के ठेकेदार अमर सिंहों को लग रहा। जैसे देश में समस्याओं का अंबार इसलिए, क्योंकि बाबरी मस्जिद ढह गई। तो दूसरे ठेकेदार आडवाणी-कल्याण को लग रहा, अयोध्या में राम मंदिर बन जाए। तो मानो देश में चहुं ओर खुशहाली आ जाएगी। संवैधानिक रास्ते से विवाद का हल निकले, इसमें कोई गुरेज नहीं। पर कोई व्यक्ति या राजनीतिक दल खुद को ही संविधान मान ले। तो फिर अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था का राम ही राखा। पर वोट की लड़ाई में दंगों की सिर्फ कब्रें खुदतीं। कभी जांच अंजाम तक नहीं पहुंचती। और अगर पहुंच भी जाए, तो देरी का न्याय बेमानी हो जाता। अब बाबरी विध्वंस की रपट आने में ही 17 साल लगे। तो न्याय मिलने तक कितने साल गुजरेंगे। बीजेपी ने तो अटल नाम जप रिपोर्ट को झुठलाना शुरू कर दिया। पर सरकार में भी इच्छाशक्ति नहीं दिख रही। तभी तो तबके कर्ताधर्ता रपट के बाद भी दहाड़ रहे। आडवाणी ने सोमवार को संसद में तेवर दिखाए। तो मंगलवार को अपने सांसदों की खूब पीठ ठोकी। तीन दिन तक संसद ठप रखने से गदगद थे। तो दूसरी तरफ दर-ब-दर कल्याण सिंह भी उसी तेवर में लौट आए। मुलायम-अमर ने दुलत्ती मार दी। सो मंगलवार को राममयी हो गए। अब आप रपट की छोडि़ए। कल्याण का इकरारनामा सुनिए। बोले- 'मेरे सामने दो विकल्प थे। ढांचा बचाऊं या कारसेवकों की जान। सो मैंने कारसेवकों को नरसंहार से बचाया। मुझे ढांचा गिरने का कोई खेद, कष्टï, पीड़ा नहीं। अयोध्या में मंदिर बनना है। सो ढांचा को तो जाना ही था।'  इकरारनामे से इतर कल्याण ने खम भी ठोका। बोले- 'अब वहां मंदिर ही बनेगा, मस्जिद नहीं। भगवान राम मुसलमानों के भी पूर्वज। सो मुस्लिम समाज मंदिर निर्माण में खुद आगे आए।'  क्या कल्याण उवाच किसी खास संप्रदाय को धमकी नहीं? पर बीजेपी में वापसी को बेताब कल्याण के पास और कोई रास्ता भी नहीं। लिब्राहन रपट ने सिर्फ बीजेपी नहीं, तमाम भगवा धारियों को जिंदा कर दिया। कल्याण ने तो कह दिया, बीजेपी के लिए रपट यूपी में संजीवनी बनेगी। अब बीजेपी को तय करना, कल्याण की घर वापसी कैसे हो। पर कल्याण ने कांग्रेस को भी कटघरे में उतारा। जब पूछा, मंदिर में रामलला की मूर्ति स्थापना से लेकर ताला खुलवाने और शिलान्यास तक केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। तो क्या ये सारे काम कांग्रेस मस्जिद बनाने के लिए कर रही थी? यानी कल्याण की मानें, तो कांग्रेस ने रंगमंच तैयार किया। संघ परिवारियों ने तो सिर्फ मंचन किया। कल्याण ने तो यह भी कह दिया, कल से जनता की प्रतिक्रिया भी देख लेना। पर जनता का तो पता नहीं। राज्यसभा में हाथापाई जरूर हो गई। अखबारों में सपा-बीजेपी की नजदीकियां चर्चा बनी। तो मंगलवार को अमर सिंह ने कुछ नया कर दिखाया। चिदंबरम ने रपट पेश की। तो बीजेपी वालों ने 'जय श्री राम'  के नारे लगाए। सो अमर सिंह धड़धड़ाते वैल में घुस बीजेपी के उपनेता एस.एस. आहलूवालिया से भिड़ गए। सपाई सांसदों ने 'या अली' के नारे लगाए। अब वरिष्ठïों के सदन में ऐसी बात हो। तो क्या कहेंगे? यही ना, ऊंची दुकान, फीका पकवान। गुस्से में हाथापाई हुई। पर माफीनामा सिर्फ मजाक बनकर रह गया। दुबारा सदन बैठा। तो अमर-आहलूवालिया ने एक-दूसरे को अपना सहपाठी बताया। चेयरमैन ने भी सख्ती नहीं दिखाई। अमर सिंह को एतराज था, जय श्री राम के नारे क्यों लगाए। तो बीजेपी की दलील, सदन हमारा मंदिर। तो नारा कहां लगाएं। पर अमर वाणी देखिए- 'मैं सबसे बड़ा राम भक्त। मैं रोज हनुमान चालीसा पढ़ता हूं। पर सदन में धार्मिक नारेबाजी बर्दाश्त नहीं।' अब अगर देश में अमर-आहलूवालिया जैसा द्वेष बढ़ा। तो जिम्मेदार कौन होगा? क्या फिर कोई लिब्राहन आयोग बनाएंगे? अपने लोकतंत्र में अब नैतिकता-मर्यादा नहीं रही। वोट बैंक की जैसी मारामारी। अब तो यही लग रहा, राम कसम अपने नेताओं को शर्म आती ही नहीं।
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24/11/2009