Wednesday, September 29, 2010

तो क्यों न नेहरू और काटजू के फार्मूले पर हो अमल?

ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान। अयोध्या हो या कॉमनवेल्थ, अब बापू भजन ही आसरा। अयोध्या विवाद में गुरुवार को नया अध्याय जुड़ेगा। सो फैसले से पहले शांति की अपील के साथ-साथ सुरक्षा के भी पुख्ता बंदोबस्त हो गए। अब इंतजार तीन जजों की बैंच के फैसले का। कॉमनवेल्थ गेम्स के आगाज से ठीक पहले फैसले ने सरकार के हाथ-पांव फुला रखे। सो बुधवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने बापू भजन सुना शांति की अपील की। सरकार को पूरा भरोसा, फैसला जो भी हो, आखिर में गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में ही आएगी। पर हाईकोर्ट के फैसले से राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में कुछ अनहोनी न हो, यही दुआ कर रही सरकार। अपनी भी कामना यही, इतिहास खुद को न दोहराए। यों कॉमनवेल्थ से पहले अयोध्या से भले सरकार को राहत मिल जाए। पर गेम्स के ठीक बाद कॉमनवेल्थ का भूत सरकार को डराएगा। झलक तो बुधवार को अपने सुप्रीम कोर्ट ने दिखा दी। सुनवाई हो रही थी दिल्ली के जंतर-मंतर के निकट एनडीएमसी के दफ्तर से जुड़े अवैध कंस्ट्रक्शन के मामले पर। कानूनन संरक्षित स्मारकों के सौ मीटर के दायरे में कंस्ट्रक्शन नहीं हो सकता। पर एनडीएमसी ने खुद को कोतवाल मान वह सब कर लिया, जिसकी कानून इजाजत नहीं देता। सो सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमसी को जमकर लताड़ा। कहा- कोई इतना बेदिमाग और कानून विरोधी कैसे हो सकता। क्या इतिहास और संविधान के प्रति आपका कोई सम्मान नहीं? क्या सिर्फ पैसा ही सब कुछ हो गया? अगर यही करना है, तो क्यों नहीं जंतर-मंतर को होटल या मॉल में बदल देते। ताकि भारत की चमक दिख सके। सरकारी अमला जब कानून को बपौती समझ ले। तो सुप्रीम कोर्ट का बिफरना लाजिमी। सो कोर्ट की टिप्पणी एनडीएमसी से आगे बढक़र कॉमनवेल्थ तक पहुंच गई। कोर्ट ने चेतावनी दे दी, वह आंख मूंदकर नहीं बैठने वाली। सत्तर हजार करोड़ पानी में बहा दिए गए। फिर भी नया पुल ताश के पत्तों की तरह ढह जाता है। कोर्ट की तल्खी यहीं नहीं थमी। कहा- इस देश में बिना काम के पेमेंट हो जाते। सत्तर हजार करोड़ की कोई जिम्मेदारी नहीं। भ्रष्टाचार का बोलबाला हो चुका। जिस कॉमनवेल्थ को अभी सार्वजनिक उद्देश्य बताया जा रहा, पंद्रह अक्टूबर के बाद निजी उद्देश्य हो जाएंगे। सचमुच सीवीसी और कैग की ओर से सवाल उठाए जाने के बाद भी कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजकों ने परवाह नहीं की। उखाडऩे-लगाने के खेल में इतना समय गंवाया कि अब शीला-कलमाड़ी-गिल-जयपाल चौबीस घंटे की जगह अड़तालीस घंटे काम कर रहे। सूरज कब निकल रहा, कब डूब रहा, इन चारों को मालूम नहीं। पर सचमुच दिमाग लगाकर आयोजकों ने काम किया होता। तो आज न काम पड़े होते, न देश की फजीहत होती। पर क्या सचमुच कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद भ्रष्टाचारियों को सजा मिलेगी? सुप्रीम कोर्ट भले सख्ती दिखाए। पर जांच तो सीबीआई या सरकार की एजेंसी से ही करानी होगी। तब इस बात की गारंटी कौन देगा कि इस केस का भी हश्र लालू-माया-मुलायम के केस जैसा नहीं होगा। लीपापोती में राजनेता और नौकरशाह चोर-चोर मौसेरे भाई ही नहीं, दो जिस्म, एक जान हो जाते। देश की यही बड़ी विडंबना, भ्रष्टाचार कण-कण में व्याप्त हो चुका। पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। बुधवार को ही बीसीसीआई ने जगमोहन डालमिया से आरोप वापस लेने का फैसला किया। यानी राजनीति में कोई, कब दोस्त और कब दुश्मन बन जाए, पता नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने सोलह आने सही कहा- सरकारी अमले में अब कोई नैतिकता नहीं, सिर्फ पैसा ही सब कुछ। पर सुप्रीम कोर्ट अपनी व्यथा का इजहार कई बार कर चुका। सनद रहे, सो बताते जाएं। सात मार्च 2007 को चारा घोटाले के मामले में जस्टिस एस.बी. सिन्हा और जस्टिस मार्कंडेय काटजू सुनवाई कर रहे थे। घोटाले के आरोप के बाद बर्खास्त कर्मचारी बृजभूषण प्रसाद को विशेष अदालत से सजा हो चुकी थी। सो सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए वकील ने दलील दी कि बृजभूषण तो सिर्फ बजट एकाउंट आफीसर थे। सो जस्टिस काटजू भडक़ गए। कहा- तुम्हें फंड का ऑडिट करना था, पर तुमने क्या किया? हर कोई इस मुल्क को लूट लेना चाहता है। बस एक ही उपाय बचा है कि भ्रष्ट लोगों को लैम्प पोस्ट पर लटका फांसी दे दी जाए। पर क्या करें, कानून हमें इसकी इजाजत नहीं देता। वरना कुछ भ्रष्ट लोगों को सरेआम फांसी की सजा देते, ताकि लोग भ्रष्टाचार के नाम से डरें। जो पीड़ा सुप्रीम कोर्ट के जज ने उड़ेली। हू-ब-हू यही बात देश के पहले पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू भी कह चुके। उन ने भी कहा था- भ्रष्टाचारियों को सबसे पास के लैम्प पोस्ट से लटका कर फांसी दे देनी चाहिए। पर जब नेहरू के काल में भ्रष्टाचार नहीं रुका, तो अब कैसी उम्मीद। कॉमनवेल्थ के नाम पर भ्रष्टाचार का जो खेल हुआ, वह दिल्ली की जनता ने तो खुली आंखों से देखा। हर उखडऩे और बिछने वाले टाइल्स को जुबान मिल जाए, तो भ्रष्टाचार की सत्यकथा सामने आ जाएगी। पर देश में सत्य और अहिंसा की फिक्र अब किसे? कहीं अयोध्या के नाम पर रोटी सेकने के लिए अहिंसा की बलि देने को तैयार। रही बात सत्य की, तो सचमुच वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के साथ ही 30 जनवरी 1948 को खत्म हो चुकी। सो कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर मची लूट का सच सामने आएगा, इसकी गुंजाइश कम। यों राजनीति के लिए हायतौबा जरूर मचेगी। पर फिर आखिर में वही सवाल, कॉमनवेल्थ का भ्रष्टाचार देश की साख को बट्टा लगा गया। सो सच माइने में यह देश के साथ गद्दारी। तो क्यों न अब नेहरू और काटजू के फार्मूले पर अमल हो।
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