Monday, March 21, 2011

कहीं राजनीति, तो कहीं तेल का खेल

तो होली पर बीजेपी का मुंह काला हो गया। विकीलिक्स ने एटमी डील पर विपक्ष के दोहरेपन का खुलासा क्या किया, होली के दिन बीजेपी रंग भी पहचान नहीं पाई। एटमी डील पर बीजेपी ने विरोध का ऐसा झंडा उठाया, मनमोहन सरकार खतरे में पड़ गई थी। लेफ्ट ने समर्थन खींच लिया था। पर अब खुलासा हुआ- बीजेपी के दांत खाने के और, दिखाने के और थे। बीजेपी ने एटमी डील का न सिर्फ विरोध किया था, अलबत्ता आडवाणी ने सत्ता में आने पर रिव्यू का भी एलान कर दिया था। पर विकीलिक्स के जरिए बात खुली- बीजेपी नेताओं ने अमेरिका को पहले ही बता दिया था। दिखावे पर न जाओ, अपनी अक्ल लगाओ। यानी डील का विरोध करना राजनीतिक चाल। पर बीजेपी डील के खिलाफ नहीं। और तो और, बीजेपी के नेता शेषाद्रि चारी ने तो अमेरिकी अधिकारी राबर्ट ब्लैक को यहां तक कह दिया था- हमारी विदेश नीति के प्रस्ताव पर ध्यान न दो। खुलासे के मुताबिक खुद आडवाणी ने भी अमेरिका को भरोसा दिलवाया था- बीजेपी सत्ता में आएगी, तो डील रिव्यू नहीं कराएगी। अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। बीजेपी के लिए विकीलिक्स ऐसी फांस बनी, जो न उगली जाए, न निगली जाए। जिस विकीलिक्स को आधार बना मनमोहन को मजबूर किया, अब खुद क्या कहेगी बीजेपी? यों सत्ता में बीजेपी हो या कांग्रेस, अमेरिका के आगे दुम हिलाती रहीं। सो जब डील पर बीजेपी के भीतर चिक-चिक हो रही थी, तभी साफ हो गया था। बीजेपी सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रही। सो अब वोट के बदले नोट कांड के पूर्व की परिस्थितियां देखें, तो कहीं न कहीं बीजेपी भी जिम्मेदार। बीजेपी डील की पैरोकार थी। अगर दिखावे का विरोध न करती। तो न नौ मन तेल होता, न राधा नाचती। शायद न सरकार संकट में आती, न बहुमत का भोंडा प्रदर्शन होता। पर कहते हैं ना- राजनीति, प्यार और जंग में सबकुछ जायज। अब बीजेपी की राजनीति की तो पोल खुल गई। सो बात कांग्रेस और तृणमूल के बीच ‘प्यार’ भरे रिश्ते की। कांग्रेस ने बंगाल में तमिलनाडु दोहराने की कोशिश की। पर आखिर में बिलबिलाती नजर आई। यों कांग्रेस के लिए सुखद संदेश यही रहा- न तमिलनाडु में गठबंधन टूटा, न बंगाल में दरका। पर तमिलनाडु में कांग्रेस ने करुणा को करुण कर दिया। तो बंगाल में ममता की ‘ममता’ पर ही निर्भर रहना पड़ा। तमिलनाडु में कांग्रेस ने अपनी मांग 48 से बढ़ाते-बढ़ाते 63 सीट तक कर दीं। ना-नुकर करते-करते करुणानिधि को भी मानना पड़ा। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच की आंच में डीएमके को झुलसा कांग्रेस ने मंशा पूरी की। पर बंगाल में ममता के राजनीतिक पेच ने कांग्रेस को पंक्चर कर दिया। कांग्रेस ने ममता से पहले 98 सीट मांगी। तो ममता ने 45 से गिनती शुरू की। फिर कांग्रेस 75 पर आई, तो ममता भी 50 पर आईं। फिर 60 और आखिर में 64 की लकीर खींच ममता ने बिना कांग्रेस की बाट जोहे अपने 228 उम्मीदवारों का एलान कर दिया। कांग्रेस के लिए 64 और दो सीट एसयूसीआई के लिए छोड़ दीं। सो कांग्रेस के लिए अब काटो तो खून नहीं। कांग्रेस की प्रतिष्ठा धूल धूसरित हो गई। सो कई राउंड की बातचीत के बाद ममता महज कांग्रेसी चेहरे से धूल झाडऩे को तैयार हुईं। आखिर में एक और सीट थमा कांग्रेस को हैसियत बता दी। पर गठबंधन बच गया, तो बंगाल कांग्रेस के प्रभारी शकील अहमद बोले- यह न आत्म समर्पण, न समझौता, यह गठबंधन है। पर जो भी हो, गठबंधन के खेल में कांग्रेस का तेल निकल गया। सो अब बात असली तेल की, जिसकी खातिर अमेरिका ने मित्र देशों के साथ मिल लीबिया पर हमला बोल दिया। लीबिया में तानाशाह कर्नल गद्दाफी के खिलाफ जन आंदोलन छिड़ा हुआ। दोतरफा संघर्ष चल रहा। सो अब दुनिया के कथित दादागण अपनी दादागिरी पर उतर आए। गद्दाफी के ठिकानों समेत कई जगहों पर हवाई हमले शुरू हो गए। पर सवाल- दुनिया के दादाओं को यह लाइसेंस किसने दिया? इराक में रासायनिक हथियार के नाम पर हमला बोला। इराक को नेस्तनाबूद कर दिया। पर रासायनिक हथियार का रा भी नहीं मिला। अब इराक के तेल के कुएं से अमेरिका और मित्र देशों की कंपनियां मालामाल हो रहीं। अगर सचमुच अमेरिका एंड कंपनी लोकतंत्र की पैरोकार, तो क्या हवाई हमले के सिवा कोई और विकल्प नहीं? हवाई हमले में शिकार हो रहे निर्दोष नागरिकों की जिम्मेदारी कौन लेगा? अपने भारत और पड़ोसी चीन ने हमले पर खेद जताया। हिंसा छोडऩे की अपील की। पर सिर्फ घरेलू राजनीति में ही दिखावा नहीं। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी दिखावे हो रहे। भारत कभी ईरान का पैरोकार रहा। अमेरिका ने घुडक़ी दी, तो विरोध किया। अब तो अमेरिका के हर कदम में भारत साथ दे रहा। पर मौका देख कभी परदे के पीछे, तो कभी सामने आ जाता। सो बात अमेरिका और सहयोगी देशों की, तो आप इतिहास पलट कर देख लो। कभी इन देशों के इरादे नेक नहीं रहे। लीबिया पर हमला भी लोकतंत्र लाना नहीं, अलबत्ता तेल के कुएं पर कब्जा जमाना।
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21/03/2011