Thursday, February 11, 2010

कार, कूटनीति, भगवान और अपनी सरकार

 संतोष कुमार
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          तो पाकिस्तान बातचीत को राजी हो गया। फरवरी की 25 तारीख भी तय हो गई। सो अब एजंडा-एजंडा खेल रहे दोनों देश। पाक पीएम यूसुफ रजा गिलानी कश्मीर का राग अलाप रहे। तो अपनी सरकार ने वैलेंटाइन डे से पहले दिल बड़ा कर लिया। फिलहाल कोई शर्त नहीं रखी। अलबत्ता रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने बेलाग फरमाया- 'घुसपैठ का वार्ता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।' तो दूसरी तरफ होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा दोहरा दिया। यानी पाक पीएम गिलानी की शर्त फुस्स करने चिदंबरम ने कमान संभाली। तो दुनिया को दिखाने के लिए एंटनी ने। अब सब ठीक-ठाक रहा, तो तय तारीख को द्विपक्षीय वार्ता होगी। पर विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया। गुरुवार को लालकृष्ण आडवाणी ने वार्ता की मुखालफत की। दलील दी, एजंडे में आतंकवाद को शामिल किए बिना बातचीत बेमानी। आगरा शिखर वार्ता की नजीर पेश की। कैसे आगरा में परवेज मुशर्रफ ने जेहादियों को कश्मीर की आजादी का स्वाधीनता सेनानी बताया। अपनी सरजमीं से आतंक की सरपरस्ती से इनकार किया। तो शिखर वार्ता ऐसी टूटी, मुशर्रफ अजमेर ख्वाजा की दरगाह गए बिना ही इस्लामाबाद लौट गए। यों आडवाणी का एतराज सोलह आने सही। आखिर मुंबई का हमला अपने संसद पर हुए हमले से कम नहीं था। तेरह दिसंबर 2001 को लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर लहूलुहान हुआ। तो 26/11 को देश की शान मुंबई। आतंकवादियों ने भारत की सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी। तो सरकार की पाक के प्रति सख्ती लाजिमी थी। सो संसद हमले के वक्त वाजपेयी सरकार हो या मुंबई हमले के वक्त मनमोहन सरकार। बयानों का उबाल इतना था कि समूचे देश में युद्ध जैसा माहौल पैदा हो गया। हां, मनमोहन ने इतिहास से इतना सबक जरूर लिया कि सीमा पर फौजें तैनात नहीं कीं। यों एनडीए राज में तो न सिर्फ दस हजार सैनिक दस्ते सीमा पर तैनात किए गए। अलबत्ता बाकायदा अभियान को 'ऑपरेशन पराक्रम'  नाम भी दिया गया। पर यह कैसा पराक्रम, जो करीब 6,500 करोड़ खर्चे और करीब 1,800 हताहत फौजियों के साथ सात महीने बाद लौट आए। एशिया के इतिहास में ऑपरेशन पराक्रम से बड़ा कोई सैन्य अभियान नहीं। फिर भी इतिहास में यह ऐसा ऑपरेशन साबित हुआ। जिसका न मकसद मालूम पड़ा, ना ही कोई नतीजा निकला। वैसे भी सरकार का मकसद साफ हो। तो इतिहास साक्षी, 1965 का युद्ध हमने सिर्फ 22 दिन में जीता और 1971 में महज 14 दिन ही पाकिस्तानी रेंजरों को धूल चटाने के लिए काफी रहे। सो सात महीने जमावड़े का मकसद भी क्या हो सकता था। देश को भ्रम में रखा गया। सो ऑपरेशन पराक्रम में नुकसान के सिवा कुछ नहीं मिला। पर इतना जरूर हुआ, परमाणु हमले की आशंका से भारत-पाक दोनों जबर्दस्त सैन्य तैयारियों में जुट गए। अब भारत तो जिम्मेदार देश, परमाणु हमला नहीं करेगा। पर पाक का क्या भरोसा, जिसका कोई दीन-ईमान नहीं। सो ऑपरेशन पराक्रम में सरकार की लचर नीति का खुलासा बाद में पूर्व सेना प्रमुख एस. पद्मनाभन ने किया। जनरल पद्मनाभन की मानें, तो तबकी केबिनेट में ऑपरेशन पर रुख साफ नहीं था। सरकार का मकसद भी ऊहापोह भरा था। इतना ही नहीं, सैन्य बेड़ों के सीमा पर धीरे-धीरे जमावड़े से पाक को बचाव की तैयारी का मौका मिल गया और आखिरकार भारत को अपना ही ऑपरेशन बंद करना पड़ा। पर बाद में वही हुआ, जो अमेरिका ने चाहा। भारत को फिर पाक से दोस्ती का हाथ बढ़ाना पड़ा। वाजपेयी खुद इस्लामाबाद गए। यों तब भारत को इतनी सफलता जरूर मिली, छह जनवरी 2004 के साझा बयान में मुशर्रफ ने वादा किया। पाक अपनी सरजमीं का इस्तेमाल आतंक के लिए नहीं होने देगा। यों आदतन पाक ने कभी यह वायदा नहीं निभाया। पर तब कांग्रेस ने बीजेपी की टांग खिंचाई की। अब करीब-करीब वही स्थिति। तो बीजेपी कांग्रेस की टांग खींच रही। आडवाणी यूपीए सरकार के बदले रुख को बराक ओबामा का दबाव बता रहे। पर एनडीए राज में किसका दबाव था? यों तब वाजपेयी ने मौजूं दलील दी थी। कहा था- 'हम दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी नहीं।'  उन ने एक और बात कही- 'दिल मिले न मिले, हाथ तो मिलाना ही चाहिए।' वाकई अगर हम पड़ोसी से बात न करें, तो वह और बेलगाम होगा। अगर कूटनीतिक स्तर पर वार्ता के जरिए घेरें, तो पाक जैसा पड़ोसी दुनिया में बेनकाब भी होगा। आतंकवाद पर ठोस कार्रवाई करने को भी मजबूर होना पड़ेगा। अपने देश की ढुलमुल नीति ही कहेंगे कि अपना कोई भी पड़ोसी आज की सूरत में भला दोस्त नहीं दिख रहा। दुनिया के झंडाबरदार देश भी वक्त आने पर भारत विरोधी लॉबी में ही खड़े दिखते। अगर खुदा न खास्ता अपने साथ खड़ा भी होता। तो पूरी सौदेबाजी करने के बाद। सो पहले तो अपने देश की राजनीति ठीक करनी होगी। यह कैसी राजनीति, जब बीजेपी का राज हो तो कांग्रेस आलोचना करे। और कांग्रेस का राज हो तो बीजेपी। कम से कम कूटनीतिक मामलों में तो ऐसा कतई नहीं हो। पर सुधार करेगा कौन। गुरुवार को आडवाणी ने फिर कबूला, राजनेताओं की छवि खराब हो चुकी। नेताओं को उन ने कविता की कुछ पंक्तियों से बेपरदा किया। कहा- 'नए-नए मंत्री ने ड्राइवर से कहा, कार मैं खुद चलाऊंगा। ड्राइवर ने कहा, मैं उतर जाऊंगा। यह कार है, सरकार नहीं, जो भगवान भरोसे चल जाएगी।'  आडवाणी ने मनमोहन पर यह फब्ती कसी। पर कूटनीति का हिसाब-किताब करिए। तो दोनों ही सरकारें भगवान भरोसे।
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