Tuesday, October 5, 2010

अपनी ही केंचुली में अब छटपटा रही कांग्रेस

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन्ह तैसी। अयोध्या का फैसला वैसा ही आया, जैसा जनता चाहती थी। पर राजनीतिक मठाधीशों ने वोटों का सुरमा आंखों में लगा लिया। सो करीब-करीब सुलझ चुके मंदिर-मस्जिद विवाद को विक्रम-बेताल की कहानी बनाने में जुट गए। मंगलवार को विशेष सुरमा लगा कांग्रेस भी मैदान में उतर आई। सोनिया गांधी की नई टीम अभी बनी नहीं। सो पुरानी वर्किंग कमेटी को स्टेयरिंग कमेटी में बदल मीटिंग बुला ली। अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की चीर-फाड़ हुई। तो कांग्रेस सचमुच झोला छाप डाक्टर नजर आई। सत्तारूढ़ पार्टी से ईमानदार पहल की उम्मीद थी। पर कांग्रेस ने बयान जारी कर कह दिया- सुलहनामे की पहल हम नहीं करेंगे। अगर सभी पक्ष खुद से कोई समझौता करें, तो स्वागत करेंगे। पर हम सबको सुप्रीम कोर्ट के अंतिम फैसले की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यानी फिर वही बात। सुप्रीम कोर्ट में कोई गया नहीं। पर कांग्रेस अपील करने का दबाव बना रही। सो महीने भर के भीतर सुप्रीम कोर्ट में अपील का वक्फ बोर्ड ने एलान कर दिया। पर कांग्रेस वर्किंग कमेटी के बयान में बेहद मजबूती के साथ यह जोड़ा गया- मौजूदा फैसला किसी भी तरह छह दिसंबर 1992 के दिन बाबरी मस्जिद गिराने के कृत्य को माफ नहीं करता। वह शर्मनाक और आपराधिक कृत्य था। जिसके लिए दोषियों को सजा भुगतनी होगी। लगे हाथ कांग्रेस ने बीजेपी-संघ परिवार पर भी निशाना साध दिया। अब तक संघ के संयत रुख की मुफीद कांग्रेस अब फैसले को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगा रही। यानी कुल मिलाकर कांग्रेस ने मुलायम सिंह से सबक नहीं लिया। अब कांग्रेस का दोहरापन देखिए, मुलायम को कोस भी रही। पर खुद भी वही खेल कर रही। तभी तो कांग्रेस वर्किंग कमेटी में अयोध्या फैसले की बेचैनी दिखी। एक खेमे ने फैसले को आस्था आधारित बताया। तो दूसरे ने सामाजिक सौहार्द के लिए जायज ठहराया। पर कांग्रेस की सबसे बड़ी बेचैनी एक समुदाय विशेष में फैसले से पैदा हुई निराशा की वजह से। कांग्रेस को यही लग रहा, बाबरी विध्वंस के वक्त मुसलमानों का खोया भरोसा लंबे समय बाद कांग्रेस की ओर लौट रहा। सो ताजा फैसला कहीं कांग्रेस को 1996 की तरह भारी न पड़ जाए। तब कांग्रेस सत्ता से ऐसी विमुख हुई, आठ साल तक विपक्ष में बैठना पड़ा। यूपी में तो शरशैय्या तक पहुंच गई थी। पर पिछले चुनाव में कांग्रेस केंद्र ही नहीं, यूपी में भी दौडऩे लगी। सो अयोध्या फैसले से धर्मसंकट में। किधर का रुख करें, यह कांग्रेसियों को समझ नहीं आ रहा। अगर मौजूदा फैसले पर अधिक जोर दे समझौते की कोशिश की। तो मुस्लिम वोट बैंक खिसकने का डर सता रहा। पर फैसले को जल्द लागू नहीं कराया, तो विहिप-संघ-बीजेपी के आंदोलन का डर। सो कांग्रेस ने सुप्रीम कोर्ट से आस बांध ली। भले कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं गया। पर कल्पना कर ली, कोई न कोई सुप्रीम कोर्ट जाएगा ही। कांग्रेस को उम्मीद, जैसे ही मामला सुप्रीम कोर्ट जाएगा। अंतरिम आदेश जारी कर हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट रोक लगाएगी। फिर मुकदमा और वोट बैंक की सियासत चलती रहेंगी। मंदिर के पैरोकार भी समझौते को लेकर दो हिस्सों में बंटे हुए। हिंदू महासभा सुलहनामे के खिलाफ। तो बाकी मुसलमानों को विवादित स्थल से दूर मस्जिद बनाने के लिए राजी करने में जुटे। खुद मंदिर के पक्षकार भी आपस में बंटे हुए। यानी राजनीतिक बेचैनी दोनों तरफ। सो ज्योतिपीठाधीश्वर बद्रिकाश्रम के जगतगुरु शंकराचार्य माधवाश्रम महाराज ने सोलह आने सही कहा। अगर राजनेता दखल न दें, तो अयोध्या का विवाद सुलझ जाएगा। उन ने फैसले को जायज ठहराया, सुलह की उम्मीद जताई। सचमुच मामला सुप्रीम कोर्ट गया, तो मौजूदा सामाजिक सौहार्द पर तनाव के काले बादल मंडराते रहेंगे। राजनीतिबाज कब भावना भडक़ा जाएं, कोई भरोसा नहीं। अब कांग्रेस का ही रुख देख लो। कैसे अब तक कोर्ट के हर फैसले का स्वागत करती आई। पर मंगलवार को कांग्रेस की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था की अहम मीटिंग हुई। तो बयान में फैसले का स्वागत नहीं, अलबत्ता शब्दों को बदल सम्मान जोड़ दिया। सचमुच अयोध्या फैसले पर कांग्रेस मुश्किल में। सैक्युलरिज्म का चोला ओढ़ कांग्रेसी पीएम देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बता चुके। पर सुप्रीम कोर्ट की ओर निगाह टिकाए बैठी कांग्रेस तब क्या करेगी, जब सुप्रीम कोर्ट भी कुछ ऐसा ही फैसला दे? खुद कांग्रेस की केंद्र सरकार ने चौदह सितंबर 1994 को सुप्रीम कोर्ट में कहा था- अगर बातचीत से मसले का समाधान नहीं हुआ, तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की राय के मुताबिक समाधान लागू करने को प्रतिबद्ध है। अगर यह साबित होता है कि विवादित ढांचे से पूर्व वहां कोई मंदिर था, तो केंद्र का फैसला हिंदू भावना के मुताबिक होगा। और यह साबित नहीं होता है, तो सरकार का फैसला मुस्लिम भावना के अनुरूप होगा। सो मुश्किल में फंसी कांग्रेस अब एक पक्ष को नसीहत, तो दूसरे को दिलासा दे रही। संसद का शीत सत्र नौ नवंबर से शुरू हो रहा। सो कांग्रेस रंगनाथ मिश्र रपट पर बहस को हरी झंडी दिखा हंगामा करा सकती। ताकि खुद को मुस्लिम हितैशी होने का दावा कर सके। पर मुस्लिम समाज भी सियासतदानों की नीयत समझ चुका। सो हाशिम अंसारी जैसे प्रबुद्ध पक्षकार समझौते का बीड़ा उठा चुके। पर कथित सैक्युलरिज्म की केंचुली पहन बैठी कांग्रेस अब खुद ही छटपटा रही।
---------
05/10/2010