Friday, October 1, 2010

देश तो संतुष्ट, पर वोट के ‘सौदागर’ नहीं!

तो आस्था बनाम तथ्य की बहस शुरू हो गई। फैसले को अहम मोड़ देने वाली भारतीय पुरातत्व विभाग की रपट पर सवाल उठने लगे। लेेफ्ट विंग इतिहासकारों ने एएसआई के निष्कर्ष को गलत ठहराने की कोशिश की। सहमत नामक संस्था से जुड़े इन इतिहासकारों ने बयान जारी कर अपनी चिंता जताई। आस्था के आधार पर रामलला को जमीन दिए जाने को कानून के खिलाफ बताया। यों साहित्य जगत ने फैसले की सराहना की। साहित्यकारों ने फैसले को संतुलित करार देते हुए माना, किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ। पर कुछ लोग ऐसे भी, जिन्हें अयोध्या की आग में घी डालने से परहेज नहीं। सो फैसले के अगले दिन ही जैसी बयानबाजी हुई, सुप्रीम कोर्ट जाना तय हो गया। अब देखो, कैसे कल तक अदालती फैसले का सम्मान और शांति की अपील करने वाले रंग बदलने लगे। जामा मस्जिद के शाही इमाम ने फैसला नामंजूर बता दिया। अब्दुल्ला बुखारी ने सीधे-सीधे कांग्रेस को कटघरे में खड़ा किया। तो हाल तक कल्याण सिंह संग बाबा बने मुलायम शुक्रवार को फिर मौलाना मुलायम हो गए। कोर्ट के फैसले को निराशाजनक करार दिया। बोले- आस्था को कानून व सबूतों से ऊपर रखकर फैसला दिया गया। जो देश, संविधान और खुद न्यायपालिका के लिए अच्छा संकेत नहीं। इस फैसले से कई संकट पैदा होंगे। और तो और, इस फैसले से देश का मुसलमान ठगा सा है, पूरे समुदाय में मायूसी। मुलायम फैसले का विरोध करते वक्त यह भी याद दिलाना नहीं भूले, इमारत बचाने के लिए बतौर सीएम उन ने ही कारसेवकों पर गोली चलवाई। अपनी तुलना महाभारत के अर्जुन से करते हुए बोले- संविधान और कानून की रक्षा के लिए अपने ही लोगों पर गोलियां चलवानी पड़ी थीं। पर वोट बैंक को साधने की कोशिश में जुटे मुलायम इतिहास भूल गए। देश की जनता अब अमन-भाईचारे में भरोसा करती। सर्वजन हिताय की बात करने वाला ही आज समाज को मंजूर। मुलायम ने 1991 में जब सिर्फ एक खास वोट बैंक को साधने के लिए गोलियां चलवाईं। तो चुनाव में हश्र भी दिख गया था। सपा महज 29 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। तब मुलायम मुस्लिम समाज के हीरो थे। तो कट्टर हिंदुओं की नजर में मौलाना मुलायम हो गए थे। सो फैसले के बाद भी जिस तरह माहौल बन रहा, केंद्र ने चुप्पी साध ली। शुक्रवार को होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने हाईकोर्ट के फैसले पर टिप्पणी से परहेज किया। पर फैसले के बाद जनता की संयत प्रतिक्रिया को संतोषजनक बताया। कांग्रेस के लिए सचमुच सब्र के इम्तिहान की घड़ी। सो कांग्रेस और सरकार का हर बयान एहतियात की चासनी में सराबोर। कल तक बीजेपी-वीएचपी-संघ परिवार पर भरोसा न करने की बात करने वाले दिग्विजय सिंह का सुर फैसले के बाद बदल गया। उन ने अपनी मौत तक संघ परिवारियों पर भरोसा न करने का दावा किया था। पर शुक्रवार को बोले- संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान आडवाणी से बेहतर और संतुलित। मुझे उनसे यही उम्मीद थी। यों दिग्विजय ने एक अहम बात कही। निर्णय के बाद आपसी सहमति से हल का रास्ता खुला है। पर चिदंबरम ने हल के लिए कोई पहल करने का संकेत नहीं दिया। अलबत्ता पीएम की भावना का जिक्र करते हुए चिदंबरम ने साफ कर दिया, जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, यथास्थिति बरकरार रहेगी। यानी सरकार मौजूदा फैसले के मद्देनजर कोई भी कदम उठाने से परहेज कर रही। शाही इमाम, मुलायम, सुन्नी वक्फ बोर्ड फैसले पर आपत्ति जाहिर कर चुके। सो कांग्रेस बर्र के छत्ते में हाथ लगाने से डर रही। यों शाही इमाम बुखारी ने तो खुल्लमखुल्ला कह दिया। कांग्रेस के राज में ही सब कुछ हुआ। अयोध्या में पूजा शुरू हुई, ताले खुले और अब फैसला भी कांग्रेस राज में ही आया। यानी कांग्रेस के लिए सचमुच आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति हो गई। सो कांग्रेस और सरकार ने एक पक्ष को संयम, तो दूसरे को सुप्रीम कोर्ट जाने का मंत्र थमाया। चिदंबरम ने उम्मीद जताई, कोई पक्ष सुप्रीम कोर्ट जाएगा। तो सुप्रीम कोर्ट अंतरिम आदेश देगा। सो तब तक केंद्र की कोई जिम्मेदारी नहीं। यूपी की सीएम मायावती ने केंद्र पर दारोमदार छोड़ पल्ला झाडऩे की कोशिश की। सचमुच अपनी राजनीतिक नेतृत्व की विफलता, जो आज कोर्ट के फैसले पर सवाल उठ रहे। माना, कोर्ट का फैसला पूरी तरह कानून के तराजू पर नहीं। पर कोई बताए, इससे बेहतर क्या विकल्प? जस्टिस एसयू खान ने इशारों में ही कबूला, इसके सिवा कोई चारा नहीं था, क्योंकि 1992 दोहराया, तो देश खड़ा नहीं हो पाएगा। पर अपने राजनेताओं को भावनात्मक मुद्दों से खेलना ज्यादा मुफीद लगता। सो दशकों से उलझी मंदिर-मस्जिद की डोर सुलझ गई। तो अब तक मंदिर-मस्जिद की आड़ में राजनीति की रोटी सेकने वालों को अपनी दुकान बंद होती दिख रही। इन्हें लग रहा, जब लोग भाईचारे के साथ रहेंगे, तो इन तथाकथित ठेकेदारों को कौन पूछेगा? इस ठेकेदारी में बीजेपी भी कम नहीं। नितिन गडकरी ने कहा- अयोध्या पर अब न कोई रणनीति, न राजनीति। यानी फैसले से पहले तक खूब राजनीति कर चुके। बीजेपी फिलहाल संयम में। पर भविष्य में मंदिर का श्रेय लूटने की रणनीति बना रही। विहिप के फायर ब्रांड प्रवीण तोगडिय़ा तो मथुरा-काशी का राग छेड़ चुके। तो क्या आस्था के नाम पर मथुरा-काशी-रामसेतु के भी फैसले हों? बेहतर यही, विवाद यहीं खत्म हो जाए। देश की अवाम ने अयोध्या फैसले के बाद संयम और संतुष्टि का इजहार किया। पर लगता है, वोट के सौदागर अभी भी संतुष्ट नहीं। तो क्या खून से लथपथ और लाशों की राजनीति ही अपनी व्यवस्था का शगल हो गया?
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01/10/2010