Monday, November 30, 2009

संसद के पास वक्त, पर 'सवाल' नहीं

इंडिया गेट से
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संसद के पास वक्त,
पर 'सवाल' नहीं
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 संतोष कुमार
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           लिब्राहन रपट के दोषी संसद में नहीं बोलेंगे। नैतिकता की दुहाई दे बीजेपी ने फैसला कर लिया। मंगलवार को लोकसभा में बहस होनी थी। पर बीजेपी की तैयारी धरी रह गई। अब शायद बुधवार नहीं तो अगले हफ्ते एकदिनी बहस में ही सब निपटेगा। तो न आडवाणी अपना बचाव करेंगे, न जोशी। अलबत्ता आडवाणी के उत्तराधिकारी की दौड़ में शामिल राजनाथ, सुषमा वकील होंगे। संघ के इशारे पर नाच रही बीजेपी फिर राममय होने को बेताब। अब बहस से आडवाणी, जोशी को दूर रखने का क्या मकसद? कहीं आडवाणी को रोकने की स्ट्रेटजी तो नहीं? आडवाणी छह दिसंबर को दुखद दिन करार दे चुके। मोहन भागवत से लेकर अशोक सिंघल इससे इत्तिफाक नहीं रखते। पर जो भी हो, बीजेपी ने नैतिक आधार पर आडवाणी-जोशी को तो दोषी मान ही लिया। अब राम के बहाने भले बीजेपी एकजुटता दिखाएगी। पर अंदरूनी 'लीला' का क्या? अनुशासन और गरिमा तो बीजेपी की सिर्फ किताबी बातें। लिब्राहन रपट की बहस का मुद्दा हो। तो राष्टï्रीय अध्यक्ष याचक की भूमिका में दिखाए जाते। कभी कोई महासचिव अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ मीटिंग बॉयकाट करता। तो कई क्षत्रप संसदीय बोर्ड के फैसले को जूते की नोंक रखते। अब एक पत्रकार ने मजाक में पूछा। बीजेपी हैड क्वार्टर में अभी से संतरे का जूस मिल रहा। तो नेता चुटकी लेने से पीछे न रहे। तपाक से पूछा, क्या अब छाछ मिलना बंद हो गया? यानी राजनाथ सिंह छाछ हो गए। नितिन गडकरी संतरे का जूस। अब जब बात इतनी दिलचस्प हो। तो पत्रकार कहां चूकने वाले। सो अपने एक मित्र ने बचपन की कहानी सुना दी। दादा जी नागपुर घूमने गए। तो किसी भाई ने संतरा मंगवाया। तो किसी ने कपड़े। पर अपने इस मित्र ने लट्टïू मंगवाया। एक बार लट्टïू चलाते-चलाते दादा जी के सिर पर लग गया। सो गूमरा निकल आया। खफा होकर अपने मित्र के पिताजी ने दादा जी से कहा- 'मैं तो पहले ही कह रहा था, नागपुर से लट्टïू मत लाना।'  यानी इशारा साफ, नागपुर से दिल्ली आ रहे नितिन गडकरी की ओर था। सो बीजेपी के एक बड़े नेता ने जवाब दिया- 'मेरे तो सिर पर बाल। जो गंजे हैं, उनके लिए मुश्किल।'  अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। दूसरी पीढ़ी में बीजेपी के कई दिग्गज, जिनके सिर पर बाल नहीं। पर दूसरा मतलब साफ, इस नेता ने इशारा कर दिया। अध्यक्ष कोई भी बने, उनके रुतबे पर असर नहीं पडऩे वाला। अब आप ही बताओ। यह बीजेपी का अंदरूनी झगड़ा नहीं, तो और क्या। फिर भी बीजेपी मीडिया पर ठीकरा फोड़ती। अब विपक्ष को आपसी लड़ाई से ही फुरसत न हो। तो वही होगा, जो सोमवार को हुआ। दोनों सदनों में हंगामे की वजह थी, बंगाल में केंद्रीय टीम भेजना। राज्यसभा में प्रश्रकाल नहीं चला। पर लोकसभा में थोड़े हंगामे के बीच ही स्पीकर मीरा कुमार ने कार्यवाही आगे बढ़ा दी। सिर्फ तीन सवालची सांसद मौजूद थे। बाकी 17 नदारद। सो आधे घंटे के भीतर ही प्रश्रों की सूची खत्म हो गई। लोकसभा के पास कोई काम नहीं बचा। सो लोकसभा भी ठप करनी पड़ी। अब समस्याओं से भरे देश में संसद के पास वक्त हो। और अपने सांसदों के पास नहीं। तो आप क्या कहेंगे? गैर हाजिर सवालचियों में कांग्रेस, बीजेपी, जदयू, शिवसेना, सीपीआई, सीपीएम समेत करीब-करीब सभी दलों के सांसद। यानी राजनीतिक हमाम में सभी नंगे निकले। बीजेपी के दो युवा वरुण और अनुराग ठाकुर तो कांग्रेस की श्रुति चौधरी भी सदन से नदारद रहीं। पर बाद में सबने बहाने गिना दिए। किसी की ट्रेन लेट। तो किसी का विमान। पर संसद की फिक्र किसी को नहीं। सवाल पूछकर गैर हाजिर रहने का मुद्दा कई दफा उठ चुका। पिछले सत्र में राज्यसभा में चेयरमैन ने चिंता जताई थी। अब मीरा कुमार सभी दलों को चि_ïी भेजेंगी। पर जब सबके अपने-अपने वोट बैंक हों। तो फिर संसद की गरिमा का ख्याल किसे हो? प्रश्रकाल संसद की आत्मा माना जाता। एक वर्कशाप में मारग्रेट अल्वा ने किस्सा सुनाया था। मेनका गांधी तब वाजपेयी सरकार में मंत्री थीं। मंत्री के नाते सत्रहवें सवाल का जवाब देना था। पर मेनका को उम्मीद नहीं थी, नंबर आएगा। सो सदन में बैठे सुडोकू खेलती रहीं। पर नंबर आ गया, तो शर्मिंदगी उठानी पड़ी। क्योंकि मेनका जवाब के लिए तैयार नहीं थीं। अब सोमवार को सुषमा ने अपने युवा सांसदों का बचाव इसी तरह किया। बोलीं- 'आम तौर पर छह सवाल ही हो पाते। सो अनुराग ठाकुर को उम्मीद नहीं थी।'  पर अब विपक्ष संसद को अनुमान के तौर पर ले। तो फिर लोकतंत्र का राम ही राखा। अपने मधु लिमये ने एक बार कहा था- 'अनेक सांसद तो सदन में दिलचस्पी तक नहीं लेते। महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने की जगह कुछ पैसा बना लेने के चक्कर में रहते हैं।'  लिमये के कथन की पुष्टिï तो दिसंबर 2005 में हो गई थी। जब संसद से 11 घूसखोर सवालची सांसद निकाले गए। पर अब गैर हाजिर सांसदों के लिए क्या हो? यह तो सिर्फ सवाल बनकर ही रह जाएगा। आखिर सांसदों का अपना विशेषाधिकार जो ठहरा। सो धूमिल के कविता संग्रह 'संसद से सड़क तक'  की पंक्तियां याद आ गईं। उन ने लिखा- 'एक आदमी रोटी बेलता है। एक आदमी रोटी खाता है। एक तीसरा आदमी भी हो। जो न बेलता है, न खाता है। वह सिर्फ रोटी से खेलता है। मैं पूछता हूं, ये तीसरा आदमी कौन है। मेरे देश की संसद मौन है।'
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30/11/2009