Friday, December 31, 2010

साल 2010: कांग्रेस खुद ही मुद्दा बन गई

इंतजार की घड़ी खत्म.. साल 2011 का आगाज हो गया। सो नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं। पर 2010 का बीतना सिर्फ साल नहीं, अलबत्ता 21वीं सदी का पहला दशक बीत गया। सो भले बीजेपी ने 2010 को घोटालों का वर्ष करार दिया। पर सही मायने में सिर्फ बीता साल नहीं, पूरा दशक देश की परिपक्वता के लिए याद किया जाएगा। चुनावी नतीजों को छोड़ दें, तो जनता ने अमिट छाप तब छोड़ी। जब अयोध्या जैसे विवादास्पद मुद्दे पर आए फैसले के बाद भी जनता ने संयम का परिचय दिया। वोट के सौदागर मुंह ताकते रह गए। सो परिपक्वता और संयम के इस दशक के लिए देश की जनता को अपना सलाम। पर आज लेखा-जोखा इस बात का भी, सत्ता में बैठी कांग्रेस ने जनता जनार्दन को क्या दिया। साल 2009 के आखिर में तेलंगाना की फांस लेकर कांग्रेस ने 2010 में प्रवेश किया। अब 2011 में भी वही फांस। पर बीते साल में तेलंगाना के साथ जगन मोहन रेड्डी कांग्रेस के सिर दर्द बने। आतंकवाद पर पी. चिदंबरम ने राहत की सांस ली। तो यह कहकर चौंका दिया- पुणे की जर्मन बेकरी को छोड़, मुंबई के बाद कोई बड़ा हमला नहीं हुआ। सो 90 फीसदी भगवान को, दस फीसदी सुरक्षा बलों को क्रेडिट। पर इसी साल वाराणसी घाट विस्फोट ने अपने सुरक्षा तंत्र की कलई फिर खोल दी। सिर्फ चिदंबरम के ही बोल नहीं, दिग्विजय, राहुल और मणिशंकर अय्यर ने अपने बोलों से खूब सुर्खियां बटोरी। दिग्गी राजा ने संघ पर हमले की सुपारी ले ली। तो राहुल ने संघ को सिमी के बराबर बता दिया। पर विकीलिक्स के खुलासे ने राहुल को सफाई देने के लिए मजबूर कर दिया। तो मणिशंकर के बयान ने कॉमनवेल्थ घोटाले की परतें उधेड़ दीं। जम्मू-कश्मीर के सीएम उमर अब्दुल्ला, अरुंधती राय के बोल ने कांग्रेस की बोलती बंद कराई। घाटी साढ़े तीन महीने तक अलगाववाद की आग में झुलसी। छह अप्रैल को दंतेवाड़ा के नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 76 जवानों की शहादत ने भूचाल मचाया। पर कांग्रेस वोट बैंक में जुटी रही। चिदंबरम के ऑपरेशन ग्रीन हंट पर दिग्विजय ने सार्वजनिक तौर से सवाल उठाया। तो सोनिया ने भी सहमति जता दी। सो कांग्रेस नक्सलवाद पर कनफ्यूज रही। बटला हाउस एनकाउंटर पर भी यही हाल। दिग्विजय सिंह आतंकी के घर आजमगढ़ पहुंच गए। कभी मोहन चंद्र शर्मा, तो कभी हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल उठाए। फिर भी बिहार चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक लुभाने के सारे दांव फेल हो गए। कांग्रेस बिहार में नौ से चार सीट पर सिमट गई। यूपीए की दूसरी पारी राहुल फार्मूले से बढ़ी। पर राहुल की टीम के युवा मंत्री रोते-धोते ही नजर आए। राज्य मंत्रियों की व्यथा-दुर्दशा ऐसी कि पीएम को मीटिंग लेनी पड़ी। पर न राज्य मंत्रियों की हालत सुधरी, न आम आदमी की। महंगाई ने आम आदमी की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। पहली बार बजट में पेट्रोल-डीजल महंगा हुआ। विपक्ष की ओर से पहली बार कटौती प्रस्ताव आया। पर खजाना मैनेज करने के बजाए सरकार ने पलटूराम दलों के मुखिया माया-मुलायम-लालू को मैनेज किया। सोनिया-मनमोहन के भरोसे के बावजूद महंगाई नहीं थमी। अब साल जाते-जाते भी प्याज और दूध की कीमतों में उछाल ने जनता को पस्त किया। सही मायने में जब-जब कांग्रेस और सरकार ने महंगाई रोकने का भरोसा दिलाया, महंगाई बढ़ती गई। अब भले महंगाई दर कम हो जाए, पर महंगाई कम नहीं होगी। महंगाई पर सरकार का आलम तो यह, सुबह कीमत घटाने की बात करती। तो शाम को बढ़ाने पर चर्चा। बीते साल सरकार ने पेट्रोल कीमतों को नियंत्रण मुक्त कर लूट की खुली छूट दे दी। सो महंगाई की आग में पेट्रोल अपना काम बखूबी कर रहा। अब नए साल में भी डीजल-रसोई गैस के दाम बढऩे तय, बस सिर्फ तारीख का इंतजार। सो जैसे महंगाई ने कांग्रेस का हाथ छोड़ अपना मुकाम बनाया, भ्रष्टाचार ने इतिहास रच दिया। स्पेक्ट्रम, आदर्श, कॉमनवेल्थ तो नजीर बन गए। कॉमनवेल्थ की तैयारियों पर ऐसी फजीहत, खुद पीएम को कमान संभालनी पड़ी। भ्रष्टाचार पर महाराष्ट्र में सीएम अशोक चव्हाण की छुट्टी हुई। तो मनमोहन केबिनेट से घोटालों के सरताज ए. राजा नप गए। देश के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला हुआ। पर कांग्रेस ने विपक्ष की जेपीसी की मांग नहीं मानी। संसद का शीतकालीन सत्र काला इतिहास रच गया। पर अभी भी रार ठनी हुई। कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर होने के बजाए विपक्ष पर हमला शुरू कर दिया। कांग्रेस अधिवेशन में देश के मुद्दों से अधिक वोट बैंक पर फोकस किया। यों बीते साल कांग्रेस ने सकारात्मक इतिहास भी रचा। इसी साल राइट टू एजूकेशन एक्ट लागू हुआ। राहुल गांधी ने ठाकरे बंधुओं की चुनौती को मुंहतोड़ जवाब दे, मुंबई की यात्रा की। महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से पारित करा इतिहास बनाया। सोनिया चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। तो जनार्दन द्विवेदी ने चालीस बार बनाने का खम ठोका। परिवारवाद की चापलूसी की पराकाष्ठा तो कांग्रेस की परंपरा बन गई। सचमुच बीते साल में महंगाई हो या भ्रष्टाचार, कश्मीर हो या कूटनीति, आतंकवाद हो या नक्सलवाद, अयोध्या फैसला हो या बिहार की हार, आईपीएल की गुगली में थरूर का जाना, भ्रष्टाचार की गंगा में राजा का बहना, आदर्श बनाने में चव्हाण की छुट्टी। कुल मिलाकर 2010 में कांग्रेस के लिए यही अहम मुद्दे बने रहे। सो कांग्रेस सचमुच में जनता के मुद्दों पर मंथन करने के बजाए बीते साल खुद एक मुद्दा बनकर रह गई। अब यही सवाल उठ रहे, कांग्रेस राज में ही महंगाई-भ्रष्टाचार चरम पर क्यों पहुंचते।
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31/12/2010