Friday, February 4, 2011

मनमोहन, प्रणव और अलादीन का चिराग

मिस्र में हुस्नी मुबारक के खिलाफ अल्टीमेटम के आखिरी दिन यानी डे ऑफ डिपार्चर से जनता की ताकत दिख गई। आंदोलन से झुके मुबारक सत्ता छोडऩे को राजी। पर अव्यवस्था का हौव्वा दिखा रहे। अपनी कांग्रेस ने भी जेपीसी के मसले पर हमेशा ओछी राजनीति का डर दिखाया। पर इबके मार, इबके मार करते-करते कांग्रेस ने अपने सारे मोहरे पिटवा लिए। जेपीसी की मांग ठुकराने को नित-नए फार्मूले लाई। पर न कोर्ट से, न संसद में राहत मिली। सो शीत सत्र से अब तक चौतरफा पड़ी मार से कराह रही कांग्रेस ने आखिर जेपीसी पर सरेंडर कर दिया। जेपीसी की मांग सीधे-सीधे तो नहीं कबूली। पर संसद में बहस के बाद वोटिंग को राजी हो गई। यानी पहले विपक्ष के जेपीसी वाले प्रस्ताव पर बहस हो, फिर वोटिंग। अगर सदन का बहुमत जेपीसी के पक्ष में गया, तो सरकार राजी। कांग्रेस ने चेहरा बचाने को अब आखिरी पत्ता भी चल दिया। अब जेपीसी का प्रस्ताव लोकसभा में पारित हो गया। तो संसद के सम्मान में अपनी आन छुपा लेगी। अगर प्रस्ताव गिर गया, तो विपक्ष को हंगामाई साबित करने का मौका मिल जाएगा। यानी अब जेपीसी पर वही नंबर गेम होगा, जो 22 जुलाई 2008 को मनमोहन ने अपनी सरकार बचाने के लिए खेला था। सो इम्तिहान यूपीए के घटक दलों का। लोकसभा में ममता-पवार-करुणा का रुख ही जेपीसी का भविष्य तय करेगा। तीनों अब तक गाहे-ब-गाहे जेपीसी की मांग का समर्थन करते आए। सो अब संसद के बजट सत्र में तय होगा, सरकार सचमुच जेपीसी को राजी या फिर राजनीतिक पेंतरेबाजी। सरकार का भरोसा आखिर कोई कैसे करे। कपिल सिब्बल अभी भी एनडीए की नीति को स्पेक्ट्रम घोटाले की वजह बता रहे। शुक्रवार को सिब्बल ने फिर कहा- स्पेक्ट्रम आवंटन में 2003 के बाद सबने गलत फैसले लिए। एनडीए सरकार के मंत्री ने पहले आओ, पहले पाओ की नीति लागू कर दी। जो 31 अक्टूबर 2003 के केबिनेट फैसले का भी उल्लंघन। पर सवाल- अगर एनडीए की नीति गलत थी, तो यूपीए सरकार में बने नियंता कौन सी नींद में थे? एनडीए ने गलती की, तो जनता ने मई 2004 में सबक सिखा दिया। पर यूपीए सरकार भी अगर एनडीए के ढर्रे पर चली। तो सवाल- मंत्री के पास सोचने की क्षमता नहीं थी? चुनाव लडऩे के लिए अपने जनप्रतिनिधित्व कानून में बाकायदा यह शर्त- मानसिक रूप से दिवालिया व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता। सचमुच मंत्री को मानसिक दिवालिया नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इतना बड़ा घोटाला बिना दिमाग के संभव नहीं। अगर सिब्बल की दलील मान भी लें। तो तब करीब छह-आठ महीने विपक्ष में और पिछले छह साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस ने बीजेपी को कटघरे में खड़ा क्यों नहीं किया? जब खुद कांग्रेस की गर्दन फंसी, तो भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाने के बजाए आरोप-प्रत्यारोप क्यों? और तो और, जब 2003 के बाद हुए सारे फैसले गलत, तो सात जनवरी को सिब्बल ने राजा को क्लीन चिट कैसे दी? सुविधा की राजनीति में देश का कितना बेड़ा गर्क करेगी सरकार? यों पहली बार मनमोहन ने भ्रष्टाचार पर जोरदार बातें कीं। बातें तो पहले भी करते रहे। पर अबके यह माना- भ्रष्टाचार से सुशासन की जड़ें खोखली हो रहीं। तेज विकास की राह में रोड़ा बन रहा। इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी छवि धूमिल होती है और यह हमें अपने लोगों के सामने शर्मिंदा करता है। सचमुच बात तो पीएम ने पते की कही। पर पता नहीं तीन साल से राजा का पता क्यों नहीं बदल पा रहे? जिस राजा को तीन साल पहले जेल में होना चाहिए था, वह मनमोहन के मंत्री बने रहे। मनमोहन की चिट्ठियों को भी नजरअंदाज कर दिया। पर मनमोहन की नजर-ए-इनायत रही। अगर पीएम ने तभी कार्रवाई का साहस दिखाया होता, तो शर्मिंदगी की नौबत न आती। पर मनमोहन ने शुक्रवार को जो कहा, क्या उस पर अमल भी करेंगे? या फिर सुविधा के मुताबिक महज बयान ही रह जाएगा। या फिर जैसे महंगाई पर छह साल से बयान दे रहे, वैसा ही होगा। मनमोहन ने भ्रष्टाचार के साथ-साथ शुक्रवार को महंगाई पर भी बात की। पर महंगाई से अधिक चिंता विकास दर को लेकर जताई। पीएम पूरी ताकत लगाकर बोले- महंगाई आर्थिक विकास की तीव्र गति के लिए गंभीर खतरा। इससे गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों पर असर पड़ रहा। सो महंगाई पर तत्काल काबू पाने की जरूरत। इधर माननीय पीएम ने तुरंत काबू की बात की। तो उधर वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी बोले- हमारे पास कोई अलादीन का चिराग नहीं, जो महंगाई को तत्काल काबू में कर लिया जाए। आप ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते कि आपके पास अलादीन का चिराग है, जिसको रगड़ें और परेशानी छू-मंतर हो जाए। प्रणव दा ने सही कहा। भइया, जब महंगाई छह साल से बढ़वाते आ रहे, तो भला एक दिन में कैसे कम होगी? काश, जनता के पास वोट के बजाए अलादीन का चिराग होता। तो क्या पांच साल झेलने की नौबत आती? अब भी आम आदमी न समझे, तो कांग्रेस का क्या। एक तो महंगाई मार रही, ऊपर से सरकार की ऐसी भाषा। अकर्मण्यता को छिपाने के लिए अलादीन का चिराग ढूंढ रहे। पर प्रणव दा यह क्यों नहीं समझ रहे, गर सब-कुछ चिराग का जिन्न ही कर लेता। तो क्या अपने लिए आलीशान महल नहीं बनवा लेता, चिराग में ही क्यों रहता?
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04/02/2011