Thursday, September 2, 2010

कांग्रेस में ‘चेहरा’, बीजेपी में ‘मोहरा’ का लोकतंत्र

सोनिया गांधी का अध्यक्ष चुना जाना अब महज रस्म। रमजान के आखिरी शुक्रवार को बाकायदा एलान हो जाएगा। पर गुरुवार को सोनिया दरबार में मत्था टेकने को कांग्रेसियों की बेकरारी खूब दिखी। कतार ऐसी, मंत्री पर संतरी भारी पड़े। चीफ मिनिस्टर हों या केबिनेट मंत्री या सोनिया के किचिन केबिनेट के नेता। या फिर देश भर से पहुंचा हुजूम। दस जनपथ में जाने को सबको अपनी बारी का इंतजार करना पड़ा। दिल्ली की गर्मी और उमस भी एयरकंडीशंड में बैठने वाले नेताओं का हौसला पस्त नहीं कर पाई। ऐसी भक्ति गुरुवार को या तो मथुरा-वृंदावन के मंदिरों में दिखी या दस जनपथ पर। कांग्रेसी नेताओं के चेहरों पर वही भाव दिखे, जो देश भर में दही-हांडी फोडऩे वाले ग्रुपों के। पर सब नंबर से अंदर गए। नामांकन के सैट पर मैडम की मंजूरी ली। फिर ऑस्कर फर्नांडिस को सौंप आए। कुल 56 सैट में परचे आए। पर एक परचा खानापूर्ति पूरी न होने की वजह से खारिज हो गया। किसी भक्त ने अपना चेहरा दिखाने के लिए हड़बड़ी में यों ही सैट तैयार कर लिया होगा। पर बात सैट की नहीं, माइंडसैट की। परिवारवाद राजनीति की सैट धारणा बन चुकी। परिवार-परिवार खेलने में कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं। मुलायम सिंह के बेटे अखिलेष, कल्याण सिंह के बेटे राजबीर, राजनाथ सिंह के बेटे पंकज, लालजी टंडन के बेटे गोपाल जैसे कई नेता। अपने राजस्थान में जसवंत-मानवेंद्र, वसुंधरा-दुष्यंत जैसे कई। सो परिवारवाद तो राजनीति में संस्था बन चुका। जब बीजेपी पर परिवारवाद का आरोप लगता, तो बीजेपी बचाव में कहती- नेता का बेटा नेता नहीं बनेगा, तो क्या बनेगा। पर अब सोनिया गांधी के चौथी बार कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना तय हो गया, तो बीजेपी की बौखलाहट कहें या घबराहट, यह आप ही तय करिए। जिन सोनिया गांधी को बीजेपी ने गूंगी गुडिय़ा कहा, उसी गुडिय़ा ने 2004 के आम चुनाव में बीजेपी को पुडिय़ा बनाकर फेंक दिया। बीजेपी फील गुड करती रह गई, जनता ने सोनिया के ऊपर हुए राजनीतिक प्रहार को खुद पर हमला माना। याद है ना 2004 के चुनाव में विदेशी मूल का मुद्दा कितना हावी था। बीजेपी के नेताओं ने सोनिया को कई अपशब्द भी कहे। इतना ही नहीं, चुनाव हारने के बाद बौखलाई बीजेपी की दो वरिष्ठ नेत्रियों ने जो सिर मुंडाने का तांडव किया, वह इतिहास बन चुका। पर 2007 में सुप्रीम कोर्ट में सोनिया के विदेशी मूल पर याचिका दायर हुई। तो चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन ने कहा था- विदेशी मूल के किसी व्यक्ति पर संवैधानिक पाबंदी नहीं। इससे पहले हाईकोर्ट ने याचिका ठुकरा वसुधैव कुटुंबकम की बात कही थी। पर अब विदेशी मूल का मामला बीजेपी की डिक्शनरी से गायब हो चुका। सो सवाल विदेशी मूल का नहीं। गुरुवार को बीजेपी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर सोनिया के चुनाव पर फब्ती कसी। यों संगठन चुनाव हर पार्टी की अंदरूनी प्रक्रिया। कौन अध्यक्ष बनेगा, यह अंदरूनी तौर पर ही तय होता। सो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का दंभ भरना तो हर पार्टी का ढकोसलापन। पर बीजेपी के रविशंकर प्रसाद बोले- पीएम पद की तरह अध्यक्ष पद का त्याग करके दिखाएं सोनिया, तब लोकतांत्रिक प्रक्रिया दिखेगी। बीजेपी ने कांग्रेस नेताओं को भी ललकारा। कहा- सोनिया को चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं। यों बात सोलह आने सही। पर कोई पूछे, बीजेपी के किस अध्यक्ष के चुनाव में वोटिंग की नौबत आई? सीताराम केसरी और सोनिया के पहली बार के चुनाव में बाकायदा वोटिंग हुई थी। पर बीजेपी की दलील, हर बार नया अध्यक्ष बना। कांग्रेस संविधान में ब्लाक, जिला और प्रदेश अध्यक्ष के लिए दो साल का टर्म फिक्स, तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए क्यों नहीं? यानी बीजेपी के निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार। बीजेपी का अंदरूनी लोकतंत्र कैसा, यह किसी से छुपा नहीं। सो बीजेपी की दलील पर कहावत याद आ गई- छज बोले, तो बोले, छलनी भी बोले, जिसमें खुद हजारों छेद। बीजेपी ने कांग्रेस के परिवारवाद को आड़े हाथों लिया। पर भूल गई, बीजेपी का अध्यक्ष भले कोई नेता बनता हो, पर बनता वही है, जिसे संघ चाहता। बीजेपी में अध्यक्ष ही नहीं, पार्टी का हर नीतिगत फैसला संघ की सहमति के बाद ही लिया जाता। नितिन गडकरी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी कार्यकर्ताओं की मंजूरी से नहीं हुई। अलबत्ता संघ ने नागपुर से दिल्ली भेजा। पर हश्र क्या हुआ, खुद गडकरी अच्छी तरह जानते। अपना दर्द कई बार नागपुर में करीबियों को बता चुके। कैसे बीजेपी का चेहरा बनने आए थे, पर मोहरा बनकर रह गए। झारखंड में शिबू संग सरकार का फैसला गडकरी के पहुंचने से पहले ही हो चुका था। मीटिंग में गडकरी पहुंचे, तो एलान करने का जिम्मा सौंप दिया गया। यों बीजेपी के ऐसे लोकतांत्रिक किस्से कई। पर अगर बीजेपी ने फब्ती कसी, तो कांग्रेस ने भी कोई लोकलिहाज नहीं किया। अलबत्ता दरबारियों ने पलट कर कह दिया- चार बार नहीं, मौका मिला तो चालीस बार सोनिया को ही अध्यक्ष बनाएंगे। मतलब साफ, कांग्रेसियों को नेहरू-गांधी खानदान का एक चेहरा चाहिए। यानी लोकतंत्र राजनीतिक दलों में सिर्फ कहने की बात। अलबत्ता दो-चार लोग बैठकर एजंडा तय करते। बाकी लाखों-करोड़ों वर्कर मानने को मजबूर। सो कुल मिलाकर कांग्रेस को हमेशा एक चेहरे की जरूरत। तो बीजेपी में बदलते चेहरे के बावजूद नेतृत्व मोहरा ही दिखता।
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02/09/2010