Tuesday, December 29, 2009

तो साल 2009, बीजेपी में जो हारा, वही सिकंदर

इंडिया गेट से
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तो साल 2009, बीजेपी में
जो हारा, वही सिकंदर
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 संतोष कुमार
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        तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार। पर न कोई हजार साल जी सकता। न साल के दिन पचास हजार हो सकते। सो 365 दिन बाद 2009 भी विदा ले रहा। अब महज कुछ घंटों का इंतजार, फिर 2010 का स्वागत। सो आखिरी दिन में लेखाजोखा भी जरूरी। तो आज शुरुआत बीजेपी के सफरनामे से। साल 2008 का अंत न देश के लिए शुभ रहा, न बीजेपी के लिए। देश ने 26/11 का दंश झेला। तो बीजेपी सेमीफाइनल में कांग्रेस से पिछड़ गई। राजस्थान का मजबूत किला ढह गया। तो हंगामे का आगाज भी वहीं से हुआ। यों शेखावत को चुनाव लडऩा नहीं था। पर वसुंधरा से नाराज बाबोसा ने पासा फेंका। सो समूची बीजेपी हिल गई। राजनाथ सिंह को मैदान में उतरना पड़ा। तो उन ने लोक-लिहाज नहीं किया। अलबत्ता शेखावत को गंगा स्नान के बाद कुंए में न नहाने की सलाह दी। अब जब रात हो इतनी मतवाली। तो सुबह का आलम क्या होगा। यह तो बीजेपी से पूछिए। शुरुआत पुरोधा ने की। तो बाकी कहां पीछे रहते। बीस जनवरी को कल्याण सिंह ने बीजेपी छोड़ दी। लोकसभा का चुनावी समर शुरू हुआ। तो आडवाणी खुद को भावी पीएम कम, मौजूदा पीएम की तरह व्यवहार करने लगे। हर अहम मसले पर विशेषज्ञों की मीटिंग। फिर नई कार्ययोजना का एलान। सो इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का जमावड़ा हो गया। आडवाणी जमीनी हकीकत भांप नहीं पाए। समर में कांग्रेस से मुकाबला तो बाद में। पर पहले बीजेपी ने आपस में नेट प्रेक्टिस की। जेतली, वेंकैया में पोल मैनेजर बनने की होड़। बीजेपी में जूरासिक पार्क जैसा माहौल था। नागपुर में ही राजनाथ ने भी हिंदुत्व एक्सप्रेस दौड़ाई। पर दिल्ली आते ही जैसे बीजेपी का ब्रेक डाउन हो गया। राजनाथ की सत्ता को पोल मैनेजर अरुण जेतली की चुनौती मिल गई। एक-दो दिन नहीं, पूरे बारह दिन ड्रामा चला। जेतली ने राजनाथ की रहनुमाई वाली सीईसी का बॉयकॉट किया। मुद्दा सिर्फ इतना था, राजनाथ ने सुधांशु मित्तल को पूर्वोत्तर का इंचार्ज बनाया था। आडवाणी भी जेतली को मना नहीं पाए। पूरे चुनाव के टिकट बंट गए। पर जेतली-राजनाथ की रार ठनी रही। यों अरुण का संकट सुलझा भी नहीं था। तभी गांधी-नेहरू खानदान के भाजपाई वारिस वरुण गांधी का भड़काऊ भाषण आ गया। बीजेपी ने वरुण का जमकर बचाव किया। पर आखिर में फोरेंसिक लैब ने पुष्टिï कर दी। भड़काऊ बयान वरुण का ही। सो बीजेपी अपने किए पर औंधे मुंह गिरी। लगा, जैसे वक्त भी बीजेपी का साथ देने को तैयार नहीं। चुनावी समर में ही उड़ीसा में नवीन पटनायक से गठजोड़ टूटा। कंधार प्रकरण पर बीजेपी बचाव में ही उलझी रही। ऐसा लगा, मानो कंधार एपीसोड बीजेपी का। आडवाणी कहीं भी साझीदार नहीं। सो चुनाव नतीजे चौंकाने वाले रहे। आडवाणी का सपना चूर हो गया। तो पद छोडऩे की पेशकश की। पर हाई वोल्टेज ड्रामे के बाद फिर खिवैया बन गए। फिर हार पर बीजेपी में जो आपसी मर्दन हुआ। किसी से छुपा नहीं। जसवंतनामा, यशवंतनामा, शौरीनामा सब में एक ही आवाज। हराने वाले को इनाम क्यों? निशाने पर जेतली ही, जिन्हें आडवाणी ने राज्यसभा में नेता बना दिया। पर आडवाणी के इर्द-गिर्द चौकड़ी में शामिल सुधींद्र कुलकर्णी, स्वप्रदास गुप्त जैसे लोग चुनाव से पहले सलाहकार थे। बीजेपी हार गई, तो पत्रकार बनकर खाल खींचने लगे। फिर शिमला चिंतन बैठक। जसवंत के जिन्ना प्रेम पर बर्खास्तगी। हार का मंथन हुआ। तो घाव केंद्र में था, ऑपरेशन राज्यों का कर दिया। यशवंत ने कामराज फार्मूले की मांग की। पर कुर्सी कौन छोड़ रहा। बीजेपी के कर्ता-धर्ता इसी में खुश। भले खुद न जीते, पर लेफ्ट तो हार गया। उत्तराखंड से बी.सी. खंडूरी की विदाई। राजस्थान में ओम प्रकाश माथुर का इस्तीफा। फिर कई राज्यों के क्षत्रप बदल दिए। पर वसुंधरा की बारी आई। तो अगस्त से अक्टूबर तक जो हुआ। बीजेपी नहीं भुला सकती। सो शिमला चिंतन में बीजेपी की चिंता कम, चिता ज्यादा दिखी। अरुण शौरी का राजनाथ को हंप्टी-डंप्टी कहना। बीजेपी में नेतृत्व परिवर्तन पर संघ के मुखिया मोहन भागवत का डी-4 फार्मूला। मनोहर पारिकर का आडवाणी को सड़ा अचार कहना। वसुंधरा प्रकरण पर पार्लियामेंट्री बोर्ड में आडवाणी-राजनाथ का टकराना। कर्नाटक में रेड्डïी बंधु के दबाव में बीजेपी का येदुरप्पा को झुकाना। महाराष्टï्र चुनाव में भी नितिन गडकरी की रहनुमाई वाली बीजेपी की लुटिया डूबना। सो कुल मिलाकर सुर्खियों में बीजेपी रही। पर सिर्फ नकारात्मक खबरों से। आखिर में हार का यही मंथन। जिन-जिन ने रणनीति बनाई। सबका प्रमोशन हो गया। या यों कहें, सबने राज्यों पर ठीकरा फोड़ कुर्सी बांट लीं। आडवाणी भीष्म हो गए। जेतली, सुषमा को भी बड़ा पद। गडकरी तो चुनाव जीते और जिताए बिना ही राष्टï्रीय अध्यक्ष हो गए। राजस्थान का संगठन चुनाव वाला विवाद तो याद होगा। अब वहां भी सबको कुर्सी मिल गई। तो फिलहाल ऊं शांति। यानी 2009 में बीजेपी, जो हारा, वही सिकंदर। और अब साल के आखिर में नैतिकता की आहुति दे शिबू से हाथ मिला लिया। सो 2010 कैसा होगा, राम ही राखा। विपक्ष के तौर पर बीजेपी भरोसा खो चुकी। यह खुलासा खुद बीजेपी के सर्वेक्षण में हो चुका। चुनाव के वक्त जीवीएल नरसिंह राव का सर्वे आया। बानवै फीसदी लोगों ने महंगाई को बड़ा मुद्दा माना। पर चौंकाने वाली बात, समाधान करने वालों में 90 फीसदी लोगों ने मनमोहन को वोट दिए। महज सात फीसदी ने आडवाणी को। सो विपक्ष का भरोसा कितना, खत्म हो चुका। आप देख लो।
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29/12/2009