Wednesday, April 6, 2011

तहरीर-ए-स्क्वायर की शक्ल लेता जंतर-मंतर!

तो चिंगारी अब शोला बनती जा रही। अन्ना हजारे के अनशन में लोगों का हुजूम उमड़ रहा। सो मंगलवार तक अन्ना के आंदोलन को गैर जरूरी और वक्त से पहले का कदम बता रही कांग्रेस अब गुहार लगा रही। बुधवार को सरकार बातचीत को राजी हो गई। शरद पवार भी जीओएम छोडऩे को तैयार। यों छोडऩे वाले ऐसे लफ्फाजी नहीं करते। पर दिन भर की लफ्फाजी के बाद देर शाम पवार ने सिर्फ जीओएम से हटने की इच्छा को चिट्ठी में लिख मनमोहन को भिजवा दिया। अब कांग्रेस चाहे जो कहे, अन्ना के आंदोलन का असर दिखने लगा। सो केबिनेट मंत्री वीरप्पा मोइली से लेकर अंबिका सोनी भी मैदान में कूदे। दलील दी- सरकार ने कभी अन्ना के सुझावों को नकारा नहीं। यानी अब सरकार को लग रहा- भैंस पानी में जाए, उससे पहले ही हांक लो। सो अन्ना को मनाने के लिए संपर्क के सारे सूत्र खोल दिए। नित नई दलीलें दी जा रहीं, ताकि आंदोलन की महत्ता बढ़ न सके। कांग्रेस और कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने फिर संसदीय मर्यादा की दुहाई दी। अगले सत्र में बिल पेश करने की इच्छा जताई। जीओएम के सामने सुझाव रखने की सलाह दी। यहां तक पेशकश कर दी- संयुक्त समिति की मांग पर हम गौर करने को तैयार। हमने कभी सिद्धांत रूप से संयुक्त समिति के गठन को ना नहीं कहा। अब अगर सरकार सचमुच संयुक्त समिति का गठन कर दे, तो अन्ना हजारे का आंदोलन भी थम जाएगा। पर दूसरे दिन भी अन्ना का उपवास जारी। फिर भी सरकार की ओर से सिर्फ जुबानी हलचल हो रही। तभी तो मोइली ने संसद की पारदर्शिता का बखान किया। बोले- बिल का ड्राफ्ट तैयार हो चुका है। पर यह तब तक आखिरी रूप नहीं लेगा, जब तक स्टैंडिंग कमेटी में चर्चा नहीं हो जाती। कोई भी बिल लुकाछिपी से पारित नहीं होता। अपनी संसद के कामकाज का तरीका सबसे पारदर्शी। यानी सरकार तय नहीं कर पा रही, अन्ना के आंदोलन पर क्या कहें और क्या करें। कांग्रेस प्रवक्ता जयंती नटराजन ने मोइली उवाच ही दोहराया। साथ में कह गईं- देश में हमेशा संसद ही बिल पारित करती आई। बाहरी लोग बिल को तय नहीं करते। अगर हर कोई भूख हड़ताल करने लगे, तो देश कैसे चलेगा? अब हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पर सवाल कांग्रेस से- माना बाहरी लोग बिल तय नहीं करते। तो सोनिया गांधी की नेशनल एडवाइजरी काउंसिल क्या आसमान से उतर कर आई? कांग्रेस जिन अन्ना हजारे को बाहरी बताना चाह रही, वह आज देश की जनता की आवाज हैं। पर सोनिया ने गिने-चुने लोगों को एनएसी का मेंबर बनाया। पीएम मनमोहन ने मजबूरी में मान्यता दी। अब जब सोनिया गांधी के लिए सरकार एनएसी का गठन कर संवैधानिक जामा पहना सकती। तो अन्ना और उनके समर्थकों को क्यों नहीं? जब एनएसी के मेंबर बड़े-बड़े कानून का ड्राफ्ट बना सरकार को भेज सकते। सरकार ना-नुकर के बाद भी उस ड्राफ्ट को कानूनी शक्ल देने के लिए बाध्य हो सकती। तो भला अन्ना की आवाज को कांग्रेस बाहरी कैसे बता सकती? वैसे भी अपनी संसद भले बिल पारित करने की औपचारिकता निभाती हो। पर क्या यह सच नहीं, संसद में पास होने वाला हर बिल मंत्रालयों में ही अंतिम रूप ले लेता? अपने कानूनविद लक्ष्मीमल सिंघवी ने तो यही कहा था। उनके मुताबिक- यह सत्य है कि कानून बनाने और टेक्स लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है। पर वास्तविकता यह है कि विधि अधिनियमों का गर्भाधान और जन्म मंत्रालयों में होता है, संसद में तो सिर्फ मंत्रोच्चारण के साथ उनका उपनयन संस्कार होता और औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता। अब सवाल- यह कैसा तंत्र, जिसमें सिर्फ चुनाव तक जनता जनार्दन की जय होती। सत्ता में बैठने के बाद जनता से दूर हो जाते। अब संसदीय मर्यादा की दुहाई देकर जनता की आवाज दबाने की कोशिश हो रही। यों कांग्रेस लाख दलीलें दे, पर अन्ना ने पीएम को खुला पत्र लिख बता दिया- यह आजादी की दूसरी लड़ाई। किसी के उकसावे पर नहीं। सचमुच महात्मा गांधी ने भी ऐसे ही अंग्रेजी संसदीय मर्यादा का ख्याल रखा होता। तो भारत की आजादी की तारीख और साल शायद कुछ और होते। कांग्रेस भूल रही, जब जनता सडक़ों पर उतरती, तो फिर मर्यादा नहीं, मकसद सामने होता। सो अन्ना ने अब अनशन स्थल पर नेताओं के लिए नो एंट्री का बोर्ड टंगवा दिया। मंगलवार को शरद यादव जैसे-तैसे बोल आए। पर बुधवार को उमा भारती और ओम प्रकाश चौटाला को उलटे पांव लौटना पड़ा। सो अब अपने नेता और नौकरशाह अपनी खैर मनाएं। नवरात्र के इन दिनों में देवी से दुआ करें, जंतर-मंतर सचमुच में तहरीर-ए-स्क्वायर न बन जाए।
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06/04/2011