Tuesday, August 31, 2010

अनाज तो बंट जाएगा, पर व्यवस्था की सड़ांध का क्या?

अंत भला, तो सब भला। मानसून सत्र का परदा गिर गया। पर आखिरी दिन सांसदों ने जमकर काम किया। सत्तापक्ष ने ताबड़तोड़ बिल निपटाए। तो विपक्ष भी जनहित के मुद्दे उठाने में पीछे नहीं रहा। सो बीजेपी अपनी पीठ आप ठोक रही। तो सरकार भी अपना काम निपटाने को उपलब्धि बता रही। पर सचमुच मानसून सत्र से अवाम को क्या मिला? महंगाई पर सत्र के शुरू में चर्चा हुई। तो आखिर में खुले में पड़ा अनाज मुफ्त बांटने को लेकर। अनाज सडऩे का मामला लंबे समय से उठ रहा। पर अपने शरद पवार लंबी तानकर सो रहे। सुप्रीम कोर्ट ने 12 अगस्त को सरकार को अनाज मुफ्त बांटने को कहा। तो 19 अगस्त को शरद पवार ने उसे कोर्ट की सलाह बता पल्ला झाड़ लिया था। पर मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाई। कहा- गरीबों में मुफ्त अनाज बांटने की बात सलाह नहीं, आदेश। सो लोकसभा में खूब हंगामा बरपा। विपक्ष ने सरकार को घेरा। तो सदन में आकर पवार ने आदेश के पालन का भरोसा दिया। पर पुछल्ला जोड़ दिया, अभी सुप्रीम कोर्ट का फाइनल आर्डर नहीं मिला। यानी जब तक आर्डर नहीं मिलेगा, भले अनाज सड़ जाए, गरीबों को नहीं देगी सरकार। पवार को उम्र के पड़ाव पर पता नहीं क्या हो गया। बीते इतवार को ही बयान दिया- जब लोग कोल्ड ड्रिंक खरीद सकते, तो महंगी सब्जी क्यों नहीं। अब जब देश का कृषि व खाद्य मंत्री ऐसा बेहूदा बयान दे, तो मुफ्त अनाज की उम्मीद कैसे की जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने भले मानवीय दृष्टिकोण से सरकार को आदेश दिया। पर यह कितना व्यवहारिक? आखिर सरकार किस तंत्र के जरिए मुफ्त अनाज बांटेगी? पीडीएस का हाल तो अरुणाचल के पूर्व सीएम गेगांग अपांग की गिरफ्तारी से हाल ही में उजागर हुआ। सो भले सुप्रीम कोर्ट का फैसला देखने-सुनने में मन को भा रहा हो। पर हकीकत यही, अनाज बंटा, तो बिचौलियों की ही बल्ले-बल्ले होगी। जरूरतमंदों तक वैसे ही पहुंचेगा, जैसे राजीव गांधी ने गांव तक पहुंचने वाले एक रुपए की कहानी बताई थी। सरकारें जनता के मुद्दों के प्रति किस तरह उदासीन रहतीं, यह कोई छुपी हुई बात नहीं। सो सुप्रीम कोर्ट का आदेश तात्कालिक तौर पर सही। पर दीर्घकालिक हिसाब से मुफीद नहीं। कोर्ट ने कोई ऐसा आदेश नहीं दिया, जो सरकार को मजबूर करे कि हर जिले-शहर में गोदाम बने। ताकि कभी अनाज सडऩे की नौबत न आए। बदहाल पीडीएस को दुरुस्त करने की बात नहीं हुई। सो मुफ्त अनाज बांटने का आदेश सुनने में अच्छा लग रहा। पर जैसी अपनी व्यवस्था, उसमें व्यवहारिक नहीं। अब भले सुप्रीम कोर्ट की लताड़ से बचने को कागजों पर अनाज मुफ्त बंट जाए। अनाज सडऩे से बच जाए। पर व्यवस्था की सड़ांध का क्या? गरीब-गुरबों की जुबां पर व्यवस्था को कोसना कोई नई बात नहीं। पर व्यवस्था के रहनुमाओं ने कभी फिक्र नहीं की। सचमुच मानसून सत्र में भले आम आदमी के मुद्दे उठे हों। पर आम आदमी का न भला हुआ, न होने के आसार। अपने वामपंथी सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में मौजूं सवाल उठाया। कहा- पीएम ने महंगाई पर संसद में जुबां नहीं खोली। पर अमेरिका को खुश करने वाले एटमी बिल की खातिर न सिर्फ बहस में दखल दिया, अलबत्ता दोनों सदनों में बहस के वक्त अधिकांश समय मौजूद रहे। आखिर ऐसा क्यों, अमेरिका की खातिर मानसून सत्र की अवधि बढ़ गई। अब नवंबर में बराक ओबामा भारत आ रहे। तो संसद का विशेष सत्र बुलाया जाएगा। यों आवभगत के लिए सत्र बुलाने में कुछ गलत नहीं। पर कभी किसानों की आत्महत्या पर विशेष सत्र क्यों नहीं होता? महंगाई सातवें आसमान पर, फिर भी विशेष सत्र क्यों नहीं? जनहित के मुद्दे हमेशा सियासत की भेंट क्यों चढ़ जाते? अब मंगलवार को सांसदों ने जितनी फुर्ती अपनी जेब भरने के लिए दिखाई, उतनी आम आदमी के लिए क्यों नहीं? राज्यसभा में सांसदों के वेतन-भत्ते का बिल चार बजकर 23 मिनट पर पेश हुआ। और पूरी बहस के बाद चार बजकर 52 मिनट पर पारित भी हो गया। यानी आधा घंटा भी नहीं, महज 29 मिनट में ही सांसदों की जेबें भर गईं। फिर भी बहस में मांगने वालों ने कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस के राशिद अल्वी ने सांसदों के वेतन पर मीडिया में मचे शोर पर खीझ निकाली। याद दिलाया, आज से दो सौ साल पहले 1814 में अमेरिकी सिनेटर की सैलरी साढ़े छह हजार रुपए थी। हमारी तनख्वाह साठ साल में 27 बार बढ़ी, पर अभी भी महज 16 हजार। पर अपने सांसद क्यों भूल जाते अमेरिका और भारत की प्रति व्यक्ति आय का फर्क। यों शिवसेना के भरत राउत ने मीडिया का साथ दिया। बोले- मीडिया की आवाज जनता की आवाज होती। सो सांसदों को आत्म मंथन करना चाहिए। उनके वेतन पर ही इतना शोर क्यों मचता? अगर हम जिम्मेदारी से काम करें, तो शोर नहीं मचेगा। बात सोलह आने सही। पर नेताओं को तो मीठा-मीठा घप, और कड़वा-कड़वा थू करने की आदत। भूल जाते, वेतन उसे दिया जाता, जिसे सरकार नौकरी पर रखती। सांसदों को तो जनता चुनकर भेजती। फिर अपनी सैलरी खुद तय करने का हक क्यों मिले? जनता को ही यह हक क्यों न दिया जाए? सही मायने में तो जन प्रतिनिधि को वेतन मिलना ही नहीं चाहिए। वह सिर्फ भत्ते के हकदार। पर आलोचनाओं के बाद भी सांसदों ने कितना लोकलिहाज किया? जाते-जाते मालामाल हो गए। सो व्यवस्था के इस चेहरे को क्या कहें? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अनाज तो बंट जाएगा। पर फिर वही सवाल, व्यवस्था की सड़ांध कब दूर होगी?
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31/08/2010