Monday, July 5, 2010

जनता सडक़ों पर उतरी, सरकार बेहयाई पर

बहरी सरकार तो आम आदमी का दर्द नहीं ही सुन रही थी। अब अगर सरकार अंधी नहीं, तो शायद भारत बंद की झलक देख ली होगी। विपक्ष के बिखराव का फायदा उठा कीमतें तो बढ़ा दीं। पर विपक्ष के बिखराव के बाद भी बंद का ऐसा असर, सरकार के लिए एक इशारा। लालू-माया तो साथ नहीं आए। रामविलास पासवान हैप्पी बर्थ-डे का केक बनवाने में मशगूल रहे। लेफ्ट ने अलग डफली बजाई। फिर भी बंद सफल रहा, तो यह जनता की ओर से बहरी, गंूगी, अंधी सरकार को संदेश। धरती से आकाश तक महंगाई के खिलाफ जनता ने आक्रोश का इजहार किया। पर महंगाई पर मंथन के बजाए सरकार ने रणनीतिक अभियान छेड़ दिया। शुरुआत तो दो दिन पहले ही हो गई, जब देश भर के अखबारों में सरकारी इश्तिहार छपे। मुरली देवड़ा के मंत्रालय से छपे इश्तिहार में कहा गया- 'भारत बंद, समस्या का समाधान नहीं।' यानी महंगाई से कांग्रेस और सरकार का भी तेल निकल रहा। पर दूरदृष्टा नेतृत्व का अभाव संकट बढ़ा रहा। अगर बंद बेमानी होता, तो सरकार इश्तिहारबाजी नहीं करती। सचमुच ऐसा पहली दफा हुआ होगा, जब विपक्ष के बंद के खिलाफ सरकार ने ऐसे इश्तिहार छपवाए। पर सवाल, अगर भारत बंद समाधान नहीं, तो सरकार ने महंगाई के लिए क्या किया? माना, बंद समाधान नहीं। पर सरकार कभी इश्तिहार देकर यह क्यों नहीं बताती, जबसे अर्थशास्त्री मनमोहन पीएम बने, महंगाई सिर्फ बढ़ती ही क्यों जा रही? पिछले छह साल में कभी भी ऐसा क्यों नहीं हुआ, जब महंगाई कुछ महीनों के लिए भी कम हुई हो और जनता ने राहत की सांस ली हो। आखिर ऐसा क्यों, जो सिर्फ महंगाई बढ़ती ही जा रही? अब भले महंगाई को रोकने को सरकार ने कुछ नहीं किया। पर विपक्ष के बंद के आयोजन ने कम से कम इशितहारबाजी में कुछ नौकरशाहों-नेताओं के वारे-न्यारे तो कर ही दिए। कोई भी इश्तिहार बिना कमीशनखोरी के नहीं छपते। अगर सरकार सचमुच ईमानदार होती, तो करोड़ों रुपए इश्तिहार पर लुटाने की बजाए गरीबी पर चोट करने के लिए खर्च करती। पर सोमवार को बंद के असर ने सरकारी इश्तिहार को धता बता दिया। तो मीडिया के एक तबके में बंद के खिलाफ मुहिम शुरू हो गई। शरद यादव ने तो इसे सरकार मैनेजमेंट का ही हिस्सा बताया। नितिन गडकरी ने भी सवाल उठाए, जब विपक्ष सडक़ पर नहीं उतरता है, तो भी मीडिया सवाल उठाता है। अब सडक़ों पर उतरा, तो भी सवाल उठा रहा। उन ने मीडिया को दोनों हाथों से डफली बजाने वाला करार दिया। सचमुच विजुअल मीडिया ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका को धूमिल किया। अगर सरकार की मनमानी पर एतराज जताना विपक्ष की जिम्मेदारी, तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की। पर जिस दिन पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ीं, उसी शाम से लगातार विजुअल मीडिया मॉडल विवेका बाबाजी की आत्महत्या में घुसा हुआ। पल-पल की खबर दी जा रही। कहीं चैनल पर ऐसा नहीं दिखा, जो महंगाई के खिलाफ जनता को अपना मीडिया लामबंद कर रहा हो। लगातार विवेका बाबाजी को दिखाते रहे। तो ऐसा लगा, एक विवेका ने अपनी टीवी चैनलों को सचमुच बाबाजी बना दिया। सो बंद को बेमानी बताने वाले मीडिया के सवाल से शरद यादव भडक़े। उन ने पूछा- 'अगर बंद से महंगाई कम नहीं होगी, तो क्या टीवी चैनल पर राखी सावंत के ठुमके और महेंद्र सिंह धोनी की शादी की खबरों से महंगाई कम होगी?' सचमुच अपने मीडिया को शरद यादव ने आईना दिखाया। पर सरकारी हथकंडे का असर यहीं खत्म नहीं हुआ। शाम होते-होते एसोचैम जैसी संस्था ने बंद का आकलन कर दिया। बताया, भारत बंद से दस हजार करोड़ का नुकसान हुआ। पर कांग्रेस की अपनी ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन ने सिर्फ ट्रकों का नुकसान 20 अरब बताया। तो किसी ने बीस हजार करोड़ का नुकसान बताया। यानी बहस का मुद्दा घुमाने की कांग्रेसी कोशिश जमकर हुई। यों बंद सचमुच सही नहीं। पर जब सरकार तानाशाही तेवर दिखाए, तो और क्या उपाय? कैसे इतवार को प्रणव बाबू ने ठसक से कहा- कीमतें वापस नहीं लेंगे। पीएम-देवड़ा तो पहले ही तेवर दिखा चुके। पर आजादी के छह दशक बाद भी देश सिर्फ पेट्रोल-डीजल पर ही निर्भर क्यों? क्यों नहीं गैस या बिजली आधारित या कोई और विकल्प ढूंढे गए? दीर्घकालिक नीति नहीं, सिर्फ पेट्रोलियम पर टेक्स का बोझ। फिर भी सरकार कीमत बढ़ोतरी को न्यायसंगत ठहरा रही। यह बेहयाई नहीं, तो और क्या? दूध के दाम फौरन बढ़ गए। पर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी बंद का संदेश भांपने के बजाए संवैधानिक पाठ पढ़ा रहे। कहा- 'बंद करना जनविरोधी कदम। विरोध के और भी तरीके हो सकते। विपक्ष संसद में और मीडिया के जरिए आवाज उठा सकता। पर कांग्रेस भूल रही, मनमोहन राज में महंगाई पर संसद में बारह बार बहस हो चुकी। फिर भी महंगाई सचिन की तरह रिकार्ड बनाती गई। सिंघवी ने एक और दलील दी, जब कोई बीमार हो, तो कड़वी दवा जरूरी। अभी न्यूनतम दरें बढ़ाई हैं। पर सिर्फ आम आदमी ही कड़वी दवा क्यों पीये? सरकार या तेल कंपनियां क्यों नहीं? थोथे विकास का राग कब तक? आम आदमी के पेट में अन्न दाना नहीं और सरकार कह रही, आओ कॉमन वैल्थ गेम दिखाएं। कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर ने हाल ही में सवाल उठाया था- 'यह कौन सा गेम हो रहा, जिसके लिए एक लाख कंडोम खेल गांव में स्टोर किए गए?'  अब आप ही सोचो, जब सरकार ऐसी हो, तो बंद हो या आम आदमी की बंदगी, क्या उम्मीद रखेंगे। बंद हो या महंगाई, परेशान तो सिर्फ आम आदमी हो रहा।
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05/07/2010