Wednesday, February 10, 2010

अब शुरू हुआ महंगाई पर राजनीतिक रोना-धोना

 संतोष कुमार
-----------
       महंगाई अब आम आदमी के लिए कैंसर बन चुकी। पर 'सरकारी अस्पताल' में इलाज चल रहा। यूपीए सरकार के डाक्टरों की टीम नब्ज नहीं भांप पा रही। पर वोट लिया, सो इलाज करना भी मजबूरी। यानी आपाधापी में मनमोहन की टीम के डाक्टर अनाप-शनाप दवा की परची लिख रहे। पर कैंसर बढ़ता जा रहा। अब शायद भगवान शिव पर दूध कम चढ़े। सो महाशिवरात्रि के दिन से दिल्ली में दूध महंगा हो जाएगा। यानी पवारनामा यों ही हवा में फुस्स नहीं होगा। दूध की कीमतें बढऩे की तारीखें तय हो चुकीं। तो उधर मुरली अपनी तान छेड़ चुके। सो पेट्रोल-डीजल-रसोई गैस और मिट्टïी तेल की कीमतों में इजाफा महज औपचारिकता भर रह गई। राहुल गांधी ने पिछले महीने ही कहा था। महंगाई अब कुछ दिनों की मेहमान। पर यहां तो पवार-देवड़ा महंगाई की मेहमाननवाजी में जुटे। दिल्ली में कांग्रेसी सीएम शीला दीक्षित को कुछ न सूझा। तो खुद ही दुकान लगाकर बैठ गईं। अब भले कल बूथों से सामान वापस गोदामों में चला जाए। पर शीला को एक दिन रोने का मौका तो मिल गया। अब इधर सरकार की लुकाछिपी। तो उधर विपक्ष को भी महंगाई याद आ गई। यों अब तक तो बीजेपी महंगाई पर आधी नींद में ही दिखी। पर बुधवार को दिल्ली के जंतर-मंतर में प्रदर्शन हुए। तो नए अध्यक्ष नितिन गडकरी के जोश का असर भी दिखा। बीजेपी के बड़ों का जमावड़ा तो हुआ ही। दिल्ली के छुटभैये नेताओं ने अपनी ताकत खूब दिखाई। सो कुल मिलाकर पहली बार बीजेपी का महंगाई पर प्रदर्शन न तो फ्लॉप रहा, न सुपर हिट। पर हिट जरूर रहा। दिल्ली बीजेपी के नेता चार्ज दिखे। पर सनद रहे, सो दिल्ली के भाजपाई नेताओं के चार्ज होने की वजह बताते जाएं। न तो अभी नितिन गडकरी की नई टीम बनी, न ही दिल्ली में संगठन के चुनाव हुए। सो पद की रेवड़ी पाने को बेताब नेताओं ने ईमानदारी से ताकत लगा दी। पर अंदर की खटपट छोड़ दें। तो बड़ी बात यही, ईमानदारी से चाहे। तो विपक्ष जिम्मेदार बन सरकार को घुटने के बल ला दे। पर राजनीति में ईमानदारी सिर्फ पल-दो पल की होती। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं। अब बीजेपी को देखिए। कभी भी 2004 की हार नहीं पची। ऊपर से 2009 की हार ने तो ऐसा बौखलाकर रख दिया। बीजेपी नेता आपस में एक-दूसरे के बाल नोंचने लगे। पर गडकरी ने मोर्चा संभाला। तो शुरुआती फील गुड दिख रहा। जंतर-मंतर पर प्रदर्शन हुआ। तो सुषमा स्वराज फिर प्याज के आंसू का दर्द छुपा न सकीं। कैसे 1998 में महंगी प्याज ने सुषमा को दिल्ली की सीएम पद से रुखसत कर दिया था। वाकई महंगाई का राजनीतिक दर्द पूछना हो। तो सुषमा स्वराज से पूछिए। पर विपक्ष की ईमानदारी देखिए। सोमवार को गडकरी ने महंगाई पर मोर्चा संभाला। महंगाई कैसे और क्यों बढ़ी, इस पर रंगीन बुकलैट जारी की। तो मराठा क्षत्रप शरद पवार के प्रति नरमी बरत गए। पर अगले दिन मीडिया में पवार से नरमी की खबरें छपीं। तो बुधवार को पवार पर खूब गरजे। बानगी आप भी देखिए- 'महंगाई एक दिवसीय मैच हो गई। शरद पवार कोच। सो चीनी अर्ध शतक मार रही, तो दालें शतक। पवार को आईपीएल की चिंता ज्यादा। सो पीएम क्रिकेट मंत्रालय बना पवार को क्रिकेट मंत्री बना दें।' अब कोई पूछे, आखिर इस नरमी-गरमी का क्या राज? सिर्फ इतना ही नहीं, गडकरी ने मनमोहन को महंगाई वाला शासक बताया। कहा- 'जब मनमोहन एफएम थे, तब भी महंगाई दहाई के आंकड़े के पार गई। अब पीएम हैं, तो भी यही हाल।' पर ज्यादा दिन नहीं हुए। पिछले साल की बात है, खुद आडवाणी ने मनमोहन को देश का बेहतरीन एफएम बता तारीफ की थी। गडकरी ने 'डाक्टर' शरद पवार से एक सवाल पूछा। अगर चीनी न खाने से आदमी नहीं मरेगा। तो क्या पैसा न खाने से मंत्री मर जाएंगे? अब जो भी हो, पर गडकरी ने बता दिया, सत्ता में आने के बाद मंत्री ईमानदार नहीं होते। सो गडकरी ने अब एलान-ए-जंग कर दिया। इंदौर मीटिंग के बाद 25 लाख वर्कर दिल्ली ला संसद का घेराव करने और सरकार को अंजाम तक पहुंचाने की चेतावनी दी। पर अपना छोटा सा सवाल। ऐसी आक्रामक भूमिका बीजेपी ने पहले क्यों नहीं ली? महंगाई दो-एक दिन में नहीं बढ़ी। मनमोहन जब पहली बार पीएम बने। छह महीने बाद बीजेपी में आडवाणी अध्यक्ष बने। तो 24-26 नवंबर 2004 की रांची वर्किंग कमेटी में भाषण दिया। महंगाई पर पहली दिसंबर 2004 को संसद घेराव का एलान किया। बड़ा आंदोलन भी हुआ। पर महंगाई नहीं रुकी। सो तबसे लेकर आज तक, बीजेपी इन छह साल में क्या कर रही थी? अब बुधवार का ही किस्सा लो। इधर जंतर-मंतर पर विपक्ष सफल प्रदर्शन कर रहा था। पर सरकार की नजर में विपक्ष की हैसियत देखिए, पीएम के घर कांग्रेस की कोर कमेटी पेट्रोल-डीजल महंगा करने का फैसला कर रही थी। वैसे भी एक तरफ अंजाम की बात। तो दूसरी तरफ सादगी के बहाने इंदौर में सांप-बिच्छू डिपार्टमेंट भी खोल दिया। ताकि टेंट में किसी नेता को नुकसान न हो। पर बीजेपी बुरा न माने। समूची राजनीति के लिए एक कव्वाली के बोल याद आ गए। बोल हैं- 'एक रात सांप ने नेता को डसा। नेता तो मजे में रहा, सांप चल बसा।' पर यह तो कव्वाली है। असल बात यह, भले देर सही, राजनीतिक दल दुरुस्त आए। आम आदमी के बाद महंगाई पर राजनीतिक रोना-धोना भी शुरू हो गया।
----------
10/02/2010