मांगने में माननीयों ने तो मंगतों को भी मात दे दी। शुक्रवार को लोकसभा से सांसदों के वेतन-भत्तों को हरी झंडी तो मिली ही। सांसदों ने भविष्य का बंदोबस्त करने में कसर नहीं छोड़ी। लुटियन जोन में मिले आवास अब सांसदों को छोटे लग रहे। आवास के साथ अमेरिका की तरह अलग दफ्तर नहीं मिलना साल रहा। अब वेतन-भत्ते बढऩा महज औपचारिकता रह गई। सो आगे के बंदोबस्त में जुटे। लोकसभा में छोटी बहस हुई। पर सांसदों ने बड़ी-बड़ी मांगें रखने में कोई लिहाज नहीं किया। सांसदी न रहने पर भी दिल्ली में सरकारी सुकून मिले। सो पेंशन के साथ-साथ अलग गेस्ट हाउस की भी मांग कर दी। बसपा के धनंजय ने अमेरिका की तरह 18 स्टाफ की मांग की। हर विषय पर रिसर्चरों की टीम चाहिए। असम के विश्वमुतियारी ने सांसद निधि दो से दस करोड़ की मांग की। पेंशन आठ से बीस हजार हो रही। पर पेट है कि भरता नहीं, सो 25 हजार की मांग कर रहे। लालूवादी रघुवंश बाबू ने बाकायदा संशोधन भी पेश किया। पर सरकार और सदन ने खारिज कर दिया। फिर भी मामला खत्म नहीं समझिए। संसदीय कार्य मंत्री पवन बंसल ने भरोसा दे दिया। जब सांसदों के वेतन-भत्ते के लिए अलग मैकेनिज्म बनेगा, तब सभी मुद्दों पर विचार होगा। पर मैकेनिज्म को लेकर भी आम राय नहीं। लोकसभा में वेतन-भत्ते में बढ़ोतरी बिल पर घंटे भर की खानापूर्ति बहस हुई। तो बीजेपी ने नैतिकता दिखाने की कोशिश की। बीजेपी से कोई नहीं बोला, अलबत्ता आडवाणी ने दखल दिया। उन ने वही बात दोहराई, जो अगस्त 2006 से कही जा रही। आडवाणी ने अलग मैकेनिज्म की बात की। मौजूदा सत्र में ही इसके एलान की मांग भी। फिर कांग्रेस-सपा-लेफ्ट-जदयू-तृणमूल ने भी मैकेनिज्म की पैरवी की। पर अपने रघुवंश बाबू और मायावादी धनंजय ने इसकी मुखालफत की। वेतन-भत्ते तय करने का अधिकार किसी और संस्था को देने को अपनी तौहीन बता रहे। दलील, जब संसद में सारी चीजें तय होतीं, तो सांसदों के वेतन तय करने का अधिकार किसी और को क्यों दें। अगर दूसरा व्यक्ति सांसद का वेतन तय करेगा, तो वह मालिक और हम नौकर हो जाएंगे। यों सही भी, कोई अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारता। अब इतनी दलील तो तब सामने आई, जब बिल पर महज दस सांसदों ने बोला। अगर लंबी-चौड़ी दो-चार घंटे की बहस होती, तो सांसद अपनी पोल-पट्टी खुद ही खोल लेते। यों लालूवादियों और मायावादियों की सोच लाजिमी। जहां वन मैन शो हो, वहां दूसरों को अधिकार क्यों दे? पर सांसदों की फुर्ती देखिए। महज घंटे भर में बहस के साथ बिल पारित हो गया। संसद पर यह सांसदों की मेहरबानी समझिए। वरना पहले तो चट बिल आया, पट पारित हो गया। इतना ही नहीं, अपने सांसदों ने शुक्रवार को साफ कर दिया, पहले के जमाने में नैतिकता के आधार पर वेतन कम लिए जाते रहे होंगे। पर अब यह नहीं चलेगा। रघुवंश बाबू ने तो एक कहावत सुना पूछ लिया, क्या ऐसा नौकर चाहिए, जो मांग-चांग के खाए और हुक्म पर तामील करे, कभी घर न जाए? कुल मिलाकर निचोड़ यही रहा, जनता के लिए न सही, अपने लिए तो लड़ेंगे। सो समूची बहस में सबने मीडिया को आड़े हाथों लिया। मीडिया में हुई आलोचना से सभी नेता सदन में उल्टी करते नजर आए। किसी ने प्राइवेट कंपनी के सीईओ से तुलना की, किसी ने भारत सरकार के सचिव से तो किसी ने अन्य देशों के सांसदों से। पर अपने सांसद क्यों भूल जाते प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत और दुनिया का फर्क? अगर कोई सीईओ वेतन के नाम पर लूट रहे, तो क्या नेता भी सरकारी खजाना लूटेंगे? जिन लालू-मुलायम ने 50,000 को नाकाफी बता 80,001 रुपए की मांग की, वह अपना दिन क्यों भूल गए। मुलायम अपने शुरुआती दिन में टीचर थे, अगर राजनीति में न आते, तो रिटायरमेंट तक महज प्राइमरी स्कूल के हैड मास्टर होते और आज पेंशन सात हजार होती। लालू किसी जमाने में दस रुपए दिहाड़ी पर मजदूरी किया करते थे। पर आज 50,000 भी कम लग रहे। अपने अधिकांश सांसद ऐसे, जिनकी आमदनी पांच साल में दुगुनी से दस गुनी तक बढ़ जाती। फिर भी कम वेतन का रोना, खर्च की बात। लालू-मुलायम तो सिर्फ उदाहरण, दिल से सभी वेतन बढ़ोतरी चाहते। पर लोकसभा में राजनीति भी हुई। लेफ्ट ने वाकआउट किया। तो ममतावादी सुदीप ने फब्ती कसी, वाकआउट करने वाले बढ़ा हुआ वेतन न लें। अब मानसून सत्र की अवधि बढ़ चुकी। सो मंगलवार को जब संसद उठेगा, तो सांसद भी मंगल गान करते उठेंगे। वेतन तो बढ़ा ही, एरियर के नाम पर करीब पांच लाख मिलेंगे। पर सांसदों और सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही देखिए। शुक्रवार को बाढ़-सूखे पर चार बजे बहस होनी थी। पर तब अपने सांसद वेतन-भत्ते बढ़ाने में लगे हुए थे। अमेरिका की खातिर संसद का सत्र दो दिन बढ़ गया। पर किसानों के लिए जमीन अधिग्रहण बिल का मामला अगले सत्र के लिए टल गया। अब सोम-मंगल को बढ़े सत्र में खूब दबाकर सरकारी काम निपटेंगे। एटमी जनदायित्व बिल से लेकर सांसदों के वेतन-भत्ते तक का मामला राज्यसभा से चुटकियों में पास होगा। सच कहें, तो संसद अब सिर्फ एक भव्य इमारत भर रह गई। जो भारत की आन-बान-शान की प्रतीक। जहां जनता और नैतिकता की फिक्र कम, बाकी अपनी खातिर सांसद कुछ भी करने को तैयार।
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27/08/2010
Friday, August 27, 2010
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