Friday, January 8, 2010

तो क्या राजनीति को भी 'निवेश' की दरकार?

इंडिया गेट से
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तो क्या राजनीति को भी
'निवेश' की दरकार?
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 संतोष कुमार
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         तो 2014 तक एक और वोट बैंक तैयार होगा! अपने एनआरआई भाई लोगों का। शुक्रवार को आठवें प्रवासी भारतीय दिवस के मौके पर पीएम ने यह भरोसा दिलाया। विज्ञान भवन में तीन दिवसीय प्रवासी भारतीय सम्मेलन शुरु हुआ। तो दोहरी नागरिकता न मिलने से खफा प्रवासियों को मनमोहन ने नया लॉलीपॉप दिखा दिया। अगले आम चुनाव तक एनआरआई को भी वोट का हक दिलाने की कोशिश करेंगे। पर जुबान से कागज तक पहुंचना आसान नहीं। दोहरी नागरिकता का मुद्दा वाजपेयी सरकार की देन। तबके पीएम वाजपेयी ने वादा तो कर दिया। पर जब संसद के सामने बिल आया। तो कई तकनीकी फच्चर आन पड़े। खूब विवाद हुआ। 'अ पर्सन ऑफ इंडियन ओरिजीन'  शब्द पर कई राय। मसलन, कितनी पुश्तों को आधार माना जाए। किस देश को अलग रखें, किसे चुने जैसी कई तकनीकी और संवैधानिक अड़चनें। सो दोहरी नागरिकता का मुद्दा 2003 से अब तक पेंडिंग। भले देश में इस मुद्दे पर बहस चलती रही। पर एनआरआई ने तो खुद को ठगा महसूस किया। भारत सरकार पर चौतरफा दबाव पड़ा। तो मनमोहन ने नया झुनझ्ुाना थमा दिया। फिर भी वोट का हक दिलाने का ठोस वादा नहीं किया। अलबत्ता उम्मीद और कोशिश शब्द का इस्तेमाल। वह भी 2014 तक। ताकि अगले आम चुनाव तक एनआरआई हायतौबा न मचा सकें। अब अगर वादा पूरा नहीं भी हुआ। तो मनमोहन का क्या। वह तो अगले चुनाव में शायद रिटायर हो जाएं। जैसे दोहरी नागरिकता का वादा निभाने से पहले ही वाजपेयी रिटायर हो गए। फिर नया नेतृत्व, नए वायदे। यही तो अपनी राजनीति का रंग। यों राजनीति के रंग कब बदल जाएं, मालूम नहीं। भले अपने एनआरआई संख्या में महज ढ़ाई करोड़। पर पैसा-पॉवर के मामले में अपनी एक अरब आबादी पर भारी। अब आप सोचो, अगर एनआरआई को वोटिंग हक मिल गया। तो लोकतंत्र का नया चारित्र कैसा होगा? कल्पना करिए, एनआरआई को वोट का हक मिल गया। नाथद्वारा से अपने सीपी जोशी एक वोट से हार रहे। और बाद में एनआरआई के वोट से जोशी जीत गए। सोचो, हू-ब-हू ऐसा हुआ होता। तो कैसा लगता। यही ना, नाथद्वारा में रहने वाली जनता के फैसले पर विदेशों में बैठे एनआरआई भारी। अब कोई उम्मीदवार आरआई यानी रेजीडेंट ऑफ इंडिया के बजाए एनआरआई के वोट से संसद या विधानसभा पहुंचे। तो वह किसकी बात ज्यादा सुनेगा? आपकी या धनकुबेर एनआरआई की। यानी राजनीति नई राह पर चलेगी। राजनेता कर्ता-धर्ता होंगे और एनआरआई नीति-नियंता। तभी तो एनआरआई की दिलचस्पी इन्फ्रास्ट्रक्चर में इनवेस्टमेंट से ज्यादा पोलिटिकल इंवेस्टमेंट में। सो मनमोहन ने एनआरआई की सोच का इजहार भी किया। बोले- 'शासन में महत्व मिलने की प्रवासियों की जायज इच्छा को मैं समझता हूं। उम्मीद करता हूं कि 2014 तक एनआरआई को वोट का हक मिल जाएगा।' पीएम ने भरोसा तो दिलाया। पर वोट के हक के पीछे कितना दबाव, इसकी झलक भी मिल गई। जब कहा- 'दरअसल, मैं तो एक कदम आगे बढ़ते हुए पूछना चाहता हूं कि प्रवासी भारतीय घर वापस लौटकर राजनीति और सार्वजनिक जीवन में क्यों नहीं शामिल होते।'  पर मनमोहन भी बखूबी समझते और एनआरआई भी। अगर वतन वापस लौटकर राजनीति में हिस्सेदारी करेंगे। तो किसी एक पार्टी के होकर रह जाएंगे। कभी सत्ता तो कभी विपक्ष में। पता नहीं कब-किस सरकार का मूड फिर जाए। तो नीति बदल धंधा चौपट कर दे। सो एनआरआई के पास पैसे की कमी नहीं। जिसकी भी सत्ता आए, अपनी धमक बनी रहे। इसी बात की कोशिश करते। अब अगर वोटिंग का हक भी मिल जाए। तो एनआरआई की पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में। सत्ता में जो भी राजनीतिक दल होगा। एनआरआई वोट बैंक की बात को सिर्फ सुनना नहीं, अमल करना भी मजबूरी होगी। पर जैसे दोहरी नागरिकता में तकनीकी पेच। एनआरआई के वोट के हक में भी कम नहीं। कैसे चयन होगा? सुरक्षा के लिए क्या मानक होंगे? और भी कई पेच, जो पालिसी जाहिर होने के बाद दिखेंगे। पर वोट के हक के पीछे की कहानी- निवेश। मनमोहन तो खुल्लमखुल्ला बोले- 'देश में निवेश के मामले में एनआरआई रुढि़वादी रहे हैं। पर सोच बदलने की जरुरत। भारत की ओर सजगता से देखना चाहिए। निवेश के मामले में भारत भी अहम ठिकाना है।'  पीएम ने एनआरआई से विकास और राजनीति में सक्रिया भागीदारी की भी अपील की। तो क्या अब राजनीति में भी टोटा हो गया। जो हम एनआरआई को वोट का लॉलीपॉप थमा सक्रिय राजनीति में आने का न्योता दे रहे। एक अपने पूर्व पीएम लालबहादुर शास्त्री का जमाना था। जब देश में खाद्य संकट का पूर्वानुमान हुआ। तो देशवासियों से हफ्ते में एक दिन उपवास की मार्मिक अपील की। अपील के पीछे शास्त्री जी के तीन उद्देश्य थे। पहली- इससे अनाज की कमी दूर होगी। दूसरी- किसान फसल की पैदावार बढ़ाने को उत्साहित होंगे। और तीसरी- अनाज की खातिर दुनिया के सामने हाथ न पसारना पड़े। पर साठ साल में ही क्या हो गया। टेक्रोलॉजी की कमी हो। तो खुद बनाने के बजाए इंपोर्ट को तरजीह देते। रक्षा उपकरण की विदेशों से खरीद पर खुद रक्षा मंत्री एके एंटनी अफसोस जता चुके। अब एनआरआई को वोट का हक। यानी राजनीति में भी निवेश। क्या वाकई अपनी राजनीति में नेतृत्व का टोटा पड़ गया?
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08/01/2010