Wednesday, October 6, 2010

राजनीतिक चक्की के आटे में सौहार्द-शिष्टाचार क्यों नहीं?

कर्नाटक में बीजेपी का नाटक फिर शुरू हो गया। दक्षिण भारत में पहली बार किला फतह किया। पर कुनबे में ऐसी कलह मची, दो साल में ही किले की चारदीवारी दरकने लगी। अब बीजेपी के डेढ़ दर्जन एमएलए बगावत पर उतर आए। गवर्नर को चिट्ठी लिख समर्थन वापसी का एलान किया। तो येदुरप्पा ने भी चार असंतुष्ट मंत्रियों को फौरन केबिनेट से बर्खास्त कर दिया। बाकी एमएलए को अनुशासनात्मक कार्रवाई की चेतावनी दी। कर्नाटक की खींचतान कई दफा दिल्ली दरबार तक पहुंच चुकी। यानी कर्नाटक में बीजेपी की सरकार जनता नहीं, अपनों के संकट सुलझाने में ही उलझी हुई। सो विपक्ष भी भला मौका क्यों गंवाता। देवगौड़ा-कांग्रेस ने मोर्चा खोला। तो मौजूदा गवर्नर हंसराज भारद्वाज अति सक्रिय हो गए। अबके उन ने विधानसभा का सत्र चालू होने के बावजूद सीएम को बहुमत साबित करने के लिए बारह अक्टूबर तक का समय दे दिया। बीजेपी के नाराज 15 एमएलए और पांच समर्थक निर्दलीय एमएलए ने गवर्नर को चिट्ठी लिखकर समर्थन वापसी का एलान कर दिया। सो कानून की बारीकी से वाकिफ हंसराज भारद्वाज ने कानून को किनारे रख राजनीतिक एजंडा चल दिया। यों हंसराज भारद्वाज कोई पहली बार इतने सक्रिय नहीं। इससे पहले अवैध खनन के मामले में राष्ट्रपति से लेकर पीएम तक अपनी रपट बिन मांगे भेज चुके। मर्यादा लांघ सीएम को बेमतलब नसीहत तक दे चुके। जब गवर्नर ने यहां तक कह दिया था, अगर वह सीएम होते, तो रेड्डी बंधुओं को केबिनेट से फौरन बाहर करते। अब कोई गवर्नर ऐसी भाषा का इस्तेमाल करे। तो उसे संविधान का पहरुआ कहा जाए या किसी पार्टी का, यह आप ही तय करिए। पर बात भाषाई मर्यादा की। तो राजनीति में ऐसी उम्मीद ही बेमानी। अब ताजा किस्सा देखो, अयोध्या फैसले के बाद कैसे हिंदू-मुसलमानों ने कौमी एकता की मिसाल पेश की। राजनीतिबाजों के झांसे का शिकार नहीं बने। तो अब नेताओं के पेट में मरोड़े उठ रहे। सो पहले मुलायम सिंह यादव ने उकसावे की कोशिश की। संघ-विहिप-बीजेपी ने अयोध्या फैसले को अपनी जीत के तौर पर पेश करना शुरू कर दिया। तो कांग्रेस भी मुस्लिम हितैशी होने का ढिंढोरा पीटने लगी। पर राजनीतिबाजों को सामाजिक सौहार्द शायद रास नहीं आ रहा। सो लगातार कोशिश हो रही, कोई एक पक्ष उकसावे में आकर ऐसा बयान दे दे, जिससे अयोध्या पर बंद हुई राजनीति की दुकान फैस्टीवल सीजन में चल पड़े। सो अब खुद राहुल गांधी ने नया सुर्रा छोड़ दिया। प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी और आरएसएस को एक ही तराजू में तोल दिया। दो दिन पहले मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ में राहुल ने कांग्रेस में आने वाले लोगों से बेहिचक कह दिया था। आरएसएस और सिमी की विचारधारा छोडक़र आने वालों को ही कांग्रेस में जगह मिलेगी। बुधवार को भोपाल में जब राहुल के बयान का मतलब पूछा गया। तो राहुल ने कह दिया- आरएसएस और सिमी दोनों ही कट्टरवादी संगठन। वैचारिक कट्टरता की दृष्टि से इनमें कोई फर्क नहीं। यानी राहुल बाबा की नजर में जैसा सिमी, वैसा ही आरएसएस। पर सवाल, अगर आरएसएस को सिमी जैसा मान रहे राहुल। तो मनमोहन-चिदंबरम से कहकर बैन क्यों नहीं लगवाते? सिमी पर बैन यूपीए के पिछले टर्म में ही बढ़ाया गया। अब अचानक ऐसा क्या हो गया, जो राहुल ने संघ को सिमी के बराबर खड़ा कर दिया? अयोध्या फैसले के बाद संघ ने जो संयमित रुख अपनाया, खुद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कायल हो गए। फिर राहुल के बयान का क्या मकसद? क्या यह जानबूझ कर उकसाने की कोशिश नहीं? सो राहुल के बयान पर बीजेपी ने पलटवार किया। प्रकाश जावडेकर बोले- मानसिक संतुलन खो चुके हैं राहुल। कांग्रेस लोकसभा चुनाव के बाद के उपचुनावों में लगातार हार रही। सो हताशा में राहुल अंट-शंट बयान दे रहे। बीजेपी ने राहुल को अपरिपक्व और उद्दंड तक करार दे दिया। पर सिर्फ बीजेपी नहीं, जिस संघ को राहुल ने सिमी जैसा बताया। उसके प्रवक्ता राम माधव ने भाषाई मर्यादा को लांघ पलटवार किया। राम माधव बोले- राहुल को राजनीति की लंबी पारी खेलनी। सो सिर्फ इटली-कोलंबिया को समझने से काम नहीं चलेगा। भारतीय समाज को भी समझना पड़ेगा। बयानबाजी से पहले इतिहास पढ़ लेना चाहिए और समाज में रचे-बसे संघ और उसके क्रियाकलापों को भी समझ लेना चाहिए। पर बीजेपी-संघ ने कड़ा जवाब दिया। तो कांग्रेस तिलमिला गई। राहुल को नसीहत देने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में नहीं। सो किसी का नाम लिए बिना जनार्दन द्विवेदी बोले- किसी व्यक्ति के बारे में टिप्पणी नहीं, पर सभी राजनीतिक संगठनों को अपने विरोधियों के प्रति भाषा में सभ्यता का ख्याल रखना चाहिए। पर अपने राजनीतिबाजों को आखिर क्या हो गया? क्या राजनीतिक चक्की के आटे में सद्भावना, शिष्टाचार या मर्यादा नहीं पाई जाती? किसी को आरएसएस-सिमी में फर्क नजर नहीं आता। तो मुलायम को अपना वोट बैंक दिख रहा। विहिप को मंदिर के लिए पूरी पंचकोसी चाहिए। तो अयोध्या मामले को निजी विवाद बता कपिल सिब्बल सरकार को बीच में न पडऩे की सलाह दे रहे। पर कोई पूछे, गर अयोध्या विवाद निजी, तो क्या शाहबानो प्रकरण सरकारी था? जिसके लिए संसद ने कानून बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया। क्या यही राजनीति की मर्यादा?
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06/10/2010