Monday, October 25, 2010

कश्मीर की ‘कील’ पर बयानों का हथौड़ा

मंगलवार को तिरेसठ साल पूरे हो जाएंगे कश्मीर के भारत में विलय को। छब्बीस अक्टूबर 1947 को विलय पत्र पर महाराजा हरि सिंह ने दस्तखत किए थे। पर यह कश्मीर का दुर्भाग्य, कहने को तो धरती का स्वर्ग। पर कभी अमन-चैन नहीं रहा। घाटी कभी अमेरिका-ब्रिटेन की कुटिल कूटनीति की, तो कभी अपने सियासतदानों के वोट बैंक की राजनीति की शिकार हुई। जब भारत आजाद हुआ, तब दुनिया दो हिस्सों में बंटी थी। सो अंग्रेजों ने रणनीति के तहत पहले भारत के दो टुकड़े करवाए। फिर रियासत-ए-कश्मीर को भारत-पाक के बीच हमेशा के लिए विवाद का मुद्दा बना दिया। अब अमेरिका अपनी सहूलियत के मुताबिक कभी पाक को शह देता। तो कभी हाथी के दिखाने वाले दांत की तरह भारत के साथ थोथी सहानुभूति। पर जब घर दुरुस्त न हो, तो बाहर वाले मजा उठाएंगे ही। जम्मू-कश्मीर के तथाकथित होनहार और युवा सीएम उमर अब्दुल्ला ने अपनी कुर्सी बचाने को कश्मीर के विलय पर ही सवाल उठा दिए थे। सो ऐसी बहस छिड़ी, अब सुर्खियां पाने को तथाकथित मानवाधिकारवादी झोला-झंडा उठाए निकल पड़े। अरुंधती राय पहले नक्सलवादियों के पक्ष में बोल सुर्खियां बटोर चुकीं। तो भला कश्मीर की आग में भुट्टा सेकने से क्यों चूकतीं? सो उन ने भी कश्मीर के विलय पर सवाल उठा दिए। अरुंधती राय ने भारत सरकार को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतिरूप बता दिया। आरोप लगाया- पूर्वोत्तर में असंतोष को दबाने के लिए सेना में भर्ती कश्मीरियों का, तो कश्मीरियों की आवाज दबाने के लिए सेना में भर्ती पूर्वोत्तर के लोगों का इस्तेमाल कर रही सरकार। अब अरुंधती राय के बयान का मतलब आप खुद निकालें। पर अरुंधती से एक सवाल, क्या कश्मीर को पाक के हवाले कर देना चाहिए? अरुंधती तो काफी पढ़ी-लिखी और इतिहास को समझने वाली। फिर कश्मीर के इन हालात के लिए कौन जिम्मेदार, यह नहीं जानतीं? पाक ने कश्मीर को हथियाने के लिए तब खूब तिकड़म की। जिन्ना ने अपने अंग्रेज सैन्य सचिव को तीन बार महाराजा के पास भेजा। जिन्ना ने जबरन विलय की रणनीति भी बना ली थी। पाकिस्तानी कबाइलियों की घुसपैठ बढ़ गई थी। फिर भी कामयाबी नहीं मिली, तो पाक ने हमला बोल दिया। तब महाराजा हरि सिंह ने सूझ-बूझ दिखा भारत में विलय का फैसला लिया। फिर भारतीय सेना ने श्रीनगर पहुंच पाक कबाइलियों को मार भगाया। अब अरुंधती बताएं, किसने कश्मीर की आजादी को दासता में बदलने की कोशिश की? अपने देश में सचमुच कथित मानवाधिकावारियों ने राष्ट्र विरोधी बयान देना अपना फैशन बना लिया। नक्सलवादी हों या अलगाववादी, अगर सरकार वार्ता को राजी। तो फिर हिंसा क्यों नहीं छोड़ते? कुछ हिस्सों का विकास से दूर हो जाना एक गलती। पर जब तक बात नहीं होगी, काम कैसे होगा? अगर नक्सली बंदूक से बोलेंगे, तो फिर सरकार से आप निहत्थे जंगल में आने की कैसे सोच सकते? पता नहीं ऐसे मानवाधिकारवादियों को क्या हो गया, जिन्हें संसद पर हमले के दोषी अफजल का मानवाधिकार तो दिखता है। पर संसद हमले में शहीद अपने सुरक्षा बलों के परिजनों के आंसू नहीं दिखते। नक्सलवादियों-अलगाववादियों के पैरोकार अगर सचमुच देश से प्रेम करते, तो क्यों नहीं खुद मध्यस्थ की भूमिका निभाते? मीडिया के सामने चार बौद्धिक बातें कर लेना कोई बुद्धिमानी नहीं। बुद्धिमानी तो तब दिखेगी, जब पैरोकार पहल कर नक्सलवाद-अलगाववाद के नासूर को खत्म करने में अहम किरदार निभाएं। पर असलियत कुछ और। जब ऐसे मुद्दे नहीं होंगे। तो ऐसे बुद्धिजीवियों के पास करने को क्या बचेगा? यही हाल राजनेताओं का, जो कभी वोट बैंक से जुड़े मुद्दे दफन नहीं होने देते। अब कश्मीर जून से सितंबर तक सुलगता रहा। तो दिल्ली से सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल गया। अब केंद्र ने वार्ताकारों का नया समूह गठित किया। तो पेशे से पत्रकार दिलीप पडगांवकर की रहनुमाई में तीनों मेंबर घाटी पहुंचे। पर काम शुरू करने से पहले ही ऐसा बयान दिया, बखेड़ा खड़ा हो गया। पडगांवकर ने कश्मीर समस्या के समाधान में पाकिस्तान को शामिल किए जाने की जरूरत बता दी। यानी अरसे से जो बात अलगाववादी कह रहे, वही कह दिया। सो बीजेपी ने पीएमओ से सफाई मांगी। कांग्रेस को कुछ न सूझा, तो पडगांवकर पर ही छोड़ दिया। पर इतना जरूर कहना पड़ा- समूचे कश्मीर नहीं, पाक से सिर्फ उसके कब्जे वाले कश्मीर पर ही बातचीत हो सकती। यानी केंद्र में सरकार किसी की भी हो, सभी 22 फरवरी 1994 के संसद के संकल्प से बंधे हुए। जिसमें साफ कहा गया- जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा। पीओके को फिर से हासिल करने का काम बाकी, जिसे जल्द पूरा किया जाना चाहिए। अब पडगांवकर-अरुंधती के बयानों को कौन सा संकल्प कहेंगे? माना, समस्या के समाधान के लिए खुले मन से बात हो। पर खुले मन का मतलब यह नहीं, भारत को पाकिस्तान के हवाले कर दें। वार्ताकार यह क्यों भूल रहे, भौगोलिक सीमा एक शाश्वत सच है। वार्ताकार अगर अलगाववादियों की जुबान बोलेंगे, तो फिर वार्ता के क्या मायने? पडगांवकर के बयान से कांग्रेस ठहरी, तो बीजेपी हमलावर। पर कश्मीर के विलय पर उंगली उठा चुके सीएम उमर ने सराहना की। सो कश्मीर मुद्दा कभी सुलझेगा, दूर-दूर तक आसार नहीं दिख रहे। पहल तो कई दफा हो चुकी। पर जितनी बार बात हुई, बनी कम, बिगड़ी अधिक। वार्ताकार का मतलब तो अब सरकार की ओर से अपने पसंदीदा लोगों को नौकरी देना हो गया। ---------
25/10/2010