Monday, February 1, 2010

चोर-चोर मौसेरे भाई नहीं, सब गोलमाल है

 संतोष कुमार
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          महाराष्टï्र पर महासंग्राम होने लगा। शाहरुख खान-आमिर खान से आगे बढ़ जंग अब संघ बनाम शिवसेना हो गई। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने हिंदी भाषियों की रक्षा का एलान क्या किया। मुंबई की अपनी मांद में बैठा शेर दहाड़ उठा। बीजेपी से 26 साल की दोस्ती का कोई लिहाज नहीं। अब तक शिवसेना का बूढ़ा शेर मुखपत्र 'सामना'  के जरिए दहाड़ रहा था। पर संघ परिवार से लड़ाई ठनी। तो उद्धव ठाकरे ने मोर्चा संभाला। संघ को खरी-खरी सुनाने में देर नहीं की। कहा- 'हमें देशभक्ति और एकता का पाठ न पढ़ाए संघ। जब 1992 में हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए, तो हमने हिंदुओं की रक्षा की। तब कहां था संघ परिवार। अगर हिंदी की चिंता है, तो संघ प्रवक्ता राम माधव दक्षिण भारत में जाकर हिंदी सिखाएं।' अब बीजेपी की मुश्किल तो लाजिमी थी। आगे कुआं, तो पीछे खाई। पर नितिन गडकरी संघ के दुलारे। संघ ने बीजेपी ठीक-ठाक करने का जिम्मा सौंपा। सो बीजेपी को संघ के पक्ष में उतरना ही था। वैसे भी बीजेपी वाले संघ को मातृ संगठन मानते। सो मातृ अपमान भला बीजेपी कैसे बर्दाश्त करे। पर गडकरी ठहरे महाराष्टï्र से। सो बयान में वैसी तल्खी नहीं, जैसी उद्धव के बयान में। गडकरी ने 13 लाइन का बयान मीडिया के सामने पढ़ दिया। सो कइयों ने चुटकी ली। नागपुर से जो लिखकर आया, वही पढ़ दिया। वैसे भी कोई अपना बयान बेसुरे ढंग से क्यों पढ़ेगा। अब देखो, बीजेपी कहां आ गई। एक जमाना था, जब सोनिया गांधी लोकसभा में लिखा भाषण पढ़ती थीं। तो बीजेपी वाले कभी मणिशंकर, तो कभी जनार्दन का लिखा भाषण बता खिल्ली उड़ाते थे। पर अब गडकरी संविधान और राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े मुद्दे पर भी लिखित बयान पढ़े। तो आप क्या कहेंगे, अपना बयान या वाकई नागपुर से लिखकर आया? अब बयान अपना हो या नागपुर का। पर राष्ट्रीयता के मुद्दे पर जैसी बुलंद आवाज विपक्ष की होनी चाहिए, बीजेपी की नहीं थी। पूरे बयान में गडकरी ने न तो शिवसेना का नाम लिया। न किसी कार्रवाई की मांग की। अलबत्ता जनसंघ जमाने का सिद्धांत उड़ेल दिया। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को राष्टï्रीय एकता में रोड़ा का अपना पुराना राग अलापा। पर क्या वाकई गडकरी की बीजेपी जनसंघ जमाने की? तब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पंडित नेहरू की पहली केबिनेट को छोड़ परमिट सिस्टम के खिलाफ जंग छेड़ी थी। आखिरकार जेल में ही शहीद हो गए। पर अबके बीजेपी में वह बात नहीं दिखी। अलबत्ता संविधान के अनुच्छेद 19 (1-ई) का जिक्र किया। देश के किसी भाग में बसने का अधिकार। भाषा, क्षेत्र या धर्म के आधार पर संघर्ष को बीजेपी स्वीकार नहीं करेगी। पर शिवसेना तो ठीक इसके उलट बात कर रही। वह सिर्फ कह नहीं रही। अलबत्ता शिवसेना और चचा को छोड़कर अलग हुए भतीजे राज ठाकरे की भी कारस्तानी देश देख चुका। सो बीजेपी शिवसेना के खिलाफ सख्त क्यों नहीं हो रही? पर शायद असली कहानी कुछ और। शिवसेना लाख जतन कर तीसरी बार भी महाराष्टï्र की कुर्सी हासिल नहीं कर पाई। शिवसेना की बौखलाहट तो नतीजों के बाद सबने देखी। जब बाल ठाकरे ने लिखा- 'मराठी मानुष ने खंजर घोंपा।'  पर बदले जमाने में वोटर कट्टïरवाद की हांडी उतार चुका। फिर भी ठाकरे जुगाड़ ढूंढ रहे। उन्माद पैदा कर सत्ता तक पहुंचने की कोशिश। पर चुनाव तो कोसों दूर। सो बीजेपी-संघ परिवार बनाम शिवसेना की तनातनी एकता कपूर के सास भी कभी बहू थी धारावाहिक जैसी। सो पहले शिवसेना को देखिए। हालत खस्ता हो चुकी। बाल ठाकरे जीते जी बेटे उद्धव को सीएम बनाने का मंसूबा पाले बैठे थे। पर खुद के भतीजे ने गुड़-गोबर कर दिया। यही हाल संघ का। जबसे संघ के भेजे प्रचारक बीजेपी में राजनीति के चस्सू हो गए। संघ की बत्ती गुल होने लगी। देश भर में शाखाएं चौपट होने लगीं। रही-सही कसर सुदर्शन-भागवत के मीडिया प्रेम ने पूरी कर दी। सो जैसे शिवसेना मराठी मानुष के नाम से अपनी जमीन उपजाऊ बनाने में लगी। संघ परिवार हिंदी, हिंदू, हिंदुस्थान के बहाने शाखाओं की पैदावार बढ़ाने की जुगत में। बीजेपी में भी सब अच्छा नहीं। सो गडकरी ने मराठी-हिंदी विवाद के बहाने अनुच्छेद 370 का मामला उछाल दिया। पूरे खेल में बची कांग्रेस। तो उसका हाल, चित भी मेरी, पट भी मेरी...। मराठी वोट में सेंध लगाने को कभी राज को शह दी। तो कभी उत्तर भारतीयों के जख्म पर मरहम लगाने की कोशिश। यानी वोट बंटे, कांग्रेस को सत्ता मिली। अब ठाकरे-संघ में ठनी। तो होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने भी खूंटा गाड़ दिया। बोले- 'मुंबई सबकी। कोई भी जाए और बसे।'  चिदंबरम ने ऑस्ट्रेलिया, पाक के खिलाडिय़ों को मुंबई में क्रिकेट खेलने पर सुरक्षा की पूरी गारंटी ली। अब आप ही इन गोलमाल नेताओं का मतलब निकालिए। भाषाई विवाद में राजनीति के ये सभी धुरंधर सिर्फ चोर-चोर मौसेरे भाई नहीं, सगे भाई कहिए। यानी इस विवाद में सब गोलमाल है। कहने को कांग्रेस-बीजेपी संविधान की दलील दे रहीं। पर जरा सोचिए, राज ठाकरे हों या बाल ठाकरे। अगर कोई संविधान-कानून को खुली चुनौती दे। और विपक्ष-सत्तापक्ष सिर्फ जुबानी पलटवार करे। तो क्या कहेंगे आप। अगर सब गोलमाल न होता। तो महाराष्टï्र चुनाव से पहले जब राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर मार रहे थे। तब चिदंबरम कहां थे। कांग्रेस कहां थी। बीजेपी के गडकरी कहां थे। तब तो गडकरी महाराष्टï्र बीजेपी के अध्यक्ष थे। वैसे भी शिवसेना बीजेपी-शिवसेना के बीच कोई पहली बार तलवार नहीं खिंची। राष्ट्रपति चुनाव में तकरार, फिर इकरार सबने देखी।
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01/02/2010