Monday, July 26, 2010

हर मुद्दे पर किचकिच, क्या यही है लोकतंत्र?

संवेदना और श्रद्धांजलि दे संसद के दोनों सदन उठ गए। सो सोमवार को संसद के गलियारे में ही जुबानी तीर चले। फिर मंगलवार की रणनीति बनी। सो महाभारत का असली शंखनाद सदन में होगा। विपक्षी एकता बरकरार रखने को बीजेपी ने गुजरात का मुद्दा पीछे धकेल महंगाई को प्राथमिकता दी। कामरोको का नोटिस दोनों सदनों में पहुंच गया। सो आसंदी के लिए भी चुनौती कम नहीं। पिछली दफा स्पीकर मीरा कुमार ने नियम की बारीकियां बता कामरोको ठुकरा दिया था। पर अबके विपक्ष ने नोटिस को तकनीकी बारीकियों से लैस कर दिया। दो सत्रों के बीच के अहम मुद्दे पर ही कामरोको प्रस्ताव लाया जा सकता। सो विपक्ष ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में हुई बढ़ोतरी को नोटिस का आधार बनाया। पर सरकार और कांग्रेस भी खम ठोक चुकीं। बहस से एतराज नहीं, पर कामरोको या नियम 184 के तहत चर्चा मंजूर नहीं। महंगाई की नब्ज तो सरकार भांप चुकी। पर इलाज ढूंढे नहीं मिल रहा, सो वोटिंग करा खुद को खतरे में क्यों डाले। पर पक्ष हो या विपक्ष, महंगाई सिर्फ बहस का मुद्दा बनकर रह गई। यूपीए राज में शायद यह चौदहवीं बहस होगी। पर हर बहस भैंस के आगे बीन बजाने वाली ही साबित हुई। सो अबके भी कोई चमत्कार नहीं होगा। अलबत्ता दो-एक दिन हंगामा बरपेगा। फिर चैंबर मीटिंग में सारी सैटिंग हो जाएगी। पिछली दफा भी ऐसा ही हुआ था। आखिर में सरकार प्रश्नकाल स्थगन को राजी हो गई। विपक्ष कामरोको की जिद छोड़ गया। सो आप ही सोचो, इस दिखावे का क्या मतलब? सरकार तो हमेशा बहस से भागती। पर विपक्ष की यह जिम्मेदारी, सरकार को बहस में लाए। महंगाई हो या भोपाल त्रासदी या महिला बिल की बात। विपक्ष को चाहिए कि वह सरकार को गलती बताए। दुरुस्त करने के उपाय सुझाए। पर हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। सत्तापक्ष और विपक्ष की जुगलबंदी अब खूब होने लगी। वरना आप ही सोचो, आसंदी के कमरे में मीटिंगबाजी का क्या मतलब। सदन कोई कठपुतली या नाटक का मंच तो नहीं, जहां लिखित पटकथा का मंचन भर हो। आखिर ऐसा क्यों, जनता को दिखाने के लिए दोनों पक्ष सदन को स्थगित कराने तैयार हो जाते। फिर संसद से सडक़ तक कोई जिंदाबाद के नारे लगाता, तो कोई मुर्दाबाद के। अगर सचमुच संसद में ईमानदार बहस होने लगे। तो सरकार आम आदमी के साथ इतनी हिटलरशाही नहीं कर सकती, जितनी यूपीए सरकार कर रही। पर महंगाई का मुद्दा मंगलवार को सबसे पहले उठेगा। तो यह बीजेपी की रणनीतिक मजबूरी। असल में बीजेपी की तलवार सीबीआई के मुद्दे पर म्यान से निकली। महंगाई की रस्म अदायगी होते ही गुजरात का मुद्दा गूंजेगा। सो पीएम ने सोमवार को ही मोर्चा संभाल लिया। सीबीआई के बेजा इस्तेमाल के विपक्षी आरोप को बेतुका बताया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश और मॉनीटरिंग की दलील दी। यों सीबीआई सत्ताधारी दल की कठपुतली बन चुकी, इसमें कोई शक-शुबहा नहीं। पर पीएम के बयान का मतलब साफ। अगर विपक्ष संसद ठप करने पर अड़ा, तो जनता में नकारात्मक छवि बनाने की कोशिश होगी। पर बीजेपी भी गुजरात को लेकर समझौते के मूड में नहीं। सो अमित शाह की पैरवी के लिए राम जेठमलानी को मैदान में उतार दिया। या यों कहें, नरेंद्र मोदी ने जेठमलानी को जो गिफ्ट दिया। अब जेठमलानी रिटर्न गिफ्ट दे रहे। सो बीजेपी के एक बड़े नेता से सवाल हुआ, जेठमलानी की फीस कितनी और कौन देगा? तो जवाब आया, इकट्ठे छह साल की फीस चुका दी। यानी राजस्थान से राज्यसभा की मैंबरी के बदले जेठमलानी गुजरात में मोदी एंड कंपनी का बचाव करेंगे। पर सरकार की रणनीति अलग। कांग्रेस को मालूम, गुजरात ही एकमात्र ऐसा मुद्दा, जो विपक्ष की एकता में पलीता बन जाए। सो कांग्रेस और बीजेपी दोनों सीबीआई के मुद्दे पर हंगामाई रणनीति का इंतजार कर रहीं। यानी कम से कम पहला हफ्ता तो आप हंगामे की भेंट मानिए। महंगाई, सीबीआई, भोपाल त्रासदी, जाति जनगणना, हिंदू आतंकवाद जैसे मुद्दों पर दोनों तरफ से तीर चलेंगे। पर इसी सत्र में एक मुद्दा ऐसा भी होगा, जब संसद में भेड़चाल दिखेगी। सांसदों के वेतन-भत्ते बढऩे का बिल आएगा। तो ऐतिहासिक एकता सदन के रिकार्ड में दर्ज हो जाएगी। पर उन तीरों का क्या, जिनसे घायल हो रहा सिर्फ आम आदमी। आखिर संसद के सत्र का आम आदमी के लिए क्या महत्व? संसद में हर छोटे-बड़े मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष में तकरार हो जाती। आपस में ही किचकिच करते रहते। क्या यही है अपना लोकतंत्र? सोमवार को मानसून सत्र का आगाज हुआ। तो कारगिल विजय दिवस की ग्यारहवीं वर्षगांठ थी। पर कारगिल को लेकर भी राजनीतिक किचकिच खूब दिखी। एनडीए काल में कारगिल युद्ध हुआ। सो यूपीए उसे दिल से अपना मानने को तैयार नहीं। बीजेपी वाले भी किसी दूसरे को कॉपी राइट देने को राजी नहीं। सो सोमवार को रक्षा मंत्री एके एंटनी ने सुबह अमर जवान ज्योति जाकर श्रद्धांजलि की रस्म निभाई। तो बीजेपी ने शाम से लेकर रात तक शहीदों को याद किया। क्या अब शहादत में भी बीजेपी और कांग्रेस? क्या संसद अपनी प्रासंगिकता खोती नहीं जा रही? आखिर किसी को भी चिंता क्यों नहीं? संसद में नक्सलवाद पर भी चर्चा होगी। पर जिस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष प्वाइंट स्कोर करने के लिए किचकिच वाली राजनीति करते। उससे नक्सलियों को क्या संदेश जाएगा? नक्सलवादी अपनी संसद को इन्हीं हरकतों की वजह से सूअरबाड़ा कहते। हर मुद्दे पर किचकिच, क्या यही है अपना लोकतंत्र?
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26/07/2010