Wednesday, July 28, 2010

स्पीकर के फैसले पर ‘ऑल इन वैल’

संसद न चलनी थी, न चली और बाकी बचे दो दिन भी चलनी नहीं। लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार ने विपक्ष का कामरोको प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। पर रूलिंग देने से पहले सबको अपना पक्ष रखने का मौका मिला। तो विपक्ष से ग्यारह और प्रणव दा समेत सत्तापक्ष से तीन लोग बोले। समूचे विपक्ष ने कामरोको प्रस्ताव मंजूर करने की खातिर दलीलें गिनाईं। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सरकार गिराने नहीं, सेंसर करने की मंशा जताई। करीब-करीब यही राय सभी विपक्षी नेताओं ने रखी। पर बीएसपी ने अपनी पोल खोल ली। मायावती के सिपहसालार दारा सिंह ने 2004 के बाद से महंगाई लगातार बढऩे की बात कही। यानी यूपीए राज पर हमला, एनडीए को क्लीन चिट। फिर भी मायावती लगातार यूपीए को समर्थन दे रहीं। लालू यादव ने भी सीबीआई के जरिए सौदेबाजी से इनकार किया। नितिन गडकरी की गाली याद दिलाई। अपनी रणनीति खुद तय करने का एलान किया। पर लालू यादव ने फिर चालाकी दिखा दी। लोकसभा में विपक्षी दलों को चुनौती दी, अगर सचमुच कांग्रेस से लडऩा है, तो 1977 की तरह पार्टियों का विसर्जन कर नया मंचा बनाइए। पर लोकसभा की लॉबी में लालूवाणी कुछ यों थी। कहा- विपक्ष एक मंच बनाए और मुझे उसका अध्यक्ष। यानी 1977 जैसी एकता की बात महज हंसी-ठिठोली समझिए। पर बात कामरोको प्रस्ताव की। जिसकी खातिर पक्ष-विपक्ष ने इतिहास कुरेदा। अपने वासुदेव आचार्य ने पुख्ता तैयारी कर रखी थी। सो स्पीकर को याद दिलाया, कैसे पूर्व के स्पीकरों ने महंगाई पर कामरोको मंजूर किया। उन ने 23 जुलाई 1973 के इंद्रजीत गुप्त के नोटिस, 21 फरवरी 1986 मधु दंडवते के नोटिस, 12 नवंबर 1993 एसएम बनर्जी के नोटिस, 13 जून 1994 रामाश्रय प्रसाद सिंह के नोटिस और अप्रैल 2007 के उदाहरण दिए। जब तत्कालीन स्पीकरों ने कामरोको प्रस्ताव पर सहमति दी। पर प्रणव मुखर्जी पूरी बहस के दौरान स्पीकर्स रूल-बुक के पन्ने पलट रहे थे। सो आखिर में उन ने 1928 से 2010 तक की रूलिंग गिनानी शुरू की। सेंट्रल असेंबली में चार सितंबर 1928 को विट्ठल भाई पटेल के फैसले की दुहाई दी। फिर जीवी मावलंकर से लेकर एमए अयंगर और जी.एस. ढिल्लन के फैसले गिनाए। प्रणव दा का निचोड़ यही रहा, कामरोको प्रस्ताव के लिए बहुमत के बावजूद मंजूरी नहीं दी जा सकती। कामरोको प्रस्ताव को आम चलन में लाना सही नहीं। कामरोको तभी लाया जा सकता, जब सरकार व्यवस्था संभालने में फेल हो चुकी हो। सो करीब डेढ़ घंटे की बहस के बाद स्पीकर फौरन फैसला नहीं दे पाईं। अलबत्ता लंच ब्रेक के बाद रूलिंग दी, तो हू-ब-हू प्रणव दा की दलीलें दोहरा दीं। मीरा कुमार ने भी 24 मई 1971 को स्पीकर जीएस ढिल्लन के फैसले की नजीर दी। यानी अगर सरकार संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर पा रही, तो ही कामरोको संभव। पर मीरा कुमार ने महंगाई को लेकर चिंता जताई। अब सवाल उठना लाजिमी। स्पीकर ने सिर्फ प्रणव दा की नजीर मानी, वासुदेव आचार्य की क्यों नहीं? पिछले छह साल में महंगाई पर संसद में तेरह बार बहस हो चुकी। नवंबर 2004 से ही मनमोहन और उनके सिपहसालार महंगाई रोकने का भरोसा दे रहे। फिर भी महंगाई दिन दूनी, रात चौगुनी बढ़ती गई। अब इतना सब कुछ होने के बाद भी महंगाई पर यही सूरत-ए-हाल, तो क्या यह विफलता नहीं? बत्तीस रुपए की दाल 85 रुपए हो गई। सोलह की चीनी तीस के पार चली गई। चालीस का तेल अस्सी के पार हो गया। तेरह का दूध बत्तीस रुपए लीटर हो गया। सेर में मिलने वाली सब्जियां अब सोने के भाव बिक रहीं। क्या यह सब मनमोहन सरकार की उपलब्धि? पर बात लोकसभा की, जहां स्पीकर ने कामरोको के खिलाफ रूलिंग दी। तो समूचा विपक्ष वैल में आ गया। एनडीए ने स्पीकर के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया। यानी मीरा कुमार के फैसले से पहली बार विपक्ष नाराज। पर सवाल, मीरा ने प्रणव दा की दलील का ही जिक्र क्यों किया? उदाहरण तो वासुदेव आचार्य ने भी दिए थे। माना, ढिल्लन ने कामरोको पर जो व्यवस्था दी, वह अबके नजीर बनी। तो दलील देने वाले यह क्यों भूल रहे, ढिल्लन ने स्पीकर रहते कभी अपनी निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठने दिए। आखिर सिर्फ मीठा-मीठा ही घप क्यों? पंडित नेहरू ने कहा था- स्पीकर का पद सम्मानित पद, सो वही व्यक्ति आसीन होने चाहिए, जो योग्य और निष्पक्ष हों। ब्रिटिश वास्तुकार हरबर्ट बेकर ने भी पद की गरिमा को देखते हुए सिंहासन का डिजाइन ऐसा बनाया। ताकि कोई भी मेंबर बोलने के लिए उठे, तो सीधे स्पीकर से मुखातिब हो। अपने यहां ब्रिटेन जैसी परंपरा तो नहीं, पर स्पीकर बनने के बाद दलगत राजनीति से अलग रहने की उम्मीद की जाती। पर इतिहास में दोनों तरह के उदाहरण। बलराम जाखड़ ने पद की मर्यादा को छोड़ बोफोर्स मामले के वक्त सरकार बचाने के लिए जेहादी उत्साह दिखाया। पर मावलंकर, नीलम संजीव रेड्डी, ढिल्लों, बलिराम भगत, के.एस. हेगड़े जैसे स्पीकरों ने परंपरा को मजबूत किया। हाल के दशक में पीए संगमा, जीएमसी बालयोगी, मनोहर जोशी और सोमनाथ चटर्जी तक ने मिसाल पेश की। यों चटर्जी पर भी खूब सवाल उठे। पर आखिर में उन ने भी अंतरात्मा की आवाज सुनी। सो स्पीकरों से यही उम्मीद की जाती, वह सत्ता की कठपुतली न बनें। अब कहीं स्पीकर मीरा कुमार से विपक्ष का टकराव न हो जाए। आखिर बुधवार को स्पीकर के खिलाफ ही तो विपक्ष वैल में कूदा।
----------
28/07/2010