Thursday, January 7, 2010

संघरुपेण संवाद, विश्वास, और सड़कों पर बीजेपी

इंडिया गेट से
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संघरुपेण संवाद, विश्वास,
और सड़कों पर बीजेपी
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 संतोष कुमार
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          बदली आबोहवा में बीजेपी नए सफर को निकल पड़ी। गढ़ के रक्षक गडकरी ने गुरुवार को पदाधिकारियों की पहली मीटिंग ली। तो मंच पर तिकड़ी नहीं, चौकड़ी बैठी। बीजेपी की सभी अहम मीटिंगों में पहले अध्यक्ष और दोनों सदनों के नेता बैठा करते थे। यों वाजपेयी के सक्रिय रहते मंच भी पर तिकड़ी यानी अटल-आडवाणी और अध्यक्ष बैठते थे। पर वाजपेयी सक्रिय नहीं रहे। तो राज्यसभा के नेता को भी मंच पर जगह मिल गई। तभी से जसवंत का ओहदा और बढ़ गया। अब आडवाणी खुद अटल की भूमिका में। पर दूसरी पीढ़ी अपना कद क्यों घटाए। सो मंच पर अब आडवाणी, सुषमा, जेतली और गडकरी की कुर्सी लगने लगी। पार्लियामेंट्री बोर्ड की मीटिंग वाले कमरे में भी संचालन साइड की तीन बड़ी कुर्सियां हटाकर चार छोटी कुर्सियां लगा दी गई। अब आप सोच रहे होंगे, कुर्सी का किस्सा क्यों? आपकी सोच सोलह आने सही। कोई कहीं भी बैठे, क्या फर्क पड़ता। पर बीजेपी में सारी लड़ाई तो कुर्सी की ही। तभी तो आडवाणी सन्यास को राजी नहीं। जसवंत को बतौर राज्यसभा नेता मंच पर जगह मिली। तो अरुण जेतली क्यों त्याग की मूर्ति बनें। भले कुर्सी की साइज ही घटानी क्यों न पड़ जाए। यों बताते जाएं। दिल्ली मैट्रो की ट्रेन में भी कुछ ऐसा ही हुआ। पहले ट्रेनों के डिब्बे आए। तो सीटें चौड़ी और स्टैंडिंग सीटें कम थीं। अब नए डिब्बे फिर जर्मनी से मंगाए गए। तो डिब्बा अत्याधुनिक हो गया। सीटों की साइज छोटी, पर स्टैंडिंग सीटें दुगुनी हो गईं। अब बीजेपी में सीटों का यह फार्मूला कहां से आया। मालूम नहीं। पर आप खुद ही देख लो। संसदीय मापदंडों में राज्यसभा उच्च सदन और लोकसभा निम्र। पर अहमियत में लोकसभा सर्वोपरि। लोकसभा के आधार पर ही सरकारें बनती-बिगड़ती। सो सिर्फ सुषमा स्वराज को मंच पर कुर्सी मिलती। तो जेतली शायद हजम नहीं कर पाते। सो आडवाणी ने कुर्सी का किस्सा सुलझाने को उम्दा फार्मूला अपनाया। फार्मूला बना- 'सबका भला हो। पर शुरुआत मुझ से हो।'  सो बीजेपी में अपनों का भला भी कराया। आडवाणी खुद भी वटवृक्ष हो गए। सो कुर्सी के खेल से गुजर चुकी बीजेपी को नए अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नया मंत्र दिया। राजनाथ वाली टीम की पहली मीटिंग ली। तो गडकरी ने संवाद पर जोर दिया। नई टीम तो राष्टï्रीय परिषद के अनुमोदन के बाद गठित होगी। गुरुवार को मीटिंग में अध्यक्ष के औपचारिक चुनाव और अनुमोदन की तारीख भी तय हो गई। फरवरी में वेलेंटाइन डे से पहले आठ, नौ, दस तारीख को अध्यक्ष का चुनाव। फिर 17 को इंदौर में एकदिनी वर्किंग कमेटी और 18-19 को परिषद की मीटिंग। उसके बाद जब गडकरी नई टीम बनाएंगे। तो उसमें अपनी छाप तो छोड़ेंगे ही। पर पुरानी टीम में नई ऊर्जा डालने की कोशिश गुरुवार को ही की। मीडिया के जरिए नेताओं के बीच होने वाले संवाद पर नसीहत दी। बोले- 'आपलोग परस्पर विश्वास कायम करें। आपसी विश्वास के साथ संगठन में नई आशा जगाएं। आपस में लोकतांत्रिक तरीके से संवाद स्थापित करें, फिर किसी कार्य को अंजाम दें।'  गडकरी कंक्रीट-पत्थर के काम से ही राजनीति में ऊपर उठे। सो उन ने पदाधिकारियों को संगठन की महत्ता भी उसी अंदाज में समझाई। कहा- 'इमारत तभी बुलंद रहती, जब नींव मजबूत हो। पार्टी की नींव संगठनात्मक ढांचा है, जिसे मिलजुल कर मजबूत करें।'  यानी गडकरी ने कबूल लिया, बीजेपी की नींव कमजोर हुई। खुद मोहन भागवत कई बार कह चुके। बीजेपी राख से भी उठ खड़ी होगी। तब वाकई बीजेपी का तांडव उसे राख की ओर ले जा रहा था। पर अब गडकरी ने कमान संभाली। सो संघ का तय एजंडा अब अमल में ला रहे। संवाद और आपसी विश्वास बहाली का तो मंत्र दिया ही। पदाधिकारियों को कंप्यूटर और एसी कमरों से बाहर निकल ज्यादा से ज्यादा प्रवास का फरमान सुना दिया। संघ 2004 से ही बीजेपी को पथ से भटका बता रहा। सत्ता में बैठकर धार कुंद हो गई। अब गडकरी महंगाई पर विरोध का पहला बगुल फूंकेंगे। अ_ïारह जनवरी से मार्च के दूसरे हफ्ते तक तीन फेज में आंदोलन होगा। पर आंदोलन सिर्फ महंगाई नहीं, गडकरी की रहनुमाई में जोश का भी द्योतक होगा। अब आंदोलन पहले की तरह फुसफुसा और टोकन का विरोध साबित होगा। या विपक्ष सही में गंभीर हुआ, इसकी झलक तो तभी दिखेगी। फिलहाल तो संघरुपेण गडकरी अपने मिशन की ओर बढ़ रहे। बीजेपी को एसी कमरों से निकाल सड़कों पर उतार रहे। पर क्या वाकई बीजेपी अपने पुराने तेवरों में लौट पाएगी? आखिर आम जनता कैसे भरोसा करेगी? जब बीजेपी बनी थी। तो महीने भर बाद छह मई 1980 को पंचनिष्ठïाएं व्यक्त की थी। राष्टï्रवाद, लोकतंत्र, प्रभावकारी धर्मनिरपेक्षता, गांधीवादी समाजवाद और सिद्धांतपरक साफ-सुथरी राजनीति। पर जैसे-जैसे बीजेपी का ग्राफ बढ़ा। बीजेपी सत्ता तक पहुंची। तो बीजेपी को डंडा-झंडा वही रहा। पर एजंडा बदल गया। एनडीए सरकार बनने के बाद 28-30 दिसंबर 1999 को चेन्नई में परिषद हुई थी। आडवाणी ने एक ड्रफ्ट जारी किया, जिसे चेन्नई घोषणापत्र कहा गया। जिसमें कहा गया था- हर कार्यकर्ताओं को अच्छी तरह समझना चाहिए कि राजग के एजंडे के सिवा पार्टी का अपना कोई एजंडा नहीं है। यानी राम मंदिर समेत सभी विवादित मुद्दे किनारे। सो संघरुपेण गड़करी फार्मूला कितना चलेगा, यह तो वक्त ही बताएगा।
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07/01/2010