Tuesday, January 11, 2011

...सुना है महंगाई पर फिर मीटिंग हुई थी!

सुना है कि महंगाई पर फिर मीटिंग हुई थी। बुधवार को फिर मीटिंग होगी। सो आम आदमी उम्मीद की डोर न छोड़े। मीटिंग कोई ऐरे-गैरे नत्थूखैरे ने नहीं, अलबत्ता खुद पीएम मनमोहन ने ली। अपने मनमोहन ने कांग्रेस अधिवेशन में खम ठोककर कहा था- महंगाई दर मार्च तक साढ़े पांच फीसदी तक ले आएंगे। पर पीएम के दावे का उल्टा असर हुआ। महंगाई दर 18.32 फीसदी के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई। सो बेकाबू महंगाई पर काबू करने की नौटंकी दिखाने का सिलसिला शुरू हो गया। पी. चिदंबरम तो पहले ही कह चुके- महंगाई पर काबू पाना सरकार के बूते में नहीं। लोगों की बढ़ी आमदनी महंगाई ही खा रही। अब केबिनेट मंत्री ने जब सच कबूल लिया। तो पीएम के घर मीटिंग का क्या मतलब? आखिर कितनी मीटिंग के बाद महंगाई कम होगी? मनमोहन ने 22 मई 2004 को पीएम पद की शपथ ली। तो अर्थव्यवस्था ने सलामी दी। लोगों की उम्मीद जगी, नई आर्थिक नीति के जनक, देश में खुशहाली भर देंगे। पर महज छह महीने के भीतर ही महंगाई ने अर्थशास्त्री पीएम की पोलपट्टी खोल दी। नवंबर 2004 से महंगाई ने जो रफ्तार भरी, आज तक रुकने का नाम नहीं। अगर कांग्रेस ने तभी अपने सिर पर सत्ता का नशा न चढऩे दिया होता, तो शायद महंगाई बेलगाम न होती। विपक्ष ने महंगाई पर तभी प्रदर्शन किया था। एसपीजी के सुरक्षा घेरे में खुद पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने गिरफ्तारी दी थी। पर तब भी कांग्रेस ने बेशर्मी दिखाई। चार दिसंबर 2004 को कांग्रेस ने तो यहां तक कह दिया- महंगाई नहीं बढ़ रही। फिर एक झूठ को छुपाने के लिए सौ झूठ की कहावत चरितार्थ कर दी। शुरुआती दौर में कांग्रेस ने बढ़ती महंगाई को राजग सरकार से मिली विरासत बताया। तो कभी बीजिंग ओलंपिक की तैयारियों के सर ठीकरा फोड़ा। कभी राज्यों की नाकामी, तो कभी कुछ कारण गिनाए। बात सिर्फ कारण तक ही सीमित होती, तो आम आदमी कराह कर बैठ जाता। पर बढ़ती महंगाई ने मनमोहन के मंत्रियों का दिमागी संतुलन ऐसा बिगाड़ा, किसी ने कुत्ते का बिस्किट खाने की सलाह दे दी। जिसे चिदंबरम ने बजट में सस्ता कर दिया था। किसी ने जादुई छड़ी न होने के खीझ भरे बयान दिए। रही-सही कसर तो शरद पवार निकालते ही रहते। सो संसद से सडक़ तक महंगाई पर नेताओं ने खूब गाल बजाए। पर सरकार महंगाई का बाल बांका न कर सकी। संसद में अब तक दर्जनों बार बहस हो चुकी। पर आखिर में निचोड़- हरि अनंत, हरि कथा अनंता ही निकला। कभी सीसीपी, तो कभी कांग्रेस कोर ग्रुप की मीटिंग होती रहीं। पर मार्केट में बैठे चोर ग्रुप की हमेशा चांदी रही। शरद पवार ने दूध, चीनी, चावल, आटा, जिसका नाम लिया, वही अगले दिन महंगा हो गया। सो किससे उम्मीद करे आम आदमी? शरद पवार से महंगाई पर सवाल पूछ लो। तो कह देंगे- मैं कोई ज्योतिषी नहीं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया से पूछ लो। तो कह देंगे- गांव वाले पेटू हो चुके, सो महंगाई बढ़ी। प्रणव दा चार अगस्त को संसद में कबूल चुके- वाजपेयी राज के छह साल कीमतें काबू में रहीं। पर दलील दी- तब विकास दर, निवेश दर और निर्यात दर नहीं बढ़ीं। अब यूपीए राज में विकास दर बढ़ी, सो महंगाई बढ़ी। लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी। यानी सरकार ने भरी संसद में इशारा कर दिया- महंगाई में जीने की आदत डाल लो। प्रणव दा ने तो प्रवचन के अंदाज में यहां तक कह दिया- अपने बजाए आने वाली पीढ़ी के बारे में सोचें। यानी अगर आज पेट्रोल-डीजल महंगा हो रहा। तो आने वाली पीढ़ी के लिए भी शेष बचेगा और बढ़ी विकास दर से सबका विकास होगा। पर कोई पूछे- अगर इस विकास दर से देश के करीबन सवा-एक सौ अरब-खरबपति बाहर कर दो, तो विकास की दर क्या होगी? आखिर यह कैसा विकास, जो आम आदमी को भूखा मार रहा। खुद सोनिया गांधी मान चुकीं, विकास से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। तो क्या कांग्रेस राज में सिर्फ राजाओं, कलमाडिय़ों का विकास हुआ? अगर कांग्रेस ऐसा मान रही, तो आम आदमी की फिक्र क्यों नहीं? संसद में वेतन-भत्ते बढऩे की बात हो। तो राजनीतिक एका का अद्भुत नजारा दिखेगा। पर महंगाई के इस दौर में संसद की केंटीन का रेट थोड़ा क्या बढ़ गया। एक रुपए में पांच रोटी तोडऩे वाले सांसदों को बदहजमी होने लगी। सो अब न संसद के पास जवाब, न सरकार के पास। मंगलवार को युवाओं के बीच यूपी पहुंचे राहुल गांधी से तमाम ज्वलंत मुद्दों पर सवाल हुए। तो जवाब में रटंत विद्या ही दिखी। सो बाहर छात्रों में जबर्दस्त रोष दिखा। दलील- जब सीधा जवाब नहीं देना था, तो आए क्यों? पर यह कोई हैरानी में डालने वाली भावना नहीं। मंगलवार को पीएम के घर महंगाई पर डेढ़ घंटे की मीटिंग बेनतीजा रही। तो इंटरनेट पर सरकार के खिलाफ ऐसी-ऐसी गालियां, जिन्हें लिखना भी मुनासिब नहीं। अब फिर मीटिंग होगी। पर मंगलवार की मीटिंग के बीच ही प्रणव मुखर्जी और शरद पवार दूसरे काम के लिए निकल गए। सो सरकार की गंभीरता सबके सामने। प्रणव ने उद्योगपतियों के साथ मीटिंग को तरजीह दी। पर सवाल- जब देश के पीएम ने महंगाई पर डेढ़ घंटे मीटिंग ली। तो भी कोई नतीजा नहीं निकला। पर मनमोहन के सहयोगी रहे ए. राजा ने तो महज 45 मिनट में स्पेक्ट्रम का ऐसा खेल कर दिया। देश एक नील 76 खरब रुपए की गिनती में ही उलझ गया। यानी आम आदमी की बात हो, तो डेढ़ घंटे क्या, छह साल में मनमोहन कुछ नहीं कर सके। पर भ्रष्टाचार करने में सरकार के मंत्रियों ने कुछ पल में सब निपटा दिया। अब महंगाई पर सिर्फ चिंता होगी। कुछ दिन बाद फिर महंगाई बढ़ाकर चिंता जताएंगे। यह खेल तब तक चलेगा, जब तक आम आदमी की चिता न सज जाए।
---------
11/01/2011