Friday, May 7, 2010

तो पक्ष-विपक्ष फील गुड में, ठगा सा आम आदमी

अब जाति पूछो साधु की। तो राजनीतिक दबाव में कबीरवाणी पलटेगी। बजट सत्र के आखिरी दिन विपक्षी दबाव असर दिखा गया। जनगणना में जाति शामिल करने की मांग पर पी. चिदंबरम ने टालू रवैया अपनाया। तो हंगामा मच गया। आखिर सोनिया-प्रणव ने लालू-शरद-मुलायम से गुफ्तगू की। फिर पीएम ने भरोसा दे ही दिया। जातीय जनगणना पर केबिनेट में जल्द फैसला करेंगे। पर सुषमा स्वराज का दावा, अब जनगणना में जाति का कॉलम शामिल होगा। सो बजट सत्र का समापन शांतिपूर्ण माहौल में हुआ। पर बजट सत्र ने कई मायनों में इतिहास रचा। राज्यसभा में महिला बिल पास हुआ। तो सात बवाली सांसदों ने मर्यादा ताक पर रख दी। मार्शल का इस्तेमाल भी इसी सत्र की गौरवगाथा में लिखा जाएगा। संसद कैसे चुनावी अखाड़ा बन चुका, इसकी मिसाल तो माननीयों ने कई बार दी। राज्यसभा में अरुण जेतली पर मणिशंकर अय्यर की अभद्र टिप्पणी। लोकसभा में सुदीप बंदोपाध्याय और वासुदेव आचार्य के बीच हुआ संवाद। फिर अनंत कुमार बनाम लालू की भिड़ंत। सबका निचोड़ आखिर में यही निकला। किसी ने माफी मांगी, तो किसी ने खेद जताया। शक्तियों से लैस संसद वैसे ही असहाय दिखी, जैसे गांव में चौक-चौराहे पर बैठा बुजुर्ग। आसंदी ने भी कोई ठोस फैसला नहीं लिया। सो सांसदों ने संसद को बपौती मान लिया। पर शुक्रवार को आखिरी दिन स्पीकर मीरा कुमार की व्यथा जुबां पर आ ही गई। सदन में बेवजह हंगामे में बीते पल-पल का ब्यौरा दिया। लगे हाथ नसीहत, अगर ऐसा ही चलता रहा, तो नहीं बचेगा संसदीय लोकतंत्र। सांसदों को सोचना होगा, कैसे छवि सुधारें, क्योंकि मीडिया और जनमानस में सांसदों की छवि खराब हो रही। अब मीरा की व्यथा जायज। पर क्या ऐसा कहने वाली वह पहली स्पीकर? सोमनाथ चटर्जी हों या मनोहर जोशी या जीएमसी बालयोगी या पीए संगमा। सबने गाहे-ब-गाहे सांसदों के हंगामे पर चिंता जताई। पर सिर्फ चेहरे बदलते रहे, सांसदों का चरित्र नहीं बदला। आखिर कैसे बदलेगा। आप गुरुवार का किस्सा लो। सुषमा स्वराज ने बतौर नेता अनंत कुमार की असंसदी टिप्पणी पर बिना इफ एंड बट के माफी मांगी। पर पता है, बीजेपी के वरिष्ठ महासचिव, नीति नियंता संसदीय बोर्ड के कर्ता-धर्ता माननीय अनंत कुमार ने बाद में क्या कहा। अनंत बोले- सुषमा ने मेरा नाम लेकर माफी नहीं मांगी। सो 543 सांसदों में कोई भी हो सकता है। अब बीजेपी की अनंत कथा को क्या कहेंगे। सुषमा स्वराज का माफीनामा क्या अनंत में सुधार ला पाया? अनंत को तो यह भी पता नहीं चला, जुबां से क्या असंसदीय शब्द निकल गया। पर शुक्रवार को जब सुषमा से पूछा गया, अबके संसद में मर्यादा तोड़ू प्रकरण खूब हुए। तो सुषमा बोलीं- भले कहीं भी पार्टी नेता कुछ बोल जाएं। पर कम से कम संसद में वाणी पर संयम होना चाहिए। पर संसदीय फोरम अब बहस के लिए नहीं रह गया। अलबत्ता राजनीतिक दल सुविधा के मुताबिक नैतिकता का मापदंड तय कर रहे। हूटिंग-शूटिंग, गाली-गलौज मानो सांसदों के स्वभाव में जुड़ गया हो। राजनीतिक दल अब विरोधी नहीं, शत्रु की भांति आपस में लडऩे लगे। राजनीतिक कटुता का एक अद्भुत नमूना पिछली लोकसभा में दिखा था। लालकृष्ण आडवाणी आतंकवादी हमले पर बोल रहे थे। तो उन ने कोयंबटूर विस्फोट का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि अगर टीवी इंटरव्यू में लेट न हुए होते, तो शायद वह भी आतंक के शिकार हो गए होते। तभी सत्ताधारी बैंच से बैठे-बैठे एक सांसद ने टिप्पणी कर दी- अच्छा होता, अगर लेट न हुए होते। तबके स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने टिप्पणी सुन ली। सो चुनौती दी- हिम्मत है, तो खड़े होकर बोलो। अब तो आए दिन गुस्से में एक दल के सांसद दूसरे दल के सांसद पर कभी मुक्का तान देते, तो कभी मां-बहन की गाली दे देते। सो कब सुधरेंगे अपने माननीय, यह तो वही जानें। पर बजट सत्र में कौन जीता, कौन हारा और किसकी टांय-टांय फिस्स हुई, यह आप खुद देख लो। बजट सत्र की शुरुआत महंगाई के मुद्दे से हुई। दूसरे चरण में बीजेपी ने लाखों लोगों की रैली की। लेफ्ट की रहनुमाई में तेरह दलों ने भारत बंद किया। पर महंगाई का क्या बिगड़ा। आईपीएल पर संसद कई दिन ठप रहा। पर नतीजा क्या निकला। अब बीजेपी शशि थरूर की बलि को जीत बता रही। पर शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल के इस्तीफे पर अब भी खामोश। आईपीएल और टेलीफोन टेपिंग पर जेपीसी की मांग पीएम ने ठुकरा दी। फिर भी बीजेपी यही कह रही- हमने संसद में नियमों की हर विधा का इस्तेमाल कर सरकार को कटघरे में खड़ा किया। पहली बार कटौती प्रस्ताव लेकर आए। आईपीएल पर थरूर का इस्तीफा कराया। जातीय जनगणना पर पीएम से वादा लिया। परमाणुवीय नुकसान के लिए सिविल दायित्व बिल का विरोध किया। अब कोई पूछे, महंगाई हो या आईपीएल या टेपिंग या सिविल दायित्व बिल, आखिर किसकी चली। सरकार ने जो चाहा, कर लिया। अगर विपक्ष रार ठान लेता, महंगाई पर कदम उठाए बिना वित्तीय कामकाज नहीं होने देंगे। तो शायद सरकार हरकत में आती। पर विपक्ष ने हर काम में साथ दिया। शुक्रवार को सिविल दायित्व बिल तभी पेश हो सका, जब बीजेपी-लेफ्ट वाकऑउट कर गए। बीजेपी ने वोटिंग की मांग नहीं की। अब यह विपक्ष और सत्तापक्ष की जुगलबंदी नहीं तो क्या? सत्तापक्ष बजट सत्र को अपनी जीत बता रहा, विपक्ष अपनी। यानी बजट सत्र से फील गुड में पक्ष और विपक्ष। पर ठगा सा रह गया, सिर्फ आम आदमी।
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07/05/2010