Monday, May 31, 2010

तो हारे हुए 'सिपाही' अब 'जनरल' को सिखाएंगे पाठ

जूते और प्याज खाने वाली कहावत चरितार्थ कर भी बीजेपी झारखंड की कुर्सी का मोह नहीं छोड़ पा रही। यों पिता तुल्य आडवाणी ने अबके खम ठोक दिया। अब तक की फजीहत देख सरकार बनाने की पहल को हरी झंडी नहीं दे रहे। सो छुट्टी मनाकर लौटे गडकरी की मुसीबत बढ़ गई। अब तो अठारह में से सोलह एमएलए ने दबाव बना दिया। झारखंड बीजेपी बगावत के कगार पर खड़ी हो गई। सो सोमवार को बीजेपी ने न राष्ट्रपति राज की हिमायत की, न खारिज किया। अलबत्ता बयान देखिए- 'हम कांग्रेस की गतिविधि पर निगाह बनाए हुए।' अब कोई पूछे, जब आपने समर्थन वापस ले लिया। कांग्रेस सरकार बनाने से इनकार कर चुकी। तो क्या स्वर्गलोक से इंद्र आएंगे झारखंड संभालने? अब बीजेपी का नया खेल देखिए। जैसे ही राष्ट्रपति राज की ओर मामला बढ़ता दिखा। तो शिबू को समझाने में जुट गई। अब बीजेपी शिबू के सभी एमएलए की चिट्ठी मांग रही। सो सोमवार को गवर्नर फारुक ने केंद्र को रपट भेजने से पहले की रस्म निभाई। तो बीजेपी के रघुवर दास ने मंगलवार तक का वक्त मांग लिया। यानी तब तक शिबू मान गए, तो ठीक। वरना आखिर में बीजेपी कहेगी, हर-हर गंगे। पर बात बन गई, तो बीजेपी की स्क्रिप्ट भी तैयार। बानगी आप भी देखिए- हम झारखंड की जनता को चुनी हुई सरकार देना चाहते, राष्ट्रपति राज नहीं। सो झामुमो बिना शर्त समर्थन देने को राजी हुआ, तो हमने 'जनहित' में फैसला वापस लिया। अब सचमुच ऐसा हुआ, तो राजनीति पर लागू सभी कहावतों की सीमा पार हो जाएगी। पर राजनीति से और कैसी उम्मीद। अब झारखंड में महीने-डेढ़ महीने से बीजेपी-झामुमो जो चरित्र दिखा रहीं, उसे भी 'जनहित' बता रहीं। पर झारखंड में जनहित कर बीजेपी अब अपने सभी राज्यों में जन-जन का दिल जीतेगी। बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन पांच-छह जून को मुंबई में होगा। गुड गवर्नेंस ही सम्मेलन का एजंडा। सो शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, कृषि, महिला-बाल कल्याण, समाज कल्याण, जल-वन पर्यावरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर, ग्रामीण विकास, पंचायती राज और शहरी प्रबंधन पर विशेष प्रस्तुतीकरण होगा। फिर राज्यों के विशेष प्रोग्राम को आगे बढ़ाने और बीजेपी के अन्य राज्यों में भी लागू करने पर विचार होगा। यानी गडकरी ने अध्यक्षी संभालते ही जो एलान किया, उसकी पहली शुरुआत होगी। राजनीति को समाज से जोडऩे की कवायद गडकरी का एजंडा। सो संघ की सलाह को अंजाम देते हुए गडकरी ने तय कर दिया, अब बीजेपी में किसी व्यक्ति का मॉडल नहीं होगा। अलबत्ता पार्टी के मॉडल चलेगी सरकार। अब तक आडवाणी-राजनाथ सरीखे नेता बाकी मुख्यमंत्रियों को नरेंद्र मोदी मॉडल की घुट्टी पिलाते रहे। गुजरात चुनाव के बाद जब राजनाथ ने दिल्ली कार्यकारिणी में मोदी मॉडल की पैरवी की। तो तबके बीजेपी के सभी सीएम न सिर्फ खफा हुए, अलबत्ता अपनी नाराजगी का इजहार सार्वजनिक तौर से किया। यानी कोई सीएम खुद को कमतर न समझे, सो अब हर जगह बीजेपी मॉडल होगा। पर कहीं मोदी नाराज न हों, सो मुंबई की मीटिंग में उद्घाटन के बाद की-नोट भाषण नरेंद्र मोदी का ही होगा। सीएम कांफ्रेंस में बीजेपी चार्टर पेश करेगी। पर कमजोरियों को छुपाएगी। अब गडकरी की बीजेपी सीएम कांफ्रेंस को अपनी बड़ी शुरुआत के तौर पर पेश कर रहे। पर वेंकैया नायडू के अध्यक्ष रहते ऐसा सम्मेलन दिल्ली के अशोका होटल में हो चुका। तब भी गुड गवर्नेंस की बात हुई थी। सत्ता-संगठन के तालमेल की बात हुई थी। पर तबसे अब तक बीजेपी दो लोकसभा चुनाव हार चुकी। कुछ राज्य भी गंवाए। पर अब तक न सुर मिला, न ताल। अपने राजस्थान में बीजेपी ने 2008 के चुनाव में पटखनी खाई। तो आडवाणी हों या बाकी निचले स्तर के नेता, सबने समन्वय की कमी पर ठीकरा फोड़ा। पर अबके गडकरी ने एजंडे में फिर सत्ता और संगठन में तालमेल का विषय रखा। तो जरा गडकरी के परफोर्मेंस ऑडिट फार्मूले का पैमाना देखिए। बीजेपी के सीएम कौन-कौन, पहले यह देख लें। गुजरात में नरेंद्र मोदी तीसरी बार सीएम। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान दूसरी बार। छत्तीसगढ़ में रमन सिंह दूसरी बार। हिमाचल में प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार। कर्नाटक में येदुरप्पा दूसरी बार। उत्तराखंड में निशंक पहली बार। तो पंजाब-बिहार में सरकार के नेता भी बेहद अनुभवी। अब जरा देखो, इन लोगों को सत्ता-संगठन में तालमेल का पाठ कौन पढ़ाएंगे। महासचिव धर्मेंद्र प्रधान, उड़ीसा से खुद तो चुनाव हारे ही, अब पार्टी भी ढूंढे नहीं मिल रही। हर्षवर्धन, दिल्ली बीजेपी का बंटाधार उनके अध्यक्ष रहते हुआ। संघ के नुमाइंदे के तौर पर रामलाल होंगे, जो अब तक संजय जोशी जैसा करिश्मा नहीं दिखा पाए। गोपीनाथ मुंडे, जिन ने जातीय जनगणना पर पार्टी में पेच फंसाया। मुंबई में एक जिला अध्यक्ष को लेकर नितिन गडकरी से जंग छेड़ी। बीजेपी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था। आखिर तब महाराष्ट्र बीजेपी के अध्यक्ष गडकरी को हार माननी पड़ी थी। बी.सी. खंडूरी, जिन ने सीएम पद से हटाए जाने को लेकर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया था। तो क्या अब मोदी, चौहान, रमन, येदुरप्पा, धूमल, निशंक जैसे जनरलों को हारे हुए सिपाहियों से 'सुशासन' और 'तालमेल' का पाठ पढऩा होगा? वैसे भी 2009 में बीजेपी में जो हारा, वही सिकंदर बना। सो 2010 में यह कुछ नया नहीं।
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31/05/2010

Friday, May 28, 2010

नक्सली बढ़ते जा रहे, सरकार भाग रही!

क्या नक्सलवाद पर सख्ती के लिए भी किसी 26/11 का इंतजार? आतंकवाद पर ईमानदार राजनीतिक एकता तो सिर्फ तभी दिखी थी। आनन-फानन में सरकार पोटा के रद्द कुछ प्रावधान यूएपीए कानून में वापस लाई। समूचे खुफिया तंत्र की सर्जरी हुई। एनआईए-मैक बना, अधिकारियों की जिम्मेदारी तय हुई। सो पुणे जर्मन बेकरी विस्फोट को छोड़ डेढ़ साल में कोई अन्य आतंकी वारदात नहीं हुई। पर 26/11 से पहले ऐसा कौन सा आतंकी हमला नहीं, जिस पर 24 घंटे के भीतर वोट बैंक की राजनीति न शुरू हुई हो। मनमोहन सरकार के 22 जुलाई के विश्वास मत के बाद जब बेंगलुरु-अहमदाबाद में 25-26 जुलाई 2008 को सीरियल बम धमाके हुए। तो याद है, बीजेपी की वरिष्ठ नेत्री सुषमा स्वराज ने क्या कहा था। उन ने खम ठोककर भाजपा शासित दोनों राज्यों में हुए धमाकों के पीछे मनमोहन सरकार का हाथ बता दिया था। फिर कूटनीति के हिसाब से सुषमा का बयान कटघरे में खड़ा हुआ। तो बीजेपी ने निजी राय बता पल्ला झाड़ लिया था। आतंकवाद पर सियासत के उदाहरण तो कई, पर यह उदाहरण वोट बैंक की सियासत की इंतिहा थी। आतंकवाद पर पहले तो ऐसी ओछी सियासत न हुई होगी, पर भविष्य का पता नहीं। राजनीति का स्तर तो ग्राउंड वाटर जैसा हो गया, जिसका स्तर लगातार घटता ही जा रहा। सो गिरी हुई राजनीति से नक्सलवाद से निपटने की क्या उम्मीद? नक्सली अब आए दिन हमला कर रहे। छह अप्रैल को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवान मार गिराए। फिर बस में विस्फोट कर आम मुसाफिर समेत 31 लोग मार गिराए। बीच में कई छिटपुट वारदातों को अंजाम दिया। अब शुक्रवार को शुरू हुए डेढ़ घंटे ही बीते थे, पश्चिमी मिदनापुर के झारग्राम में रेल पटरी को निशाना बनाया। विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी। सो हावड़ा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 13 डिब्बे पटरी से उतर गए। तभी विपरीत दिशा से आ रही मालगाड़ी ने टक्कर मार दी। सो गरीब 70 लोग मारे गए, 200 से भी अधिक घायल हो गए। शुरूआती जांच में ही साफ हो गया, नक्सलवादियों का संगठन पीसीपीए जिम्मेदार। पीसीपीए ने मौके पर पोस्टर भी छोड़े, जिनमें जिम्मेदारी कबूली। पोस्टर में लिखा- हमने पहले मांग की थी कि जंगल महाल से संयुक्त सुरक्षा बलों को वापस बुलाया जाए और माकपा के अत्याचारों को खत्म किया जाए। लेकिन इन मांगों को पूरा नहीं किया गया। अब सुरक्षा बलों को फौरन वापस बुलाओ। यानी नक्सलियों का यह कोई आखिरी हमला नहीं। पुलिस उत्पीडऩ के खिलाफ नक्सली काला सप्ताह मना रहे। सो आगे क्या होगा, यह समझना मुश्किल नहीं। पीसीपीए ने ही पिछले साल 27 अक्टूबर को इसी झारग्राम में कंधार दोहराने की कोशिश की थी। जब भुवनेश्वर- नई दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस को बंधक बना लिया। बदले में जेल में बंद नक्सली नेता छत्रधर महतो की रिहाई की शर्त रखी थी। पर तब गनीमत यह रही, मुसाफिरों को कंधार प्लेन हाईजैक जैसी परेशानी नहीं उठानी पड़ी थी। अलबत्ता नक्सलियों ने आम नागरिक की सहानुभूति हासिल करने के मकसद से मुसाफिरों को ढांढस बंधाया। पर अबके पीसीपीए की मंशा धरी रह गई। नक्सली अपने काला सप्ताह के प्रति सरकार का ध्यान खींचना चाह रहे थे। पर मालगाड़ी की टक्कर ने नक्सलियों को मुश्किल में डाल दिया। आखिर शुक्रवार को ट्रेन में मारे गए और घायल हुए मुसाफिरों के दोषी नक्सली ही। सो नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए अब जनदबाव बढ़ेगा। सचमुच नक्सलियों ने आतंकवाद का रुख अपना लिया। अब तो लश्कर से संबंध की खुफिया रपट भी आने लगी। पर अपनी सरकार कब तक बहस में उलझी रहेगी? आखिर नक्सलवाद पर अब भी सख्ती नहीं होगी, तो कब होगी। सरकार और कांग्रेस में कब तक मल्ल युद्ध चलेगा। हर नक्सली हमले के बाद दिग्विजय सिंह का वही राग। पर दिग्विजय से सवाल, जब छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का पार्ट था, तब दिग्विजय पूरे दस साल सीएम रहे। तब विकास को आदिवासी इलाके तक क्यों नहीं पहुंचाया? तब दिग्विजय को चुनाव जीतने के लिए विकास जरूरी नहीं लगता था। अलबत्ता चुनाव के वक्त दलील दी थी, विकास से चुनाव जीते जाते, तो बिहार में लालू-राबड़ी राज न होता। पर क्या हुआ, सबको मालूम। नक्सलवाद पर चिदंबरम ने साहस दिखाया। पर सोनिया गांधी तक ने साथ नहीं दिया। सो चिदंबरम ने लाचारी जता दी। अब शुक्रवार को ताजा वारदात हुई। तो भी सरकार में जबर्दस्त ऊहापोह दिखा। ममता ने बम विस्फोट की बात कही। तो चिदंबरम-प्रणव ने इनकार किया। यानी अब भी सरकार में एक सुर नहीं। अपने मनमोहन तो राष्ट्रीय प्रेस कांफ्रेंस में बड़ी चतुराई से निकल गए। पर देश की व्यवस्था को बंदूक से लहूलुहान करने वालों से नरमी क्यों? शुक्रवार को तो भारत-पाक दोनों अपनों की बंदूक से लहूलुहान दिखे। अपने यहां नक्सलियों ने, तो लाहौर में पाक के पोसे आतंकियों ने मस्जिद में घुसकर आतंक मचाया। पर यहां बात सिर्फ अपनी। नक्सलवाद पर इतना सब कुछ हो रहा। पर अभी भी रुख स्पष्ट नहीं। सरकार, कांग्रेस और दिग्विजय जैसे बुद्धिजीवी भी ऊहापोह में। कोई ऐसा नेता नहीं दिख रहा, जो सीधी लाइन तय करे। अलबत्ता शुक्रवार की घटना के बाद रेलवे में नक्सली बैल्ट में रात को ट्रेन नहीं चलाने पर विचार हो रहा। यानी नक्सलियों के हौसले बढ़ते जा रहे और अपनी सरकार भाग रही। सोचो, अगर नक्सली दिल्ली आ गए, तो..। ---------
28/05/2010

Wednesday, May 26, 2010

तो अकेला चना भी फोड़ सकता है भाड़

यों तो आईआईटी के नतीजे हर साल घोषित होते। लाखों छात्र-छात्राएं इस दिन का बेसब्री से इंतजार करते। पर सफलता महज कुछ को मिल पाती। सो कुछ का मायूस होना और कुछ का खुश होना लाजिमी। पर सुपर-30 के सभी छात्र आईआईटी में अबके भी सफल रहे। लगातार तीसरी बार सुपर-30 के सभी छात्र सफल हुए। अब तक सुपर-30 संस्था से 212 छात्र आईआईटी में सफल हो चुके। पर सुपर-30 के पैदा होने से अब तक की कहानी जितनी दिलचस्प, अपनी व्यवस्था और समाज को उतना ही बड़ा तमाचा। सुपर-30 के संस्थापक आनंद ने 2002 में इसकी शुरुआत की। तो मकसद साफ रखा, सबसे गरीब और प्रतिभाशाली छात्र को मौका देंगे। सो तबसे अब तक आनंद का सफल सफर जारी। पर आनंद की जिजीविषा ही कहेंगे, जिन ने मौके से हार नहीं मानी। अलबत्ता अपनी हार से प्रेरणा लेकर गरीबी को चुनौती दी। प्रतिस्पर्धा के इस युग में कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह हर रोज पैदा हो रहे। जहां इश्तिहारों, प्रचार की आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल कर सपने खूब दिखाए जाते। कोचिंग संस्थान शिक्षा से अधिक व्यवसायीकरण पर फोकस करते। सो इन कोचिंगों में धनाढ्य घरों के बच्चे दाखिला लेते। गरीब घर का बच्चा दूर से ही इन कोचिंग संस्थानों के इश्तिहार देखता। अब आईआईटी के नतीजे आए, तो आप खुद देखना, कैसे कुछ संस्थान बड़े-बड़े इश्तिहार छपवाएंगे। कोई एक-दूसरे से खुद को कमतर नहीं बताएगा। अलबत्ता छात्रों के फोटो छाप क्रेडिट लेंगे। याद होगा, हरियाणा का एक छात्र नितिन एक साथ आईआईटी और मेडिकल में भी अव्वल आया। तो संस्थानों में नितिन को अपना बताने की होड़ मच गई। पर क्या सुपर-30 को कभी ऐसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बनते देखा? आनंद जैसे लोग विरले ही मिलते। आनंद की कहानी वाकई प्रेरणादायी। गरीब परिवार के आनंद कुमार गणित में बेहद प्रतिभाशाली। शायद 1998 की बात होगी। आनंद की प्रतिभा को देख कैंब्रिज यूनिवर्सिटी ने मौका दिया। पर छात्रवृत्ति के बाद भी करीब 55 हजार रुपए का प्राथमिक शुल्क अदा करना जरूरी था। आनंद इतने गरीब परिवार से ताल्लुक रखते थे कि वह राशि भी नहीं जुटा सके। सो आनंद मौके से वंचित रह गए। पर आनंद ने हिम्मत नहीं हारी। जो खुद पर बीती, वह किसी और गरीब प्रतिभाशाली छात्र पर न बीते। सो उन ने ऐसी शुरुआत की, जिसकी उम्मीद आज के समाज और अपनी राजनीतिक व्यवस्था से नहीं की जा सकती। किसी भी क्रांति की शुरुआत की पहली शर्त समर्पण और खुद पर भरोसा होता है। पर अपनी व्यवस्था में इतना घुन लग चुका, समाज भी अछूता नहीं रहा। हर आदमी अब यही सोचता, मैं अकेला क्या करूंगा। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। पर आनंद जैसी शख्सियत ने बता दिया, गर आपमें गिरकर उठने का जज्बा हो। हार से सीखने का हुनर हो। मन में दृढ़ संकल्प हो। तो अकेला चना भी भाड़ फोड़ सकता है। अगर आप ताजा हालात को ही देखो, तो देश में समस्याओं का अंबार। पर कहीं से कोई क्रांति होती नहीं दिख रही। महंगाई बढ़ी, तो दो-चार लोग चौक-चौराहे, बस-ट्रेनों में बैठकर सरकार के खिलाफ खीझ निकालेंगे। फिर गंतव्य पर उतर अपने-अपने काम में व्यस्त। सोचो, महात्मा गांधी ने भी ऐसा सोचा होता, तो क्या अपना देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो पाता? क्या आनंद कुमार ने कैंब्रिज का मौका चूकने के बाद हार मान ली होती। तो क्या सुपर-30 बनता? क्या अब तक आनंद के सहारे 212 गरीब परिवारों की किस्मत बदलती? आनंद गरीब प्रतिभाशाली छात्रों को चुनते। आईआईटी की तैयारी कराते और रहने-खाने का बंदोबस्त भी। इतना ही नहीं, सफल छात्रों के लिए शिक्षा ऋण की व्यवस्था का भी प्रयास करते। अब बुधवार को सुपर-30 के सभी छात्र सफल हुए। तो उसमें एक नालंदा का शुभम कुमार भी था। जिसका पिता एक गरीब किसान और मासिक आमदनी महज ढाई हजार रुपए। क्या यही है अपने देश की विकास दर? दिल्ली में जब-जब शीला दीक्षित ने कीमतें बढ़ाईं। दलील यही, लोगों की आमदनी बढ़ी। क्या वेतन आयोग लागू कर सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाना ही समूचे देश का पैमाना हो गया? असली विकास की तस्वीर तो शुभम जैसे गरीब बच्चे के परिवार से दिखती। पर वहां तक पहुंचेगा कौन? बिहार, जिसका नाम आते ही देश के बाकी राज्यों के लोग नाक-भौं सिकोड़ते। पर उसी बिहार में आनंद कुमार ने ऐसा कर दिखाया। अब तक 23 डॉक्यूमेंट्री फिल्म बन चुकीं। डिस्कवरी ने एक घंटे की विशेष फिल्म बनाई। विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम मैगजीन ने सुपर-30 को बेस्ट ऑफ एशिया में स्थान दिया। अब सुपर-30 ने सौ फीसदी सफलता ही हैट्रिक लगाई। तो अब संस्थान को सुपर-60 बनाने की तैयारी। सचमुच बिहार एक अनौखा राज्य है। जहां जातीय दंभ भरने वाले लोग, वहां गुणवत्ता भी भरपूर। अपराध की बात हो, तो भी बिहार। कभी परीक्षा में चोरी का किस्सा हो, तो भी बिहार का नाम आता। कभी जेपी को आंदोलन करना हो, तो भी सबसे पहले बिहार उठता। अशोक के जमाने से ही चमत्कारी राज्य रहा बिहार। जहां सबको प्रश्रय मिलता। पर बात आनंद और सुपर-30 की। भले आनंद आईआईटी के क्षेत्र में गरीबों को मौका दे रहे। पर आनंद का जीवन समाज और व्यवस्था के लिए अनुकरणीय। शिक्षा हो या विकास की कोई और पहल। सिर्फ गाल बजाने से कुछ नहीं होता।
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26/05/2010

Tuesday, May 25, 2010

तो क्या ऐसे बहाल होगा भारत-पाक में विश्वास?

मंगलवार फैसलों का दिन रहा। एक फैसला अपनी अदालत से, जहां एसपीएस राठौड़ को हवालात जाना पड़ा। दूसरा फैसला पाक से आया, जहां हाफिज सईद छूट गया। पर राठौड़ का केस अभी बंद नहीं। सो बात पाक की। पाक के लिए यह कहावत मौजूं- जाको राखे आईएसआई, बाल न बांका होय। आखिर वही हुआ, जिसका अंदेशा था। पाक के नापाक इरादे तब फिर जगजाहिर हो गए। जब पाकिस्तान में बैठा कसाब का आका बाइज्जत बरी हो गया। पाक सुप्रीम कोर्ट ने भी हाफिज सईद को मुजरिम मानने से इनकार कर दिया। मुंबई हमले के बाद भारत ने भृकुटि तानी। अपना ताजा जख्म दुनिया को दिखाया। तो दबाव में पाक ने कार्रवाई की खूब नौटंकी की। अव्वल पहले तो कसाब को पाकिस्तानी मानने से इनकार कर दिया। पर नवाज शरीफ ने फरीदकोट जाकर अपनी ही हुकूमत का नकाब उतारा। तो कसाब को अपना मान लिया। पर कार्रवाई का वही पुराना रवैया अख्तियार किया। जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद को दिसंबर 2008 में नजरबंद कर दिया। फिर भारत ने डोजियर सौंपे। तो मामला अदालत तक पहुंचा। पर पाक जुडिशियरी की फुर्ती देखिए। अपने यहां कसाब के खिलाफ तमाम पुख्ता सबूत और स्पेशल कोर्ट के गठन के बावजूद 17 महीने का वक्त लगा। पर हाफिज सईद को बरी करने में लाहौर हाईकोर्ट ने महज छह महीने भी नहीं लगाए। हाफिज 12 दिसंबर को नजरबंद हुआ। हाईकोर्ट ने दो जून 2009 को रिहाई का आदेश सुना दिया। भारत के दिए डोजियर को नाकाफी माना। वैसे भी जब पाक हुक्मरान ही डोजियर को डायजेस्ट कर गए और डकार तक नहीं ली। तो वहां की जुडिशियरी से कैसी उम्मीद? पर पाक ने नौटंकी यहीं खत्म नहीं की। पंजाब प्रांत की सरकार और केंद्र ने लाहौर हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने लाहौर हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी। यानी हाफिज सईद अब खुला घूमेगा। पाक की जुडिशियरी पर कौन भरोसा करेगा। पाक जबसे पैदा हुआ, कभी लोकतंत्र दिखा ही नहीं। हर दो-चार साल में नया तानाशाह पैदा हो जाता। अगर कोई चुनी हुई सरकार हुई भी, तो आईएसआई की नकेल कसी रही। चीफ जस्टिस इफ्तिखार चौधरी बनाम परवेज मुशर्रफ की लड़ाई पाक जुडिशियरी की कहानी बयां कर चुकी। अगर पाक की अदालतें वाकई निष्पक्ष, तो अब तक भारत में आतंकवाद फैलाने वाले किसी भी व्यक्ति को सजा क्यों नहीं हुई? यानी जैसा पाक हुक्मरान, वैसी ही समूची व्यवस्था। संसद पर हमले के बाद जैश-ए-मोहम्मद के मौलाना मसूद अजहर को भी पाक ने ऐसे ही नजरबंद किया था। पर वही हुआ, जो हाफिज सईद के मामले में मंगलवार को। क्या पाक हुक्मरानों को मालूम नहीं, जैश-ए-मोहम्मद हो या लश्कर या फिर जमात-उद-दावा। ये संगठन संयुक्त राष्ट्र की सूची में आतंकवादी संगठन। अंतर्राष्ट्रीय बैन लगा हुआ। फिर भी पाकिस्तान में सभी संगठन फल-फूल रहे। संगठन के नाम पर बैन लगता, तो फौरन नाम बदल लेते, काम जारी रहता। सो पाक से 26/11 के दोषियों पर कार्रवाई की उम्मीद ही बेमानी। पर अपनी सरकार को क्या हो गया। मुंबई हमले के बाद लकीर खींच दी, पाक दोषियों पर कार्रवाई करे, फिर बात होगी। आतंकवाद और शांति वार्ता को साथ न चलाने का एलान किया। पर मिस्र के शर्म अल शेख में मनमोहन-गिलानी की ऐसी गलबहियां हुईं। भावविभोर मनमोहन ने बलूचिस्तान की घंटी भी गले बांध ली। फिर भारत की ओर से पाक को बातचीत का न्योता गया। तो याद है ना, कैसे पाक विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कुरैशी ने भारत को घुटना टेकू बताया। फिर भी भारत ने वार्ता की। विदेश सचिव स्तर की बात हुई, पिछले महीने दोनों विदेश मंत्रियों ने फोन पर बात की। अब जून में चिदंबरम जाएंगे, तो 16 जुलाई को एस.एम. कृष्णा। यानी मुंबई हमले के बाद से अब तक पाकिस्तान की कार्रवाई का स्तर भले घटता रहा। पर अपने उदार मनमोहन वार्ता का स्तर बढ़ाते रहे। अब उन ने पाकिस्तान से सभी मसलों पर बातचीत के रास्ते खोल दिए। सोमवार को नेशनल प्रेस कांफ्रेंस में मनमोहन ने एलान किया- भारत और पाक के बीच रिश्तों की बहाली में विश्वास की कमी। सो थिंपू में मैंने और गिलानी ने यही महसूस किया, पहले आपस में भरोसे का माहौल बनाया जाए। मंगलवार को हाफिज सईद पर जो फैसला आया, क्या वह विश्वास बढ़ाने वाला? अब मनमोहन बताएं, ऐसे कैसे होगी विश्वास बहाली? आखिर कब तक अमेरिकी दबाव में पाक को छूट मिलती रहेगी? क्या अमेरिका में होने वाली आतंकी घटनाएं ही सिर्फ आतंकवाद? टाइम्स स्क्वायर में कार बम मिला। तो एफबीआई फैजल के पाकिस्तानी घर तक पहुंच गई। हिलेरी क्लिंटन का बयान आ गया- पाक से तार जुड़े मिले, तो पाक को कीमत चुकानी पड़ेगी। पर भारत तो दशकों से पाक प्रायोजित आतंकवाद का शिकार। फिर भी क्या कीमत चुकाई पाक ने? जुर्म का इकबाल तो दूर, अमेरिकी शह से हमेशा उछलता रहा। अब हाफिज सईद पर फैसला आया, तो अपने विदेश मंत्रालय ने खानापूर्ति जरूर की। विदेश सचिव निरुपमा राव बोलीं- पाक ने आश्वासन दिया है, वह अपनी जमीन का उपयोग आतंकी गतिविधि के लिए नहीं होने देगा। इसलिए भारत उम्मीद करता है कि पाक हाफिज के खिलाफ सार्थक कदम उठाएगा। आखिर कब तक पाक पर भरोसा करेगा भारत। वाजपेयी बस लेकर लाहौर गए। तो नवाज शरीफ के बनाए सेनापति परवेज मुशर्रफ ने कारगिल कराया। पाक के खुंखार आतंकवादी तिहाड़ में बंद थे। तो कंधार हुआ। फिर संसद पर हमला।
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25/05/2010

Monday, May 24, 2010

बोले तो बहुत, पर कहा क्या?

बोले तो बहुत, पर कहा क्या? सातवें साल में पहुंचे पीएम मनमोहन सिंह ने सभी मसलों को छुआ। पर पीएम की बात करें, पहले जरा जिम्मेदार विपक्ष की जिम्मेदारी देखिए। आखिरकार सत्ताईसवें दिन बीजेपी ने शिबू से समर्थन खींच लिया। सो पहली मई को यहीं पर लिखी कहावत याद दिलाते जाएं। लिखा था- भानुमती ने खसम किया, बुरा किया। करके छोड़ा, उससे बुरा किया। छोडक़र फिर पकड़ा, ये तो कमाल ही किया। पर बीजेपी तो उस कहावत को भी पीछे छोड़ गई। अबके फिर साथ छोड़ा, पर गवर्नर ने शिबू को सात दिन का वक्त दिया। सो बीजेपी के चरित्र का अब क्या पता। कहीं कर्नाटक दोहराने की कोशिश न करे। यों अरुण जेतली ने अंग्रेजी में सीधे-सीधे कहा- इनफ इज इनफ। अब जेतली कह रहे- झारखंड का फैसला सामूहिक था। राजनीति में वैसे भी पहले दिन हार नहीं मानते। यानी जेतली की मानें, तो बीजेपी ने सत्ताईसवें दिन हार मानी। पर बीजेपी के इस नए चरित्र का रचयिता कौन? जब आडवाणी, जेतली, सुषमा, जोशी, यशवंत जैसे दिग्गज शिबू संग रास रचाने के खिलाफ थे। तो क्या संघ, राजनाथ और गडकरी ने बेड़ा गर्क कराया? गडकरी तो बीजेपी की राजनीति का सारा फार्मूला छोड़ सात समंदर पार बायोडीजल का फार्मूला समझ रहे। अब कोई पूछे, सत्ताईस दिन तक झारखंड को झूला झुलाने का जिम्मेदार कौन? अब झारखंड के लिए भी बीजेपी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहरा रही। तो इसे क्या कहेंगे आप? पर कहते हैं- त्रिया चरित्रम, मनुष्यस्य भाग्यम दैवम न जानम। राजनीति का चरित्र कब, क्या होगा, किसी को नहीं मालूम। तभी तो बीजेपी ने अपना देखा नहीं, सोमवार को जंतर मंतर पर काला दिवस मनाने बैठ गई। मनमोहन यूपीए-टू का एक साल पूरा होने पर देश-विदेश की मीडिया से रू-ब-रू थे। तो बीजेपी मातम मना रही थी। अब यह मातम झारखंड का था, या वाकई विपक्ष की जिम्मेदारी। यह बीजेपी ही जाने, पर मनमोहन भी कम नहीं। भले देश में महंगाई कम होने का नाम न ले। पर मनमोहन राजनीति के माहिर खिलाड़ी हो चुके। सो सोमवार को 75 मिनट तक सवालों की बौछार हुईं। पर किसी समस्या को लेकर स्थिति साफ नहीं। यों पीएम ने महंगाई, विदेश नीति, आतंकवाद, नक्सलवाद, जातीय जनगणना, सरकार के काम को नंबर, मंत्रियों का बड़बोलापन, भ्रष्टाचार, तेलंगाना, केबिनेट में राहुल, रिटायरमेंट, कट मोशन, सीबीआई का दुरुपयोग, माया-मुलायम से डील, अफजल की फांसी, सोनिया से मतभेद, एनएसी का गठन, पानी पर राज्यों की लड़ाई, अमेरिकी एजंडे पर चलना, केंद्रीय योजनाओं में राज्यों की मनमर्जी, निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसे दो दर्जन मुद्दे छुए। पर सिवा गांधी परिवार से जुड़े सवालों के, मनमोहन का जवाब देश को दिशा देने वाला नहीं। अब जवाब की बानगी देखिए। महंगाई दिसंबर तक काबू में लाने का एलान। जनता की तकलीफ भी बयां की। पर देश के पीएम ने उम्मीद जताई, दिसंबर तक महंगाई की दर पांच-छह फीसदी तक ले जा पाएंगे। यों अर्थशास्त्र में दर का कम होना और महंगाई का कम होना, दोनों में अंतर। वैसे भी महंगाई को लेकर यह कोई नई टिप्पणी नहीं। पिछले पांच साल में पीएम-मंत्री-योजना आयोग कई बार कह चुके। पर पीएम की चालाकी देखिए। सवाल में यह भी था- आपसे पहले के पीएम के दौर में जब मंत्री बयान देता था, तो अगले दिन महंगाई कम होती थी। पर अब जब-जब मंत्री बयान देते, महंगाई बढ़ जाती, ऐसा क्यों? आखिर वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी। पीएम सवाल को ही गोल कर गए। आतंकवाद पर भी वही जवाब, कार्रवाई होनी चाहिए। नक्सलवाद पर केंद्र राज्य मिलकर काम करेंगे। भ्रष्टाचार पर दलील, मंत्री ए. राजा से बात हो चुकी। भ्रष्टाचार की कोई शिकायत मिलेगी, तो कार्रवाई करेंगे। क्या पीएम को भ्रष्टाचार के बारे में मालूम नहीं? सीबीआई के दुरुपयोग का सवाल हुआ। तो जवाब- हम दखल नहीं देते। माया-मुलायम से डील की बात। तो कहा- आप गलतफहमी के शिकार। जातीय जनगणना पर बात। तो जवाब- केबिनेट में अभी चर्चा जारी। विदेश नीति पर पाक के लिए सारे दरवाजे खोल दिए। तेलंगाना पर कमेटी रपट का इंतजार। नदी जल बंटवारा आने वाले समय में गंभीर मसला बनेगा। पर जिन मुद्दों का सीधा जवाब आया, उन्हें भी देखिए। मंत्रियों को नसीहत, केबिनेट मीटिंग में अपनी बात रखें, सार्वजनिक मंच पर नहीं। मंत्रियों की बला भी मनमोहन ने अपने सिर ले ली। कह दिया- दंतेवाड़ा हो या मंगलोर, बतौर पीएम संसद और देश के प्रति मेरी जवाबदेही। यानी अब कोई भी घटना हो, मंत्री को नैतिकता ओढऩे की जरूरत नहीं। फिर सवाल- सोनिया से मतभेद पर। तो पीएम ने कहा- रंच मात्र भी मतभेद नहीं। न ही एनएसी सुपर केबिनेट, अलबत्ता सलाह देने वाली संस्था। राहुल को केबिनेट में लाने की बात, तो पीएम कई बार चर्चा कर चुके। फिर सवाल राहुल के लिए गद्दी छोडऩे का हुआ। तो मनमोहन बेहिचक बोले- कांग्रेस तय करे, तो राहुल क्या, किसी के लिए भी कुर्सी छोड़ दूंगा। पर लगे हाथ रिटायरमेंट से इनकार। कहा- मेरा काम अभी अधूरा। कहीं ऐसा तो नहीं, गांधी परिवार की विरासत को लौटाना ही मनमोहन की बड़ी जिम्मेदारी? पीएम-राहुल भले पार्टी और सरकार में लोकतंत्र की बात करें। पर जैसा विशेषाधिकार राहुल का, क्या किसी और कांग्रेसी को मिल सकता? कांग्रेस में महासचिव तो दस। पर सिर्फ राहुल ही ऐसे, जो जब चाहें, केबिनेट में आ-जा सकते। सो पीएम की नेशनल प्रेस कांफ्रेंस का मकसद साफ।
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24/05/2010

Saturday, May 22, 2010

'हादसे' से हादसे तक का सफर....

 जब 2009 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आए, तो खुद कांग्रेस भी भौंचक रह गई थी। भाजपा का भौंचक होना तो लाजिमी ही था, क्योंकि नतीजों से पहले पार्टी ने सपनों का बुर्ज खलीफा तैयार कर लिया था। तब दोनों पक्षों में चुस्की लेने वाले नेताओं ने यह कहते हुए मजाक उड़ाया, हादसा हो गया। सचमुच महंगाई, महामंदी, बेरोजगारी जैसी विकट समस्या के बावजूद मनमोहन सरकार की सत्ता में वापसी हो गई, तो भले हादसा नहीं, पर हैरानी पैदा जरूर कर गई। महंगाई तब ऐसे आगे बढ़ी, जैसे सुनामी की लहर हो। भले सुनामी की लहर बाद में कमजोर पड़ जाती, पर महंगाई कमजोर नहीं, अलबत्ता महंगाई कंट्रोल करने की बात करने वाले पस्त होकर बैठ गए। मंदी से भारत उबरा जरूर, पर आम आदमी का रस निचोड़ गया। बेरोजगारी इस कदर बढऩे लगी थी, लोगों के वेतन में बढ़ोतरी तो दूर, नौकरियां छिनने लगी थीं। तब खुद प्रणव मुखर्जी ने नियोक्ताओं को फार्मूला दिया था, नौकरी मत छीनो, भले वेतन घटा दो। यानी विपक्ष की अंदरूनी लड़ाई से इतर ऐसा कोई भी फैक्टर नहीं, जो तब सरकार के पक्ष में था। फिर भी मनमोहन सत्ता में लौटे, तो कहने वालों ने हादसे की संज्ञा दे दी। लेकिन शनिवार को मनमोहन सरकार की दूसरी पारी का पहला साल पूरा हुआ, जश्न की तैयारी थी, तभी विमान हादसे ने रंग फीका कर दिया। हादसे से सरकार का पहला साल पूरा हुआ, हादसे की छाया में ही दूसरे साल की शुरुआत। लेकिन क्या आज के हादसे के बाद भी सरकार की तंद्रा टूटेगी? नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने 15 मई को जब मंगलोर हवाई अड्डे के इस रन-वे का उद्घाटन किया था, तो खुद से आगे बढक़र माना था, अभी रन-वे की लंबाई अंतर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक नहीं, सो अंतर्राष्ट्रीय विमानों के उड़ान भरने और उतरने के हिसाब से तैयार करने के लिए एक हजार फीट लंबाई बढ़ानी होगी, जिसके लिए वह सौ करोड़ की योजना मंजूर कर रहे हैं। अब हफ्ते भर बाद ही हादसा हो गया, तो सवाल, क्या रन-वे में सुधार के लिए इस हादसे का इंतजार था? दुर्घटना में किसकी गलती, यह तो जांच की बात, लेकिन क्या आज का हादसा हम, आप और हमारी सरकार को कल भी याद रहेगा? या फिर राजनीति का एडहॉकपन ही चलता रहेगा। अपनी व्यवस्था ने हमेशा पानी सिर से निकलने के बाद ही तो कदम उठाया है। महंगाई बढ़ी, तो फिक्र की, रोजगार न मिलने से युवा राह भटक गए, तो अब उन्हें वापस लाने के लिए जड़ों तक जाने की फिक्र। चुनाव हो, तो कर्ज माफी की फिक्र, वरना किसान आत्महत्या करता रहे, आम आदमी पिसता रहे, कोई फिक्र नहीं करता। अब मंगलोर विमान हादसे की जांच को कोई दिशा भी नहीं मिली कि मानवीय भूल की बात तेजी पकडऩे लगी। यानी पायलट पर दोष मढऩे की तैयारी, जो अपनी सफाई देने के लिए जिंदा होकर नहीं लौट सकता। लेकिन सवाल, जब हफ्ते भर पहले मंत्री ने रन-वे को अंतर्राष्ट्रीय मानक के मुताबिक नहीं माना, तो मंत्री-सीएम और समूचा अमला फीता काटने क्यों पहुंच गया? लेकिन हादसे पर सियासत भले आज नहीं, कल शुरू जरूर होगी। नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल नपे-तुले अंदाज में नैतिक जिम्मेदारी ओढ़ेंगे, इस्तीफे की वही परंपरा निभाएंगे, जो चिदंबरम-जयराम रमेश ने निभाई। लेकिन आखिर में वही होगा, जो अपनी व्यवस्था की लकीर। आज और कल हादसे की बात होगी, फिर जांच के बहाने फाइल बंद और अगले हादसे का इंतजार। यानी महंगाई से त्रस्त जनता के लिए मौजूदा सरकार की वापसी शायद किसी हादसे से कम नहीं। सो हादसे से शुरू, हादसे से पहले साल का अंत, अब अगले हादसे का इंतजार।
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22/05/2010

Friday, May 21, 2010

तो मजबूत होकर और भी मजबूर हुए मनमोहन

शनिवार को यूपीए की दूसरी पारी की पहली सालगिरह। सो सरकारी खेमा सजधज कर तैयार हो गया। पीएम के घर भोज की तैयारी। फिर सोमवार को उपलब्धियों के पिटारे के साथ मनमोहन मीडिया से रू-ब-रू होंगे। यानी पहले पेट, फिर जनता से भेंट। पर समूची कांग्रेस हफ्ते भर से फील गुड कर रही। उपलब्धियां ऐसे गिना रही, जैसे दिलीप कुमार सूट-बूट पहन कर साला मैं तो साहब बन गया.. .. गीत गुनगुना रहे। अब ऐसा नहीं कि कांग्रेस या सरकार को हकीकत मालूम न हो। जनता महंगाई से कितनी त्रस्त, किसान-गरीब की हालत कैसी, यह जगजाहिर। पर कांग्रेस अपनी नाकामी कैसे स्वीकारे। राजनीति में इतनी ईमानदारी होने लगे, तो राजनीति काजनीति हो जाए। पर यहां तो राजनीति का मतलब जनता के लिए काम से नहीं, जनता पर राज करना हो चुका। अब आप यूपीए का पिछला पांच साल छोड़ दो। सिर्फ दूसरी पारी के पहले साल का ही हिसाब-किताब देखिए। कांग्रेस ने जनता से जुड़े गंभीर से गंभीर मुद्दों पर मैदान छोडऩे की रणनीति अपनाई। विपक्ष जब-जब एकजुट हुआ, कांग्रेस ने एकता को तार-तार करने की शतरंजी चाल चल दी। महंगाई पर संसद से सडक़ तक आवाज बुलंद हुई। तो कांग्रेस ने महिला बिल का लंगड़ा घोड़ा दौड़ा दिया। अब साल पूरा हुआ, देश को हिसाब-किताब देने का वक्त। तो कहीं महंगाई, आंतरिक सुरक्षा जैसे अहम मुद्दे जश्न पर हावी न हो जाएं। सो बहस छेडऩे वाले बुद्धिजीवियों को नक्सलवाद की बहस में उलझा दिया। नक्सली हमले बढ़े, नक्सलवाद पर चिदंबरम के सख्त कदम उठे। तो कांग्रेस ने चिदंबरम की ही टांग खींच दी। नक्सलवाद पर ऐसी बहस छेड़ दी, जिसका ओर न छोर। भले नक्सली अपनी हिंसक वारदात को लगातार अंजाम दे रहे। पर गिनाने के लिए कांग्रेस के पास क्या उपलब्धि, जरा देखिए। यूनिक आई-डी कार्ड बन रहा। नरेगा का बजट बढ़ा दिया। फूड सिक्यूरिटी बिल आ रहा। नेशनल हैल्थ बिल आएगा। शिक्षा के हक को मौलिक अधिकार बनाया। महिला बिल राज्यसभा से पारित कराया। कांग्रेस की नजर में यही जनकल्याण के मुद्दे। पर असलियत तो यही, पहली पारी के मुकाबले मनमोहन की दूसरी पारी कहीं अधिक दुश्वार। महज साल भर में सरकार असहमति के भंवर में घूमती दिखी। शर्म अल शेख में विदेश नीति का चौथा हुआ। तो देश में आकर मंत्रियों-नौकरशाहों ने तेरहवीं कर दी। पहली बार बलूचिस्तान का जिक्र पाक के साथ साझा बयान में आया। मुंबई हमले के बाद अपना स्टैंड साफ था। जब तक पाक दोषियों पर कार्रवाई नहीं करेगा, बात नहीं होगी। पर कूटनीति का चालीसा तो तब हो गया, जब भारत ने खुद आगे बढक़र बातचीत की पहल की। तब पाक ने भारत को खुलेआम घुटना टेकू कहा। अमेरिकी दबाव में भारत ने वार्ता शुरू की। पर अमेरिका ने आतंकवादी डेविड हैडली से भारत को पूछताछ नहीं करने दी। सादगी को लेकर मनमोहन के दोनों विदेश मंत्रियों की संस्कृति तो सबने देखी। दस जनपथ से फटकार लगी, तब फाइव स्टार होटल छोड़ा। शशि थरूर ने तो साल भर में ही इतनी फजीहत कराई, आखिर सालगिरह से पहले ही बलि चढ़ गए। पर कांग्रेस का मतभेद यहीं खत्म नहीं हुआ। इसी साल मनमोहन के सिपहसालार केबिनेट मीटिंग में एक-दूसरे से खूब भिड़े। ममता ने महिला बिल से लेकर कटौती प्रस्ताव तक कांग्रेस को नचाया। अब पहले साल में ही दोनों के बीच दूरियां बढ़ गईं। स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा पर उंगली उठी। फिर भी मनमोहन नहीं हटा पाए। इसी साल मनमोहन और सोनिया के बीच भी दूरी दिखी। जब आरटीआई एक्ट में संशोधन को लेकर दोनों के बीच चिट्ठियों से बात हुई। मनमोहन ने खुद को दस जनपथ के साये से अलग दिखाने की कोशिश की। पर पहली पारी में लाभ के पद के विवाद की वजह से खत्म हुई राष्ट्रीय सलाहकार परिषद अबके बहाल हो गई। यों दूसरी पारी में कांग्रेस बेहद मजबूत होकर उभरी। जनता ने पिछली पारी में 145 सीटें दी थीं। तो अबके कांग्रेस के पास 207 सांसद हो गए। पर मजबूती के बाद भी सरकार मजबूर दिखी। कटौती प्रस्ताव ने मनमोहन सरकार की मजबूती की कलई खोल दी। आजाद भारत के संसदीय इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब बजट में पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़े। पहली बार विपक्ष गिलोटिन डिमांड पर कटौती प्रस्ताव लेकर आया। पर मजबूत कांग्रेस ने तिकड़म का सहारा लिया। लालू-मुलायम को लॉलीपाप दिया। तो मायावती को सीबीआई का सहारा। पर लालू-मुलायम के गैरहाजिर रहने और माया के 22 सांसदों के वोट के बाद भी मनमोहन को कुल 289 वोट मिले। अगर 22 सांसद निकाल दो, तो बचे 267 सांसद। लोकसभा में बहुमत का आंकड़ा 272 का। सो साल भर का जमा-खर्च यही, मजबूत होकर भी मजबूर सरकार। पर सिर्फ सत्ता पक्ष का ही हिसाब नहीं, विपक्ष का भी जरूरी। कांग्रेस की नीति भविष्य के हिसाब से बदल रही। युवा नेतृत्व तराशे जा रहे। पर बीजेपी का हाल किसी से छुपा नहीं। पुराने सिर-फुटव्वल छोड़ दो। तो झारखंड की कहानी बीजेपी की हालत बयां कर रही। नितिन गडकरी सिर्फ नाम के लिए गढ़ के रक्षक। खुद की जुबां पर नियंत्रण नहीं। किसी को कुत्ता कह रहे। पर जिसके लिए गडकरी ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया। कुछ हिसाब उनका भी हो जाए। मुलायम-लालू अपने गिरगिटिया अंदाज की वजह से विश्वसनीयता खो रहे। तो लेफ्ट ले-देकर बंगाल का किला बचाने में जुटा।
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21/05/2010

Thursday, May 20, 2010

तो राजनीति के आगे नहीं जोर किसी का

नक्सलवाद हो या बाबरी विध्वंस या झारखंड का झंझट। हर रोज नए पहलू जुड़ते जा रहे। गुरुवार को नक्सलवाद पर शुरुआत नरेंद्र मोदी से हुई। मोदी अलीगढ़ की मंगलायतन यूनिवर्सिटी में थे। छात्रों से सवाल-जवाब हुए। एक सवाल आया- राह से भटके नौजवानों के लिए क्या मैसेज। तो मोदी ने गांधीवादी जवाब दिया। हिंसा से दुनिया में कहीं भी सफलता नहीं मिली। सो हिंसा का मार्ग छोड़ नौजवान भारतीय संविधान के दायरे में बातचीत से समस्या का हल ढूंढें। यानी मोदी ने कहा तो नक्सलियों के लिए। पर अपने विजुअल मीडिया के एक तबके ने बात घुमा दी। मोदी के हवाले से खबर चलने लगी- नक्सलियों से बातचीत कर सरकार समस्या सुलझाए। अब मोदी की जुबान से नक्सलियों के लिए ऐसी नरमी, वह भी बीजेपी के रुख के बिलकुल उलट हो। तो बीजेपी में बावेला मचना ही था। सो बीजेपी के मैनेजरों ने फुर्ती दिखाई। फौरन गुजरात सरकार के प्रवक्ता का बयान जारी हो गया। बीजेपी ने अपने मंच से भी सफाई दी। तो मोदी जिस यूनिवर्सिटी के प्रोग्राम में गए थे, उसने भी विज्ञप्ति जारी कर दी। सो बीजेपी ने मोदी सरकार के बयान से साबित करने की कोशिश की, नक्सलवाद पर कोई मतभेद नहीं। अलबत्ता हिंसा पर उतारू नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब देने की हिमायती। अब यह मान भी लें, मोदी के बयान को मीडिया ने बात का बतंगड़ बना दिया। तो जरा सफाई पर नजरें इनायत करिए। मोदी ने नक्सलियों से हिंसा छोडऩे की अपील तो की। पर दूसरी तरफ कठोर कार्रवाई की पैरवी। क्या ये दोनों काम साथ-साथ चल सकते? क्या ऐसे में बातचीत हो सकती? यों अपने मीडिया के एक तबके ने कुछ शरारत तो की। पर मोदी की बातचीत की पैरवी क्या सिर्फ नक्सलियों पर लागू, सरकार पर नहीं? यों बीजेपी ने अपने मतभेद छुपाने को शब्दों को इधर से उधर कर दिया। जैसे सोमवार के नक्सली हमले के बाद चिदंबरम ने अपनी लाचारी जताई। कांग्रेस ने एतराज जताया, तो चिदंबरम ने भी अपने बयान की व्याख्या बदल दी। चिदंबरम ने पहले कांग्रेस में ही मतभेद का इशारा किया था। पर बाद में राज्यों से जोड़ते हुए कह दिया- राज्य मांग करे, तो ही हवाई सहायता पर विचार। यों पहले चिदंबरम ने कहा था- पांच राज्य हवाई हमले की पैरवी कर रहे। पर सीसीएस में सबकी राय एक नहीं। अब गुरुवार को नई बात सामने आई। बुद्धदेव, नीतिश, शिबू, शिवराज, रमन ने हवाई हमले की मांग से इनकार कर दिया। सो अब सवाल, क्या खुद चिदंबरम हवाई हमले के हिमायती? तीन साल में नक्सलवाद के सफाये का एलान कहीं इसी सोच का हिस्सा तो नहीं था? अब जो भी हो, कांग्रेस ने तो चिदंबरम की नकेल कस दी। सो चिदंबरम नक्सलवाद पर काम के नहीं, नाम के मंत्री। असली नीति तो दस जनपथ से तय हो रही। यों रमन सिंह ने जब नक्सलियों को आतंकवादी बताया। तो सीधा सवाल पूछा था- वायुसेना का इस्तेमाल अब नहीं, तो कब होगा। पर अब रमन का रुख बदला। तो सिर्फ नरेंद्र मोदी की वजह से। मोदी ने बातचीत की पैरवी क्या की, अब रमन सिंह भी कह रहे- बातचीत को हम भी तैयार। पर नक्सली हिंसा तो छोड़ें। अब बातचीत के लिए राष्ट्रीय सहमति जैसी दिख रही, तो स्पष्ट नीति का एलान क्यों नहीं। आखिर नक्सलवाद पर समूची राजनीति हौचपौच क्यों दिख रही? ऐसे में कैसे निपटेंगे नक्सलवाद से। अब तो यही लग रहा, नक्सलवाद पर नेता राजनीति-राजनीति खेलेंगे। अपनी व्यवस्था का यही शगल बन चुका। दंगे का इतिहास देख लो। तो अब तक कितने मामलों में न्याय हुआ। गुरुवार को बाबरी विध्वंस का एक मामला फिर आया। लखनऊ-इलाहाबाद हाईकोर्ट की बैंच ने सीबीआई की रिवीजन पिटीशन खारिज कर दी। बाबरी से जुड़े मामले रायबरेली और लखनऊ में चल रहे। जब यह मामला सीबीआई को गया था। तो 197 और 198 के तहत दो एफआईआर दर्ज हुईं। लखनऊ में स्पेशल कोर्ट बनाया गया। सीबीआई ने दोनों एफआईआर पर एक ही चार्जशीट दाखिल की। चार्जशीट में चूक हुई, 198 का जिक्र छूट गया। तो तब बीजेपी के वकीलों ने 198 के मुकदमे को विशेष कोर्ट के दायरे से बाहर बताया। सो मामला रायबरेली भेजा गया। यानी एक केस लखनऊ में, तो एक केस रायबरेली कोर्ट भेजने का आदेश। पर मुश्किल, एक ही चार्जशीट दो अदालतों में कैसे जाए। सो सीबीआई हाईकोर्ट गई। पर गुरुवार को भी राहत नहीं मिली। अब खुद बीजेपी वाले कह रहे, इस केस का कुछ होना-जाना नहीं। वाकई 17 साल बाद भी कोई ठोस मुकदमा नहीं चल पाया। वैसे भी राजनीति के आगे किसी का जोर नहीं। अब झारखंड की सियासत ही देखिए। शिबू सोरेन फिर पलट गए। कुर्सी छोडऩे से इनकार कर दिया। यों तीस जून के बाद तो गुरुजी को जाना ही होगा। पर बीजेपी को खूब पानी पिला रहे। फिर भी बीजेपी कुर्सी का मोह नहीं छोड़ पा रही। शिबू स्पीकर की कुर्सी अपने कोटे में लेने पर अड़ गए। पर बीजेपी की दलील, पहले से बीजेपी का स्पीकर। सो दूसरा चुनाव कराने के बजाए झामुमो कुछ और मलाईदार विभाग ले ले। अब सत्ता की बंदरबांट में ठप झारखंड का दोषी कौन? सो नक्सलवाद हो या बाबरी विध्वंस या फिर झारखंड। राजनीति और राजनेताओं के आगे किसी का जोर नहीं।
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20/05/2010

Wednesday, May 19, 2010

नक्सल हो या आतंकवाद, राजनीति की बहस अनंता

नक्सलियों का तांडव जारी। पर राजनीति और अपनी व्यवस्था बहस में ही उलझी। बुधवार को छत्तीसगढ़ के सीएम रमन सिंह ने नक्सलियों को आतंकी करार दिया। लश्कर से संबंध की आशंका जताई। वायुसेना के इस्तेमाल पर जोर दिया। तो कांग्रेस ने भी लक्ष्मण रेखा के पार न जाने का खुला एलान कर दिया। नक्सलवाद के खिलाफ जंग में वायुसेना का इस्तेमाल नहीं होगा। अलबत्ता नक्सलवाद को राष्ट्रीय चुनौती मानने वाली कांग्रेस ने रमन सिंह पर ही ठीकरा फोड़ दिया। कांग्रेस ने पूछ ही लिया, जब आंध्र-महाराष्ट्र संतुलित नजरिए से नक्सलवाद को निपटा चुके। तो छत्तीसगढ़ नकारा साबित क्यों हो रहा। क्यों बीजेपी ने कभी रमन सिंह का इस्तीफा नहीं मांगा। केंद्र सिर्फ सुरक्षा बल मुहैया करा सकता, संसाधन दे सकता। पर इस्तेमाल का संवैधानिक हक राज्य का। सो छह अप्रैल को सीआरपीएफ के जवान मारे गए या सोमवार को हुईं 31 मौतें। सबकी जिम्मेदार सिर्फ राज्य सरकार। कांग्रेस की दलील यहीं खत्म नहीं। कांग्रेस का मानना है, संविधान में संघीय व्यवस्था। सो कानून व्यवस्था से निपटना राज्य की ही जिम्मेदारी। यानी कांग्रेस ने पी. चिदंबरम के बयान को नया मोड़ दे दिया। सोमवार को चिदंबरम ने नक्सलवाद के खिलाफ कार्रवाई पर अपने हाथ बंधे होने और सीमित अधिकार की बात कही। तो कांग्रेस में भूचाल आ गया। आखिर वही हुआ, जो सोनिया उवाच के खिलाफ जाने वालों का होता। कांग्रेस में चिदंबरम अलग-थलग पड़ गए। विपक्ष ने सीधे पीएम से जवाब तलब किया। तो कांग्रेस ने चिदंबरम की चाबी घुमा दी। सो चिदंबरम ने पलटी मारी। जिस बयान में सुरक्षा मामलों की केबिनेट कमेटी और अपनों के मतभेद का इशारा किया था। उसका रुख राज्य की ओर मोड़ दिया। चिदंबरम ने बयान की व्याख्या कुछ यूं कर दी, कई राज्य वायुसेना के इस्तेमाल की पैरवी कर रहे। पर यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं। अब चिदंबरम के बयान से असहज हुई कांग्रेस संभली। तो बुधवार को नक्सलवाद पर स्पष्ट लाइन तय कर दी। ताकि मनमोहन की दूसरी पारी के पहले सालाना जश्न का जायका न बिगड़े। शनिवार को मनमोहन की दूसरी पारी का पहला साल पूरा हो रहा। सो कांग्रेस को जबर्दस्त फील गुड। भले महंगाई ने जनता का रस निचोड़ लिया। पर कांग्रेस उपलब्धियां गिनाते-गिनाते थक गई। पहले साल में यूनिक आई-डी कार्ड, नरेगा को व्यापक बनाने, खाद्य सुरक्षा बिल, राष्ट्रीय स्वास्थ्य बिल, शिक्षा का अधिकार कानून, राज्यसभा से महिला बिल, कृषि कर्ज पर सात फीसदी ब्याज दर, विकलांगता अवसर बिल प्रमुखता से गिनाए। अब सच्चाई भी देखो। जो दाल 32 रुपए थी, सौ रुपए के करीब पहुंची। खाने-पीने की वस्तुओं के दाम इसी अनुपात में बढ़े। विदर्भ में किसानों की आत्महत्या एक साल में 50 से अधिक हुई। फिर भी कोई फील गुड कर रहा, तो अपना क्या। एनडीए ने तो छह साल राज के बाद फील गुड किया था। यहां तो पहले साल में ही इतना फील गुड। यों मनमोहन की दोनों पारी मिलाओ, तो उसका भी यह छठवां साल। सो फील गुड के मामले में दोनों मौसेरे भाई ही हुए। वैसे भी कहावत है, सावन के अंधे को हरा ही हरा नजर आता है। सो नक्सलवाद पर छिड़ी बहस से इतर कांग्रेस को जश्न ही जश्न दिख रहा। अब कांग्रेस ने साफ किया, संविधान के दायरे में रहकर ही नक्सलवाद से निपटेंगे। भारत राज्यों का संघ है, सो राज्य अपनी जिम्मेदारी निभाएं, केंद्र अपनी निभाएगा। कांग्रेस ने एक सवाल भी उठाया, अगर नक्सलवाद की बढ़ती वारदात के बाद केंद्र अनुच्छेद 355 के तहत एडवाइजरी जारी कर दे और कार्रवाई के लिए अपनी ओर से कोई कदम उठाए। तो क्या विपक्ष स्वागत करेगा? तब तो विपक्ष हो या मीडिया, आलोचना पर उतर आएंगे। ऐसे में नक्सलवाद को और शह मिल जाएगी। सो बेहतर यही, संविधान के तहत केंद्र-राज्य अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाएं। अब कांग्रेस की यह दलील, तो क्या चिदंबरम को संविधान की समझ नहीं? चिदंबरम ने ही तो एलान किया था, तीन साल में नक्सलवाद का सफाया कर देंगे। पिछले महीने छह अप्रैल को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 76 जवान मारे गए। तो चिदंबरम ने गृहयुद्ध बता मुंहतोड़ जवाब का खम ठोका था। पर जबसे दिग्विजय ने लेख लिखा। सोनिया ने कांग्रेसजन के नाम संदेश दिया। चिदंबरम सचमुच असहाय हो गए। सो चिदंबरम ने साफ कह दिया- सामूहिक बुद्धिमता निजी फैसले से हमेशा बेहतर होती। सचमुच चिदंबरम हवाई हमले की राज्यों की मांग से सहमत। पर अपने ही राजी नहीं। सो अपनी मजबूरी का इजहार किया। तो अलग-थलग पड़ गए। पर सिर्फ नक्सलवाद ही राजनीति का शिकार नहीं। अफजल गुरु की फाइल पर शीला और केंद्र में नूरा-कुश्ती। अब कांग्रेस की दलील, सीधे अफजल को फांसी दी। तो गलत मैसेज जाएगा। सो पहले शुरुआत की दो-चार फाइल निपटाएंगे। फिर माहौल बना अफजल को लटकाएंगे। क्या किसी आतंकवादी, वह भी लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर संसद पर हमले के मास्टर माइंड को फांसी की सजा देने से कानून व्यवस्था बिगड़ जाएगी? यही दलील देकर तब जम्मू-कश्मीर के सीएम गुलाम नबी आजाद ने अफजल की फांसी रुकवाई थी। अब सीएम उमर अब्दुल्ला दबाव बना रहे। सचमुच यह कैसी व्यवस्था। जहां अफजल को सजा सुनाने में नीचे से ऊपर तक सभी अदालतों को मिलाकर कुल 31 महीने लगे। शीला ने दो लाइन की ओपिनियन देने में 43 महीने लगा दिए। पर अड़चनें अभी खत्म नहीं। सो नक्सलवाद हो या आतंकवाद, राजनीति की बहस अनंता।
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19/05/2010

Tuesday, May 18, 2010

चिदंबरम और गडकरी का गांडीव समर्पण

तो सफेद खून वालों का इलाज कैसे होगा। नक्सलवादी अब आमजन का भी खून बहाने लगे। कभी दंतेवाड़ा, कभी जगदलपुर, कभी लालगढ़ और न जाने करीब 12 राज्यों के 200 जिलों में कब जमीन रक्तरंजित हो जाए, पता नहीं। पर राजनीति से रंजित दिग्विजय सिंह जैसों का हाथ अभी भी नक्सलियों के साथ। वैसे भी जिसके सिर सोनिया का हाथ हो। वह चिदंबरम से क्या, खुदा से भी खौफ न खाए। भले नक्सलवादी सुरक्षा बलों को मारते रहें। आम नागरिक का खून बहाते रहें। देश में ही व्यवस्था के खिलाफ हिंसात्मक जंग जारी रखें। फिर भी दिग्विजय सिंह का खून नहीं खौलेगा। सोमवार को नक्सलियों ने मुसाफिर बस उड़ा दी। बस में सवार 16 एसपीओ और 15 मुसाफिरों की मौत हो गई। पर दिग्विजय का दिल है कि मानता नहीं। अभी भी नक्सलियों पर सख्ती के पक्ष में नहीं। मंगलवार को दो-टूक कहा- अगर सेना का इस्तेमाल हुआ। तो उसका भी वही हश्र होगा, जो पैरा मिलिट्री फोर्स का हुआ। ताजा घटना से कुछ दिन पहले की दिग्विजय की दलील सुनिए। नक्सलियों से पार पाना इतना आसान नहीं। बकौल दिग्विजय, दो हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगलों में गिरे थे। तो एक 28 दिन बाद मिला, एक महीने भर बाद। दिग्गी राजा का मतलब, पहले विकास हो, फिर कार्रवाई की बात। यानी फिर नक्सलवाद की जड़ तक पहुंचने का राग। पिछले महीने छह अप्रैल को नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में 76 जवान मार गिराए। अपने होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने गृह युद्ध बता मुंहतोड़ जवाब का एलान किया। तो हफ्तेभर बाद दिग्विजय सिंह ने लेख लिख दिया। चिदंबरम की नीति पर सवाल उठाए। पर कांग्रेस ने पल्ला झाड़ा। तो लगा, दिग्विजय अलग-थलग पड़ गए। पर हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पिछले शुक्रवार कांग्रेस का मुख पत्र जारी हुआ। तो सोनिया गांधी ने कांग्रेसजन के नाम लिखी चिट्ठी में दिग्विजय राग ही उवाचा। सोनिया ने भी नक्सलवाद की जड़ तक पहुंचने को जरूरी बताया। पिछड़े आदिवासी जिलों में विकास के न पहुंचने पर चिंता जताई। पर कोई पूछे, आजादी के 63 साल में भी विकास हर जगह नहीं पहुंचा, तो दोषी कौन? अब यह बहस का अलग मुद्दा। पर नक्सलवाद की जड़ तक कोई कैसे पहुंचे, जब खुद नक्सली अपनी जड़ों में मट्ठा डाल रहे। अब क्या नक्सलियों के डर से आम नागरिक बस में भी सफर करना बंद कर दे। अगर नक्सली भी आम नागरिक को ही निशाना बनाने लगे। तो फिर आतंकवादी और नक्सलियों में क्या फर्क? सुकमा जा रही यात्री बस सुरक्षा ड्यूटी की बस नहीं थी। जिस रास्ते पर विस्फोट किया, वह पक्की सडक़ थी। सो सोमवार को ही चिदंबरम ने गांडीव समर्पण कर दिया। नक्सलवाद के खिलाफ चिदंबरम का रुख बेहद सख्त। पर अपनों के बिछाए लैंड माइन से नहीं जूझ पा रहे चिदंबरम। तभी तो जेएनयू और सीआईआई जाकर चिदंबरम को भी दिग्विजय की लाइन बोलनी पड़ी। अब मंगलवार को चिदंबरम ने बातचीत की पेशकश कर दी। कहा- सिर्फ 72 घंटे नक्सली हिंसा रोक दें। तो सरकार बातचीत को तैयार। पर सिर्फ पेशकश में चिदंबरम की लाचारी नहीं दिख रही। अलबत्ता लाचारी का असली दांव सोमवार को ही खेल गए। कह दिया- नक्सलियों से निपटने के लिए मेरे अधिकार सीमित। मैं सिर्फ उन अधिकारों का इस्तेमाल कर सकता हूं, जो मुझे दिए गए हैं। अब देश का होम मिनिस्टर ऐसी लाचारी भरा बयान दे, तो फिर आम नागरिक की सुरक्षा किसके भरोसे? सो बीजेपी के अरुण जेतली ने अब पीएम से रुख पूछ लिया। जब कांग्रेस में इतना कनफ्यूजन। तो बेहतर होगा, पीएम जवाब दें। जेतली ने साफ कहा- आधे-अधूरे मन से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। वाकई देश के गृह मंत्रालय की ऐसी दयनीय स्थिति क्यों? क्या नक्सली ऐसे ही खून बहाते रहेंगे और हम जड़ में जाने या विकास का ढोल पीटकर बहस करते रहेंगे? मरने वाले आम नागरिक का खून लाल, तो क्या नक्सलवादियों के हमदर्द का खून सफेद? चिदंबरम ने यह भी सवाल उठाया, अब हमदर्दों को जवाब देना होगा। सचमुच सोनिया हों या मनमोहन, देश की जनता को जवाब चाहिए। देश आरपार की लड़ाई चाह रहा। सो मंगलवार को पीएम ने उच्च स्तरीय मीटिंग ली। तो क्या चिदंबरम को फ्री हैंड मिलेगा? सोनिया के रुख के बाद कम से कम ऐसा तो नहीं लग रहा। चिदंबरम के दृष्टिकोण की कायल बीजेपी भी। पर कांग्रेस में चिदंबरम घायल शहीद की हालत में। तो बीजेपी में भी नितिन गडकरी का वही हाल। जब कुर्सी संभाली, तो जैसा हर संघी बौद्धिक झाड़ता। गडकरी ने भी खूब झाड़ी। पर डी-4 नेताओं के सामने एक न चली। सो छह महीने बीतने को, पर अभी तक सारे अहम फैसले पेंडिंग पड़े। टीम में किसी को अभी तक जिम्मेदारी नहीं मिली। मोर्चे भी अपनी बदहाली पर रो रहे। एकाध फैसला हुआ भी, तो टेस्ट क्रिकेट के अंदाज में। झारखंड में वही हुआ, जो शिबू ने चाहा। घुटना टेककर बीजेपी 28-28 महीने की सरकार बनाने पर राजी हो गई। पद पर किसी नए व्यक्ति के लिए छह महीने हनीमून पीरियड माना जाता। पर गडकरी छह महीने बीतने से पहले ही छुट्टी पर चले गए। विदेश दौरे पर सवाल उठने लगे। तो गडकरी ने बयान जारी कर दिया- स्टडी टूर पर यूरोप जा रहे। याद है ना, गोविंदाचार्य ने भी स्टडी के लिए ही छुट्टी ली थी। सो कुल मिलाकर चिदंबरम और गडकरी की हालत एक जैसी। सोच है, पर अपनों का साथ नहीं। सो दोनों का बयान, गांडीव समर्पण ही समझिए।
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18/05/2010

Monday, May 17, 2010

कुम्हलाने लगा विकल्प, पर दोष जनता के सिर

अब कसाब के बहाने अफजल पर नूराकुश्ती शुरू हो गई। कसाब को सजा से पहले ही होम मिनिस्ट्री ने अफजल की फाइल ढूंढनी शुरू की। तो दिल्ली की शीला सरकार को चिट्ठी गई। पूछा गया, कई बार याद दिलाया जा चुका है। पर सरकार का जवाब नहीं आया। सो सरकार अपनी राय जल्द केंद्र को भेजे। पर जवाब तो तब आएगा, जब शीला को चिट्ठी मिलेगी। शीला दीक्षित ने दो-टूक कह दिया- अफजल पर होम मिनिस्ट्री से न चिट्ठी, न कोई संदेश। वैसे भी अभी चार साल से ही फाइल शीला के पास। वाकई चिट्ठी तो भेजी गई दिल्ली के होम सैक्रेट्री को। सो शीला क्या जानें। वैसे भी शीला को अपने होम सैक्रेट्री पर कितना एतबार, आप देख लो। जेसिका लाल हत्याकांड का दोषी मनु शर्मा हरियाणा के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विनोद शर्मा का बेटा। पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले मनु ने मां की बीमारी के नाम पर पैरोल मांगी थी। दिल्ली के होम सैक्रेट्री ने पंद्रह दिन की सिफारिश की। पर शीला की मेहरबानी देखिए, पैरोल एक महीने का दे दिया। यानी होम सैक्रेट्री की सिफारिश महज संवैधानिक मजबूरी, फैसला तो शीला ने पहले ही कर लिया था।
पिछले साल अप्रैल में शीला ने लोकसभा चुनाव निपटने के बाद कदम उठाने का भरोसा दिलाया। पर साल बीतने को, कोई फैसला नहीं लिया। वैसे भी शीला को आम आदमी को तड़पाने से फुरसत मिले, तो अफजल की फाइल पर सोचें। तीसरी बार सीएम बनते ही शीला को काम से फुरसत ही नहीं मिल रही। पहले बसों का किराया बढ़ाया। महंगाई आसमान छूने लगी। तो राशन-पानी की दुकान लगाई। रसोई गैस, सीएनजी की दरों में इजाफा किया। पानी का बिल तिगुना कर दिया। प्रणव दा ने आम बजट में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ाईं। तो शीला ने भी काफी मेहनत के बाद दाम बढ़ा दिए। दूध-दही, घी, साग-सब्जी की कीमतें थोड़ी-थोड़ी कर बढ़ाईं। अब सोमवार को प्रॉपर्टी की डॉक्यूमेंटेशन फीस सौ रुपए से बढ़ाकर 20 हजार रुपए कर दी। अब कोई इतनी मेहनत करे, फिर भी नाम न ले, तो शीला के साथ न्याय नहीं। पहले चुनाव में व्यस्त थीं। अब कॉमन वैल्थ गेम्स की तैयारी में। सो अफजल पर आई-गई चिट्ठी कहीं दब गई होगी। तभी तो सोमवार को बीजेपी ने पूछ लिया। कहीं ऐसा तो नहीं शीला दीक्षित अफजल को आतंकी नहीं, पर्यटक मान रही हों? अपने संविधान के तहत यह प्रावधान कि माफी याचिका पर उस सरकार की राय ली जाती, जहां अपराध हुआ हो। अब दिल्ली-मुंबई की जनता की राय लो। तो अफजल-कसाब के बारे में जनता की क्या राय होगी, क्या शीला नहीं जानतीं? पर कोई जनता की सोचे, तब कोई बात हो। यहां तो कॉमन वैल्थ के नाम पर किसके वारे-न्यारे हो रहे, पता नहीं। पर बेचारा आम आदमी लुटता-पिटता जा रहा। तभी तो स्टेशन पर भगदड़ हुई, आम यात्री मारा गया। पर ममता यात्रियों को ही जिम्मेदार ठहरा रहीं। राजनीति की ये दो बड़ी महिलाएं संवैधानिक पद पर आसीन। पर क्या सोच सचमुच आम आदमी के हित में? ममता को रेल मंत्रालय नहीं, रायटर्स बिल्डिंग की आस। सो दिल्ली की बजाए कोलकाता में अधिक समय बितातीं। नई दिल्ली स्टेशन पर भगदड़ मची। पर ममता को बंगाल के स्थानीय चुनाव से फुरसत नहीं। आखिर क्या हो गया है अपने नेताओं को। इन नेताओं के घर राजनीति की किस चक्की का आटा पहुंचता, जो खाते ही नेता बौरा जाते। आप खुद देखिए, महंगाई बढ़ी, तो शीला ने कहा- लोगों की आमदनी भी बढ़ी। ममता अपना महकमा संभाल नहीं पा रहीं। तो आम यात्री को ही जिम्मेदार बता दिया। झारखंड में शिबू सोरेन कुर्सी संभाल नहीं पा रहे। तो जनता को ही जिम्मेदार ठहरा रहे। शरद पवार ने तो महंगाई पर आम आदमी के खाने-पीने की आदत में बदलाव और अधिक खाने की प्रवृत्ति को वजह बता दिया था। अब अगर स्टेशन की भगदड़ की घटना को लें। तो नवंबर 2005 में ऐसी ही भगदड़ मची थी। तब जांच कमेटी ने सिफारिश की थी। प्लेटफार्म से वेंडर कम करो। भीड़ की मॉनीटरिंग कैमरे से हो। आखिरी वक्त में प्लेटफार्म न बदले जाएं। पर इतवार को रेलवे ने आखिरी वक्त में प्लेटफार्म बदला। सो आपाधापी में जो हुआ, सबने देखा। क्या ममता को नहीं मालूम, कैसे स्टेशन पर जनरल डिब्बे की सीटें बिकती हैं? गरीब और इज्जत की बात तो खूब करतीं। पर कभी इस ओर ध्यान क्यों नहीं? क्या ऐसे बनेगा विश्व स्तरीय स्टेशन? दिल्ली मैट्रो की व्यवस्था ही देखिए। रोजाना आठ से दस लाख मुसाफिर सफर करते। पर ऐसी अव्यवस्था क्यों नहीं? सो ममता हों या शीला, गुरुजी हों या पवार, एक खतरनाक प्रवृत्ति दिख रही। विजनरी नेताओं का दौर अब खत्म हो चुका। शेखावत, ज्योति बसु, वाजपेयी, चंद्रशेखर जैसी शख्सियत सक्रिय राजनीति में नहीं। एक वक्त था, शेखावत सती प्रथा के खिलाफ खम ठोककर खड़े हो गए। भले पूरा समाज खिलाफ हो गया। अब अपने भैरोंसिंह शेखावत नहीं रहे। राजनीति ही नहीं, इंसानियत की मिसाल थे शेखावत। पर अब नया विकल्प क्या नवीन जिंदल जैसा। पढक़र आए अमेरिका से और वोट की खातिर खड़े हो गए थाप के साथ? हरियाणा में ही बंसीलाल थे। भले चुनाव हार गए, पर मुफ्त बिजली नहीं दी। मुफ्तखोरी का हश्र देख जनता ने आखिर बंसीलाल पर ही भरोसा जताया। अब जबसे वाजपेयी अस्वस्थ। बीजेपी में कैसी मारकाट मची, सभी जानते। सचमुच बड़े दिल, बड़ी सोच वाले नेता अब राजनीति में नहीं रहे। भारतीय राजनीति में विकल्प अब खिलने से पहले ही कुम्हला रहा। अब नक्सलियों ने बस उड़ा दी। पर सरकार की नीतियां अभी भी ढुलमुल ही।
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17/05/2010

Friday, May 14, 2010

तो सोनिया का मुखौटा साबित हुए दिग्विजय

तो अब राज न पूछो नीति का। राजनीतिक दलों की नीतियां सत्ता और वोट के हिसाब से तय होने लगें। तो लोकतंत्र सिर्फ अध्यात्म का विषय भर रह जाएगा। झारखंड का झंझट सत्रहवें दिन भी नहीं सुलझा। तो गुरुजी का धैर्य जवाब दे गया। गुरुजी ने बहुत गुरुअई की, पर तू डाल-डाल मैं पात-पात का खेल खत्म नहीं हुआ। सो शिबू ने राजनीति के नंगेपन का ठीकरा जनता के सिर फोड़ दिया। शिबू मौजूदा हालात के लिए जनता के खंडित जनादेश को कोस रहे। पर झारखंड की जनता ने किसको नहीं आजमाया। झारखंड बना, तो बीजेपी ने बाबूलाल मरांडी को सीएम बना दिया। मरांडी जनता में लोकप्रिय होने लगे, कद और बढऩे लगा। तो अंदरूनी राजनीति के शिकार हो गए। फिर अर्जुन मुंडा सीएम बनाए गए। पहली सरकार ने टर्म पूरा किया। पर जब अलग झारखंड का पहला चुनाव हुआ। तो बीजेपी कमजोर हुई। पर जोड़तोड़ से बीजेपी ने आंकड़ा जुटा लिया। तो कांग्रेस ने तबके गवर्नर सिब्ते रजी से खेल करा दिया। शिबू सीएम हो गए। पर मामला सुप्रीम कोर्ट गया, तो शिबू को हटना पड़ा। फिर अर्जुन भी गाड़ी नहीं खींच सके। तो कांग्रेस ने लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में नाम दर्ज करा दिया। एकला एमएलए मधु कोड़ा को सीएम बनवा दिया। फिर शिबू-कांग्रेस-लालू सबने मिलकर मलाई काटी। अब ई.डी. की जांच चल रही। जिसमें मधु कोड़ा पर चार हजार करोड़ की संपत्ति अर्जित करने का आरोप। तब शिबू को जनता क्यों याद नहीं आई? शिबू खुद तीन बार सीएम हो चुके। पर कभी एमएलए क्यों नहीं बन पाए? जनता ने सबको देख लिया। जब मिलीजुली सरकार में कोई अकेला चार हजार करोड़ जमा कर ले। तो सोचो, किसी एक की सरकार होगी, तो क्या होगा? कोई मधु कोड़ा जैसा हुआ, तो कहीं पूरा झारखंड ही न बेच दे। पर मधु कोड़ा गए, तो कांग्रेस ने गवर्नर सिब्ते रजी के जरिए राज किया। अब सिब्ते रजी भी जांच के घेरे में। अब कोई पूछे, इसमें जनता का क्या कसूर? जनता तो यही देखना चाह रही, राजनीतिक दल कितनी ईमानदारी से झारखंड का विकास चाह रहे। पर सत्ता लोलुपों की नीति सिर्फ राज करने तक ही सीमित। तभी तो जो बीजेपी कभी नीति की बात करती थी। चाल, चरित्र, चेहरे की बात करती थी। झारखंड में अपना राज जमाने के चक्कर में चाल, चरित्र, चेहरे का असली राज खोल दिया। सो शुक्रवार को कांग्रेस ने फिर रंग दिखाया। पहले रांची में गवर्नर एम.ओ.एच. फारुख ने सरकार को बड़े फैसले न करने की हिदायत दी। तो इधर कांग्रेस ने एलान कर दिया। अगर जल्द झारखंड का झंझट नहीं सुलझा, तो कांग्रेस संवैधानिक उपचार की मांग करने को मजबूर होगी। सीधे-सपाट शब्दों में कहें, तो कांग्रेस ने धमकी दे दी। पर शकील अहमद से पूछा, कब ऐसी मांग करोगे। तो जैसे बीजेपी कोई समय नहीं बता पा रही, वही कांग्रेस का भी हाल। अगर बीजेपी की नीति का राज झारखंड ने बेनकाब कर दिया। तो कांग्रेस की नीति पर से राज का परदा खुद सोनिया गांधी ने उठाया। दंतेवाड़ा नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 74 जवान शहीद हुए। तो समूचा देश हिल उठा। तब कांग्रेस हो या बीजेपी, हर मंच से यही आवाज उठी। नक्सलियों ने देश के खिलाफ जंग छेड़ी। सो मुंहतोड़ जवाब दिया जाए। खुद होम मिनिस्टर चिदंबरम ने यही खम ठोका। पर छह अप्रैल को नक्सली हमला हुआ। ठीक आठवें दिन 14 अप्रैल को कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का सार्वजनिक लेख छपा। चिदंबरम को दिग्विजय ने बौद्धिक अकड़ू, जिद्दी की संज्ञा दे डाली। नक्सलवाद से निपटने के चिदंबरमी रुख की मुखालफत की। चिदंबरम को केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी याद कराई। पर मामले ने तूल पकड़ा, तो कांग्रेस ने दिग्विजय के लेख से दूरी बना ली। अब शुक्रवार को कांग्रेस के मुख पत्र कांग्रेस संदेश में सोनिया ने दिग्विजय का ही स्टैंड दोहराया। यों आतंकवाद के खिलाफ सोनिया ने चिदंबरम के रुख को ही दोहराया। पर नक्सलवाद के बारे में लिखा- नक्सलवाद की जड़ों तक पहुंचना जरूरी। नक्सलवाद का बढऩा इस बात का परिचायक कि हमारे विकास की पहल निचले तबकों तक ठीक से नहीं पहुंच पा रही। खास तौर से सबसे पिछड़े आदिवासी जिलों तक। इसलिए हमारी सरकार सबसे अधिक पिछड़े जिलों के लिए और लक्षित विकास योजनाएं लागू कर रही है। हू-ब-हू यही बात दिग्विजय ने अपने लेख में कही थी। तो उसी दिन आपको बताया था, दिग्विजय की यह निजी राय नहीं। अब शुक्रवार को खुद सोनिया ने साबित कर दिया। कलम दिग्विजय की थी, पर शब्द सोनिया के। सो शुक्रवार को दिग्विजय गदगद दिखे। पर शकील अहमद की दलील, चिदंबरम भी इसी रुख के। सो सवाल उठाना सही नहीं। पर दिग्विजय के लेख में सब साफ था। चिदंबरम नक्सलवाद को लॉ एंड आर्डर की तरह डील कर रहे थे। अब सोनिया गांधी का संपादकीय तो पहले ही तैयार था। सो तीन दिन पहले सीआईआई की मीटिंग में चिदंबरम ने कॉरपोरेट हस्तियों से नक्सली क्षेत्र में विकास से जुडऩे की अपील की। यानी सोनिया का हाथ दिग्विजय के साथ दिखा। तो चिदंबरम भी ढर्रे पर आ गए। सोनिया ने लक्ष्मण रेखा खींच दी। वैसे भी सोनिया अपनी नीतियों का राज जब भी खोलतीं, जुबान दिग्विजय की होती। अब दिग्विजय हिंदू आतंकवाद को साबित करने में जुटे। सो आप खुद देख लो, राजनीतिक दलों की नीति का क्या है राज।
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14/05/2010

Thursday, May 13, 2010

अब तो नेता खुद ही एक-दूसरे को जानवर मानने लगे

अपने शहरी विकास मंत्रालय ने सोमवार को साफ-सुथरे शहरों की रपट जारी की थी। तो चंडीगढ़ अव्वल आया। तब किसी ने सोचा भी न होगा, एक दिन बाद ही चंडीगढ़ राजनीतिक गंदगी के लिए सुर्खियों में आएगा। पर संयोग कहें या कुछ और, बुधवार को बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने चंडीगढ़ को इसका हिस्सा बना दिया। चंडीगढ़ में गडकरी की पहली रैली थी। पर जोश में ऐसा होश खोया, लालू-मुलायम जैसे क्षेत्रीय दिग्गजों को कुत्ता बता गए। सोनिया गांधी का तलवा चाटने वाला कह दिया। सो राजनीतिक भूचाल मचा। तो गडकरी ने जो उगला था, फौरन निगल लिया। विरोधियों की धार तेज न हो, सो हाजमा ठीक करने को माफी भी मांग ली। पर गडकरी की दलील देखो, लालू-मुलायम को कुत्ता नहीं कहा। अलबत्ता मुहावरे का इस्तेमाल किया। पर गडकरी ने भाषाई मर्यादा तोड़ी भी, तो लालू-मुलायम जैसों के खिलाफ। सो लालू ने फौरन जवाब दिया- ऐसा मुहावरा संघ की डिक्शनरी में होता होगा। उन ने गडकरी को संस्कारों का ऐसा सबक सिखाने का खम ठोका, जिससे गडकरी कभी ऐसी भाषा का इस्तेमाल न कर सकें। अब सोचो, लालू-मुलायम संस्कार सिखाएंगे, तो गडकरी का क्या होगा? पर मुलायमवादी कोर्ट में घसीटने की तैयारी कर रहे। कांग्रेस ने तो गडकरी की राजनीतिक हैसियत पर ही सवाल उठा दिए। शकील अहमद और मनीष तिवारी बोले- गडकरी अपने पद के लिए फिट नहीं। खुद भी ऐसा मान चुके, सो ताजा टिप्पणी उनकी संकीर्ण मानसिकता की परिचायक। यानी राजनीति में मौके के हिसाब से नैतिकता और मर्यादा तय होने लगीं। गडकरी की टिप्पणी को लालू ने लोकतंत्र को कलंकित करने वाला बताया। तो कोई पूछे, चौबीस अगस्त 2006 को लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर लोकसभा में लालू-प्रभुनाथ ने किसका नाम रोशन किया था? मां-बहन की गाली से लेकर किसी राहगीर को दोनों एक-दूसरे का बहनोई बता रहे थे। सदन में जमकर हाथापाई हुई थी। लोकसभा का हालिया किस्सा ही देख लो। बीजेपी के अनंत कुमार ने लालू को गद्दार कह दिया। पर खुद माफी मांगने को तैयार नहीं हुए। सो सुषमा स्वराज ने सदन में माफी मांगी। तृणमूल के सुदीप बंदोपाध्याय ने माकपाई वासुदेव आचार्य पर अभद्र टिप्पणी कर दी। तो विपक्षी खेमे के सभी नेता सदन में नैतिकता झाडऩे लगे। पर भाषाई मर्यादा बेलगाम होने के किस्से यहीं खत्म नहीं। जब एनडीए सत्ता में था, 2004 में चुनावी शंखनाद हुआ। तो प्रमोद महाजन ने सोनिया गांधी की तुलना मोनिका लेविंस्की से की थी। नरेंद्र मोदी ने राहुल को जर्सी बछड़ा, तो सोनिया को इटली की.... कह दिया था। सो तब कांग्रेस नैतिकता का पाठ पढ़ा रही थी। यों तब वाजपेयी राज था, सो वाजपेयी ने अपने नेताओं को फटकार लगाने में तनिक भी देर नहीं की थी। फिर गुजरात चुनाव में मर्यादा की हदें खूब लांघी गईं। सोनिया गांधी ने नरेंद्र मोदी को मौत का सौदागर कहा। दिग्विजय सिंह ने हिंदू आतंकवाद का जुमला दिया। तो जवाब में मोदी ने भी कांग्रेसियों को सोहराबुद्दीन जैसों का पनाहगार बता दिया। अब बुधवार को सिर्फ गडकरी ने नहीं, मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने लोकलाज की परवाह नहीं की। यों गडकरी की भावना सोलह आने सही। लालू-मुलायम ने निजी स्वार्थ की खातिर जिस तरह गिरगिट की तरह रंग बदले। उसे जनता की राजनीति तो नहीं कह सकते। एटमी डील हो या महंगाई पर कटौती प्रस्ताव, लालू-मुलायम सुर बदल सत्ता की गोद में जाकर बैठ गए। अब लालू-मुलायम की राजनीति सीमित दायरे में। वन मैन आर्मी वाली पार्टी का वैसे भी कब, क्या स्टैंड होगा, मालूम नहीं। पर गडकरी से ऐसी जुबान की उम्मीद नहीं थी। सो बाद में उन ने माफी मांग ली। पर मध्य प्रदेश में कांग्रेसी एमएलए मर्यादा का क, ख, ग भी भूल गए। स्वर्णिम मध्य प्रदेश के नाम पर विधानसभा का विशेष सत्र चल रहा। पर कांग्रेसी सत्र का बॉयकाट कर रहे। विधानसभा की सीढ़ी पर धरना दे रहे। बुधवार को बीजेपी की एमएलए ललिता यादव थोड़ी देर से विधानसभा पहुंचीं। तो एक कांग्रेसी एमएलए ने चुटकी ली, इतनी लेट हो गईं, कैसे स्वर्णिम मध्य प्रदेश बनेगा। बीच में दूसरे ने टिप्पणी कर दी, ब्यूटी पार्लर में देर हो गई होगी। तीसरे ने जो कहा, उसे लिख नहीं सकते। सो बात विधानसभा स्पीकर ईश्वर दास रोहाणी तक पहुंची। सदन में ललिता रोईं। तो चैंबर में स्पीकर भी फूट-फूट कर रोए। फिर भी कांग्रेस ने गुरुवार को मध्य प्रदेश की घटना पर चुप्पी साधी। पर गडकरी को नैतिकता सिखा रही। आखिर यह राजनीति की कैसी मर्यादा? एक वक्त था, जब नेहरू अपने विरोधियों के खिलाफ चुनाव में या तो उम्मीदवार नहीं देते थे या कमजोर उम्मीदवार उतारते थे। वाजपेयी तक मर्यादा विरोधी और शत्रु में फर्क रहा। पर अब राजनीति निजी रंजिश वाली हो चुकी। राजनीतिक दलों की विचारधारा मर चुकी। सो सिर्फ वोट के लिए सारे तिकड़म हो रहे। तभी तो अनंत कुमार हों या लालू-मुलायम-सुदीप-मणिशंकर जैसे दिग्गज नेता। जिनका राजनीतिक कैरियर दो-तीन दशक पुराना हो चुका। पर स्तर गिर चुका। अब तो बड़े मियां ही सुभान अल्लाह। सोचो, छोटे मियां क्या करेंगे। कलराज मिश्र ने सही फरमाया, नेता संयम में रहकर भाषा का प्रयोग करें, क्योंकि नेता जनता से जुड़ा होता है और जनता पर नेता की बात का फर्क पड़ता है। सो बेहतर होगा, अब नेता जनता को दोष न दें। अब तो खुद नेता ही एक-दूसरे को जानवर बता रहे। तो सोचो, राजनीति का स्तर क्या रह गया।
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13/05/2010

Wednesday, May 12, 2010

तो कांग्रेस खेल रही दूरी बनाने-मिटाने का खेल

यों कहने को प्यार, जंग और राजनीति में सब जायज। पर जब प्यार पर पहरा लगा, तो राजनेता या तो पहरेदारों के साथ हो लिए। या फिर चुप्पी साधकर बैठ गए। सो बदलते वक्त के साथ पहरेदार अब समाज के ठेकेदार हो चुके। पर करनाल की सैशन कोर्ट ने जब तीस मार्च को मनोज-बबली हत्याकांड में कुछ ठेकेदारों को लपेटा। तो इन कथित ठेकेदारों के पेट में गुडग़ुड़ी होने लगी। मनोज-बबली का प्यार परवान चढ़ा, तो गोत्र की फिक्र नहीं की। आखिर करते भी क्यों, प्यार धर्म-जाति-गोत्र पूछकर नहीं होता। कब किस पर किसका दिल आ जाए, किसका प्यार परिणति तक पहुंचे, कोई भी नहीं जानता। शायद यही वजह है कि प्यार और कानून को अंधा कहा गया। प्यार सिर्फ इनसान को देखता है, कानून सिर्फ सबूत। पर खाप पंचायत के तुगलकी फरमान ने मनोज-बबली को जिंदगी से जुदा कर दिया। तो अदालत ने भी अपना काम बखूबी निभाया। कथित ठेकेदारों में से पांच को फांसी, एक को उम्रकैद, एक को सात साल की सजा दी। सो तबसे खाप पंचायत के लोग मुहिम पर उतारू। शुरुआत में लोगों ने तवज्जो न दी। पर हरियाणा में स्थानीय चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई। तो खाप ने महापंचायत बुलाकर नवीन जिंदल समेत राज्य के सभी सांसदों से 25 मई तक रुख साफ करने को कहा। खाप के इस फरमान का असर ही कहेंगे। बीते इतवार कैथल की महापंचायत में कांग्रेस के युवा सांसद नवीन जिंदल को पहुंचना पड़ा। पर जिंदल के सिर खाप का खौफ इतना हावी, उन ने खत लिखकर समर्थन दिया। संसद में आवाज बुलंद करने का एलान कर दिया। यों जिंदल पढ़े-लिखे, प्रगतिशील विचारों के इनसान। आज भी वह दृश्य याद है, जब जिंदल 2004 के चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हुए थे। तब सवाल-जवाब हुए, तो कांग्रेस के औपचारिक मंच से जिंदल ने तबके पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की जमकर तारीफ की थी। शायद तब राजनीति की पाठशाला में शामिल हुए थे। सो लाग-लपेट नहीं था। पर अब तो सांसदी का दूसरा टर्म। सो राजनीति के पेच समझने लगे। सांसदी की कुर्सी का मोह छोडऩे का मन शायद किसी बिरले का ही होता होगा। पर जिंदल कोई बिरले नहीं। सो उन ने वोट बैंक खिसकने के डर से खाप को खुला समर्थन दिया। हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधन की खाप की मांग को जायज ठहराया। पर बवाल मचा, खुद विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने ऐसी मांग को खारिज कर दिया। तो जिंदल सफाई देने लगे, ऑनर किलिंग की हिमायत नहीं की। पर खाप की मांग क्या है। खाप यही तो चाह रहा, एक गोत्र में शादी कानूनन बैन हो और कोई ऐसी जुर्रत करे, तो खाप के फरमान को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके। यानी खाप खुद ही पुलिस, वकील और जज की भूमिका चाह रहा। आखिर यह मांग करनाल कोर्ट के फैसले के बाद ही तो उठी। तो क्या खाप अब भी मनोज-बबली की हत्या को अपना जुर्म नहीं मानेगा? समाज की परंपरा के नाम पर मौत का फरमान देने वाला खाप कौन होता? क्या समाज के इन ठेकेदारों ने कभी भूख और गरीबी से जूझने वाले किसी परिवार की सुध ली है? जब कोई खाप किसी के घर का चूल्हा नहीं जलवा सकता। तो उसे समाज की ठेकेदारी का हक किसने दिया? समाज जोडऩे के लिए होता, उजाडऩे के लिए नहीं। अगर खाप की बात मान भी ली जाए। तो क्या प्यार करने वालों को पहले खाप की परमिट लेनी होगी? क्या कांग्रेस सांसद नवीन जिंदल को समझ नहीं, क्या चाह रहा है खाप? अब भले क्षेत्रीय राजनीति के हिसाब से जिंदल ने खाप को समर्थन दिया। पर मुश्किल में फंस गई कांग्रेस। कांग्रेस हमेशा से विवादित मुद्दों पर मध्य मार्ग ही चुनती। सो खाप के मसले पर कांग्रेस का यही स्टैंड रहा, कानून अपना काम करेगा। पर खाप के समर्थन में बोल जिंदल ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। तो बुधवार को हरियाणा कांग्रेस के इंचार्ज पृथ्वीराज चव्हाण ने नोटिस भेज दिया। खाप पर बयानबाजी से दूर रहने की हिदायत दी। लगे हाथ सफाई मांगी, क्यों पार्टी स्टैंड के खिलाफ खाप पंचायत में हिस्सा लिया। पर कांग्रेस ने सिर्फ जिंदल के बयान से दूरी बनाई। न खाप के समर्थन में कुछ कहा, न खिलाफ। पर कोई पूछे, जिंदल को नोटिस तो दिया। पर भूपेद्र सिंह हुड्डा के करीबी राज्यसभा सांसद शादीलाल बत्रा को क्यों नहीं। बत्रा ने भी खाप की मांग का समर्थन किया। यों खाप के तुगलकी फरमान किसी से छुपे नहीं। फिर भी वोट बैंक के डर से कोई सवाल नहीं उठाता। मंगलवार को रिटायर हुए चीफ जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन ने भी खूब फरमाया। कहा- जब हम प्यार में होते हैं, तो किसी कानून को नहीं मानते। सो कानून में संशोधन हो या नहीं.. यह सामाजिक मुद्दे हैं और लोग दर लोग विचार बदलते रहते हैं। पर समाज की इन ठेकेदारी प्रथा पर रोक नहीं लगी, तो ऐसी मांग देश की व्यवस्था के लिए नासूर बन जाएगी। जिंदल के बाद ओमप्रकाश चौटाला ने भी खम ठोका। तो वोट की खातिर सफेद झूठ बोल गए। चिदंबरम से मिले किसी और मुद्दे पर। मीडिया में आकर कह दिया, हमने हिंदू मैरिज एक्ट में संशोधन के लिए ज्ञापन दिया। सो मंगलवार को ही गृह मंत्रालय ने स्पष्टीकरण जारी कर दिया। चौटाला ने चिदंबरम से मुलाकात में ऐसी कोई बात नहीं कही। सो सियासतदानों का रंग आप खुद देख लो। पर बात कांग्रेस की, इधर बुधवार को नवीन जिंदल से दूरी बनाई। तो उधर जयराम दूरी मिटाने के लिए पी. चिदंबरम से मिले। चीन में की गई अपनी टिप्पणी पर मीडिया के सामने चुप्पी अभी भी नहीं टूटी।
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12/05/2010

Tuesday, May 11, 2010

दिल मिलें, न मिलें, मिलते रहेंगे भारत-पाक के हाथ

अमेरिका को भले पाक पर एतबार न हो। हिलेरी क्लिंटन तक को कहना पड़ गया- पाक को मालूम, कहां छुपा है लादेन। पर पाक के अधिकारी सही जानकारी नहीं दे रहे। अब भले मंगलवार को अमेरिकी प्रवक्ता ने पाक पर लगाए इल्जाम को नरम करने की कोशिश की। पर सच तो हिलेरी की जुबां से निकल चुका। आखिर पाक का ही कनेक्शन दुनिया की हर आतंकी घटना से क्यों जुड़ जाता। पर वही अमेरिका गाहे-ब-गाहे भारत को पाक से वार्ता की सलाह दे जाता। सो मुंबई हमले के गुनहगार कसाब को फांसी की सजा से पहले विदेश सचिव स्तर की बातचीत हो चुकी। अब मंगलवार को दोनों देशों के विदेश मंत्री करीब 25 मिनट तक फुनियाए। तो तय हुआ, फोन पर नहीं, आमने-सामने बतियाएंगे। जुलाई की 15 तारीख भी मुकर्रर हो गई। विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा इस्लामाबाद जाएंगे। तो अपने समकक्ष शाह महमूद कुरैशी से मिलेंगे। वही कुरैशी, जिन ने भारत के बातचीत के न्योते का पाकिस्तान में मजाक उड़ाया था। भारत को घुटना टेकने वाला बताया था। मुंबई हमले के बाद दोनों देशों की शांति वार्ता ठप हो चुकी थी। बाद में अमेरिकी दबाव में भारत ने आगे बढक़र हाथ बढ़ाया। तो कुरैशी ने चोरी और सीना जोरी दिखाते हुए पाक अवाम में हीरो बनने की कोशिश की। खम ठोककर कहा- देखो, जो भारत हमसे बात करने को तैयार नहीं था। आतंकवाद का आरोप मढ़ा। अब वही भारत हमसे कह रहा, आओ मिल-बैठकर बात करें। कुरैशी इतना तक कह गए। फिर भी भारत ने सचिव स्तरीय वार्ता शुरू की। अब सार्क देशों के गृह मंत्रियों की मीटिंग में 26 जून को पहले पी. चिदंबरम इस्लामाबाद जाएंगे। फिर 15 जुलाई को एस.एम. कृष्णा। पर सवाल उठना लाजिमी, आखिर पाक ने ऐसा क्या किया, जो बात आगे बढ़ रही? मुंबई हमले के दोषियों को पाक में क्या सजा मिली? किस आतंकवादी ढांचे को पाक ने नेस्तनाबूद किया? आखिर बातचीत का कोई तो आधार हो। वरना सिर्फ बात के लिए बात का क्या मतलब? अमेरिकी दबाव में कब तक भारत-पाक के बीच रस्म अदायगी वाली वार्ता होगी? शायद दोनों देशों को यह बखूबी मालूम, मजबूरी की इस वार्ता का कोई अर्थ नहीं। तभी तो कसाब को भारत की अदालत ने फांसी की सजा सुनाई। अपने चिदंबरम-कृष्णा-मोइली जैसे वरिष्ठ मंत्रियों ने इसे पाक के लिए सबक बताया। आतंक का निर्यात बंद करने की नसीहत दी। तो पाक बौखला गया। पाक प्रवक्ता ने उलटे नसीहत दी, भारतीय नेता जुबां पर संयम रखें। अब ऐसे पाक से कोई क्या उम्मीद करेगा। जब कसाब को मिली सजा पाक को नहीं पच रही। तो पाक में बैठे 26/11 के साजिशकर्ताओं को क्या सजा मिल पाएगी? पर निरर्थक नतीजे की उम्मीद में हम आगे क्यों बढ़ रहे? यह नेतृत्व की कमजोरी या मजबूरी या फिर दोनों? अंकल सैम को चुनौती देने वाली इंदिरा गांधी जैसी शख्सियत अब नहीं। मनमोहन सिंह अपनी दूसरी पारी में मजबूत होकर उभरे। पर अबके विपक्ष नहीं, टीम में शामिल सिपहसालार ही कमजोर कर रहे। मंत्रियों की बयानबाजी, आपसी भिड़ंत साल भर में ही परेशान कर चुकी। शशि थरूर के बाद अब जयराम रमेश तेवर दिखा रहे। पी. चिदंबरम वाली होम मिनिस्ट्री की नीति पर चीन जाकर सवाल उठा दिया। पीएम ने फटकार लगाई। तो चिट्ठी लिखकर सोनिया-मनमोहन से खेद जता दिया। पर मंगलवार को सवाल हुए, तो जयराम के तेवर में कोई कमी नहीं। प्रेस कांफ्रेंस में आए, तो तल्खी दिखाते हुए कह दिया- मैं यहां चीन में की गई टिप्पणी के संदर्भ में कुछ भी कहने नहीं आया हूं। पर सवालों की बौछार हुई। तो माफी या सफाई के सवाल को टाल गए। फिर पूछा गया, क्या कांग्रेस मुख्यालय जाएंगे? तो तल्खी भरे अंदाज में पलटकर पूछा, किसलिए? वैसे भी भारतीय मीडिया के सवाल जयराम को चुभ रहे होंगे। पर चीनी मीडिया के तो हीरो बन गए। चाइना डेली ने जयराम के बयान की तारीफ की। पर चाइना चालाकी दिखा गया। जयराम ने ब्रह्मपुत्र के पानी को मोडऩे के संदर्भ में टिप्पणी की थी। तो उसे खारिज कर दिया। यानी चीनी मीडिया ने जयराम का मीठा-मीठा घप, कड़वा-कड़वा थू कर दिया। फिर भी जयराम इतराएं। तो राम ही राखा। अब पड़ोसी देश के बारे में अपना मंत्री ही ऐसी टिप्पणी करने लगे। तो अपनी विदेश नीति दिग्भ्रमित होगी। चीन सीमा विवाद के बहाने लगातार तेवर दिखा रहा। तो दूसरी तरफ पाक आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा। सो मंगलवार को दोनों विदेश मंत्रियों की बातचीत हुई। तो बीजेपी ने सवाल उठाया। जब पाक मुंबई हमले के दोषियों पर कार्रवाई नहीं कर रहा। तो भारत वार्ता की प्रक्रिया को अपग्रेड क्यों कर रहा? पहले पाक छह जनवरी 2004 का वादा निभाए। फिर वार्ता हो। पर सरकार किसी की भी हो, यही होता। कारगिल के बाद एनडीए सरकार ने वार्ता की थी। संसद पर हमले के बाद ऑपरेशन पराक्रम हुआ, फिर पाक से वार्ता हुई। सो हमाम में सब एक जैसे। पर बीजेपी की बात चली। तो झारखंड का जिक्र जरूरी। झारखंड की राजनीति उलझती जा रही। पर मंगलवार को बीजेपी की मीटिंग अपग्रेड होकर सीएम के चयन तक पहुंच गई। अब फिर संसदीय बोर्ड बैठेगा। तब कोई फैसला होगा। पर हेमंत सोरेन ने फिर 50-50 की चाल चल दी। यानी जहां से चले थे, वहीं लौट आए। कटौती प्रस्ताव के अगले दिन बीजेपी ने समर्थन वापसी का फैसला किया। फिर सत्ता की रेवड़ी देख लार टपक गई। अब सुबह का भूला शाम को घर लौट आए, तो उसे भूला नहीं कहते। पर कोई चौदह दिन बाद भी न लौटे, तो....।
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11/05/2010

Monday, May 10, 2010

पहले अमेरिका, अब चीन की पैरवी का क्या मतलब?

पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन की वजहों में चीन से हार का सदमा भी माना जाता। हाल ही में चीनी अतिक्रमण बढ़ा था। तो संसद और संसद के बाहर विपक्ष ने यही वजह गिना कांग्रेस को झकझोरने की खूब कोशिश की। वाकई नेहरू ने हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया था। पर चीन ने पीठ में खंजर घोंप दिया। सो 1962 का वह जख्म आज भी कोई भारतवासी भुला नहीं पाता। वैसे भी चीन की साम्यवादी सरकार जिस नीति की पोषक, उस पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं किया जा सकता। पर अपनी ही मिट्टी में जन्मे और रचे-बसे कुछ चीनी पैरोकार भी। सो गाहे-ब-गाहे चीनी प्रेम दिखा ही जाते। यूपीए-वन की सरकार में लेफ्ट अपने समर्थन की वसूली कर रहा था। जब-तब चीनी कंपनियों को विशेष रियायत देने की आवाज उठती रहती थी। तब लेफ्ट सरकार का हिस्सा नहीं, अलबत्ता बाहर से समर्थन दे रहा था। पर अबके सरकार के मंत्री ही चीनी कंपनी की लॉबिंग कर रहे। अपने जयराम रमेश वन व पर्यावरण मामले के स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री। पर लगता है, पद में स्वतंत्र क्या जुड़ा, जयराम कुछ अधिक ही स्वतंत्र हो गए। सो अबके उन ने चीन में जाकर अपने गृह मंत्रालय की मीन-मेख निकाली। दूर संचार क्षेत्र की एक चीनी कंपनी हुआवेई का निवेश भारत में नहीं हो पा रहा। अपने पी. चिदंबरम सुरक्षा कारणों से चीन के मामले में काफी सतर्क। पर कंपनी से ज्यादा जयराम रमेश को अखर गया। बीजिंग में कह दिया- गृह मंत्रालय का रुख जरूरत से ज्यादा रक्षात्मक और सावधानी बरतने वाला। सो चीनी निवेश की खातिर गृह मंत्रालय को नरम रुख अपनाना चाहिए। अब गृह मंत्रालय पर कांग्रेसी खेमे से यह दूसरी बड़ी टिप्पणी। पहले दिग्विजय सिंह उंगली उठा चुके। अब एक मंत्री ने सवाल उठा दिया। तो कांग्रेस में खलबली मच गई। हमेशा की तरह कांग्रेस ने मंत्री के बयान से दूरी बना ली। बीजिंग से सोमवार की सुबह लौटे जयराम ने पीएम से बात की। तो पीएम ने सलाह दी- दूसरे मंत्रालय के कामकाज पर टिप्पणी न करें। जहां तक चीन से संबंध का सवाल, तो सरकार के रुख में कोई भ्रम नहीं। अब आप इसे पीएम की फटकार कहेंगे, या कुछ और। अपनी नजर में तो यही लग रहा, जैसे पीएम सफाई दे रहे। वैसे विदेशी धरती पर अपने घर की पोल खोलना यूपीए सरकार की नई आदत नहीं। अपने पीएम तो देश में कभी-कभार ही बोलते। विदेश दौरे के वक्त घरेलू मुद्दों पर खुलकर बोलते। याद है, कैसे एटमी डील का वाजपेयी ने विरोध किया। तो मनमोहन ने वाशिंगटन में जॉर्ज बुश से वाजपेयी का नाम लेकर शिकायत की थी। सो जब मनमोहन ही ऐसा करें, तो फिर जयराम गलत कहां। यों जयराम ने एक गलती जरूर की। मनमोहन विदेश में जाकर विपक्ष पर हमलावर रहे। तो जयराम अपनी ही सरकार की पोल खोलने लगे। सो कांग्रेस ने फौरन बयान को गैरवाजिब बताया। उचित फोरम पर बात रखने की नसीहत दी। पर यह कोई पहला मौका नहीं, जब जयराम को ऐसी नसीहत मिली हो। वैसे तो यूपीए-टू की टीम मनमोहन में बयान बहादुरों की कमी नहीं। पर कोपेनहेगेन समिट से पहले पिछले साल अक्टूबर में भी जयराम ने सरकार की फजीहत कराई थी। जब पीएम को चिट्ठी लिख सलाह दी, भारत अपना स्टैंड बदल ले। तकनीकी के लिए सहायता की शर्त छोड़ जी-77 से खुद को अलग कर यूएस का साथ दे। यानी जयराम की सलाह थी, गुटनिरपेक्ष देशों की नेतागिरी छोड़ अमेरिका की बात मान लो। पर बवेला मचा, बीजेपी ने अमेरिका के लिए लॉबिंग करने का आरोप लगाया। खुद कांग्रेस ने अपने होनहार जयराम से दूरी बना ली। तो बीस अक्टूबर 2009 को सार्क देशों के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में क्योटो प्रोटोकॉल पर ही राजी होना पड़ा था। संसद में भी सफाई देनी पड़ी थी। बीटी बैंगन पर भी जयराम ने खूब लॉबिंग की। पर आखिरकार लौट के घर आना पड़ा। तो खुन्नस में वरिष्ठ मंत्रियों पर ही खीझ उठे। फिर गंदगी के मामले में देश के लिए नोबल प्राइज का सुर्रा छेड़ सुर्खियों में छाए। प्रोजैक्ट को लेकर केबिनेट में कमलनाथ से तू-तू, मैं-मैं। डिग्री लेते वक्त गाउन पहनना एक परंपरा। पर जयराम ने पहनने के बाद मंच से उसे उतार फेंका। दलील दी, यह गुलामी की निशानी। पर कोई पूछे, मंच पर आने से पहले पहना ही क्यों था? जयराम को मीडिया की सुर्खी बनना खूब पसंद। तभी तो दिन में एकाध प्रेस कांफ्रेंस कर ही लेते। पर जयराम का विवाद से यहीं नाता खत्म नहीं। यूपीए-वन में जब रामसेतु पर हलफनामे में गड़बड़ हुई थी। तो अंबिका सोनी से इस्तीफा मांगने वालों में सबसे पहले खड़े थे जयराम। पर अबके चीन की पैरवी कर फंस गए जयराम। बीजेपी तो झारखंड का अपना आचरण भूल जयराम के आचरण पर सवाल उठाए। पीएम को इस्तीफा मांगने की सलाह दी। बीजेपी ने चिदंबरम की नीति को जायज ठहराया। कहा- चीनी हैकर इतने सक्रिय हो चुके, सो चिदंबरम की नीति सही। वाकई चीन की विस्तारवादी नीति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चीन के बारे में यहां तक कहा जाता, उसने दुनिया के महत्वपूर्ण देशों के दस्तावेज चुराने के लिए हैकरों की एक आर्मी तैयार कर ली है। ऐसे में किसी चीनी कंपनी के हित में कोई भारतीय मंत्री इस हद तक जाए, तो क्या कहेंगे आप? आखिर चीन में ऐसी क्या आवभगत हुई, जो विदेश में देश की नीति पर सवाल उठा दिए? कभी अमेरिका, तो कभी चीन की पैरवी का क्या मतलब?
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10/05/2010

Friday, May 7, 2010

तो पक्ष-विपक्ष फील गुड में, ठगा सा आम आदमी

अब जाति पूछो साधु की। तो राजनीतिक दबाव में कबीरवाणी पलटेगी। बजट सत्र के आखिरी दिन विपक्षी दबाव असर दिखा गया। जनगणना में जाति शामिल करने की मांग पर पी. चिदंबरम ने टालू रवैया अपनाया। तो हंगामा मच गया। आखिर सोनिया-प्रणव ने लालू-शरद-मुलायम से गुफ्तगू की। फिर पीएम ने भरोसा दे ही दिया। जातीय जनगणना पर केबिनेट में जल्द फैसला करेंगे। पर सुषमा स्वराज का दावा, अब जनगणना में जाति का कॉलम शामिल होगा। सो बजट सत्र का समापन शांतिपूर्ण माहौल में हुआ। पर बजट सत्र ने कई मायनों में इतिहास रचा। राज्यसभा में महिला बिल पास हुआ। तो सात बवाली सांसदों ने मर्यादा ताक पर रख दी। मार्शल का इस्तेमाल भी इसी सत्र की गौरवगाथा में लिखा जाएगा। संसद कैसे चुनावी अखाड़ा बन चुका, इसकी मिसाल तो माननीयों ने कई बार दी। राज्यसभा में अरुण जेतली पर मणिशंकर अय्यर की अभद्र टिप्पणी। लोकसभा में सुदीप बंदोपाध्याय और वासुदेव आचार्य के बीच हुआ संवाद। फिर अनंत कुमार बनाम लालू की भिड़ंत। सबका निचोड़ आखिर में यही निकला। किसी ने माफी मांगी, तो किसी ने खेद जताया। शक्तियों से लैस संसद वैसे ही असहाय दिखी, जैसे गांव में चौक-चौराहे पर बैठा बुजुर्ग। आसंदी ने भी कोई ठोस फैसला नहीं लिया। सो सांसदों ने संसद को बपौती मान लिया। पर शुक्रवार को आखिरी दिन स्पीकर मीरा कुमार की व्यथा जुबां पर आ ही गई। सदन में बेवजह हंगामे में बीते पल-पल का ब्यौरा दिया। लगे हाथ नसीहत, अगर ऐसा ही चलता रहा, तो नहीं बचेगा संसदीय लोकतंत्र। सांसदों को सोचना होगा, कैसे छवि सुधारें, क्योंकि मीडिया और जनमानस में सांसदों की छवि खराब हो रही। अब मीरा की व्यथा जायज। पर क्या ऐसा कहने वाली वह पहली स्पीकर? सोमनाथ चटर्जी हों या मनोहर जोशी या जीएमसी बालयोगी या पीए संगमा। सबने गाहे-ब-गाहे सांसदों के हंगामे पर चिंता जताई। पर सिर्फ चेहरे बदलते रहे, सांसदों का चरित्र नहीं बदला। आखिर कैसे बदलेगा। आप गुरुवार का किस्सा लो। सुषमा स्वराज ने बतौर नेता अनंत कुमार की असंसदी टिप्पणी पर बिना इफ एंड बट के माफी मांगी। पर पता है, बीजेपी के वरिष्ठ महासचिव, नीति नियंता संसदीय बोर्ड के कर्ता-धर्ता माननीय अनंत कुमार ने बाद में क्या कहा। अनंत बोले- सुषमा ने मेरा नाम लेकर माफी नहीं मांगी। सो 543 सांसदों में कोई भी हो सकता है। अब बीजेपी की अनंत कथा को क्या कहेंगे। सुषमा स्वराज का माफीनामा क्या अनंत में सुधार ला पाया? अनंत को तो यह भी पता नहीं चला, जुबां से क्या असंसदीय शब्द निकल गया। पर शुक्रवार को जब सुषमा से पूछा गया, अबके संसद में मर्यादा तोड़ू प्रकरण खूब हुए। तो सुषमा बोलीं- भले कहीं भी पार्टी नेता कुछ बोल जाएं। पर कम से कम संसद में वाणी पर संयम होना चाहिए। पर संसदीय फोरम अब बहस के लिए नहीं रह गया। अलबत्ता राजनीतिक दल सुविधा के मुताबिक नैतिकता का मापदंड तय कर रहे। हूटिंग-शूटिंग, गाली-गलौज मानो सांसदों के स्वभाव में जुड़ गया हो। राजनीतिक दल अब विरोधी नहीं, शत्रु की भांति आपस में लडऩे लगे। राजनीतिक कटुता का एक अद्भुत नमूना पिछली लोकसभा में दिखा था। लालकृष्ण आडवाणी आतंकवादी हमले पर बोल रहे थे। तो उन ने कोयंबटूर विस्फोट का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि अगर टीवी इंटरव्यू में लेट न हुए होते, तो शायद वह भी आतंक के शिकार हो गए होते। तभी सत्ताधारी बैंच से बैठे-बैठे एक सांसद ने टिप्पणी कर दी- अच्छा होता, अगर लेट न हुए होते। तबके स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने टिप्पणी सुन ली। सो चुनौती दी- हिम्मत है, तो खड़े होकर बोलो। अब तो आए दिन गुस्से में एक दल के सांसद दूसरे दल के सांसद पर कभी मुक्का तान देते, तो कभी मां-बहन की गाली दे देते। सो कब सुधरेंगे अपने माननीय, यह तो वही जानें। पर बजट सत्र में कौन जीता, कौन हारा और किसकी टांय-टांय फिस्स हुई, यह आप खुद देख लो। बजट सत्र की शुरुआत महंगाई के मुद्दे से हुई। दूसरे चरण में बीजेपी ने लाखों लोगों की रैली की। लेफ्ट की रहनुमाई में तेरह दलों ने भारत बंद किया। पर महंगाई का क्या बिगड़ा। आईपीएल पर संसद कई दिन ठप रहा। पर नतीजा क्या निकला। अब बीजेपी शशि थरूर की बलि को जीत बता रही। पर शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल के इस्तीफे पर अब भी खामोश। आईपीएल और टेलीफोन टेपिंग पर जेपीसी की मांग पीएम ने ठुकरा दी। फिर भी बीजेपी यही कह रही- हमने संसद में नियमों की हर विधा का इस्तेमाल कर सरकार को कटघरे में खड़ा किया। पहली बार कटौती प्रस्ताव लेकर आए। आईपीएल पर थरूर का इस्तीफा कराया। जातीय जनगणना पर पीएम से वादा लिया। परमाणुवीय नुकसान के लिए सिविल दायित्व बिल का विरोध किया। अब कोई पूछे, महंगाई हो या आईपीएल या टेपिंग या सिविल दायित्व बिल, आखिर किसकी चली। सरकार ने जो चाहा, कर लिया। अगर विपक्ष रार ठान लेता, महंगाई पर कदम उठाए बिना वित्तीय कामकाज नहीं होने देंगे। तो शायद सरकार हरकत में आती। पर विपक्ष ने हर काम में साथ दिया। शुक्रवार को सिविल दायित्व बिल तभी पेश हो सका, जब बीजेपी-लेफ्ट वाकऑउट कर गए। बीजेपी ने वोटिंग की मांग नहीं की। अब यह विपक्ष और सत्तापक्ष की जुगलबंदी नहीं तो क्या? सत्तापक्ष बजट सत्र को अपनी जीत बता रहा, विपक्ष अपनी। यानी बजट सत्र से फील गुड में पक्ष और विपक्ष। पर ठगा सा रह गया, सिर्फ आम आदमी।
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07/05/2010

Thursday, May 6, 2010

26/11 से 06/05 ... पर मंजिल अभी दूर

पाक रे पाक, तेरा इरादा कितना नापाक। जुर्म करो इंडिया में, सजा मिले पाक में। क्या तभी होगा न्याय? अपनी स्पेशल कोर्ट ने कसाब को फांसी की सजा दी। तो फरीदकोट में रहने वाले कसाब के शुभचिंतकों ने जतला दिया, पाक हुक्मरान का अगला कदम क्या होगा। कसाबवादी पाकिस्तानियों ने भारत की न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए। दलील दी, अगर सबूत था, तो पाक की अदालत में पाक के कानून के तहत सजा मिले। पर सवाल, अब तक कितने आतंकवादियों को पाक की अदालत ने सजा दी? मौलाना अजहर मसूद, जकीउर रहमान लखवी जैसों के खिलाफ भारत ने न जाने कितने सबूत दिए। पर पाक हुक्मरान भारत के दिए हर डोजियर को डाइजेस्ट कर गए और डकार तक नहीं ली। कसाबवादी यह भी भूल गए, कैसे पाक ने कसाब को अपना मानने से इनकार कर दिया था। कसाब के साथ आए बाकी नौ आतंकियों की लाश पाक ने नहीं ली। तो इसी साल जनवरी में दफना दिया गया। पर अब न्यायिक प्रक्रिया के तहत पाक बेनकाब हुआ। तो चेहरा ढांपने को बहाने ढूंढ रहा। पाक प्रवक्ता ने कसाब को फांसी पर चुप्पी साध ली। पर भारतीय नेताओं की टिप्पणी को गैरवाजिब बता दिया। यानी पाक अब भी सबक लेने को तैयार नहीं। खुद के भस्मासुरों से पाक परेशान। दुनिया में कहीं भी आतंकी वारदात हो, उसका लिंक कहीं न कहीं पाक से ही जुड़ जाता। फिर भी पाक है, कि सुधरने का नाम नहीं। अब ताजा मुद्दा न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर में कार बम का। तो आरोपी पाकिस्तानी निकला। महज 48 घंटे में अमेरिकी पुलिस ने आतंकी फैजल शहजाद को गिरफ्तार कर लिया। फौरन एफबीआई का दस्ता फैजल के पाक स्थित घर पहुंच गया। अब अमेरिका को पाक में खुली छूट। तो पाक आखिर भारत की धौंस में क्यों आएगा। तभी तो 26/11 के बाद भी पाक ने आरोपियों पर ठोस कार्रवाई नहीं की। भारत ने कूटनीतिक दबाव बनाया। पर अमेरिका का दोगलापन बीच में आ गया। अब कसाब को फांसी हुई। तो अमेरिका ने फिर पाक को सख्ती का संदेश दिया। पर मुंबई हमले का मास्टर माइंड डेविड हैडली और राणा तो अमेरिकी गिरफ्त में। हैडली पर भारतीय कानून का जोर नहीं चल सकता। अमेरिका ने उस आतंकवादी से समझौता कर लिया। सो भले निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया के तहत कसाब को फांसी मिली। पर अपनी नजर में यह अधूरा न्याय। लखवी हो या हैडली-राणा अपनी पहुंच से बाहर। यों विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने कसाब की सजा को पाक के लिए सबक बताया। पाक में बैठे कसाब के आकाओं के जुर्म पर मोहर बताई। प्रत्यर्पण की कोशिश का एलान किया। पर क्या पाक से ऐसी उम्मीद है आपको? अब तो पाक ऐसे पैंतरे आजमाएगा, जिनसे भारत की जांच पर सवाल उठें। यों कसाब को सजा तथ्य और पुख्ता सबूतों के आधार पर हुई। पर वाकई अपनी जांच सवालों के घेरे में। हैडली-राणा जैसे मास्टर माइंड की भनक अपनी एजेंसी को तब मिली, जब अमेरिका ने बताया। पर अमेरिका ने अपनी एजेंसी को हैडली से पूछताछ तो दूर, चेहरा तक नहीं देखने दिया। सो पाक की गुर्राहट पर वही कहावत मौजूं- सैंया भए कोतवाल, तो डर काहे का। पर पाक की पैंतरेबाजी आगे दिखेगी। फिलहाल कसाब को फांसी की सजा ने पीडि़तों के जख्म पर थोड़ा मरहम जरूर लगाया। विशेष जज ने भी माना, कसाब के सुधरने की गुंजाइश नहीं। सो चार मामलों में फांसी, छह मामलों में उम्रकैद की सजा दी। सरकारी वकील उज्ज्वल निकम ने तो मंगलवार को ही कह दिया था, कसाब को इनसान नहीं कहा जा सकता। वह एक किलिंग मशीन है, जिसका निर्माण पाक में हुआ। सो गुरुवार को फांसी की सजा का एलान हुआ। तो पीडि़त परिवारों ने फौरन फांसी पर लटकाने की अपील की। तो सजा के अमल पर कुछ सवाल भी उठे। सचमुच जब संसद पर हमले के मास्टर माइंड अफजल गुरु को अब तक फांसी पर नहीं लटकाया गया। तो कसाब को कब लटकाएगी सरकार। जब-जब अफजल का मामला उठा, वोट बैंक की राजनीति हावी हो गई। जम्मू-कश्मीर में गुलाम नबी सीएम थे, तो रमजान महीने के आखिरी जुमे की दलील देकर फांसी की तारीख टलवा दी थी। कई मानवाधिकारवादी झोला उठाए सडक़ों पर आ गए। अफजल राष्ट्रपति को दया याचिका देने के खिलाफ था। पर झोला छाप वालों ने अफजल की पत्नी के जरिए याचिका डलवा दी। तीन-चार साल हो चुके, दया याचिका पर दिल्ली की कांग्रेस सरकार कुंडली मारकर बैठी हुई। कांग्रेसियों से पूछो। तो यही कहेंगे- लिस्ट में अफजल का नंबर आएगा, तो फैसला होगा। अब जरा दया याचिका की मौजूदा लिस्ट देखो, तो कुल 29 का आंकड़ा, जिसमें अफजल का नंबर इक्कीसवां। पिछले साल 18 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी हिदायत दी- दया याचिकाओं का जल्द निपटान करे। यूपीए सरकार की ओर से 24 नवंबर 2009 को लोकसभा में जवाब आया। माफी याचिका को लेकर संविधान के अनुच्छेद 72 में कोई समय सीमा नहीं। अब कहीं दो-तीन साल बाद भी कसाब को किसी अदालत से राहत नहीं मिली। और कसाब से पहले किसी ने राष्ट्रपति को दया याचिका की अर्जी नहीं दी। तो कसाब का नंबर तीसवां होगा। अगर संविधान के अनुच्छेद 72 में कोई समय सीमा नहीं, तो फिर फांसी और उम्रकैद की सजा में फर्क क्या? सो गुरुवार को यही सवाल उठा, क्या कसाब को फांसी होगी? मुंबई में 26/11 को हमला हुआ। अपनी अदालत ने 06/05 को सजा सुनाई। पर .... आखिरी मुकाम कहां?
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06/05/2010

Wednesday, May 5, 2010

अट्ठाईस मिनट ही मर्यादा में रह पाए अपने सांसद

अपनी संसद को सचमुच ग्रहण लग चुका। एक विवाद सुलटता नहीं, दूसरा गले पड़ जाता। दोनों सदनों में बुधवार का दिन माफीनामे का रहा। दिल से कांग्रेसी मणिशंकर अय्यर हाल-फिलहाल राष्ट्रपति कोटे से राज्यसभा में मनोनीत हुए। सोमवार को उन ने विपक्ष के नेता अरुण जेतली को फासिस्ट कह दिया था। मणिशंकर को खुन्नस थी, दंतेवाड़ा कांड पर बहस के दौरान जेतली ने इशारों में ही उन्हें हाफ माओइस्ट कह दिया था। पर मणि ने सीधी टिप्पणी कर दी। सो राज्यसभा में तबसे गतिरोध जारी था। यों सरकार के वित्तीय कामकाज में विपक्ष ने अड़ंगा नहीं लगाया। पर बाकी कामकाज ठप पड़े थे। वैसे भी राज्यसभा में बिन विपक्ष के समर्थन के कांग्रेस का एक कदम भी चलना संभव नहीं। सो सरकार में शामिल कांग्रेसी मणिशंकर से खफा हो गए। माफी मांगने का दबाव बनाया। तो मणि ने प्रणव, बंसल, पृथ्वीराज की एक नहीं सुनी। जनार्दन द्विवेदी का फरमान गया। तो भी मणि नहीं डिगे। आखिर में दस जनपथ का संदेश ही काम आया। सो बुधवार को मणिशंकर को खेद जताना पड़ा। लोकसभा में भी कुछ ऐसा ही गतिरोध था। तृणमूल के सुदीप बंदोपाध्याय ने मंगलवार को सीपीएम के वासुदेव आचार्य के खिलाफ अभद्र टिप्पणी की। पर माफी मांगने को राजी नहीं। सो बुधवार को मीरा कुमार ने आसंदी से टिप्पणी की। सुदीप के कल के आचरण और शब्द को अशोभनीय करार दिया। बोलीं- सदस्य के ऐसे आचरण को मैं खारिज करती हूं और उम्मीद करती हूं कि भविष्य में इस सदन का कोई भी सदस्य आसंदी को ऐसी कठोर टिप्पणी के लिए मजबूर नहीं करेगा। अब आसंदी से ऐसी टिप्पणी हो, फिर भी सुदीप सदन में माफी न मांगें। तो ऐसे जनाब को क्या कहेंगे आप। पर वासुदेव माफी की मांग पर अड़ गए। सो दोपहर तक सदन ठप रहा। तो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज की ओर से फार्मूला आया। विपक्ष की ओर से तमाम दलों के नेताओं ने वासुदेव से अपील की। सुदीप को माफ कर दो। वासुदेव ने भी बड़े होने के नाते बड़ा दिल दिखाया। बात रफा-दफा हो गई। पर सुदीप का गुरूर नहीं टूटा। बोल पड़े, संसद में कैसे व्यवहार करना, यह मुझे सीपीआई से सीखने की जरूरत नहीं। वाकई ममता बनर्जी के दल को वासुदेव से सीखने की क्या जरूरत। खुद ममता ही सिखाने को काफी। उदाहरण तो कल यहीं पर आपको बता चुके। पर माफीनामा चाहे जितने हो जाएं, मर्यादा तोड़ू रोग का इलाज नहीं हो रहा। आखिर हो भी कैसे, जब कोई पीठासीन अधिकारी सख्ती न दिखाए। सिर्फ माफीनामा और भत्र्सना कर देने से मर्यादा तोडऩे वालों का कुछ नहीं बिगड़ता, ना ही कोई शर्मिंदगी महसूस होती। अलबत्ता संसद की मर्यादा धूमिल जरूर हो जाती। तभी तो दोपहर दो बजे दोनों सदनों में माफीनामा हुआ। पर अट्ठाईस मिनट बाद ही मर्यादा फिर टूट गई। जनगणना में जाति और राष्ट्रीयता को लेकर बहस शुरू हुई। बीजेपी से अनंत कुमार ने मोर्चा संभाला। तो अनंत का फोकस पूरी तरह से बांग्लादेशी घुसपैठ पर रहा। सो लालू विचलित होकर पूछ बैठे, मुद्दे पर क्यों नहीं आ रहे। अपनी पार्टी का एजंडा क्यों चला रहे। इस पर सुषमा ने जवाब दिया, क्या आरजेडी का एजंडा चलाएं। तो लालू ने आरएसएस का एजंडा बता दिया। सो जैसे कांग्रेसी संसद में विरोधियों के मुंह से सोनिया गांधी का नाम सुनकर ही भडक़ जाते। वैसे ही बीजेपी संघ परिवार का नाम सुन। सो अनंत तैश में आ गए। लालू यादव को देशद्रोही और गद्दार कह दिया। बस क्या था, हंगामा शुरू हो गया। सदन स्थगित होकर फिर बैठा। तो अनंत ने सफाई दी- मैंने लालू को गद्दार नहीं कहा। बल्कि यह कहा कि लालू तय करें, वह भारत के साथ हैं या बांग्लादेश के साथ या पाक के साथ। पर लालू गुस्से से लाल हो चुके थे। अनंत गलती मानने को राजी नहीं हुए। तो मुक्का बांध लालू अनंत को मारने दौड़े। पर मुलायम और गुरुदास दासगुप्त ने रोक लिया। सो शाम तक गतिरोध नहीं टूटा। अब सुषमा स्वराज और अनंत कुमार खम ठोककर कह रहे- जब कुछ गलत नहीं कहा, तो शब्द वापस लेना या माफी किस बात की। पर एक कहावत है, कबूतर के आंख मूंद लेने से बिल्ली भाग नहीं जाती। सदन का रिकार्ड चीख-चीखकर कह रहा, अनंत ने लालू को गद्दार कहा। सदन में शरद यादव ने भी कहा- मुझे भी ऐसा लगा, आप प्रोसीडिंग देख लो। रिकार्ड में नहीं है, तो अलग बात, पर बहुत लोगों ने सुना। शरद यादव ने सोलह आने सही कहा। अब जरा रिकार्ड में दर्ज अनंत का बयान आप देख लो- हम बांग्लादेश के साथ नहीं, घुसपैठियों के साथ नहीं, वोट बैंक पॉलिटिक्स के साथ नहीं, हम आप जैसे देश को बेचने के लिए तैयार नहीं हैं, आप देश के साथ .... (गद्दारी) कर रहे हैं। यों गद्दारी शब्द कार्यवाही से हटा दिया गया। आसंदी पर बैठे डिप्टी स्पीकर करिया मुंडा की टिप्पणी भी रिकार्ड में दर्ज। जब कहा- प्लीज डू नॉट यूज दैट वर्ड। फिर भी अनंत सीनाजोरी कर रहे, तो क्या कहेंगे। अब सुषमा-अनंत की दलील, अगर गद्दार शब्द असंसदीय। तो माधुरी गुप्ता के बारे में सदन में किस शब्द का इस्तेमाल किया जाएगा। पर बीजेपी लाख दलील दे, सदन का रिकार्ड यही कह रहा, अनंत झूठ बोल रहे। अब भी अनंत ने माफी नहीं मांगी, तो सदन में बहस संभव नहीं। अगर ऐसा हुआ, तो बीजेपी और सरकार की सांठगांठ उजागर होगी। जाति जनगणना पर सरकार में ही दो-फाड़। बिन बहस सदन अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हुआ। तो सरकार को बचने का मौका मिल जाएगा।
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05/05/2010

तो संसद में हंगामे का स्तर बढ़ा, बहस का नहीं

मुंबई की लोकल ट्रेनें क्या ठहरीं, अपनी संसद भी ठहर गई। खुद सीएम अशोक चव्हाण ने आंकड़े बताए। तो माना, मोटरमैन की हड़ताल से समूची मुंबई को लकवा मार गया। वाकई लोग काम पर नहीं पहुंच पाए। और जैसे-तैसे कर जो पहुंचे भी, वो काम नहीं कर पाए। सो संसद में जमकर बलवा हुआ। राज्यसभा तो चली, पर लोकसभा नहीं। बीजेपी-लेफ्ट-शिवसेना ने रेल मंत्री ममता बनर्जी को घेरा। पर ममता तो कोलकाता के निगम चुनाव में परचे भरवा रही थीं। सो सरकार को जवाब देना भारी पड़ गया। पवन बंसल ने ममता के दिल्ली लौटते ही बयान का भरोसा दिया, पर बात नहीं बनी। सो अपनी नेता पर हमला देख तृणमूल के सुदीप बंदोपाध्याय कूद पड़े। बंसल के जवाब से खफा सीपीएम के वासुदेव आचार्य ने ममता की गैरहाजिरी पर सवाल उठाए। तो सुदीप आपा खो बैठे। हाथों से इशारा करते हुए चुप... चुप...। बंगाली में ही ऐसी गाली का इस्तेमाल हुआ, जो लोकसभा में पहले भी हो चुका। सो हंगामा हड़ताल से हटकर सुदीप पर टिक गया। स्पीकर मीरा कुमार ने मौके की नजाकत भांप सदन स्थगित कर दिया। पर विपक्ष ने रार ठान ली, सुदीप माफी मांगें, तभी सदन चलने देंगे। अब देर शाम हड़ताल तो खत्म हो गई। पर संसद का क्या, उसकी गरिमा तो न जाने कितनी बार खत्म हुई। सुदीप बंदोपाध्याय ने स्पीकर से मुलाकात के बाद भी यही खम ठोका, किसी सूरत में माफी नहीं मांगेंगे। अलबत्ता सुदीप ने बीजेपी-लेफ्ट से माफी की मांग कर दी। सुदीप बोले, संसद में कैसा व्यवहार करना है, यह मुझे कोई और न सिखाए। वाकई सुदीप को किसी और से सीखने की क्या जरूरत, जब इतनी तेज-तर्रार नेत्री की रहनुमाई में काम कर रहे। सनद रहे, सो सदन की मर्यादा वाले दो-चार किस्से बताते जाएं। शुरुआत ममता बनर्जी से ही। चौदहवीं लोकसभा में सोमनाथ चटर्जी स्पीकर थे। चार अगस्त 2005 की बात है, स्पीकर ने ममता का कामरोको प्रस्ताव खारिज कर दिया। ममता की शिकायत थी, बंगाल में वाम मोर्चा सरकार बांग्लादेशी घुसपैठियों को फर्जी तरीके से वोटर बना रही। पर मौका नहीं मिला, तो दोपहर बाद जब आसंदी पर डिप्टी स्पीकर चरणजीत सिंह अटवाल आए। तो ममता धड़धड़ाते हुए वैल में घुसीं। अपने साथ लाए तमाम दस्तावेज आसंदी के मुंह पर दे मारे। साथ में कारण सहित अपना इस्तीफा भी सौंप दिया। ममता कुछ ऐसा ही 1997 में भी कर चुकीं, जब रामविलास पासवान रेल मंत्री थे। रेल बजट में बंगाल की उपेक्षा का आरोप लगाकर वैल में घुसीं और आसंदी पर शॉल फेंक दिया। साथ में सांसदी से इस्तीफा भी। पर न स्पीकर सोमनाथ ने इस्तीफा मंजूर किया, और ना ही पी.ए. संगमा ने। किसी सांसद का इस्तीफा तभी मंजूर होता, जब बिना कारण बताए इस्तीफा दे। यानी ममता इस्तीफे के प्रति कितनी ईमानदार थीं, यह तो इतिहास। पर संसद की मर्यादा को तार-तार करने वाले इक्के-दुक्के नहीं, अलबत्ता हमाम में सभी एक जैसे। सुदीप ने लोकसभा में तेवर दिखाए। तो वासुदेव आचार्य ने बाहर हैरानी जताई, तीस साल में कभी सदन में ऐसा बर्ताव नहीं देखा। पर आचार्य शायद तेरह मार्च 2007 का वाकया भूल रहे। लेफ्ट फ्रंट की बैसाखी पर मनमोहन सरकार थी। तबके जहाजरानी मंत्री टी.आर. बालू ने सामुद्रिक विश्वविद्यालय बिल सदन में पेश किया। तो वासुदेव की रहनुमाई में लेफ्ट ब्रिगेड सीधे मंत्री तक बिल छीनने पहुंच गया। सदन में दो बार जबर्दस्त हाथापाई, धक्कामुक्की हुई। ऐसा लगा, मानो सरकार में सिविल वार शुरू हो गया। फिर भी वासुदेव कह रहे, सदन में ऐसा बर्ताव कभी नहीं देखा। तो तकनीकी तौर पर सही ही कह रहे। जब लेफ्ट सत्ता की रिमोट थामे बैठा था, तब वासुदेव ने अपनी हरकत देखी नहीं, दिखाई थी। पहली बार ऐसा देखा है, सो तकनीकी तौर पर सही। पर गाली-गलौज का असली नमूना तो 24 अगस्त 2006 को देखा था। जब लालू और प्रभुनाथ ने भोजपुरी स्टाइल में एक-दूसरे की आरती उतारी। मां-बहन की गाली से लेकर बहन-बहनोई की रिश्तेदारी तक को भी नहीं बख्शा। सुदीप ने जो गाली दी, वह तबके स्तर से तो कम ही थी। पिछले साल 24 नवंबर को राज्यसभा में अमर सिंह और बीजेपी के एस.एस. आहलूवालिया की भिड़ंत भी कम नहीं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आठ मार्च को राज्यसभा में जो हुआ, याद ही होगा। पर सवाल, आखिर कब तक संसद हूटिंग ब्रिगेड को देखती रहेगी। क्या कभी ऐसा भी होगा, जब संसद ऐसे नेताओं को अपनी ताकत दिखाएगी? संसद अपने देश की सबसे बड़ी पंचायत। अगर किसी मांग पर सरकार तानाशाही दिखाए। तो हंगामा कर विरोध जताना जायज। पर हंगामे के बाद संसद में बहस का स्तर क्या रहता है? आईपीएल पर चार दिन संसद ठप रहा, पर नतीजा क्या? महंगाई पर दर्जनों बार बहस हुईं, पर नतीजा क्या? मिर्चपुर में दलित जिंदा जला दिए गए, पर संसद के लिए सिर्फ पांच मिनट का मुद्दा बना। आए दिन प्रश्नकाल ठप हो रहे। दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी चिंता जता चुके। पिछले शुक्रवार को लोकसभा में ग्रीन ट्रिब्यूनल बिल पास हुआ। पर सांसदों की मौजूदगी हैरानी पैदा करने वाली। पूरे तीन घंटे की बहस के वक्त कुल मिलाकर तेरह से सत्ताईस सांसद ही मौजूद। ऐसा ट्रिब्यूनल बना, जो पर्यावरण संबंधी तमाम मामले देखेगा। पर सांसद गैरहाजिर रहे। संविधान में प्रावधान, कोरम पूरा नहीं हो, तो सदन नहीं चल सकता। पर सत्तापक्ष और विपक्ष में अलिखित समझौता। सो यह परंपरा बन गई। न कोई सवाल उठाता, न कोरम की जरूरत महसूस होती।
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04/05/2010

Monday, May 3, 2010

तो शिबू-बीजेपी में अब गुरिल्ला युद्ध

आखिर कसाब पर फैसला आ गया। सभी 86 मामलों में गुनहगार साबित हुआ। सो सजा में अब किसी को कोई शक नहीं। शक है, तो सिर्फ इस बात का। क्या सचमुच सजा के फैसले पर अमल होगा? या अफजल की तरह ही कतार में, यह तो वक्त बताएगा। पर फिलहाल सबकी निगाह मंगलवार के इंतजार में। जब स्पेशल कोर्ट कसाब को सजा सुनाएगा। अब मंगलवार को कसाब की जिंदगी तय हो जाएगी। पर झारखंड की सियासत का क्या होगा, पता नहीं। बीजेपी ने झामुमो को मंगलवार तक का अल्टीमेटम दिया था। पर नितिन गडकरी से मिल शिबू के बेटे हेमंत रांची पहुंचे। तो एलान कर दिया, शिबू बने रहेंगे। बेचारी बीजेपी हक्कीबक्की रह गई। सो सोमवार को आडवाणी-सुषमा-जेतली ने संसद भवन में मीटिंग की। फिर शाम को आडवाणी के घर गडकरी-सुषमा-जेतली समेत बड़े दिग्गज जमे। पर बीजेपी फैसला नहीं ले पा रही। अब तो झारखंड की कुर्सी पर मौजां ही मौजां सिर्फ सपना भर। पर फजीहत जमकर हो रही। सो बीजेपी के चाल, चरित्र, चेहरे में फजीहत भी जुड़ गई। बीजेपी 28 अप्रैल को ही आर या पार कर लेती। तो न सिर्फ वर्करों का मनोबल बढ़ता। जनता के बीच बीजेपी खम ठोककर कहती, देखो, जनहित में कर दी कुर्सी कुर्बान। पर शिबू-हेमंत ने ऐसा पासा फेंका, बीजेपी लार टपकाने लगी। छोटी कुर्सी कुर्बान कर बड़ा हीरो बन जाती। पर बड़ी कुर्सी के लालच में छोटापन दिखा दिया। शिबू की गलती को माफ कर अपनी रहनुमाई में सरकार बनाने को राजी हो गई। पर शिबू कोई राजनीति के अनाड़ी नहीं। जो छोटी सी भूल की खातिर बड़ी कुर्सी छोड़ दें। सो गडकरी के घर शनिवार को झामुमो नेता जुटे। तो तीन घंटे तक तर्क-वितर्क चलता रहा। हेमलाल मुर्मू ने शिबू के कुर्सी से हटते ही पार्टी में टूट का अंदेशा जताया। तो अपने राजनाथ ने कह दिया, ऐसे नहीं तो वैसे कुर्सी जाएगी ही। फिर झामुमो ने शिवसेना का उदाहरण रखा। कैसे राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने एनडीए के खिलाफ वोट किया। सो बीजेपी से सवाल पूछा, तब बीजेपी ने शिवसेना से नाता क्यों नहीं तोड़ा। तो बीजेपी ने जवाब दिया, शिवसेना ने तब डंके की चोट पर प्रतिभा पाटिल को वोट दिया था। शिबू सोरेन ने तो भरोसा दिया एनडीए को, वोट यूपीए को डाल आए। सो शिवसेना ने उस वक्त जो किया, वह उसका सिद्धांत था। अबके शिबू ने जो किया, वह विश्वासघात। आखिर में बीजेपी ने दो-टूक कह दिया, कांग्रेस के कुशासन से झारखंड को बचाने के प्रति झामुमो वाकई ईमानदार। तो बीजेपी की रहनुमाई में सरकार बनाने को राजी हो, वरना समर्थन वापसी का फैसला लागू होगा। बीजेपी ने सोचा, मजबूर शिबू पर दबाव बनाएंगे। तो सीएम की कुर्सी मिल जाएगी। पर शिबू की गुगली में बीजेपी गोल-गोल घूमने लगी। अब झारखंड के झमेले से बाहर कैसे निकले, बीजेपी को समझ नहीं आ रहा। या यों कहें, गुरुजी ने झारखंड के जंगलों में बीजेपी ऐसा फंसा दिया। बीजेपी प्यास के मारे तड़प रही। बीजेपी ने राष्ट्रीय पार्टी होने की हेकड़ी दिखाई। तो शिबू-हेमंत ने अपनी सियासत शुरू कर दी। झारखंड की राजनीति में गुरुजी का कितना दबदबा, यह तो विधानसभा के आंकड़े ही बता रहे। तमाम आरोपों के बाद भी शिबू 18 एमएलए ले आए। अब दिल्ली में कुछ, और रांची में हेमंत वाणी कुछ और। तो इसके पीछे क्या वजह, यह तो सोमवार को बीजेपी नेताओं की पेशानी देखकर समझ आ गया। शिबू सोरेन ने सुबह ही गडकरी-सुषमा-जेतली को फोन घुमाया। अपील की, झारखंड केबिनेट की बैठक होने जा रही। सो अपने मंत्रियों को शामिल होने के लिए कहें। पर बिना मंत्रियों से पूछे ही तीनों सूरमाओं ने कह दिया, केबिनेट मीटिंग में बीजेपी का मंत्री नहीं आएगा। पर गुरुजी कोई नाम के ही गुरु नहीं। बीजेपी कोटे के मंत्री केबिनेट बैठक में जाने को तैयार हो रहे थे। तभी दिल्ली में बैठे सूरमाओं को भनक लग गई। तो डिप्टी सीएम रघुवर दास समेत कइयों को फोन घुमाया गया। पर इन मंत्रियों की चालाकी देखिए। सीधे फोन पर नहीं आए, अलबत्ता मातहतों के जरिए संदेशा दिलवाया। अभी बाहर से आते हैं, तो बात करवाते हैं। सो सूरमाओं को बात समझ आ गई। फौरन आडवाणी के घर जमा हुए। पर तब तक बीजेपी कोटे के मंत्री शिबू की रहनुमाई में कई सरकारी फैसलों को हरी झंडी दे चुके थे। यानी झारखंड की इस राजनीति में गुरुजी ने बीजेपी को बता दिया, गुरिल्ला युद्ध किसे कहते हैं। अब तक बीजेपी समर्थन वापसी की हेकड़ी दिखा रही थी। पर खुद के एमएलए टूटते दिख रहे। सो आडवाणी के घर फैसला हुआ, आज-कल में पर्यवेक्षक भेजा जाए। विधायकों से बात कर तत्काल समर्थन वापसी की चिट्ठी सौंप दो। ताकि न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। अब इस झारखंड के झंझट में कौन पिटा, यह बताने की जरूरत नहीं। बीजेपी की हालत तो उस कहावत वाली हो गई। चले थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास। कहां बीजेपी सीएम बनाने का सपना देख रही थी। पर पूरे एपीसोड में सिर्फ फजीहत करवाई। अब सुषमा स्वराज कह रहीं, इस हफ्ते आर या पार का फैसला हो जाएगा। मंगलवार का अल्टीमेटम दिया तो गुरुजी को था। पर खुद के लिए कब्रगाह बन गया। आखिर गुरुजी ने बीजेपी को बता दिया, झारखंड में यों ही लोग उन्हें गुरु नहीं कहते।
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03/05/2010