Wednesday, January 27, 2010

अब सम्मान भी मांग रहा अपना 'सम्मान'

  संतोष कुमार
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         'अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपनों को देय।'  पर अपना देश कोई अंधेर नगरी नहीं। जो सब कुछ टके सेर हो और लोग बिन सोचे-समझे गटक जाएं। आखिर देश के प्रतिष्ठिïत अवार्ड की प्रतिष्ठïा का सवाल। सो पद्म अवार्ड पर विवाद होना ही था। रेलवे ने 26/11 के जांबाज हैड कांस्टेबल जिल्लू यादव को मैडल की सिफारिश नहीं की। पर रेल राज्यमंत्री ई. अहमद के निजी सचिव जहूर जैदी पुलिस मैडल पा गए। जिल्लू यादव ने आतंकियों से जमकर लोहा लिया। तबके रेल मंत्री लालू यादव ने दस लाख का पुरस्कार भी दिया। फिर भी रेलवे ने जिल्लू यादव को पुलिस मैडल के काबिल नहीं समझा। पर रेल मंत्रालय की कारगुजारी यहीं तक नहीं। ओलंपिक में कुश्ती के लिए कांस्य जीतने वाले सुशील कुमार को भी पद्म अवार्ड नहीं। पर बॉक्सिंग में कांस्य दिलाने वाले विजेंद्र सिंह पद्म श्री की लिस्ट में शामिल। विजेंद्र के पद्म श्री पर शायद ही किसी को एतराज हो। पर सुशील का क्या कसूर? पहली बार कुश्ती में देश के लिए ओलंपिक पदक जीता। फिर कुश्ती के वल्र्ड कप में भी परचम लहराया। पर ऐसी अनदेखी हो। तो किसका दिल नहीं दुखेगा। पर सरकार के पास दिल ही कहां, जो दुखे। दिल होता, तो हिरणों के दिल पर तीर चलाने वाले सैफ अली खान पद्म श्री कैसे हो जाते। अभी तक सैफ के खिलाफ केस चल रहा। पर शायद सत्तारूढ़ दल से नवाब पटौदी-शर्मिला की नजदीकियां पद्म श्री दिला गईं। सो अपने राजस्थान के विश्रोई समाज के लोग खफा। वाकई सैफ ने ऐसा क्या कर दिया, जो कला क्षेत्र गौरवान्वित हो। कहीं ऐसा तो नहीं, हाथों पर करीना के नाम का गोदना गुदवा सैफ सुर्खियों में रहे। तो सरकार की आंखें चौंधिया गई हों। महाराष्टï्र में बीजेपी-शिवसेना ने तो खुला विरोध जताया। पर विरोध के मायने तो तब, जब सरकार भूल स्वीकार करने का साहस रखे। यहां तो समूची सरकार खुलेआम बचाव में उतरी। अमेरिका में रहने वाले एनआरआई संतसिंह चटवाल का नाम पद्म भूषण की लिस्ट में आया। तो बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे ने फौरन पीएम को चि_ïी लिख मारी। चटवाल के खिलाफ सीबीआई जांच। बिल क्लिंटन के साथ भारत आए थे। तो बाकायदा गिरफ्तार भी हो चुके। खुद को दिवालिया भी घोषित किया था। पर पद्म भूषण मिला। तो एटमी करार में अपनी भूमिका का बखान कर रहे। विपक्षी दलों को भी लताड़ा। सो प्रकाश जावडेकर ने पूछा- 'क्या अब दलालों को भी पद्म अवार्ड मिलने लगा?'  पर चटवाल की भाषा ऐसी, जैसे अवार्ड के भूखे हों। बोले- 'राजनीतिक दलों की परवाह नहीं। वे आते-जाते रहते हैं।'  आखिर चटवाल का मिजाज चढ़े भी क्यों ना। अपना विदेश से लेकर गृह मंत्रालय तक चट्टïान की तरह पीछे खड़ा। गृह मंत्रालय ने बयान जारी किया। तो खुद केसों का हवाला दिया। जरा आप खुद ही गौर फरमा लें। पहले तो चटवाल के कसीदे पढ़े गए। फिर पांच केस का हवाला। जिनमें सीबीआई ने खुद ही तीन केस बंद कर दिए। बाकी दो मामलों में अदालत से बरी। अब आप ही सोचो, इतने विवादास्पद लोगों को पद्म भूषण देना कहां तक उचित? अवार्ड तो वाकई रेवड़ी बन गए। सरकार जिसे चाहे, बांटती फिरे। चेहरा छिपाने को बाबा आम्टे, जोहरा सहगल जैसे कुछ योग्य नाम शामिल किए जाते। ताकि ईमानदार छवि के आभा मंडल में कुछ यों ही बाईपास हो जाएं। अगर सरकार अवार्ड को रेवड़ी की तरह न बांटे। तो कभी परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हामिद की पत्नी अनाज के लिए राशन कार्ड मांगती न दिखे। पर अपने साठ साल के गणतंत्र पर तमाचा नहीं तो और क्या। जो अब्दुल हामिद की पत्नी दाने-दाने को मोहताज। पर साठ साल में ही शायद देश की हालत ऐसी हो चुकी। मानो, अवार्ड या मैडल सिर्फ शो केस में सजाने की चीज। वाकई अवार्ड या मैडल में राजनीति-अफसरशाही की घुसपैठ न होती। तो ऐसा नहीं होता कि राजीव गांधी को मृत्यु के छह महीने बाद ही भारत रत्न मिल जाता। और अपने लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल को भारत रत्न मिलने में 41 साल लग जाते। इंदिरा गांधी, वी.वी. गिरि, कामराज तो 70 के दशक में ही भारत रत्न हो गए। पर संविधान रचयिता भीमराव अंबेडकर को 1990 में भारत रत्न मिला। आजादी के अहम सेनानी मौलाना अबुल कलाम आजाद 1992 में औपचारिक भारत रत्न हुए। असम के स्वतंत्रता सेनानी गोपीनाथ वारदोलोई को मरणोपरान्त 41 साल बाद तब भारत रत्न मिला। जब असम गण परिषद वाजपेयी सरकार में थी। जयप्रकाश नारायण, जिन ने राजनीति की दिशा बदल दी। उन्हें भी मृत्यु के 19 साल बाद तब भारत रत्न से नवाजा गया। जब यूनाइटेड फ्रंट की केंद्र में सरकार बनी। जेपी के चेले हुकूमत के अगुआ बने। अमत्र्यसेन को पहले नोबल मिला। फिर भारत रत्न। आखिरी भारत रत्न 2001 में उस्ताद बिस्मिल्ला खां हुए। तबसे नौ साल हो गए। किसी को भारत रत्न नहीं। वैसे भी जब अवार्डों पर राजनीति हावी हो। तो भारत रत्न पर विवाद की मुसीबत कौन मोल ले। सो सरकार पद्म विभूषण, भूषण और श्री में ही गोल-गपाड़ा कर रही। वैसे भी अब जमाना काफी बदल चुका। नौ महीने में बराक ओबामा शांति का नोबल ले जाते। तो फिर चटवाल, सैफ को अवार्ड पर एतराज बेवजह। आखिर जब जमाना ही फिक्सिंग का। तो इकलौता अवार्ड ही अछूता क्यों रहे? सो लोगों को सम्मानित करने वाला सम्मान अब खुद के लिए 'सम्मान'  मांग रहा।
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27/01/2010

गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता

गणतंत्र के सालाना जश्र को राजपथ सज गया। हर बार की तरह कदम से कदम मिलाते अपने जवान दिखेंगे। रंग-बिरंगी झांकियां होंगी। कुल मिलाकर भारत की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन होगा। पर आम आदमी को झलकियां पहले ही दिख गईं। जब कांग्रेस और शरद पवार ने महंगाई-महंगाई खेलने की ठानी। पिछले हफ्ते दस दिन बीत गए। पर चीनी हो या बाकी जरूरत के सामान। कीमतें कम होनी तो दूर, अलबत्ता बढ़ गईं। सो ग्यारहवें दिन इतवार को फिर पवार उवाच। अबके पवार ने महंगाई के लिए पीएम को भी लपेटा। तो संदेश यही था, महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। यों सोमवार को पवार आदतन पलट गए। पर कांग्रेस ने नसीहत दे दी। मनीष तिवारी बोले- 'कृषि मंत्रालय को राज्यों के साथ सक्रियता से काम करने की जरूरत।' पर पवार खफा न हों, सो उनके बयान को केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी से जोड़ दिया। यानी कांग्रेस-पवार के बीच नूरा-कुश्ती जारी। सो गणतंत्र से गण गायब हुआ। सिर्फ तंत्र ही शेष। सो अब 'जनता द्वारा, जनता का, जनता के लिए' सिर्फ कहने भर की बात। तंत्र पर राजनीति, अफसरशाही हावी। संविधान रचयिताओं के गणतंत्र के मंसूबों पर मौजूदा तंत्र ने पानी फेर दिया। समूची व्यवस्था पर अपना लबादा ओढ़ा दिया। सिर्फ न बदला, तो सालाना जश्र पर दिखावे का दस्तूर। सो अबके सिर्फ गणतंत्र की 60वीं सालगिरह नहीं। वोट की व्यवस्था देखने वाला चुनाव आयोग भी 60 साल का हो गया। सोमवार को हीरक जयंती मनाई। तो इतिहास पर खूब इतराया। पर राजनीति की छाप से अछूता नहीं रहा समारोह। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अनिवार्य वोटिंग का कानून बना दिया। कांग्रेस के दिग्गी राजा तो पहले ही तानाशाही रवैया बता खारिज कर चुके। अब सीईसी नवीन चावला ने भी व्यवहारिक बताया। यों अनिवार्य वोटिंग का मामला कोई आज-कल का मुद्दा नहीं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसपी सेन वर्मा ने 1968 में वोट न डालने वालों पर जुर्माने का सुझाव दिया था। उन ने बेल्जियम, नीदरलैंड, आस्ट्रेलिया, क्यूबा, आस्ट्रिया जैसे देशों में 'मनी फाइन प्लान' की नजीर भी दी। पर चुनाव सुधार की बातें हमेशा आईं-गईं। उन ने आयोग पर राजनीतिक दबाव की बातें भी स्वीकार की थीं। अब नवीन चावला भले खुद को बेदाग बताएं। पर चावला का इतिहास शक की गुंजाइश छोड़ जाता। सो जब वोट का पहरुआ आयोग ही राजनीतिक पिट्ठू होगा। तो काहे का गणतंत्र। संविधान बनाने वालों ने रात-दिन एक कर नि:स्वार्थ भाव से देश के भविष्य का खाका खींचा। पर साठ साल में ही व्यवस्था चलाने वालों ने देश को बूढ़ा कर दिया। कहीं देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटने की कोशिश। तो कहीं राज ठाकरे जैसे सूबेदार पैदा हो चुके। अब गणतंत्र के मुंह पर इससे बड़ा तमाचा क्या होगा। जो राज ठाकरे खुलेआम पोस्टर लगाकर हिंदी भाषियों को धमका रहे। मुंबई में रहना है, तो मराठी सीखनी होगी। जो सीखना नहीं चाहता, घर लौट जाए। क्या मुंबई राज ठाकरे की बपौती हो गई? पर सैंया भए कोतवाल, तो डर काहे का। विलासराव देशमुख सीएम थे। तो भी राज के खिलाफ सिर्फ जुबान चलाई। अब अशोक चव्हाण, तो वह भी राज को इशारा कर ही रहे। पर राज जैसी जुबान की कमी नहीं। जब सितंबर 2007 में वंदे मातरम के सामूहिक गान पर विवाद हुआ। मुस्लिम समाज का एतराज था। तो देहरादून में बीजेपी की वर्किंग कमेटी चल रही थी। तब विनय कटियार ने जोश में नारा दिया- 'भारत में रहना है, तो वंदे मातरम कहना होगा।' पर भला हो वाजपेयी का। जिन ने मीटिंग के भीतर बात संभाल ली। फिर नारा आया था- 'भारत में रहना होगा, वंदे मातरम कहना होगा।' यानी अपने पास संविधान तो है। पर अमल कराने की इ'छाशक्ति किसी में नहीं। संविधान और कानून का फायदा एक खास वर्ग ही उठा पा रहा। व्यवस्था के रहनुमाओं ने साठ साल में संविधान को सही तरीके से लागू ही नहीं होने दिया। अलबत्ता गांव-गरीब के बीच एक ही संदेश गया। संविधान और कानून उसी का, जिसकी लाठी। नक्सलबाडी से शुरू नक्सलवाद भले 13 राज्यों में फैल गया। शिक्षा का स्तर आज भी रटंत से ऊपर नहीं। स्वास्थ्य सेवा निजी मकडज़ाल में। राजनीति का तो कहना ही क्या। अब साठ साल में गणतंत्र का सठियाना न कहें। तो और क्या कहेंगे। मनमोहन सरकार की मंत्री कृष्णा तीरथ ने इश्तिहार में पाकिस्तानी एयर चीफ मार्शल का फोटू छपवा दिया। हल्ला मचा, तो पीएमओ ने माफी मांग ली। पर कृष्णा तीरथ का तुर्रा देखिए। खेद जताया, पर कोई अफसोस नहीं। अलबत्ता बोलीं- 'फोटू नहीं, संदेश देखिए।' कृष्णा उवाच देख-सुन यही लगा। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कृष्णा को भी पद्म विभूषण मिल जाए। तो ठीक रहेगा। आखिर यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं। कोई 'सपूत' ढूंढते-ढूंढते पाकिस्तान चला जाए। वहां से तनवीर अहमद महमूद का फोटू ढूंढ लाए। तो यह आसान काम नहीं। पर पद्म अवार्ड की लिस्ट में कृष्णा का नाम तो नहीं। अपनी व्यवस्था की उम्मीद के हिसाब से कुछ नाम मिल ही गए। पीएम वाजपेयी के घुटने का आपरेशन कर चितरंजन राणावत पद्म भूषण हुए थे। अब मनमोहन की सर्जरी करने वाले डाक्टर रमाकांत मदनमोहन पांडा भी पद्म भूषण हो गए। सो फिर वही सवाल। क्या पीएम का आपरेशन पद्म अवार्ड का पैमाना? पर जब कोई बांटे रेवड़ी। तो अपना क्या, पैमाना क्या। सो कुल मिलाकर अपना गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता और चौपट हुई व्यवस्था। -------
25/01/2010