Wednesday, January 27, 2010

गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता

गणतंत्र के सालाना जश्र को राजपथ सज गया। हर बार की तरह कदम से कदम मिलाते अपने जवान दिखेंगे। रंग-बिरंगी झांकियां होंगी। कुल मिलाकर भारत की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन होगा। पर आम आदमी को झलकियां पहले ही दिख गईं। जब कांग्रेस और शरद पवार ने महंगाई-महंगाई खेलने की ठानी। पिछले हफ्ते दस दिन बीत गए। पर चीनी हो या बाकी जरूरत के सामान। कीमतें कम होनी तो दूर, अलबत्ता बढ़ गईं। सो ग्यारहवें दिन इतवार को फिर पवार उवाच। अबके पवार ने महंगाई के लिए पीएम को भी लपेटा। तो संदेश यही था, महंगाई रोकना सरकार के बूते में नहीं। यों सोमवार को पवार आदतन पलट गए। पर कांग्रेस ने नसीहत दे दी। मनीष तिवारी बोले- 'कृषि मंत्रालय को राज्यों के साथ सक्रियता से काम करने की जरूरत।' पर पवार खफा न हों, सो उनके बयान को केबिनेट की सामूहिक जिम्मेदारी से जोड़ दिया। यानी कांग्रेस-पवार के बीच नूरा-कुश्ती जारी। सो गणतंत्र से गण गायब हुआ। सिर्फ तंत्र ही शेष। सो अब 'जनता द्वारा, जनता का, जनता के लिए' सिर्फ कहने भर की बात। तंत्र पर राजनीति, अफसरशाही हावी। संविधान रचयिताओं के गणतंत्र के मंसूबों पर मौजूदा तंत्र ने पानी फेर दिया। समूची व्यवस्था पर अपना लबादा ओढ़ा दिया। सिर्फ न बदला, तो सालाना जश्र पर दिखावे का दस्तूर। सो अबके सिर्फ गणतंत्र की 60वीं सालगिरह नहीं। वोट की व्यवस्था देखने वाला चुनाव आयोग भी 60 साल का हो गया। सोमवार को हीरक जयंती मनाई। तो इतिहास पर खूब इतराया। पर राजनीति की छाप से अछूता नहीं रहा समारोह। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने अनिवार्य वोटिंग का कानून बना दिया। कांग्रेस के दिग्गी राजा तो पहले ही तानाशाही रवैया बता खारिज कर चुके। अब सीईसी नवीन चावला ने भी व्यवहारिक बताया। यों अनिवार्य वोटिंग का मामला कोई आज-कल का मुद्दा नहीं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसपी सेन वर्मा ने 1968 में वोट न डालने वालों पर जुर्माने का सुझाव दिया था। उन ने बेल्जियम, नीदरलैंड, आस्ट्रेलिया, क्यूबा, आस्ट्रिया जैसे देशों में 'मनी फाइन प्लान' की नजीर भी दी। पर चुनाव सुधार की बातें हमेशा आईं-गईं। उन ने आयोग पर राजनीतिक दबाव की बातें भी स्वीकार की थीं। अब नवीन चावला भले खुद को बेदाग बताएं। पर चावला का इतिहास शक की गुंजाइश छोड़ जाता। सो जब वोट का पहरुआ आयोग ही राजनीतिक पिट्ठू होगा। तो काहे का गणतंत्र। संविधान बनाने वालों ने रात-दिन एक कर नि:स्वार्थ भाव से देश के भविष्य का खाका खींचा। पर साठ साल में ही व्यवस्था चलाने वालों ने देश को बूढ़ा कर दिया। कहीं देश को छोटे-छोटे राज्यों में बांटने की कोशिश। तो कहीं राज ठाकरे जैसे सूबेदार पैदा हो चुके। अब गणतंत्र के मुंह पर इससे बड़ा तमाचा क्या होगा। जो राज ठाकरे खुलेआम पोस्टर लगाकर हिंदी भाषियों को धमका रहे। मुंबई में रहना है, तो मराठी सीखनी होगी। जो सीखना नहीं चाहता, घर लौट जाए। क्या मुंबई राज ठाकरे की बपौती हो गई? पर सैंया भए कोतवाल, तो डर काहे का। विलासराव देशमुख सीएम थे। तो भी राज के खिलाफ सिर्फ जुबान चलाई। अब अशोक चव्हाण, तो वह भी राज को इशारा कर ही रहे। पर राज जैसी जुबान की कमी नहीं। जब सितंबर 2007 में वंदे मातरम के सामूहिक गान पर विवाद हुआ। मुस्लिम समाज का एतराज था। तो देहरादून में बीजेपी की वर्किंग कमेटी चल रही थी। तब विनय कटियार ने जोश में नारा दिया- 'भारत में रहना है, तो वंदे मातरम कहना होगा।' पर भला हो वाजपेयी का। जिन ने मीटिंग के भीतर बात संभाल ली। फिर नारा आया था- 'भारत में रहना होगा, वंदे मातरम कहना होगा।' यानी अपने पास संविधान तो है। पर अमल कराने की इ'छाशक्ति किसी में नहीं। संविधान और कानून का फायदा एक खास वर्ग ही उठा पा रहा। व्यवस्था के रहनुमाओं ने साठ साल में संविधान को सही तरीके से लागू ही नहीं होने दिया। अलबत्ता गांव-गरीब के बीच एक ही संदेश गया। संविधान और कानून उसी का, जिसकी लाठी। नक्सलबाडी से शुरू नक्सलवाद भले 13 राज्यों में फैल गया। शिक्षा का स्तर आज भी रटंत से ऊपर नहीं। स्वास्थ्य सेवा निजी मकडज़ाल में। राजनीति का तो कहना ही क्या। अब साठ साल में गणतंत्र का सठियाना न कहें। तो और क्या कहेंगे। मनमोहन सरकार की मंत्री कृष्णा तीरथ ने इश्तिहार में पाकिस्तानी एयर चीफ मार्शल का फोटू छपवा दिया। हल्ला मचा, तो पीएमओ ने माफी मांग ली। पर कृष्णा तीरथ का तुर्रा देखिए। खेद जताया, पर कोई अफसोस नहीं। अलबत्ता बोलीं- 'फोटू नहीं, संदेश देखिए।' कृष्णा उवाच देख-सुन यही लगा। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर कृष्णा को भी पद्म विभूषण मिल जाए। तो ठीक रहेगा। आखिर यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं। कोई 'सपूत' ढूंढते-ढूंढते पाकिस्तान चला जाए। वहां से तनवीर अहमद महमूद का फोटू ढूंढ लाए। तो यह आसान काम नहीं। पर पद्म अवार्ड की लिस्ट में कृष्णा का नाम तो नहीं। अपनी व्यवस्था की उम्मीद के हिसाब से कुछ नाम मिल ही गए। पीएम वाजपेयी के घुटने का आपरेशन कर चितरंजन राणावत पद्म भूषण हुए थे। अब मनमोहन की सर्जरी करने वाले डाक्टर रमाकांत मदनमोहन पांडा भी पद्म भूषण हो गए। सो फिर वही सवाल। क्या पीएम का आपरेशन पद्म अवार्ड का पैमाना? पर जब कोई बांटे रेवड़ी। तो अपना क्या, पैमाना क्या। सो कुल मिलाकर अपना गणतंत्र भले साठ का हुआ पर सठिया गए नेता और चौपट हुई व्यवस्था। -------
25/01/2010

1 comment:

  1. जब तंत्र बूढा हो गया है तो नेता सठियावे ही करहें... बेहतरीन प्रस्तुति ..

    ReplyDelete