Tuesday, May 18, 2010

चिदंबरम और गडकरी का गांडीव समर्पण

तो सफेद खून वालों का इलाज कैसे होगा। नक्सलवादी अब आमजन का भी खून बहाने लगे। कभी दंतेवाड़ा, कभी जगदलपुर, कभी लालगढ़ और न जाने करीब 12 राज्यों के 200 जिलों में कब जमीन रक्तरंजित हो जाए, पता नहीं। पर राजनीति से रंजित दिग्विजय सिंह जैसों का हाथ अभी भी नक्सलियों के साथ। वैसे भी जिसके सिर सोनिया का हाथ हो। वह चिदंबरम से क्या, खुदा से भी खौफ न खाए। भले नक्सलवादी सुरक्षा बलों को मारते रहें। आम नागरिक का खून बहाते रहें। देश में ही व्यवस्था के खिलाफ हिंसात्मक जंग जारी रखें। फिर भी दिग्विजय सिंह का खून नहीं खौलेगा। सोमवार को नक्सलियों ने मुसाफिर बस उड़ा दी। बस में सवार 16 एसपीओ और 15 मुसाफिरों की मौत हो गई। पर दिग्विजय का दिल है कि मानता नहीं। अभी भी नक्सलियों पर सख्ती के पक्ष में नहीं। मंगलवार को दो-टूक कहा- अगर सेना का इस्तेमाल हुआ। तो उसका भी वही हश्र होगा, जो पैरा मिलिट्री फोर्स का हुआ। ताजा घटना से कुछ दिन पहले की दिग्विजय की दलील सुनिए। नक्सलियों से पार पाना इतना आसान नहीं। बकौल दिग्विजय, दो हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त होकर जंगलों में गिरे थे। तो एक 28 दिन बाद मिला, एक महीने भर बाद। दिग्गी राजा का मतलब, पहले विकास हो, फिर कार्रवाई की बात। यानी फिर नक्सलवाद की जड़ तक पहुंचने का राग। पिछले महीने छह अप्रैल को नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में 76 जवान मार गिराए। अपने होम मिनिस्टर पी. चिदंबरम ने गृह युद्ध बता मुंहतोड़ जवाब का एलान किया। तो हफ्तेभर बाद दिग्विजय सिंह ने लेख लिख दिया। चिदंबरम की नीति पर सवाल उठाए। पर कांग्रेस ने पल्ला झाड़ा। तो लगा, दिग्विजय अलग-थलग पड़ गए। पर हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या। पिछले शुक्रवार कांग्रेस का मुख पत्र जारी हुआ। तो सोनिया गांधी ने कांग्रेसजन के नाम लिखी चिट्ठी में दिग्विजय राग ही उवाचा। सोनिया ने भी नक्सलवाद की जड़ तक पहुंचने को जरूरी बताया। पिछड़े आदिवासी जिलों में विकास के न पहुंचने पर चिंता जताई। पर कोई पूछे, आजादी के 63 साल में भी विकास हर जगह नहीं पहुंचा, तो दोषी कौन? अब यह बहस का अलग मुद्दा। पर नक्सलवाद की जड़ तक कोई कैसे पहुंचे, जब खुद नक्सली अपनी जड़ों में मट्ठा डाल रहे। अब क्या नक्सलियों के डर से आम नागरिक बस में भी सफर करना बंद कर दे। अगर नक्सली भी आम नागरिक को ही निशाना बनाने लगे। तो फिर आतंकवादी और नक्सलियों में क्या फर्क? सुकमा जा रही यात्री बस सुरक्षा ड्यूटी की बस नहीं थी। जिस रास्ते पर विस्फोट किया, वह पक्की सडक़ थी। सो सोमवार को ही चिदंबरम ने गांडीव समर्पण कर दिया। नक्सलवाद के खिलाफ चिदंबरम का रुख बेहद सख्त। पर अपनों के बिछाए लैंड माइन से नहीं जूझ पा रहे चिदंबरम। तभी तो जेएनयू और सीआईआई जाकर चिदंबरम को भी दिग्विजय की लाइन बोलनी पड़ी। अब मंगलवार को चिदंबरम ने बातचीत की पेशकश कर दी। कहा- सिर्फ 72 घंटे नक्सली हिंसा रोक दें। तो सरकार बातचीत को तैयार। पर सिर्फ पेशकश में चिदंबरम की लाचारी नहीं दिख रही। अलबत्ता लाचारी का असली दांव सोमवार को ही खेल गए। कह दिया- नक्सलियों से निपटने के लिए मेरे अधिकार सीमित। मैं सिर्फ उन अधिकारों का इस्तेमाल कर सकता हूं, जो मुझे दिए गए हैं। अब देश का होम मिनिस्टर ऐसी लाचारी भरा बयान दे, तो फिर आम नागरिक की सुरक्षा किसके भरोसे? सो बीजेपी के अरुण जेतली ने अब पीएम से रुख पूछ लिया। जब कांग्रेस में इतना कनफ्यूजन। तो बेहतर होगा, पीएम जवाब दें। जेतली ने साफ कहा- आधे-अधूरे मन से लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। वाकई देश के गृह मंत्रालय की ऐसी दयनीय स्थिति क्यों? क्या नक्सली ऐसे ही खून बहाते रहेंगे और हम जड़ में जाने या विकास का ढोल पीटकर बहस करते रहेंगे? मरने वाले आम नागरिक का खून लाल, तो क्या नक्सलवादियों के हमदर्द का खून सफेद? चिदंबरम ने यह भी सवाल उठाया, अब हमदर्दों को जवाब देना होगा। सचमुच सोनिया हों या मनमोहन, देश की जनता को जवाब चाहिए। देश आरपार की लड़ाई चाह रहा। सो मंगलवार को पीएम ने उच्च स्तरीय मीटिंग ली। तो क्या चिदंबरम को फ्री हैंड मिलेगा? सोनिया के रुख के बाद कम से कम ऐसा तो नहीं लग रहा। चिदंबरम के दृष्टिकोण की कायल बीजेपी भी। पर कांग्रेस में चिदंबरम घायल शहीद की हालत में। तो बीजेपी में भी नितिन गडकरी का वही हाल। जब कुर्सी संभाली, तो जैसा हर संघी बौद्धिक झाड़ता। गडकरी ने भी खूब झाड़ी। पर डी-4 नेताओं के सामने एक न चली। सो छह महीने बीतने को, पर अभी तक सारे अहम फैसले पेंडिंग पड़े। टीम में किसी को अभी तक जिम्मेदारी नहीं मिली। मोर्चे भी अपनी बदहाली पर रो रहे। एकाध फैसला हुआ भी, तो टेस्ट क्रिकेट के अंदाज में। झारखंड में वही हुआ, जो शिबू ने चाहा। घुटना टेककर बीजेपी 28-28 महीने की सरकार बनाने पर राजी हो गई। पद पर किसी नए व्यक्ति के लिए छह महीने हनीमून पीरियड माना जाता। पर गडकरी छह महीने बीतने से पहले ही छुट्टी पर चले गए। विदेश दौरे पर सवाल उठने लगे। तो गडकरी ने बयान जारी कर दिया- स्टडी टूर पर यूरोप जा रहे। याद है ना, गोविंदाचार्य ने भी स्टडी के लिए ही छुट्टी ली थी। सो कुल मिलाकर चिदंबरम और गडकरी की हालत एक जैसी। सोच है, पर अपनों का साथ नहीं। सो दोनों का बयान, गांडीव समर्पण ही समझिए।
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18/05/2010