Friday, July 2, 2010

तो सचमुच महंगी पड़ी अपनी कांग्रेस

तो दुंदुभी बज उठी। पांच जुलाई को महंगाई का पंचनामा होगा, जब समूचा विपक्ष भारत बंद करेगा। सो शुक्रवार का दिन विपक्षी दलों की प्रेस कांफ्रेंस के नाम रहा। नितिन गडकरी, शरद यादव, प्रकाश कारत और एचडी देवगौड़ा ने राजधानी में मोर्चा संभाला। तो राज्यों में विपक्षी दलों की स्थानीय इकाइयों ने। पर अपने लालू अबके भारत बंद में शामिल नहीं। मायावती तो पिछली दफा भी साथ नहीं थीं। पिछली 27 अप्रैल को लोकसभा में महंगाई पर कटौती प्रस्ताव आया। तो सिर्फ मायावती नहीं, दिन के उजाले में उसी दिन भारत बंद के जलसे में शामिल लालू-मुलायम भी सूरज ढलते ही सरकार के साथ हो गए। दिन में नारा दिया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है। शाम होते ही नारा बदल गया- जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बचानी है। वैसे भी लालू की पार्टी आरजेडी का राष्ट्रीय वजूद संकट में। सो भारत बंद से लालू का क्या फायदा। उन ने तो दस जुलाई को बिहार बंद का एलान कर रखा। चलो यह भी अच्छा हुआ। कहते हैं ना, तेते पांव पसारिए, जेती लंबी सौर। लालू पिछली बार बिहार की सत्ता से बेदखल हुए। तो मनमोहन की पहली पारी में उम्दा ठौर मिल गया। पर अब न वह देवी रही, न कड़ाह रहा। अब तो लालू सिर्फ कराह रहे। केंद्र में न कांग्रेस पूछ रही, न बिहार में नीतिश के आगे दाल गल रही। पर बिन लालू-माया-पासवान भी अबके भारत बंद की जबर्दस्त तैयारी। पिछली दफा तो बीजेपी ने नखरे दिखाए थे। पर अब समझ आ गया, इतनी गर्मी में अकेले भीड़ जुटाने की कोशिश की। तो फिर कहीं गश खाकर न गिर जाएं। सो सबने एक साथ बंद में शामिल होना कबूल कर लिया। यों पिछली दफा संसद में मुलायम भी लालू-माया के साथ सरकार के साथ खड़े थे। पर अबके पांच जुलाई की तारीख का एलान सबसे पहले मुलायम ने ही किया। यों पहल शरद यादव के नेतृत्व में हुई। तो पहली बार लेफ्ट-बीजेपी साझा सडक़ों पर उतरने को राजी हो गए। पिछली बार बीजेपी की दलील थी, सिर्फ संसद तक ही साथ, सडक़ों पर साथ दिखना वोट बैंक का नुकसान करना होगा। सो पिछली दफा बीजेपी ने अलग रैली की। लेफ्ट की रहनुमाई में तथाकथित तीसरे मोर्चे ने भारत बंद किया। तो मनमोहन सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। अलबत्ता अबके और मन भरके महंगाई बढ़ा दी। सो अबके साथ तो आए, पर होगा क्या। शुक्रवार को सीधे विपक्षी दलों के शीर्ष नेतृत्व ने कमान संभाली। तो मकसद एक ही था, कैसे बंद का श्रेय अपनी झोली में डालें। गडकरी ने तो अपने सभी राज्य यूनिटों से रपट भी ले ली। फिर बताया, भारत बंद एतिहासिक होगा। अब सोचिए, जब अकेले बीजेपी एतिहासिक बंद का दावा कर रही। तो समूचे विपक्ष का बंद क्या पौराणिक कहलाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं, कोई पौराणिक लड़ाइयों का इतिहास टटोलना पड़े। शरद यादव ने तो एलान किया, यह जेपी आंदोलन और 1989 में विपक्षी एकता के बाद महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी एकता की सबसे बड़ी कवायद, और यह बंद सरकार की इस गलतफहमी को दूर कर देगा कि विपक्ष बंटा हुआ है। सो सरकार जो चाहे मनमानी कर सकती। पर विपक्ष की यह एकता कब तक कायम रहेगी? क्या मुलायम भरोसे के लायक? मुलायमवादियों ने तो अभी से ही संकेत देने शुरू कर दिए। कह रहे- देश में कोई मध्यावधि चुनाव नहीं चाह रहा। यानी ममता बनर्जी महंगाई पर कड़ा रुख दिखाएं, तो भी मनमोहन सरकार की सेहत पर कोई खतरा नहीं। आखिर मुलायम किस दिन के लिए दुकान खोले बैठे। तभी तो कांग्रेस हो या मनमोहन के मंत्री, तेवर ऐसे दिखा रहे, मानो, देश में लोकशाही नहीं, हिटलरशाही चल रही। जब कीमतें बढ़ाईं, तो पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने आम आदमी को भगवान भरोसे छोड़ा। पर शुक्रवार को बेंगलुरु में थे, तो वहीं से गरजे। तेल कंपनियां और सरकार बोझ क्यों सहेंगी। सो कीमतें वापस नहीं लेंगे, भले विपक्ष कितना भी विरोध कर ले। उन ने तो विपक्ष पर देश को गुमराह करने का आरोप लगाया। पर देवड़ा भूल रहे, महंगाई की मार ही इतनी, आम आदमी भला गुमराह होने वाली बातों पर कहां ध्यान दे पाएगा। अब कांग्रेस का बयान देखिए। इधर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने महंगाई पर कुछ मौजूं सवाल उठाए। पूछा- पीएम को सिर्फ तेल कंपनियों की खस्ता हालत दिखती। क्या जनता की खस्ता हालत नहीं दिख रही? सरकार बताए, उसकी प्राथमिकता आम आदमी है या तेल कंपनी? उन ने सोनिया-राहुल से भी सवाल पूछे। महंगाई रोकने में अर्थशास्त्री पीएम क्यों नाकाम हो रहे। पर कांग्रेस का जवाब सुनेंगे, तो आप भी दांतों तले उंगली दबा लेंगे। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी तो गडकरी के किसी सवाल का जवाब नहीं दे पाए। पर गडकरी के कद को बौना बता दिया। कहा- गडकरी का राजनीतिक वजन इतना नहीं, जो इस मंच से जवाब दिया जाए। क्या कांग्रेस की नजर में पद की कोई गरिमा नहीं? अगर यही कांग्रेसी फार्मूला, तो फिर यह सवाल मनमोहन को लेकर भी उठ सकता। शायद कांग्रेस अभी भी उसी परंपरा की गुलाम, जहां कोई प्रधानमंत्री तो हो सकता, पर दस जनपथ से बड़ा नहीं। जो सवाल गडकरी ने पूछे, वह सवाल आज आम आदमी की जुबां पर। फिर भी सरकार और कांग्रेस को सिर्फ उन तेल कंपनियों की माली हालत दिख रही, जिनके कर्मचारी मोटी तनख्वाह-भत्ते पाते। हर साल लाभांश का चैक वित्तमंत्री को सौंपते, फोटू खिंचवाते। पर वह आम आदमी नहीं दिखता, जिसके पेट और पीठ में फर्क करना मुश्किल हो चुका। सो महंगी पड़ी कांग्रेस भले बीजेपी का गढ़ा हुआ नारा। पर आज दिल यह कहने को मजबूर, सचमुच महंगी पड़ी कांग्रेस।
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02/07/2010