Wednesday, January 13, 2010

सुबह कीमत घटाने, तो शाम को बढ़ाने पर चर्चा

'राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है। दुख तो अपना साथी है। सुख है एक छांव ढलती, आती है, जाती है...।'  आम आदमी के लिए अपनी सरकार का यही संदेश। मंगलवार को टली केबिनेट कमेटी ऑन प्राइस (सीसीपी) की मीटिंग बुधवार को हो गई। पर नतीजा दोस्ती फिल्म के गीत जैसा ही। वैसे भी सरकार और आम आदमी के बीच दोस्ती हो। तो चुनावी साल से पहले राहत की उम्मीद ही बेमानी। सो सीसीपी की मीटिंग हुई। तो ऐसा कोई चौंकाऊ फैसला नहीं। जो महंगाई पर हमला बोल सके। अलबत्ता पुराने फैसले रिन्यू हो गए। अब सफेद हाथी बनी चीनी को बिना ड्यूटी आयात करने की छूट। कच्ची चीनी के आयात को पहले ही दिसंबर 2010 तक छूट मिली हुई। खुले बाजार में और भी गेहूं-चावल उतरेंगे। सब्सिडी वाले खाद्य तेलों के वितरण की समय सीमा बढ़कर 31 अक्टूबर 2010 तक। दालों पर दस रुपए की सब्सिडी पुरजोर ढंग से लागू होगी। सीसीपी में कुल 11 बिंदु तय हुए। फिर भी महंगाई की तेरहवीं के आसार नहीं। यूपी की सीएम मायावती ने कच्ची चीनी की प्रोसेसिंग पर रोक लगा रखी। सीसीपी के फैसलों में एक बिंदु यूपी सरकार के लिए भी। पर माया यों ही मान जाएं। तो फिर काहे की माया। सो अब पीएम मनमोहन सिंह सभी चीफ मिनिस्टर की मीटिंग लेंगे। सरकारी प्रेस नोट में तारीख का खुलासा नहीं। यों गणतंत्र दिवस का जश्र मनाकर अगली सुबह शायद मीटिंग हो। पर लानत-मलानत हुई। तो अब 'ज्योतिषी'  शरद पवार का अंदाज भी बदल गया। अब पवार ने खम ठोककर महंगाई को ललकारा। बोले- 'चार से आठ दिन में रोजमर्रा की वस्तुओं की और दस दिन में चीनी की कीमतों पर काबू पा लेंगे।'  पर जरा सोचिए, कैसे काबू में करेंगे महंगाई को मनमोहन और पवार? कहीं वही फार्मूला तो नहीं, जो कल आपको बताया। पहले कीमतें बढ़ा दो। फिर सेल लगाकर तीस फीसदी छूट का ऑफर। यानी गुरुवार को चीनी की कीमत 48 रुपए किलो। तो शायद दस दिन बाद 44 रुपए हो जाए। भले आपको राहत मिले, न मिले। सरकार के लिए तो बड़ी राहत की बात। सो आप 14-16 रुपए किलो वाली चीनी का जमाना गुड़ी-गुड़ी सपने की तरह भुला दें, तो ही आपकी सांस नहीं उखड़ेगी। सो पेट की आग के साथ-साथ सेहत की भी चिंता रखें। पर महंगाई की आदत अभी भी नहीं पड़ी। तो कुछ आसान नुस्खे अपनाइए। शुरुआत में थोड़े पैसे खर्च करिए। एक फर्जी मेडिकल रपट बना खुद को डायबिटिक दिखा दें। गृहणी खुद-ब-खुद चीनी में कटौती कर देंगी। एक लीटर दूध में दो लीटर पानी मिलाएं। दाल-सब्जी रसेदार (रस ट्रांसपेरेंट दिखे) हों। दिल्ली में घर है, तो ठंड के महीने में नहाना बंद कर दें। पानी की बचत तो होगी ही, कांग्रेसी सीएम शीला की बढ़ाई कीमत का बोझ भी कम पड़ेगा। अगर कोई पवार जैसे वजनदार हैं। तो जिम जाने के बजाए कम भोजन करें। यही है अपनी सरकार का महंगाई भगाओ मूल मंत्र। अपने लालबहादुर शास्त्री ने देश की शान की खातिर हफ्ते में एक दिन उपवास की अपील की थी। तो देश की जनता ने शास्त्री जी को सर-आंखों पर बिठाया था। पर मनमोहन राज में कहीं ऐसा न हो, हफ्ते में एक दिन भोजन करने की अपील जारी हो जाए। वैसे भी जनता को महंगाई में जीने में मजा आने लगा। कांग्रेस भी यही समझा रही, अगर महंगाई होती, तो हम चुनाव कैसे जीतते। पर अंदरखाने कांग्रेस को इल्म हो चुका। बिल्ली के भाग्य से हर बार छींका नहीं टूटता। पर महंगाई थामने को भी कोई उपाय नहीं सूझ रहा। सो सीसीपी में तय हो गया- आओ मीटिंग-मीटिंग खेलें। पर सनद रहे, सो बताते जाएं। मंगलवार को सीसीपी की मीटिंग टलने की वजह थी सरकार में एकराय न होना। सो बुधवार को मीटिंग हुई। तो सरकार का एक सुर सामने आया- आओ आम आदमी को मूर्ख बनाएं। सो महंगाई पर अर्थशास्त्री मनमोहन का चेहरा फिर सामने रखा। पर पीएम खुद कूदे, तो भी कोई बड़ा फैसला नहीं हुआ। सो सीएम की मीटिंग में क्या होगा। वही राज्य केंद्र पर और केंद्र राज्य पर ठीकरा फोड़ेगा। जमाखोरों पर कार्रवाई की मांग होगी। पर सवाल वही, मियां अब तक कहां आराम फरमा रहे थे। यों मीटिंग-मीटिंग का खेल भी रिन्यू हो रहा। पिछले टर्म में मनमोहन ने 21 फरवरी 2007 को सभी सीएम को चि_ïी लिखी। तो पिछले एक साल में पीएमओ की ओर से उठाए गए कदमों का जिक्र कर सहयोग मांगा। फिर 17 सितंबर 2008 को गवर्नरों की मीटिंग में भी पीएम ने चिंता जताई। पर महंगाई कम तो नहीं हुई, मनमोहन दुबारा पीएम जरूर बन गए। सो दूसरे टर्म में भी पुराना नुस्खा अपना रहे। पर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। पिछले टर्म में भी महंगाई रोकने को कभी ब्याज दर बढ़ाई। तो कभी पेट्रोल-डीजल के दाम। पर आम आदमी बोझ से दबता ही चला गया। अब दूसरे टर्म का दिलचस्प पहलू देखिए। सुबह सीसीपी की मीटिंग में कीमतें घटाने पर चर्चा हुई। तो देर शाम पीएमओ में पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ाने की। महंगाई घटाने का 'मनमोहिनी अर्थशास्त्र'  भी बहुत खूब। पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा की दलील, तेल कंपनियों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा। सो पेट्रोल की कीमतें बढऩी चाहिए। कीमतों का फैसला भी कंपनियों पर छोडऩे की दलील दे रहे देवड़ा। वैसे सही भी, सरकारी कंपनी बोझ क्यों उठाए। बोझ उठाने का काम तो आम आदमी का। सरकारी कंपनी वालों को मोटी सेलरी-सुविधा भी दो। कंपनियों का खुला खेल फर्रुखाबादी भी करने दो। ----------
13/01/2010