वैसे तो नियम-कायदे ताक पर रखने में अपने नेताओं का कोई सानी नहीं। कायदे बनते बाद में, उसके नुक्स पहले ही निकाल लेते। पता नहीं अपने ही बनाए कायदे कब गले आ पड़ें। सो खतरे के वक्त नुक्स आपातकालीन दरवाजे की तरह काम आते। फिर भी मुसीबत का फंदा कस जाए। तो अपनी संसद, अपनी सरकार। सो खूबसूरत फिल्म का गाना अपनी राजनीति पर मौजूं। फिल्म में सास के अत्याचार के खिलाफ रेखा-अशोक कुमार आदि यह गाना गाते हैं- 'सारे नियम तोड़ दो, नियम पर चलना छोड़ दो। इंकलाब जिंदाबाद।' जब चौदहवीं लोकसभा में लाभ के पद का मामला सुर्खियां बना। जया बच्चन की बर्खास्तगी से लगी आग की आंच सोनिया गांधी तक पहुंची। तो कांग्रेसियों को लगा, प्रलय आ गई। सो सोनिया ने सांसदी छोड़ नैतिकता का ढोल पीटा। दो सत्र के गैप में ही दुबारा चुनकर लोकसभा लौट आईं। इधर मनमोहन ने भी रेवड़ी तैयार कर लीं। सो पलक झपकते ही लाभ के पद का बिल पास हो गया। जिन-जिन पदों में लाभ की गुंजाइश दिखी, सारे पद कानून से राहत पा गए। तभी तो सोमनाथ चटर्जी को भी सांसदी नहीं छोडऩी पड़ी। सरकार ने विपक्ष से भी लाभ के पद की लिस्ट मांग ली। पर विपक्ष ने नैतिकता दिखा लिस्ट नहीं दी। तबके राष्टï्रपति कलाम ने बिल को देश के लिए एक समान न बता संसद को वापस लौटा दिया। तो कांग्रेसियों को शर्म नहीं आई। अलबत्ता कलाम को ही चुनौती देने लगे। अगले सत्र में वही बिल जस का तस फिर भेज दिया। पर भला हो भैरोंसिंह शेखावत का। जिन ने बीच-बचाव कर देश को संवैधानिक संकट से बचा लिया। कलाम और सरकार के बीच शेखावत ने नया रास्ता निकाला। इधर संसद ने लाभ के पद पर सुधार के लिए जेपीसी गठित की। उधर कलाम ने बिल को मंजूरी दे दी। यानी जब बात नेताओं के अपने फायदे की हो। तो कायदा-कानून गया भाड़ में। अब महंगाई पर बहस की बात हुई। तो नेताओं ने आम आदमी के हित की चिंता को नियम-कायदे के पेच में उलझा दिया। वैसे भी आम आदमी का पेट कोई नेशनल एडवाइजरी काउंसिल का दफ्तर नहीं। जो सरकार आनन-फानन में उपाय ढूंढ ले। याद है ना, सोनिया इसी एनएसी की मुखिया थीं। लाभ के पद विवाद में यही पद छोडऩा पड़ा था। अब एनएसी समेत कई ऐसे पद, जिन पर बैठ सांसद दोहरा लाभ उठा सकते। आखिर सांसद कोई ऐरा-गैरा तो होता नहीं। लाखों की जनता ने आंखों का नूर बना सिर पर बिठाया। सो बोझ उठाना उसी जनता की मजबूरी। नेताओं का क्या, वह तो सरकारी आवास में सरकारी भोजन का लुत्फ उठा सरकारी खर्चे पर ही सैर-सपाटा कर रहे। यानी नेताओं के लिए महंगाई तो जाके पैर न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई वाली कहावत जैसी। सो पहले दिन ही संसद पर भारी पड़ी महंगाई। अब तो ऐसी रार ठन चुकी। रेल बजट, आम बजट को छोड़ बाकी दिन शायद हंगामे में ही गुजरें। विपक्ष को सिर्फ कामरोको प्रस्ताव के तहत बहस चाहिए। तो सरकार में इतना बूता नहीं, जो महंगाई पर वोटिंग का जोखिम उठा ले। महंगाई पर वाकई पहली बार विपक्ष की ऐसी एकजुटता दिखी। जब वैचारिक मतभेद भुला लेफ्ट-बीजेपी-सपा-बसपा-आरजेडी सुर में सुर मिला रहे। अंदरखाने सत्तापक्ष के दो बड़े घटक ममता और करुणानिधि भी महंगाई पर त्यौरियां चढ़ा चुके। सो सरकार को डर, कहीं वोटिंग में विपक्ष से हारे। तो जनता को क्या मुंह दिखाएंगे। महंगाई ऐसी विकराल, हारने पर इस्तीफे का नैतिक दबाव बढ़ जाएगा। सो संसदीय कार्यमंत्री पी.के. बंसल से लेकर खुद प्रणव दा तक। साफ कर दिया, सदन के नियम सांसदों ने ही बनाए। सो नियम से ही काम होगा। बंसल की दलील, कामरोको प्रस्ताव हाल के गंभीर विषयों पर लाए जाते। महंगाई तो लंबे समय से चली आ रही। सो सामान्य चर्चा ही होगी। वाकई यूपीए के पहले टर्म में सात बार, दूसरे टर्म में एक बार महंगाई पर बहस हो चुकी। पर महंगाई नहीं रुकी। विपक्ष की नई नेता सुषमा स्वराज ने सदन में परिचय के बाद यही दलील दी। तो सरकार नियमों में महंगाई को बांधने की कोशिश कर रही। कौन नहीं जानता, जब नियम 193 के तहत चर्चा होती। तो सदन में कोरम के भी लाले पड़ जाते। अगर कामरोको प्रस्ताव में चर्चा होती। तो समूची मीडिया और देश की निगाहें टिक जातीं। नियमों के फेर में गंभीरता का पुट होता। पर कांग्रेसी और सरकार उल्टा चोर कोतलाव को डांटे की मुद्रा में। विपक्ष को हंगामाई साबित करने में जुटी। महंगाई को सामान्य मुद्दा बता रही। सो गुरुदास दासगुप्त ने सवाल पूछा। क्या कामरोको प्रस्ताव लाने के लिए बसें जलानी पड़ेंगी? वाकई अपनी सरकार शायद हिंसा की भाषा ही समझती। क्या महंगाई पर संसद में बहस के लिए दासगुप्त का ही फार्मूला अपनाना पड़ेगा? नक्सलवादी जब हिंसा का तांडव मचा रहे। तो सरकार बातचीत को तैयार हो रही। पर जब नक्सलबाड़ी में असमानता से नक्सलवाद का बीज पनपा। तब सरकार खामोश बैठी रही। यों नक्सली जो कर रहे, लोकतंत्र में जायज नहीं। पर महंगाई का हाल भी कुछ वैसा ही। देश के तेरह अमीर मंदी के दौर में अपनी संपत्ति ढाई गुनी कर गए। पर बीस रुपए दिहाड़ी पर जिंदगी जीने वाली 77 फीसदी आबादी महंगाई के बोझ तले पिस गई। तो क्या संसद या सरकार महंगाई से पिसी आम जनता की फिक्र तभी करेगी। जब सड़कों पर बसें जलेंगी, चौतरफा हंगामा बरपेगा? क्या सड़कों पर हिंसा ही कामरोको प्रस्ताव का आधार? क्या पेट की आग अपनी संसद और सरकार के लिए गंभीर मुद्दा नहीं? ----------
23/02/2010
Tuesday, February 23, 2010
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